मंगलवार, 16 मई 2017

कभी किसान की भी सुध लीजिए...

सब्जी मंडी में सब्जियां बिकती देख कर मेरा ध्यान अकसर किसान की तरफ़ चला जाता है ..

उस का कारण यही है कि कईं बार जब सब्जियां और फल इतने सस्ते बिक रहे होते हैं कि बार बार ध्यान यही आता है कि किसान इस से क्या कमा लेता होगा!

यह तस्वीर जो मैं लखनऊ के देशी खरबूजों की यहां लगा रहा हूं...(जैसा मुझे उस रेहड़ी वाले ने कहा कि ये देशी हैं!) ...क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि इन सब का कितना दाम होगा? इस का जवाब है ..मात्र पांच रूपया...ये पांच रूपया किलो में बिक रहे हैं आज कल लखनऊ के बाज़ारों में ..कहीं इत्मीनान भी होता है कि निम्न मध्यमवर्गीय वर्ग की पहुंच तक तो हैं....लेकिन किसान की कौन सोचता है कि उस ने क्या कमाया-खाया इस तरह की खेती से!

यदा कदा किसानों की खुदकुशी की खबरें आती हैं...हम लोग पढ़ लेते हैं जल्दी में कभी कभी..वरन हैडलाइन पढ़ना ही काफ़ी मान लेते हैं.. फिर अखबारों और टीवी की ऐसी चर्चाओं में भारी भरकम बुद्धिजीवियों (एक तो मेरे जैसे भारी भरकम और ऊपर से बुद्धिजीवि ...killer combination!) को डिनर के समय़ झेल लेते हैं.. बात आई गई हो जाती है!


 साहिब नज़र रखना..मौला नज़र रखना..

जंतर मंतर पर तमिल नाडू के किसान कितने समय तक धरना पर रहे ...बस, यह हमारे लिए एक खबर है ...टीवी के लिए टीआरपी बढ़ाने का जुगाड़ ...असल में किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता ...अपने घर से चंद घंटे के लिए ही हम लोगों को बाहर रहना पड़े तो हमारी क्या हालत हो जाती है ...और ये लोग आए दिन अपनी वाजिब मांगों के लिए गुहार लगाते रहते हैं ...और थक हार कर लौट जाते हैं...(मेरा अल्प ज्ञान देखिए कि मुझे यह भी नहीं पता कि वे अभी भी दिल्ली में ही हैं या वहां से लौट गये है ं...बस मौसम की वजह से एक अनुमान ज़रूर लगा पा रहा हूं को लौट ही गये होंगे!!)

एक बात और भी है ना कि यह खरबूजों का ही हाल नही ंहै ....कभी कभी टमाटर १० रूपये किलो बिकते हैं...बढ़िया टमाटर ...और आम का भी यहां लखनऊ में आने वाले दिनों में यही हाल हो जाता है ...१०-१५ रूपये किलो बिकने लगते हैं...बहुत सी सब्जियां हैं जिन का यही हाल होता है ....

अकसर आप मीडिया में देखते-पढ़ते भी होंगे कि किसानों ने अपनी सब्जियों की पैदावार को सड़कों पर फैंक दिया...उन्हें लगा कि इतना सस्ता बेचने से अच्छा है कि यही काम कर दिया जाए..

हेल्थ-इकनोमिक्स विषय का अध्ययन किया था १९९१ में...तब इकनोमिक्स के बारे में भी अधकचरी सी जानकारी हुई थी कि किस तरह से मार्कीट शक्तियां ही किसी भी सामान का दाम तय करती हैं....और वैसे भी ऐसे पांच रूपये किलो खरबूजे बेचने वाले को आप दस रूपये कभी देना भी नहीं चाहते ....ये भी हम से कम स्वाभिमानी नहीं होते, और ऐसी हरकत से हम कैसे इन को चोट पहुंचा सकते हैं!!

हम लोग किन दिनों में जी रहे हैं जहां एक तरफ़ तो इन स्वास्थ्यवर्धक सब्जियां-फलों का दाम कईं बार इतना नीचे गिर जाता है कि खरीदते हुए किसान के बारे में सोच कर अफसोस होता है ... (We really feel sorry for that unknown figure who must have cultivated and harvested this produce!)... और दूसरी तरफ़ एक पिज्जे के ऊपर शिमला मिर्च की दो बारीक सी फांके लग जाती हैं, यह कैप्सिकम पिज्जा बन जाता है तो यह डेढ़ दो सौ रूपये में भी बिक जाता है ...और घर में डिलीवर भी हो जाता है ... कितना बड़ी खाई है कि कैप्सिकम बाजा़र में कौडियों के भाव बिक रही है और ये पिज्जे विज्जे वाले कैसे मुनाफ़ा जमा कर रहे हैं...

कुछ भी हो, सब के हालात बदलने चाहिए....हर एक को उस की मेहनत की कीमत मिलनी चाहिए...सब्जी बेचने वालों की मजबूरी यह है कि वे इसे आज कल के मौसम में एक दिन भी नहीं रख सकते .. अगले दिन ही सब्जी और फल फ्रूट सड़ने-गलने लगता है ...

ऐसी सूरत में भी अगर कोई सरकार मध्यमवर्गीय किसानों के कर्ज़े माफ़ करने की बात ही करती है ...बिजली-पानी मुफ्त करने की बात होती है तो कैसे हम लोग अपनी भौहें तान लेते हैं...बिल्कुल सयाने कौवे की तरह ....यह भी पता नहीं कि असल में किन किसानों के कर्जे माफ़ हो जाते होंगे और कौन दर दर भटकने के लिए रह जाते होंगे ....सब जगह सैटिंग से ही काम चलता है ...वैसे सूरत कुछ कुछ बदल तो रही है, देखते हैं आगे आगे होता है क्या!

जाते जाते मेरी गुजारिश यही है कि इन छोटे मोटे सब्जी वालों से मोल भाव मत किया करिए....पिज़ा कार्नर वाली की दादागिरी हम सहते हैं....किसी भी थोड़े से ठीक ठाक ढाबे में अढ़ाई-तीन सौ रूपये की दाल मक्खनी की प्लेट भी खा लेते हैं और तीस रूपये की एक रोटी भी .....सब्जी खरीदते समय भी उस तरह की लूट का ध्यान रख लिया करिए... क्या ख्याल है?

हम मेहनतकश जब दुनिया से अपना हिस्सा मांगेंगे ..

सोमवार, 15 मई 2017

सुबह की सैर वाला रोजनामचा १५.५.२०१७


आज मैं सुबह सवा छः बजे के करीब टहलने के लिए निकला..उमस बड़ी थी ...कल भी ऐसी ही हालत थी..पता चल गया था सुबह पेपर से कि कल लखनऊ तप रहा था.. कल का तापमान ४५ डिग्री सेल्सियस के पास था ...

एक बात मैं अकसर यहां शेयर करता हूं कि अगर आप को सुबह टहलने का शौक है ना तो आप के लिए बहुत सी बढ़िया पार्क हैं...लखनऊ के हर कोने में ...

अधिकतर पार्कों में पेड़-पौधे भी खूब हैं...इसलिए सुबह सुबह यहां पर आ जाना भाता है ...सच में ऐसे हरे भरे पार्क भी किसी शहर के फेफड़े होते हैं..


टहलने के कुछ और ऑप्शन भी हैं लेकिन उन जगहों पर पेड़ नहीं हैं और आज कल सुबह ही इतनी उमस हो जाती है कि पसीने की वजह से हर बंदा थोड़ी छाया की ठौर ढूंढता है ...यह सुबह साढ़े छः -सात बजे का हाल था आज भी ... कल से सोच रहा हूं कि अपने टहलने का समय बदलना होगा... यह टहलना-वहलना पांच छः बजे तक निपटा लेना चाहिए...

इस पोस्ट में लगी सभी तस्वीरें उसी बाग की हैं जहां मैं सुबह गया था ... लेकिन आप सोचिए कि आज भी लखनऊ में कितनी तपिश और उमस होगी कि इतनी सुबह सवेरे भी इस तरह के नैसर्गिक वातावरण में भी लोगों का पसीने की वजह से हाल बेहाल हो रहा था ..

अगर सुबह के वक्त टहलते हुए ऐसे मंज़र दिखें तो किसे टहलने में सुस्ती आयेगी! 




यह पार्क भी ऐसा है लगता है जैसे किसी ने शहर के बीचों बीच जंगल स्थापित कर दिया हो ...बिल्कुल उस जंगल में मंगल वाली कहावत के उलट..जैसे प्रकृति ने कंकरीट के आशियानों में बसने वालों पर रहम कर दिया हो! 

लेकिन पता नहीं कुछ लोगों का यहां पर आने का केवल एक उद्देश्य होता होगा कि फूल तोड़ के लाने हैं...यह भद्रपुरूष भी एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर जा कर फूल ही तोड़ता दिखा ..अब कोई इन को क्या कहे! ईश्वर ही सदबुद्धि प्रदान करे इन्हें!

लेकिन कुछ लोग सुबह उस वक्त भी परोपकार में लगे होते हैं...दूसरे से देखा कि यह नेक बंदा प्लास्टिक की बोतलें पैर से ठोकरें मार के एक जगह इक्ट्ठा करने में मशगूल है...मैं इन के पास गया तो गुस्से में लगे कि लोग कितना कचड़ा ऐसी जगहों पर भी फैंक जाते हैं...गुस्से में कहने लगे -- "कोई इन लोगों को समझाए कि जैसे इन बोतलों को लाते हो, वैसे जाते समय वापिस भी ले जाया करें...दूसरी चीज़ों की तरह जिन्हें भी प्यार से वापिस ले जाते हो..लेकिन किसी को कुछ भी कहने का ज़माना भी तो नहीं है।"

सुबह सवेरे स्वच्छता के लिए श्रमदान करते हुए एक बुज़ुर्ग
Journey of 3000 miles starts with the first step! 

यह बोतलें सुबह टहलने वाले नहीं लाते ... सुबह टहलने वाले जब यहां से निकल जाते हैं तो फिर यहां पर युगल आने शुरू होते हैं ...शाम तक वे यहां जमा रहते हैं...इन की ही ये बोतलें, चिप्स के पैकेट, चाकलेट की पैकिंग...पिज़ा-बर्गर के खाली डिब्बे ...इस तरह का कचरा वे लोग ही यहां फैंक जाते हैं..

पास ही खडा़ एक बंदा बताने लगा कि यहां भी अंडमान निकोबार समूह के हैवलॉक आईलेंड जैसा नियम होना चाहिए....उसने बताया कि वहां यह नियम है कि पानी को बोतल अगर लेकर वहां जा रहे हैं तो पहले आप को हर बोतल के लिए २०० रूपये प्रति बोतल के हिसाब से जमा करने होते हैं...लौट कर आइए.. प्लास्टिक की खाली बोतल उठा कर ले आईए..और अपने पैसे वापिस ले लीजिए...


मुझे यह आइडिया बहुत अच्छा लगा .. हमें भी कुछ कडे़ कदम ही उठाने पड़ेंगे ..हर तरफ़ कचरा ...हर तरफ़ गंदगी के अंबार लगे दिखते हैं...स्वच्छता तभी होगी जब कचरा-कूड़ा भी कम होगा ...

वापिस लौट कर देखा अपनी कॉलोनी में तो एक घर के बाहर रोज़ की तरह आज का संदेश यह लिखा हुआ था ..कुछ बातें समझ में आईं ..कुछ सोच विचार करने लायक लगीं....जैसे कि आप बस एक ही पैग लीजिए....यह उन के लिए है जो बेहिसाब पीते हैं.....और जो नहीं पीते हैं, उन्हें यह सब शुरू करने की ज़रूरत नहीं...



इतनी उमस में पूरे हिंदोस्तान को पवन-पुरवैया का ही ध्यान आ रहा होगा!

रविवार, 14 मई 2017

आप आज कल पढ़ क्या रहे हैं?

अच्छा, डाक्साब, बताईए, आप आज कल क्या पढ़ रहे हैं? कल जब मेरे एक मरीज़ ने यह प्रश्न दाग दिया तो मैं इसके लिए तैयार ना था...

अब उस को मैं क्या बताता कि दिन में कईं तरह की किताबें उठाता हूं ..और लेट कर ही पढ़ता हूं और पांच मिनट के अंदर नींद आ जाती है ..कोई भी किताब हो..इसलिए बच्चे भी जानते हैं कि यह बापू का लिटरेचर टाइम है तो मतलब सोने की तैयारी है।

मैं ऐसा सोचता हूं कि अच्छी या बुरी आदतें हमें बचपन से ही पड़ जाती हैं....मुझे यह लेट कर पढ़ने की आदत बचपन से ही है...वैसे तो किसी ने कभी भी पढ़ने-लिखने के कहा ही नहीं..लेकिन जो दो तीन कक्षाएं अहम् होती हैं कैरियर के ...उस दौरान मेरी मां कभी कभी ज़रूर कह देती थीं...उठ कर पढ़ा करो ...ऐसे लेट कर पढ़ने से कोई फायदा नहीं...कुछ समझ नहीं आता...नींद आई है तो सो जा, सुबह उठ कर पढ़ लेना...

लेकिन मैं भी ठहरा अव्वल दरजे का ढीठ प्राणी....अब तक भी लेटे बिना कुछ पढ़ते ही नहीं बनता और लेटने का मतलब नींद की झपकी...(वैसे मेरी मां की भी यही समस्या है...वे भी जैसे ही कोई किताब पढ़ने लगती हैं, उन्हें नींद आ जाती है ...) ...मतलब कुछ खानदानी मर्ज ही है!!

हां, उस मरीज़ की बात कर रहा था ...उसे मैंने ऐसे ही एक दो नाम बता दिए... अमृतलाल नागर जी और मुँशी प्रेम चंद जी के रचना संचयन के बारे में कहा कि उन्हें पढ़ रहा हूं..

मेरा यह जो मरीज है ..यह हिंदी प्रेमी है ...पांच छः अखबार लेता है ...और सुबह से शाम तक सारे पढ़ लेता है ..पहले भी कह चुका था..और आज भी कह रहा था कि आप के लेख जनसत्ता में छपते हैं...आप दूसरे अखबारों में भी भेजा करिए...मैंने बताया कि मैं किसी को भी नहीं भेजता, वे लोग ब्लॉग से अपने आप ले लेते हैं..

उन्होंने बताया कि वे आज कल रश्मिरथी पढ़ रहे हैं...और साथ में संस्कृति के चार अध्याय भी पढ़ रहे हैं... मुझे हिंदी साहित्य की जानकारी बहुत कम है ...मेरी जिज्ञासा भांप कर वह बताने लगे कि रश्मिरथी काव्य है ...दिनकर जी ...मैंने कहा ...रामधारी सिंह दिनकर जी ...कहने लगे..हां, हां, आज कल मैं उन को ही पढ़ रहा हूं...

उन की बातचीत से पता चला कि घर का सारा माहौल ही साहित्यिक है ...बीवी और बेटा भी ये सब साहित्य पढ़ते रहते हैं..घर में हर समय पढ़ाई लिखाई ही चलती रहती है ...

अच्छा लगा ये सब बातें सुन कर ...

मुझे याद आया कि दो साल पहले एक बात ये मुझे जैनेन्द्र कुमार का नावल त्यागपत्र पढ़ने के लिए दे गये थे ...मैंने उसे एक दो दिन मन लगा कर पढ़ा...और उस के बाद कुछ पंक्तियां अपनी डायरी में लिख दी थी...अभी डायरी सामने ही पड़ी हुई है, सोचा ब्लॉग पर वह चंद पंक्तियां शेयर करूं...

दिनांक ८.३.१५...
"उस समय भीतर ही भीतर सचमुच मुझे यह मालूम हो रहा था कि यहां देर तक मेरा रहना ठीक न होगा। लोग ने जाने क्या समझें। मैं आज तक इसी बात पर आश्चर्य किया करता हूं कि लोग क्या समझेंगे, इसका बोझ अपने ऊपर लेकर हम क्यों अपनी चाल को सीधा नहीं रखते हैं, क्यों उसे तिरछा-आड़ा बनाने की कोशिश करते हैं! लोगों के अपने मुंह हैं , अपनी समझ के अनुसार वे कुछ-कुछ क्यों न कहेंगे? इसमें उनको क्या बाधा है? उन पर फिर किसी को क्या आरोप हो सकता है? फिर उन सबका बोझ आदमी अपने ऊपर स्वीकार कर अपने भीतर के सत्य को अस्वीकार करता है - यह उसकी कैसी भारी मूर्खता है!!"
(जैनेन्द्र कुमार के उपन्यास ...त्यागपत्र से ...) 

पढ़ने लिखने की बातों से बचपन की बातें उमड़-घुमड़ कर ज़रूर याद आ जाती हैं....जब चंदमामा, लोटपोट, नंदन, कभी कभी धर्मयुग भी, मायापुरी जैसी किताबें और कुछ छोटे छोटे जासूसी उपन्यास भी किराये पर लाकर पढ़े जाते थे ..शुक्र है कि उन दिनों टीवी नहीं होता था ..इसलिए कोशिश यही होती थी कि अगर चार पत्रिकाएं लाएं है ..मतलब एक रूपया किराया देना है कल सुबह तो कैसे भी रात देर तक जाग कर या सुबह जल्दी उठ कर निपटा लिए जाए...और अकसर यह काम हो ही जाता था...(जहां चाह वहां राह ..) ...हां, उन बच्चों के नावल के पचास पैसे थे एक दिन के ...वे भी खूब पढ़ते थे .. बचपन में ये पढ़ने-लिखने की आदतें हमारे जमाने में आम थीं...

स्कूल में हम लोग यह चर्चा करते थे ..पांचवी छठी कक्षा में अच्छा उस लोटपोट को पढ़ लिया तुमने .उस का सीरियल नंबर होता था ..फिर बिल्लू भी आने लगा था ... घर में धर्मयुग भी आता था और इलेस्ट्रेटेड वीकली भी ....मैं इन के भी पन्ने ज़रूर उलट लिया करता था ..फोटो देखता ..बच्चों के पढ़ने लायक कुछ पन्ने होते तो उन्हें भी देख लेता ...मां को सरिता पढ़ना पसंद था .. उस भी जरूर देख लेते थे और मामा जब आते थे तो उन के साथ मनोहर कहानियां, सच्ची कहानियां भी आती थीं, तब उधर भी नज़र पढ़ जाती थीं...रीडर डाईजेस्ट भी दसवीं कक्षा के आसपास दिखने लगी थी....और हां, क्लास में बच्चे जो मस्तराम जी का साहित्य पढ़ते थे तो वे बातें भी कानों में पढ़ती रहती थीं...याने सभी तरह के साहित्य का स्वाद चख लिया था ..स्कूल कालेज के दिनों में ही ...

बात उसी पर आते हैं कि आज कल कोई ऐसे पूछता नहीं है ना कि आप क्या पढ़ रहे हैं... लेकिन उस दौर में रिश्तेदार चिट्ठियों में लिखते थे कि खिलौना देखी है, आप लोग भी ज़रूर देखिए....मौसी ने लिखा कि चितचोर देख कर आए..कसमे वादे भी अच्छी है ...बहन गईं चाचा के यहां तो वहां से लिख भेजा कि ज़मीर फिल्म देख कर आये हैं...आप लोग भी देखिएगा...पहले हम लोग ऐसे निर्धारित करते थे कि कौन सी फिल्म देखनी हैं....मुझे अभी याद आ रहा है कि मुहल्ले की कुछ औरतें तलाश फिल्म देख कर आईं तो मां और उन की सहेलियां वाला ग्रुप भी अगले दिन सिटी लाइट हाल में यह फिल्म देखने चला गया ...


पहले कोई फिल्म देख कर आते थे तो शायद उस का नशा अगले सात दिन तक को कम से कम चढ़ा ही रहता था..हर शख्स अपने आप को उन चंद दिनों के लिए कुछ कुछ हीरो जैसा ही अपने आप को समझने लगता था ...फिर जब नशा उतर जाता तो सब कुछ नार्मल हो जाता था...

हां, एक बात और याद आ गई...कईं बार बंदिश से भी अच्छे काम हो जाते थे ...याद करिए किस तरह से हम लोग छोटे साईकिल एक घंटे के लिए २५ पैसे के हिसाब से किराये पर लेते थे ..उस समय लंबा चल कर दुकान तक जाना भी बिल्कुल नहीं अखरता था...और वहां कुछ समय इंतज़ार करने में भी दिक्कत नहीं होती थी..साथ में कोई साथी भी होता था ...जिस के साथ आधे आधे समय चलाने का कान्ट्रेक्ट हुआ होता था ....सच बताऊं जो खुशी उस छोटे साईकिल को उस एक घंटे में चलाने में होती थी वह तो मुझे कभी भी आई२० गाड़ी  चलाने में भी नहीं हुई....कभी भी नहीं.. बस, उस साईकिल को चलाते समय एक घंटे के खत्म होने की चिंता सताती रहती थी ...फिर इतनी अकल भी आ गई कि एक घंटे होते होते दुकान के आसपास ही चक्कर लगाने हैं...ताकि जैसे ही वह आवाज़ लगाए .. तो उसे साईकिल जमा करवा दी जाए...क्योंकि जेब में २५ पैसे से ज़्यादा माल भी तो नहीं होता था....

बदल गया है ज़माना है ....बदलना भी ज़रूरी होता है...पहले किसी के यहां केसेट आती थी तो पता चल जाता था कि उस के यहां ये ये कैसेट्स हैं, मिल बांट कर सुनते से सारे .....अब सभी के फोनों पर स्क्रीन लॉक लगे होते हैं....घर में हज़ारों रूपये के फोन , लैपटाप आते हैं तो भी लोग कहां एक साथ  बैठ कर खुशी मना पाते हैं ! हरेक को अनजान हडबड़ाहट है....वाट्सएप, ट्विटर और  फेसबुक पर पीछे छूट जाने की फिक्र है शायद ..

हां, जाते जाते किताब कौन सी पढ़ रहा हूं, इस का जवाब तो मैंने ऊपर दे दिया ... लेकिन आज कौन सी खरीदी है ...उस का नाम है ...Rishi Kapoor की किताब Uncensored Khullam Khulla......It reminds me of that popular song ... जो अकसर Big FM 94.3 पर बजता रहता है ....