शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021

बचपन के दिन भुला न देना....यादें दशहरे की

कईं बार मैं भी सुबह सुबह कुछ लिखने का सोच कर ऐसा पंगा ले लेता हूं कि मुझे भी नहीं पता होता कि बात कहीं सिरे लगेगी भी कि नहीं। ख़ैर, आज दशहरा है, बचपन के दौर का दशहरा जब याद करता हूं तो बस यही याद आता है कि उस दिन जलेबीयां ज़रूर खाई जाती थीं और दशहरे के मेले पर ज़रूर जाया करते थे...बस, और कुछ याद नहीं.....लेकिन मैं सब को यही कहता हूं कि एक बार आप किसी विषय पर कुछ लिखने लगेंगे तो ख़ुद ही पता नहीं कहां कहां से बातें याद आती जाएंगी...जो दिल के किसी कोने में दबी पड़ी और सोई पड़ी होती हैं...देखते हैं खैर...

जी हां, मैं बात कर रहा हूं 1970 के आस पास के दशहरे की ....इस से दो साल पहले और शायद 1970 वाले दशक के आखिर तक यह सिलसिला चला...फिर बदकिस्मती से हम बड़े हो गए...मेलों में बिकने वाले खाने में हमें तरह तरह की गंदगी दिखने लगी, मक्खियां ज़्यादा नज़र आने लगीं...गन्ने के रस में हैपेटाइटिस ए के जीवाणु "दिखने" लगे....

यह उन दिनों की बात है जब दशहरे से पहले हम रामलीला देखने के लिए दिन गिनते रहते थे ...और नवरात्रोत्सव शुरू होने से कईं दिन पहले ही हम यह सोच सोच कर खुश होते रहते थे कि चलो, अभी रामलीला शुरू होने में इतने ही दिन बाकी बचे हैं...वे भी क्या दिन थे...हम रोज़ रात का खाना खाने के बाद रामलीला देखने चले जाते। स्टेज के आगे टाट बिछा रहता था, कुछ कुर्सियां वुर्सियां भी रखी होती थीं....उन्हें या तो पहले आने वाले हथिया लेते थे .....वैसे हमें बचपन ही से कभी कुर्सी वुर्सी के लिए सिरदर्दी मोल लेने का शौक रहा नहीं ...अब जैसा रहा है, वैसा ही लिख रहे हैं, झूठ बोलने से मुझे अपना पता है सिरदर्द के सिवा मुझे कुछ हासिल न होगा..!!

रामलीला की लीलाएं सुनाने बैठ गया तो फिर दशहरा का मंज़र कहीं पीछे छूट जाएगा...रामलीला की बातें फिर कभी छेडेंगे। वैसे भी दशहरे वाले दिन के नाम पर मेरे पास गन्ने और जलेबियों के अलावा कुछ है भी तो नहीं ...

लीजिए, आ गया जी दशहरा ..आप सब को भी विजय-पर्व की ढ़ेरों बधाईयां...दशहरे वाले दिन सुबह ही से बड़ी खुशी का माहौल पसरा होता था .. हमें बस बाज़ार से जलेबियां लाने की ड्यूटी मिल जाती थी...लेकिन जब बहुत छोटे से तब नहीं...यही कोई कक्षा दस -बारह तक पहुंचते पहुंचते ...मुझे अभी भी अच्छे से याद है कि अमृतसर के पुतलीघर बाज़ार में पिपलीवााल गुरुद्वारे के पास हलवाई की दुकान से या लोहगढ़ गेट के अंदर थथ्थे हलवाई की दुकान से ही जलेबीयां लाते थे ...(थथ्था हलवाई का मतलब वह हलवाई बोलते समय थोड़ा हकलाता था ...टुटलाने-शाने को मारो गोली, वह बंदा बहुत अच्छा था, हंसता रहता था, और मुझे तो और भी अच्छा लगता था क्योंकि मुझे उस की दुकान के बेसन के लड्डू बहुत ज़्यादा भाते थे ...मैंने बहुत खाए..एक दम अच्छे से सिके हुए बेसन से बने हुुए....चार पांच एक बार खा कर मज़ा आ जाता था। 

थथ्थे हलवाई की दुकान पर जब भी जाते थे तो इंतज़ार करनी ही पड़ती थी...सुबह सुबह वह आलू-पूरी बेचता था ...मुझे उस की पूरी के सिवा कभी पूरी को आलू के साथ खाना नहीं भाता, हमारे लिए पूरी का मतलब साथ में बढ़िया से छोले होने ही चाहिएं...😎लोग सच ही कहते हैं कि अमृतसर के लोगों का खाने-पीने का बड़ा नखरा होता है ...क्योंकि उस शहर की फिज़ाओं में ही जैसे एकदम लज़ीज़ खाने की महक रची बसी है...

और उन दिनों जलेबियां कागज़ के खाकी लिफाफों में मिला करती थीं...शायद एक किलो जलेबीयां तो ले ही आते थे...और यह काम दशहरे वाले दिन चार पांच बजे तक हो जाता था...फिर हमें जल्दी होती थी दशहरे के मेले पर जाने की ...

दशहरा के मेले का मतलब जो दशहरा ग्राउंड के आस पास और रास्तों पर दूर दूर तक खाने पीने की दुकानें सज जाती थीं वही हमारा मेला होता था ...रावण का पुतला दुर्ग्याणा मंदिर के एक बडे़ से ग्रांउड में जलाया जाता था...वहां से हमारा घर यही कोई एक-डेढ़-दो किलोमीटर होगा ...बचपन के छोटे छोटे कदमों को दो ही लगता होगा...अब एक किलोमीटर लगता है। दशहरे वाले दिन उस रास्ते पर सुबह ही से दुकानें सजने लगती थीं...मिठाईयों की दुकानें...जलेबियां, पकौड़े तलने के लिए वहां ताज़ी ताज़ी तैयार की गई मिट्टी की भट्टियों पर (कुछ तो अभी सूखी भी न होतीं) बड़ी बड़ी लोहे की कड़ाहीयां पड़ी दिखतीं...(बाज़ार के पकौड़ों का अलग ही नज़ारा हुआ करता था...😎).., पास ही कोई बेसन में पानी डाल कर, आलू-प्याज़ काट कर अपनी धुन में तैयारी में लगा रहता., तीर-कमान भी, दस बीस पैसे में सिर की टोपियां, और हां, बाजे भी ....यही कोई पांच दस पैसे में बिकने वाले बाजे...और हां, जगह जगह बिक रहे गन्ने...दशहरे के दिन घर में गन्ने लेकर आना बड़ा शुभ माना जाता था...और दशहरे के मेले से लौटते वक्त मुझे वह नज़ारा भी अच्छे से याद है कि लोगों के हाथों ने हाथों में लंबे लंबे गन्ने पकड़े हुए और बच्चे लगातार बाजे बजा रहे होते ...

ऐसी मान्यता थी कि सूर्य के डूबने के साथ ही रावण का पुतला जलाया जाए....इसलिए वह नज़ारा देखते बनता था...इतनी भीड़ में हमें डर भी लगता था...तरह तरह के डर हमारे दिलो-दिमाग में बैठ चुके थे...इतने भीड़-भड़क्के में कहीं गुम हो गए तो, कहीं दब-कुचल गये तो ....और एक बात, घर से जाते वक्त वो ख़ास हिदायत ...पुतले के पास बिल्कुल नहीं जाना, दूर ही से देखना...कईं बार पुतला ऊपर भी गिर जाता है, यह भी याद दिला दिया जाता। हम भी अपने दौर के सभी बच्चों की तरह मां-बाप की बात को गांठ बांध कर रखते थे ..चुपचाप जा कर नज़ारा देख कर, खा-पी कर, और बाजा बजाते हुए घर लौट आते थे। 

एक बात और ...एक क्रेज़ और भी ..क्रेज़ कहूं या एक चलन था कि रावण का पुतला जलने के बाद जब नीचे गिरता तो उस की कोई न कोई अधजली लकड़ी को अपने साथ लेकर वापिस लौटना सारे परिवार के लिए बड़ा शुभ माना जाता था...यह काम हमने 2005 में फिरोज़पुर रहते हुए भी किया था...मन तब भी इन ढकोंसलों को नहीं मानता था, आज भी नहीं मानता....लेकिन दुनिया के इस थियेटर में हर कोई अपना अपना किरदार निभा रहा है, हम भी वही कर रहे हैं।

मैंने कहा था न कि जब हम कुछ लिखने लगते हैं तो दिल के कोने में दबी पड़ी यादों की पोटली खुद-ब-खुद खुलने लगती है..हम अतीत की यादों के समंदर में डुबकीयां लगाने लगते हैं...और मन बाहर आने को करता ही नहीं। इतना पढ़ने के बाद आप को यह महसूस होगा कि मुझे यश चोपड़ा की फिल्म वीर-ज़ारा का यह गीत क्यों इतना ज़्यादा पसंद है ...(अलग नीचे दिया हुआ गीत न चले तो आप इस लिंक पर क्लिक कर के भी वह सुंदर गीत सुन सकते हैं... धरती सुनहरी, अंबर नीला....हर मौसम रंगीला, ऐसा देश है मेरा। 

बाप के कंधे चढ़ के जहां बच्चे देखें मेले, मेलों में नट के तमाशे, कुलफी के चाट के ठेले, 

कहीं मीठी मीठी गोली, कहीं चूरण की है पुडिया, भोले भोले बच्चे हैं जैसे गुड्डे और गुडिया.....😄👏👌


यहां बंबई में भी 1990 के दशक की दशहरे से जुड़ी यादें हैं...उन दिनों चौपाटी पर रावण का पुतला जलाया जाता था ... और वहां पर एक बहुत बड़ा लोहे का पुल हुआ करता था ...हम कईं बार उस के ऊपर चढ़ कर दशहरे का नज़ारा देखा करते थे...

फिर धीरे धीरे क्या हुआ...हमारे हाथों में कैमरे आ गए...घरों में केबल-टीवी की घुसपैठ हो गई...हम लोगों ने जब टीवी पर ही देश भर में मनाए जा रहे दशहरे का जश्न देखना शुरू किया...हमें लगा यही है दशहरा...लोग दशहरे के मेले के असली रोमांच से महरूम रहने लगे ...और सिलसिला अभी भी जारी है ...अब तो टीवी-वीवी की तो बात ही क्या करें, सारी दुनिया हमारे हाथ में पकड़े मोबाइल तक ही सिमट गई है ....इसी पर दशहरे की वीडियो देख देख कर खुश हो लेते हैं...इसी पर दशहरे की मुबारकबाद भेजते-भिजवाते ही दशहरा बीत जाता है ...और हम उस वक्त बड़े हैरान होते हैं जब कोई हमें बताता है कि उन के दो साल के नाती को खाना खिलाने के लिए पहले उस शिशु की मां उस के सामने बढ़िया बढ़िया वीडियो चला देती हैं...यह भी कोई हैरान करनी वाली बात है। हम सारा दिन क्या कर रहे हैं, हमारी दुनिया भी तो ऐसे ही सिमट गई है 

लेकिन असली वाला रोमांच जो इन पर्वों के मेलों पर हम महसूस किया करते थे, दुनिया देखा करते थे, बहुत सी चीज़ें घर से बाहर निकल कर खुद जान लेते थे, अच्छे-बुरे का फ़र्क समझ में आने लगता था .......वह सब अब गुज़रे ज़माने की बातें हैं ......अब अगर कोई मेरे जैसा भूला-भटका बंदा कभी ऐसे इस तरह के लेख में अपने मन के कबाड़ को बाहर निकालने की ज़हमत करे तो करे...। लेकिन एक बात और भी तो है....आज खूब मिठाईयों की बात हो रही है...मुझे ख्याल यह भी आ रहा है कि जैसे हलवाई अपनी मिठाई नहीं खाता, उसी तरह मैं भी अपना डायरी रूपी यह ब्लॉग लिखने के बाद पढ़ना बिल्कुल भी पसंद नहीं करता। अब डायरी में कुछ लिख दिया ..तो उसे बार बार कौन पढ़े, पहले ही इतनी सिरदर्दीयां हैं....दिल ने जो लिखवाया, सो लिख दिया...और एक बार जो दिल से लिख दिया, उसे कांट-छांट कर दुरूस्त करने का तो सवाल ही नहीं उठता....

कभी आथेंटिक पंजाबी खाना खाने को मन मचलने लगे तो यहां हो कर आइए....

मेरा रिश्तेदार नहीं है, मुझे कोई डिस्काउंट भी नहीं  ...फिर भी इमानदारी से कुछ जगहों की तारीफ़ करनी बनती है .. 

फिर से मिठाई की बातें ....जलेबीयों की बातें...मेरा इस वक्त तो जलेबीयां खाने का कोई मूड नहीं है, क्योंकि मैं पिछले दो दिनों में पंजाबी चंदू हलवाई का पतीसा इतना ज़्यादा खा चुका हूं कि अब रोटी खाने की भी इच्छा नहीं हो रही ...इसी चक्कर में कल रात को भी रोटी नहीं खाई क्योंकि पतीसा बहुत ज़्यादा खा लिया था...देखते हैं अगर शाम को फिर जलेबीयां याद आ गईं तो खा लेंगे ...गुड की जलेबीयां...जुहू में एक पंजाबी रसोई में बिकती हैं...😄😄जितनी मेहनत मैंने और बेटों ने पंजाबी ज़ायके वाली खाने-पीने की चीज़ो की रिसर्च करने में की है, अगर हम लोग अपनी पढ़ाई ही में इतना मन लगा लेते तो आज अपना भी नाम होता। 

इस जश्न में मुझे मेरे शहर में हुए एक हादसे की याद बहुत दुःखी करती है ....अमृतसर के जोड़ा फाटक के पास तीन चार साल पहले दशहरे का आयोजन था...लोग लाइनों के आसपास इक्ट्ठा थे...अंधेरा हो चुका था...बत्ती गुल थी...इतने में इस लाइन पर गाड़ी आ गई ...लोगों में अफरातफ़री मच गई ...इसी चक्कर में तीस चालीस लोग उस दिन गाड़ी के नीचे कट गये थे...बहुत अफसोसनाक घटना थी...आज उन सब आत्माओं की शांति की प्रार्थना करते हैं ......और आप सब को दशहरे की बहुत बहुत बधाईयां....काश!आज भी बुराई पर अच्छाई की विजय होती रही, झूठ पर सच भारी पड़ता रहे। 

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2021

हर पोस्ट कार्ड एक कहानी कहता है ...

सन् 2001-2002  के आस पास की बात रही होगी...मैंने केंद्रीय हिंदी डायरेक्ट्रेट की तरफ़ से एक विज्ञापन अख़बार में देखा...उन्होंने लिखा कि अहिंदी भाषी नवलेखकों के लिए एक नवलेखक शिविर का आयोजन कर रहे हैं...लेकिन उस की एक चयन प्रक्रिया होगी...और उस के लिए पहले आप को अपना कोई एक लेख लिख कर भेजना होगा....

पढ़ा, अच्छा लगा ...इस से पहले मैं केवल छुट-पुट मेडीकल एवं डेंटल विषयों पर ही लिखता था , अपने स्कूल की पत्रिका का स्टूडेंट-एडिटर भी रहा...बाद में पत्रिकाओं के लिेए लिखता था..लेकिन क्रिएटिव राइटिंग के बारे में कुछ पता न था...इसलिए सोचा कि देखते हैं अगर मौका मिलेगा तो इस नवलेखक शिविर में हो कर आएंगे। 

अपने पास यादों का बढ़िया ज़खीरा तो है ही ..हम एक ऐसे दौर में रहे हैं जिस में बहुत कुछ देखा, महसूस भी किया ....और ज़िंदगी को नज़दीक से देखा भी। तो, जनाब, हिदी की टाइपिंग तो तब आती न थी, मैंने भी कागज़ पर एक लेख लिख कर दाग दिया...उस का शीर्षक लिखा...डाकिया डाक लाया। सच बताऊं उसे लिखने में ही मुझे इतना मज़ा आया कि मैं बता नहीं सकता...इस में मैंने लिखना क्या था, अपनी दादी, नानी, मामा, चाचा, बुआ और पापा की चिट्ठीयों की यादें लिख डालीं...और कुछ दिन बाद मुझे चिट्ठी मिल गई कि आप का 15 दिन के नवलेखक शिविर के लिए चयन कर लिया गया है ...मैं बहुत खुश ...जोरहाट में यह शिविर हुआ...गुवाहाटी से भी एक रात का सफर था ..उस दौरान मुझे समझ आया कि लिखना किसे कहते हैं....बस, अपने दिल की बातों को लिखते लिखते कोई भी लिक्खाड़ बन  सकता है, कोई रॉकेट साईंस नहीं है यह भी ...आप को पता ही है कि सरकारी महकमों के खलारे भी कैसे होते हैं...वहां पर उन्होंने बड़े बड़े नामचीन लेखकों को बुलाया था...हमें कहानी, लेख, संस्मरण लिखने की विधा से रू-ब-रू करवाने के लिए। 

वापिस पोस्ट कार्ड पर लौटें...मेरी ड्यूटी का समय हो रहा है ...बात छोटी ही रखेंगे आज... हां, तो पोस्ट कार्ड से जुड़ी मेरी सभी यादों को मैंने अपने एक पंजाबी ब्लाग में सहेज दिया है ...बहुत बार सोचा कि उस का ही हिंदी अनुवाद कर के इस ब्लॉग पर भी टिका दूं लेकिन कभी कोई मोटीवेशन लगी नहीं...लेकिन कभी इस ब्लॉग पर भी लिखूंगा ज़रूर पोस्ट कार्ड से जुड़ी मेरी बेशुमार यादें। आप को सुन-पढ़ कर भी मज़ा आएगा। 

बहरहाल, उस दिन विश्व पोस्ट कार्ड दिवस था ...मैं मुंबई के जीपीओ में गया तो पता चला कि अभी स्पेशल कवर तैयार हो कर नहीं आया...मुझे वह ज़रूरी चाहिए था...वह अब मुझे मिल गया है, लीजिए आप भी उस के दीदार कर लीजिए....

जब हम लोग अमृतसर के डीएवी स्कूल में पढ़ते थे तो हमारी क्लास में हमारा एक साथी था, उसने पेन-फ्रेंड बना रखे थे, उन को चिट्ठीयां लिखता था, उन की चिट्ठीयां उन्हें आती थीं, वह हमें दिखाता था, उस ख़तों पर लगी शानदार टिकटें देख कर ही हम हैरान होते रहते थे ..लेकिन कभी पेन-फ्रेंडशिप की दुनिया में जा न सके...शायद इसलिए कि हमें घर में आने-जाने वाले ख़तों को पढ़ने-लिखने से ही फुर्सत न थी...और मेरी तो एक और ड्यूटी भी थी ...अडो़स पड़ोस के कुछ लोगों की चिट्ठीयां पढ़ कर उन्हें सुनाना और उन की चिट्ठीयों के जवाब लिख कर देना...मैं कभी भी उन्हें इस काम के लिए मना नहीं करता था...लेकिन वह चाहते थे कि मैं ही उन की चिट्ठीयां लिखूं...😄..मुझे कहीं न कहीं अपनी नानी का ख़्याल भी आ जाता उन दिनों ,जो बस दो-चार क्लास गुरमुखी पढ़ी थीं, इसलिए उन्हें हिंदी में खत लिखने-पढ़ने के लिए पड़ोस की लड़कीयों की खुशामद करनी पड़ती थी...

मालगुडी डेज़ के डाकिये को अगर जानना हो तो इस लिंक पर क्लिक कीजिए ..

खैर,...पेनफ्रेंड शिप के बारे में बाद में भी सोचता रहा ...लेकिन इस पूल में डुबकी न लगाई ..फिर तो डिजिटल दुनिया में इस तरह के शौक की कोई जगह ही न थी.....लेकिन कल ही मुझे एक नवयुवक से पता चला है पोस्टक्रासिंग डॉट काम के बारे में ..आप भी एक बार इसे देख तो ज़रूर लीजिए... postcrossing.com ---मुझे तो इसे देख कर बहुत मज़ा आया। 

और हां, उस दिन मैंने जब जीपीओ के बाबू को एक ख़त स्पीड पोस्ट के लिए दिया तो उसने मुझे कहा कि यह आप की हैंड-राइटिंग है ...मैने कहा ..जी, मेरी ही है ..उसने कहा कि आप को हैंड-राईटिंग बहुत सुंदर है । मैं किसी के साथ शेयर कर रहा था कि यह कंप्लीमेंट मेरे लिए अभी तक का सब से कीमती कंप्लीमैंट है ..एक बाबू जिस की नज़रों से हज़ारों-लाखों हस्त-लिखित काग़ज़ गुज़र गए ...अगर उस ने भी तारीफ़ कर दी एक पते को देख कर तो .....!! लेकिन अपने आप को यह याद दिलाना भी ज़रूरी है कि ज़मीन पर टिका रहो..इतना उड़ने की भी ज़रूरत भी नहीं...बडे़ से बड़े कलाकार पड़े हैं, मैंने अभी दुनिया देखी ही कितनी है...! 

और हां, उस दिन एक संयोग यह भी तो हुआ कि पोस्ट-बाक्स की रंगाई-पुताई हो रही थी ...मैं यह देख कर रूक गया और इन को कहा कि आज पहली बार किसी पोस्ट-बाक्स की रंगाई होते देख रहा हूं , अच्छा लगा, इसलिए एक फोटो ले रहा हूं....वह दोनों भी बहुत खुश हुए और कहने लगे कि बंबई जीपीओ के अंतर्गत आने वाली सभी डाक-पेटियों की रंगाई-पुताई हर बरस होती है ...यह बात भी ऩईं पता चली थी....

आप के काम को मैं सलाम करता हूं...

अब यहीं ब्रेक लगा रहे हैं.....और डाकिये पर फिल्माया मेरा बेहद पसंदीदा गीत आप भी सुुनिए...और गुज़रे दौर की यादों में खो जाइए कुछ लम्हों के लिए ही सही ...बाद में दिन भर की भाग-दौड़ में तो हम सब को दौड़ना ही है ...

अरे यार, बंद करते करते निदा फ़ाज़ली साहब की बात याद आ गई...

"सीधा सादा डाकिया जादू करे महान....

एक ही थैले में भरे, आंसू और मुस्कान ..

वो सूफी का क़ौल हो या पंडित का ज्ञान.

जितनी बीते आप पर उतनी ही सच मान....."😎👏

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2021

बिग बी ने छोड़ा पान मसाले का विज्ञापन

अभी अभी अखबार में यह ख़बर पढ़ी तो मुझे बहुत खुशी हुई ...वरना जब से मुझे पता चला था कि बिग बी अब पान मसाले की सरोगेट एड्वर्टाईज़िंग कर रहा है, मुझे उस पर गुस्सा तो आ ही रहा था..लेकिन वही बात है, मेरे जैसे तुच्छ बंदे के गुस्से का उस की सेहत पर भला क्या असर, सिर्फ़ अपने आप में कुढ़ने वाली बात ही तो है...


लीजिए, आप भी टाइम्स ऑफ इंडिया में आज प्रकाशित हुई इस ख़बर को ख़ुद पढ़ लीजिए...अगर पढ़ने में दिक्कत लगे तो इस की तस्वीर पर क्लिक करिए। अमिताभ कह रहे हैं कि उन को यही न पता था कि वे पान मसाले का सरोगेट एड्वर्टाईज़िंग कर रहे हैं...इस के बारे में आप क्या सोचते हैं, चलिए, आप जो भी सोचें...सोचते रहिए। 

पान मसाले से पैदा होने वाले ओरल-सब-म्यूक्स फाईब्रोसिस के सैंकड़ों मरीज़ देखे, कई कईं बरसों तक उन का फालो-अप भी किया ..डेंटल कॉलेज जैसी प्रीमियर संस्थाओं के विशेषज्ञों के पास उन को इलाज के लिए भी भेजा लेकिन मुझे इस वक्त यह ख्याल नहीं आ रहा कि पान मसाले से पैदा हुई यह बीमारी किसी की ठीक हो गई हो ....हां, सैंकड़ों में कोई ऐसा मरीज़ ज़रूर दिखा जिस का मुंह इस बीमारी की वजह से पहले बिल्कुल कम खुलता था, लेकिन जब पान मसाले को छोड़ दिया तो बहुत लंबे अरसे के बाद उस का मुंह बिल्कुल थोड़ा सा थोडा़-बहुत निवाला धकेलने लायक खुलने लगा ...और यह उसने ख़ुद कहा कि अब मुंह में घाव न होने की वजह से और मुंह थोड़ा ज़्यादा खुलने की वजह से खाना तनिक आराम से खा ले पा रहा हूं...लेकिन वैसे तो जो एक अपंगता आ जाती है, मैंने वह एक भी मरीज़ की जाती नहीं देखी...

लेकिन एक बात तो पक्की है कि जब भी कोई पान मसाला छोड़ देता है - उसे मुंह के घाव-वाव में तो थोड़ी राहत महसूस होती ही है..अगर तब तक उस के मुंह के अंदर की चमड़ी में कैंसर के बदलाव न आ चुके हों तो थोड़ा बहुत आराम तो उसे महसूस होता ही है... लेकिन दो एक केस मैंने ऐसे भी देखे हैं कि जिन को पान मसाले से उत्पन्न यह बीमारी थी, उसने पान मसाला भी छोड़ दिया (जैसा उन्होंने मुझे बताया) लेकिन 10-15 साल बाद उन्हें फिर भी मुंह का कैंसर हो गया। 

पान मसाले की बुराईयां गिनाते-सुनाते, इस से पैदा होने वाले बीमारयों से जूझ रहे मरीज़ों की आपबीती दुनिया तक पहुंचाते पहुंचाते हम बूढ़े हो गए हैं...पिछले 15-20 बरसों में यही कोई 150-200 लेख तो इस ज़हर के विभिन्न पहलुओं को कवर करते हुए हिंदी और इंगलिश में लिख लिख कर बहुत से काग़ज़ काले कर डाले 😄 ...अब इच्छा नहीं होती...इस के लिए जितना ज़रूरी कंटैंट क्रिेएट करना था, कर दिया है ...सब कुछ ऑनलाइन पडा़ है ... बिल्कुल कॉपी-लेफ्टेड रखा है ....उसे कोई भी कापी करे, पेस्ट करे, कहीं भी इस्तेमाल करे...बिल्कुल भी किसी तरह का क्रेडिट भी नहीं चाहिए.....लेकिन बस पान मसाला हमेशा के लिए छुड़वाने में जुट जाए।

पान मसाले पर चाहे मैं अब लिखता नहीं हूं लेकिन इस का इस्तेमाल करने वाले हर इंसान की 10-15 मिनट की ब्रेन-वॉशिंग क्लास मैं ज़रूर लेता हूं ...बस, कुछ लिखने का मन नहीं करता ...जितना कहना था, कह लिया...वैसे भी लोग इस पर लिखी वार्निंग से नहीं डरे,...फिर सरकार ने डरावनी तस्वीरें इस के पैकेट पर छपवानी शुरू कीं...उस से भी नहीं डरे...यह एक बहुत बड़ा काम था सरकार के लिए...पान मसाला, गुटखा व्यापारीयों का खेल बहुत बड़ा है, वे नहीं चाह रहे थे इस रूप में पिक्टोरियल वार्निंग जिस तरह की हम आज कल इन पैकेटों पर देखते हैं... सुप्रीम कोर्ट तक बात गई...सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही ये ख़तरनाक तस्वीरें इन पैकेटों पर छपने लगीं। लेकिन मुझे यह कभी नहीं लगा कि लोग इन तस्वीरों से डर गये हों....नहीं, वैसे ही धड़ल्ले से चबा-खा रहे हैं, और अपने पैरों पर कुल्हाड़ी हर दिन मारे जा रहे हैं....

गुटखे पर बैन लगा तो पानमसाला और पिसी हुई तंबाकू के अलग अलग पाउच मिलने लगे ... और इन को मिला लिया तो हो गया गुटखा तैयार ...यही हम आज कल हर जगह देख रहे हैं...जब यह सब देखते हैं तो बहुत दुःख होता है, सर भारी हो जाता है ...

जिस तरह से मुंह के कैंसर के रोगी का आप्रेशन करते करते कैंसर सर्जन के घंटों खड़े रहते हुए पसीने छूटने लगते हैं....8-10 घंटे चलनी वाली सर्जरी, पहले दांतों के साथ जबड़े की हड्डी को सर्जरी के द्वारा काट कर अलग करना ..फिर प्लास्टिक सर्जन का घंटों तक काटे हुए गालों को शरीर के दूसरे हिस्से से चमड़ी लेकर थोड़ा बहुत बनाने की कोशिश करना ...और सोचने वाली बात यह भी है कि कितने लोग इस तरह का इलाज करवा पाते हैं....सीधी सीधी बात है 100 में से दो चार प्रतिशत ही करवा पाते हैं...कारण आप भी जानते हैं...अधिकतर नीम हकीमों के चक्कर में पड़े पड़े हार जाते हैं...

Areca Nut- Smokeless Tobacco plays havoc with young lives! 

Oral Submucous Fibrosis in a 58-year old pan-masala chewer 

Mouth Pre-cancer in a 32-year old male 

आज बिग बी की खबर दिखी तो इस पर लिखने बैठ गया...अच्छा किया बिग बी ने जो यह पान मसाले की सरोगेट एड्वर्टाईज़िंग से किनारा कर लिया ....चलिए, आप भी मान लीजिए कि बिग बी को पता ही न था कि वे पान मसाले की सरोगेट ए्ड्वर्टाईज़िंग कर रहे थे ...होता है, कभी कभी बड़े बड़ों को धोखा हो जाता है ..