मंगलवार, 5 अक्तूबर 2021

इह है बंबई नगरिया ...सच में?

 4 अक्टूबर 2021 - सुबह 9 बजे 

पश्चिम रेल की लोकल चर्चगेट जाती हुई ....2-3 मिनट में दादर स्टेशन आने वाला है ...फर्स्ट क्लास में डिब्बे में बैठा मैं अखबार पढ़ रहा था तो कहीं से बड़ी तेज़ तर्रार बहस की आवाज़ सुनाई दी..अकसर ऐसा लोकल गाड़ियों के फर्स्ट क्लास में मैंने कम ही देखा है। मैंने पीछे मुड़ के देखा...55-60 की उम्र का एक शख्स दरवाजे के पास खड़ा था ...और करीब तीस साल की उम्र का एक युवक उस से बहस कर रहा था...बहस, कुछ ज़्यादा ही गर्म लगी मुझे..लड़के ने उस अधेड़ उम्र के शख्स को कह रहा था...काका, यह जो अपनी ...(सुना नहीं मुझे कुछ) है, यह अपने घर के लिए रखो।

जैसा कि बंबई में होता है ..कोई किसी के मामले में अकसर पड़ते नहीं लेकिन मैं अपनी सीट छोड़ कर उस नौजवान की सीट के सामने वाली खाली सीट पर बैठ गया...उसे मैंने उसे इशारा किया कि चुप रहे ...फिर मैंने उस खड़े हुए शख्स को भी इशारा कर के कहा कि कोई बात नहीं, जाने दीजिए....कुछ नहीं ..कुछ नहीं....लेकिन इस के बाद भी वे दोनोें एक दूसरे को कुछ न कुछ कहते रहे ..लेकिन मेरी बात का कुछ तो असर दिखा मुझे ..मुझे अपने सफेद बालों का बहुत बड़ा फायदा यही लगने लगा है कि लोग मेरी बात सुन लेते हैं...दोनों कुछ कुछ नरम पड़ रहे थे ...इतने में मेरे साथ बैठे एक दूसरे आदमी ने भी उन्हें कहा कि कोई बात नहीं, रहने दीजिए..चलिए, जल्द ही वह गर्मागर्म बहस ठंड़ी पड़ गई..

बात इसलिए यहां लिख रहा हूं जो मैंनेे देखा है कि जब दो लोग झगड़े पर उतारू हो ही जाते हैं न तो अकसर दिल से वह यह सब सिरदर्दी मोल नहीं लेना चाहते हैं...बस, कोई बीच-बचाव कर के ...उस आग पर पानी डालने वाला पास नहीं होता...तमाशबीन लोग मज़ा लेने के चक्कर में होते हैं...हम तो भाई रह नहीं पाते....अंजाम कुछ भी हो, लेकिन कोशिश तो की जाए...और बहुत बार कोशिश रंग लाती ही है...

4 अक्टूबर 2021- रात 10 बजे - कुर्ला स्टेशन 

मध्य रेल के कुर्ला लोकल स्टेशन का पुल जो हार्बर लाइन से मेन लाइन प्लेटफार्म पर आने के लिए इस्तेमाल होता है। अभी मैं उस के ऊपर पहुंचा ही था..कल मेरे दाएं घुटने में कुछ ज़्यादा ही दर्द था, और मैंने नी-कैप भी नहीं पहनी थी ...खैर, ऊपर पहुंचते ही मुझे ज़ोर ज़ोर से मार-कुटाई की आवाजें सुनाई दीं...ध्यान से देखा तो दो 20-25 साल के युवक एक 20-22 साल के युवक को बुरी तरह से पीट रहे थे ...उस सिर पर और मुंह पर मुक्के मार रहे थे ...मुझे यह देख कर बहुत दुःख हुआ कि कोई भी बीच बचाव नहीं कर रहा था ....सब पास ही खड़े तमाशा देख रहे थे ... मैंने हिम्मत नहीं की आगे आने की क्योंकि जितने आक्रोश में वे दोनों युवक थे, वे कुछ भी कर सकते थे ..और साथ में यह कहे जा रहे थे कि मोबाइल पर हाथ मार रहा है ....ख़ैर, एक आधे मिनट में देखते ही देखते उस पिटने वाले जवान के मुंह से खून निकलना शुरू हो गया...मैंने सोचा मैं आगे बढ़ कर रूमाल ही दे दूं.....लेकिन न ही जेब में रूमाल था और न ही मेरे पास उस वक्त पानी की बॉटल ही थी....मुझे इस बात से बहुत आत्मग्लानि हुई। 

जब उसके मुंह से खून आने लगा तो वे दोनों युवक वहां से हट कर जाने लगे..इतने में वहां एक सिपाही पहुंच गया.....अब 30-40 लोग जो अब तक तमाशा देख रहे थे ...उन्होंने उन युवकों को मां की गाली निकाली और उन के पीछे हो लिए ...वे रुक गए...सिपाही उन के पास पहुंच गया...घायल युवक भी वहीं था...मामले की जांच होने लगी ...

मेरी ट्रेन का समय हो गया था, मैं वैसे ही लेट हो चुका था...मैं सीड़ियां उतर कर नीचे प्लेटफार्म पर पहुंच गया...और गाड़ी में चढ़ गया। मैं यही सोच रहा था कि इतना आक्रोश क्यों है आज लोगों में ...चंद लम्हों में कुछ भी कर सकते हैं...यह तो जंगल का कानून हो गया...अगर मोबाइल पर हाथ मार ही रहा था तो कानून है, पुलिस है ....यह कानून की किस किताब में लिखा है कि हम किसी को भी बुरी तरह से घायल कर दें...यह पागलपन है, दादागिरी है ..जो किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार नहीं की जा सकती। 

5 अक्टूबर 2021 - शाम - दादर (मध्य रेल) की इस्ट साइड - लक्ष्मी नारायण मंदिर वाली साइड - 

उधर से गुज़रते हुए देखा ..कुछ पुलिस वाले एक फुटपाथ के पास खड़े हैं...जल्द ही वे चले गए ..और एक युवक देखा जिस की बाजू से खून टपक रहा था ... कोई कह रहा था कि इस ने अपनी नस काट ली है, किसी की सुन नहीं रहा ...कुछ कुछ बोले जा रहा था...एक औरत ने कुछ कपड़ा देना चाहा तो भी ऊंची ऊंची आवाज़ में कुछ कहने लग गया...उस के पास जाने की कोई हिम्मत न कर पा रहा था ...

जी हां, यह है मुंबई की आंखों-देखी तस्वीर ....मुझे लगा इसे भी दर्ज कर दूं क्योंकि जब लोग अमिताभ का 45 साल पुराना गीत सुने ...यह है बंबई नगरिया..तू देख बबुआ....तो वे यह भी देखें कि अमिताभ की तरह बंबई भी बदल चुकी है ...अमिताभ भी अब इतना सब कुछ पा लेने के बाद भी पान मसाले की सरोगेट-विज्ञापन करने लगा है ...ख़ुदा जाने उस की क्या मजबूरी रही होगी...और बंबई के रंग ढंग भी बदल चुके हैं....सब के तेवर चढ़े रहते हैं...कुढ़ते रहते हैं, दिन भर पिसते हैं....कुंठित हैं.... बस बहाना ढूंढते हैं ...किसी के गले पड़ने का.. और लोगों को उन के पहनावे, झूठी शानो-शौकत और बाहरी दिखावे से ही पहचानने की भूल करते हैं अकसर ...

रोज़ाना सुबह यह प्रार्थना कर लेनी चाहिए...और जितना हो सके ..आग में घी की जगह, पानी छिड़कते रहिए....इस तपिश में ठंडक की बेहद ज़रूरत है...बाकी सब बेकार की बातें हैं...

रविवार, 3 अक्तूबर 2021

किताबों के ज़रिए भी हम दुनिया से रू-ब-रू होते हैं...

शादी के कुछ महीने बाद 1990 में हम लोग एक रात दिल्ली में मिसिज़ की मौसी के घर पहुंचे...सुबह श्रीमति जी का यूपीएससी इंटरव्यू था ..मौसा जी इंगलिश पढ़ाते थे दिल्ली में ...अरोड़ा साब...लेकिन वह रात मेरे लिए यादगार थी ...मैं उन के कमरे में उन के साथ था ...लेकिन कमरा क्या, वह तो भाई लाईब्रेरी ही दिख रही थी...हर तरफ़ किताबें ...और मेरी तो उत्सुकता थी ही किताबें के बारे में ...वह देर रात तक अपनी किताबों के बारे में बताते रहे ....देर रात कब नींद आ गई, पता न चला। कुछ दिन पहले उन के नाती की शादी पर दिल्ली गए तो मैं कितनी खुशी से उस दिन को याद कर रहा था .. हर तरफ़ किताबें, बेड के अंदर किताबें, गद्दे के नीचे किताबें....मैंने पूछा उन के बेटे से कि डैड की अगर कोई किताब रखी हो तो बताएं। लेकिन किसी किताब का अब नामो-निशां न बचा था। 

अब मैं उन अरोड़ा साब को जब याद करता हूं तो बहुत हंसता हूं ...हंसी की वजह यह भी होती है कि मुझे क्या पता था कि हमारे घर मेंं भी वही मंज़र दिखने वाला है। हर तरफ़ किताबें ...हर तरफ़ मैगज़ीन....सभी विषयों के ऊपर किताबें ...हिंदी, पंजाबी, इॆगलिश, उर्दू ज़ुबानों में ....मां को भी पढ़ने की आदत थीं...मुझे बहुत बार कहतीं कि इतनी सारी किताबों पर पैसा खर्च करने के लिए भी दिल चाहिए होता है...उन का सानिध्य 88 बरस की उम्र तक हमें मिला ... कोई न कोई किताब पढ़ती दिखतीं, इंगलिश-हिंदी का अखबार भी पढ़ती...कभी कोई लफ़्ज़ मुश्किल लगता तो अपने साथ ही रखी डिक्शनरी में उसे देख कर अपनी नोटबुक में नोट कर लेतीं...और जैसा हमें बचपन से वह सिखाती आईं ..पांच-दस बार लिखती उसे। मेरे नाना भी जालंधर में एक उर्दू अखबार के सब-एडिटर रहे...और बहुत सालों तक अपने एक दोस्त के लिए जो हिंदी का नामचीन लेखक था ..उस के लिए ghost-writing करते रहे-उसे कहानियां उर्दू में लिख कर देते,  दोस्त उन्हें हिंदी में अपने नाम से छपवा लेते। 

घर में भी सब को बचपन से ही कुछ न कुछ पढ़ते ही देखा...आज से पचास साल पहले घर में इलस्ट्रेटेड वीकली, धर्मयुग, सरिता, फिल्मफेयर पढ़े जाते थे ...पापा भी इंगलिश की अखबार को जैसे चबा जाते थे ...😂और उन के लिखने का तो जवाब ही क्या....कंटैंट तो टापक्लास होता ही था...और खुशख़त लिखते थे ...किसी ख़त का जवाब लिखने में भी उन्हें कोई जल्दी नहीं होती थी...पोस्ट कार्ड हो या अंतर्देशीय उसे पूरी तरह से भर कर ही डाक पेटी के हवाले करते थे। रिश्तेदार उन के ख़त संभाल कर रखते थे.. और मिलने पर अकसर तारीफ़ किया करते थे..

गुलज़ार साब की याद आ गई...जहां हम रहते हैं वहां बिल्कुल पास ही में, पैदल की दूरी पर ही गुलज़ार साब का बंगला है ...उस रोड़ पर चलते हुए जब दरवाज़ा खुला होता है तो उन के घर की पहली मंज़िल में रखी उन की किताबों की अल्मारीयां दिखती हैं...मैं जब भी उधर से गुज़रता हूं उस तरफ़ ज़रूर देखता हूं (उस तरफ़ देखना ही सजदा करने जैसा लगता है) ....कुछ महीने पहले एक सुखद अनुभव हुआ....वह उसी बालकनी में खड़े थे ...नीचे उन के स्टॉफ में चल रही किसी गुफ्तूग का आनंद ले रहे थे, गले में तौलिया लपेटे थे... अचानक उन्होंने बाहर देखा तो मैंने उधर से गुज़रते हुए उन्हें हाथ जोड़ कर प्रणाम किया .... जितनी आत्मीयता से उन्होंने वहां खड़े खड़े मुझे इस का जवाब दिया, वह मुझे ताउम्र याद रहेगा। 

और हां, उन की किताबों की अल्मारीयां देख कर मुझे उन की मशहूर कविता ...किताबें झांकती हैं बंद अल्मारी से ....याद आ जाती है ...सोचता हूं यही अल्मारीयां ही यह लिखने की प्रेरणा रही होंगी शायद।

इस मशीनी युग में भी हमें किताबों को साक्षात पढ़ना ही भाता है ... किंडल लिया कुछ अरसा पहले, अनलिमिटेड सब्सक्रिपशन भी ले ली ..लेकिन मज़ा आया नहीं...किताबों के सफ़े पलट कर, उन मेंं बुक मार्क रख कर, कभी कभी पेज़ के किनारे को थोड़ा मरोड़ कर रखने में जो मज़ा है ...वह किंडल-विंडल में कहां। और मोबाइल पर ज़्यादा पढ़ने से तो शायद हम लोग, मेरी पीढ़ी के लोग गुरेज़ ही करते होंगे ...

अभी कुछ दिन पहले देखा-पढ़ा कि महानगरों के कईं फुटपाथों पर लिखा हुआ है कि नो-किसिंग ज़ोन, नो पार्किंग ज़ोन ....और यह पेंट से लिखा हुआ था ...मुझे उस वक्त ख़्याल आ रहा था ..न्यू-यार्क शहर के बीचों बीच एक लाइब्रेरी का ..जिस के फुटपाथ पर बड़े बड़े लेखकों द्वारा कही कुछ बातें लिखी हुई हैं....दो ढ़ाई साल पहले जब वहां गए थे तो वे फुटपाथ देख कर बहुत अच्छा लगा था ...सच कहते हैं कि बरसों पहले लिखी किताबों को पढ़ना भी तो उन पुराने युग के महान लेखकों से मुलाकात करने जैसा है ...








न्यू-यार्क शहर में फुटपाथ पर किताबों की उम्दा सीख यूं बिछी दिखी

आज भला मैं क्यों यह सब लिखने लग गया...क्योंकि मैं दो दिन से एक किताब पढ़ रहा हूं ....अंग्रेज़ी के महान लेखक सोमरसेट मोगम की किताब - समिंग अप ---(W. Somerset Maugham - The Summing Up-) यह 85 साल पहले लिखी हुई किताब 1938 में लिखी गई थी ...क्या गजब किताब है ...उस में उस बंदे ने ज़िंदगी भर के अपने सारे तजुर्बे लिख दिए हैं...पढ़ने लगता हूं ...एक दो सफे पढ़ता हूं तो झट से नींद आ जाती है ...क्या करें, यह लेट कर पढ़ने की बीमारी की वजह से मैंने पहले भी बहुत ख़ता खाई है ..

चलिए, अब इस को बंद करते हैं....लिखता रहूंगा किताबों की सुनहरी दुनिया के बारे में ...हम लोग बचपन से क्या क्या पढ़ते रहे हैं और उन सब से हम ने क्या सीखा ...इन सब के बारे में लिखते रहेंगे ....मैंने कहीं यह भी पढ़ा था कि जहां पर भी आप जाइए, आप अपने पास एक किताब ज़रूर रखिए, किसी को मिलने गए हैं, अभी वक्त लगना है, थोड़ा किताब को ही पढ़ लीजिए...मुझे भी यह बात अच्छी लगी....मैं भी अकसर कहीं भी जाता हूं कुछ न कुछ पढ़ने का मेरे पास रहता ही है...और किताब के हर पन्ने में कुछ सीख है, कोई सवाल है, कोई कौतूहल है, कोई प्रेरणा है....कोई तो उमंग है...और बहुत सी खुशी भी तो है। 

लोगों को सुबह सुबह अल्लाह-ईश्वर याद आता है...मुझे मेरे पसंदीदा बढ़िया बढ़िया 40-50 साल पुराने फिल्मी गीत याद आते हैं...रेडियो पर जिन्हे सैंकड़ों बार सुनते सुनते वे कब हमारे डीएनए में ही शामिल हो गए पता ही न चला .... 😂

शनिवार, 2 अक्तूबर 2021

कैंसर की भी नकली दवाईयां ....

अभी टाइम्स (2.10.2021) में कैंसर की नकली दवाईयों की ख़बर दिखी तो मन बहुत दुःखी हुआ...वाट्सएप पर उस की तस्वीर शेयर करते करते अपना कुछ फालतू ज्ञान भी बांट रहा था तो अचानक वह मैसेज ही गायब हो गया....शायद उस की भी इन धोखेबाज़ों के साथ सांठ-गांठ होगी। फिर सोचा, अपने आप से कहा, तुम्हें क्या फ़िक्र है, अपने ब्लॉग पर दिल की बात लिख कर के मन को हल्का कर ले। 

कैंंसर की नकली दवाईयां, टीबी जैसे रोगियों के इस्तेमाल में होने वाली दवाईयां नकली...(मैंने भी खाई थीं- 15-16 साल पहले ...और यह सोच कर मन दहल जाता है कि अगर वे भी नकली होतीं...)...अब लोग क्या क्या छोड़ें.... बीमार को दवाईयां तो लेनी ही पडेंगी ...और कैंसर के इलाज की दवाईयां तो होती भी इतनी महंगी हैं कि सामान्य लोग तो बहुत बार सड़क पर आ जाते हैं...इन्हें खरीदते खरीदते ...और इस पर भी पता चले कि नकली दवाईयां ही मरीज़ को दिए जा रहे थे ...कितनी शर्मनाक बात है! चुल्लू भर पानी से भी कम पानी में भी डूब कर मरने की बात है! 

अभी जब ये कोरोना वैक्सीन के इंजेक्शन लग रहे थे तो भी कितनी बार मीडिया दिखा रहा था कि जालसाज़ों ने नकली कैंप रख लिए और ज़ाहिर सी बात है इन कैंपों में लोगों को कोरोना वैक्सीन की जगह क्या लगा दिया गया, यह किसी को नहीं पाता.....अगर आपने कहीं यह ख़बर पढ़ी हो कि इन नकली कैंप वालों को क्या सज़ा हुई, वे अभी कहां है, तो मुझे भी वह लिंक शेयर करिएगा। 

इमानदारी-बेइमानी हमारे अपने लिए है....कोई कितना भी पीछे पड़ जाए अगर हम बेइमानी पर उतर ही आएं तो किसी को कुछ भी पता नहीं लग सकता....वैसे भी लोगों के पास अपने ही इतने पचड़े हैं कि वे बहुत बार आंखें बंद करना ही बेहतर समझते हैं....क्योंकि इन गोरखधंधों में लिप्त लोग कब खुली आंखों वालों को गायब करवा दें, यह भी कोई नहीं जानता... जो फिल्मी में दिखाते हैं, वे सब किसी दूसरे ग्रह की बातें थोड़े न हैं, फिल्में हमारे समाज का दर्पण होता है और वे वही कुछ दिखाती हैं जो हमारे आस पास घट रहा होता है ...

ज़िंदगी के छठे दशक में प्रवेश करते करते बहुत से लोगों को देखा....और पढ़ा ...बेइमान आदत इतनी अपार दौलत का करेगा क्या....बीस हज़ार के जूते खरीद लेगा...हज़ारों रूपयों की लागत की पैंट-शर्ट या डिज़ाइनर ड्रेस ले लेगा ...लाखों-करोडो़ं की गाडि़यों में घूम लेगा...लेकिन कुदरत से भला कौन टक्कर ले पाता है ...कभी न कभी कहीं पर ट्रैप हो ही जाएगा...जितना भी शातिर दिमाग हो...कहीं न कहीं इस तरह के लोगों का बाप कहां से प्रकट हो जाता है पता ही नहीं चलता, फिर बाहर भागते हैं, अंडरग्रांउड हो जाते हैं...तरह तरह की बीमारियां ..महंगे अस्पताल...बडे़ बड़े डाक्टर भी क्या कर लेंगे .... डाक्टर भी भगवान हैं लेकिन कुछ हद तक ....बेइमानी, दलाली, कमीशनखोरी के कैंसर के लिए उन के पास अभी कोई दवाई नहीं है...न ही होगी....बीमारी के ऊपर किसी का कुछ बस नहीं है वैसे तो ...लेकिन धोखेबाज़ों को अकसर तिल तिल रुबड़ते-तड़पते देखा है ... अनाप शनाप पैसा होगा...करोड़ों के घर खरीदे जाते हैं...पूरी अय्याशी में लिप्त ज़िंदगी जी जाती है ...यहां भी और दूसरे देशों में भी ....सब बेकार। 

साधु लोग कितनी सही बात कहते हैं....जैसा खाओ अन्न, वैसा बने मन। यह बात कह कर ज्ञानी लोगों ने जैसे कूज़े में समंदर भर दिया...अगर इमानदारी के पैसे की खरीदी दो ड्रैस भी हैं, दादर के फुटपाथ से खरीदे 250 के जूते हैं, बीवी के गले में अगर वीटी स्टेशन के बाहर बिकने वाली 20 रूपये का मंगल-सूत्र है, पांच रूपये के झुमके हैं .....लेकिन वही मुबारक हैं....वहीं सुखदायी हैं...और उन की चमक-दमक भी निराली ही दिखेगी, साधारण से चेहरे को भी नूरानी चेहरा बना देंगे। बेइमानी, रिश्वतखोरी के पैसे जमा के 20 लाख का हीरे का हार भी भद्दा ही दिखता है ..क्योंकि उस में डर भी तो मिला हुआ है, और दस रूपये की चूड़ीयों मे सच्चाई है, सादगी है, इमानदारी का गुरूर है.....क्या आपने कभी यह सब नोटिस किया। मैने तो बहुत किया....घुटने दर्द करते हैं, लेकिन मैं फिर खूब चलता-फिरता हूं, दुनिया देखता हूं ...

कभी भी गौर करिएगा कि बेइमान इंसान बड़ा डरा डरा सा, सहमा सहमा सा दिखेगा....उसे किसी से बात करते हुए भी डर लगेगा ..इस की तुलना में ईमानदार लोगों को देखते ही आप को पता चल जाएगा कि यह ईमानदार है ...वह आप की आंखों में आंंखें डाल कर बात करेगा...आंखें चुराएगा नहीं कभी। हम समझते हैं कि लोग अगर कुछ कहते नहीं है तो वे बेवकूफ हैं, ऐसा नहीं है, बस उन्होंने अपनी सलामती के लिए आंखें थोड़ी सी बंद की होती हैं. 

आदमी जितनी मर्ज़ी दौलत इक्ट्ठा कर ले ... उस से कुछ नहीं होता...लोग भी बेकार की मुंह पर तारीफ़ करेंगे, बाद में गाली निकालेंगे कि यह सब दो नंबर का माल है ... 

लेकिन मैं यह सब क्या लिखने लग गया....क्यों। क्योंकि अगर नहीं लिखता तो मेरा सिर भारी हो जाता और पूरा दिन मैं वैसे ही काट देता क्योंकि उस नकली कैंसर की दवाई ने मुझे बहुत परेशान किया...अब कुछ तो हल्का महसूस हो रहा है ..😎😄यह कोई ज्ञान बांटने की कोशिश नहीं थी, अपने मन को हल्का करने का एक बहाना भर था।