गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो !

एक शख़्स जिस फैक्ट्री में काम करता वह अंदर आते जाते वक्त बाहर खड़े वॉचमैन को देख कर मुस्कुरा देता ...वॉचमैन को भी अच्छा लगता क्योंकि नज़रे तरेर कर उसे देखने वालों की भीड़ में एक शख्स को था जो उस के वजूद की कद्र करता था....यह कोई कोल्ड-स्टोर टाइप की फैक्ट्री थी जिस में बड़े बड़े डीप-फ्रीज़र लगे हुए थे...तो हुआ यूं, दोस्तो, कि एक दिन वह शख्स अपने काम के सिलसिले में एक ऐसे ही फ्रीजर में काम कर रहा था ..कमरों जैसे बड़े बड़े फ्रीजर ही थे वे ...तभी फैक्ट्री बंद होने का सायरन बजा और गलती से उस फ्रीज़र का दरवाजा बंद करने वाले ने उसे किया बंद और सारा स्टॉफ बाहर चला गया..

बाहर बैठा वॉचमैन सोचने लगा कि सारा स्टॉफ तो बाहर आ गया है लेकिन वह ख़ास बंदा तो आया नहीं ..दूसरा कोई होता तो उसे पता भी न चलता लेकिन यह बंदा ख़ास क्यों था वह तो मैं आप को बता ही चुका हूं। उसे यह भी अच्छे से याद था कि सुबह तो वह मुझे देख कर मुस्कुरा कर हाथ हिला कर अंदर गया था। लो जी, वॉचमैन से रहा न गया ....उस की बेचैनी ने उसे चाबी उठाने के लिए मजबूर कर दिया ...भाई, उसने चाभीयां उठाई और अंदर जा कर कमरे चैक करने लगा ......अरे यह क्या, एक कमरे में उसे वह शख्स दिख गया जो कि बस जमने की कगार पर ही था ...

उस बंदे के पास जाते ही वह उसे पहचान गया ....उसने फ़ौरन उसे बाहर निकाला ...साथ ही लकड़ियों को जलाने का प्रबंध किया ...कुछ वक्त के बाद वह सुध-बुध खोया हुआ बंदा हिलने ढुलने लगा ...सचेत हो गया...नेक वॉचमैन ने तब तक उस के लिए कॉफी का प्रबंध कर दिया....कॉफी पीते ही और उस अलाव की गर्मी मिलते ही उस बंदे ने सब से पहले चौकीदार से यही पूछा कि यार, तुमने मुझे ढूंढ कैसे लिया....चौकीदार ने कहा कि साब, इतनी बड़ी फैक्ट्री में सिर्फ़ ही हैं जो सुबह शाम मेरी तरफ़ देख कर आते जाते हैं...इसलिए मुझे याद था कि आप आज सुबह अंदर तो गये हैं लेकिन बाहर नहीं आए....बस, साब, इसी शक ने मुझे आप तक पहुंचा दिया...फैक्ट्री में काम करने वाला इस से आगे उस के कुछ कह ही न सका.....क्योंकि उस की आंखें ढबढबाई हुई थीं और गला रूंधा हुआ था ...वैसे भी कुछ बातें आंखें ज़्यादा अच्छे से ब्यां कर जाती हैं....ज़रूरी नहीं कि एहसान का इज़हार अल्फ़ाज़ के हार पहना कर ही किया जाए.....

दोस्तो, जब भी अलाव की बात छिड़ती है न तो मुझे गोपाल दास नीरज जी की कही यह बात याद आ जाती है...गोपाल दास नीरज को नहीं जानते?.... तुम लोग भी न आज के जवान लोग ....उस गीत को तो जानते होंगे ...शोखियों में घोला जाए..., देख भाई ज़रा देख के चलो. .....बस, इस तरह के अनेकों फिल्मी गीत लिखने वाले गोपाल दास नीरज... बहरहाल, उन की कही बात जो मैंने किसी ज़माने में अपनी डॉयरी में लिख ली थी, वह पेशेख़िदमत है ...पढ़िए...इत्मीनान से पढ़िए, कोई जल्दी नहीं, वैसे भी वोटों का मौसम है ....इसलिए सब के लिए ज़रूरी है इन बातों को समझ पर पल्ले बांध लेना ...

लखनऊ की मेरी खुशनुमा यादों में एक यह भी है कि मैं गीतों के दरवेश नीरज जी को पास से देख पाया ..उन से मिल पाया...🙏

दोस्तो, वॉटसएप इतना बुरा भी नहीं है ..लेकिन हर वक्त इस से साथ चिपके रहने की आदत ने इसे बुरा बना दिया है ...यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि कईं बार कुछ किस्से इस में पढ़ लेते हैं तो वे ताउम्र हमारे साथ रहते हैं....यह जो किस्सा या सच्ची घटना, जो भी है, दिल को छूती है ...यह मैंने कईं साल पहले वाट्सएप पर ही पढ़ी थी ...मेरी आंखें एक बार तो भर आई थीं इसे पढ़ कर ...

इस का ख्याल मुझे दो दिन पहले सुबह सुबह अखबार पढ़ते आया जब मैंने पढ़ा कि मुंबई के बांद्रा इलाके में एक 83 साल की बुज़ुर्ग अपनी रसोई में गिरने के बाद सुबह 9 बजे से शाम चार बजे तक वहीं गिरी पड़ी रही. तो हुआ यह दोस्तो कि यह 83 साल की बुज़ुर्ग अकली फ्लैट में रहती हैं ...परिवार वाले बाहर रहते हैं...विलायत में रह रहे हों या चिंचपोकली में, क्या फर्क पड़ता है ...चलिए, आगे की बात सुनिए ...यह बेचारी चाय बनाने के लिए उठी...किचन के नीचे कुछ गिरा हुआ था और यह ड्.रम  से नीचे...शारीरिक कमज़ोरी इतनी थी बेचारी में वह गिर कर उठ भी न पा रही थी और आसपास किसी पड़ोसी को भी बुलाए तो बुलाए कैसे। 

पड़ी रही बेचारी ऐसे ही ...दोपहर बीत गई ...तभी उस बिल्डिंग के चौकीदार ने देखा कि उस बुज़ुर्ग महिला का दोपहर का जो टिफिन आता है वह अभी भी बाहर ही पड़ा है ...उस का माथा ठनका...उसने बिल्डींग में दूसरे लोगों को इत्लिा दी ...कुछ लोग आगे आए...फ्लैट का दरवाज़ा खुलवाया गया ...उस महिला को यूं रसोई घर में अंदर दर्द से कराहते हुए पड़ा देखा तो उसे फ़ौरन पास ही के होली फैमिली अस्पताल तक पहुंचाया गया...वहां सब जांच हुई ...उस की टांग टूट गई थी ...खैर, इलाज तो शुरू हो गया है, ख़तरे से बाहर है .......वही बात हो गई ...जाको राखे साईंयां मार सके न कोए...

इस मुल्क में बड़े बुज़ुर्गों की सच में बड़ी आफत है ...बहुत से लोगों को अकेले रहना पड़ता है ...कुछ के बच्चे बाहर नौकरी करते हैं, कुछ ने पुराने पुश्तैनी मकान को संभालना होता है और कुछ का दकियानूसी ख्याल कि बेटा नहीं है, बेटी के पास नहीं रहेंगे ...ऐसे माहौल में जिन बेटियों के पास - उन के बुज़ुर्ग मां-बाप रहते हैं उन के जज़्बे की मैं कद्र करता हूं ...उन के ही नहीं, उन के परिवार के जज़्बे की भी ...अब यार किसी के बेटा नहीं है तो उस में उन का तो कोई कसूर नहीं न.....कि है, या बेटा किसी भी कारण से उन का हाथ थामने के लिए आगे नहीं आ पा रहा तो ऐसे में कहां छोड़ दें उन दिन-ब-दिन कमज़ोर हो रहे मां-बाप को ...

पता नहीं कभी कभी कुछ लोग खुदबखुद कैमरे में आ जाते हैं ....अगर किसी की प्राईव्हेसी में जा घुसा होऊं तो उस के लिए माज़रत चाहता हूं ...लेकिन कुछ तस्वीरें हमारे समाज का आईना भी होती हैं कि किस तरह से रेलगाड़ी के दो पहियों के साथ चलने से ही गाड़ी पटरीयों पर दौड़ पाती है ...शुभकामनाएं इन दोनों के लिए शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए....🙏

खैर, यह फिलासफी झाड़ने का वक्त नहीं है ...बात पूरी करनी है और मुझे जल्दी से ड़्यूटी पर जाने के लिए तैयार होना है ...अखबार में एक फोटो थी जिस में होली फैमली अस्पताल में भर्ती महिला के बेड पर पुलिस का कोई सब-इंस्पेक्टर केक-काटने पहुंच गया क्योंकि जब अस्पताल में पुलिस बुलाई गई और वह सारी लिखा-पढ़ी कर रही थी तो पता चला कि दादी का तो कल जम्म दिन है ...बस, अगले दिन सब-इंस्पेक्टर पहुंच गया केक लेकर दादी के पास ...फोटो देख कर मुझे भी अच्छा लगा ....लेकिन फिर भी इसे इस ब्लॉग पोस्ट में चस्पा नहीं कर रहा हूं क्योंकि मेरे ख्याल में फोटो उस चौकीदार का भी होना ज़रूरी था जो इस असहाय औरत के लिए एक फरिश्ता साबित हुआ ...वरना, यहां बंबई में किसे फुर्सत है कि कोई देखे कि किस का अखबार शाम तक बाहर क्यों टंगा है, दूध क्यों अभी तक किसी ने उठाया नहीं ...लेकिन कुछ फरिश्ते होते हैं जिन्हें खुदा ऐन मौके पर भेज देता है ...अपने दूत बना कर ...सच में 😎

आए दिन ऐसे घटनाएं होती रहती हैं बुज़ुर्ग के साथ, कभी अपने घर के अंदर ही खत्म हो गए या कोई मार के चला गया..किसी को तब तक कोई खबर नहीं जब तक उन के घर के अंदर से बास बाहर नहीं पहुंचती ....ये जो नेबरहुक वॉच है या सिटिजन वॉच नाम के प्रोग्राम हैं कि बुज़ुर्गों की सलामती की खबरसार लेते रहें , खास कर के जो अकेले रहते हों. अखबारों में ही पढ़ते हैं कि कहीं कहीं पुलिस यह काम करती है ...और कहीं कहीं किसी एरिया में रहने वालों ने ही ऐसी व्यवस्था कर रखी होती है ..चलिए, अब कह रहे हैं तो कुछ तो होगा ही, मान लेते हैं ...नाम ही के लिए ही सही ...लेकिन सोचने वाली बात यह है कि अगर ज़िंदगी की सांझ में अपने ही न अपने न रहें तो दूसरों से क्या कोई गिला करे ......अपने तो अपने होते हैं, अब क्या यह भी फिल्मी नगमों में ही सुनने को मिलेगा!

फिल्मी नगमों से मुझे याद आया ...आज के मौज़ू से मेल खाता एक गीत ..वह गीत मुझे बहुत पसंद है ....2011 की बात है, फरवरी का ही महीना था, बहुत ठंडी थी अंबाला छावनी में ...मैं अंबाला छावनी के सदर बाज़ार में एक चाय के खोखे पर बढि़या अदरक वाली चाय का लुत्फ़ उठा रहा था तो पास ही की दुकान में अचानक देखता हूं कि एक बुज़ुर्ग महिला जो शारीरिक रूप से बहुत कमज़ोर सी दिख रही थी अपने जवान बेटे के साथ, यही कोई 30-35 साल का होगा वह बेटा, जिसे कुछ भी दिख नहीं रहा था .....वे दोनों एक दूसरे का हाथ थामे हुए इत्मीनान से चलते चलते उस पास की ऊन की दुकान पर पहुंचे ...बेटा खड़ा रहा मैं के पास ...मां ने अच्छे से देख भाल कर, ऊन के गोले और लच्छियां ऊपर नीचे कर के कुछ ऊन खरीदी और वे दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर आगे निकल गए...मैं वही अपनी बढ़िया चाय के साथ बेसन के लड्डू खाने में लगा रहा ...और उस वक्त उस दुकान के एफएम पर जो गीत बज रहा था वह वैसे भी मुझे बेहद पसंद है ....बहुत ज़्यादा ....इस के बोल, म्यूज़िक, इस का फिल्मांकन, और अपने अशोक कुमार ....सब कछ बढि़या है इस गीत का .....वह गीत बज रहा था उस वक्त रेडियो पर ...एक तरफ़ मैं उस लाचार मां और बेटे को जाते देख रहा था सहजता से चले जा रहे थे ...उस वक्त मुझे यही लग रहा था कि यह गीत उस जोड़ी के लिए ही बज रहा है ...जिस में शारीरिक बल तो बेटे का काम कर रहा है और आंखों की बिनाई मां की काम आ रही है और इसी से उन दोनों के जीवन की गाड़ी चल रही है ....बस, उस दिन से वह गीत मेरे साथ पक्के तौर पर हो लिया ...मैं इसे हज़ारों नहीं तो सैंकडो़ं बार ज़रूर देख और सुन चुका हूं ...और आज भी दस-बीस बार तो सुनने-देखने ही से चैन पडे़ेगा ..कितने फिल्मी हैं गुज़रे दौर के हम जैसे लोग भी ...अब जो है सो है ..क्या करें !!😉

बुधवार, 2 फ़रवरी 2022

आखिर धरा क्या है इन किताबों में !


मुझे भी नहीं पता कि क्या धरा है किताबों में ....कुछ धरा भी है कि नहीं...लेकिन मुझे किताबें बहुत अच्छी लगती हैं ...सब तरह की किताबें ...इन्हें पढ़ना भी भाता है क्योंकि छुटपन से ही नंदन, चंदामामा, लोटपोट...धर्मयुग..और भी पता नहीं क्या क्या पढ़ते आ रहे हैं..अच्छा लगता था, और कोई दिललगी का ज़रिया नहीं था...घर में सब लोग कुछ न कुछ पढ़ते ही दिखते थे ...मां रोज़ाना दुर्गा का पाठ करती दिखती या रामायण पढ़ती ..और फिर उसे बड़े सम्मानपूर्वक किसी केसरी कपड़े में लपेट कर एक लकड़ी के स्टैंड पर रख देती...

घर में वह लकड़ी का स्टैंड अभी भी धरा-पड़ा होगा ..लेकिन अब घर में धार्मिक किताबें पढ़ने वाला कोई नहीं है ...क्योंकि हम ज़रूरत से ज़्यादा पढ़ लिख जो गए ...इसलिए जब मैंने दो दिन पहले अपनी रूटीन चहलकदमी के दौरान एक दुकान पर वैसा ही एक लकड़ी का स्टैंड देखा तो मैंने उसे खरीद लिया .. और किताबें खरीदने के अपने बेहद शौक के चलते किसी शख़्स द्वारा व्याख्या की हुई गीता भी इस के साथ ही खरीद ली ...पहले ही से बहुत सारी गीताएं जमा कर रखी हैं ...कभी ढूंढूंगा उन सब को ...बहरहाल, मुंबई के भारतीय विद्या भवन, गिरगांव चौपाटी में गीता ज्ञान के एक कोर्स भी कईं बरस पहले अपना नाम लिखवा दिया ..हर इतवार के दिन सुबह क्लास लगती थी ..संस्कृत से आसान हिंदी में इसे हमें पढ़ाया जाता था ....लेकिन चंचल मन का क्या करूं..कुछ महीने गया बड़े शौक से ...लेकिन कुछ भी पल्ले ही न पड़ रहा था ..फिर जाना बंद कर दिया...और गीता के ज्ञान से वंचित रह गया...मेरी बकट-लिस्ट में गीता को बांचना है तो लेकिन पता नहीं कब वह वक्त मिलेगा ...वैसे भी इन साठ सालों में फिल्मी गीतों का इतना ज्ञान इतना अंदर भरा जा चुका है कि उस में शायद और कुछ ठूंसने की जगह ही नहीं बची....हां, बालीवुड की मसाला फिल्मों में जो गीता का ज्ञान बांटा जाता है, वह अच्छे से समझ में आ जाता है .

मां अपने जीवनकाल के आखिरी तीन चार महीने बेहद दर्द में थी ..पेनक्रियाटिक कैंसर की वजह से ...बेचारी ने गर्म पानी की सिंकाई कर कर के अपने पेट झुलसा लिया - बिल्कुल काली पड़ गई थी वह जगह जहां पर हॉट-वॉटर बाटल रखे रखती थी ...लेकिन चुपचाप दर्द सहती थीं ..पढ़ना लिखना इस दुनिया से कूच कर जाने से दो दिन पहले तक भी जारी ...पता नहीं जाने से एक सप्ताह पहले मां को क्या विरक्ति हुई ..बेड के पास ही धरी पड़ी कुछ धार्मिक किताबों को ओर इशारा कर के कहने लगीं...बिल्ले, हटा इन को ...और मुझे मुंशी प्रेम चंद की कहानियों की किताबें दे ...मेरे पास पूरा सेट था...वह बड़े चाव से वह दो-तीन दिन पड़ती रहीं ...

किताबों का भी क्या है, किसी के लिखे कोट्स भी क्या है ...मुझे तो ऐसे लगता है कि सब कुछ मेरे मूड पर निर्भर करता है ..कभी कभी मुझे लगता है कि आखिर है क्या इन किताबों में ...ठीक है, उन लोगों के अपने तजुर्बे होंगे ...वहां तक तो चलिए ठीक है ...तजुर्बे बांटने के लिए होते हैं ..लेकिन कोई दूसरे के तजुर्बों से फायदा तो कम ही ले पाता है ...लेकिन कुछ किताबों के लिखने वाले जीने की कला सिखाने लगते हैं ...वह भी लिखने वाले के ऊपर है ...कईं बार तो लगता है कि कमबख्त यह तो ढोंगी है, यह क्या सिखाएगा ...फिर उस किताब को दूर रख देता हूं ...

और कभी कभी लगता है कि किताबें हमारा सच्चा दोस्त हैं ...सच में दोस्त तो हैं ही...मैंने न्यूयार्क की लाइब्रेरी के फुटपाथ के बाहर धातु की कुछ पट्टियां फिक्स हुई देखीं ...मुझे वे सब पढ़ कर बहुत अच्छा लगा ...उस में एक फट्टी पर लिखा था कि किताबों को पढ़ना गुज़रे दौर के लोगों के साथ मिलने जैसा है ..कितनी बड़ी बात है ...सच में बात सही तो है ...मैंने भी अपनी पसंद की किताबें जमा तो कर रखी हैं लेकिन पता नहीं इन के बारे में चिढ़ा रहता हूं ...शायद इसलिए कि मुझे इन को पढ़ने का वक्त ही नहीं मिलता ...नहीं नहीं, मैं टीवी नहीं देखता, हमारे यहां टीवी कोई भी नहीं देखता, और ऐसा भी नहीं है कि मोबाइल ही में हर वक्त घुसे रहते है ं...बस, ड्यूटी कर के घर आओ तो थक जाता हूं ...आराम फरमाने लगता हूं ...कोई किताब जैसे ही हाथ में लेता हूं नींद घेर लेती है ...और वह पन्ना वहीं का वहीं रह जाता है ..


मुझे यह लकड़ी का स्टैंड देख कर यही लगने लगा कि हम लोग भी कितना ज़्यादा बेकार की रूढ़ियों मे जकड़े पड़े हैं ...बहुत अच्छी बात है कि हम धार्मिक किताबों की इज़्ज़त करते हैं, उन्हें बड़े कायदे से रखने के लिए, पढ़ने के लिए हम इस तरह के स्टैंड का इस्तेमाल करते हैं ...बहुत अच्छी बात है ...लेकिन कभी हम इस तरह के स्टैंड पर रख कर दूसरी किताबें रख कर पढ़ने की क्यों नहीं सोचते! - और भी बहुत सी किताबें हैं जिन का बहुत ज़्यादा सम्मान करते हैं ...वे भी हमें रास्ता दिखाती हैं, मन को बहलाती हैं ...दिमाग की बत्ती जलाती हैं ...मैं समझता हूं कि ग़नीमत है कि हम इस तरह के लकड़ी के स्टैंड (हम लोग इसे गुटका कहते रहे हैं...) पर गैर-धार्मिक किताब रखने को कोई पाप करने की श्रेणी में तो नहीं रखते ...लेकिन फिर भी इन पर दूसरी किताबें रखते भी तो नहीं...लेकिन मैं आज से रखा करूंगा ...आज भी मैंने इस पर रीडर-डाइजेस्ट की एक किताब रखी जिसे में कभी कभी उठा लेता हूं ...पचास साल पुरानी है ..लेकिन उस मेंं  लिखी बहुत सी बातें आज भी उतनी ही मौज़ू हैं जितनी उस दौर में रही होंगी ...अच्छा लगता है ... एक पन्ना भी पढ़ लेते हैं तो मन कुछ तो ठहर जाता है, वरना यह बंदर यूं ही बिना वजह उछल कूद मचाए रखता है....

कुछ नहीं है इस पोस्ट में ...क्योंकि यह भी एक डॉयरी लिखने जैसा ही है ..किसी को कोई नसीहत देना, अच्छे-बुरे की तरफ़ इशारा करना इस का कतई मक़सद है भी नहीं ...हर बंदे की अपनी अपनी यात्रा है ....उस ने अपने सबक सीखने हैं जो वक्त ने उसे सिखाने हैं ...उसे अपने ढंग से अपने सवालों के जवाब ढू़ंढने हैं ..लेकिन मज़ाक में कहते हैं न ..बहुत सही बात है कि जब मैंने ज़िंदगी के कुछ सवालों के जवाब ढूंढ लिए तो ज़िंदगी ने फ़ौरन सवाल ही बदल दिए ....

तू भी भाई कोई किताब ही उठा लेता ...

यही होता है हम सब के साथ, यही है ज़िंदगी ....इसे ज़िंदादिली से जी कर छुट्टी करनी चाहिए, ज़्यादा कोई हिसाब किताब का फायदा है नहीं...जैसे इस गीत में धर्मेन्द्र ज्ञान बांट रहे हैं ...वैसे यह गीत जिस महान बंदे ने लिखा है उस का नाम है आनंद बख्शी ....और उन के बेटे राकेश बक्शी हमें बताते हैं कि उन के डैड को गीता पर, वेदों पर अगाध श्रद्धा थी ...यह उन के गीतों से झलकता भी है ....तो फिर फिक्र की बात ही क्या है, हमें गीताज्ञान एक रास्ते से समझ में नहीं आया तो दूसरे रास्ते से समझ में आ गया ...समझ भी ऐसा आया कि ये गीत रट गए.....शायद कहीं न कहीं आत्मसात हो कर, डीएनए में ही रच बस गए....😎

रविवार, 30 जनवरी 2022

आज की सुबह प्रियदर्शिनी पार्क के नाम ...

 कुछ दिन पहले हम प्रियदर्शिनी पार्क (पी डी पी, इस नाम से भी यह जाना जाता है...) गए थे ...शाम की बेला थी...सात-साढ़े सात का वक्त था, आठ बजे रात में यह बंद हो जाता है ...कुछ कुदरती नज़ारे दिख भी नहीं रहे थे ...वैसे भी यह पार्क कोई गार्डन जैसा नहीं है, इसे तो एक कुदरती स्पॉट के तौर पर बरकरार रखा गया है ... उस दिन अच्छे से देख नहीं पाए ...इसलिए आज सुबह 6 बजे ही निकल पड़े पी.डी.पी के लिए ...

हमारी यादें इस पीडीपी से इस तरह से जुड़ी हुई हैं कि आज से 22 साल पहले जब हमने बंबई छोड़ने का बेवकूफ़ाना फैसला लिया तो हम जाने से पहले कुछ जगह हो कर आए..उस में यह प्रियदर्शिनी पार्क भी था ...उस वक्त इस को बनाने की शुरुआत ही हुई थी ...समंदर के किनारे पर खूब मिट्टी विट्टी डाली जा रही थी ..खुला खुला एरिया था, अच्छा लगा था...

आज सुबह जाकर भी वहां अच्छा ही लगा ...कौन होगा वैसे जिसे कुदरत के इतना पास जाकर अच्छा न लगता होगा...वैसे सुबह ठंड थी, रज़ाई से निकलने की इच्छा न हो रही थी ....लेकिन वही बात है कि एक बार तो रज़ाई के मोहपाश से आज़ाद होना ही पड़ता है ..

पार्क के गेट के बाहर यह डाक-पेटी लगी हुई थी ..एक छोटी सी बच्ची ने अपने डैड से पूछा - डैड, यह क्या है?..डैड ने उस के सवाल को अनसुना कर के उसे कहा .."लुक, आई टोल्ड यू नॉ!" अब हमें नहीं पता क्या टोल्ड और क्या अन-टोल्ड, लेकिन उस मासूम के सवाल का तो फिलहाल कत्ल हो गया...

पार्क की साफ़ सफ़ाई और उम्दा रख-रखाव आने वालों को अपनी तरफ़ खींचता है 

और इसे तो बस फोटो-सैशन का एक मौका चाहिए होता है ...साथ जाने वालों की आफ़त हो जाती है सच में 

पार्क काफी बड़े एरिया में फैला हुआ है ...और अच्छी हरियाली से मन तरोताज़ा हो जाता है ..

पीडीपी अभी तो है ..कुछ एरिया शायद कोस्टल-रोड़ के चक्कर में लपेट लिया गया है या लपेटा जा रहा है, टाइम्स में आता रहता है, मुझे इस की कुछ खास समझ है नहीं ...

बड़ी बड़ी भारी भरकम मशीनरी ब्यां तो यही कर रही थी कि विकास कार्य तेजी से चल तो रहा है ...😄

इतने बढ़िया मिट्टी के वॉकिंग-ट्रैक देख कर मज़ा आ गया ...

पता नहीं यह बतखें हैं या कोई और जानवर हैं, लेकिन वे भी पूरा मज़ा कर रहे थे 

पार्क में बैठने के लिए पर्याप्त बैंच हैं ..कोई उस की याद में, कोई इस की याद में ...चलो, पब्लिक के लिए तो अच्छा ही है, दानवीरों का ईश्वर भला करे ...

बच्चों के लिए भी एक बहुत अच्छा पार्क है उस के अंदर ...रख-रखाव भी बहुत बढ़िया 


दिल तो बच्चा है जी ...उछल कर एक शाख पर बैठने की इच्छा तो हुई मेरी भी..लेकिन फिर दिल की सदा सुन ली कि अपने घुटनों का और इम्तिहान न ले, उन पर तरस खा....अभी चल रहे हैं न जैसे तैसे, बस, काम चला...ज़्यादा उड़ने की कोशिश न कर ...फिर कईं कईं दिन घुटने का दर्द लेकर बैठा रहता है ...

पार्क में ओपन-एयर जिम भी है ...और बहुत से लोग कसरत करते दिखे ..


वातावरण ऐसा कि कोई भी वहां बैठ कर कवि बन जाए ...

इन सीनियर सिटिजनों को चलते चलते क्लीन-इंडिया की वोटिंग की चिंता सताए जा रही थी, यार ...हंसी मज़ाक करो ...क्या इतने गंभीर मु्द्दे के साथ सुबह सुबह उलझ रहे हो ...

फुर्सत के पल भी ऐसे कि वहां से उठने की इच्छा ही नहीं होती ..

बड़े बड़े पौधे देख कर मन खिल जाता है ...

हम से का भूल हुई...जो यह सज़ा हम का मिली...😕



कुछ वक्त बिताने के बाद जैसे ही वापिस लौटने लगे तो देखा कि अब वहां के कुदरती नज़ारे की छटा अलग दिख रही है...सूरज देवता प्रकट हो रहे है ं...दो दिन पहले रेडियो पर सुनी बात याद आ गई कि किसी भी कुदरती नज़ारों को देखने जाओ तो वहां पर सिर्फ हाथ लगाने न जाओ...वहां पर वक्त बिताओ...दिन में हर पहर के साथ वहां की छटा अलग होती है ...जिसे यादों की पिटारी में सहेज कर रखने से बड़ा सुकून मिलता है ...

मिट्टी के रास्ते के साथ साथ इस तरह के पक्के रास्ते भी हैं ...फिसलने का कोई चांस ही नहीं ...

सुबह होते ही लड़के अपना जाल लेकर वहां पहुंच चुके थे ..

पेट्स का मेल-जोल देख कर अच्छा लगा..

पार्क के बारे में यह बात बढ़िया लगी ...और यह बिल्कुल सच भी लगा...

इतना कुछ होता है इस पार्क में ....बस, मुझे हमेशा लाफ्टर क्लब वाली बात हज़म नहीं होती ...हंसने के लिए भी यार कोई क्लब....हंसना तो बिल्कुल हमारी सांसों की तरह होना चाहिए ..बिल्कुल बिंदास, स्वतः ही हो जाने वाला और आसपास के माहौल को भी सहज कर देने वाला ...

इस तरह के कुदरती नज़ारे बरकरार रखने के लिए भी कितने लोग आगे आते हैं, इस पोस्टर से पता चला ...क्योकि वहां पर कोई टिकट नहीं है ...
अच्छा, एक बात और ...यह सुबह 10 बजे तक खुला रहता है, शायद 5-6 बजे खुलता है ...शाम में चार से आठ बजे तक खुलता है .हो कर आया करिए जब भी वक्त मिले ..पार्किंग की भी कोई ज़्यादा सिरदर्दी है नहीं ...लोग आसपास की सड़कों के किनारे लगा ही लेते हैं वाहन ...यह कोई ज़्यादा दूर भी नहीं है ...महालक्ष्मी मंदिर से यही पांच सात मिनट की  ड्राइव होगी ....नेप्यिनसी रोड़ जो आगे जाकर मालाबार हिल की तरफ़ निकल जाती है ..,

अभी भूख लग रही है ..उठता हूं नाश्ता कर लूं ...चलिए, इतनी तस्वीरें लगाने के बाद आज नाश्ते की प्लेट की तस्वीरें भी लगा देते हैं...




जितना आज की जेनरेशन को पिज़्जा, रोल, बर्गर, और भी पता नहीं क्या क्या ....पसंद है, उस से कहीं ज़्यादा हमें सर्दी में रोज़ यह खाना पसंद है, जब से होश संभाला है, मक्की की रोटी गुड़ या गुड़ की शक्कर के साथ सर्दी में लगभग रोज़ ही खाते रहे हैं...अकसर आखिरी रोटी यही होती थी ...अब इसे आप स्वीट-डिश कहिए या सप्लीमेंट या कोई टॉनिक ही कहिए ...हां, जवान थे तो दो-तीन भी एक साथ खा लेते थे....

जाते जाते ....इतनी तस्वीरें खींचते-खिंचवाते साथी से एक नसीहत भी मिल गई कि उसने कहीं वाट्सएप पर एक सुंदर संदेश देखा था ...Leave the Camera, Live the Moment! बात तो बढ़िया है, लेकिन अगली बार ख़्याल रखेंगे ....😃

आज पार्क की बात हुई ....फूलों की बात हुई, इसलिए गीत भी वैसा ही कोई सुन कर इस सुस्त सी ऐतवार की सुबह में कुछ तो नया जोश भरते हैं ...

शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

पसंद नापसंद का तर्क ढूंढना अकसर बेहद मुश्किल ..

सही बात है ...कुछ भी चीज़ या इंसान हमें पसंद होता है या नापसंद होता है ...अकसर हम इस का कोई कारण भी नहीं बता पाते। मैं अकसर एक बंदे को याद कर के बहुत हंसता हूं ...मैं जहां काम करता हूं ..वहां काम करते मुझे कुछ महीने ही हुए हैं ..लेकिन एक इंसान मुझे एक ही बार ही मिला ...उस के बात करने का ढंग, उस का रंग-ढंग और उस के हाव-भाव कुछ इस तरह के थे कि अब वह मुझे कहीं भी बरामदे में दिख जाता है तो मेरी कोशिश होती है कि हम एक दूसरे से न ही भिड़ें ...क्योंकि उसे देखते ही मेरे ब्लड-प्रेशर में 20 प्वाईंट का उछाल तो ज़रूर आ जाता होगा...

मैं जब भी उस शख्स के बारे में किसी से भी बात करता हूं तो हम लोग बहुत हंसते हैं....खूब हंसी आती है ...और जिस भी जगह पर नौकरी के सिलसिले में रहे वहां एक-दो बंदे तो ऐसे मिल ही जाते हैं ....

गहराई से सोचता हूं तो समझने की कोशिश करता हूं कि ऐसा क्या होता है कुछ बंदों में कि कुछ के साथ बिना बात के भी बतियाने की इच्छा होती है और कुछ से हमेशा कन्ना कतराने की इच्छा होती है। लेकिन कुछ समझ में नहीं आता ..कोई तर्क भी इस में मदद नहीं करती दिखी ...बस, बहुत सी दूसरी चीज़ों की तरह कुछ लोग हमें पसंद आते हैं, कुछ को हम पसंद नहीं आते, कुछ हमें नापसंद होते हैं ...मुझे लगता है यह मानस की प्रवृत्ति ही होती होगी...

खैर, मुझे आज यह विचार इसलिए आया कि मैं आज जिस शहर में हूं वहां की अखबार देख रहा था ...हिंदी की अखबार ...लेकिन सारे पन्ने उलटने के बाद मुझे वह अखबार भी पसंद नहीं आई...अब यह बताना मुश्किल होगा अगर कोई मेरे से पूछे कि हां, भई, तुम्हें क्या बुरा लगा उस अखबार में .....पता नहीं यार, यह मेरे लिए कहना मुश्किल है, लेकिन मुझे वह अखबार अगली बार पढ़ने लायक लगी नहीं, और मैं उसे अगली बार कभी पढूंगा भी नहीं ...

अखबार से ख्याल आ रहा कि जैसे ही हमें पांचवी-छठी में अखबार का पता चला, हमने देखा हमारे घर में दो अखबार आते थे, चंडीगढ़ से छपने वाला इंगलिश का पेपर दा ट्रिब्यून और जलंधर से छपने वाला वीर प्रताप जो हिंदी का पेपर था ...मेरे पिता जी को हिंदी न आती थी, वह ट्रिब्यून पढ़ते थे और मेरे बड़े भाई-बहन का अंग्रेज़ी का शब्द-ज्ञान टेस्ट करते थे पेपर को पढ़ते हुए और मेरी मां हिंदी का अखबार घर के काम काज से फ़ारिग होने के बाद दोपहर में बांचा करती थी ...उस के बाद पड़ोस की कपूर आंटी और मां अपने अखबार एक्सचेंज कर लेतीं ...इस तरह वे दो अखबारें पढ़ लिया करती थीं...

अखबारों के बारे में मेरे स्ंस्मरण हैं जिन्हें सहेजने के लिए कईं लेख भी कम पड़ेंगे ...किस तरह से इंगलिश का हिंदु अखबार पढ़ने के लिए ...पूरे महीने के हिंदु अखबार किसी दूसरे शहर से मंगवाया करता था क्योंकि जिस शहर में रहता था वहां वह अखबार नहीं आता था... लेकिन आज तक इंगलिश के जिस अखबार से मैं सब से ज़्यादा मुतासिर हुआ हूं ...वह है टाइम्स ऑफ इंडिया ...और खास कर के इस का बंबई एडिशन ...खबरें आती हैं टीवी पर, रेडियो पर ...और ऑनलाइन भी लेेकिन मुझे टाइम्स ऑफ इंडिया के पन्ने उलटना ही अच्छा लगता है ...वही बात है अपनी अपनी पसंद नापसंद की ..

टाइम्स ऑफ इंडिया की एक काफी-टेबल टाइप बुक ..जो शायद इन्होंने अखबार के 100 साल पूरा होने पर निकाली होगी ...वाह, क्या किताब है वह...किसी एंटीक शाप से हासिल हुई थी ...चार हज़ार मांग रहा था ..तीन हज़ार में खरीद ली थी ...क्योंकि मुझे तो वह खरीदनी ही थी ...उस का एक एक पन्ना फ्रेम करवाने की इच्छा होती है.. टाइम्स ऑफ इंडिया का सारा इतिहास-भूगोल उस में लिखा हुआ है ..कुछ किताबें आप को रोमांचित करती हैं, यह किताब वैसी ही है ...कभी इस के बारे में कोई पोस्ट लिखूंगा..

हर चीज़ के बारे में हमारी पसंद नापसंद मुख्तलिफ़ होती है, होनी भी चाहिए..फिल्में हों, फिल्मी गीत हों....ज़ुबान हो, ड्रेस हो ....कलम हो ..पेन हो ...कुछ भी हो ...सब को अपनी अपनी पसंद मुबारक ... इसीलिए इस दुनिया की विविधता भी बरकरार है ...

लता जी के अच्छे स्वास्थ्य के लिए ढेरों शुभकामनाएं .... स्वर-कोकिला की आवाज़ का जादू !!

आज बहुत दिनों बाद यह गीत दिख गया ...जिसे सुनना भी बहुत पसंद है ...😂

गुरुवार, 27 जनवरी 2022

बड़े शहरों की हदों तक ही है आज भी यह आपाधापी

सच में पता नहीं यह रेस कहां जा कर खत्म होगी, खत्म होगी भी कि नहीं ...बड़े शहरों में, मैट्रो सिटीज़ में दौड़ अंधाधुंध है ... लेकिन एक बात का मुझे आज ख्याल आ रहा था कि किसी भी शहर में आप जाइए....एक तो होता है शहर का नया रूप ...जो मुझे बेहद नीरस, अजीब सा लगता है ...हर तरफ़ मॉल, बड़े बड़े टावर, मल्टीप्लेक्स, बडे़ बड़े स्टोर....मुझे ये सब फूटी आंख नहीं सुहाते ...लेकिन मैं जैसे ही उस शहर के पुराने इलाकों की तरफ़ निकल जाता हूं तो मुझे एक इत्मीनान सा होता है ...

शहरों के पुराने इलाके हों या शहर के बाहरी इलाके...लगता है सब कुछ अभी भी ठहरा हुआ है ...अब विकास की परिभाषा हरेक की अलग है...हम कौन होते हैं किसी के लिए विकास की परिभाषा तय करने वाले ...हमारे एक ब्लॉगर मित्र हैं ...अनूप शुक्ल जी ...ऑर्डिनेंस फैक्टरी में महाप्रबंधक हैं...बहुत अच्छा लिखते हैं...मैं उन्हें 15 साल से पढ़ रहा हूं ...कुछ दिन पहले उन्होंने लिखा कि किसी भी शहर को जानने के लिए उस से दोस्ती करने के लिए उस के रास्तों को पैदल नापना बहुत अच्छी बात है, और अगर यातायात के किसी साधन का इस्तेमाल कर रहे हैं तो जितना धीमा वह साधन हो, उतना ही अच्छा. मुझे उन की यह बात बहुत अच्छी लगी ....क्योंकि हम ख़ुद भी इसी बात की हिमायत करता हूं ..

यह दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे ... बहुत खूब!👍

खम्मन-सेव ...वाह..वाह, मज़ा आ गया!


शहरों के पुराने इलाके में अभी भी ज़िंदगी दिखती है ...लोगों के पास एक दूसरे के साथ बैठने का वक्त है ...आते जाते देखते हैं कि आंगने में, यह दहलीज़ पर ही घर के दो तीन लोग बातचीत में मशगूल हैं ...कहीं पर तो अड़ोस पड़ोस के दो-तीन बुज़ुर्ग किसी झूले पर बैठे गप्पे हांके दिखते हैं...सुकून उन सब के चेहरों पर लिखा क्या, खुदा होता है ...यह हमें अच्छे से पढ़ना आता है ...पुरानी चारपाईयों पर आज भी पापड़ सूखने के लिए बिछे हुए दिखाई देते हैं ...अब हम कहां कहां की तस्वीरें खींचे...उस में पिटने का भी तो डर होता है ...उम्र देख कर अगर कोई गिरेबान न भी पकड़ेगा तो जलील तो कर ही देगा कि क्यों ये सब तस्वीरें ले रहे हो...





बच्चों के पास भी आपस में खेलने का वक्त है ...वे जैसे खुली फ़िज़ा में कुदरत के सान्निध्य में ज़िंदगी के सबक पढ़ रहे होते हैं ...शहर के पुराने इलाकों में गाय-भैंस भी दिख जाती हैं, उपले बनते भी दिखते हैं और उन को सुखाने में लगी महिलाएं भी ...उपलों के दाम आजकल हैं ..100 रूपये में 100 उपले...मुझे याद है जब बचपन में हमारी मां रोज़ तंदूर पर रोटियां लगाती थीं तो एक बोरी में भर कर कोई साईकिल पर ये उपले देकर जाता था ....2 या तीन रूपये की एक बोरी। और उस पर भी नाटक यह होता था अकसर कि उपले सूखे ही होने चाहिए...😂



क्या यार, तू भी न, जब देखो शहर ही में पड़ा रहता है..आए दिन सिरदर्द से बेज़ार, निकल वहां से अब तू भी..हो गया अब, और क्या चाहिए तुझे.... साईकिल उठा और भारत भ्रमण पर निकल जा (अपने आप से गुफ्तगू)😂

सभी शहरों के पुराने रूप मुझे तो एक जैसे ही लगते हैं....सुकून से भरे, फु़र्सत से लबरेज़, इत्मीनान, सब्र की बख्श हासिल किए हुए ...छोटी छोटी दुकानदारीयां जिन्हें देख कर मुझे बिना वजह डर सा लगता है कि इस दुकानदारी से क्या पा लेते होंगे ...बिल्कुल खामखां - बिल्कुल जैसे अंबानी-अडानी को मुझे नौकरी करते देख कर डर लगने लगे कि कैसे करता होगा यह गुज़ारा नौकरी कर के ...!!

 फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत के बावजूद एसटीडी बूट पर चूना लगाने की कोई परवाह नहीं ...

कुछ इस तरह के रिमांइडर मैं अपनी हस्तलिपि में लिख कर सहेज लेता हूं...😎

शनिवार, 22 जनवरी 2022

सार्वजनिक जगह पर कब्जा करना भी आर्ट है ...

मज़हब बड़ा संवेदनशील मुद्दा है भई इस देश में ...कोई खुल कर बात नहीं करता....डरे-सहमे से बात करते हैं ....और जब किसी धर्म के नाम पर किसी जगह पर कब्ज़ा होने की बात होती है तो वह भी बड़ा सोच विचार कर होती है ... 

एक साल हो गया होगा ...मेरे मोबाइल में फोटो भी हैं ...मैं कल्याण में टहलते हुए देखा करता था कि रेलवे के ग्रांउड के बाहर किसी एक दीवार से टिका कर किसी ने लोहे का एक फ्रेम सा रख कर, उस के सामने सरसों के तेल का दिया जला रहा था ...और उस के सामने एक बंदा चुपचाप बैठा अजीब अजीब सी हरकतें कर रहा था, हिल ढुल रहा है ...सिर हिला रहा था...बस, जो भी था अपने को कोई पहुंचा हुआ पीर-फकीर दिखाने की कोशिश कर रहा था ...पहुंचा हुआ न भी सही तो कोई नौसीखिया सा ही समझिए...जिसने नया नया इस धंधे में पांव रखा हो...


जी हां, एक धंधा ही है यह भी किसी जगह पर कब्ज़ा करना ...समझने वाले लोग समझ जाते हैं कि कब्ज़ा होने की शुरूआत कैसे होती है ..यही कोई मूर्त, कोई और पत्थर, फूल, तेल ....कमबख्त बिल्कुल तांत्रिक से लगते हैं ऐसा करने वाले ..लेकिन वे सब कुछ बड़ी प्लॉनिंग से कर रहे होते हैं...और अपनी पब्लिक को किसी भी झांसे में आते देर नहीं लगती....आस पास के लोगों में दो चार पांच औरतें जो नरम दिल होती हैं वे उस पाखंड़ी को पहले तो कभी कभी रोटी-खीर पहुंचाने लगती हैं, फिर उस के दिए में तेल...फिर कुछ नकदी ..फिर कुछ उपाय पूछने लगती हैं कि पति की दारू कैसे छुड़वाऊं, बेटे का पढ़ने में दिल लगे, उस के लिए क्या करूं, बाबा...

लिखते लिखते निर्मल बाबा याद आ रहा है ....वह भी बड़े अजीबोगरीब उपाय सुझाया करता था ...पहले जब हम लोगों टीवी देखते थे तो मैं रोटी खाते वक्त उस का प्रोग्राम मनोरंजन के लिए लगा लिया करता था. 

बहरहाल, शामलाट जगहों पर कब्ज़ा करना एक आर्ट एंड साईंस दोनों हैं ....लोगों को ऐसे ही फुद्दू से कामों में उलझाए रखना होता है और यह काम इतना लो-प्रोफाइल रख के आहिस्ता आहिस्ता करना होता है कि उस रास्ते से गुज़रने वाले पढ़े-लिखे तबके को इस की भनक भी न पड़े, वैसे भी यह तबका अपने काम से काम रखता है ...उस के पास तो पहले ही से ख़ुद की सिरदर्दीयां कम हैं कि वह इन सब बातों पर ध्यान दे....और जिस विभाग की जगह होती है, वे भी अकसर तब तक सोए रहते हैं जब तक वहां पर पक्के कमरा टाइप न बन जाए, कोई धार्मिक जगह न बन जाए ...फिर देखे कोई उस बाबे को वहां से उठाने की ...

जहां मैं रहता हूं ...वहां भी पास ही एक बुज़ुर्ग महिला ने एक धार्मिक स्थान की स्थापना कर रखी है ...उस का ठिकाना वही है.....कईं बार गुज़रते देखता हूं वहां पर धार्मिक गीत लगे होते हैं और वह अजीबो-गरीब तरीके से ताली बजा बजा कर सिर हिला रही होती है ...क्या है न इतनी मेहनत तो करनी पड़ती है लोगों को अपनी तरफ़ खीचने के लिए....या दूर रखने के लिए....अगर उस का यह दैवी रूप देख कर कोई चढ़ावा चढ़ा गया तो बढ़िया ....और अगर उस को इस हालत में देख कर कुछ लोग डर तक दूर रहते हैं उस जगह से, बच्चों को उस के पास फटकने से मना करते हैं तो भी उस के लिए तो यह भी ठीक ही है ....और रहे टांवे टांवे मेरे जैसे लोग लगभग नास्तिक से लोग ...जिन्हें न तो इस असर की बेवकूफियां अपनी पास खींच पाती हैं, न ही दूर रख पाती हैं ....उन के पास अपना हथियार है ....वे कागज़ पर लिख कर अपनी भड़ास निकाल लेते हैं....


दो चार दिन पहले भी मैंने शाम के वक्त देखा कि एक औरत ने फुटपाथ पर किसी हवन-कुंड में आग जला रखी है और वह उस से चार पांच गज़ दूर बैठ कर ज़ोर ज़ोर से तालियां मारे जा रही थी...मुझे भी यह सब सूंघते कहां देर लगती है कि यह इस फुटपाथ को हड़पने की नौटंकी की शुरुआत भर है ....लोगों के मन में डर, खौफ़, कौतूहल, रोमांच पैदा करिए और अपना मतलब साधिए.....

वैसे ही लोग अंधविश्वास का चश्मा लगाए घूमते हैं ....कितनी शर्म की बात है कि आज भी देश के कईं हिस्सों में विधवा, बुजुर्ग औरतों को बेकाबू भीड़ यह कह कर मौत के घाट उतार देती है कि यह औरत बच्चों पर जादू-टोना करती हैं, बच्चे उठा कर ले जाती है....क्या यार, एक विधवा, असहाय, बुज़ुर्ग महिला क्या बिगाड़ लेगी कमबख्तों आप लोगों का ...जीन लेने तो उसे भी चैन की ज़िंदगी ...ऐसी महिलाओं की कुछ मदद करने की बजाए सिर फिरे लोग उन के साथ बड़ी बुरी तरह से पेश आते हैं ...पत्थर मारते हैं, पत्थर मार मार कर ही मार गिराते हैं ...इसीलिए मैं किसी धर्म-वर्म के चक्कर में बिल्कुल नहीं हूं....बस, एक ही धर्म को जानता हूं जिस में हर इंसान के साथ एक इंसान की तरह बर्ताव करना सिखाया जाता है ...बिना किसी भी तरह के भेदभाव के ....

सार्वजनिक जगहों पर कब्ज़ा करने के बारे में और भी बहुत सी बातें मन में उमड़-घुमड़ रही हैं ...लेकिन इस वक्त लिखने की फुर्सत नहीं है, अभी नहा-धो कर काम पर जाना है ...लिखने का क्या है, एक बात लिखने लगो तो अल्फ़ाज़ पीछे ही पड़ जाते हैं कि हमारे बारे में भी लिक्खो, हमारे बारे में भी तो कुछ कहो ...हमें भूल गए....क्यों भई.....चलिए, आज की बात को यहीं विराम देते हैं...

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

गुज़रे दौर में स्क्रीन-शॉट, ऑडियो-रिकार्डिंग के बिना काम कैसे चलता था..!

आज की पोस्ट लिखने से पहले यह साफ़ कर दूं कि ऑडियो-रिकार्डिंग करने वाले लोगों से मुझे बड़ा डर लगता है ....यह सीधा सीधा पीठ में छुरा घोंपने वाली बात है ... मेरी आब्ज़र्वेशन यही कहती है कि पढ़े लिखे लोग इस के बारे में कुछ कहते नहीं अकसर, और कम पढ़े-लिखे लोग शेखी बघारते हुए किसी से फोन पर हुई बात की रिकार्डिंग बडे़ चाव से सुनते दिखते हैं...

मेरा ख्याल है कि इस से घटिया काम कोई हो ही नहीं सकता...मैंंने कभी फोन पर यह फीचर ढूंढने की कोशिश ही नहीं की ...क्योंकि मुझे नहीं करनी यार किसी के फोन की कोई रिकार्डिंग ...बहरहाल, आज मुझे यह सब ऐसे याद आ गया कि लोग कईं बार किसी पोस्ट का स्क्रीन-शॉट रख लेते हैं ...इस का भी कोई फायदा तो है नहीं, ऐसे ही अपने दिमाग पर बोझ डालने वाली बातें हैं...

ये तो हो गई आज के दौर की बातें ...गुज़रे ज़माने में भी लोगों ने अपने इंतजाम कर रखे थे ... 40-50 साल पहले भी ख़तो-किताबत का दौर था ..तो ऐसा नहीं था कि सब कुछ चंगा-चंगा ही चलता था ...ख़तों में भी लोग कभी कभी ऐसी बातेें लिख देते थे जो किसी को चुभ जाती थीं....किसी को क्या चुभ जाती थीं, सारे कुनबे को चुभ जाती थीं ...क्योंकि पहले ख़त घर में किसी एक के लिए नहीं, पूरे परिवार के लिए होते थे ...बारी बारी से सभी उन को पढ़ते थे ...

क्या हुआ कि कभी किसी फुफ्फड़ ने कोई हल्की बात लिख दी ...किसी पढ़ी-लिखी मामी ने कहीं अपना ज्ञान झाड़ दिया....क्या था न, उस दौर के लोगों के अहसासात (इमोशन) बहुत मजबूत हुआ करते थे ...किसी की बात को जल्दी भूलते नहीं थे, आज कल तो हम जैसे शुदाई से हुए पड़े हैं....सारा दिन वाट्सएप पर चिपके दिन भर कुछ न कुछ लिखते रहते हैं, कोई पढ़े चाहे न पढ़े, कोई जवाब दे या न दे, फिर कुछ वक्त बाद अपने ही लिखे को पोंछ देते हैं....लेकिन पहले ऐसा कहां था, एक चिट्ठी डाक पेटी के हवाले करने का मतलब तीर आप के कमान से तो निकल गया, अब वह अपना काम कर के ही दम लेगा .... 😎... 

हां, तो आज कल लोग स्क्रीन-शॉट रख लेते हैं कुछ पोस्टों के या ये सब ऑडियो-वॉडियो के चक्कर में पड़ जाते हैं ...पहले ऐसा कुछ न था, अगर ख़त में लिखी किसी की बात हल्की लगी तो पढ़ कर मूड खराब सब का होता ...फिर यह सोचा जाता कि इस में जवाब में क्या कहा जाएगा....लेकिन अकसर बात को इतना तूल नहीं दिया जाता था, ,,अपने आप ही में लोग घुटते रहते थे ..हां, किसी शादी-ब्याह पर या जन्म या मृत्यु पर जब ख़ानदान के लोग मिलते थे तो कईं बार उलाहना दिया जाता, दूसरे सगे-संबंधियों को यह बताया जाता दबी आवाज़ में कि फुफ्फड़ ने सुनो क्या लिख दिया ख़त में ...करना वरना किसी ने क्या होता था, ऐसे ही तमाशबीनी तब भी थी, आज भी है, पहले लोग परवाह करते थे कुछ तो, आज कल कमबख्त सभी इतनी घमंड़ी हो गये हैं कि किसी को किसी की परवाह ही नहीं, बस बहाना ढूंढते हैं किसी से बात न करने का  ...उलाहने यह भी दिए जाते कि भई मौसा तो जवाब ही नहीं देता खत का...चाचा भी नहीं देता ...पांच खत लिखो तो कहीं जाकर जवाब में एक खत आता है ...

हां, अगर किसी की लिखी हुई कोई बात चुभ जाती तो उस चिट्ठी को संभाल कर अलग रख लिया जाता ताकि उसे बार बार अगले कईं बरसों तक पढ़ा जा सके ...और ज़रूरत पढ़ने पर दूसरे सगे-संबंधियों को प्रूफ के तौर पर दिखाया भी जा सके...

अभी मुझे लिखते लिखते ख्याल आ रहा है कि कारण कुछ भी रहे हों ...हमारे पापा की उम्र के लोगों को हिंदी नहीं आती थी, वे उर्दू और इंगलिश जानते थे ...इसलिए वे अपने भाईयों के साथ ख़तोकिताबत उर्दू में करते थे, और बहुत बार इंगलिश में भी ...अमूमन हमारे घर चिट्ठीयां हिंदी में ही आती और हिंदी में ही उन के जवाब लिखे जाते ...आज मुझे इस बात का अहसास हो रहा है कि यह भी एक अजीब बात थी, हमारी मातृ-भाषा पंजाबी, कोई भी इंसान अपनी मातृ-भाषा के अलावा किसी भी ज़ुबान में अपने जज़्बात उतने अच्छे से नहीं रख सकता ...जितना कि वह खुल कर अपनी बात अपनी मां-बोली भाषा में कह सकता है ....खैर, चलिए जो था, जैसा था, चल रहा था ख़तों का आना-जाना ...अब तो हमने उस टंटे से भी निजात पा ली है ...न किसी को कुछ लिखो, न कोई आप को कुछ लिखो ....सारा दिन वाट्सएप के फारवर्डेड संदेशों में गुम रहो ....बस टिकटॉक पर टिके रहिए...😃😂

ऐसा कहते हैं न कि अगर किसी में कोई कमी रह जाती है तो ईश्वर उस की कहीं न कहीं भरपाई तो कर ही देता है ...ऐसा ही उस दौर के लोगों के साथ था...फोन न थे, बार बार मिलना जुलना इतना आसां न था, ले देकर ख़त ही बचते थे ..इसलिए वे हाथ से लिखे हुए ख़तों में जैसे अपना दिल खोल दिया करते थे ...सोच समझ कर लिखते थे अकसर .. अपने मन की बात चंद अल्फ़ाज़ में दूर दराज बैठे परिवार के लोगों तक पहुंचा ही देते थे ....मैं बहुत बार कहता हूं न कि अगर किसी के पास कुछ नहीं भी है न लिखने के लिए तो भी वह बस कागज़ कलम लेकर बैठ जाए ....पता नहीं कहां कहां से बातें याद आने लगती हैं ...मुझे अभी याद आ रहा है पिछले से पिछले रविवार को रेेडियो पर दो बीघा ज़मीन की स्टोरी सुना रहे थे ...बाईस्कोप की बातों में ...उसमें कुछ चिट्ठीयों का आदान प्रदान भी होता है परिवार में ...सच कह रहा हूं उन चिट्ठीयों को सुनते हुए कोई भी बंदा हिल जाए, ऐसी चिट्ठीयों का ज़िक्र था उस स्टोरी में  ...

अच्छा, एक बात और भी थी, अकसर लोग बड़ी गैरत वाले थे .. किसी को चिट्ठी लिखी ..एक दो ...तीन ...बस, फिर नहीं लिखते थे ...फिर तो जब किसी जीने-मरने पर मुलाकात होती तो उस की खिंचाई होती थी कि जवाब क्यों नहीं देते ...लेकिन तब भी बहाने बनाने वाले अपने फ़न को बखूबी जानते थे ...