मंगलवार, 2 नवंबर 2021

दर्पण झूठ न बोले...

सच बात है कि दर्पण झूठ नहीं बोलता....वो बात अलग है जब वह हमारी पसंद मुताबिक हमारी तस्वीर दिखा नहीं पाता, सफेद बाल, झुर्रियां जब दिखाने लगता है तो हम उसे कोसने लगते हैं...है कि नहीं....

आज मेरे बड़े भाई ने मेरे साथ दर्पण फिल्म का एक गीत शेयर किया जिस का लिंक मैं यहां नीचे लगा रहा हूं ...आप इस पर क्लिक कर के उसे सुन सकते हैं...आनंद बख्शी की कलम का जादू है ...वे इस के गीतकार हैं ...

भाई ने मुझे कहा कि वह जो तपस्या फिल्म का भी जो गीत है न ...कभी पेड़ का साया, पेड़ के काम न आया...उस गीत में जब ये लाइनें आती हैं न ...तेरी अपनी कहानी यह दर्पण बोल रहा है, भीगी आँख का पानी हक़ीक़त खोल रहा है ...जब वह इस गीत के सुरों में डूबे हुए थे तो उन्हें दर्पण फिल्म पर और भी कुछ गीत याद आने लगे...

दर्पण चीज़ ही ऐसी है ...भाई को दर्पण से गीत याद आ गए ...हमें तो बचपन ही याद आ गया....जब हम लोग बिल्कुल छोटे थे तो घर में एक शीशा होता था जो सारे कुनबे के बालों पर कंघी करने के काम में आता था...और एक छोटा सा शीशा था जिसे पापा अपनी दाढ़ी बनाते वक्त रज़ाई पर ही रख लिया करते थे...और हां, मां के पास भी तो एक बिल्कुल छोटा सा था अपना शीशा हुआ करता था..यह शीशा कोई अलग न था, एक गोल पावडर की डिब्बी में ही फिक्स हुआ रहता था, जिसे मां अकसर ट्रेन में यात्रा करते वक्त अपने पर्स में रख तो लेती लेकिन हमने मां को कभी ट्रेन में इसे इस्तेमाल करते नहीं देखा...कभी कभार किसी शादी ब्याह में ज़रूर वह इस पावडर की डिब्बी को इस्तेमाल ज़रूर कर लेती....उन्हें वैसे भी कासमेटिक्स का बिल्कुल भी शौक न था...

लिखते वक्त कैसे पुरानी पुरानी बातें याद आने लगती हैं...अच्छा, एक भ्रांति थी, थी या है, ख़ुदा जाने ...आज कल तो लोग अपने अपने पिंजरों में क़ैद रहते हैं, किसी फ़ुर्सत है छोटी छोटी बातें करने और सोचने की ...हां, तो भ्रांति यह थी कि अगर मैंने किसी आसपास के बच्चे को या अपने ही बेटे को आइना दिखा दिया तो बडे़-बुज़ुर्ग टोरक देते थे....न कर वे, ओहनूं टट्टीयां लग जानीयां ने ...(इसे शीशा मत दिखा, उसे जुलाब लग जाएंगे)...मुझे तो कभी यह लॉजिक समझ में आया नहीं....कि आईने और जुलाब का यह कैसा रिश्ता है ....और यह बात भी याद आ गई कि कैसे जब हम लोग आठवीं-नवीं कक्षा तक पहुंचते पहुंचते आइने में अपना चेहरा बार बार देखने लगते हैं ....और पुराने दौर में लोग तब उस तरूण का मज़ाक उड़ाने लगते कि देखो, इसे हवा लग रही है....देखते जाओ। 😎ये जो आदमकद शीशे, ये जो ड्रेसिंग टेबल हैं न, ये भी हर घर में कहां होते थे...लेकिन जब इस तरह की चीज़ें घर के लिए खरीदी जातीं तो बहुत अच्छा फील होता था...कईं महीनों, बरसों तक कंघी करने का मज़ा कईं गुना न भी सही, कम से कम दो गुना तो हो ही जाया करता। 

और कुछ गीत जो भाई ने लिख भेजे ...दर्पण पर ...दो तो यही हैं...इन में से किसी पर भी क्लिक कर के आप इन्हें देख-सुन सकते हैं...

तोरा मन दर्पण कहलाए...तोरा मन दर्पण कहलाए...भले बुरे सारे कर्मो को देखे और दिखाए... (फिल्म- काजल, गीतकार- साहिर लुधियानवी) 

दर्पण झूठ न बोले...जो सच था तेरे सामने आया ( दर्पण फिल्म - गीतकार ...आनंद बख्शी) 

दर्पण पर मुझे जो मेरे पसंदीदा गीत याद आ गए वे ये रहे ....

मैं वही दर्पण वही....सब कुछ लागे नया नया .... (फिल्म- गीत गाता चल... गीतकार ...रविन्द्र जैन) 

आईना वही रहता है, चेहरे बदल जाते हैं...(फिल्म- शालीमार -1978- आनंद बख्शी) 

शीशा हो या दिल हो , आखिर टूट जाता है ...(फिल्म-आशा- 1980- आनंद बख्शी) 

मुखड़ा न देखो दर्पण में ...झांको ज़रा मेरे मन में ...(फिल्म- अपना देश- 1972 के गीत ...कजरा लगा के, गजरा सजा के..) गीतकार ...आनंद बख्शी..

भाई का मशविरा है कि दरअसल ये जो सीटी, एमआरआई और एक्स-रे, वैक्स-रे हैं, इन का नाम भी कुछ दर्पण, आईना, शीशे जैसे होना चाहिए क्योंकि वे कह रहे हैं कि ये सब टेस्ट भी कोई कम नहीं हैं...एक आईना ही तो हैं, दूध का दूध पानी का पानी कर देते हैं....और सच सामने ले कर आ जाते हैं....बंदा चाहे हंसे या रो ले...

बात है भी कितनी सही...सच में, हम लोग दुनिया भर के फ़ैसलों को चेलेंज कर लेते हैं, अपनी धन-दौलत और रुतबे का रूआब दिखा कर...ये हम सब देखते ही हैं ...कोई छिपी बात नहीं है ...लेकिन मैं एक बार हमेशा यही कहता हूं कि डाक्टर लोग ही ऐसे हैं, इन की पारखी निगाहें जब कुछ देख लेती हैं, ताड़ लेती हैं और जब ये इन एक्सरे, सीटीस्कैन, एमआरआई रूपी आइने में मरीज़ की तस्वीर देखते हुए अपनी क़लम से अपना फ़रमान लिखते हैं ....उन को कभी कोई चेलेंज नहीं कर पाया, है कि नहीं...इसलिए मैं कहता हूं कि डाक्टर अगर अल्ला, ईश्वर, गॉड न भी हों तो कम से कम उस के भेजे हुए उस के मैसेंजर ज़रूर हैं, जैसे फिल्मों के गीत भी उस ख़ुदा के भेजे बंदे हैं, जिन का मक़सद है आवाम को अपनी अल्फ़ाज़ के ज़रिए रास्ता दिखाना ...

रविवार, 31 अक्तूबर 2021

फिल्मी दुनिया, फिल्मी कलियां, मायापुरी अब नहीं भी मिलतीं तो क्या !

कुछ याद आया? ...मेरे हम उम्र लोगों को तो ज़रूर कुछ कुछ याद आया होगा कि ये नाम उन फिल्मी मैगज़ीन के हैं जिन के साथ साथ हम बड़े हुए हैं...जैसे आजकल की पीड़ी को नेटफ्लिक्स के किसी शो के अगले सीज़न का इंतज़ार रहता है, हम अकसर इन फिल्मी रसालों के अगले मासिक अंक के आने का इंतज़ार किया करते थे...खरीदते तो शायद मायापुरी ही थे दुकान से (यह 25पैसे की मिल जाती थी, हर सप्ताह नईं आती थी), पर जब तक किताबों की दुकान पर खड़े खड़े दो-तीन दूसरी फिल्मी रसालों के पन्ने न उलट-पलट लेते तो जैसे सुकून न मिलता था। 

और हां, नाई की दुकान पर जब हजामत करवाने जाते तो उसने दुकान की चूने की दीवारों पर हेमा मालिनी से लेकर सायरा बानो ...और धर्मेन्द्र से लेकर राजकुमार तक के पोस्टर पुरानी किसी मायापुरी से फाड़ कर आटे की लेवी के साथ चिपकाए होते ...मुझे हज्जाम की हाथ से चलने वाली मशीन से बडा़ डर लगता था, कमबख्त वह तेज़ नहीं थी, खूंडी थी...बाल ऐसे काटती थी जैसे नोच रही हो, आंसू गिरते गिरते रुक जाते थे जब इन फिल्मी पोस्टरों की तरफ़ नज़र जाती थी...और उस के बाद पापा हलवाई की दुकान पर हमेशा ताज़ी बर्फी का एक छोटा लिफाफा ज़रूर दिला देते थे... 

बहुत कम ही होता था कि इंगलिश में छपने वाले मैगज़ीन खरीदते थे ...नौकरी लगने पर तो फिर भी खरीद ही लेते थे..लेकिन उस से पहले ये सब सिने-ब्लिट्ज़, स्टॉर-डस्ट, फिल्म-फेयर किसी लाइब्रेरी से लेकर देख लेते थे, और बहुत सालों तक तो किराये पर ले आते थे...पहले यही कुछ 50 पैसे किराया होता था एक मैगज़ीन का ..फिर आगे चल कर एक रूपया और 1980 के दशक के जाते जाते दो-तीन रूपये भी रोज़ के देने पड़ते थे ...इस तरह की लाइब्रेरी का सीधा फंडा था कि जितनी मैगज़ीन की कीमत है उस का दस-फीसदी तो रोज़ का किराया लेते ही थे...वे दिन भी क्या दिन थे, अच्छे से ...पढ़ने की आदत थी, कुछ न कुछ लोग पढ़ते रहते थे, नावल, फिल्मी रसाले, कोई धार्मिक ग्रंथ, कोई और ज्ञान बांटने वाली किताब......कुछ भी ...हम लोगों के घरों में तो एक भी किताब न थी, लेकिन सब किराये-विराए पर ही या फिर लाइब्रेरी से ही लेकर चलता था...

शायद वहीं से मुझे किताबें खरीदने की लत लग गई ...मैं बहुत किताबें खऱीदता हूं, हिंदी, पंजाबी, उर्दू, इंगलिश....कमरा किताबों से भरा हुआ है...हर टॉपिक पर किताब...चलिए, अब इस बात को यहीं खत्म करते हैं....मैं तो लिखते लिखते पकने लगा हूं, कहीं आप भी न मुझे कोसने लग जाएं...वैसे भी मुझे पाठक कहने लगे हैं कि तुम लिखते बड़ा लंबा-लंबा हो, मैं हंस देता हूं...क्योंकि इसमें मेरा कोई कंट्रोल नहीं होता, जो दिल कहता है लिख, लिखने लगता हूं..लेकिन सोशल-मीडिया पर लिखना अब मुझे कुछ कम करना है ..वॉटसएप पर भी (फेसबुक, इंट्राग्राम, ट्विटर पर अपनी बात बहुत कम रखता हूं) चुप्पी साध लेने में ही भलाई है, यह मैं समझ गया हूं...

हां, तो बातें फिल्मी चल रही थीं...चालीस-पचास साल पहले की बातें हैं - हमारी दिल्लगी थी, रेडियो, यही फिल्मी रसाले, थियेटर जहां जाकर अगर एक बार 'रोटी, कपड़ा, मकान' देख आए तो फिल्म अगले सात दिन तक दिमाग में वही घूमती थी, उस के गीतों में खोए रहना, उस के किरदारों को आस पास ढूंढना, जब रेडियो पर वे गीत बजने तो फिर से उस फिल्म का लुत्फ़ आ जाता था...

एक बात बताऊं ये जो पुराने दौर के लोग थे न ...शैलेन्द्र, साहिर लुधियानवी, कवि प्रदीप, नरेंद्र शर्मा, आनंद बक्शी, हसरत जयपुरी....ये लोग भी क्या थे, इस दुनिया के तो नहीं थे, मेरा बड़ा भाई मुझे परसों कह रहा था कि बिल्ले, इन लोगों को रब ने भेजा ही इस ख़ास मक़सद से था कि जाओ, जा कर दुनिया के लिए कुछ रच कर आए, उन के मन बहलाने के लिए, उन को राह दिखाने के लिए, उन की सोई हुए आत्मा को झकझोरने के लिए कुछ बातें उन के लिए लिख कर आओ....जो बरसों, बरसों, शायद सदियों तक उस की पीढ़ियों के साथ रहें...

मेरा बड़ा भाई भी मेरी तरह रेडियो को दीवाना है, आज से नहीं, बचपन से ही ...हम लोगों को टीवी-नेटफ्लिक्स से कुछ लेना देना नहीं, बस विविध भारती की बातें और कुछ एफएम चैनल जो हमारे पुराने दौर के फिल्मी गीत बजाते हैं, वे सब हमें अपने से लगते हैं...अगर मैं भी कहीं नौकरी-चाकरी न करता होऊं तो सारा दिन किसी घने से छायादार पेड़ के नीचे एक खटिया डाल कर कोई किताब हाथ में लेकर अपने ट्रांजिस्टर पर दिन भर इन गीतों की दुनिया में ही खोया रहूं ....इच्छाओं का क्या है, हमें अपनी बकट-लिस्ट में कुछ भी डालते रहने की पूरी छूट है...😎

जी हां, बिल्कुल सही बात लगी मुझे भी यह ....एक एक गीतकार को ही जब हम देखने लगते हैं तो दंग रह जाते हैं...आनंद बक्शी साहब के काम के आंकड़े हैं, 650 फिल्में और तीन हज़ार से ज़्यादा गीत लिख दिये...कईं बार तो एक गीत लिखने में बीस मिनट से ज़्यादा न लेते थे....मैं उन के बारे में उन के बेटे ने जो किताब लिखी है, नगमें, किस्से, बातें, यादें...वह पढ़ता हूं तो हैरान हो जाता हूं कि किन किन हालात में इन महान गीतकारों ने यह सब कुछ रच दिया...हसरत जयपुरी की बेटी उन से जुड़ी यादें, तस्वीरें, उन की कापी के पन्ने उन की हैंडराइटिंग में लिखे हुए....ये वो गीत हैं जिन्हें 50 सालों से हम सुनते ही जा रहे हैं...जादूगर थे ये सब लोग, मुझे यह यकीं है...इस दुनिया से तो नहीं थे..

ऐसे ऐसे गीत लिख दिए जो ज़िंदगी भर की भावनाओं को दर्शाते हैं...(ज़िंदगी के तआसुरात से जुड़े हैं...) ...कभी कभी किसी बड़े समझदार बंदे से बात होती है तो अच्छा लगता है, दो दिन पहले मेरे ब्लॉग का एक रीड़र जो मुझ से भी बड़ा है, बातों बातों में कहने लगा कि डाक्टर साहब, आपने वह जो गीत एक पोस्ट में लिखा था- कभी पेड़ का साया पेड़ के काम न आया...उस के जब मैंने बोल अच्छे से पढ़े तो मैं बहुत सोचने लगा था...और कल बिग-एफएम पर जब वही गीत बज रहा था तो मैं उस समय अपने बालों को कंघी कर रहा था, कंघी क्या करनी थी भाई, जब उस गीत के ये बोल आए ........तेरी अपनी कहानी ये दर्पण बोल रहा है, भीगी आंख का पानी , हक़ीक़त खोल रहा है...(जिस भले-मानुष ने यह गीत लिखा- रविंद्र जैन साब, वे ख़ुद सूरदास थे)  तो, वे कहने लगे कि दर्पण में देख कर कंघी करते करते उन के हाथों से कंघी छूट गई और सच में आंखें भर आईं...कि यार, मैं क्या किया ज़िंदगी भर.....आज सब कुछ याद आ रहा है ...और वह अपने मन की बात शेयर करने लगे कि काश! इन गीतों को पहले कहीं ध्यान से सुना होता...तो अपनी भी ज़िदगी कुछ और ही होती....मैंने इतना ही कहा कि जब जागो तभी सवेरा....There is never a wrong time to do a right thing! (बच्चों के स्कूल की दीवार पर लगे एक पोस्टर पर लिखी बात उस दिन उन को चिपका दी...)..वह हंसने लगे।

यकीनन 40-50-60 साल पुराने फिल्मी गीत हमें सपनीली दुनिया में तो लेकर जाते ही थे....मज़ा आता है, और आज भी उन्हें बार बार सुन कर दिल खुश हो जाता है ...लेकिन कहीं न कहीं वे हमारे किरदार को भी ढालते गए....मिसाल दे रहा हूं रोटी फिल्म के उस गीत का--यार, हमारी बात सुनो, ऐसा इक इंसान चुनो, जिसने पाप न किया हो, जो पापी न हो....इस पापिन को आज सज़ा देंगे मिल कर हम सारे, लेकिन जो पापी न हो वो पहला पत्थर मारे....अब मेरे जैसे बंदे ने जिसने पचास सालों में कम से कम सैंकड़ों बार यह गीत सुन लिया और हर बार कुछ न कुछ सोचा इसे सुनते हुए...अब मैं कैसे किसी को अच्छा-बुरा लेबल कर दूं....मेरे से नहीं होता यह सब, इस का ख़मियाज़ा जो भी हो, भुगतते रहे हैं, आगे भी भुगत लेंगे ...मैं अकसर इस बात को बहुत से लोगों के साथ शेयर कर चुका हूं...जीने दो यार हरेक को ज़िंदगी अपने हिसाब से....हम क्यों बाबा बनने लगते हैं, नसीहतें देने लगते हैं...हर इंसान की ज़िंदगी की अपनी स्क्रिप्ट है, अपना कहानी है, अपने संघर्ष हैं, अपने हालात हैं, परेशानियां हैं, खुशियां हैं, ग़म हैं....बस, लोगों को उन के हालात पर छोड़ दें, उन्हें जी लेने दें...ज़्यादा बाबागिरी के चक्कर में पड़ेंगे ...राम रहीम बाबे की तरह पाप-पुण्य की बातें करते रहेंगे तो उन में ही स्वाद आने लगेगा, गॉड-मेसेंजर समझने लगेंगे ख़ुद को, और पता लगे कि कभी उस की तरह आगे चल कर ज़ेल ही में ठूंस दिए गये हैं....वैसे, एक बात बताऊं मुझे उस के जेल जाने पर बड़ा सुकून मिला था...और मैं उस बेटी की, उस के मां-बाप की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता जिन्होंने इतने पावरफुल बाबा के कारनामों के बारे में मुंह खोलने की हिम्मत तो की...

मैं जैसे कहता हूं कि मन के अंदर इतना कुछ ठूंस रखा है कि लिखते लिखते पता ही नहीं चलता, किधर का किधर निकल जाता हूं...अब उस बात का ख़्याल आया कि क्यों मैं आज सुबह सुबह ही इस पोस्ट को लिखने लगा हूं ...आज सुबह सुबह मैं ऋषि कपूर से बातें कर रहा था सपनो में ...हमारे बचपन वाले घर की छत है, वहां पर मैं पतंग उड़ा रहा हूं और अचानक मेरी नज़र ऋषि कपूर पर पड़ती है और मैं उसे कहने लगता हूं कि मुझे आपसे दो मिनट बात करनी है....उसने हंसते हुए कहा कि हां, करिए....मैंने पंजाबी में अपनी बात कहनी शुरू की और उससे पूछा कि क्या आप समझ रहे हैं, कितनी बेवकूफी से भरा सवाल है....बिना उस के जवाब का इंतज़ार करते हुए मैंने अपनी बात 3-4 मिनट में कह दी कि किस तरह से मैं बचपन ही से आप की फिल्मों का बहुत बड़ा फैन हूं...😄 फिर अचानक नींद से जाग उठा..अब आप यह देखिए कि मेरी दिलो-दिमाग में क्या चलता होगा कि सपने भी बालीवुड के ही आ जाते हैं कईं बार ...जब कि हमें अपने मां-बाप ही महीनों ख़्वाबों में नहीं आते ...

यह तो फिल्मी दुनिया का जादू न कहूं तो क्या कहूं ..और वह भी 60-70-80 के दशक की फिल्मों की सपनीली दुनिया का जादू...आज कल की बहुत कम फिल्में गले से नीचे उतरती हैं, दिलो-दिमाग़ पर छाए भी तो आखिर कैसे...पुराने फिल्मो से, पुराने गीतों से हमारी यादें, मीठी, कडवी, खट्टी-मिट्टी सभी तरह की जुड़ी हुई हैं...मुझे एक गीत याद आ रहा है जब मैं दूसरी तीसरी जमात में अपने संगी-साथियों के साथ पैदल स्कूल की तरफ़ कूच कर रहा होता तो रास्ते में बहुत से घरों से, बहुत सी दुकानों पर ये गीत बज रहे होते ..दो तो मुझे बड़े अच्छे से याद हैं......बाकी, जैसे जैसे याद आएंगे, इस डॉयरी में लिखता रहूंगा ...😎सोचने वाली बात यह भी है जो इंसान सात-आठ साल की उम्र से ही यह सब सुनता सुनता, इन के दिलकश संगीत में खोये खोये ही जवान हुआ और अब बीस-तीस साल बरसों से इन के लिरिक्स पर ग़ौर करते करते दुनिया को समझने की कोशिश कर रहा हो, उसे कोई क्या कहे.......बेहतर यही न होगा कि उसे उस की दुनिया में अलग छोड़ दिया जाए, उस के हाल पे ...😄

और हां, मेरे गीतों की पसंद-नापसंद की बिना कर ज़्यादा जज्मेंटल होने की कोशिश मत करिए....यह भी लिफ़ाफ़ा देख कर उस के अंदर लिखे मज़मून को भांपने की एक नाकामयाब कोशिश होगी...हम सब ने बहुत सारे मुखौटे लगा रखे हैं, कभी हम कोई उतार देते  हैं, कोई नया ओढ़ लेते हैं.......और कुछ नहीं, यह ज़िंदगी है, यही ज़िंदगी का स्टेज है...और क्या 😎


बुधवार, 27 अक्तूबर 2021

झटका, झटकई, झटका महाप्रसाद ....

लंबे अरसे से अख़बार पढ़ना भी बंद ही था...लेकिन फिर लगता है कि हमारे दौर के लोग अगर अख़बार भी पढ़ना छोड़ देंगे तो फिर करेंगे क्या! तीन अखबारों का मैं फैन रहा हूं...बचपन से लेकर लगभग बीस साल की उम्र तक दा-ट्रिब्यून जो चंडीगढ़ से छपता है, उस के बाद दिल्ली से छपने वाला हिंदुस्तान टाइम्स बहुत अच्छा लगता था, कुछ साल दिल्ली और एनसीआर में रहते हुए ज़्यादातर उसे ही पढ़ता था .....लेेकिन लगभग पिछले 30 साल से जहां भी रहा कोशिश यही रही कि टाइम्स ऑफ इंडिया ज़रूर देख लिया करू...

ये सब वे पेपर हैं जिन से बहुत कुछ सीखने को मिलता है ...दीन दुनिया का पता चलता है ...और भी बहुत कुछ ...हां, कुछ ख़बरें पढ कर मन खऱाब भी होता है ..लेकिन अख़बार वाले भी क्या करें, उन्होंने वही तो दिखाना था जो समाज में घट रहा है ...वैसे भी टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे पेपर की रिपोर्टिंग बहुत बेलेंस्ड होती है, मैं क्या, सब लोग जानते हैं ....यह किसी की भी तरफ़ कभी झुका हुआ नहीं लगता....मुझे तो यही समझ आया है ...बाकी, बड़े बड़े धुरंधऱ लोग हैं जो 'बिटविन दा लाइन्स' अच्छे से पढ़ना जानते हैं , ज़ाहिर है उन्हें ज़्यादा पता होगा...

अब आप को लग रहा होगा कि तुम बातें इधर उधर की हांक रहे हो और पोस्ट पर यह झटका, झटकई का शीर्षक टिका रखा है...इस का कारण यह है कि मुझे आज अचानक 1970 के दशक के ये अल्फ़ाज़ ज़ेहन में आ रहे हैं....अमृतसर के दिनों की बातें...घर, बाहर हम ये शब्द सुनते ही थे..उन दिनों हम मीट-मुर्गा (ज़्यादातर मीट ही...जहां तक ध्यान है, मुर्गा मीट से कुछ महंगा होता था..) खाते थे,  जब बाज़ार में किसी काम के लिए जाते तो घर के किसी सदस्य की यह बात सुनाई भी दे जाती...

" अच्छा, ऐसा करना ...आती बार पुतलीघर वाले झटकई से आधा किलो मीट, कलेजी या कीमा लेते आना। कीमा उसे हाथ ही से बनाने के लिेए कहना "
" पुतलीघर वाला झटकई ठीक मीट देता है, झटका ही बेचता है ..."

अब आप भी पशोपेश में पड़ गये होंगे कि यह बातें कैसी कर रहा है आज...झटका, झटकई ...लेकिन मुझे भी इन अल्फ़ाज़ के मानी कुछ साल पहले ही पता चले...हमें बचपन और जवानी के उस दौर में यह सब सोचने की कहां फुर्सत कि झटका, झटकई ...और ....(नहीं, नहीं, इतना ही काफ़ी है) ...क्या हैं, हमें तो इतना पता था कि मीट बेचने वाले को हम कसाई नहीं, झटकई कहते हैं और उसने अपनी मीट की दुकान के कांच पर बड़े बड़े अक्षरों में ...."यहां झटका बकरे का मीट मिलता है".., लिखवा रखा होता था। हम उन दिनों अपनी मस्ती में ही इतने मस्त होते हैं कि इन फ़िज़ूल की बातों का हमें कभी ध्यान ही न आया, न ही हम ने कभी बेफ़िज़ूल बातों में ख़ुद को उलझाया करते थे...

लेकिन बहुत बरसों बाद यह पता चल गया कि बकरे का झटका जाने का मतलब होता है उसे एक ही झटके से, एक ही वार से मारा  जाता है....जब यह बात पता चली तो मन बहुत दुःखी भी हुआ था..शायद तब तक हम लोग मीट वीट खाना बंद भी कर चुके थे ...28 साल से मीट-मछली-चिकन कभी खाया नहीं, कभी खाने की इच्छा भी नहीं हुई ...क्योंकि कुछ बातें हमारी समझ में आ गई थीं...

बाद में जब हम लोगों ने घाट घाट का पानी पीना शुरू किया ...पंजाब के अलावा दूसरे सूबों के कुछ शहरों में भी रहने लगे तो वहां पर मीट की बहुत सी दुकानों पर हलाल लिखा रहता था...एक मुस्लिम दोस्त ने बता दिया कि इस का मतलब है कि इस बकरे को एक तयशुया तरीके से काटा गया है...और मैं तो ख़ुद ही यह समझने लगा था कि हलाल और झटका मीट एक ही होता होगा...

लेकिन सारी बातें तो नेट पर धरी पड़ी हैं, हमें वाट्सएप से फ़ुर्सत हो तो हम कहीं और देखें...अभी गूगल पर यही कुछ सर्च कर रहा था, तो इस न्यूज़ स्टोरी पर नज़र पड गई...आप भी देखिए...



हमारे मुल्क में एक तो इस तरह के मुद्दे पर बातें बड़ा सोच समझ कर करनी पड़ती हैं....कौन जाने कब कौन सी बात को मज़हबी रंग दे दिया जाए...नेट से वैसे भी सब कुछ पता चल ही जाता है ...बस, खबरों को छानते वक्त छाननी अच्छी होनी चाहिए हाथ में ... आज मुझे यह पता चल गया कि हलाल और झटका एक ही बात नहीं है....वैसे तो एक ही है यार, जानवर तो बेचारा मर ही गया न ...चाहे विधि कोई भी अपना लो, भाई....वह तो गया बेचारा....बाकी, तो सब लड़ाई-झगड़े के मुद्दे हैं, अगर वैसे ही इस देश में कम हों तो इसे भी उस में शामिल कर लीजिए...

झगड़े की बात पर आज के पेपर में यह बात दिख गई कि केरल में एक महिला दुकानदार ने अपनी मीट की दुकान पर यह बोर्ड लगा दिया कि उस के यहां नॉन-हलाल मीट बिकता है ...बस, टूट पड़े लोग उस पर ...आप देखिए ख़बर को ...

Times of India, Mumbai - Oct.27, 2021

जब तक मैंने वह ऊपर वाला बीबीसी का लिंक नहीं खोला था, मुझे यही लग रहा था कि नॉन-हलाल का मतलब वही पंजाब में बिकने वाला झटका मीट होगा.....नहीं, मैं गलत था...नॉन-हलाल से मतलब कुछ और ही था...


लड़ाई, झगड़े, फ़साद करने का बहाना चाहिए...आप ने इस ख़बर में पढ़ लिया होगा ...इतने धर्म हैं यहां, इतना मुख़्तलिफ़ खाना पीना है, इस में पड़ कर जब चाहे जितना चाहे लड़ लें, लड़ते लड़ते मर जाएं, कोई छुड़ाने न आएगा....मरने वालों की चिताओं पर पॉलिटिकल नॉन लगाने लोग उमड़ पडेंगे ...बेहतर होगा, हम सब शांति से जिएं और दूसरों को भी जीने दें..

वैसे भी हम लोगों का कुछ भी बर्दाश्त करने का मादा बिल्कुल ख़त्म हो चुका है...आज की अख़बार में यह भी ख़बर दिखी कि परसों यहां मुंबई में एक 15-16 साल के छात्र को उसके दो साथियों ने एक बार ऐसे ही मज़ाक में सिर पर थोड़ा हाथ मार दिया....उसे इतना बुरा लगा कि अगले दिन उसने उनमें से एक को चाकू से गोद कर मार डाला ...

काश, हम सब थोड़ा सा सहनशील बन जाएं....यह नहीं वे बन जाएं, वो बन जाएं, ये बन जाएं....हमाम मे ं हम सब नंगे हैं, इसलिए चुपचाप हमें थोड़ा सा सहना सीखना ही होगा, थोड़ा सा किसी की बात को झेलना ही होगा....हर बात पर तुनकमिज़ाजी बहुत नुकसान कर देती अकसर ...इस गीत से ही चलिए कुछ सीख लेते हैं....और नफ़रत की लाठी को तोड़ कर, जला ही डालते हैं ताकि फिर से उस के जुड़ने की गुंजाईश ही न रहे ....


लेकिन पोस्ट का लिफाफा बंद करते करते यह ख़्याल आ गया - झटका हो गया, ङटकई भी हो गया लेकिन यह झटका महाप्रसाद क्या हुआ...कुछ खास नहीं, इसे आप आज से 50 साल पहले के ज़माने की स्लैंग कह सकते हैं....अकसर घर में जब बात चलती, ख़ास कर किसी मेहमान के आने पर कि खाने में क्या बनाया जाए तो कहीं से यह आवाज़ आ जाती....झटका महाप्रसाद ही बनेगा, और क्या 😄....यानि कि मीट ही बनाया जाए...😎