शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

बी.ए किया है, एम.ए किया ....लगता है वो भी ऐवें किया..

 यह जो खूबसूरत गीत है न यह "मेरे अपने" फिल्म का है ...बहुत अच्छी फिल्म थी...1973-74 के आसपास अमृतसर में नया नया टीवी आया था- हमारे पड़ोसी कपूर साहब ने भी उन्हीं दिनों खरीद लिया था...उन्हें मुबारक देने गए तो वहां यह फिल्म चल रही थी .. उन्होंने उठने नहीं दिया और फिर यह फिल्म वहीं बैठे बैठे देखी...यह गाना दिल में समा गया हो जैसे ...उस के बाद तो अकसर रेडियो पर बजता यह गीत सुनाई दे ही जाता था...

लेकिन यह सुबह सुबह ...बी ए किया है, एम ए किया...लगता है सब कुछ ऐवें किया...यह गीत का ख्याल कैसे आ गया। कोई भी चीज़ बिना वजह नहीं होती ...बस, इस की भी है। उस दिन मैंने एक एंटीक शॉप पर जब सुंदर फ्रेमों में आज से 55-60 साल पुरानी एक डाक्टर (नाम जान कर आप क्या करेंगे, बस इतना जानना आप के लिए काफ़ी है कि मैं सच कह रहा हूं) की कुछ डिग्रीयां दुकान में दिख गईं...

डिग्रीयां कौन सी? - इन चार फ्रेमों में बंबई यूनिवर्सिटी की एमबीबीएस, एम डी (आब्सटेट्रिक्स etc branch) -ऐसा ही एट्सेट्रा भी लिखा हुआ था ..और कॉलेज ऑफ फिज़िशियन से फैमली प्लानिंग का डिप्लोमा और गाईनी-ओब्स का डिप्लोमा....मुझे बेटे कहते हैं कि मैं एक क्यूरेटर हूं ...मुझे भी अब यही लगने लग गया है ....क्योंकि मैं पुरानी यादों को ही नहीं सहेजता, मुझे सभी एंटीक चीज़ें बहुत ज़्यादा रोमांचित करती हैं...और मैं इन को हर कीमत पर खरीद ही लेता हूं...आज से 60 साल पुराना कोई मैगज़ीन जिस के ऊपर उस की कीमत 75 पैसे लिखी हुई है ...उसे एक हज़ार में भी खरीद लेता हूं ...वह कहते हैं न कि शौक का कोई मोल नहीं होता ...यही हाल फाउंटेन पेन, एंटीक कलमदानों, इंक-पॉस्ट्स का, किताबें है...जब मैं इस तरह की एंटीक की दुकानों पर जाता हूं तो मुझे यह देख कर बड़ी राहत महसूस होती है कि इस तरह का नमूना मैं ही नहीं, और भी बहुतेरे हैं...लखनऊ की एक एंटीक शॉप पर मैंने देखा एक महिला को ...ड्राईवर के साथ अपनी बीएमडब्ल्यू में आई थी और बाबा आदम के ज़माने की कपड़े इस्त्री करने वाली प्रेस ले कर चली गई ...वह प्रेस जिसे हम लोग घर में कोयले डाल कर पहले गर्म करते थे। अपने इस शौक के चलते मुझे अपने जैसे बहुत से नमूनों को देखने का, उन से गुफ़्तगू करने का सबब हासिल होता ही है ...

खरीदते समय लगता भी है कि यार इस चीज़ की इतनी कीमत क्यों दे रहे हैं..लेकिन वह ख़्याल दो मिनट के लिए ही आता है ...

हां, तो बात रही थी उन बेहद खूबसूरत लकड़ी के पुराने फ्रेमों की ...मैंने वह नहीं खरीदे क्योंकि उन में रखी डिग्रीयां देख कर मेरा मूड खराब हुआ...पैसे वह 2 हज़ार मांग रहा था ..लेकिन दो चार सौ कम भी कर लेता, कह रहा था...लेकिन मेरी इच्छा ही नहीं हुई उन फ्रेमों को वहां से उठाने की ...

दो तीन साल पहले की बात है मैंने जब यहीं बंबई में एंटीक फ्रेम देखे तो उन में बुज़ुर्ग लोगों की तस्वीरें भी पड़ी दिखीं...मुझे तब भी बहुत ज़्यादा अजीब लगा था ..मैं कईं दिन यही सोचता रहा कि जिसने भी इन्हें इस दुकान तक पहुंचाने का काम किया ...वह बुज़ुर्ग औरत उस की भी कुछ तो लगती ही होगी....और यहां एंटीक शॉपस में चीज़ें स्क्रैप-डीलर ही पहुंचाते हैं....ये दुकानदार कोई क्यूरेटर नहीं है जो इन सब चीज़ों के लिए जगह जगह हंटिंग करते हों...लेकिन कुछ लोग करते हैं...लखनऊ में मैंने जब एक बुज़ुर्ग बंदे से एक बहुत ही खूबसूरत क़लमदान खरीदा तो मैंने उसे पूछ ही लिया कि ये सब आप को मिलते कहां हैं...उसने बताया कि इन चीज़ों को हासिल करने के लिए हमें गांव गांव की ख़ाक छाननी पड़ती है...और मुझे विश्वास है कि वह सच ही कह रहा था। 

डाक्टर साहब की डिग्रीयां देख कर मन में कईं तरह के विचार आते रहे ....किस ने उन्हें यूं ही फिंकवा दिया होगा ...क्या डाक्टर साहब ज़िंदा होंगे ..कहीं कोरोना तो नहीं खा गया उन को ..डिग्री पर लिखी तारीख से मैंने यह हिसाब भी लगाया कि अगर वे अभी होते तो आज कुछ ज़्यादा नहीं, यही 80 साल के करीब होते....आज के हालात में यह कोई इतनी बड़ी उम्र भी नहीं है ..कल ही पता चला कि लगभग इसी उम्र का एक कैंसर विशेषज्ञ रोज़ाना दस लाख रूपये कमा लेता है...जब यह पता चला तो मैंने उस के शतायु होने की दुआ की ...ताकि अच्छे से कमाई करने की उस की हसरत भी पूरी हो जाए...

ज़िंदगी में कुछ वाक्यात ऐसे होते हैं जो अमिट छाप छोड़ जाते हैं...हम अपनी डिग्रीयों को कितना संभाल संभाल कर रखते हैं...पहले तो हम लेमीनेट भी करवा लेते थे ..फिर उन्हें यहां वहां फ्लांट भी करते थे ...फ्रेम में लगा कर टांग भी देते थे ... और मैंने देखा है, अनुभव किया है कि जब ये डिग्रीयां नईं नईं हासिल होती हैं तो चंद महीनों-बरसों के लिए हम आसमां पर जैसे उड़ते रहते हैं, नीचे उतरते ही नहीं....फिर आहिस्ता आहिस्ता जैसे जैसे ज़िंदगी के थपेड़े पड़ते हैं, आटे दाल का सही भाव मालूम होने लगता है...ज़िंदगी की असलियत समझ में आने लगती है ...इन डिग्रीयों से परे भी ज़िंदगी है, यह जान जाते हैं ...इन डिग्रीयों से कहीं ज़्यादा तो जब हमें हमारे मरीज़ ही सिखा जाते हैं...बहुत कुछ तो दुनिया ही सिखा देती है ...हम जब अच्छे से घिस जाते हैं तो एक फलदार पेड़ की तरह पूरी तरह से झुक जाते हैं ......और मैंने अनुभव किया है कि जितना कोई घिस चुका है ...वह उतना ही नरम और विनम्र होता चला जाता है....यह स्टेटमेंट मैं बड़ा सोच समझ कर दे रहा हूं....वैसे भी 60 साल की उम्र में जो कुछ भी कहा जाता है, वह बड़ा सोच विचार  कर ही कहा जाता है...😄और वैसे भी हम सब देखते ही हैं कि जो शाखाएं एकदम तनी रहती हैं, झुकना जो सीख नहीं पातीं, वे अकसर आंधीयों में टूट जाती हैं..😔

चलिए, इन यादों को यहीं समेटते हैं...उस डाक्टर की याद को सलाम- क्या, आप उस का नाम जानना चाहते हैं? - नहीं, यार, यह काम नहीं होगा...वह अपने मरीज़ों के राज़ लंबी उम्र तक राज़ ही रखता रहा, और मैं उस का नाम लिख कर यह जगजाहिर कर दूं कि उस की डिग्रीयां यूं बीच बाज़ार यूं फ्रेम समेत नीलाम हो रही थीं...नहीं, नहीं, यह काम मैं नहीं कर सकता। क्योंकि सोचने वाली बात यह है कि हम लोगों का भी देर-सवेर हश्र तो यही होने वाला है ...

इसलिए नाम-वाम के चक्कर में मत पड़िए., आराम से सुबह सुबह मेरे साथ सुंदर सा फिल्मी गीत सुनिए....और जो बात इस में कही जा रही है, उसे भी याद रखिए ...आने वाला पल जाने वाला है ...😄😄कालेज के दिनों में कड़की होते हुए भी कोई भी फिल्म देखने से महरूम न रहे...और कालेज की पढ़ाई से कहीं ज़्यादा इन की सपनीली दुनिया के सुनहरों ख़्वाबों में ही खोेए रहे....क्या करें, यह तो भई सारा कसूर उस बाली उम्र का था!!!😉

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2021

अमृतसर का नवरात्रि उत्सव ...यादों के पिटारे से

पंजाबी में हम नवरात्रि को नवरात्रे या कई बार जल्दबाजी में नराते भी कह देते हैं ...कल दोपहर में पता चला कि हमारे एक साथी ने यहां मुंबई में अपने घर में घट की स्थापना की है ...यह पता लगने पर हमने भी सोचा कि अपने यादों की पिटारी को हम भी खोल लें...

जी हां, यह पचास साल पुरानी यादें हैं....अब आप सोच रहे होंगे कि यह सब लिखने की क्या ज़रूरत ...यह भी कोई लिखने वाली बात हुई...लेकिन ये सब बातें अगली पीढ़ीयों तक पहुंचाने के लिए दर्ज करनी ज़रूरी हैं...जैसे हम लोग पुराने लेखकों का 100 साल पुराना लिखा पढ़ते हैं तो मस्त हो जाते हैं.. उस ज़माने की बातें पता चलती हैं...ये सिर्फ लेख ही नहीं, उस ज़माने के दस्तावेज़ हैं।  अगर हम नहीं लिखेंगे अपनी आपबीती तो अगली पीढ़ीयां कहां से हमारे ज़माने की बातें जान पाएगी...कैसे वह अतीत के झरोखे में झांक पाएगी। 

रही बात फ़ुर्सत की ...कोई इतना भी ज़्यादा खाली नहीं होता कि वह लिखने लग जाए....बस एक जज़्बा होता है कुछ संजो कर रख लेने का ....और हां, जब कोई नया नया ब्लॉगिंग में कदम रखता है तो उसे यह बात बड़ी अजीब सी लगती है कि उसे अपने बारे में इतनी सारी बातें लिखनी पड़ती हैं ..कुछ पर्सनल भी ...लेकिन लिखते लिखते फिर एक स्टेज ऐसी आती है कि ब्लॉग के ज़रिए हमारी ज़िंदगी एक खुली किताब जैसी ही लगने लगती है ...लेकिन इसमें भी कुछ मेरे जैसे लोग उस किताब को चाहते हुए भी पूरी तरह से नहीं खोल पाते, हर आदमी की खास कर के नौकरी पेशा लोगों की कुछ मजबूरियां होती हैंं ...खैर, कोई बात नहीं ...किताब जितनी खुल पाए, उतनी ही ठीक है । वैसे लिखने को तो ऐसी ऐसी बातें हैं कि सुनामी आ जाए...लेकिन हंगामा खड़ा करना अपना मक़सद भी तो नहीं।

बहरहाल, अमृतसर के नरातों की जो बचपन की यादें मेरे ज़ेहन में करीने से पड़ी हुई हैं इस वक्त उन्हें साझा कर रहा हूं...इस वक्त सुबह के साढ़े पांच बज रहे हैं ...आज नवरात्रि का दूसरा दिन है ...मैं सीधा 50-52 बरस पहले आप को अमृतसर शहर में लेकर जा रहा हूं...नवरात्रि के इन दिनों में मां और उन की चार पांच सहेलीयां सुबह घर से नंगे पांव चल कर घर से दो एक किलोमीटर दूर अमृतसर के प्रसिद्ध दुर्ग्याना मंदिर जातीं...जाते जाते रास्ते में माता की भेंटें गुनगुनाती जातीं महिलाओं की यह टोली ...और एक टोली नहीं, सडक पर महिलाओं की टोलियां ही टोलियां दिखतीं...यह वह दौर था जब महिलाओं बेधड़क इतनी सुबह भी कहीं आने जाने का बिना किसी डर के सोच सकती थीं...

मुझे कैसे पता है यह सब ...क्योंकि जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है इस वक्त दो एक बार मैं भी इतनी सुबह उठ बैठा था और मां और उन की सहेलीयों की टोली के साथ हो लिया था...मैंने उस दिन देखा कि वहां दुर्ग्याना मंदिर में ये सब महिलाएं माथा टेकती हैं, और वहां से पुजारी इन्हें छोटी गड़वी (लोटे) में कच्चा दूध देते हैं ...(कच्चा दूध मतलब पानी और दूध का मिश्रण)....लिखते वक्त कुछ बातें अपने आप ही याद आने लगती हैं...कल तक मुझे यही याद था कि वहां से महिलाएं पानी ले कर आती थीं...अभी लिखते लिखते ख्याल आया कि नहीं, वह तो कच्चा दूध होता था ...

फिर वहां से लौटते वक्त मैं किसी न किसी मिट्टी के खिलौने के लिए मचलने लगता था ...मुझे यह तो बड़ा अच्छा से याद है कि एक दिन मैं नींद से उठा और मैंने देखा मां मेरे लिए मिट्टी का खिलौना लाई हैं...एक हरे रंग का तोता- और मैं बहुत खुश हुआ था... ऐसे ही मैं कभी साथ जाता तो मिट्टी की गोलक या कोई भी और खिलौना मां ज़रूर दिलवा देती ....(एक बात जो बार बार लिखने को दिल करता है कि हमारी मां ने कभी पिटाई करना तो दूर, कभी गुस्से से देखा तक नहीं...किसी काम के लिए मना नहीं किया ..मां जब 80-85 बरस की हो गईं तो हम भाई बहन जब मिलते तो उन को यह कह कर छेड़ा करते कि आप भी कैसी मां हैं, बीजी, आपने किसी भी बच्चे को कभी पीटा ही नहीं...)

ख़ैर, आगे चलें.... लो जी ्अमृतसर के मंदिर से कच्चा दूध ले आई मां ...और हां, एक बात तो लिखनी भूल ही गया कि सुबह मंदिर जाने से पहले नहाना भी ज़ूरूरी होता था...और फिर वहां से लौट कर उस कच्चे दूध को खेतरी में डाला जाता था ...हर जगह पर अलग अलग नाम हैं...बहुत सी जगहों पर जिसे घट स्थापना (कलश स्थापना) कहते हैं...उसे अमृतसर में खेतरी बीजना कहते थे ... नवरात्रि शुरू होने के एक दिन पहले ही एक मिट्टी का बर्तन ले आते थे ..और साथ में जौं भी मिलते थे ..आजकल की तरह मिट्टी भी बाज़ार से नहीं लानी पड़ती थी ...क्योंकि हम लोग हर मिट्टी ही से जुड़े रहते थे...आस पास मिट्टी की कोई कमी न थी, इसलिए उस मिट्टी के खुले से कटोरे में जौ बीज दिए जाते थे ...और रोज़ाना बड़ी श्रद्धा भाव से उस में कच्चा दूध डाला जाता था...

दो तीन दिन पहले मुंबई के भायखला इलाके में भी घट बिकते दिखे- मिट्टी समेत!

बात एक और याद आ रही है कि नवरात्रि के दिनों में मां पूरी रामायण ज़रूर पढ़तीं ...वैसे भी मां को रामायण पढ़ते हम अकसर देखा करते थे ..लेकिन नवरात्रि में तो पूरी पढ़ती थीं...सभी श्लोकों को पूरी लय के साथ पढ़ती और दुर्गा स्तुति का पाठ भी ज़रूर करतीं ... एक दो दिन नवरात्रि के व्रत भी रखतीं ...और उन दिनों संघाडे के आटे, कुट्टू के आटे के जो तरह तरह के पकवान बनते और विशेष तरह का फलाहार जो हम सब लोग खाते, वह हमें बहुत अच्छा लगता...तब हम ने यह कुट्टू के आटे के मिलावट के बारे में कुछ नहीं सुना था...यह तो बीस साल से ही हम देख सुन रहे हैं कि मिलावटी या पुराने कुट्टू के आटे की वजह से इतने लोग बीमार हो गए और इतने लोग परेशान हो गए।.

लीजिए, एक सप्ताह बीत गया... खेतरी में जौ की शाखाएं लहलहाने लगीं... लोग इतने सीधे कि अगर किसी की खेतरी में जौ कम अंकुरित होती तो गृहणियां उदास सी हो जाती और अगर शाखाएं बड़ी बड़ी होती तो उल्लास का माहौल होता कि भगवती मां की कृपा अपार हो गई। दुर्गाष्टमी के दिन सुबह कन्या-पूजन किया जाता ... सात कन्याएं एवं एक बालक (जिसे वीर लौंकड़ा कहा जाता था) को सादर बुलाया जाता ...मैं या मेरा भाई, कईं बार मां भी पानी से उन के पैर धोते, फिर बहन उन सब के हाथों पर मौली बांधती, मां उन्हें तिलक लगातीं...और फिर बड़े प्रेम से उन्हें पूरी-छोले-हलवा का प्रसाद खिलाया जाता और जाते समय बडे़ प्रेम से कुछ पैसे भी दिए जाते ....कितने ...अच्छे से याद है  50 साल पहले तो ये 25 या 50 पैसे का सिक्का होता, फिर एक रूपया का सिक्का ... कुछ सालों बाद हर कन्या को दस रूपये के नोट की भेंट दी जाने लगी ...कईं बार मां उन के लिए कोई स्टील का बर्तन जैसे प्लेट ले कर आतीं ...हर एक को वह दी जाती ...कईं बार रबड़ का गेंद, लकड़ी के गीटे (अब गीटे अगर आप नहीं जानते तो मैं आप को यह हिंदी में समझा नहीं पाऊंगा) या मां उन के लिए लाल रंग की चुन्नियां पहले से खरीद कर रखतीं उन्हें भेंट देने के लिए। 

कन्या पूजन को पंजाबी में कंजक बिठाना ही कहते हैं ...कंजकों के जाने के बाद ही हम लोग पूरी-छोले और हलवे पर टूट पाते ...और तब तक खाते रहते जब तक खाते खाते थक ही न जाते ..और अकसर उस दिन दोपहर में भी हलवा-पूरी ही चलता ...

अब सुनिए...दुर्गाष्टमी के दिन शाम को मोहल्ले की औरतें इक्ट्ठा हो कर बच्चों को साथ लेकर उस खेतरी को प्रवाह करने जातीं...अभी मैं अपनी बहन के साथ बैठा उन दिनों को याद कर रहा था तो वह भी झट से बोलीं...बिल्ले, हमें उस मेले में जाकर कितना मज़ा आता था। जी हां, उस खेतरी को हम लोग दुर्ग्याणा मंदिर में रख आते थे ...वहां पर हम हज़ारों खेतरियों का पहाड़ लगा हुआ देख कर हैरान हो जाया करते ...फिर वहां से मंदिर के प्रबंधक उन्हें किसी ट्रक-ट्राली में डाल कर सामूहित तौर पर बहते पानी में प्रवाह कर देते थे ...और उस शाम मंदिर के बाहर एक मेला लगा होता था ...आलू की टिक्की, तीले वाली कुल्फी, चाट-पापड़ी, गोलगप्पे, बर्फी-जलेबी ..क्या था जो उस दिन हमें वहां दिखता न था....सब लोग जितना दिल चाहे खाते थे ...मैंने उन मेलों में 60 पैसे की आलू की टिक्की जो खाई हैं कुछ बरसों तक वैसी मैंने कभी 60 रूपये में भी नहीं खाई...वह हरी चटनी, और प्याज़...कुछ अलग ही जादू है अमृतसर के खाने-पीने में ....मैं कहीं पर भी इस की गवाही देने के लिए तैयार हूं...

फिर जैसे जैसे हम बड़े हो गए...हम झिझकने लगे...उस मेले में जाना बंद हो गया...मां ही सहेलीयों साथ चली जातीं....

नवरात्रि के दिनों के बारे में एक बात और भी तो दर्ज करनी है कि वैसे भी हमारे घर में मंगलवार के दिन मीट-अंडा नहीं बनता था ..लेकिन नवरात्रि के दिनों में तो बिल्कुल नहीं ..लोग लहसून-प्याज़ तक का इस्तेमाल नहीं करते थे...अब मुझे याद नहीं कि इतने सब पतिबंध हमारे यहां भी लगते थे या नहीं, लेकिन मेरे ख्याल में नहीं.... बस, मीट-अंडे से उस हफ्ते दूर रहते थे...अब तो 25 साल से सब कुछ छोड़ रखा है ..कभी यह सब खाने की इच्छा ही नहीं होती ...अंडा तो मैंने कभी भी नहीं खाया, बताते हैं कि बचपन में अगर देने की कोशिश की जाती थी तो मैं थूक देता था ...बस, इसीलिए आज तक अंडा खाया ही नहीं। 

अरे यार, मैं पोस्ट बंद करने लगा हूं और अमृतसर के नवरात्रों की एक विशेष बात तो शेयर करनी भूल ही गया ....वह यह है कि जो नवरात्रे इन दिनों में आते हैं वहां पर छोटे बच्चों और बड़ों को लंगूर बनाने का चलन है ...यह क्या है, सुनिए....लोगों ने जैसे कोई मन्नत मांगी ...और जब उन की मनोकामना पूर्ण होती है तो वे उस बच्चे या बड़े को सात-आठ दिनों के लिए अमृतसर के हनुमान मंदिर में लंगूर बना कर ले जाते थे...

घर ही से बच्चे को लंगूर के कपडे़ पहना कर ढोल बाजे के साथ मंदिर तक जाना होता था ...वहां जा कर माथा टेक कर फिर ढोल-बाजे की रौनक के साथ घर वापिस लौटना होता था ...मुझे अच्छे से याद है कि लंगूर की ड्रेस कुछ लोग तो सिलवा लेते थे, और कुछ मंदिर के पास ही बनी दुकानों से किराये पर भी ले लेते थे ...हमें लंगूर देख कर बहुत मज़ा आता था..हम घर के अंदर कुछ भी कर रहे होते, जैसे ही हमें ढोल की आवाज़ सुनती हम सब काम छोड़ कर लंगूर के नाच का आनंद लेने बाहर आ जाते और तब तक वहीं खडे़ रहते जब तक वह आंखों से ओझिल न हो जाता ....और हां, जो परिवार अपने किसी बच्चे या बड़े को लंगूर बनाता तो आस पास रहने वाले अपने सगे-संबंधियों और मित्रों को भी निमंत्रण देता कि आप भी हमारे साथ चला करिए ...और लोग जाते भी थे....

अभी मैं अपनी बात पूरी कह नहीं पाया...लेकिन उसे पूरी ज़रूर करूंगा. ..अमृतस के इन नवरात्रों के बारे में और भी लिखूंगा....महान गायक नरेंद्र चंचल से जुड़ी यादें भी अभी साझा करनी हैं...मधुरतम यादें बचपन की। 

अब बहुत हो गया....कुछ और याद आएगा तो फिर से लिख दूंगा ...अभी के लिेए इतना ही काफी है...यही सोच रहा हूं कि हम लोगो का बचपन भी कितना ख़ुशग़वार गुज़रा है ...सुनहरी यादों का ख़ज़ाना है अपने पास ....आज के दौर का गाना भी है न एक सुंदर सा ...यह दिल है मेरा यारा इक यादों की अल्मारी, जिस में रखी है मैंने यह दुनिया सारी...यह रहा इस गीत का लिंक (अगर नीचे दिया लिंक न चले तो।...

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2021

धीरे धीरे सुबह हुई ...जाग उठी ज़िंदगी..

मैं अपने मरीज़ों को यह ज़रूर कहता रहा हूं कि दिन में जब भी मौका मिले टहल लिया करो....और सुबह का वक्त तो इस काम के लिए सब से बेहतरीन होता ही है... दोस्तो, मैंने ऐसे ऐसे लोगों को वॉकर के साथ टहलते देखा है कि अगर ८-९ बजे तक लंबी ताने सोए रहने  जवान लोग उन्हें बाग में टहलते देख लें तो शर्म से पानी पानी हो जाएं...

मुझे अगर मरीज़ कहते कि हम ज़्यादा चल नहीं सकते तो मैं उन्हें कहता कि आप ने रेस नहीं लगानी, जितना आराम से चल सकते हैं, उतना चलिए...चलने का लुत्फ़ लीजिए...कुछ ऐसे महिलाएं जो कहतीं कि बिल्कुल भी कहीं जाने की तमन्ना ही नहीं होती...चलने की तो बिल्कुल नही....मैं उन्हें कहता कि जब भी वक्त मिले घर के पास के किसी बगीचे में ही बैठ जाइए..सर्दी है तो धूप का आनंद लीजिए, पेड़ पौधे, फूल-पत्ते देख कर तबीयत को हरा-भरा रखिए....कुछ तो मान भी लेते हैं ...

मैं सब को यही कहता हूं कि जितना भी हो सके एक-आध घंटे के लिए ही सही, घर से निकला तो करिए...जब भी हम लोग सुबह बाहर निकलते हैं, कुछ न कुछ नया दिखता है, क़ुदरती नज़ारे दिखते हैं...अचानक रास्ते में वे चीज़ें दिख जाती हैं जिन की तरफ़ वैसे दिन भर की आपा-धापी में कभी ध्यान ही नहीं जाता। 

कहते तो हम रहते हैं जब भी मौका मिलता है सभी को ...जो नहीं मानते उन से भी कोई गिला-शिकवा नहीं ...क्योंकि हम लोग नसीहत देने वाले ही कहां अपनी कही बातें ख़ुद मानते हैं...मैं सुबह सुबह साईकिल पर दूर तक जाना बहुत पसंद करता हूं ...मैं पिछले साल इन्हीं दिनों साईकिल पर रोज़ सुबह २०-२५ किलोमीटर घूम कर आता है ..ज़्यादातर तो बांद्रा से जुहू बीच होते हुए, वर्सोवा बीच तक जाता था और वहां से वापिस लौट आता था...कईं बार तो जुहू बीच की रेत पर अपनी फैट-बाइक भी चलाता था ..


फिर किसी बंदे ने नेक सलाह दे दी कि उस रेत में साई्कल चलाने में जितना ज़ोर लगता है न, तुम अपने घुटनों की बची-खुची सलामती भी खो दोगे... और मैंने यह सलाह मान ली। २ महीने साईकिल चलाया और वज़न १०-१२ किलो कम हो गया था...लेकिन पिछले ११ महीनों से साईकिल नहीं चलाता ...कोई कारण नहीं, जा सकता हूं लेकिन नहीं, आलस करता हूं ...पता भी है कि इस उम्र में बहुत ज़रूरी है ..अभी मैं कुछ दिन पहले सुबह साईकिल पर घूमने गया था ...बहुत अच्छा लगा था...बांद्रा से जुहू होते हुए इस्कॉन टेंपल तक गया और वापिस लौट आया...वही बात है, जैसे एक प्रसिद्ध कहावत है कि ...कुछ भी करने के मौसम नहीं, मन चाहिेए।

और जहां तक सुबह टहलने की बात है....वह भी कईं कईं दिन बाद ही होता है ....घर के आस पास ही किसी काम की वजह से जहां भी जाना होता है, वह पैदल ही जाता हूं और इसीलिए मैं यहां नया स्कूटर नहीं खरीद रहा हूं ..क्योंकि मुझे अपना पता है अगर मेरे पास स्कूटर होगा तो जैसा मैं हूं ...मैं अपनी टांगों को थोड़ी बहुत ज़हमत देनी भी बंद कर दूंगा। 

जहां हम अब रहते हैं...उस के सामने बीच है ...बढ़िया प्रॉमेनेड है, पास ही ख़ूबसूरत जागर्स पार्क है...और 10-15 मिनट की पैदल की दूरी पर बैंड-स्टैंड है वहां का भी प्रॉमनेड बहुत बढ़िया है ...इस एरिया में फिल्मी हस्तियां, मॉडल टहलते दिखते हैं अकसर ...लेकिन हम कईं कईं दिन बाहर निकलने का मूड बनाने में ही निकाल देते हैं...और जिस दिन अगर कभी टहल ही आएं तो सारा दिन वे तस्वीरें शेयर कर कर के दूसरों का जीना दूभर कर देते हैं... जैसा कि मैं अभी करने वाला हूं ...😎

मेरी बहन आई हुई हैं ...मेरे से 10 साल बड़ी हैं...डाक्ट्रेट हैं, यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर रही हैं...अभी भी यूनिवर्सिटी क्लासेस के लिए बुलाती है ..मुझे आठवीं तक इंगलिश-विंग्लिश खूब अच्छे से पढ़ाती थीं, मैं इन से अपने दिल की सभी बातें शेयर कर लेता था... आठवीं में पढ़ ही रहा था कि इन की शादी हो गई, मुझे बुरा लग रहा था, लेकिन मन में कहीं न कहीं यह भी खुशी थी कि अब इन का साईकिल मुझे मिल जाएगा...कल सुबह उन्हें बैंड-स्टैंड की तरफ़ लेकर गया तो बहुत अच्छा लगा...आलस त्याग कर जब भी सुबह उठ जाते हैं तो अच्छा ही लगता है ... 

ज़िंदगी की आपा-धापी में हम लोग बहुत सी चीज़ों को तो नोटिस भी नहीं करते ...बैंड-स्टैंड के पास ही अभिनेत्री रेखा के बंगले (बसेरा) के सामने यह बैंच हमने कभी आते जाते नोटिस ही नहीं किया था ... यह भी कोई दो एक सौ साल पुराना है ...और देखने लायक है ..

ध्यान से देखिए बंदा वॉकर की मदद से नीचे समंदर की लहरों तक पहुंच गया है ...जहां चाह वहां राह!!

रिमांइडर हर तरफ़ मिलते हैं हमें, लेकिन हम किसी की बात सुनें तों...यह एलडीएल को देख कर मुझे भी ख्याल आया कि कुछ दिन पहले करवाए मेरे लिपिड प्रोफाईल में भी कुछ लफड़ा था..डा जायस्वाल मैम ने कहा भी था कि ख़ूब तेज़ तेज़ रोज़ टहला करो...आज यह रिमांइडर फिर से मिला...

हैरानगी की बात यह भी है कि इतनी बार गये हैं इस तरफ़ लेकिन कभी यह चिल्ड्रन-पार्क की तरफ़ ध्यान ही न गया...आप यह तो नहीं सोच रहे न कि चिल्ड्रन पार्क में तुम क्या कर रहे हो...हम भी तो अभी बच्चे ही हैंं!

कौन है जिसे इन सुंदर फूलों को यूं ज़मीन पर पड़े देख कर "पु्ष्प की अभिलाषा" याद न आ जाती होगी!


सी.एस.आर भी अच्छी बात है ....कुछ बातें याद दिलाते रहना भी एक बड़ी ख़िदमत है ...

एक नेक महिला प्लेट में इस महारानी को खानी परोस रही दिखी ...और इसे बड़े प्यार से कुछ कह भी रही थीं साथ साथ ...शायद यह कह रही होगी कि तुम इतना बिगड़ा मत करो, अब मान भी जाओ...घर से निकलते निकलते कभी देर हो भी जाती है....मैं ऐसी सभी महिलाओं के इस जज़्बे के आगे नतमस्तक हूं ...

जनाब कौआ जी धरने पर बैठे हों जैसे...मानो कह रहे हों कि यह तो सब कुछ कबूतरों के लिए लिखा है, मेरे पेट पर क्यों लात मार रहे हो, मुझे भी तो कुछ खिलाओ...पिलाओ

सिर्फ इस लिए खीले (कील) ठोंक दिए गये हैं ताकि आते-जाते कोई थका-मांदा राही गल्ती से भी दो मिनट चैन की सांस न ले ले .....यह भी है मुंबई नगरिया तू देख बबुआ...जो अमिताभ न दिखा पाया डॉन फिल्म के उस गाने में ...

आज यहीं बंद करते हैं ..आज तो हम नहीं गए टहलने, कल के नज़ारों को ही इस पोस्ट में समेटने में लग गए...और कल सुबह से जिस गीत का बार बार ख़्याल आ रहा है, अब हम सब मिल कर वह गीत सुनते हैं- 'धीरे धीरे सुबह हुई...जाग उठी ज़िंदगी'...मेरे लिए यही सुबह की प्रार्थना, इबादत भी है ...जिसे बार बार कहने-सुनने को दिल मचलता है....😄यसुदास की मधुर आवाज़ के नाम!