हमारे स्कूल के ज़माने का यह गीत ...हमने इस के बोलों की तरफ़ कभी ध्यान भी न दिया होगा ...उन दिनों में किसे इतनी फ़ुर्सत होती है ...बस, इसे सुनना मन को भाता था, इसलिए रेडियो पर बजता था तो सुन लेेते थे ...तपस्या फिल्म का यह सुंदर गीत है ...१९७६ की फिल्म थी तपस्या....
पिछले लगभग आठ-दस साल से शायरों, फिल्मी गीतकारों के बारे में जिज्ञासा होने लगी कि ये लोग ऐसे दिल को छू-लेने वाले बोल कैसे लिख लेते हैं... लखनऊ में रहते हुए कुछ को मिलने का मौक़ा मिला..कुछ को देखने का ...और अभी बंबई में रहते कुछ गीतकारों की अगली पीड़ी से उन के बारे में सुनने का, उन को पढ़ने का सबब हासिल हुआ...
मैं भी किन बातों में पड़ गया...बात तो उस गीत की कर रहा था ...जी हां, मुझे फिल्मी गीत रेडियो पर और विविध भारती पर ही सुनने पसंद हैं। रविंद्र जैन की सुंदर फिल्मी और गैर फिल्मी रचनाओं से कौन वाक़िफ़ न होगा .. उन के सभी गीत और भजन दिल को छू जाते हैं ...बार बार सुन कर भी बंदे की प्यास नहीं बुझती।
अच्छा, यह जो गीत है ....यह मुझे बेहद पसंद है ... मैंने कुछ दिन पहले इसे कईं बार सुना था ... और मैं अकसर अपने पसंदीदा गीतों की दो चार लाइनें अपनी किसी कापी में लिख लेता हूं ....बाद में इसे ढूंढने में मुझे आसानी होती है ...क्योंकि मेरी यही पूंजी है 😆..लेकिन इस के बारे में मुझे मेरी नोटबुक में कहीं कुछ दिखा नहीं।
दो दिन से मैं इस गीत को तलाश कर रहा था ...बस, मुझे इतना ही याद था कि पेड़ अपने साये में ख़ुद नहीं बैठते ...सो, यही लिख कर मैंने गूगल किया ...और मुझे धुंधला सा यह भी याद था कि इसे लिखा भी रविंद्र जैन ही था शायद...मन सब तरह से गूगल कर लिया लेकिन मुझे इस का कुछ पता नहीं चल रहा था ....
कुछ क़रीबी लोगों से पूछा ..लेकिन कोई मदद न कर पाया....तो आज देर शाम में जब मैं अपने मोबाइल पर विविध भारती सुन रहा था तो अचानक यह गीत बजने लगा...मुझे इतनी ख़ुशी हुई कि मैं ब्यां नहीं कर सकता ...सच में मुझे एक बार तो ऐसे लगा कि जैसे मेरी लॉटरी लग गई हो.. इसलिए मैं आज मौक़ा हाथ से जाने नहीं दिया...विविध भारती पर सुनने के बाद इसे कईं बार यू-टयूब पर देखा और साथ साथ उसे लिख कर भी रख लिया....
फिल्म तपस्या के इस बेहद सुंदर गीत को लिखा था..एम जी हश्मत ने...संगीत दिया था ...रविंद्र जैन ने और गायक थे ...किशोर कुमार और इन सब ने मिल कर जिस बेमिसाल गीत को जन्म दिया, उस का कमाल तो हम देख ही रहे हैं...इतने बरसों से ...👏
पेड़ और इस बुज़ुर्ग महिला की तस्वीर मैंने गुजरात के एक स्टेशन पर कुछ दिन पहले खींची थी ....आज अचानक लगा कि यह गीत इन दोनों की दास्तां ही जैसे ब्यां कर रहा हो
मुझे कईं बार लगता है जहां चाह वहां राह ...जिस चीज़ को हम लोग बड़ी शिद्दत से चाहते हैं, कुदरत भी उसे दिलाने में हमारी मदद करती ही है ज़रूर ...
किसी डाक्टर से मरीज़ कहां किसी इलाज की पूरी गारंटी मांगता है ... अगर मांगता भी है तो शायद वह अपना मज़ाक ही बनवाता होगा...है कि नहीं। और भी बाज़ार में बिकने वाली कितनी चीज़ें ऐसी हैं जिन की अगर आप गारंटी की बात ही करेंगे तो दुकानदार ऊपर से नीचे तक आप का मुआयना कर डालेगा...इन सब चीज़ों के बारे में वे लोग बहुत ज़्यादा जानते हैं जो बाज़ार जाते रहते हैं...दूसरे ऑनलाइन वालों को ये बात पल्ले नहीं पड़ेगी...
वो जंक फू़ड (पिज़्ज़ा) 375 रुपये में एक पकी-अधपकी मोटी सी रोटी हमें थमा देते हैं ...हम बिना किसी चूं-चपड़े के उसे खा लेते हैं...(मैं तो लिखने के लिए लिख रहा हूं...मेेरे से तो उस का एक टुकड़ा भी नहीं खाया जाता )....
लेकिन दुनिया भर की सारी गारंटी हमें सड़क किनारे फल-फ्रूट बेचने वाले से चाहिए....तरबूज़ हम लोग उन महंगे मॉल्स से उठा कर ले आते हैं....वहां पर कौन उस कलिंघड़ का पेट पाड़ कर हमें दिखाता है कि वह अँदर से कितना लाल है, कितना सफेद है....और न ही हम वहां पर इस तरह की कोई मांग ही रखते हैं क्योंकि हमें लगता है कि ऐसे ही सिरफिरा कह देगा कोई....
लेकिन मुझे दुःख इस बात का होता है जब भी मैं बाज़ार में कहीं भी तरबूज़ लेने के लिए रूकता हूं...पहले तो आजकल ग्राहक ही कम हो गये हैं...फिर उस से ग्राहक की यह मांग की काट कर दिखाओ...लाल होगा तो लेंगे ..नहीं होगा तो दूसरा देखेंगे...मुझे यह बात बड़ी अजीब लगती है ...मैंने कभी उसे काटने के लिए नहीं कहा...यही 30-40 रूपये में उस की जान थोड़ा ले लेंगे हम। जैसा भी है ..फीका है, मीठा है, लाल है ...या सफेद है ....वह कौन सा मंडी से उस के अंदर देख कर लाया है... क्या इतना कम है कि एक क़ुदरती चीज़ हम तक पहुंच रही है ...फीका है तो भी खा लो ...शायद उस वक्त आप को फीके की ही ज़रूरत होगी ...और अगर मीठे के लिए जी मचल रहा है तो साथ में गुड़ खा लीजिए।
सोचने वाली बात यही है कि दिन भर में अगर वे इसी तरह से अंदर से लाल न दिखने वाले तरबूज को वेस्टेज में जमा करते रहेंगे तो उन का चुल्हा रात को कैसे जलेगा....अगर जल भी जाएगा तो वैसा नहीं तो नहीं जल पाएगी जैसा वे लोग चाह रहे होंगे ...कमी तो रह ही जाएगी.....खरबूज़े का भी यही रोना ...भई, किस बात की गारंटी मांग रहे हैं हम ...उसे भी नहीं पता कि अंदर से कैसा होगा वह ...मुझे ये सब बातें मूर्खता से भरी लगती हैं....हमारे पड़ोस की एक आंटी ने तो बचपन में हमें एक फार्मूला बता दिया था ...फीके खऱबूजे को मूीठा करने का ....वह उसे काट कर चीनी (शक्कर) डाल कर फ्रिज में रख देती थी ...
अंगूर खट्टे हैं ...वह तो कहावत ही है ...लोग अपने हक के लिए अपनी बात तक तो मनवा नहीं पाते ...पॉवर के नशे में धुत्त हुए लोग किसी की जायज़ बात भी कहां सुनते हैं, बात सुनना तो दूर, सीधे मुंह बात तक करने की तहज़ीब इन्होंने किसी से कभी सीखने की कोशिश न की ...(इन प्राणियों से अपने आप को बचा कर रखिए....ये बड़े खूंखार होते हैं) और लोग फिर कहते हैं कि हमें नहीं चाहिए कुछ भी ..अपना हक़ भी नहीं ...हमें तो मन की शांति चाहिए...वही कहावत लोमड़ी वाली कि अंगूर खट्टे हैं .... इसलिए अगर खाने वाले अंगूर भी खट्टे हैं तो क्या फ़र्क पड़ता है...क्यों हम उस छोटी सी दुकान वाले से उलझने लगते हैं...और अरबपतियों के मॉल पर अपने को बड़ा संभ्रांत शो-ऑफ करते हैं....
कोई भी फल जो हमारे हाथ तक पहुंच रहा है ...सोचने वाली बात यह है कि इस के पीछे क़ुदरत की कितनी मेहनत है ...किसने उस का बीज रोपा, किसने पानी दिया...सींचा, उस पौधे की देखभाल की ...कितनी धूप-बारिश उसने झेली और फिर एक दिन पक कर हमारी प्लेट तक पुहुंच गया...क्या यह अपने आप में किसी क़रिश्मे से कम है ....बिल्कुल नहीं ....फिर हम उस से फीकेपन, खट्टेपन की शिकायत करने लगें तो यह मां प्रकृति का सरासर अनादर है ... जो है उसे परवान करने की आदत डालिए....और यह बड़ा सहज भाव में ....ख़ुशी खुशी करिए ... शायद इससे सहनशीलता ही बढ़ने लगे....
कभी भी नज़र दौडाइए...हम लोग उसी को अपना रूआब दिखाते है जो उसे सहने के लिए मज़बूर है ...जो हमें आंखें दिखाता है, उस से हम आंखें चुराने लगते हैं....ये जो छोटे छोटे दुकानदार हैं सड़क के किनारे पर खड़े ..ये हमें वल्नलेबर लगते हैं...हमारी बात उन्हें सहनी ही हैं ..इसलिए लोग उन्हें आंखें दिखाते हैं...हर तरह से उन का शोषण होता है ....एक तरबूज भी तब बिकेगा उन का जब वह अंदर से लाल-सुर्ख होगा....
ज़रा सोचिए...क्या हम इस के बारे में कुछ कर सकते हैं ...अपने स्तर पर ....अगर आप तरबूज को बिना कटवाए ही घर ले आएं तो यह भी एक नेक काम ही होगा...खरबूजा लेने लगो तो उस की कोशिश होती है कि एक खरबूज काट कर हमें दिखाए...मैं तो उसे मना कर देता हूं....आम और सेब बेचने वाले की भी यही कोशिश होती है ....लेकिन हम किस किस चीज़ की गारंटी लेंगे ...क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम इन सब चीज़ों को मां प्रकृति का प्रसाद समझ कर ही स्वीकार करना शुरू करें ...फीके, मीठे, बकबके को मुद्दा बनने ना ही दें ..
पंजाबी का एक सुपरहिट गीत है ... सब मालिक दे रंग ने सजना ...सब मालिक दे रंग ने ....सुनिए..आप को ज़रूर समझ में आ जाएगा ...आसान सी पंजाबी में बहुत सुंदर बातें कही गई हैं ..कुदरत की स्तुति में।
और पता नहीं लिखते लिखते किधर से किधर भटक गया ...पहुंच गया बचपन के दिनों में .... बात कुछ ख़ास नहीं, लेकिन ऐसे लगा जैसे रीडर्स को ठग लिया ....अब असली बात भी तो करूं, मैंने सोचा। इसलिए वही बात लिखने बैठ गया हूं।
हां, तो जब कोरोना की पहली लहर का कहर जब बरप रहा था तो इस से बचाव के टीके की ख़बरें भी आने लगीं ...इस के बारे में साईंटिस्ट तो क्या बोलते, वे लोग तो कम बोलते हैं तभी तो इतने इतने महान् कारनामें अंजाम दे देते हैं ...लेकिन यह जो वाट्सएप यूनिवर्सिटी है न, यह मार्कीट में कोविड के टीके के आने की संभावित तारीख़ बताए जा रही थी ... लेकिन पढ़ा-लिखा तबका इन पर इतनी तवज्जो नहीं दे रहा था।
ख़ैर, देखते ही देखते टीके के ट्रायल होने लगे और सफल भी होने लगे ... फिर जैसे अकसर होता है सोशल मीडिया पर टीके के ऊपर भी राजनीति होने लगी - एक दो साईंटिस्ट थे जिन की वीडियो वाट्सएप पर वॉयरल हो गईं कि आखिर इतनी अफरातफ़री में क्यों इस वैक्सीन को मार्कीट में लाने की तैयारी है। क्यों इतने शार्ट-कट अपनाए जा रहे हैं...लेकिन कुछ दिनों में देखा कि वे आवाज़ें कहीं नीचे दब सी गई हैं और ये ख़बरें आने लगी हैं कि दो तरह के टीके देश में फलां फलां तारीख से लगने शुरू हो जाएंगे ...तब तक विभिन्न मेडीकल संस्थानों को अपनी लॉजिस्टिक तैयारी करने को कहा ...अपनी भंडारण क्षमता, कोल्ड-स्टोरेज क्षमता बढ़ाने के आदेश आ गए...जो मेडीकल कर्मी वेक्सीनेटर के तौर पर काम करने के लिए सक्षम हैं, उन का पूरा डैटा-बैंक तैयार हो गया।
हमारे अस्पताल में भी एक दिन इस के बारे में मीटिंग हुई ....यह वैक्सीन लगने जब शुरू हुए उससे कुछ दिन पहले की बात थी ...लेकिन कुछ भी ठोस कोई कह नहीं पा रहा था। यही बातें होती रहीं कि सेफ्टी डैटा आए तो पता चले ... फिर यह बात भी हुई कि हम लोग तो फ्रंट लाइन वर्कर हैं ..हमें तो टीका लगवाना ही होगा....उन्हीं दिनों यह भी शासकीय आदेश निकला था कि टीकाकरण ऐच्छिक है ...जिसे लगवाना हो अपनी मर्ज़ी से लगवाना होगा...कोई बाध्यता नहीं है, कोई बंदिश नहीं है। हम सब को यह सुखद लग रहा था ...
वैक्सीन लगने शुरु हो गए ... मेडीकल स्टॉफ ऐम्बुलेंस में बैठ कर जाने लगे ...और वैक्सीन सेंटर में जा कर टीका लगवाने लगे। और हां, अभी टीके लगने शुरू नहीं हुए थे कि सभी फ्रंट-लाइन वर्कर का पूरा डैटा विभिन्न संस्थाओं द्वारा अपलोड कर दिया गया था .. इसलिए अब उन की लिस्ट आ गई...गलती से मेरा नाम रह गया था ..शायद मेरे पहले कार्य-स्थल की लिस्ट में नाम आया होगा ...मुझे मन ही मन यह इत्मीनान ही हुआ कि चलो, जब नाम ही नहीं है तो वैक्सीन लगवाने का सवाल ही कहां है।
वैक्सीन लग रहे थे ....मेरी मिसिज़ डाक्टर हैं, उन्होंने भी यही सोच रखा था कि वह भी वैक्सीन नहीं लगवाएंगी.... बच्चे जो मेडीकल साईंस की एबीसी भी नहीं जानते, उन्होंने भी कहा कि वैक्सीन मत लगवाइए। लेकिन हर जगह peer-pressure काम करता है ...मिसिज़ के लगभग सभी बैच-मेट्स ने जब यह लगवा लिया तो इन्हेंं भी प्रेरणा मिली और इन्होंने भी लगवा लिया।
मिसिज़ के लगवाने के बाद मुझे प्रेरणा मिली कि मैं भी लगवा के छुट्टी करूं ... मैं इतना अकलमंद भी नहीं कि बुद्धिजीवियों की बुद्धि मिला कर भी मेरे से कम है ....मैंने कुछ नहीं पढ़ा इन वैक्सीन के बारे में ...इससे और कंफ्यूज़न ही होता है ...लेकिन तब तक पता चला कि अब पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन बंद हो चुका है ...यह भी एक तरह से इत्मीनान ही था कि चलो, अब पंजीकरण ही नहीं हो रहा तो इस का ख़्याल ही दिल से निकाल दो...
लेकिन जैसे जैसे आसपास के लोगों ने इस वैक्सीन को लगवाना शुरू किया...मैंने भी इसे लेने का फ़ैसला तो कर लिया ...लेकिन यह सोचने लगे कि दूसरे अस्पताल में जाकर कहां इंतज़ार करेंगे, अपनी पहचान बताते फिरेंगे ...देखतें हैं ....इतने में एक दिन हमारे अपने अस्पताल में (जहां मैं काम करता हूं) वहां पर म्यूनिसिपल कोर्पोरेशन की तरफ़ से केवल मैडीकल स्टॉफ के लिए वैक्सीन लगाने का कैंप लगाया गया ... जब मैं वहां गया तो पता चला कि मेरा तो रजिस्ट्रेशन ही नहीं हुआ है ...इसलिए मुझे बैरंग उल्टे पैर वापिस लौटना पड़ा।
कुछ दिन पहले ऐसे हुआ कि हमारे अस्पताल को म्यूनिसपल कार्पोरेशन ने कोविड वैक्सीन लगाने के लिए एक केंद्र बना दिया...इस में हमारे विभाग के सरकारी कर्मचारी ही नहीं बल्कि दूसरे नागरिक भी आते हैं...रोज़ाना 100 वैक्सीन लगाने से शुरूआत हुई ...अब यहां पर 150 से भी ऊपर कोविड वैक्सिन लग रहे हैं...
मेरा यह सारी राम यहां कहानी लिखने का मकसद क्या है... मैं इसी बात पर ज़ोर देना चाह रहा हूं कि कईं बार जहां पर जो मेडीकल सुविधा उपलब्ध करवाई जा रही है, वहां का रख-रखाव, वहां के स्टॉफ का व्यवहार, काम में दक्षता ....आने वाला इंसान ये सब बातें देखता है, फिर ही कोई निर्णय लेता है ...मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ कि जब से हमारा अस्पताल कोविड वैक्सीन सेंटर बना है, मैं दो-तीन बार हो कर आया, ऐसे ही चक्कर लगा कर नीचे आ गया ...सारी व्यवस्था बढ़िया लगी ...हमारे अस्पताल के वैक्सीन केंद्र के स्टॉफ का रवैया इतना बढ़िया लगा जैसे कि वो आने वालों को वेलकम कह रहे हों...परसों मुख्य नर्सिंग सुपरडेंट ज्योत्स्ना सेमुअल से बात हुई (जो यह सारी व्यवस्था संभाल रही हैं ) उन की बात में इतनी सहजता महसूस हुई ...इतने ठहराव से वह बात करती हैं कि हमने यह टीका लगवाने का फ़ैसला कर लिया।
घर से भी दबाव आने लगा था कि लगवाओ अब वैक्सीन ...अभी तक इंतज़ार किस बात का कर रहे हो, केस निरंतर बढ़ रहे हैं, मरीज़ ओपीडी में पहले की ही तरह आ रहे हैं...मरीज़ के मुंह के अंदर काम करते हो उस के पास जाकर ....क्यों इतना रिस्क ले रहे हो, वैक्सीन लगवा लो।
इतनी सी बात मेरी मोटी बुद्धि के पल्ले पड़ गई...70 प्रतिशत ही सही, कुछ तो बचाव होगा ही ...और इस बात को तो सभी लोग मान ही रहे हैं कि अगर वैक्सीन लगे हुए किसी इंसान को कोरोना होता है तो उसमें बिल्कुल हल्का-फुल्का रूप ही दिखेगा ... इसलिए कल वैक्सीन लगवा ली ..कोवी-शील्ड ..एक बात और भी है, जब तक नहीं लगवाया था तो एक अपराध-बोध तो यह भी बना हुआ था कि अगर बिना टीका लगवाए काम कर रहे हैं तो कहीं न कहीं मरीज़ों की सेहत के लिए भी यह ठीक नहीं है ...
वैसे जहां तक मरीज़ों की बात है,,,,ठीक है जिन्हें एमरजेंसी है उन्हें तो आना है ज़ूरूर आएं ...लेकिन दिक्कत तब होती है जब बरसों से तंबाकू -ज़र्दे से तहस-नहस किए दांतों को चमकाने कोई इन दिनों आ रहा है ... और एक बात, जिस किसी को जुकाम आदि के लक्षण हैं, अगर उसे कहें कि कुछ दिन के बाद आ जाइए, तो कहते हैं कि नहीं, नहीं..कुछ नहीं है, बस ऐसे ही अभी फेसमास्क की वजह से ज़ुकाम जैसा लग रहा है...ये सब चुनौतियां तो हैं ही सरकारी अस्पताल में काम करने की।
बार बार समझाया जा रहा है कि टीका लगवाते ही बिंदास घूमना मत शुरू कर दीजिए...न तो फेसमास्क को उतारना है और न ही सोशल-डिस्टेंसिंग का दामन छोड़ना है ...बिना कारण ऐसे ही तफ़रीह करने नहीं निकलना....क्योंकि अभी भी ख़तरा टला थोड़े न है...कोरोना वॉयरल के कुछ बिगडैल स्ट्रेन्स (म्यूटैंट स्ट्रेन्स) के यहां वहां मिलने की ख़बरें आ रही हैं...बच के रहिए....और अगर टीका लगवाने के लिए आप पात्र हैं और अगर आप को यह उपलब्ध हो रहा है तो चुपचाप बिना किसी नुकुर-टुकुर के लगवाने में ही समझदारी है ...
अच्छा अब करते हैं कोरोना की बातें बंद और लगाते हैं - होली के रंग में रंग जाने की करते हैं तैयारी यह गीत सुनते सुनते ...लेकिन ध्यान रहिए इस बार भी होली डिजीटल ही होगी ...हम इसे अपने मोबाइलों की स्क्रीन पर ही खेलेंगे ...वरना, एक बार फिर से होली बहुत महंगी पड़ जाएगी....अपना बहुत सारा ख़्याल रखिए ...अपना मनपसंद कोई काम कीजिए जिसमें आप को ख़ुशी मिलती हो ...