शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

गुज़रे दौर में स्क्रीन-शॉट, ऑडियो-रिकार्डिंग के बिना काम कैसे चलता था..!

आज की पोस्ट लिखने से पहले यह साफ़ कर दूं कि ऑडियो-रिकार्डिंग करने वाले लोगों से मुझे बड़ा डर लगता है ....यह सीधा सीधा पीठ में छुरा घोंपने वाली बात है ... मेरी आब्ज़र्वेशन यही कहती है कि पढ़े लिखे लोग इस के बारे में कुछ कहते नहीं अकसर, और कम पढ़े-लिखे लोग शेखी बघारते हुए किसी से फोन पर हुई बात की रिकार्डिंग बडे़ चाव से सुनते दिखते हैं...

मेरा ख्याल है कि इस से घटिया काम कोई हो ही नहीं सकता...मैंंने कभी फोन पर यह फीचर ढूंढने की कोशिश ही नहीं की ...क्योंकि मुझे नहीं करनी यार किसी के फोन की कोई रिकार्डिंग ...बहरहाल, आज मुझे यह सब ऐसे याद आ गया कि लोग कईं बार किसी पोस्ट का स्क्रीन-शॉट रख लेते हैं ...इस का भी कोई फायदा तो है नहीं, ऐसे ही अपने दिमाग पर बोझ डालने वाली बातें हैं...

ये तो हो गई आज के दौर की बातें ...गुज़रे ज़माने में भी लोगों ने अपने इंतजाम कर रखे थे ... 40-50 साल पहले भी ख़तो-किताबत का दौर था ..तो ऐसा नहीं था कि सब कुछ चंगा-चंगा ही चलता था ...ख़तों में भी लोग कभी कभी ऐसी बातेें लिख देते थे जो किसी को चुभ जाती थीं....किसी को क्या चुभ जाती थीं, सारे कुनबे को चुभ जाती थीं ...क्योंकि पहले ख़त घर में किसी एक के लिए नहीं, पूरे परिवार के लिए होते थे ...बारी बारी से सभी उन को पढ़ते थे ...

क्या हुआ कि कभी किसी फुफ्फड़ ने कोई हल्की बात लिख दी ...किसी पढ़ी-लिखी मामी ने कहीं अपना ज्ञान झाड़ दिया....क्या था न, उस दौर के लोगों के अहसासात (इमोशन) बहुत मजबूत हुआ करते थे ...किसी की बात को जल्दी भूलते नहीं थे, आज कल तो हम जैसे शुदाई से हुए पड़े हैं....सारा दिन वाट्सएप पर चिपके दिन भर कुछ न कुछ लिखते रहते हैं, कोई पढ़े चाहे न पढ़े, कोई जवाब दे या न दे, फिर कुछ वक्त बाद अपने ही लिखे को पोंछ देते हैं....लेकिन पहले ऐसा कहां था, एक चिट्ठी डाक पेटी के हवाले करने का मतलब तीर आप के कमान से तो निकल गया, अब वह अपना काम कर के ही दम लेगा .... 😎... 

हां, तो आज कल लोग स्क्रीन-शॉट रख लेते हैं कुछ पोस्टों के या ये सब ऑडियो-वॉडियो के चक्कर में पड़ जाते हैं ...पहले ऐसा कुछ न था, अगर ख़त में लिखी किसी की बात हल्की लगी तो पढ़ कर मूड खराब सब का होता ...फिर यह सोचा जाता कि इस में जवाब में क्या कहा जाएगा....लेकिन अकसर बात को इतना तूल नहीं दिया जाता था, ,,अपने आप ही में लोग घुटते रहते थे ..हां, किसी शादी-ब्याह पर या जन्म या मृत्यु पर जब ख़ानदान के लोग मिलते थे तो कईं बार उलाहना दिया जाता, दूसरे सगे-संबंधियों को यह बताया जाता दबी आवाज़ में कि फुफ्फड़ ने सुनो क्या लिख दिया ख़त में ...करना वरना किसी ने क्या होता था, ऐसे ही तमाशबीनी तब भी थी, आज भी है, पहले लोग परवाह करते थे कुछ तो, आज कल कमबख्त सभी इतनी घमंड़ी हो गये हैं कि किसी को किसी की परवाह ही नहीं, बस बहाना ढूंढते हैं किसी से बात न करने का  ...उलाहने यह भी दिए जाते कि भई मौसा तो जवाब ही नहीं देता खत का...चाचा भी नहीं देता ...पांच खत लिखो तो कहीं जाकर जवाब में एक खत आता है ...

हां, अगर किसी की लिखी हुई कोई बात चुभ जाती तो उस चिट्ठी को संभाल कर अलग रख लिया जाता ताकि उसे बार बार अगले कईं बरसों तक पढ़ा जा सके ...और ज़रूरत पढ़ने पर दूसरे सगे-संबंधियों को प्रूफ के तौर पर दिखाया भी जा सके...

अभी मुझे लिखते लिखते ख्याल आ रहा है कि कारण कुछ भी रहे हों ...हमारे पापा की उम्र के लोगों को हिंदी नहीं आती थी, वे उर्दू और इंगलिश जानते थे ...इसलिए वे अपने भाईयों के साथ ख़तोकिताबत उर्दू में करते थे, और बहुत बार इंगलिश में भी ...अमूमन हमारे घर चिट्ठीयां हिंदी में ही आती और हिंदी में ही उन के जवाब लिखे जाते ...आज मुझे इस बात का अहसास हो रहा है कि यह भी एक अजीब बात थी, हमारी मातृ-भाषा पंजाबी, कोई भी इंसान अपनी मातृ-भाषा के अलावा किसी भी ज़ुबान में अपने जज़्बात उतने अच्छे से नहीं रख सकता ...जितना कि वह खुल कर अपनी बात अपनी मां-बोली भाषा में कह सकता है ....खैर, चलिए जो था, जैसा था, चल रहा था ख़तों का आना-जाना ...अब तो हमने उस टंटे से भी निजात पा ली है ...न किसी को कुछ लिखो, न कोई आप को कुछ लिखो ....सारा दिन वाट्सएप के फारवर्डेड संदेशों में गुम रहो ....बस टिकटॉक पर टिके रहिए...😃😂

ऐसा कहते हैं न कि अगर किसी में कोई कमी रह जाती है तो ईश्वर उस की कहीं न कहीं भरपाई तो कर ही देता है ...ऐसा ही उस दौर के लोगों के साथ था...फोन न थे, बार बार मिलना जुलना इतना आसां न था, ले देकर ख़त ही बचते थे ..इसलिए वे हाथ से लिखे हुए ख़तों में जैसे अपना दिल खोल दिया करते थे ...सोच समझ कर लिखते थे अकसर .. अपने मन की बात चंद अल्फ़ाज़ में दूर दराज बैठे परिवार के लोगों तक पहुंचा ही देते थे ....मैं बहुत बार कहता हूं न कि अगर किसी के पास कुछ नहीं भी है न लिखने के लिए तो भी वह बस कागज़ कलम लेकर बैठ जाए ....पता नहीं कहां कहां से बातें याद आने लगती हैं ...मुझे अभी याद आ रहा है पिछले से पिछले रविवार को रेेडियो पर दो बीघा ज़मीन की स्टोरी सुना रहे थे ...बाईस्कोप की बातों में ...उसमें कुछ चिट्ठीयों का आदान प्रदान भी होता है परिवार में ...सच कह रहा हूं उन चिट्ठीयों को सुनते हुए कोई भी बंदा हिल जाए, ऐसी चिट्ठीयों का ज़िक्र था उस स्टोरी में  ...

अच्छा, एक बात और भी थी, अकसर लोग बड़ी गैरत वाले थे .. किसी को चिट्ठी लिखी ..एक दो ...तीन ...बस, फिर नहीं लिखते थे ...फिर तो जब किसी जीने-मरने पर मुलाकात होती तो उस की खिंचाई होती थी कि जवाब क्यों नहीं देते ...लेकिन तब भी बहाने बनाने वाले अपने फ़न को बखूबी जानते थे ...

बुधवार, 19 जनवरी 2022

कान की सफाई वाले नीम-हकीम

कान की सफाई किसी ईएनटी क्लीनिक में जाकर करवाने का कोई ख़ास चलन है नहीं इस मुल्क में ...हमें भी जब बचपन में ...बचपन क्या, 18-20 साल की उम्र तक जब भी कान में खारिश होती तो मां कहती कि सोने से पहले कान में सरसों का तेल डाल दूंगी गर्म कर के ...और अगर थोड़ा दर्द-वर्द भी होता, तो उस गर्म तेल में लहसून की तुरीयां एक दो डाल दी जातीं ...फिर जो काला सा तेल तैयार होता,  कान की संजीवनी की तरह रात में सोते वक्त दोनों कानों में दो दो चार चार बूंदे उस तेल की उंडेल दी जाती और साथ में दोनों कानों में थोड़ी थोड़ी रूई भी ठूंस दी जाती ...ताकि तेल बाहर न निकल जाए ....और शायद सिरहाने को खराब होने से बचाना भी इस का मक़सद रहता होगा....आज वह सब याद आता है तो दिल सिहर जाता है कि वे सब कितने खतरनाक कारनामे थे ....

फिर थोड़ी सी समझ आने लगी तो दियासिलाई से, लेड-पैंसिल से ... स्वेटर बुनने वाली सिलाई से ....थोड़ी बहुत एहतियात से कान की खुजली शांत की जाने लगी ...मैल निकल आए तो ठीक, नहीं निकले तो भी कोई टेंशन नहीं, बस, यह सब करते हुए कान से खून निकल पड़े तो फिर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ता था...पहले तो घर में हरेक से डांट फटकार खाओ और बाद में ईएनटी विशेषज्ञ के गुस्से को झेलो...जहां तक मुझे याद है हम बचपन में कान में छोटी छोटी स्लेटी भी डाल कर कुछ न कुछ तो करते थे ...और कईं बार वह अंदर टूट भी जाती थी ...जब, दुनिया की नज़रों में हम समझदार हो गए तो कान में जमी हुई वेक्स को पिघलाने के लिए दो बूंदे दवाई की डालने लगे ..लेकिन फिर भी उस के बाद भी ईएऩटी विशेषज्ञ के पास जाने से परहेज ही किया ....

ईमानदारी से सोचता हूं तो लगता है कि फुटपाथ पर जो लोग किसी कान के नीम-हकीम कारीगर से कान का इलाज करवाने लगते हैं हम अपने आप को ज़्यादा बुद्धिजीवि कहने या समझने वाले लोग भी उन के मरीज़ों से थोड़ा सा ही कम हैं ....यह ठीक है, हम उन के पास नहीं जाते लेकिन विशेषज्ञ के पास भी तो हम तब तक नहीं जाते जब तक जान पर ही नहीं पड़ आती...है कि नहीं ?

खैर, ये जो मुझे फुटपाथों पर अलग अलग इलाकों में कान साफ करने वाले मजदूर दिखते हैं ...इन के अनुशासन से मैं बहुत मुतासिर हूं ... इस की टोपी या इन का ड्रेस-कोड बड़ा कड़क है ...दूर ही से इन के मरीज़ इन को ताड़ लेते हैं ... लेकिन आज लिखते लिखते यह ख्याल आया कि इलाकों के मुताबिक ही इन की वेश-भूषा भी होती है ... यानि ड्रेस-कोड...

कुछ दिन पहले जब कोविड़ के बहुत से केस हो रहे थे तो कान की सफाई जैसे गैर-ज़रूरी (दूसरे किसी इलाज की तुलना में) काम बड़े अस्पतालों में होने बंद थे ... ऐसे में इन नीम हकीमों की पौ-बारह थी ...किसी पेड़ के नीचे अपने शिकार को लेकर बैठे ये अकसर दिख जाते थे ...एक दिन तो मुझे एक पढ़ा-लिखा बंदा किसी ऐसे ही कारीगर के शिकंजे में पड़ा दिख गया ....हैरानी हुई ...वह बंदा इतने इत्मीनान से अपने कानों का इलाज करवा रहा था कि क्या कहें ....

यह खड़े खड़े कान की सफाई वाला कारनामा मैंने शायद ही पहले कभी देखा हो ...मैं यही सोच रहा था कि नीम हकीम सोच रहा होगा ....चुनाव की आंधी चल रही है, रैलीयां हो रही हैं, और इसे अभी कान की सफाई का ख्याल आया है ...!!

दो तीन दिन पहले की बात है कि यह मंज़र दिखाई दिया ....फोटो ले ली ...लेकिन खड़े खड़े इस तरह से कान साफ़ करवाना तो ज्यादा ही जोखिम वाला काम लगा ...वैसे तो इन नीम हकीमों के हाथों को कान पर लगवाना ही खतरे से खाली नहीं है ...अगर कान का परदा इन से न भी फट पाए तो भी ये ऐसी ऐसी बीमारियां (संक्रमण) फैलाने के बाइस हो सकते हैं ...हो सकते क्या, होते हैं ...जो जानलेवा भी हो सकती हैं। और अगर कान का परदा फट जाए तो उस के क्या नतीजे निकलते हैं, उस के बारे में न ही जानिए तो अच्छा है, जानिए तो बस आप इतना ही कि रास्ते में आते जाते ऐसे नीम हकीमों के शिकार मत बनिए...

इस तरह का सस्ता इलाज हमेशा सेहत के लिए खतरनाक तो होता ही है ....ज़ूम कर के देखा दस दस के तीन सिक्के भी दिख गए ... मुझे ऐसे लगा जैसे कान का कारीगर उसे यह कहना चाह रहा हो कि इतने पैसों में तो तेरा कहीं केस-पेपर भी न बन पाता ...और तुमने चंद सिक्कों में ही परेशानी से छुटकारा पा लिया............(वैसे यह तो वक्त ही बताएगा, छुटकारा पा लिया या कोई मुसीबत मोल ले ली!!) 

मैं वहां कुछ पल ही रूका ....इतने में मरीज़ ने कान के इस मजदूर को कुछ सिक्के दिए ...मुझे भी बेवजह की उत्सुकता की बीमारी है ..मैंने फोटो तो खींच ली ...लेकिन जैसे ही मरीज़ चलने लगा तो उस से पूछे बिना रह न सका कि कितने पैसे लेते हैं कान की सफाई के ...उसने बताया कि तीस रूपये ... कईं बार बंदा कितनी बेवकूफी की बात कर देता है ...लेकिन अपने साथ यह कभी कभी नहीं, अकसर ही होता है ...जब मैंने उसको अगला सवाल दाग दिया ...दोनों कानों की सफाई के!! चलते चलते उसने कह तो दिया कि हां..लेकिन मुझे पता है वह मन ही मन मेरा सवाल सुन कर क्या सोच रहा होगा ...किस बारे में ?- मेरे बारे में ही, और क्या!!

अभी नींद आ रही है ...सोने से पहले मेरा यह संदेश है कि कान ही नहीं, दांतों की भी सफाई आज कल फुटपाथ पर लोग करने करवाने लगे हैं, आंखों में तरह तरह के अंजन-सुरमे एक ही सुरमचू से डलवाने लगे हैं ...पैरों की ब्याईयां, नाखूनों के इलाज सभी फुटपाथ से करवाने लगे हैं .......लेकिन यह सब खतरनाक काम है, बच कर रहिए....

सडकें, फुटपाथ, गलियां बुरी नहीं हैं ...जीवन के दर्शन वहीं होते हैं .... लेकिन बस दर्शन तक ही ठीक है, किसी के झांसे में, बहकावे में मत आइए....याद रखिए....वह पुरानत कहावत ...नीम हकीम खतराए जान....और हां, सड़क की बात हुई ...फुटपाथ की बात हुई तो सोने से पहले आप भी आशा फिल्म का यह सुपर हिट गीत सुनिए ...इसमें जो छोटा बच्चा नाच रहा है, वह रितिक रोशन है ...यह फिल्म उस के नाना ने बनाई थी ... क्या नाम था उन का ... जे ओमप्रकाश, निर्माता-निर्देशक...

ख़तो-किताबत वाले दिनों की यादें ....

यादें...यादें...यादें ....ख़तो-किताबत की दुनिया की पचास साल पुरानी यादों की गठरियां हैं मेरी उम्र के लगभग सभी लोगों के पास...कुछ लोग इन से जुड़े अपने जज़्बात ब्यां कर पाते हैं, कुछ नहीं कर पाते ...इस से कुछ फ़र्क नहीं पड़ता...कुछ लिख कर न सही, सुना कर अपनी यादें ताज़ा कर लेते हैं ...

आज दो तीन बातें सोच रहा हूं लिख कर दर्ज कर दूं ..इससे पहले कि मैं भूल जाऊं...मेरा ननिहाल अंबाला में था...अमृतसर से जब मैं अपनी मां के साथ स्टीम इंजन वाली गाड़ी में बैठ कर अंबाला पहुंचता तो बहुत मज़ा आता...भौतिक सुख-सुविधाओं से उन दिनों घरों को नहीं आंका जाता था ... प्यार ही प्यार था ... मेरे नाना जी ट्यूशन पढ़ाते थे ...80-82 साल की उम्र तक ट्यूशन पढ़ाते रहे ...रीडर-डाइजेस्ट पढ़ते थे ...रात के वक्त रेडियो पर खबरें सुनने के लिए उस के बटन घुमाते रहते ...लेकिन हमने तो कभी उस रेडियो को कोई भी स्टेशन पकड़ते देखा नहीं ...अब पता नहीं रेडियो में खराबी थी या किस्मत में ...वैसे आज से 50 साल पहले रेडियो पर कोई स्टेशन लग जाना किसी छोटी मोटी लॉटरी लगने से कम न था ...और हां, मैं यह तो बताना भूल ही गया कि मैं रात में 12-1 बजे उठ कर अपनी नानी से चीनी वाले परांठे खाने की ज़िद्द करने लगता ...मां कहती सुबह खा लेना..लेकिन नहीं, नानी उसी वक्त उठ कर स्टोव जला कर बड़े बड़े चीनी के परांठे मुझे खिला कर ही दम लेती ....

हां, बात तो करनी थी हमारी नानी के घर डाइनिंग टेबल के पास क्राकरी वाली अलमारी के साथ ही लगे एक कील की ...और उस पर लोहे की सीख को मरोड़ कर उस में पिरोए ढेरों खतों, बिजली-पानी के बिलों की ....न वहां कोई रेडियो होता था, बाद में टीवी भी था, लेकिन वह भी हमेशा खराब ही नज़र आता था...ऐसे में बहुत बार हम उस तार में संभाल कर रखे हुए ख़तों को ही पढ़ने लग जाते ...हमारे लिए यही साहित्य था ...यही लिटरेचर था ....जितने पढ़े जाते या जितने देखे जाते देख लेते, बाकी के फिर से उस लोहे की तार में पिरो कर टांग देते ...क्योंकि सारे घर में वह तार पर टंगे हुए कागज़ात ही सब से ज़रूरी दस्तावेज हुआ करते थे ..बाकी, किसी को पता भी न था कि कोई प्राईव्हेसी नाम की चीज़ भी होती है ....सब कुछ खुला पड़ा रहता था, सब लोग मिल कर खुली बातें करते थे ...किसी से कुछ भी छुपा हुआ नहीं होता था...

मैं शायद अपने किसी ब्लॉग में लिखा था कि ख़त तो अब एंटीक की तरह हो गये हैं ...आज ही क्यों आज से 25-30 साल पहले ही हम ने जो ख़त वत लिखने थे लिख लिए ....अब कहां लिखते हैं हम लोग ख़त ...पहले सब कुछ फोन पर हो जाता था, अब बहुत कुछ वाट्सएप पर निपट जाता है, जो रह जाता है, वह फोन पर निपटा दिया जाता है ...लेकिन यकीन मानिए आज की गुफ्तगू से रूह गायब है ...सब कुछ सतह पर होता था, गहराई बिल्कुल नहीं है ...बहुत से कारण हैं, हम सब जानते हैं ...मैं तो एंटीक की दुकानों पर जाता रहता हूं ...वहां पर मुझे पचास-साठ साल पुराने ख़त देख कर बडी़ हैरानी हुआ करती थी किसी ज़माने में ...अब नहीं होती ...एक एक पोस्टकार्ड पचास रूपये में बिकते देखा है ...खरीद तो मैंने भी बहुत कुछ रखा है ...लेकिन उस की नुमाइश करने की कभी ज्यादा इच्छा हुई नहीं ... बस, ये सब चीज़ें दिल की तरंगों को झंकृत करती हैं जब भी इन को निहारता हूं ...

कल वाट्सएप पर मुझे कहीं से 45-46 साल पुराना एक ख़त मिला ... लेकिन उस ख़त को पढ़ते मज़ा आ गया ...उस से लिखने वाले के अहसास जैसे उस कागज़ पर खुदे हुए थे ...ख़त लिखने वाले ने लिखा था कि अब उस से और ज़्यादा लिखा नहीं जा रहा, उस के आंसू नहीं थम रहे हैं....मुझे भी वह ख़त ने बड़ा भावुक कर दिया ... लेकिन होता था लोग पहले ख़तों में ऐसी ऐसी दिल की बातें लिख दिया करते थे जो आज वाट्सएप के ज़माने में सोच भी नहीं सकते ...यह जो मैं 45-46 साल पुराने खत की बात कर रहा हूं इस ख़त ने बहुत सी यादें ताज़ा कर दीं ...

ख़तों के बारे में मैं अकसर अपने ख्याल लिखता रहता हूं इस ़डॉयरी नुमा ब्लॉग में और नीचे गीत भी वही बार बार लगाता रहता हूं ....डाकिया डाक लाया ....डाकिया डाक लाया ....लेकिन आज सोच रहा हूं इस रिकार्ड को भी थोडा़ बदल ही दूं ...चलिए, सुनते हैं ..