बुधवार, 24 मई 2017

ब्रांडेड दातुन करिए जनाब ....मां प्रकृति का सान्निध्य

 सोना खरीद रहे हो यार!

हर पुराने शहरों के उन बाज़ारों में से उन तीन चार दातुन बेचने वालों के दिन भी बस समझिए लदने वाले हैं...कर ली उन्होंने जितनी कमाई करनी थी..अब उन्हें भी लगता है भरण-पोषण के दूसरे रास्ते तलाशने होंगे...

 हिन्दुस्तान २४ मई २०१७ 

इससे पहले कि खबर बासी हो जाए..वैसे भी गर्मी का मौसम है ...सोचा कि यह ब्रांडेड नीम की दातुन वाली खबर सब से पहले सब से तेज़ी से अपने ब्लॉग पर ही क्यों ना सहेज लूं!

ध्यान टीना मुनीम का भी आया...एक जमाने में लोकल गाड़ी में दातून बेचने वाले गीत गाये थे उसने ...अब यह सब ब्रांडेड होने वाला है तो क्या पता आने वाले समय में उन की कंपनी भी ये दातून विश्व स्तर पर बेचने लगे...


अभी लिखते लिखते ध्यान आया कि कुछ दिन पहले इंटरनेट पर भी देखा था कि नीम की दातून पैकिंग में बिक रही हैं...खासी महंगी ...शायद इन दातूनों को ब्रांडेड रूप में बेचने का आईडिया भी यहीं से आया होगा..

दातुन के बारे में लोग मेरे से पूछते हैं तो मैं कहता हूं कि हां, यह दांतों और मसूड़ों की सेहत के लिए बहुत उमदा तो है ही बेशक ..और यह सैंकड़ों --शायद हज़ारों ...(मेरा हिसाब-किताब और हिस्ट्री बेहद कमज़ोर है) सालों से चलन में है ..ज़ाहिर है मेरी आधुनिक पढ़ाई लिखाई ने मुझे टुथपेस्ट का ही महिमा-मंडन सिखाया है ..लेेकिन मैं इतना जानता हूं कि हमारे खान पान की बदली हुई आदतों की वजह से हमें दातून के अलावा दूसरे रास्ते तलाशने पड़ रहे हैं... लेेकिन एक बात ज़रूर मानने वाली है कि जो लोग दातून करते भी हैं, वे दांतों को उस से इतनी बेरहमी से कूचते हैं कि दांत ही घिसा डालते हैं....एहतियात बरतिए... अपने दंत चिकित्सक से इस के बारे में चर्चा करिएगा...

प्रकृति की बात चली है तो मेरे विचार में आज इस पोस्ट में प्रकृति की ही कुछ तस्वीरें लगा दूं..

प्रकृति की छटा निराली है ...हर व्यक्ति अपने हिसाब से इस से सबक सीखता है ....आप इन सब तस्वीरों को देखिए ...अगर आप ध्यान से देखिएगा तो हर तस्वीर में प्रकृति के राज़, उस की मानवता के लिए सीख छिपी पड़ी है ....क्या हुआ?....कुछ ज़्यादा भारी भरकम बातें हो गईं! .. चलिए, भूल जाइए इन बातों को भी, बस आप ये तस्वीरें देखिए मजे से ...












अच्छा, वैसे तो यह एक निबंध का विषय है कि नैसर्गिक नज़ारे हमें क्या क्या सिखाते हैं...लेकिन मैं तो चंद लफ़्जों में ही इसे कहना चाहूंगा कि ये हमें शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, प्रेम-करूणा, सहनशीलता, ठहराव, स्थिरता, मूक दर्शक, हमेशा खिले हुए रहना ..खुशियां बांटना, पल पल को जीने का सबक सिखाते हैं....अभी तो इतने ही भारी भरकम शब्द ही ध्यान में आए....आप भी कभी लिखियेगा ब्लॉग के कमैंट्स बॉक्स में जाकर कि आप को प्रकृति के नज़ारों से क्या सीख मिलती है ... और हां, एक बात और याद आ गई ...कभी मेरा अहम् जब मेरे ऊपर हावी होने लगे और मैं प्रकृति की गोद में जाऊं तो मुझे अपने तुच्छ होने का (तुच्छ भी बहुत बड़ा शब्द लग रहा है ....क्या कुछ तुच्छतम् जैसा शब्द भी होता है ...धूल का कोई कण जैसा!) अहसास होता है जो बहुत सुकून देता है ..


चलिए, बहुत उड़ने के बाद धरातल पर आ जाते हैं...और यह देखते हैं कि सरकारी दफ्तरों में भी इस तरह की वारदातें होने लगी हैं...मुझे याद है कुछ अरसा पहले यहां रेलवे के डीआरएम दफ्तर के प्रांगण में जब दो ठेकेदारों के बीच गोलियां चली थीं तो बड़ा हंगामा हो गया था ..लेकिन यहां पर किसी कर्मचारी को अगवा करने की घटना हो गई कल ....बाबू अच्छा था या बुरा, यह तय करना कोर्ट का काम है.....लेेकिन इस घटना की जितनी निंदा हो सके होनी चाहिए...प्रजातंत्र के लिए खतरा हैं ऐसी घटनाएं....Let's nip the evil in the bud!


 सुबह सुबह बेटे ने भी एक अच्छी बात शेयर की है ...यहां लगाये दे रहा हूं...

मैं भी इस बात से इत्तेफ़ाक रखता हूं... 

चलिए, ज़्यादा मत सोचिए, सेहत के लिए ठीक नहीं होता, यह गीत सुन कर मूड ठीक करिए और सुबह के लिए अपने अपने को तैयार कीजिए....सुप्रभात ..


सोमवार, 22 मई 2017

फोन रिकार्डिंग पिछली बार कब की थी ?

उस दिन जैसे ही उसने मुझे कहा कि वह ऐसे कैसे मुकर सकता है अपनी बात से ...मेरे फोन में रिकार्डिंग है मैं उसे सुना सकता हूं...

बरकत के ये शब्द सुनते ही मेरे मन में जो उस के बारे में इंप्रेशन था, उस पर बुरी तरह से आंच आ गई...

एक दिन मैंने शेरू को भी सुना कि वह फोन की रिकार्डिंग सुन रहा था ...मैंने कुछ कहा नहीं, लेकिन मुझे बहुत ही ज़्यादा बुरा लगा.. 

कईं साल पहले एक परिचित था जो बॉस की बातों को टेप किया करता था ...उसे वह अपने साथियों को सुनाता और उन की बातें टेप कर फिर बॉस को सुनाता...एक-दो बार में पता चल गया, विश्वास ही नहीं हुआ...लेकिन इन बातों में कोई सबूत नहीं मांगता ...बस, उस बंदे की क्रेडिबिलिटि इतनी नीचे चली गई कि उस के साथ बात करने से ही हिचकिचाहट होने लगी...

अभी कुछ समय पहले की ही बात है कि एक उच्च अधिकारी जब मेरे पास ओपिनियन के लिया अपने सारे डैंटल रिकार्ड लेकर आया तो पूछने लगा कि मैं आप की बात को टेप कर लूं....मुझे उस दिन भी बहुत अजीब लगा... लेकिन मैंने मना नहीं किया...हां, बातें ज़रूर मैं सोच सोच कर करता रहा..

उस अधिकारी को मैंने मना बस इसीलिए नहीं किया कि यह तो मेरे से पूछ रहा है ..वैसे भी हम लोग इतने लोगों से मिलते हैं कौन बात रिकार्ड कर रहा है, कौन वीडियो बना रहा है ...पता ही नहीं चलता....यकीन मानिए, यह एक बहुत बड़ी समस्या है ... मरीज़ के साथ आने वाले फोन पर लगे रहते हैं...फोटो भी खींचते हैं...फोन पर बातचीत भी चलती रहती है ... बस, बेतकल्लुफ़ी का यह आलम अब देखा नहीं जाता!

बस इसीलिए क्यों कि इस सब से डिस्ट्रेकशन तो होती ही है...

हां, तो बात चल रही थी फोन रिकार्डिंग की ...मेरे विचार में यह बहुत ही घटिया आदत है ...बिल्कुल पीठ पर वार करने जैसा ... यह उन लोगों का हथियार है जिन लोगों ने ऐसे स्टिंग आप्रेशन के जरिये अपने विरोधियों का मलियामेट करना होता है ... 

पढ़े लिखों को यह सब शोभा नहीं देता....सब से बड़ा खतरा यही होता है कि जैसे ही किसी दूसरे को पता चलता है कि यह तो इस तरह के पंगे भी करता है, लोग उस से किनारा करना शुरू कर देते हैं..

आज के दौर में इस से ज़्यादा विश्वासघात क्या होगा कि कोई हम से अपने दिल की बातें कर रहा है और हम विलेन वाली हरकतें करने में मसरूफ़ हैं....घोर निंदनीय... 

दरअसल मुझे ऐसा लगता है कि हमें मोबाइल फोन के एटिकेट्स भी नहीं हैं... We always flaunt our pricy mobiles...किसी को भी मिलने जा रहे हैं तो क्यों नहीं हम लोग अपना मोबाइल किसी पाउच में, पतलून की जेब में या लेडीज़ अपने पर्स में क्यों नहीं रख लेतीं... अगर हम इस तरह के टेपिंग वेपिंग के लफड़े में नहीं हैं तो हमें वैसा दिखना भी चाहिए...बस, कोशिश करिए किसी से मिलते वक्त वह शर्ट की जेब में न हो, हाथ में न हो...उसे बार बार छेड़ें नहीं, दूसरों को लगता है कि यह कुछ टेप ही कर रहा होगा....

मेरी सब को नसीहत यही रहती है कि कभी भी किसी की बात टेप मत किया करें....जितने लोगों को आप उसे सुनाएंगे, उतने लोगों की नज़रों से आप गिरते चले जायेंगे। आप का क्या ख्याल है?

लेकिन एहतियात यह भी रखनी ज़रूरी है कि कभी न कभी तो हमारी बातें टेप होती ही होंगी...अच्छा, एक बात और भी है कि आप की 6th sense बता ही देती है कि कौन सा बंदा इन सब चक्करों में है। एक बार इस तरह की भनक भी लग जाए तो मैं तो उस बंदे से फोन पर बातचीत करते वक्त नार्मल नहीं हो पाता...यार, बंदा किसी को कितने विश्वास में लेकर उससे ऐसी वैसी, जैसी तैसी, कैसी भी बात कर लेता है ...और उस की ऐसी टेपिंग-वेपिंग वाली घटिया हरकत का कभी पता चले तो ... 

हां, तो पोस्ट के शीर्षक में एक प्रश्न है ...जवाब तो देना ही होगा मुझे भी ....जी हां, मैंने भी एक बार यह घृणित काम किया था  ...शायद २००८  के आसपास की बात होगी... नया नया पता चला था कि फोन पर बात रिकार्ड हो जाती है ...तो मैंने भी एक दो मिनट की बातचीत रिकार्ड करी थी...लेकिन शाम को सुनते ही अपने आप से पूछा कि तेरे को इन सब की कब से ज़रूरत पड़ने लगी ....उसी समय डिलीट मारा ......और उस दिन के बाद कईं फोन बदले हैं... लेकिन कभी यह जानने तक की कोशिश नहीं की ...कि इस फोन रिकार्डिंग के फीचर को कैसे एक्टिवेट करना है .....अभी भी जो Nexus 6 इस्तेमाल कर रहा हूं, मुझे नहीं पता इस में फोन को कैसे रिकार्ड करते हैं... और किसी के साथ व्यक्तिगत बातचीत करते वक्त भी मैंने कभी रिकार्डिंग नहीं की ... ये सब बातें बड़ी बेकूफ़ाना लगती हैं... और एक बात, जब भी किसी से मिलने जाता हूं अपने मोबाइल को पतलून की जेब में ठूंस के रखता हूं....मेरी भी यही हसरत है कि जो लोग मुझ से मुलाकात करने आएं वे भी अपने मोबाइल मेरी तरफ़ प्वाईंट न कर के रखें....मैं असहज हो जाता हूं...... Inspite of all this, I stand by my words! ....जो बात मुंह से निकाल दी तो उस से मुकरना भी क्यों, अंजाम कुछ भी हो!!

 Having said all this, let's admit that we are living in times of mutual mistrust......God bless all of us!

अभी बिजली गुल थी ..मेरे एफएम रेडियो पर यह गोपाल दास नीरज जी का लिखा हुआ मेरा पसंदीदा गीत बज रहा था .. .यहां पर भी देख कर चलने की ही बात हो रही है...देख भाई ज़रा देख के चलो... 


रविवार, 21 मई 2017

२१ मई २०१७ (रविवार)

क्या शीर्षक दें यार रोज़ रोज़ अपनी पोस्ट को ...अपनी डायरी में लिख रहे हैं...मेरे विचार में जब मन चाहे बस तारीख लिख कर छुट्टी करनी चाहिए जैसा कि मैंने आज किया है।

इसलिए बत्ती गुल है ... अभी थोड़े समय पहले टाटास्काई के चैनल ८१६ पर सोनी मिक्स प्रोग्राम देख रहा था .. उस चैनल पर पुराने फिल्मी गीत इस समय रात में ९ से ११ बजे तक दिखाते हैं ..क्या बढ़िया सा नाम है उस कार्यक्रम का ..हां, रैना बीती जाए!!

अभी मैने उस पर तीन फिल्मी गीत सुने ...बेहतरीन एक दम ...अपने स्कूल के दिन याद आ गये .. जब ये गाने सुबह शाम रेडियो पर बजते रहते थे ...मैं इन तीनों गीतों को यहां एम्बेड करूंगा अभी पोस्ट पूरी करने से पहले।


पहला गीत सुना .. राम की लीला रंग लाई, शाम ने बंसरी बजाई...दिलीप कुमार साब पर फिल्माया गया है यह गीत ...कितनी तारीफ़ करें उन की और इस गीत की भी ..पिछले चालीस सालों में कम के कम सैंकड़ों बार यह गीत कानों में रस घोल चुका है ..फिर भी मन नहीं भरता...

उस के बाद आया लैला मजनूं का वह गीत ...कोई पत्थर से ना मारो ..मेरे दीवाने को ..जब १९७७ में नवीं कक्षा में पढ़ते हुए अमृतसर के ऐनम थियेटर में जाड़े के मौसम में यह फिल्म देखी थी..ठीक चालीस साल पहले ...उस समय कहां इन गीतों के अल्फ़ाज़ की तरफ़ ध्यान ही जाता है ज़्यादा ...लेेकिन जब इत्मीनान से सुनते हैं कईं सालों बाद तो शायर की दाद दिए बिना कैसे रह सकते हैं !



शब्दों के जादू की बात शुरू हुई है तो दाग फिल्म का गीत वह गाना याद आ गया...जब भी जी चाहे नईं दुनिया बसा लेते हैं लोग... साहिर लुधियानवी साहब के बोल हैं और यशराज बैनर तले १९७३ में बनी यह बेहतरीन फिल्म ...शर्मीला जी के ऊपर फिल्माया गया यह गीत ..



टीवी में आजकल देखने को कुछ ज़्यादा होता नहीं है ...कितने पागल बनते रहेंगे वही मिश्रा और केजरीवाल के पचड़ों के बारे में सुन सुन कर ...कमबख्त सिर दुःख गया है ...फिर ईवीएम मशीनों ने भी आंखें दुखा दी है ं...इस विषय का मैं जानकार नहीं हूं...n

सोच रहा हूं बंद करूं यह पोस्ट लिखना ...इच्छा सी नहीं हो रही..सोच रहा हूं जैसे इच्छा नहीं होने पर अपनी डॉयरी को बंद कर के मेज पर दूर सरका दिया जाता है, इस पोस्ट को भी ठेल कर आराम करूं...

लेकिन सोने से पहले इतना तो यहां दर्ज कर लूं कि आज टीवी पर दंगल फिल्म देखी ..यह मैंने पहले नहीं देखी थी...जितनी तारीफ़ की जाए कम है ...ऐसी फिल्में देख कर यह भी पता चलता है कि फिल्में बनाने के लिए कितनी मेहनत लगती है ...आमीर खान के बारे में तो मशहूर है कि वे दो साल में एक फिल्म बनाते हैं और ये होती हैं यादगार फिल्में ...सच में ..तारे ज़मीं पर ....थ्री-इडिटएस और अब दंगल ऐसी फिल्में हैं जिन्हें बच्चों को एक साथ स्कूलों के प्रेक्षागृहों में दिखाया जाना चाहिए...(मैं ब्लॉग में भयंकर शब्दों के इस्तेमाल से गुरेज करता हूं ..इसलिए प्रेक्षागृहों का मतलब भी लिख दूं...ऑडीटोरियम )...ये पहले वाली दोनों फिल्में ऐसी हैं जिन्हें कईं बार बच्चों के पेरेन्ट्स को देखने के लिए कह देता हूं ...अब दंगल देखने की भी सिफारिश किया करूंगा...

बेहद इमानदारी से किया गया रोल ...और आमिर फिल्म के बाद एक कार्यक्रम में बता रहे थे कि उस हरियाणवी भाषा का एक्सेंट सीखने के लिए उन्हें पूरे छः महीने लग गये....ज़ाहिर है जितनी तपस्या ये लोग करते हैं, फिल्म भी जनमानस के दिलो-दिमाग को उद्वेलित भी उसी अनुपात में ही करती है ....हम लोग कह देते हैं कि इसे इतने सौ करोड़ की कमाई हुई ...उसे इतने की हुई.....इस तरह की साफ़-सुथरी फिल्में देख कर यह पता चल जाता है कि ये सब लोग इस के हकदार हैं!!

पता नहीं ..उमस भरी गर्मी की वजह से या फिर क्यों, आज इस पोस्ट को लिखते हुए बड़ी बोरियत महसूस हुई ...होता है यह भी कभी कभी ...होना भी चाहिए!!