सब्जी मंडी में सब्जियां बिकती देख कर मेरा ध्यान अकसर किसान की तरफ़ चला जाता है ..
उस का कारण यही है कि कईं बार जब सब्जियां और फल इतने सस्ते बिक रहे होते हैं कि बार बार ध्यान यही आता है कि किसान इस से क्या कमा लेता होगा!
यह तस्वीर जो मैं लखनऊ के देशी खरबूजों की यहां लगा रहा हूं...(जैसा मुझे उस रेहड़ी वाले ने कहा कि ये देशी हैं!) ...क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि इन सब का कितना दाम होगा? इस का जवाब है ..मात्र पांच रूपया...ये पांच रूपया किलो में बिक रहे हैं आज कल लखनऊ के बाज़ारों में ..कहीं इत्मीनान भी होता है कि निम्न मध्यमवर्गीय वर्ग की पहुंच तक तो हैं....लेकिन किसान की कौन सोचता है कि उस ने क्या कमाया-खाया इस तरह की खेती से!
यदा कदा किसानों की खुदकुशी की खबरें आती हैं...हम लोग पढ़ लेते हैं जल्दी में कभी कभी..वरन हैडलाइन पढ़ना ही काफ़ी मान लेते हैं.. फिर अखबारों और टीवी की ऐसी चर्चाओं में भारी भरकम बुद्धिजीवियों (एक तो मेरे जैसे भारी भरकम और ऊपर से बुद्धिजीवि ...killer combination!) को डिनर के समय़ झेल लेते हैं.. बात आई गई हो जाती है!
एक बात और भी है ना कि यह खरबूजों का ही हाल नही ंहै ....कभी कभी टमाटर १० रूपये किलो बिकते हैं...बढ़िया टमाटर ...और आम का भी यहां लखनऊ में आने वाले दिनों में यही हाल हो जाता है ...१०-१५ रूपये किलो बिकने लगते हैं...बहुत सी सब्जियां हैं जिन का यही हाल होता है ....
अकसर आप मीडिया में देखते-पढ़ते भी होंगे कि किसानों ने अपनी सब्जियों की पैदावार को सड़कों पर फैंक दिया...उन्हें लगा कि इतना सस्ता बेचने से अच्छा है कि यही काम कर दिया जाए..
हेल्थ-इकनोमिक्स विषय का अध्ययन किया था १९९१ में...तब इकनोमिक्स के बारे में भी अधकचरी सी जानकारी हुई थी कि किस तरह से मार्कीट शक्तियां ही किसी भी सामान का दाम तय करती हैं....और वैसे भी ऐसे पांच रूपये किलो खरबूजे बेचने वाले को आप दस रूपये कभी देना भी नहीं चाहते ....ये भी हम से कम स्वाभिमानी नहीं होते, और ऐसी हरकत से हम कैसे इन को चोट पहुंचा सकते हैं!!
हम लोग किन दिनों में जी रहे हैं जहां एक तरफ़ तो इन स्वास्थ्यवर्धक सब्जियां-फलों का दाम कईं बार इतना नीचे गिर जाता है कि खरीदते हुए किसान के बारे में सोच कर अफसोस होता है ... (We really feel sorry for that unknown figure who must have cultivated and harvested this produce!)... और दूसरी तरफ़ एक पिज्जे के ऊपर शिमला मिर्च की दो बारीक सी फांके लग जाती हैं, यह कैप्सिकम पिज्जा बन जाता है तो यह डेढ़ दो सौ रूपये में भी बिक जाता है ...और घर में डिलीवर भी हो जाता है ... कितना बड़ी खाई है कि कैप्सिकम बाजा़र में कौडियों के भाव बिक रही है और ये पिज्जे विज्जे वाले कैसे मुनाफ़ा जमा कर रहे हैं...
कुछ भी हो, सब के हालात बदलने चाहिए....हर एक को उस की मेहनत की कीमत मिलनी चाहिए...सब्जी बेचने वालों की मजबूरी यह है कि वे इसे आज कल के मौसम में एक दिन भी नहीं रख सकते .. अगले दिन ही सब्जी और फल फ्रूट सड़ने-गलने लगता है ...
ऐसी सूरत में भी अगर कोई सरकार मध्यमवर्गीय किसानों के कर्ज़े माफ़ करने की बात ही करती है ...बिजली-पानी मुफ्त करने की बात होती है तो कैसे हम लोग अपनी भौहें तान लेते हैं...बिल्कुल सयाने कौवे की तरह ....यह भी पता नहीं कि असल में किन किसानों के कर्जे माफ़ हो जाते होंगे और कौन दर दर भटकने के लिए रह जाते होंगे ....सब जगह सैटिंग से ही काम चलता है ...वैसे सूरत कुछ कुछ बदल तो रही है, देखते हैं आगे आगे होता है क्या!
जाते जाते मेरी गुजारिश यही है कि इन छोटे मोटे सब्जी वालों से मोल भाव मत किया करिए....पिज़ा कार्नर वाली की दादागिरी हम सहते हैं....किसी भी थोड़े से ठीक ठाक ढाबे में अढ़ाई-तीन सौ रूपये की दाल मक्खनी की प्लेट भी खा लेते हैं और तीस रूपये की एक रोटी भी .....सब्जी खरीदते समय भी उस तरह की लूट का ध्यान रख लिया करिए... क्या ख्याल है?
उस का कारण यही है कि कईं बार जब सब्जियां और फल इतने सस्ते बिक रहे होते हैं कि बार बार ध्यान यही आता है कि किसान इस से क्या कमा लेता होगा!
यह तस्वीर जो मैं लखनऊ के देशी खरबूजों की यहां लगा रहा हूं...(जैसा मुझे उस रेहड़ी वाले ने कहा कि ये देशी हैं!) ...क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि इन सब का कितना दाम होगा? इस का जवाब है ..मात्र पांच रूपया...ये पांच रूपया किलो में बिक रहे हैं आज कल लखनऊ के बाज़ारों में ..कहीं इत्मीनान भी होता है कि निम्न मध्यमवर्गीय वर्ग की पहुंच तक तो हैं....लेकिन किसान की कौन सोचता है कि उस ने क्या कमाया-खाया इस तरह की खेती से!
यदा कदा किसानों की खुदकुशी की खबरें आती हैं...हम लोग पढ़ लेते हैं जल्दी में कभी कभी..वरन हैडलाइन पढ़ना ही काफ़ी मान लेते हैं.. फिर अखबारों और टीवी की ऐसी चर्चाओं में भारी भरकम बुद्धिजीवियों (एक तो मेरे जैसे भारी भरकम और ऊपर से बुद्धिजीवि ...killer combination!) को डिनर के समय़ झेल लेते हैं.. बात आई गई हो जाती है!
साहिब नज़र रखना..मौला नज़र रखना..
जंतर मंतर पर तमिल नाडू के किसान कितने समय तक धरना पर रहे ...बस, यह हमारे लिए एक खबर है ...टीवी के लिए टीआरपी बढ़ाने का जुगाड़ ...असल में किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता ...अपने घर से चंद घंटे के लिए ही हम लोगों को बाहर रहना पड़े तो हमारी क्या हालत हो जाती है ...और ये लोग आए दिन अपनी वाजिब मांगों के लिए गुहार लगाते रहते हैं ...और थक हार कर लौट जाते हैं...(मेरा अल्प ज्ञान देखिए कि मुझे यह भी नहीं पता कि वे अभी भी दिल्ली में ही हैं या वहां से लौट गये है ं...बस मौसम की वजह से एक अनुमान ज़रूर लगा पा रहा हूं को लौट ही गये होंगे!!)एक बात और भी है ना कि यह खरबूजों का ही हाल नही ंहै ....कभी कभी टमाटर १० रूपये किलो बिकते हैं...बढ़िया टमाटर ...और आम का भी यहां लखनऊ में आने वाले दिनों में यही हाल हो जाता है ...१०-१५ रूपये किलो बिकने लगते हैं...बहुत सी सब्जियां हैं जिन का यही हाल होता है ....
अकसर आप मीडिया में देखते-पढ़ते भी होंगे कि किसानों ने अपनी सब्जियों की पैदावार को सड़कों पर फैंक दिया...उन्हें लगा कि इतना सस्ता बेचने से अच्छा है कि यही काम कर दिया जाए..
हेल्थ-इकनोमिक्स विषय का अध्ययन किया था १९९१ में...तब इकनोमिक्स के बारे में भी अधकचरी सी जानकारी हुई थी कि किस तरह से मार्कीट शक्तियां ही किसी भी सामान का दाम तय करती हैं....और वैसे भी ऐसे पांच रूपये किलो खरबूजे बेचने वाले को आप दस रूपये कभी देना भी नहीं चाहते ....ये भी हम से कम स्वाभिमानी नहीं होते, और ऐसी हरकत से हम कैसे इन को चोट पहुंचा सकते हैं!!
हम लोग किन दिनों में जी रहे हैं जहां एक तरफ़ तो इन स्वास्थ्यवर्धक सब्जियां-फलों का दाम कईं बार इतना नीचे गिर जाता है कि खरीदते हुए किसान के बारे में सोच कर अफसोस होता है ... (We really feel sorry for that unknown figure who must have cultivated and harvested this produce!)... और दूसरी तरफ़ एक पिज्जे के ऊपर शिमला मिर्च की दो बारीक सी फांके लग जाती हैं, यह कैप्सिकम पिज्जा बन जाता है तो यह डेढ़ दो सौ रूपये में भी बिक जाता है ...और घर में डिलीवर भी हो जाता है ... कितना बड़ी खाई है कि कैप्सिकम बाजा़र में कौडियों के भाव बिक रही है और ये पिज्जे विज्जे वाले कैसे मुनाफ़ा जमा कर रहे हैं...
कुछ भी हो, सब के हालात बदलने चाहिए....हर एक को उस की मेहनत की कीमत मिलनी चाहिए...सब्जी बेचने वालों की मजबूरी यह है कि वे इसे आज कल के मौसम में एक दिन भी नहीं रख सकते .. अगले दिन ही सब्जी और फल फ्रूट सड़ने-गलने लगता है ...
ऐसी सूरत में भी अगर कोई सरकार मध्यमवर्गीय किसानों के कर्ज़े माफ़ करने की बात ही करती है ...बिजली-पानी मुफ्त करने की बात होती है तो कैसे हम लोग अपनी भौहें तान लेते हैं...बिल्कुल सयाने कौवे की तरह ....यह भी पता नहीं कि असल में किन किसानों के कर्जे माफ़ हो जाते होंगे और कौन दर दर भटकने के लिए रह जाते होंगे ....सब जगह सैटिंग से ही काम चलता है ...वैसे सूरत कुछ कुछ बदल तो रही है, देखते हैं आगे आगे होता है क्या!
जाते जाते मेरी गुजारिश यही है कि इन छोटे मोटे सब्जी वालों से मोल भाव मत किया करिए....पिज़ा कार्नर वाली की दादागिरी हम सहते हैं....किसी भी थोड़े से ठीक ठाक ढाबे में अढ़ाई-तीन सौ रूपये की दाल मक्खनी की प्लेट भी खा लेते हैं और तीस रूपये की एक रोटी भी .....सब्जी खरीदते समय भी उस तरह की लूट का ध्यान रख लिया करिए... क्या ख्याल है?
हम मेहनतकश जब दुनिया से अपना हिस्सा मांगेंगे ..