सातवीं-आठवीं कक्षा के दौरान एक दिन बैठा मैं समाचार-पत्र पर निबंध लिख रहा था ..मेरे पिता जी साथ ही बैठे हुए थे...पहले पेरेन्ट्स के पास बच्चों के लिए समय भी होता था...उन्होंने कहा कि शुरू में यह भी लिखो ...
निकालो न कमानों को, न तलवार निकालो,
जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो..
अगले दिन हिंदी के हमारे उस्ताद कृष्ण लाल तलवाड़ जी बहुत खुश हुए वह निबंध को देख कर...
उस निबंध में यह भी लिखा था कि किस तरह से हर तरह की ख़बर के लिए अखबार में जगह सुरक्षित होती है ...विकास कार्य, शिक्षा संबंधी, सेहत, वैवाहिक विज्ञापन, अन्य विज्ञापन, खेल-कूद, राजनीतिक खबरें, बवाल, ज़ुर्म आदि। जी हां, होती हैं अभी भी ये सब ख़बरें लेकिन पता नहीं क्यों लगता है कि हर पन्ना खून और नफ़रत से लथपथ है ..
हमेशा की तरह अभी मैंने अखबार उठाया तो मुझे हर रोज़ की तरह यही लगा कि आज कल की अखबारें हैं या क्राइम-रिपोर्टर ...हर पन्ना खून, खौफ, ज़ुर्म से रंगा हुआ...
ऐसी ऐसी खबरें देखने-सुनने को मिल रही हैं जिन की कल्पना करना भी दुश्वार होता है - ज़ुर्म के नये नये तौर तरीके!
अखबारों का इस में .कोई दोष नहीं है...मीडिया तो अपने समय का आईना होता है, वह वही दिखाता है जो समाज में उस समय घट रहा होता है..
मुझे याद है बचपन में हम लोग अखबार में कोई ज़ुर्म की खबर पढ़ लेते थे तो एक तरह से सहम जाया करते थे...लेकिन अब तो कुछ असर ही नहीं होता ..आए दिन कोई न कोई बुज़ुर्ग आदमी या औरत, या दोनों या कोई भी अकेली महिला , यहां तक की पुरूष ..ज़ुर्म की चपेट में आ ही जाता है...
बु़ुज़ुर्ग लोगों की भी आफ़त है आज के दौर में ...घर वालों से बचे तो बाहर वालों की जद में आ जाते हैं, और उन से भी बच गए तो कमबख्त मधुमक्खियों ने ही सफाया कर दिया ...
घपलेबाजी की ख़बरें अब नीरस लगती हैं!
औरतों की सोने की चेन झपट ली जाती है ..हम दोष देते हैं कि उन्हें पहन कर निकलना ही नहीं चाहिए था..लेकिन अगर कोई महिला अपने ही घर-आंगन में रात पौने आठ बजे तुलसी पर दिया जला कर मुड़े और उसे वहीं पर चार लोग आ कर धर-दबोचें तो इसे आप क्या कहेंगे! लूटपाट हुई ...और उस के ७४ साल के पति को जब गोली मारने लगे तो वह गिड़गिड़ाई कि सब कुछ लूट ले जाओ, लेकिन इन्हें मत मारो....बदमाशों ने वह बात मान ली ..जाते समय महिला से माफ़ी भी मांग कर गये कि लूटपाट हम मजबूरी में कर रहे हैं...
कल नेट पर कहीं पढ़ रहा था कि एक बुज़ुर्ग महिला का शव कईं महीनों तक घर में छिपाए रखा ताकि उस को मिलने वाली पेंशन चलती रहे...अब बैंकों वाले जीवन-प्रमाण पत्र मांगते हैं तो लोगों को उस से भी शिकायत है ..
अभी तो हम लोग यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि इस तरह के डाटा लीक मामलों का हम पर असर क्या पड़ेगा, अभी तो हम लोग पहले हिंदु-मुस्लिम मामलों को सुलटा लें, जाति-पाति की नोंक-झोंक से फ़ारिग हो जाएं, फिर इन सब मामलों को समझने की कोशिश करेंगे...अभी हिंदु-मुस्लिम के मसलों में उलझते रहने का समय है!!
हम लोग वाट्सएप पर देखते हैं कि लोग बड़ा मज़ाक उड़ाते हैं लोगों का कि अब वे घर के बाहर तखती टांग देते हैं कि कुत्तों से सावधान....लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ऐसा न करें तो आखिर वे करें क्या, अब तो दिन-दिहाड़े लोग बेखौफ़ लूटपाट करने लगे हैं.. हम बड़े खतरनाक समय में जी रहे हैं...कोई भी कहीं भी सुरक्षित नहीं है ...
यह सिर्फ़ लखनऊ का ही हाल नहीं है ...मुझे लगता है कि देश के किसी भी शहर का अखबार अगर हम देखेंगे तो उस में यही कुछ बिखरा पाएंगे ....इन जुर्म करने वालों को इस बात से क्या लेना कि किस की सरकार है या कानूनी व्यवस्था कैसी है .
पेशेवर बदमाश तो बदमाश, हम लोगों के अपने भी तेवर चढ़े हुए रहते हैं ..छोटी छोटी बातों पर हम देखते हैं कि हम लोग तनाव, अवसाद, क्रोध के चलते दूसरों की जान लेने पर उतारू हो जाते हैं ..अगर नहीं ले पाते तो अपनी जान लेने से भी नहीं कतराते।
इतनी बड़ी बड़ी घटनाएं हो रही हैं, ऐसे में टप्पेबाजी कितना टु्च्चा काम लगता है!
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यह मुद्दा बडा़ संजीदा है, हमें मिल जुल कर इस का हल ढूंढना ही होगा..
पच्चीस साल पहले जिस सत्संग में जाता था वहां पर हमें अखबार पढ़ने के लिए मना किया करते थे कि क्या तुम लोग सुबह सुबह अपने दिमाग में सारा कचड़ा भर लेते हो...कुछ समय के लिए अखबार पढ़ना छोड़ भी दिया था ..लेकिन फिर मन में विचार आया कि यह तो कोई हल न हुआ ...और हम जैसे लोग जो कंटेंट-एनेलेसिस करते हैं, वे अखबार पढ़ेंगे तो ही दीन-दुनिया का पता चलेगा वरना तो दो दिन अगर अखबार नहीं देखते तो कूप-मंडूक जैसी हालत होने लगती है .. लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि सुबह उठते ही अखबार पढ़ने का वक्त गल्त है ...वह समय अपने आप के लिए रखना चाहिए..कोशिश करूंगा इस आदत से छुटकारा पाने की..
हर तरफ गुस्सा, विरोध, ताकत का इस्तेमाल, लूट-पाट, चोरी-डाका, आगज़नी, जालसाज़ी, हत्याएं, हंगामे....सुबह उठते ही यह सब अपने अंदर ठूंस लेने से शरीर की बेचारी हारमोन प्रणाली का क्या होता होगा! -इतना सब कुछ ग्रहण करने के बाद, इन सब की ओव्हर-डोज़ के बाद यह कैसे सही रह सकती है ...आप को क्या लगता है?
कुछ साल पहले अमेरिकी स्कूलों में ही यह सब होता था!
मुझे तो वह संपादक वाला और उस के साथ वाला पन्ना ही भाता है ..लेकिन वही मेरे से अकसर छूट जाता था!
इस तरह की जुर्म की जुल्मी ख़बरें देखने के बाद अखबार के आखिर पन्ने पर यह ख़बर भी दिख गई...जैसे वह समाज को कोई सबक सिखा रही हो कि अभी भी वक्त है, सुधर जाओ...
वैसे ये सारी खबरें आज की अखबार की ही हैं...और अगर किसी खबर को तवसील से पढ़ने का मन कर ही जाए, तो उस तस्वीर पर क्लिक कर के उसे आप पढ़ सकते हैं...
दो तीन दिन पहले मैं मुंबई के क्रॉसवर्ड में कुछ किताबें खरीद रहा था ..अचानक मेरी नज़र एक किताब पर पड़ी...उस का शीर्षक ही बड़ा आकर्षक लगा...किताब का टाईटल था ..गुरू- भारत के जाने-माने बाबाओं के किस्से..
वैसे तो कहां यह सब बातें शेयर करने की फ़ुर्सत रहती है कि हम लोग कौन सी किताब पढ़ रहे हैं, कौन सा सीरियल देख रहे हैं...पहले यह रिवाज होता था जब मेरी मौसी पोस्ट-कार्ड में लिख भेजती थी कि उन्होंने घरौंदा देख ली, खिलोना दो बार देख ली, तलाश के गाने गजब के हैं...आज कल हम लोग खामखां दूसरे वाट्सएप जैसे कामों में अधिक व्यस्त रहते हैं!
जी हां, मैं दो तीन दिनों से ही इस किताब को ही पढ़ रहा हूं...इस में किन किन बाबाओं के किस्से दर्ज हैं, इस की लिस्ट आप यहां देख सकते हैं...
इस किताब में भय्यू जी महाराज पर भी एक चेप्टर है ..इसलिए भी मुझे इस किताब के बारे में लिखने की जिज्ञासा प्रबल हुई... यह जो साथ में लिखा है शहराती सिद्ध, इस का अर्थ मुझे उर्दू डिक्शनरी में भी नहीं मिला ..
(आज इन्हें भी राज्य मंत्री बनाया गया है)
और मैं चाहता हूं कि इस किताब के बेक-कवर पर लिखी टिप्पणी को भी आप अच्छे से पढ़ें...अगर ठीक से न पढ़ा जाए तो इस तस्वीर पर क्लिक करेंगे तो आराम से पढ़ पाएंगे..
मैं तीन चार बाबा लोगों के बारे में ही अभी तक पढ़ पाया हूं...और हैरान हूं ..(बहुत हल्का शब्द है हैरान, मैं एक तरह से Shocked ही हूं) इस किताब के किस्सों को देख-पढ़ कर ... पहली बात तो यह कि जो पिछले कुछ दशकों से कुछ बाबा लोगों के बारे में सुनते आ रहे हैं, वे सब बातें सच ही हैं...ऐसा मुझे यह किताब पढ़ने पर ही पता चल रहा है।
मन ही मन मैं ऐसी किताब लिखने वाले लेखक की हिम्मत की दाद देता हूं..वरना मेरे जैसे लोग तो अपने ब्लॉग पर भी तोल-तोल के लिखते हैं।
इस पढ़ते हुए मुझे यह भी ध्यान आ रहा है कि इस तरह की किताबें आमजन तक पहुंचनी चाहिए...यह निहायत ज़रूरी बात है ...किताबें पढ़ने से ही हम बहुत सी बातों से रू-ब-रू हो पाते हैं...किताब की डिटेल्स तो आपने देख ही ली होगी..अगर आप को किताब कहीं से नहीं भी मिले तो मेरी सलाह है कि इन बाबा लोगों के बारे में आप नेट से भी विकिपीडिया जैसी जगह से पढ़ सकते हैं...इस किताब में जो बातें दर्ज हैं, उन का संदर्भ भी किताब के आखिर में लिखा गया है। यह किताब की विश्वसनीयता को बढ़ाता है।
मुझे यह किताब पढ़ते पढ़ते यही लगा कि ये सब कितना बड़ा खेल होता है, ये बाबा लोग कितने शक्तिशाली होते हैं, कैसे सत्ता के केंद्र बन जाते हैं, सत्ता के गलियारों तक इन की पहुंच...ये बातें इतनी डिटेल में मैं पहले नहीं जानता था।
संयोग भी क्या है देखिए कि आज मैंने यह शेयर करने की सोची कि मैं कौन सी किताब पढ़ रहा हूं..और आज ही मध्य-प्रदेश में पांच बाबाओं के राज्यमंत्री की खबर दिख गई...अभी टीवी लगाया तो एनडीटीवी पर रवीश भी सारी बात समझाने की कोशिश कर रहा था...
यही सोच रहा हूं कि ये लेखक, पत्रकार लोग भी ग्रेट होते हैं...ये हमारी आंखे और कान हैं....हम तक वे बातें पहुंचाते हैं जिन्हें हम अपने स्तर पर शायद कभी जान ही न पाते ...फिर भी सुनिए सब की, पढ़िए सब कुछ, देखिए भी ... फिर भी अपनी आंखे, कान और दिमाग खुला रखिये...सब कुछ आप के विवेक पर भी निर्भर करता है ...और रही बाबा लोगों की बात, किसी को परिवार में भी कोई रास्ता दिखाने-समझाने की कतई कोशिश मत करिए...हर किसी को अपने हिस्से का सच तलाशने का हक है। है कि नहीं?
किसी भी जगह जाऊं तो वहां का पुराना शहर, पुराने घर और उन की घिस चुकीं ईंटें, वहां रहने वाले बुज़ुर्ग बाशिंदे जिन की चेहरों की सिलवटों में पता नहीं क्या क्या दबा पड़ा होता है और इस सब से साथ साथ उस शहर के बड़े-बड़े पुराने दरख्त मुझे बहुत रोमांचित करते हैं।
आज दरख्तों की बात करते हैं...पंजाब हरियाणा में जहां मैंने बहुत अरसा गुज़ारा...वहां मैंने दरख्तों के साथ इतना लगाव देखा नहीं या यूं कह लें कि पेड़ों को सुरक्षित रखने वाला ढांचा ही ढुलमुल रहा होगा ..शायद मैंने वहां की शहरी ज़िंदगी ही देखी है..गांवों में शायद दरख्तों से मुहब्बत करते हों ज़्यादा... पता नहीं मेरी याद में तो बस यही है कि जैसे ही सर्दियां शुरू होती हैं वहां, बस वहां पर लोग पेड़ों को छंटवाने के नाम पर कटवाने का बहाना ढूंढते हैं..
मुझे बचपन की यह भी बात याद है कि दिसंबर जनवरी के महीनों में अमृतसर में हातो आ जाते थे (कश्मीरी मजदूरों को हातो कहते थे वहां ...जो कश्मीर में बर्फबारी के कारण मैदानों में आ जाते थे दो चार महीनों के लिए काम की तलाश में)...वे पेड़ों पर चढ़ते, कुल्हाड़ी से पेड़ों को काटते-छांटते और और फिर उस लकड़ी के छोटे छोटे टुकडे कर के चले जाते ...इन्हें जलाओ और सर्दी भगाओ....इस काम के लिए वे पंद्रह-बीस-तीस रूपये लेते थे .. यह आज से ४०-४५ साल पहले की बात है।
हां, तो बात हो रही थी दरख्तों की ....मैं तो जब भी किसी रास्ते से गुज़रता हूं तो बड़े बडे़ दरख्तों को अपने मोबाइल में कैद करते निकलता हूं और अगर वे पेड़ रास्तों में हैं तो उस जगह की सरकारों की पीढ़ियों को मन ही मन दाद देता हूं कि पचास-सौ साल से यह पेड़ यहां टिका रहा, अद्भुत बात है, प्रशंसनीय है ...वह बात और है कि इस में पेड़ प्रेमियों के समूहों का भी बड़ा योगदान होता है...वे सब भी तारीफ़ के काबिल हैं...
हम लोग कहां से कहां पहुंच चुके हैं ...कल मैंने एक स्क्रैप की दुकान के बाहर एक बढ़िया सा फ्रेम पडा़ देखा...बिकाऊ लिखा हुआ था ... खास बात यह थी कि इस फ्रेम में एक बुज़ुर्ग मोहतरमा की तस्वीर भी लगी हुई थी .. पुराने फ्रेम को बेचने के चक्कर में उन्होंने उस बुज़ुर्ग की तस्वीर निकाल लेना भी ज़रूरी नहीं समझा...होगी किसी की दादी, परदादी , नानी तो होगी..लेकिन गई तो गई ...अब कौन उन बेकार की यादों को सहेजने के बेकार के चक्कर में पड़े..
ऐसे माहौल में जब मैं घरों के अंदर घने, छायादार दरख्त लगे देखता हूं तो मैं यही सोचता हूं कि इसे तो भई कईं पीढ़ियों ने पलोसा होगा... चलिए, बाप ने लगाया तो बेटे तक ने उस को संभाल लिया..लेकिन कईं पेड़ ऐसे होते हैं जिन्हें देखते ही लगता है कि इन्हें तो तीसरी, चौथी और इस से आगे की पीढ़ी भी पलोस रही है ....मन गदगद हो जाता है ऐसे दरख्तों को देख कर ...ऐसे लगता है जैसे उन के बुज़ुर्ग ही खड़े हों उस दरख्त के रूप में ...
मैं जब छोटा सा था तो मुझे अच्छे से याद है मेरे पापा मुझे वह किस्सा सुनाया करते थे ...कि एक बुज़ुर्ग अपने बाग में आम का पेड़ लगा रहा था, किसी आते जाते राहगीर ने ऐसे ही मसखरी की ...अमां, यह इतने सालों बाद तो फल देगा... तुम इस के फल खाने तक जिंदा भी रहोगे, ऐसा यकीं है तुम्हें?
उस बुज़ुर्ग ने जवाब दिया....बेटा, मैं नहीं रहूंगा तो क्या हुआ, मेरे बच्चे, बच्चों के बच्चे तो चखेंगे ये मीठे आम!
मुमकिन है यह बात आप ने भी कईं बार सुनी होगी..लेकिन जब हम लोग अपने मां-बाप से इस तरह की बातें बचपन में सुनते हैं तो वे हमारे ऊपर अमिट छाप छोड़ जाती हैं...
बडे़ बडे़ पेड़ घरों में लगे देख कर यही लगता है कि इस घर में सब के पुराने संस्कार अभी अपनी जगह पर टिके हुए हैं ..नहीं तो पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलाने में देर लगती है क्या, बस बहाना चाहिए और एक इशारा चाहिए.. यकीनन इन पेड़ों को कईं पीढ़ियों ने प्यार-दुलार से पलोसा होगा, तभी तो आज वे गर्व से सीना ताने खड़े हैं!!
कल मैंने जब एक बंगले में इन पेड़ों की यह हालत देखी तो मुझे राहत इंदौरी साहब की यह बात याद आ गई ...
यही विचार आ रहा है कि हम लोग अाज के बच्चों को पेड़ों से मोहब्बत करना सिखाएं....दिखावा नहीं, असली मोहब्बत ...दिखावा तो आपने बहुत बार देखा होगा ..
एक दिखावे की तस्वीर दिखाएं ... इसे अन्यथा न लें (ले भी लें तो ले लें, क्या फ़र्क पड़ता है!😀) शायद ऐसा होता ही न हो, एक लेखक की कल्पना की उड़ान ही हो...जैसा भी आप समझें, एक बार सुनिए ...जी हां, फलां फलां दिन पेड़ लगाए जायेंगे। जब पेड़ लगाने कुछ हस्तियां आती हैं.. उन के साथ उन का पूरा स्टॉफ, पूरे ताम-झाम के साथ, किसी ने पानी की मशक थामी होती है, किसी ने उन के नाम की तख्ती, किसी ने डेटोल लिक्विड सोप, किसी ने तौलिया ...और ऊपर से फोटो पे फोटो ...अगले दिन अखबार के पेज तीन पर छापने के लिए....अब मेरा प्रश्न यह है कि वे पेड जो ये लोग लगा कर जाते हैं वे कितने दिन तक वहां टिके रहते हैं...कभी इस बात को नोटिस करिएगा....
पिछले दिनों मैंने कुछ पेडो़ं के ऊपर कोलाज तैयार किए थे, सोच रहा हूं उन की नुमाईश भी यहीं लगा दूं... आज तो मौका भी मिला हुआ है ... 😀😂😎
यह बिल्कुल पेज थी टाइप इवेंट होता है ...शायद उस स्वच्छता मुहिम के जैसा जहां दस लोग झाड़ू पकड़ कर दस पत्तों के साथ फोटो खिंचवाने आ जाते हैं... फोटो देखने वाले को यह पता ही नहीं चलता कि यार, यहां पर गंदगी तो लग ही नहीं रही, सब कुछ तो चमाचम वैसे ही है ...इसीलिए एक स्कीम भी आई थी कि सफाई से पहले और बाद की फोटो भी शेयर की जाएं...उसी तरह का कुछ पोधारोपण के बारे में भी होना चाहिेए... आधार को जैसे हम जगह जगह लिंक किए जा रहे हैं, उसी तर्ज़ पर जिस व्यक्ति की उन पौधों को पालने की जिम्मेवारी बनती हो उन की Annual Confidential Report भी इन पौधों की सुरक्षा के साथ जोड़ दी जानी चाहिए..
यह तो हो गई औपचारिकता....और दूसरी तरफ़ एक बच्चा घर से ही सीख रहा है ...कि कैसे पौधे को रोपा जाता है, कैसे उसे पानी दिया जाता है, कितना पानी चाहिए, खाद की क्या अहमियत है .. और ऐसी बहुत सी बातें ...
बात लंबी हो रही है, बस यही बंद कर रहा हूं इस मशविरे के साथ कि ....We all need to celebrate trees!! दरख्त हमारे पक्के जिगरी दोस्त हैं, इन के साथ मिल कर जश्न मनाते रहिए, मुस्कुराते रहिेए...
मैं मीट, मछली, अंडा नहीं खाता, इस का बिल्कुल भी धार्मिक कारण नहीं है ...एक तो मुझे अच्छा नहीं लगता और दूसरा मुझे मैडीकल/वैज्ञानिक नजरिये से भी (इस को भी आप अधिकतर पर्सनल ही समझिए) ठीक नहीं लगता ....जिसे ठीक लगता हो, वह खाये, पिए...हर एक की अपनी मरजी है .. क्या ख्याल है? लेकिन मुझे यह सब खाने वालों से रती भर का कोई परहेज नहीं है ... परिवार में ही कुछ खाते हैं, कुछ नहीं खाते ...पर्सनल च्वाईस..!!
उसी तरह से मैं बाहर कुछ भी खाना पसंद नहीं करता हूं जाहिर सी बात है इस का भी कोई ऐसा-वैसा कारण नहीं है.....बिल्कुल भी नहीं है, खूब खाते ही रहे हैं....लेकिन मुझे पता है कुछ लोग धर्म-जाति के फ़िज़ूल के चक्कर में भी बाहर नहीं खाते .. लेकिन मैं यह जानता हूं कि कारण कुछ भी हो, जो लोग बाहर नहीं खाते वे बड़े बुद्धिमान होते हैं ....यह मैं ५५ साल की उम्र में कह रहा हूं....सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को जाती है जैसे, बिल्कुल वैसे ही ....इतनी उम्र हो गई बाहर से बहुत कुछ खाया ..लेकिन अब विभिन्न कारणों की वजह से बाहर का कुछ भी अच्छा नहीं लगता... कुछ अहम् कारण तो ये हैं .. मिलावटखोरी, गंदा घी, नकली घी, मिलावटी तेल, नकली दूध....लालच और इस के साथ साथ हमारी लगातार गिरती हुई सोच ...मुझे मुनाफ़ा चाहिए, किसी की सेहत का मैंने ठेका नहीं ले रखा ...
मुझे अपने पेशे की वजह से बहुत से लोगों के साथ उन के खाने-पीने के बारे में बात करने का मौका मिलता है .. कुछ तो इतने कट्टर मिलते हैं ..विशेषकर पुराने लोग ...जो बाहर चाय भी नहीं पीते ...मैं इस की छानबीन कभी नहीं करता कि उन का बाहर न खाने का क्या कारण है ...कारण कुछ भी हो, लेकिन मेरी नज़र में वे सब लोग बहुत समझदार होते हैं...
नये नये नौकरी पर लगे युवक आते हैं....सारे बताते हैं कि वे स्वयं खाना बनाते हैं, जो लोग मिल कर रहते हैं वे मिल जुल खाना बना लेते हैं...दरअसल आज की तारीख में यह दकियानूसी सोच की रोटी बनाना औरतों का ही काम है, इसलिए बेटों को यह सब सीखने-करने की कोई ज़रूरत नहीं है, यह बिल्कुल सड़ी-गली सोच है, इस से हम लोग भविष्य में होने वाली दुश्वारियों के चलते लाड़लों की सेहत ही खराब करते हैं .. ऐसी भी दर्जनों उदाहरणें देखी हुई हैं मैंने ..
बाहर कुछ ढंग का नहीं मिल सकता ...घर में साधारण खाना भी पौष्टिकता से भरपूर होता है और बाहर का दो दिन पुराना शाही पनीर भी बीमारी का कारण!
दो दिन पहले यादव जी आए ...६५ के करीब की उम्र थी ..रिटायर्ड थे ...अच्छे हृष्ट-पुष्ट थे...मैंने उन के पूछने पर बताया कि मैं अमृतसर से हूं ...कहने लगे कि मैं भी १९७० के दशक के आसपास वहां रहा था .. क्या गजब की जगह है, बताने लगे कि रिश्तेदार अभी भी वहीं हैं...बता रहे थे कि बाहर से कुछ भी नहीं खाता, लईया-चना-सत्तू ही लेकर चलता हूं सफर में भी ...एक रोचक बात बताई उन्होंने जो विरले लोगों के लिए प्रैक्टीकल हो सकती है ..बताने लगे कि ड्यूटी पर बाहर भी जाता था ..दिल्ली विल्ली कभी ...तो मेरे बैग में थोड़े से चावल, दाल, नमक, मिर्च, हल्दी....एक प्याज, एक दो आलू, धनिया..होता ही है..किसी भी बाग-बगीचे के चौकीदार से पतीली मांग कर वहीं पर तहरी तैयार कर लेता हूं ..उसी समय उसे पतीली लौटा देता हूं....मैंने कहा कि आग का क्या जुगाड़ ?.....हंस के कहने लगा कि लकड़ीयों की क्या कमी है साहब यहां पर, यहां वहां से उठा कर काम चल जाता था।
ऐसा अनुभव मैंने पहली बार सुना था ...और ऐसे ही मेरे मुंह से निकल गया ...और अगर अमृतसर में कुछ खाना हो तो ... तो वह उछल पडा़ ...साहब, वहां की तो बात ही कुछ और है ...वहां की तो मुझे मिट्टी मिले तो मैं वह भी खा जाऊं...
अमृतसर की मिट्टी से इतना लगाव देख कर मैं भी भाव-विभोर हो गया ...मैंने कहा कि यह तो मेरे जैसी सोच है ...मैं भी बाहर कुछ नहीं खाता...लेकिन अमृतसर में जा कर मैं कुछ भी खा सकता हूं..
यहां लखनऊ में हम लोग आए तो शुरू शुरू में दो तीन बहुत बड़े रेस्टरां में गये .. एक बार खाने में एक कीड़ा निकला और दूसरी बार एक छोटा सा कॉकरोच ...मसाला डोसा खाते वक्त यह हुआ....उस दिन के बाद मैंने तो तौबा कर ली ...फिर दूसरी चीज़ें तो खाते-पीते ही रहे ...बस, खाना ही नहीं खाते थे ...लेकिन इधर कुछ समय से मिलावट के ऐसे ऐसे किस्से सुन लिेये हैं कि अब तो खौफ़ लगता है कुछ भी बाहर खाने से ...और फूड-हैंडलिंग की बात न ही करें तो ठीक है!
जब भी बाहर खाया...अच्छे से अच्छे रेस्टरां में भी , हर बार तबीयत खराब ही करवाई ...कईं बार अगले दिन सुधर गई और कईं बार हार कर चार पांच दिन दवाईयां खाने की सिरदर्दी पल्ले पड़ गई ...
और लोगों को भी यह सब समझाते रहते हैं...लेकिन हमारे कहने से लोग गुटखा-पान मसाला नहीं छोड़ते तो बाहर से खाना कैसे छोड़ सकते हैं!!
मेरे ख्याल में बंद करूं इस बात को यहीं पर ....ऐसे ही आज इस पर लिखने लग गया ....दरअसल अपने अमृतसर के स्कूल वाले ग्रुप में हमारे एक साथी ने अमृतसर के एक नामचीन रेस्टरां में पूड़ी-छोले की प्लेट की वीडियो भेजी जिसे मैं यहां एम्बेड कर रहा हूं... आप भी देखिए ....इस तरह का बाहर खाते-पीते हमारा ध्यान कभी आचार की तरफ़ तो जाता ही नहीं है, क्या ख्याल है, हम इस तरह के कीड़े वीड़े तो अमरूदों में ढूंढते फिरते हैं ...किस तरह से आचार में कीड़े पड़े हुए थे....इस वीडियो को सहेज कर रख लिया है ....अगली बार यादव जी आए तो उन के संज्ञान में भी लाना ज़रूरी है .... वे भी गल्तफहमी से बाहर निकलें ....और मैं तो इस गल्तफहमी से बिलकुल बाहर आ गया कि अमृतसर में तो मैं कहीं से भी कुछ भी खा-पी सकता हूं ...
शुक्रिया, सुनील भाई, इस वीडियो के लिए .. और हां, जब मुझे यह वीडियो मिली तो मुझ से खुली नहीं, नेटवर्क नहीं था शायद, वीडियो से पहले सुनील का संदेश दिखा कि फलां फलां रेस्टरां के पूडी़-छोले छके जा रहे हैं....मैंने कोशिश की कि उसे वह वीडियो भेजूं ...कि खाओ, पियो, ऐश करो मितरो, दिल पर किसे दा दुखायो ना...शुक्र है यह वीडियो मैंने उसे भेज नहीं दी ...क्योंकि असली माजरा तो उस की पूड़ी-छोले वाली वीडियो और गाजर का अचार देख कर ही समझ में आया...
और मुझे यहां यह भी बताना ज़रूरी लगता है कि मैं जब एक दो दिन कहीं बाहर होता हूं तो क्या करता हूं....फ्रूट चाट बनाता हूं, सलाद बना लेता हूं ... और सूखी भेल, और कोई ब्रांडेड चिवड़ा खा लेता हूं...मिष्ठी दही लेता हूं ...चाय बना लेता हूं, खिचड़ी भी बना लेता हूं ...घर में ...भगवान का शुक्र है कि यादव जी जैसा जुगाड़ करने की कभी ज़रूरत नहीं पड़ी ....रब्बा वे, तेरा लख लख शुकर है ....
अब इस पोस्ट के मूड के साथ मिलता जुलता गाना लगा दें ?