आज अखबार नहीं आयेगी...सुबह उठ कर कल वाली अखबारें ही उठा लीं...हर अखबार में लखनऊ में बकरीद छाई हुई थी, सोचा आज इन खबरों की तस्वीरें ही शेयर करते हैं...
मैं इस पोस्ट में बहुत सी तस्वीरें लगा रहा हूं ..किसी भी टेक्स्ट को अगर आप अच्छे से पढ़ना चाहें तो उस पर क्लिक कर दीजिए...आप उसे साफ़ साफ़ देख पढ़ सकेंगे...ब्लॉग में फोटो लगाते समय उस की रेज़ोल्यूशन की अपनी सीमाएं होती हैं, साईज़ बड़ा रहेगा तो सभी उसे खोल ही नहीं पाएंगे..
बहरहाल, कल सुबह ही पता तो चल गया था कि आज लखनऊ की फिजा़ में तहजीब की मिठाई घुलने वाली है ..फ्रंट पेज वाली उस खबर की सुर्खियां ही कुछ इस तरह की थीं...
ईसाई करेंगे इस्तकबाल
सिख-हिंदू परोसेंगे सेवईं
शिय-सुन्नी एक साथ पढ़ेंगे नमाज
शाहनजफ इमामबाड़े में गले मिलेंगे दोनों समुदाय
यंगस्टर्ज के हाथों में है कमान
किसी धार्मिक पर्व के बारे में अकसर मुझे भी इन्हीं सुर्खियों से ही पता चलता है ... लखनऊ में कुछ ज्यादा चलता है क्योंकि यहां पर धार्मिक-सांस्कृतिक माहौल कुछ अनूठा ही है ..वरना बहुत से शहरों में तो इस तरह के त्योहारों पर अखबार के आधे पन्ने पर एक संदेश छपता है कि मुबारकबाद ..और साथ में डाक्टरों, नीम-हकीम स्पेशलिस्टों के विज्ञापन और कामुकता बढ़ाने वाले जुगाड़ों के इश्तिहार ....लेेकिन यहां विभिन्न त्योहारों को अच्छे से कवर किया जाता है जैसा कि आप नीचे लगी हुई तस्वारों से देख पाएंगे...हाथ कंगन को आरसी क्या!
अरे हां, एक बात याद आ गई इस बधाई वाली बात से ...हम लोगों का दूसरे धर्मों के बारे में ज्ञान इतना कम और अधकचरा है कि हमें बहुत बार तो पता ही नहीं होता कि किसी की इस तरह की पोस्ट पर टिपियाना कैसे होता है ..कुछ महीने पहले की बात है कोई मुस्लिम बंधुओं का ही त्योहार था तो किसी ने तुरंत टिका दिया ...मुबारकबाद...उसे तुरंत हड़का दिया गया कि यह मुबारबाद और बधाई का मौका नहीं होता ....मैं तो इस तरह के मौकों पर तभी कुछ लिखता हूं जब दूसरे लोगों के कमैंट पढ़ लेता हूं कि हां, यह मौका है क्या..जश्न का या मातम का ! अनुमान अकसर गल्त साबित हुआ करते है ं...परीक्षाओं में तो चल भी जाते हैं...थकेले हुए मास्टरों के साथ लेकिन ज़िंदगी में नहीं चलते ...अब अगर आप बकरों की इतनी बड़ी संख्या में शहादत से कुछ अपना ही अनुमान लगा लें तो गड़बड़ हो जायेगी!
चक्कर सारा यह है कि हम लोग यहां वहां से थोड़ी बहुत जानकारी तो जुटा लेते हैं लेकिन कभी एक दूसरे के धर्म-स्थल पर जाते नही ं हैं..ठीक है, कुछ जगहों पर कुछ प्रतिबंध भी होते हैं लेकिन हम भी कुछ पहल करते नहीं दिखते...इसलिए अल्पज्ञता वाली खाई हमेशा जस की तस खुदी रहती है ...आप का इस के बारे में क्या ख्याल है?
मैंने कहा न कि आज तस्वीरों को ही बोलने देते हैं... दरअसल मैं इस पोस्ट में इतना कुछ भी नहीं लिखता, लेेकिन ये सब तस्वीरें मेरे मोबाइल से लेपटाप में ब्लु-टुथ से आ रही हैं...बच्चे तो कईं बार कहते हैं कि बापू, शेयर-इट से कर लिया कर इस तरह के काम...लेेकिन उस में एक दो बार अड़चन आई तो फिर से किया ही नहीं!
इन्हीं खबरों में से एक जगह आप यह भी लिखा पाएंगे ...मंडी में देसी, बरबरे और जमुनापारी बकरों की खासी मांग रही ...देसी और जमुनापारी बकरे आमतौर पर जहां १०-१४ हज़ार रुपयों में बिके वहीं अजमेरी नस्ल के बकरे ३५ से ४५ हज़ार रुपयों में बिके...बकरीद का त्योहार नजदीक आते ही अल्लाह मोहम्मद लिखे बकरे काफी चर्चा में रहते हैं.. इस साल भी बकरा मंडी में अल्लाह और मोहम्मद लिखे कईं बकरे लाए गये। मगर इन बकरों के दाम लाखों रूपये में होने की वजह से सिर्फ लोगों की आकर्षण का केन्द्र ही बने रहे , लोगों ने इन्हें खरीदा नहीं...
जब हम छोटे होते हैं तो हम वही मान लेते हैं जो किताबों में दर्ज है, लेकिन हम उम्र के पड़ाव पार करते करते ये जानने लगते हैं कि ज़मीनी हकीकत दरअसल है क्या...देश में इतनी विभिन्नता होते हुए भी संविधान ने एक माला में पिरो कर रखा हुआ है..यह अपने आप में एक करिश्मा ही है ...
अखबारों के झरोखों से तो मैंने आप को बकरीद का पर्व दिखा दिया ..लेेकिन अब मेरी आंखो-देखी ....
मुझे यह कभी समझ में नहीं आता कि किसी भी धर्म का पर्व हो...हिंदु-मुस्लिम या कोई भी ...लेकिन उस समय कर्फ्यू जैसा माहौल क्यों दिखने लगता है ...सीरियस से बने चेहरे, पुलिसिया बंदोबस्त, पुलिस के बैरीयर, ट्रैफिक डाईवर्ज़न ... कुछ कुछ तो मैं समझता हूं, कुछ कभी भी समझ में नहीं आया....सभी पर्व-त्योहार तो जश्न मनाने के लिेेए होते हैं...तो फिर इतनी संजीदगी, इतनी एहतियात इस गंगा-यमुनी तहजीब से मेल खाती नहीं दिखती....फिर यह भी लगता है कि हम जैसे लोगों को व्यवस्था करने वाले चलाएं हमें चुपचाप नाक की सीध पर चलते रहना चाहिए....आम पब्लिक क्या जाने कि प्रशासन के लिए क्या क्या चुनौतियां हैं, हम तो बस किसी भी मुद्दे पर अपनी एक्सपर्ट राय देने में माहिर हैं...
एक बात और ...कल रात आठ बजे के करीब एक बाज़ार से निकलने का मौका मिला ..वहां पर शहादत पा चुके बकरों की खाल के ढेर लगे हुए थे...अब चूंकि लोग इस विषय पर मीडिया में भी बोलने की ज़ुर्रत करने लगे हैं कि Eco-friendly id और बाबा रामदेव का हर्बल मु्र्गा ...बहुत से मैसेज आप को भी वाट्सएप पर दिखे होंगे... हर धर्म की अपनी अपनी आस्थाएं हैं.. मैं तो बस यही सोच रहा था कि शहादत से पहले सुबह ये बकरे सुबह कितने चहक रहे होंगे और शाम होते होते इन की चमकदार, बेहद खूबसूरत खालें बाज़ार में बिकती देख कर मैंने मन ही मन सोच लिया है कि आगे से मेरी कोशिश यही रहेगी कि मैं चमड़े की कोई भी चीज़ न खरीदूं...नहीं, कभी नहीं! आज से यही प्रण किया है समझ लीजिए...मैं जब भी किसी चमड़े की चीज को खरीदने के बारे में सोचूंगा तो मैं बाज़ार में कल दिखे दृश्य को कैसे भुला पाऊंगा ...जिसे देख कर मेरे आंसू जैसे जम गये थे!...मुझे शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव और गुरूओं-पीर पैबंगरों की शहादतें याद आ रही हैं इस समय।
पता नहीं मुझे इस बाज़ार से गुज़रते हुए एक अजीब सा मातम पसरा दिखाई दे रहा था ..वैसे कहीं कहीं बकरे बिकते भी दिखे कल शाम...वह खबर भी तो आई थी कि कुछ मुस्लिम बंधू आज मंगलवार होने की वजह से कल बकरे की शहादत देंगे ताकि उन हिंदु ब्रादर को भी दावत में शामिल किया जा सके जो मंगलवार को मांस नौश नहीं फरमाते ...
मैं इस पोस्ट में बहुत सी तस्वीरें लगा रहा हूं ..किसी भी टेक्स्ट को अगर आप अच्छे से पढ़ना चाहें तो उस पर क्लिक कर दीजिए...आप उसे साफ़ साफ़ देख पढ़ सकेंगे...ब्लॉग में फोटो लगाते समय उस की रेज़ोल्यूशन की अपनी सीमाएं होती हैं, साईज़ बड़ा रहेगा तो सभी उसे खोल ही नहीं पाएंगे..
बहरहाल, कल सुबह ही पता तो चल गया था कि आज लखनऊ की फिजा़ में तहजीब की मिठाई घुलने वाली है ..फ्रंट पेज वाली उस खबर की सुर्खियां ही कुछ इस तरह की थीं...
ईसाई करेंगे इस्तकबाल
सिख-हिंदू परोसेंगे सेवईं
शिय-सुन्नी एक साथ पढ़ेंगे नमाज
शाहनजफ इमामबाड़े में गले मिलेंगे दोनों समुदाय
यंगस्टर्ज के हाथों में है कमान
किसी धार्मिक पर्व के बारे में अकसर मुझे भी इन्हीं सुर्खियों से ही पता चलता है ... लखनऊ में कुछ ज्यादा चलता है क्योंकि यहां पर धार्मिक-सांस्कृतिक माहौल कुछ अनूठा ही है ..वरना बहुत से शहरों में तो इस तरह के त्योहारों पर अखबार के आधे पन्ने पर एक संदेश छपता है कि मुबारकबाद ..और साथ में डाक्टरों, नीम-हकीम स्पेशलिस्टों के विज्ञापन और कामुकता बढ़ाने वाले जुगाड़ों के इश्तिहार ....लेेकिन यहां विभिन्न त्योहारों को अच्छे से कवर किया जाता है जैसा कि आप नीचे लगी हुई तस्वारों से देख पाएंगे...हाथ कंगन को आरसी क्या!
अरे हां, एक बात याद आ गई इस बधाई वाली बात से ...हम लोगों का दूसरे धर्मों के बारे में ज्ञान इतना कम और अधकचरा है कि हमें बहुत बार तो पता ही नहीं होता कि किसी की इस तरह की पोस्ट पर टिपियाना कैसे होता है ..कुछ महीने पहले की बात है कोई मुस्लिम बंधुओं का ही त्योहार था तो किसी ने तुरंत टिका दिया ...मुबारकबाद...उसे तुरंत हड़का दिया गया कि यह मुबारबाद और बधाई का मौका नहीं होता ....मैं तो इस तरह के मौकों पर तभी कुछ लिखता हूं जब दूसरे लोगों के कमैंट पढ़ लेता हूं कि हां, यह मौका है क्या..जश्न का या मातम का ! अनुमान अकसर गल्त साबित हुआ करते है ं...परीक्षाओं में तो चल भी जाते हैं...थकेले हुए मास्टरों के साथ लेकिन ज़िंदगी में नहीं चलते ...अब अगर आप बकरों की इतनी बड़ी संख्या में शहादत से कुछ अपना ही अनुमान लगा लें तो गड़बड़ हो जायेगी!
चक्कर सारा यह है कि हम लोग यहां वहां से थोड़ी बहुत जानकारी तो जुटा लेते हैं लेकिन कभी एक दूसरे के धर्म-स्थल पर जाते नही ं हैं..ठीक है, कुछ जगहों पर कुछ प्रतिबंध भी होते हैं लेकिन हम भी कुछ पहल करते नहीं दिखते...इसलिए अल्पज्ञता वाली खाई हमेशा जस की तस खुदी रहती है ...आप का इस के बारे में क्या ख्याल है?
मैंने कहा न कि आज तस्वीरों को ही बोलने देते हैं... दरअसल मैं इस पोस्ट में इतना कुछ भी नहीं लिखता, लेेकिन ये सब तस्वीरें मेरे मोबाइल से लेपटाप में ब्लु-टुथ से आ रही हैं...बच्चे तो कईं बार कहते हैं कि बापू, शेयर-इट से कर लिया कर इस तरह के काम...लेेकिन उस में एक दो बार अड़चन आई तो फिर से किया ही नहीं!
इन्हीं खबरों में से एक जगह आप यह भी लिखा पाएंगे ...मंडी में देसी, बरबरे और जमुनापारी बकरों की खासी मांग रही ...देसी और जमुनापारी बकरे आमतौर पर जहां १०-१४ हज़ार रुपयों में बिके वहीं अजमेरी नस्ल के बकरे ३५ से ४५ हज़ार रुपयों में बिके...बकरीद का त्योहार नजदीक आते ही अल्लाह मोहम्मद लिखे बकरे काफी चर्चा में रहते हैं.. इस साल भी बकरा मंडी में अल्लाह और मोहम्मद लिखे कईं बकरे लाए गये। मगर इन बकरों के दाम लाखों रूपये में होने की वजह से सिर्फ लोगों की आकर्षण का केन्द्र ही बने रहे , लोगों ने इन्हें खरीदा नहीं...
जब हम छोटे होते हैं तो हम वही मान लेते हैं जो किताबों में दर्ज है, लेकिन हम उम्र के पड़ाव पार करते करते ये जानने लगते हैं कि ज़मीनी हकीकत दरअसल है क्या...देश में इतनी विभिन्नता होते हुए भी संविधान ने एक माला में पिरो कर रखा हुआ है..यह अपने आप में एक करिश्मा ही है ...
अखबारों के झरोखों से तो मैंने आप को बकरीद का पर्व दिखा दिया ..लेेकिन अब मेरी आंखो-देखी ....
मुझे यह कभी समझ में नहीं आता कि किसी भी धर्म का पर्व हो...हिंदु-मुस्लिम या कोई भी ...लेकिन उस समय कर्फ्यू जैसा माहौल क्यों दिखने लगता है ...सीरियस से बने चेहरे, पुलिसिया बंदोबस्त, पुलिस के बैरीयर, ट्रैफिक डाईवर्ज़न ... कुछ कुछ तो मैं समझता हूं, कुछ कभी भी समझ में नहीं आया....सभी पर्व-त्योहार तो जश्न मनाने के लिेेए होते हैं...तो फिर इतनी संजीदगी, इतनी एहतियात इस गंगा-यमुनी तहजीब से मेल खाती नहीं दिखती....फिर यह भी लगता है कि हम जैसे लोगों को व्यवस्था करने वाले चलाएं हमें चुपचाप नाक की सीध पर चलते रहना चाहिए....आम पब्लिक क्या जाने कि प्रशासन के लिए क्या क्या चुनौतियां हैं, हम तो बस किसी भी मुद्दे पर अपनी एक्सपर्ट राय देने में माहिर हैं...
एक बात और ...कल रात आठ बजे के करीब एक बाज़ार से निकलने का मौका मिला ..वहां पर शहादत पा चुके बकरों की खाल के ढेर लगे हुए थे...अब चूंकि लोग इस विषय पर मीडिया में भी बोलने की ज़ुर्रत करने लगे हैं कि Eco-friendly id और बाबा रामदेव का हर्बल मु्र्गा ...बहुत से मैसेज आप को भी वाट्सएप पर दिखे होंगे... हर धर्म की अपनी अपनी आस्थाएं हैं.. मैं तो बस यही सोच रहा था कि शहादत से पहले सुबह ये बकरे सुबह कितने चहक रहे होंगे और शाम होते होते इन की चमकदार, बेहद खूबसूरत खालें बाज़ार में बिकती देख कर मैंने मन ही मन सोच लिया है कि आगे से मेरी कोशिश यही रहेगी कि मैं चमड़े की कोई भी चीज़ न खरीदूं...नहीं, कभी नहीं! आज से यही प्रण किया है समझ लीजिए...मैं जब भी किसी चमड़े की चीज को खरीदने के बारे में सोचूंगा तो मैं बाज़ार में कल दिखे दृश्य को कैसे भुला पाऊंगा ...जिसे देख कर मेरे आंसू जैसे जम गये थे!...मुझे शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव और गुरूओं-पीर पैबंगरों की शहादतें याद आ रही हैं इस समय।
पता नहीं मुझे इस बाज़ार से गुज़रते हुए एक अजीब सा मातम पसरा दिखाई दे रहा था ..वैसे कहीं कहीं बकरे बिकते भी दिखे कल शाम...वह खबर भी तो आई थी कि कुछ मुस्लिम बंधू आज मंगलवार होने की वजह से कल बकरे की शहादत देंगे ताकि उन हिंदु ब्रादर को भी दावत में शामिल किया जा सके जो मंगलवार को मांस नौश नहीं फरमाते ...
अखबारों की इतनी सारी क्लिपिंग्ज़ देख कर आप सोच रहे होंगे कि मैं तो कहता हूं कि मैं दो अखबारें ही पढ़ता हूं .. उस का जवाब यही है कि पुरानी आदतें कमबख्त जाती नहीं...