सच बात है कि दर्पण झूठ नहीं बोलता....वो बात अलग है जब वह हमारी पसंद मुताबिक हमारी तस्वीर दिखा नहीं पाता, सफेद बाल, झुर्रियां जब दिखाने लगता है तो हम उसे कोसने लगते हैं...है कि नहीं....
आज मेरे बड़े भाई ने मेरे साथ दर्पण फिल्म का एक गीत शेयर किया जिस का लिंक मैं यहां नीचे लगा रहा हूं ...आप इस पर क्लिक कर के उसे सुन सकते हैं...आनंद बख्शी की कलम का जादू है ...वे इस के गीतकार हैं ...
भाई ने मुझे कहा कि वह जो तपस्या फिल्म का भी जो गीत है न ...कभी पेड़ का साया, पेड़ के काम न आया...उस गीत में जब ये लाइनें आती हैं न ...तेरी अपनी कहानी यह दर्पण बोल रहा है, भीगी आँख का पानी हक़ीक़त खोल रहा है ...जब वह इस गीत के सुरों में डूबे हुए थे तो उन्हें दर्पण फिल्म पर और भी कुछ गीत याद आने लगे...
दर्पण चीज़ ही ऐसी है ...भाई को दर्पण से गीत याद आ गए ...हमें तो बचपन ही याद आ गया....जब हम लोग बिल्कुल छोटे थे तो घर में एक शीशा होता था जो सारे कुनबे के बालों पर कंघी करने के काम में आता था...और एक छोटा सा शीशा था जिसे पापा अपनी दाढ़ी बनाते वक्त रज़ाई पर ही रख लिया करते थे...और हां, मां के पास भी तो एक बिल्कुल छोटा सा था अपना शीशा हुआ करता था..यह शीशा कोई अलग न था, एक गोल पावडर की डिब्बी में ही फिक्स हुआ रहता था, जिसे मां अकसर ट्रेन में यात्रा करते वक्त अपने पर्स में रख तो लेती लेकिन हमने मां को कभी ट्रेन में इसे इस्तेमाल करते नहीं देखा...कभी कभार किसी शादी ब्याह में ज़रूर वह इस पावडर की डिब्बी को इस्तेमाल ज़रूर कर लेती....उन्हें वैसे भी कासमेटिक्स का बिल्कुल भी शौक न था...
लिखते वक्त कैसे पुरानी पुरानी बातें याद आने लगती हैं...अच्छा, एक भ्रांति थी, थी या है, ख़ुदा जाने ...आज कल तो लोग अपने अपने पिंजरों में क़ैद रहते हैं, किसी फ़ुर्सत है छोटी छोटी बातें करने और सोचने की ...हां, तो भ्रांति यह थी कि अगर मैंने किसी आसपास के बच्चे को या अपने ही बेटे को आइना दिखा दिया तो बडे़-बुज़ुर्ग टोरक देते थे....न कर वे, ओहनूं टट्टीयां लग जानीयां ने ...(इसे शीशा मत दिखा, उसे जुलाब लग जाएंगे)...मुझे तो कभी यह लॉजिक समझ में आया नहीं....कि आईने और जुलाब का यह कैसा रिश्ता है ....और यह बात भी याद आ गई कि कैसे जब हम लोग आठवीं-नवीं कक्षा तक पहुंचते पहुंचते आइने में अपना चेहरा बार बार देखने लगते हैं ....और पुराने दौर में लोग तब उस तरूण का मज़ाक उड़ाने लगते कि देखो, इसे हवा लग रही है....देखते जाओ। 😎ये जो आदमकद शीशे, ये जो ड्रेसिंग टेबल हैं न, ये भी हर घर में कहां होते थे...लेकिन जब इस तरह की चीज़ें घर के लिए खरीदी जातीं तो बहुत अच्छा फील होता था...कईं महीनों, बरसों तक कंघी करने का मज़ा कईं गुना न भी सही, कम से कम दो गुना तो हो ही जाया करता।
और कुछ गीत जो भाई ने लिख भेजे ...दर्पण पर ...दो तो यही हैं...इन में से किसी पर भी क्लिक कर के आप इन्हें देख-सुन सकते हैं...
तोरा मन दर्पण कहलाए...तोरा मन दर्पण कहलाए...भले बुरे सारे कर्मो को देखे और दिखाए... (फिल्म- काजल, गीतकार- साहिर लुधियानवी)
दर्पण झूठ न बोले...जो सच था तेरे सामने आया ( दर्पण फिल्म - गीतकार ...आनंद बख्शी)
दर्पण पर मुझे जो मेरे पसंदीदा गीत याद आ गए वे ये रहे ....
मैं वही दर्पण वही....सब कुछ लागे नया नया .... (फिल्म- गीत गाता चल... गीतकार ...रविन्द्र जैन)
आईना वही रहता है, चेहरे बदल जाते हैं...(फिल्म- शालीमार -1978- आनंद बख्शी)
शीशा हो या दिल हो , आखिर टूट जाता है ...(फिल्म-आशा- 1980- आनंद बख्शी)
मुखड़ा न देखो दर्पण में ...झांको ज़रा मेरे मन में ...(फिल्म- अपना देश- 1972 के गीत ...कजरा लगा के, गजरा सजा के..) गीतकार ...आनंद बख्शी..
भाई का मशविरा है कि दरअसल ये जो सीटी, एमआरआई और एक्स-रे, वैक्स-रे हैं, इन का नाम भी कुछ दर्पण, आईना, शीशे जैसे होना चाहिए क्योंकि वे कह रहे हैं कि ये सब टेस्ट भी कोई कम नहीं हैं...एक आईना ही तो हैं, दूध का दूध पानी का पानी कर देते हैं....और सच सामने ले कर आ जाते हैं....बंदा चाहे हंसे या रो ले...
बात है भी कितनी सही...सच में, हम लोग दुनिया भर के फ़ैसलों को चेलेंज कर लेते हैं, अपनी धन-दौलत और रुतबे का रूआब दिखा कर...ये हम सब देखते ही हैं ...कोई छिपी बात नहीं है ...लेकिन मैं एक बार हमेशा यही कहता हूं कि डाक्टर लोग ही ऐसे हैं, इन की पारखी निगाहें जब कुछ देख लेती हैं, ताड़ लेती हैं और जब ये इन एक्सरे, सीटीस्कैन, एमआरआई रूपी आइने में मरीज़ की तस्वीर देखते हुए अपनी क़लम से अपना फ़रमान लिखते हैं ....उन को कभी कोई चेलेंज नहीं कर पाया, है कि नहीं...इसलिए मैं कहता हूं कि डाक्टर अगर अल्ला, ईश्वर, गॉड न भी हों तो कम से कम उस के भेजे हुए उस के मैसेंजर ज़रूर हैं, जैसे फिल्मों के गीत भी उस ख़ुदा के भेजे बंदे हैं, जिन का मक़सद है आवाम को अपनी अल्फ़ाज़ के ज़रिए रास्ता दिखाना ...