बुधवार, 3 मई 2017

ऐसे तो कपड़े की थैलियां भी बेकार हैं!

यह जो मुझे आज सुबह टहलते हुए दिखा ...यह हर नुक्कड पर आप भी रोज़ देखते होंगे 

सुबह टहलते जब निकलते हैं तो हर तरफ़ प्लास्टिक के अंबार देख कर, जलता हुआ प्लास्टिक देख कर, पशुओं को प्लास्टिक निगलते देख कर ..आस पास के नालों को प्लास्टिक से रूके देख कर और वहां से निकलती दुर्गंध से मन दुःखी होता है ...

बार बार मन में यही विचार आता है कैसे हम इस प्लास्टिक वाली बीमारी से निजात पा सकेंगे आखिर ...बहुत साल पहले जब दूध प्लास्टिक की पन्नियों में बिकने लगा तो हैरानगी हुई, फिर जब दही भी इन में मिलने लगा तो भी अजीब सा लगा ...फिर गर्मागर्म दाल भी ढाबे वाले इसी में बेचने लगा ...लेकिन यहां जब यहां यू.पी में देखा कि गर्मागर्म चाय भी इन पन्नियों में भी बिकती है तो आंखे फटी की फटी रह गईं...और जब इन के साथ आने वाले प्लास्टिक के गिलासों की तरफ़ ध्यान गया तो उन का मैला-कुचैला रंग और बिल्कुल पतला प्लास्टिक यह बताने के लिए काफ़ी होता है कि ये किस तरह के घटिया, रीसाईक्लज़ प्लास्टिक से तैयार किए होंगे...और तो और, अब तो पानी पीने के लिए भी बाजा़र में दो रूपये की पानी की पन्नी मिलती है ...जो काम हम लोग किसी प्याऊ पर हथेलियां जोड़ कर ही निपटा लेते थे ...

उस दिन मेरा एक मरीज़ मुझे मशविरा दे गया ... डाक्टर साब, आज कल तो डिस्पोज़ेबल गिलास आते हैं..आप भी यहां ओपीडी में कांच के गिलास इस्तेमाल करना बंद कर दीजिए...उसने मुझे और भी ज्ञान बांट दिया कि उन का तो यही फायदा है कि यूज़ एंड थ्रो...

मानो तो गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता पानी...

उस की तो मैंने हां में हां मिला दी ..मरीज़ को क्या नाराज़ करना, लेकिन करता मैं वही हूं जो मैं ठीक समझता हूं...मेरे यहां आने से पहले यहां डिस्पोज़ेबल गिलास ही इस्तेमाल होते थे ...लेकिन मैंने कभी नहीं मंगवाये...दिक्कत क्या है, कांच के इतने सारे गिलास हैं, आराम से साफ़ हो जाते हैं...जिसे दिक्कत है, वह घर से अपना गिलास ले आए...(कुछ लोग लाते भी हैं!) ..बेकार में हम लोग जितना कचड़ा जमा करते रहेंगे, कहीं न कहीं ढेर लगता रहेगा,  इतने ज़्यादा प्लास्टिक या थर्मोकोल का डिस्पोज़ल भी तो एक सिरदर्दी ही है!

यहां घर के पास ही हफ्ते में दो दिन सब्जी मंडी लगती है ..अकसर देखता हूं कि लोग कपड़े के थैले तो उठाए रहते हैं लेकिन हर सब्जी अलग प्लास्टिक की पन्नी में मिलने की वजह से उस थैले में पंद्रह बीस पन्नियों तो जमा हो ही जाती होंगी...सोचने वाली बात है कि ऐसे में फिर उस कपड़े वाले थैले के साथ दिखने का फायदा ही क्या....nothing beyond a new fashion statement! 

बचपन की यादें हैं कि जब कपड़े की थैलियों में सब्जी आती थी तो कितना समय तो उन सब्जीयों को अलग अलग करने में ही लग जाता था...मिर्ची मेथी में घुसी हुई ...और अरबी आलू-कचालू में...एक एक मटर को अलग करना, आप को भी थोडा़ बहुत याद तो होगा (नाटक मत कीजिए!) कि किस तरह से उस थैले को जमीन पर उल्टा कर के सब्जियों को अलग अलग करने की प्रक्रिया शुरू हो जाती थी.. फिर वही मलाल....कईं बार जब टमाटर और केले और कभी कभी आम और आलूबुखारे भी दब जाते थे ... लेकिन उस दौर में भी लोगों को अच्छी समझ तो थी ही कि टमाटर और केले सब से आखिर में ही खरीदने हैं...

अब टमाटर आदि के लिए चाहे लोग अलग से थैला लेकर जाने लगे हैं..लेकिन दुकानदार उसे फिर भी प्लास्टिक की पन्नी में डाल के ही देता है ... 

हमें इस तरह से खरीदारी का ढंग बदलना होगा ..हम से मतलब मुझे भी ...यह जो हमारा लाइफ-स्टाईल बन चुका है जिस में हम लोग प्लास्टिक की पन्नियां ही इक्ट्ठी करते रहते हैं...इस से निजात पानी होगी ...अगर हम चाहते हैं कि हमारा पर्यावरण ठीक रहे ...बद से बदतर होने से बचा रहे...एक बार एक आश्रम में लिखा देखा था कि आप जिस कमरे में रह रहे हैं..खुशी से रहिए, बस लौटते समय इतना सुनिश्चित कीजिए कि इसे आप उसी हालत में छोड़ कर जाएँ जिस हालत में यह आप को मिला था ...बात मन को छू गई........क्या हम यही बात अपने वातावरण के लिए नहीं कर सकते कि अगली पीढ़ी को भी धरा, वन-सम्पदा, नदी, तालाब, पोखर, झरने ....हम विरासत में वैसे ही देकर जाएं जैसे ये कभी हमें मिले थे ....सोचिएगा!

काम मुश्किल भी नहीं है इतना जितना हम समझ लेते हैं... शुरूआत करने की ज़रूरत है ...यह लिखने से मेरे को यह फायदा हुआ है कि अब मैं जब भी थैला लेकर निकलूंगा तो उस में प्लास्टिक की पन्नियां डलवाने से गुरेज करूंगा ....कर लेंगे ध्यान यार टमाटर और केलों को बचाने का ... पहले अपने आप को तो बचा लें, हम भी अगर कहीं प्लास्टिक के पहाड़ों के नीचे दब गये तो!

कहने को तो ये इज़ी-डे, स्पेन्सर्ज़ जैसे स्टोर भी खरीदारी के वक्त अगर थैली देते हैं तो उस का अलग से चार्ज करते हैं...लेकिन इन जगहों पर भी सब्जी और फलों के लिए अलग अलग प्लास्टिक की पन्नीयां ही दिखती हैं.. बड़ी बड़ी दुकानों ने भी कागज़ के थैले के लिए अलग से पैसे वसूलने शुरू किए हुए हैं...अच्छा है वैसे तो यह भी उपाय...जितने भी छोटे छोटे कदम दिखें, मुबारक हैं...क्योंकि इन सब का बड़ा उद्देश्य एक ही है ...पर्यावरण की रक्षा। 

बंद करता हूं अब इस पोस्ट को ...ड्यूटी पर जाने का समय हो गया है ...

बस, यही गुजारिश है कि अगली बार जब कपड़े का थैला लेकर बाज़ार के लिए निकलें तो उस में प्लास्टिक की पन्नियां डलवा कर उस की सौम्यता को ग्रहण मत लगने दीजिए....मैं स्वयं आज ही से इस बात का विशेष ध्यान रखूंगा ... अपने आप से यह वादा कर रहा हूं!!

कुछ दिन पहले टीवी पर किसी ने बड़ी सुंदर बात कही कि गंगा नदी को साफ़ करने पर करोड़ो रूपये खर्च हो रहे हैं....लेकिन यह साफ़ तभी होगी जब हम लोग इसे गंदा करना बंद कर देंगे...

मंगलवार, 2 मई 2017

फिक्स दांतों की सिरदर्दी

दांतों के झोलाछाप डाक्टर भी जनमानस के दांतों काे बद से बदतर किये जा रहे हैं...इस तरह के अनक्वालीफाईड डाक्टर फिक्स दांत लगाने की आड़ में बहुत गड़बड़ कर देते हैं...आज इस के बारे में थोड़ी सी बात करते हैं...

 आज जो महिला मेरे पास आई ...५५-६० साल की होगी...आगे का एक दांत बता रही थीं कि कुछ साल पहले निकल गया था ...एक साल पहले एक दांतों के डाक्टर से फिक्स दांत लगवा लिया था ...बस, कुछ समय के बाद से ही तकलीफ़ शुरू हो गई..

तकलीफ़ यह है कि इन्हें फिक्स दांत के आसपास हर समय दर्द रहता है, मसूड़ों में दर्द होता रहता था, खाने ढंग से खाया-चबाया नहीं जाता, फिक्स दांत के आसपास छाले हो जाते हैं, घाव पड़े रहते हैं...बस, वह दुःखी हो चुकी है ..

मैंने उसे समझा दिया कि यह सारी परेशानी इन फिक्स दांतों की वजह से हो रही है .. मैंने पूछा कि यह काम किसी फुटपाथ से करवाया?...बताने लगी कि नहीं ..फुटपाथ से तो नहीं लेकिन एक खोखे से करवाया....मैं समझ गया कि किसी झोलाछाप नीम हकीम ने यह काम किया है ..पैसे भी कम नहीं लिये ...एक हज़ार रूपये भी ले लिए.. लेकिन फिक्स दांत की जगह इसे एक बीमारी दे दी..

संक्षेप में यही बताना चाहता हूं ...ये फिक्स दांत होते ही नहीं हैं..कोई भी प्रशिक्षित दंत चिकित्सक इस तरह का काम करते ही नहीं हैं...फिक्स दांत सही ढंग से लगवाने का अलग तरीका होता है (उस के बारे में फिर कभी चर्चा करेंगे)

आप इस महिला के दांतों की हालत देख सकते हैं कि कैसे बिल्कुल खराब ढंग से कैसे डेंटल एक्रिलिक (Dental acrylic) को आसपास के नेचुरल दांतों पर लगा कर और पीछे की तरफ़ कैसे अच्छे भले साथ वाले दांतों पर तार बांध कर नकली दांत की पकड़ मजबूत करने का जुगाड़ किया गया है ..

यह तो महिला एक साल बाद आईं...लेेकिन बहुत से लोग तो कुल दो चार महीनों के बाद ही फूले हुए मसूड़े और घाव के साथ आ जाते हैं..इस का केवल एक ही इलाज है कि जल्दी से जल्दी इस तरह के फिक्स दांतों को उतार दिया जाए...और बाद में नया दांत लगवाया जाए...

यह मरीज़ भी पांच मिनट में ही तैयार हो गई इसे उतरवाने के लिए ...इस के अलावा और कोई भी चारा भी तो नहीं! ...कईं बार लोग मना भी कर देते हैं कि हमें तो दर्द से आराम दिलवा दीजिए...हम फिक्स दांतों को नहीं उतरवाएंगे।

बस, आज के लिए इतना ही संदेश ...झोलाछाप तथाकथित दांतों के नकली डाक्टरों से बच कर रहिए...

रविवार, 30 अप्रैल 2017

यारो ! उठो, चलो, भागो, दौड़ो

कुछ साल पहले यमुनानगर (हरियाणा) में हम लोगों के प्रवास के दौरान मैं अकसर बहुत ही बुज़ुर्ग हो चले एक इंसान को अकसर देखा करता ...जिनकी पीठ पूरी तरह से आगे की तरफ़ झुक चुकी थी ..लेकिन वह सुबह-शाम अपने बाज़ार के सारे काम खुद ही निपटाते दिखते..कैसे? वह एक साईकिल का सहारा लेकर उस के सहारे पैदल चल कर ही सब कुछ खरीदते दिखते...

मुझे ध्यान है यहां लखनऊ में भी मैंने कईं बार देखा कि बाज़ार में कभी कभी बुज़ुर्ग को साईकिल का सहारा लेकर अपनी खरीदारी करते हुए..

कईं बार सुबह टहलते हुए कोई बुज़ुर्ग महिला या पुरूष दिख जाता है जो वाकर की मदद से धीरे धीरे टहल रहे होते हैं...मुझे अपना समय याद आ जाता है ... १२ साल पहले मेरा फिश्चूला का जब आप्रेशन हुआ तो मुझे भी चिकित्सक ने रात के खाने के बाद थोड़ा टहलने की हिदायत दी ...और अस्पताल में दाखिल रहते हुए जब मैं रात को नीचे १०-१५ मिनट नीचे टहलने जाता तो मुझे कितना अच्छा लगता, यह मैं ब्यां भी नहीं कर सकता.. मुझे बस इसी बात का इंतज़ार रहता कि कब मैं ठीक से अपनी चाल चल पाऊंगा...

लेकिन हम लोग ठीक ठाक होने पर कैसे सब कुछ भूल जाते हैं..और सेहत को तो ऐसे समझते हैं जैसे कि हम लोगों को १०० साल की गारंटी मिल चुकी है ..नहीं, ऐसा नहीं है...

मुझे याद आ रहा है यहां लखनऊ में अपनी कॉलोनी में एक बुज़ुर्ग वाकर की मदद से टहला करते थे ..शायद अधरंग का शिकार थे ...साथ में उन की मदद के लिए एक हेल्पर भी होता था ...और कुछ महीनों के बाद उन की चाल के साथ साथ उन का चेहरा भी निखरने लगा था...

मैं अकसर यही बात शेयर करता हूं कि किसी की कैसी भी हालत हो वह अपने सामर्थ्य के अनुसार उठे, चले, भागे, दौड़े ....तभी बात बनने वाली है ..केवल पढ़ने-लिखने से कहां कुछ होता है ... ज्ञान तो हम सारा दिन वाट्सएप पर लेते-देते ही रहते हैं, उसमें क्या है! कल वाट्सएप पर किसी ने अखबार की एक कतरन शेयर की गई जिस में विश्वविख्यात हृदय रोग विशेषज्ञ डा त्रेहन का एक बीवियों को एक मशविरा छपा था कि वे अपने पति को तब तक नाश्ता न दें जब तक वह ५५ मिनट तक कसरत न कल लें...

आज भी सुबह मैंने लखनऊ की जेल रोड़ पर जाते हुए इस बुज़ुर्ग को ऐसे साईकिल को थामे हुए चलते देखा तो मुझे पहली बार तो दूर से देखने पर यही लगा कि पैंचर हो गई होगी साईकिल ..लेकिन फिर उन के स्पोर्टस शूज़ आदि देख कर लगा कि यह भी टहलते हुए एक सहारे के तौर पर ही इस साईकिल को इस्तेमाल कर रहे हैं..


रहा नहीं गया बिना पूछे...उन के पास रूक कर पूछ ही लिया कि साईकिल में खराबी है कोई?..."नहीं, नहीं, वैसे ही टहल रहा हूं." उन से अपेक्षित जवाब मिलने पर मैं इतना कह कर अागे निकल गया... "बहुत अच्छा, टहलना तो बहुत बढ़िया बात है!"

इस बुज़ुर्ग के एक घुटने में बहुत दिक्कत लग रही थी...लेकिन फिर भी टहलना जारी है !

आगे जाते हुए मैं यही सोच रहा था कि जब भी मुझे ऐसा कोई शख्स मिल जाता है सड़क पर आते जाते तो मैं उस की फोटो खींच कर अपने ब्लॉग पर शेयर अवश्य करता हूं ...एक रिमांइडर की तरह ...और बस अाप को ही याद करवाने के लिए ही नहीं, अपने आप को भी याद दिलाने के लिए भी कि जब तो हाथ-पांव चल रहे हैं, इन को अच्छे से इस्तेमाल कर लेने में ही समझदारी है ...वरना बाद में तो वही बात है ...अब पछताए होत क्या...

पुरानी आदतें बदलनीं, नईं अच्छी आदतों को ओढ़ना....बहुत मुश्किल काम है ...इसलिए छोटी छोटी बातों के बारे में सचेत रहिए...मेरी तरह नहीं कि कईं महीनों से साईक्लिंग बस इस लिए बंद है क्योंकि साईकिल में हवा नहीं है, इस से ज़्यादा बेवकूफ़ाना बहाना भी कोई हो सकता है क्या अपने शरीर को कसरत से दूर रखने के लिए!

देखता हूं आज कुछ करता हूं...मानना ना मानना आप के अपने हाथ में है, जो भी हो, इस तरह के बुज़ुर्ग राह में चलते-फिरते शायद हमें कुछ भूले हुए पाठ याद दिलवा देते हैं...

जाते जाते एक बात याद आ गई ...सरकारें बदलती हैं तो वफ़ादार भी बदल जाते हैं...नियम कायदे बहुत कुछ बदलता है ..पुरानी सरकारों के फैसलों के निर्णयों की समीक्षा होने लगती है, उन के घोटालों की खोजबीन होने लगती है..लेकिन शायद आटे के साथ घुन भी पिस जाता है ...कुछ दिन पहले खबर थी कि यूपी में पिछले शासन-काल के दौरान जो सड़कों के किनारे साईक्लिंग पथ बने हैं ..Cycle Track.. बने हैं, उन की समीक्षा भी होगी कि क्या उन्हें रखा जाएगा या नहीं....मेरा व्यक्तिगत विचार है कि चाहे साईकिल किसी एक पार्टी का चुनाव-चिन्ह है, लेकिन फिर भी इन साईकिल ट्रैकों को इस रद्दोबदल की आंच से दूर से रहने दिया जाए....लंबे अरसे के बाद देश में साईकिल चलाने वालों के बारे में भी कुछ हुआ है ...बेहतर होगा इस से प्रेरणा लेकर यह काम आगे बढ़ाया जाए.. वरना एक बार समीक्षा की खबरें तो बाहर आ ही गई हैं ...और वैसे भी ये जो सड़कों-रास्तों पर कब्जा कर के बैठ जाते हैं..उन्हें तो बस एक इशारा ही काफ़ी होता है!