मंगलवार, 13 सितंबर 2016

हमारे ज़माने के 40 साल पुराने रिजल्ट-कार्ड

शीर्षक सूझ नहीं रहा था कि क्या लिखूं...फिर लगा, पता नहीं कोई पढ़ता भी है कि नहीं, बिना वजह ज़्यादा मगज-मारी कैसी?...पढता है तो कोई तो ठीक है, नहीं पढ़ता तो और भी ठीक, मेरे मन की बात मेरे तक ही रहती है, और वैसे भी किसी भी फन की धार पैदा करने के लिए ज़िल्लत भी तो बहुत ज़रूरी है ही ...

अच्छा भला ईद की छुट्टी मना रहा था, विविध भारती का एसएमएस के बहाने फिल्मी गीत सुन रहा था, अखबार पढ़ रहा था...कि अब स्कूली छात्रों को छठी कक्षा से फेल करना वाला कोई नियम बनने वाला है, अभी तक तो सरकार की फ़िराकदिली यह है कि आठवीं तक किसी को फेल किया ही नहीं जाता...और एक खबर दिखी कि अमिताभ ने अपनी नातिन-पोतिन को एक चिट्ठी लिखी है जिस पर सोशल मीडिया पर बड़े तंज कसे जा रहे हैं...अच्छा, मुझे नहीं पता था, मैं तो लिंकन की अपने बेटे के मास्टर को लिखी चिट्ठी और नेहरू की अपनी बेटी को लिखी चिट्ठीयों के बारे में ही जानता हूं..

मुझे भी अचानक याद आ गया अपनी पांचवी-छठी कक्षा के दिन ...और चिट्ठीयों के जरिये अपने रिजल्ट का हमारे घरों में पहुंचना...

मैंने सोचा कि आज से ४०-४२ साल पहले कैसे हम लोगों के स्कूल हमारे घरों तक हमारे रिजल्ट पहुंचाते थे, इस को अपने ब्लॉग पर सहेज लिया जाना चाहिए.. वरना, समय बीतने के साथ कुछ कुछ बातें धुंधली होने लगती हैं...

जी हां, हमारी तिमाही, छःमाही और नौमाही परीक्षाएं हुआ करती थीं, पांचवी कक्षा से लेकर आगे दसवीं-बारहवीं कक्षा तक ... एक बात और यह कि सारा काम उन दिनों विश्वास पर ही चलता था...कोई मां-बाप भी किसी तरह की पैरवी नहीं किया करता था ...बच्चा अगर स्कूल गया है तो मतलब स्कूल ही गया होगा...सभी मां-बाप को यह भरोसा होता था..और ९९ प्रतिशत केसों में इस विश्वास पर कभी आंच भी नहीं आती दिखी ..

इसलिए मुझे अब दुःख होता है जब मैं देखता हूं कि सुबह सुबह ही स्कूल-कालेज में जाकर पढ़ने वाले बच्चे अपनी इस कैरियर बनाने की उम्र में इश्कबाजी में पड़ जाते हैं...जिन पार्कों में लोग सुबह आठ बजे टहलने के बाद लौट रहे होते हैं उन के गेटों के आसपास ये युगल मंडरा रहे होते हैं कि कब ये कमबख्त तोंदू-तोतले से बाहर निकलें और हम लोग अपनी इबादत शुरू करें...कईं बार तो छात्राओं के साथ छात्रों की बजाए उन से बीस साल ज्यादा उम्र के आदमी होते है ं..

वापिस ४० साल पुराने दिनों का रुख करते हैं...कोई पीटीएम नहीं, कोई पीटीए नहीं ...बहुत बार तो सारे स्कूली कैरियर में माता-पिता में से किसी का भी स्कूल में जाना ही नहीं होता था..मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ...पांचवी में जब उस बड़े डीएवी स्कूल में दाखिला होना था, तो पिता जी पड़ोस में रहने वाले साईंस टीचर को एक शाम कह आए कि सुबह प्रवीण को भी दाखिल करवा देना ..सुबह मास्टर साहब, मुझे साथ ही साईकिल पर बिठा कर ले गये....एंट्रेंस हुआ...बहुत बढ़िया और दाखिला हो गया..मैं खुश...सातवें आसमां पर!

अब अगर मां-बाप स्कूल ही नहीं आते थे तो सारा साल जो हमारी परीक्षाएं चलती थीं उन का परीक्षा-फल उन तक कैसे पहुंचता था...इस का इंतज़ाम स्कूल वालों ने पक्का कर रखा था.. तो ऐसा था कि जहां तक मुझे याद है १९७३ की बातें हैं...स्कूल ने कुछ इस तरह के पोस्टकार्ड छपवा रखे थे जैसा कंटैंट मैंने इन पोस्ट-कार्ड पर लिखा है....शायद उस कार्ड पर डाक-टिकट बच्चों को स्वयं अपनी लानी होती थी ...

अब परीक्षा आने के बाद दो चार पढ़ाकू छात्रों (हां, मैं भी उन में से एक तो था ही!) की ड्यूटी लग जाती थी ..इंचार्ज मास्टर वे सारे पोस्टकार्ड हमें दे देते ..हमें इन को लाइब्रेरी पीरियड में या आधी छुट्टी के समय वहां एकांत में बैठ कर भरना होता ...मास्टर जी वह रजिस्टर भी हमें दे देते जहां से हम ने यह अंक उतारने होते ... गलती का कोई स्कोप नहीं, एक पढ़ाकू चैकिंग के लिए और दूसरा काउंटर-चैकिंग के लिए ... इस के बावजूद भी अगर गल्ती हो गई तो हम लोगों की खैर नहीं!

अब इन पोस्टकार्डों पर मास्टर साहब हस्ताक्षर करने के बाद डाकपेटी में डलवा देते ...और तब कक्षा में घोषणा होती कि तुम लोगों का रिजल्ट पोस्टकार्ड डाक से चला गया है और अपने घर से उस पर हस्ताक्षर करवा के ले आना...


और एक दो दिन में वह कार्ड घर पहुंच जाता ...और फिर घर का हर बशर उसे कईं कईं बार देखता कि कहीं तो कुछ उल्टा-सीधा दिखे ...फाईनल कमैंट्स अकसर पिता जी के होते कि यार, साईंस में थोड़े कम लग रहे हैं...हां, पापा जी, पेपर ही इतना मुश्किल था कि सिर्फ १० बच्चे ही पास हुए हैं ...बाकी सब फेल हैं...आगे से और ध्यान करेंगे....बस, बात वहीं खत्म हो जाती, पापा जी के साइन होते ही उस कार्ड को बेयरर चैक से भी ज़्यााद संभाल के किसी कापी-किताब में रख कर बस्ते में बंद कर दिया जाता ...सुबह उसे मास्टर को देकर जान में जान आती ..

अब उस में भी कईं शरारतें हुआ करतीं...जिन छात्रों के नंबर बहुत ही कम होते और किसी तरह से डाकिये से वह कार्ड उन को मिल जाता तो वे उन अंकों को रबड़ से मिटा कर नये अंक लिख लेते .. बापू को इंप्रेस करते ..लेकिन मास्टर से कैसे बचते...मास्टर कार्ड देखते ही ताड़ जाता और फिर क्या हाल होता, दे दना दन दन ... पहले दायां गाल..फिर बायां गाल ..
मास्टर को तो सारे कार्ड वापिस चाहिए ही चाहिए होते थे...यह लीचड़खाना कईं कईं दिन तक चलता रहता पहले पीरियड में ...कोई छात्र कहता कि मास्टर जी, मेरे घर तो पहुंचा ही नहीं कार्ड तो उस के यहां फिर से भिजवा दिया जाता .. बकरे की मां कब तक खैर मनाती!

मुझे याद है कि कभी कभी इन परीक्षा-कार्डों में अक भरने वालों को कक्षा के दूसरे साथियों से रिक्वेस्ट भी आती कि देख लेना यार, उस सब्जैक्ट के अंकों को थोड़ा देख लेना..लेेकिन हमारे मास्टरों का इतना आतंक था कि हम इस तरह की हेराफेरी के बारे में सोच कर ही कांप जाते थे ...मुझे यह लिखते बड़ी हंसी आ रही है ..पुराने दृश्य सारे आंखों के सामने घूम रहे हैं....अभी इस पोस्ट को अपने उन दिनों के साथियों के वाट्सएप ग्रुप पर भी शेयर करूंगा ..फिर देखता हूं वे क्या कहते हैं !

DAV School Amritsar Magazine Arun (Aug.1973) --
One and only picture still with me of those days!
(Last row..middle one is this writer) 
यह जो मैंने ऊपर बातें लिखी हैं ये तो पांचवी-छठी कक्षा की थीं, फिर सातवीं आठवीं कक्षा में कुछ ऐसा हुआ ..जहां तक मुझे याद आ रहा है ..कि स्कूल ने इस तरह के पोस्टकार्ड रिजल्ट वाले प्रिंट करवाने बंद कर दिए... फिर तो हम लोगों का काम और भी बढ़ गया ...यह जो कंटैंट मैंने ऊपर लिखा है यह सारा हमें ५०-६० छात्रों के खाली पोस्टकार्डों पर स्वयं लिखना पड़ता था...खाली पोस्टकार्ड छात्रों को अपना पता लिख कर स्वयं देने होते थे ...

अभी मुझे ध्यान आ रहा कि शायद उस कार्ड में ऐसा भी कुछ लिखना होता था हमें कि छात्र ने कितने दिन स्कूल अटैंड किया और कितने दिन अनुपस्थित रहा .. और अगर किसी विषय में प्रथम, द्वितिय या तृतीय स्थान पाया हो तो वह भी उस पर लिखा जाता ..

हां, इस से याद आया कि लगभग हर साल स्कूल के वार्षिक उत्सव पर मुझे खूब इनाम मिला करते ... पुस्तकों के रूप में .. उन उत्सवों में अकसर मेरी मां अपनी किसी सखी-सहेली के साथ ज़रूर पहुंचती ..मुझे बहुत अच्छा लगता ... उस के बाद चाय-नाश्ते का इंतज़ाम होता और मेरी मां की सहेली सारे मोहल्ले में मेरी होशियारी के चर्चे करते न थका करतीं ....अच्छे थे यार वे भी पुराने सीधे-सादे दिन ...

उन दिनों हमें इस तरह की गाने बहुत अच्छे लगते थे....थे क्या, अभी भी उतने ही अच्छे लगते हैं....दुनिया जितने भी बदल जाए, बच्चे अभी भी उतने ही मन के सच्चे हैं....कोई शक?




सोमवार, 12 सितंबर 2016

हिंदी के नाम पर महज मजाक ही नहीं लगता यह ...

आज सुबह टहलते हुए मुझे याद आ रहा था कि हम लोग नवीं-दसवीं कक्षा में थे तो हम ने नया नया हिंदी का शब्द सुना था...लोहपथगामिनी... हम एक दूसरे से पूछते कि बताओ तो ज़रा यह क्या है?...कौन बेचारा बता पाता....फिर हम ऐंठ कर कहते ...क्या यार तुमने कभी गाड़ी नहीं देखी!

इस बात का विचार मुझे आज सुबह सुबह इसलिए आ रहा था शायद कि कल शाम में मैंने दैनिक जागरण के संपादकीय पन्ने पर किसी पूर्व प्रशासनिक अधिकारी डा विजय अग्रवाल का एक बहुत ही अच्छा लेख पढ़ा था, उस के एक एक शब्द पर गौर करने की ज़रूरत है ..

मैंने सोचा कि उस की क्लिपिंग ब्लॉग पर शेयर करूंगा...शायद टैक्नीकली मैं इतना साउंड हूं नहीं...अभी इस लेख को ऑनलाइन देखा तो सोचा कि लिंक ही शेयर करते हैं...तो जनाब यह रहा इस लेख का लिंक ... हिंदी के नाम पर मजाक 
लेकिन सोच रहा हूं कि अगर आप के डिवाईस पर यह लिंक नहीं खुला तो ...उस का प्रबंध इस तरह से कर दूंगा कि मेरे लेख के नीचे जो फिल्मी गाना रहेगा ..उस के बाद मैं इस लेख का टैक्स्ट कॉपी कर दूंगा... ठीक है, खुश?

जब से मैंने इस लेख को पढ़ा है मैं इस समस्या से रू-ब-रू हो पाया कि यूनियम पब्लिक सर्विस कमीशन जैसी नामचीन संस्था में हिंदी भाषा के साथ क्या सलूक हो रहा है...पहले तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ...फिर मुझे यह ध्यान आया कि हम लोग बहुत वर्षों तक जब दिल्ली की शाहजहां रोड़ पर यूपीएससी के दफ्तर की तरफ़ से निकला करते तो बीस-तीस युवक एक तंबू गाड़ कर हमेशा प्रदर्शन करते या धरने पर बैठते दिखते ...धीरे धीरे समझ में आ गया कि वह इस बात पर रुस्वा हैं क्योंकि यूपीएससी की प्रतियोगी परीक्षाओं में हिंदी मीडियम लेने की अनुमति नहीं है...

फिर कुछ साल पहले यह समस्या तो सुलट गई लेकिन क्या खाक सुलटी?....इस दैनिक जागरण वाले लेख को पढ़ कर तो आप को भी आभास हो ही गया होगा कि यह तो हिंदी मीडियम वालों का वह हाल हो गया ...आसमान से गिरे, खजूर में अटके...इस जेन्यून समस्या का हल शीघ्र निकलना चाहिए...लेख में हिंदी के उदाहरण पढ़ कर तो मेरा भी सिर घूम गया..शुक्रिया जागरण, इस तरह की समस्या की तरफ़ देश का ध्यान आकर्षित करने के लिए ...वरना, मेरे जैसे लोग तो इसी बात से आश्वस्त थे कि चलिए, हिंदी को इन परीक्षाओं में मान्यता मिल गई, इस का मतलब सब ठीक है ....

हिंदी के बारे में अकसर हम लोग सरकारी चिट्ठीयां देखते रहते हैं कि इसे जितना हम लोग बोलचाल की भाषा के रूप में इस्तेमाल करेंगे उतना ही यह लोकप्रिय होती चली जायेगी...लोग इसे सरकारी काम काज में अपनाने लगेंगे... यह क्या बात हुई कि आप कोई चिट्ठी पढ़ रहे हैं और आप को कईं शब्दों के लिए शब्दकोष की मदद लेनी पड़ रही है ...

मुझे यह समझ नहीं आती कि लिखने वाली हिंदी आखिर इतनी क्लिष्ट लिखी ही क्यों जाए कि पढ़ने वाले को समझ ही न आए...पहले मैं सोचा करता था कि हिंदी वह है जो एक प्राईमरी स्कूल तक गये हों ( जी हां, सिर्फ़ गये ..पास या फेल से कोई खास फर्क नहीं पड़ता, अब तो वैसे भी फेल करने का रिवाज ही खत्म हो गया है...सब पास ही हैं!!).... वे भी हिंदी में लिखा कुछ भी पढ़ लें, अब लगता है कि वे ही नहीं जिन लोगों को साक्षरता मिशन के अंतर्गत पढ़ाया गया है वे भी हिंदी के लेखों का आनंद ले सकें....वही सार्थक हिंदी है, वरना तो बेकार में हम लोग भारी-भरकम शब्दों का बोझा ढोते ढोते खुद भी परेशान होते हैं और दूसरों को इंप्रेस करने के चक्कर में गुड़-गोबर कर देते हैं...है कि नहीं?

 मुझे अभी एक ब्लॉगर मित्र का ध्यान आ रहा है ...श्री अनूप शुक्ल जी...इतना बढ़िया लिखते हैं ...और इतनी सादगी से ...मैं क्या सारा हिंदी जगत इन के लेखन का मुरीद है ...कुछ सप्ताह पहले ही इन की एक किताब बेवकूफ़ी का सौंदर्य भी यहां लखनऊ में रिलीज़ हुई थी ..मुझे भी वहां जाने का सौभाग्य मिला था...लिखने में इतनी सादगी लेकिन फिर भी गहराई ..इन के ब्लॉग का मैं यहां लिंक दे रहा हूं...यह बहुत अच्छे व्यंग्यकार भी है ं...फुरसतिया ब्लॉग   (http://fursatiya.blogspot.in/) मैं इन्हें २००७ से निरंतर पढ़ रहा हूं ...इन का ब्लॉग नहीं है यह, एक पाठशाला है ...जैसे यह कहते हैं कि मजाक मजाक में मैंने किताब लिख दी... मुझे लगता है अगर आप इन के ब्लॉग को नियमित देखेंगे तो आप को बहुत आनंद मिलेगा..मैंने इन्हें पढ़ पढ़ कर अपनी हिंदी में सुधार करने की कोशिश करता रहता हूं..(आप ठीक सोच रहे हैं, आप को नहीं दिखता नहीं, मेरे को भी लगता नहीं, लेकिन शेखी बघारने में क्या जाता है!...मुझे पता है मेरी हिदी में बहुत गल्तियां होती हैं, लेकिन क्या करें, मन की बात कह लेते हैं इतना ही काफ़ी है, मेरी दादी मुझे नहीं पता कितनी पढ़ी थीं ...लेकिन ४०-४५ साल पहले हम सब को उन के हस्तलिखित पोस्टकार्ड को पाने पर जो खुशी होती थी, वह मैं ब्यां नहीं कर सकता...हिंदी के एक एक हिज्जे को अलग अलग जोड़ कर लिखा हुआ ख़त...पिता जी को हिंदी नहीं आती थी, वे तो हमें उसे बार बार सुनाने को कहा करते और अपने तकिये के नीचे ही कईं बार रख लिया करते ....यह होती है संप्रेष्णीयता की ताकत ...)

हां, तो मैं दैनिक जागरण लेख के शीर्षक की बात कर रहा था कि यूपीएससी की परीक्षाओं में इस तरह की हिंदी का प्रयोग केवल एक मजाक ही नहीं लगता, मुझे तो डर है कि कहीं इस के पीछे कुछ ऐसी शक्तियां तो नहीं हैं जो हिंदी मीडियम वाले छात्रों के पीछे अब इस तरह से पड़ी हुई हैं...हो भी सकता है, सब कुछ संभव है....अध्ययन का मुद्दा तो है ही यह! वरना इस तरह की परेशानियों का तुरंत समाधान ढूंढा जाना चाहिए..

और रही बात हिंदी के नाम पर मजाक की बात, जनमानस की इस सुंदर भाषा से जो कश्मीर से कन्याकुमारी को एक माला में पिरो कर रखे हुए है...इस से मज़ाक करने की हिमाकत करने वाले स्वयं ही मजाक के पात्र बनेंगे ... आज से ३५ साल पहले जब एक दूजे के लिए फिल्म देखी थी तो पता चला था कि देश के कुछ हिस्सों में लोग हिंदी नहीं समझ पाते ...लेकिन उस फिल्म में भी इस मुद्दे को बेहद संवेदनशीलता के साथ ट्रीट किया ...


अच्छा, अब क्या रह गया? ..हां, सुबह के भ्रमण की चंद तस्वीरें और सुप्रभात कहने की औपचारिकता ... चलिए, वह भी निभाए देते  हैं...



आप को दिन इस फूल की तरह खुशनुमा हो !!

यार,  अब तू भी थोड़ी अकल से काम ले...हिंदुस्तान बदल रहा है!
नेट पर यह इमेज छाया हुआ है, जब भी देखता हूं मुझे बड़ी हंसी आती है ...सोचा हंसी की बौछार आप तक भी पहुंचा ही दूं आज ... 

हिंदी के नाम पर मजाक ... 
हिंदी पखवाड़े के इन दिनों में थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कि आप 'हिंदी भाषी राज्य मध्य प्रदेश में पैदा हुए हैं और तब से लेकर अब तक संस्कृत के महान कवि कालिदास की नगरी उज्जैन में रह रहे हैं। आपने वहीं के विक्रम विश्ववद्यालय से हिंदी साहित्य में स्वर्ण पदक के साथ हिंदी साहित्य में एमए एवं बाद में हिंदी पर संस्कृत 'भाषा का प्रभाव' विषय पर पीएचडी की है। फिर आपने भारत सरकार में हिंदी अधिकारी के पद के लिए आवेदन दिया है। संघ लोक सेवा आयोग इसके लिए एक प्रतियोगी परीक्षा आयोजित करता है, जिसमें वह आपके हिंदी भाषा के ज्ञान को जांचने के लिए आपको एक प्रश्नपत्र देता है। उस पेपर में आपसे कुछ इस तरह के प्रश्न पूछे जाते हैं-(1) निम्न शब्दों के अर्थ समझाएं- बहुशाखन, प्रायिकता, वृत्तिक सेवा, अवक्रमण, प्रतिच्छेदन-स्थल, सुप्रचालनिका एवं अभिसमय। (2) 'पिछड़े क्षेत्रों में बड़े उद्योगों का विकास करने के सरकार के लगातार अभियानों का परिणाम जनजातीय जनता और किसानों, जिनको अनेक विस्थापनों का सामना करना पड़ रहा है, का विलगन है।' इसका अंग्रेजी में अनुवाद कीजिए। (3) 'जलवायु अनुकूलन अप्रभावी हो सकता है, यदि दूसरे विकास संबंधी सरोकारों के संदर्भ में नीतियों को अभिकल्पित नहीं किया जाता। उदाहरण के तौर पर एक व्यापक रणनीति, जो जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में खाद्य सुरक्षा की अभिवृद्धि करने का प्रयास करती है, कृषि प्रसार, फसल विविधता, एकीकृत जल एवं पीड़क प्रबंधन और कृषि सूचना सेवाओं से संबंधित उपायों के एक समुच्चय को सम्मिलित कर सकती है।' इस वाक्य का सरलीकरण कीजिए। आपको क्या लगता है कि आप इस परीक्षा में चुन लिए जाएंगे, जबकि आपकी पृष्ठभूमि वह है जो शुरू में दी गई है? मेरे इस एक सामान्य से व्यावहारिक प्रश्न पर विचार कीजिए कि क्या ऐसी हिदी से कहीं भी, कभी भी आपकी मुलाकात हुई है- पढऩे में या सुनने में भी। अगला सवाल है कि यह कहां की और किसकी हिंदी है- सरकारी परिपत्रों की, संविधान की, एनसीईआरटी की किताबों की, सिनेमा की, टीवी की, अखबारों की आदि-आदि। आपका उत्तर होगा-इनमें से किसी की भी नहीं। तो फिर यर्ह ंहदी आई कहां से है? 
यह हिंदी हमारे देश के शीर्ष नौकरशाहों की भर्ती करने वाली एजेंसी यूपीएससी की हिंदी है। और उस परीक्षा के प्रश्नपत्रों र्की ंहदी, जिसके जरिए वह इस देश को आइएएस, आइएफएस, आइपीएस तथा अन्य बड़े-बड़े ब्यूरोक्रेट्स देती है। यह हिंदी नहीं, हिंदी वालों के साथ-साथ सभी भारतीय भाषाओं के साथ संघ लोक सेवा आयोग द्वारा किया जाने वाला एक मजाक है। 1979 में इस आजाद भारत को इस बात की आजादी मिली थी कि परीक्षार्थी सर्वोच्च सिविल सेवा परीक्षा अपनी भाषा में दे सकेंगे, लेकिन प्रश्नपत्र केवल दो ही भाषाओं में दिया जाएगा-अंग्रेजी और हिंदी में। जाहिर है कि भाषा को लेकर अंग्रेजी वालों को न तो पहले कोई समस्या थी और न ही आज है। हां, उनका वर्चस्व जरूर टूटा है। 
इसके बाद के लगभग पच्चीस सालों तक की इसकी हिंदी ठीक-ठाक ही रही, हालांकि वह भी कोई सुगम हिंदी नहीं थी। लेकिन पिछले लगभग दस सालों में तो कमाल ही हो गया है। लगता है कि यूपीएससी ने किसी ऐसे ग्रह की खोज कर ली है जहां ऐसी हिंदी बोली और समझी जाती है। वस्तुत: इसका प्रभाव यह हो रहा है कि हिंदी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषा के परीक्षार्थी पेपर में दी गई हिंदी को समझने में ही बुरी तरह उलझ जाते हैं, जबकि परीक्षा में समय का दबाव इतना अधिक रहता है कि आप एक मिनट भी जाया करना बर्दाश्त नहीं कर सकते। क्षेत्रीय भाषा वाले इस संकट में इसलिए भागीदार बनते हैं, क्योंकि यदि उन्हें अंग्रेजी आ रही होती तो वे उसे ही अपना माध्यम चुन लेते। अंग्रेजी उन्हें आती नहीं और हिंदी ऐसी कि वह समझ में नहीं आ रही है। अंग्रेजी के साथ ऐसा नहीं है कि वहां हिंदी की तरह ही पुराने लैटिन, ग्रीक या बाइबल की भाषा से शब्द खोज-खोजकर ठूंसे जाएं। अंग्रेजी की भाषा वह भाषा होती है, जिसे वे पढ़कर स्नातक बनते हैं और रोजाना अखबारों में भी पढ़ते हैं। सच यह है कि यही वह प्रारंभिक स्थिति है, जब प्रतियोगिता के लिए सभी को समान धरातल उपलब्ध कराए जाने का मूल सिद्धांत ध्वस्त हो जाता है। यदि आपको मेरी बातों पर यकीन न हो रहा हो, तो कृपया आप किसी भुक्तभोगी से पूछ लीजिए। आप उसे खून के आंसू रोते हुए पाएंगे। 
अंगेजी के लिए जब हिंदी के कई शब्द व्यवहार में आ गए हैं तो उनका उपयोग न करके न जाने कहां की टकसाल से नए-नए शब्दों को ढालने की कारीगरी का उद्देश्य आखिर क्या है? उदाहरण के लिए 'पेरिस कांफ्रेंस' इसकी हिंदी है-पेरिस अभिसमय। जबकि शब्दकोष तक में इसके लिए सम्मेलन शब्द दिया हुआ है और इसका खूब उपयोग भी होता है। यूपीएससी के गूगल महाशय अपने ही अनुवाद में कहीं 'प्रोफेशनल' के लिए 'संव्यावसायिक' शब्द ले आते हैं तो कहीं 'वृत्तिक'। हद तो तब हो जाती है जब आपकी मुलाकात 'मेगा-सिटी' की हिंदी 'विराट-नगर' (महानगर नहीं) 'एनिहिलेशन आफ कास्ट' की जगह 'जाति-विनाश' तथा 'डिस्प्यूट रिसोल्यूशन मैकेनिज्म' के बदले 'विवाद समाधान यांत्रिकत्व' से होती है। इस 'यांत्रिकत्व अनुवाद' ने परीक्षार्थियों के दिमाग में दम कर रखा है। इन सबसे कुछ बातें तो बिल्कुल साफ हैं। पहला यह कि आयोग को हिंदी से कुछ लेना-देना नहीं है। वह इसे मजबूरी में ढोये हुए है। दूसरा यह कि वह न केवल भाषाई असंवेदनशीलता से ग्रस्त है, बल्कि अंग्रेजी के अतिरिक्त अन्य सभी भाषाओं के प्रति दुराग्रही-पूर्वाग्रही भी है। तीसरे यह कि हिंदी के बारे में उसके पास अनुवाद की कोई एक नीति नहीं है। चौथे यह कि एक बार जो अनुवाद हो जाता है उसे देखने वाला वहां कोई नहीं है। इस तरह र्की ंहदी को लेकर युवाओं में एक अजीब किस्म की मूक छटपटाहट है, जो धीरे-धीरे आक्रोश का रूप लेने की ओर बढ़ रही है। फिलहाल मोदीजी की सरकार से ये नौजवान अपेक्षा कर रहे हैं कि वे इस भाषाई भेदभाव को दूर करेंगे। 'सी सेट' के मामले में ऐसा करके वे सदाशयता का परिचय दे चुके हैं। 
[ लेखक डॉ. विजय अग्रवाल, पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं ]
साभार ... दैनिक जागरण, ११ सितंबर, २०१६  





रविवार, 11 सितंबर 2016

डेंगू के बारे में ज़रूरी बातें ...


कुछ समय पहले हमारी CMS मैडम ने किंज जार्ज मैडीकल यूनिवर्सिटी के सौजन्य से डेंगू के बारे में एक महत्वपूर्ण जानकारी भेजी है व्हाट्सएप पर ...मुझे यह जानकारी बहुत उपयोगी लगी तो मैंने सोचा कि इस का हिंदी अनुवाद कर के अपने ब्लॉग पर शेयर करता हूं...फिर लगा,  उसमें समय लग जायेगा...इस पोस्ट को तो जस का तस ही शेयर करते हैं, और यह कंटैंट हिंदी में भी पाठकों तक पहुंचे उस का भी कुछ उपाय करते हैं...

आप इसे पढ़ लीजिए, जितनी बात समझ में आए ठीक है, परेशान मत होइए...लेकिन इस में जो अहम् बातें हैं वे तो आप समझ भी जाएंगे ..कुछ कुछ बातें चिकित्सकों के लिए हैं...

सच में प्लेटलेट्स की कमी तो एक ऐसी बात हो गई है कि लोग सुबह-शाम टहलते हुए इस तरह की बाते ंकरने लगे हैं..मेरे प्लेटलेट्स इतने हैं तो उस के इतने...अब इस तरह की भ्रांतियां होती हैं तो  CMS मैडम वाली इस पोस्ट जैसी विश्वसनीय जानकारी तो बहुत कम जगहों से मिलती है ..लेकिन इन मौकों का फायदा उठाने वालों और लोगों के खौफ़ को भुनाने वालों का तांता लग जाता है ...

अभी मैं मैडम की यह पोस्ट देख रहा था तो मुझे याद आया कि मैंने डीडी न्यूज़ के टोटल हैल्थ प्रोग्राम में भी कुछ एम्स और दिल्ली के आरएमएल अस्पताल के वरिष्ठ प्रोफैसरों को भी इस पर चर्चा करते सुना था ..कुछ दिन पहले ...बहुत बढ़िया कार्यक्रम था...प्लेटलेट्स की कमी जैसी भ्रांतियां का और अफतातफरी के बारे में चर्चा कर रहे थे...

मैं अकसर इस प्रोग्राम की प्रशंसा किया करता हूं ...और एक बढ़िया बात यह कि ये लोग उस प्रोग्राम को यू-ट्यूब चैनल पर भी अपलोड कर देते हैं...मैंने ढूंढने की कोशिश की .. उस दिन वाला एपीसोड तो नहीं मिला .. लेकिन आज का एपिसोड डेंगू चिकनगुनिया पर ही मिल गया ...यह प्रोग्राम रविवार के दिन सुबह डीडी न्यूज़ पर प्रसारित किया जाता है ..

अच्छा, यह जो आप इंगलिश में नीचे देख रहे हैं, यह तो सीएमएस मैडम ने शेयर किया है ...और इसी बात को सप्लीमेंट करने के लिए मैं यू-ट्यूब का आज का टोटल हेल्थ एपीसोड भी एम्बेड किये दे रहा हूं...अगर कुछ बातें इंगलिश वाली आपके सिर के ऊपर से निकल भी गईं तो गम नहीं, आप नीचे एम्बेडेड वीडियो को देख कर बिल्कुल सटीक जानकारी देश के नामचीन अनुभवी चिकित्सकों के वार्तालाप से कर सकते हैं ...मुझे यह पोस्ट करने की इतनी जल्दी है कि मैंने भी इस वीडियो को अभी तक नहीं देखा, लेकिन अभी देखूंगा...आप भी ज़रूर देखिएगा...



एक बात और याद आ गई ...आज सुबह हमारे सत्संग भवन में साप्ताहिक सत्संग कि लिस्ट के साथ साथ यह नोटिस भी लगा हुआ था...जहां तक मेरा ज्ञान है इस तरह की कोई दवाईयां नहीं हैं ...इसलिए इस तरह की बातों में न आएं...एक बात है, मेरी भी न मानिए, आप अपने मैडीकल स्पेशलिस्ट या फैमली डाक्टर से चर्चा ज़रूर करिए...इस तरह के किसी भी क्लेम की प्रामाणिकता का पता लगाने के लिए....कुछ दिन पहले हम लोगों के सत्संग ग्रुप में भी किसी ने लिख भेजा था कि डेंगू से बचने के लिए फलां फलां दवाई ले लीजिए...वहां तो मैंने तुरंत लिख दिया था कि इस तरह की सूचना आगे मत शेयर करिए... प्रशिक्षित अनुभवी चिकित्सक से परामर्श करना ही होगा...वरना वही बात ..नीम हकीम खतराए जान!

Platelet deficiency is not the cause of death in people suffering from Dengue

According to International guidelines, unless a patient’s platelet count is below 10,000, and there is spontaneous, active bleeding, no platelet transfusion is required. The outbreak of dengue in the City and Hospital beds are full and families are seen running around in search of platelets for transfusion. However what most people do not realize is that the first line of treatment for dengue is not platelet transfusion. It, in fact, does more harm than good if used in a patient whose counts are over 10,000.

The primary cause of death in patients suffering from dengue is capillary leakage, which causes blood deficiency in the intravascular compartment, leading to multi-organ failure. At the first instance of plasma leakage from the intravascular compartment to the extravascular compartment, fluid replacement amounting to 20 ml per kg body weight per hour must be administered. This must be continued till the difference between the upper and lower blood pressure is over 40 mmHg, or the patient passes adequate urine. This is all that is required to treat the patient. Giving unnecessary platelet transfusion can make the patient more unwell.

“While treating dengue patients, physicians should remember the ‘Formula of 20' i.e. rise in pulse by more than 20; fall of BP by more than 20; difference between lower and upper BP of less than 20 and presence of more than 20 hemorrhagic spots on the arm after a tourniquet test suggest a high-risk situation and the person needs immediate medical attention.”

Dengue fever is a painful mosquito-borne disease. It is caused by any one of four types of dengue virus, which is transmitted by the bite of an infected female Aedes aegypti mosquito. Common symptoms of dengue include high fever, runny nose, a mild skin rash, cough, and pain behind the eyes and in the joints. However, some people may develop a red and white patchy skin rash followed by loss of appetite, nausea, vomiting, etc. Patients suffering from dengue should seek medical advice, rest and drink plenty of fluids. Paracetamol can be taken to bring down fever and reduce joint pains. However, aspirin or ibuprofen should not be taken since they can increase the risk of bleeding.

The risk of complications is in less than 1% of dengue cases and, if warning signals are known to the public, all deaths from dengue can be avoided.

DENGUE NS1-Best test is NS1
Cannot be false +ve
Is + from day 1 to 7 ideally.
If on day 1 is -ve, repeat it next day.
Always ask for ELISA based NS1 tests as card tests are misleading.

Value of IgG & IgM dengue-
In a pt with reduced platelets and looking "sick" on day 3 or 4 of illness, a very high titre of IgG with borderline rise in IgM signifies secondary dengue. These pts are more prone to complications.
In primary dengue IgG becomes + at end of 7 days, while IgM is + after day 4.

Immature Platelet fraction/IPF
A very useful test in Dengue for pts with thrombocytopenia.
If IPF in such a pt is > 10%, despite a pl count of 20, 000 he is out of danger & platelets will rise in 24 hrs
If its 6%, repeat the same next day. Now if IPF has increased to 8% his platelets will certainly increase within 48 hrs.
If its less then 5%, then his bone marrow will not respond for 3-4 days & may be a likely candidate for pl transfusion.
Better to do an IPF even with borderline low platelet count.

A low Mean Platelet volume or MPV means platelets are functionally inefficient and such patients need more attention.**

डूबो या मरो, लेकिन घर खरीदने वालों का पैसा लौटाओ

दो तीन दिन पहले मैं कुछ घंटों के लिए दिल्ली में था...कईं दिन से अखबार नहीं देखी थी, अखबार खरीदी और मैट्रो में बैठ कर जैसे ही पढ़ने के लिए पहले पन्ने पर नज़र टिकी तो मेरा तो दिन बन गया...

सुप्रीम कोर्ट के इतने बढ़िया बढ़िया फैसला आ रहे हैं ..आम आदमी के हितों की रक्षा के लिए...

नोएडा के एक बिल्डर को फटकार लगाई सुप्रीम कोर्ट ने कि तुम्हारी हालत कैसी भी है, हमें कुछ लेना देना नहीं उस से ...बस, तुम डूबो या मरो, लेकिन मकान खरीदने वालों का पैसा वापिस करो..

लोग कहते हैं कि ज्यूडिशियरी ज़्यादा हस्तक्षेप करने लगी है .. लेकिन मेरा मानना यह है कि अगर देश की सर्वोच्च स्तर पर देश की न्यायपालिका इतनी सचेत न हो तो रसूखदार लोग छोटे छोटे बंदों को तो पैरों तले रोंदना शुरू कर दें..

कितना मुश्किल होता है कोई घर खरीदना..हम दोनों जॉब में हैं...एक मेट्रो में एक ठीक ठाक फ्लैट लेना चाहते हैं..(घर नहीं, फ्लैट) ..लेकिन कीमत करोड़ों में है...इतना काला होना चाहिए, इतना सफेद होना चाहिए..हमें नहीं आता यह सब कुछ करना...ऐसे में मैं बहुत बार सोचता हूं कि अगर हमारे स्तर पर यह हाल है तो जो लोग अपने लिए एक छोटे-मोटे आशियाने का जुगाड़ कर लेते हैं ..उन की सच में बड़ी हिम्मत है ....अगर किसी शातिर बिल्डर रूपी अजगर से वे बच पाएं तो ....

सुप्रीम कोर्ट के इन फैसलों की भरपूर प्रशंसा की जानी चाहिए...


अधिकांश लोग तो एक आशियाने की उम्मीद में मर-खप जाते हैं.. इसी छोटी सी हसरत को अपने मन में लिए हुए!


सुप्रीम कोर्ट जैसी शीर्ष संस्थाओं के हस्तक्षेप करने के बावजूद भी बहुत सी अड़चने हैं जमीनी स्तर पर ..लालफीताशाही की मार .. जाति पाति के भयंकर समीकरण...(इस के बारे में बात करना पाप है!) ...अब क्या क्या कहें, कहते हुए अच्छा भी नहीं लगता लेकिन अब चुप्पी भी डस लेगी ऐसा लगने लगा है ...

मुझे अभी ध्यान आ रहा है एक विभाग का ..सुप्रीम कोर्ट ने साफ साफ कहा कि तबादलों के लिए पालिसी बनाओ, दिशा-निर्देश जारी करो ...और उस का पालन करिए...तबादला पालिसी भी बन गई ... लेकिन उस का अनुपालन तो बाबू लोगों ने करना है ...अब कौन कोर्ट कचहरी में बार बार जा कर उस के दरवाजे खटखटाए कि यह नहीं हो रहा, वह नहीं हो रहा...कोर्ट कचहरी में बार बार जाना भी कौन सा आसान है, पैसा लगता है, समय की बरबादी होती है ..और फिर वही तारीख पर तारीख ...और अगर फैसला किसी के हक में आ भी जाए तो अपील ..उस के बाद फिर अपील..

बहुत सी जगह तो बस ऐसे ही आंखों में धूल झोंकी जा रही है .. फ्लैट खरीदते हुए, पेशगी देते हुए लोग डरते हैं..निर्माणाधीन फ्लैट के बारे में तो हम लोग सोच भी नहीं सकते ..हां, रेडी-टू-मूव-इन के बारे में सोचा जा सकता है ...

अभी सामने उस दिन वाली अखबार आ गई तो मन की बातें लिखनी की इच्छा हो गई, और कुछ नहीं...यहां लखनऊ में सब कुशल मंगल है ..आशा है आप भी मजे में होंगे .. बस, यहां अखबारें ही नहीं आ रही...आठ दिन होने को हैं...पता नहीं इतना कौन सा बड़ा लफड़ा है, अगर हाकर्स कहते हैं कि उन की कमीशन बढ़ा दो, बढ़ा देनी चाहिए....क्यों बात को इतना तूल दिया जा रहा है, समझ नहीं आ रहा।

धीर साहब का धीर ..

"अच्छा, डाक्टर साहब, सातवां पे कमीशन लागू हो गया है, आप की तनख्वाह कितने पर फिक्स हुई है?"...कल दिल्ली से धीर साहब का फोन आया तो उन्होंने यह जानकारी जुटानी चाहिए...कोई भी कुछ पूछे तो उस का जवाब तो ठीक देना बनता ही है न, और फिर धीर साहब जैसा इंसान तो हमारे मन की तह से भी कुछ पूछे तो भी अच्छे से उन की उत्सुकता शांत होनी चाहिए, यह प्रश्न तो कुछ भी नहीं था..

धीरे साहब ने आगे पूछा कि अच्छा, यह भी बताओ कि आप को एरियर में  कितने मिले हैं...वह भी सैंकड़े की रकम तक तो मुझे याद थी और मैंने ठीक ठीक बता दिया...और जितनी बार मुझे वह रकम रिपीट करनी पड़ी, उस से साफ़ ज़ाहिर था कि वे उसे अपनी डॉयरी में नोट कर रहे थे..

फिर कहने लगे कि डाक्टर साहब, इस का मतलब है कि उस डाक्टर (एक बड़े से घैंट बंदे का नाम लिया उन्होंने) की तो फिक्सेशन कम हुई है .....मैंने इस बात पर भी तुरंत प्रकाश डाल दिया कि उस की फिक्सेशन कम क्यों लगती होगी!

फिर मैंने उनसे अपनी मां की भी बात करवाई .... इन दोनों ने एक दूसरे का हाल चाल लिया ..और मां को मैंने कहते सुना कि धीर साहब, आप ठीक हैं ना, चलते फिरते हैं ना ?...और फिर मां ने उन्हें बताया कि धीर साहब, मैं भी अब लाठी से ही चल पाती हूं...

बहरहाल, फिर मेरे से बात हुई ... एक अधिकारी के बारे में बताते हुए खुश हो रहे थे कि अच्छा है वह पांच साल की एक्सटेंशन मिलने से पहले ही रवाना हो गया, वरना लोगों को बड़ी परेशानी होती!

अब एक ९५ जी हां, पिच्यानवें साल के बुज़ुर्ग का पे-कमीशन की फिक्सेशन, एरियर, कुछ लोगों को एक्सटेंशन न मिल पाने पर राहत महूसस करना ..कितने अद्भुत होंगे ये बुज़ुर्ग, इसीलिए आज सुबह सवेरे आप से इन का तारुफ़ करवाने का मन हुआ...कुछ न कुछ तो हमें सिखाने के लिए हरेक के पास होता है ...

धीर साहब अभी 95 साल के आसपास होंगे ..कम नहीं, इन से मेरी मुलाकात १० साल पुरानी है ...जब मेरी जगाधरी में नई नई पोस्टिंग हुई थी...यह रिटायर कर्मचारी हैं, ज़ाहिर है इलाज के लिए आते थे तो मिलते ज़रूर थे, दांतों की मुरम्मत भी इन की चलती रही ....२००६ से इन की मुझे चिट्ठीयां आनी शुरू हो गईं ...हमेशा पोस्टकार्ड भिजवाते थे ..मुझे अच्छे से याद है कि उन्हीं दिनों मेघदूत पोस्टकार्ड चले थे, २५ पैसे वाले, यह अकसर मेघदूत पोस्टकार्ड भी भिजवाते थे .. जितनी मुझे याद आ रहा है कि कईं बार मैं भी उस का जवाब लिख भेजता था...और फिर जब मोबाइल की तूती बोलने लगी तो मैं फोन पर ही इन की चिट्ठी की पावती इन्हें भिजवा दिया करता ...फिर धीरे धीरे इन के ख़त आने लगभग बंद से हो गये...

लेकिन ये नियमित अस्पताल में आया करते थे ....किसी भी काम से आते तो मिल कर ज़रूर जाते... उन दिनों ये  ८५ साल की उम्र तो पार कर ही चुके थे ...सेहत ठीक ठाक ही थी, लेकिन इन की श्रीमति जी कैंसर से ग्रस्त थीं, वे भी महिला मोर्चा से जुड़ी हुई थीं, अकसर वे बताया करती थीं, सहज स्वभाव की महिला थीं वह भी ..

ये दोनों मियां-बीवी यमुनानगर में एक भव्य घर में रहते थे...मस्त थे ...खुश थे...धीर साहब तो बहुत से सामाजिक कामों से भी जुड़े रहे....लोगों के आंखों के फ्री-आप्रेशन करवाना, ज़रूरतमंदों में कपड़े बांटना, विधवाओं में राशन बांटना,  सिविल अस्पताल के मरीज़ों में खाना बांटना, वहां मरीज़ों में दूध पहुंचा कर आना....इन के पास करने को बहुत कुछ था...हर समय व्यस्त ... और सारा काम अपने साईकिल पर ....बहुत से समाजसेवी लोगों के साथ ये जुड़े हुए थे और सारा काम निष्काम भाव से करते थे...यह कोई कहता नहीं है, लेकिन ताड़ने वाले ताड़ जाते हैं...

धीर साहब कुछ बार घर भी आए और अपने यहां आने के लिए भी बहुत कहा करतेे थे... एक दिन गर्मी की दोपहरी में मैं बर्फी-समोसे लेने गया बाज़ार में तो इन का घर पास में ही था, वहां रुक गया... मुझे इन की दिनचर्या देख कर बहुत खुशी हुई...हालांकि उन दिनों इन की श्रीमति जी की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी लेकिन फिर इन की मेहमाननवाज़ी मन को छू गई...

हां, समोसे-बर्फी से याद आया कि ये शहर का एक चलता फिरता एन्साईक्लोपीडिया थे, कहां से समोसे, कहां से राशन और कहां से क्या मिलना है, ये हमेशा बताते रहते .. हर जगह इन का सम्मान होता था, एक बार हम लोग इन के साथ राशन लेने इन की रिक्मैंडिड दुकान पर चले गये ...लेकिन वहां की भीड़ ...अगली बार से तौबा कर ली हमने।

अपनी सेहत को ठीक रखने का हर जुगाड़ इन के पास था... सुबह उठ कर कौन कौन से पत्ते उबाल कर पीने, फिर दलिया फिर जूस, फिर हल्का खाना और सुबह व्यायाम करना , योगाभ्यास करना .. लोगों को चिट्ठीयां लिखनी, फोन करने...और परहित के किसी भी काम में मस्त रहना इन की दिनचर्या में शुमार था...


धीर साहब, अब आप के ऊपर तो मैं लिखता ही जाऊंगा... कागज़़ कम पड़ेंगे...आप का उत्साह और आप के चेहरे पर हमेशा छाई रहने वाली मुस्कुराहट....क्या कहने.....हां, किसी विधवा की पेंशन का कोई लफड़ा हो तो ये बैंक में उसे जा कर निपटवा देते, किसी को इलाज पर किए गये पैसे न मिल रहे हों तो ये बाबू लोगों की खिंचाई कर देते ...लेकिन प्यार से ... और अपने पैसे नहीं मिले तो इन्होंने केस भी किया ...सुनाया करते थे ... लेकिन फिर यह थक से गये और इस के बारे में बात नहीं करते थे .
पांच छः साल पहले बीवी के रुख्सत होने के बाद कुछ समय के लिए तो ये अकेले अपने घर में रहते रहे लेकिन फिर इन के बेटों और बेटी जो दिल्ली गुड़गांव में रहते हैं,  इन्हें इन की उम्र की वजह से उन्होंने अकेले रहने नहीं दिया...मकान बेच दिया गया ..शायद उन दिनों एक करोड़ के आसपास बिका था...इन्होंने दिल्ली के द्वारका में अपनी बेटी के पास ही एक फ्लैट लिया हुआ है, मस्त रहते हैं ...हमारे घर के हर सदस्य के जन्मदिन, शादी की सालगिरह....ऐसे हर दिन इन का सुबह फोन आता है ... और बहुत अच्छा लगता है ..

इन्हें यह सब याद कैसे रहता है इतना कुछ?....मैंने बताया न कि एक दिन मैं इन के यहां गया तो मैंने देखा कि इन्होंने बहुत सी डॉयरीयां लगाई हुई हैं....डायरी के हर पन्ने के ऊपर उस दिन का लेखा-जोखा लिखा कि फलां फलां दिन मेैंने क्या क्या किया, कहां कहां गया, किस का फोन आया और क्या बात हुई! और रंग बिरंगी स्याही से यह सब लिखा हुआ था....मेरी उस दिन की विज़िट भी उन्होंने दर्ज कर दी थी अपनी डॉयरी में ...सीधी सी बात है यार कि वे इस सब में व्यस्त रहते थे ...मस्त रहते थे .. कोई व्यसन नहीं, बिल्कुल.....दिल खोल कर हंसना और हंसाना ...

हां, एक बात और ...एक डॉयरी में सभी परिचितोंं के परिवार वालों के जन्मदिन, शादी की सालगिरह का ब्योरा लिखा रहता था ...मैं उस दिन देख कर दंग रह गया..हमारे विभाग में कौन कब रिटायर होने वाला है, कौन हो गया और नया कौन उस कुर्सी पर टिकेगा ...उतना रिकार्ड हमारे प्रधान कार्यालय में शायद न हो, इन के पास और इन की यादाश्त में सब दर्ज मिलेगा...इन के किसी पुराने परिचित को घैंट से कुर्सी मिल जाए तो बधाई देने वालों में इन का नंबर सब से पहला होता....किसी तरह की झिझकता की तो ऐसी की तैसी ...हरेक से सीधा वार्तालाप...

शायद यही सादगी ...यह सहजता ...आज समाज से कहीं लुप्त होती जा रही है, हम लोग हर बात को स्वार्थ के तराजू में तोलने लगे हैं ...रही बात हर बात को डॉयरी में लिखने की ... अपने अपने मन की मौज है, अगर इन्हें इस में आनंद मिलता है, तो हमारा क्या ले रहे हैं....मैं भी यही करता हूं सारा दिन, अपने अनुभव अपने ब्लॉग पर दर्ज करता रहता हूं, धीर साहब भी तो एक ब्लॉगिंग ही कर रहे हैं ...ऑफ-लाईन ही सही ...


हां, एक बात और ...इन का एक पोस्टकार्ड है मेरे पास अभी भी, ये जब द्वारका चले गये तो इन्होंने वहां से अपना पता लिखा था, मेरी स्टडी-टेबल के शीशे के नीचे ही पड़ा हुआ है .. इसे देखते ही इन की याद आ जाती है ... हां, पिछले सालों में ये अपने पोस्टकार्ड में सत्संग की तारीख और स्थान भी बताया करते थे ...एक बार हम वहां हो कर भी आये थे...

अच्छे इंसान धीर साहब, हंस कर मिलना, हंसना हंसाना, मिलना-जुलना, दुःख-सुख बांटना, किसी के काम आना....संत लोग वही नहीं होते जिन्हें उपाधियां मिलती हैं, हमारे आस पास रहने वाले ये लोग भी निःसंदेह संत ही हैं..... जियो, धीर साहब, जुग जुग जियो.... १२० साल से भी ऊपर जियो, ईश्वर आप को ऐसे ही चलता-फिरता...टनाटन रखे .. मेरी शुभकामनाएं....मैंने कल आप को कहा था कि मैं आप को चिट्ठी लिखूंगा...कल ही इस लेख की एक कापी निकाल कर आप को भिजवाता हूं और जल्दी ही आप को दिल्ली में मिलूंगा भी ज़रूर... आप जैसे महान लोग हर लिहाज़ से प्रेरणा-स्रोत हैं...

लेकिन मेरी लापरवाही की इंतहा देखिए कि मुझे इन के जन्मदिन की तारीख नहीं पता लेकिन कल यह जब फोन कर रहे थे मुझे यह कह रहे थे कि अगर कभी मेरा फोन नहीं भी मिले तो मेरी बिटिया का नंबर भी लिख कर रख लो ...और मैंने उसे भी लिख लिया..


शनिवार, 10 सितंबर 2016

और चोर भाग निकला..

आज मैं ड्यूटी पर जा रहा था तो देखा कि लखनऊ के फतेहअली चौराहे पर एक प्राईवेट बस रुकी हुई है ..पहले तो एक २०-२५ साल का युवक तेज़ी से भागता हुआ दिखा .. उस के पीछे बिल्कुल मेरे जैसा तोंदू-तोतला कंडक्टर, अब उस से कहां भागा जाए...हांफ रहा था ...मैं जल्दी में था,  परिणाम जानने के लिए नहीं रूका...लेकिन मुझे इस बात में बिल्कुल भी संदेह नहीं कि वह युवक आराम से भाग गया होगा...

युवक बहुत गरीब, फटेहाल लग रहा था ... भूखा-प्यासा और बदहाल भी..

बेशक चोरी छोटी हो या बड़ी, चोरी तो चोरी ही है...सज़ा तो मिलनी ही चाहिए.. लेकिन दुःख तब होता है जब बड़े बड़े चोर जिन्होंने करोड़ों-अरबों अंदर किया होता है वे तो लूट के माल के साथ देश से बाहर ही भाग जाते हैं..कभी न लौटने के लिए ..और इन छोटे छोटे चोरों पर कईं कईं दफाएं लगा के इन्हें अंदर कर खस्सी कर दिया जाता है ...

ये तो हुए दो तरह के चोर .. लेेकिन और भी अनेकों तरह की चोरियां तो चल ही रही हैं, अब क्या क्या गिनाएं...अगर मैं चंद मिनट भी अपनी ड्यूटी पर देर से गया तो यह भी एक तरह की चोरी ही हुई ...है कि नहीं?

 कुछ साल पहले एक किस्सा सुना था (यह सच बिल्कुल नहीं है) ...एक महिला अधिकारी अपने सीनियर के घर Courtesy visit के लिए गई तो उस के लिए एक रेडीमेड कमीज ले गई ..उसे दरअसल देश के एक कोने से दूसरे कोने में तबादला चाहिए था .. और कुछ ही दिनों में उस का यह काम हो गया...कहते हैं (सुनी सुनाई बात है!) कि जब लोग उस से पूछते कि इतनी आसानी से यह कैसे हो गया, तो वह हंसते हुए कहती कि सर को मिल कर आई थी, एक लूईस-फिलिप्स की शर्ट ले गई थी..

अब दूसरा किस्सा सुनिए...(यह भी बिल्कुल सच नहीं है)...एक अधिकारी को एक शहर से दूसरे शहर में तबादला चाहिए था ..यह किस्सा पांचवे  वेतन आयोग के एरियर के भुगतान के दिनों का है ..कहने वाले कहते हैं, दोस्तो, कि उस का तबादला करने वाला उस का सारा एरियर निगल गया ...निगल गया मतलब कि उसे जा कर वह सारा पैसा उस को दक्षिणा के रूप में देना पड़ा..तब कहीं जाकर उस का काम हो पाया..

और एक किस्सा सुनिेए...(यह भी सच नही है) ...एक अधिकारी को बार बार लोगों की बदली करने और बाद में रद्द करने का चस्का लग गया...पहले तो वह अपने दलालों के जरिए यह फीलर्ज़ भिजवा देता कि फलां फलां जगह जाना चाहोगे...अब समझदार और प्रैक्टीकल लोग तो तुरंत दान-दक्षिणा लेकर उस के पास पहुंच जाते .. जो बेवकूफ होते, वे चुपचाप रहते और उन के तबादले के आदेश जारी हो जाते और फिर उन को निरस्त करवाने के लिए उन की दक्षिणा भी ज़्यादा देनी पड़ती और जिल्लत भी सहनी पड़ती ..

ये सब धंधे फिट है ंआजकल, ऐसा सुना है, मैं नहीं कह रहा हूं....ऐसे ही किस्से हैं, ..लोग तो कुछ भी मनघडंत बातें फैला देते हैं...लोगों का क्या है!!

लेकिन यह तो दोस्तो आप भी मानोगे कि छोटी चोरी वाले की बजाए बड़ी चोरी करने वाले ज्यादा अकलमंद, ज़्यादा शातिर, ज़्यादा खुराफाती, कहीं ज़्यादा दुष्ट होते हैं.... लेेकिन हाल छोटे मोटे चोर की ऐसी होती है ...देखते हैं आप भी मीडिया में कि किस तरह से एक बार ऐसा छोटा मोटा चोर पकड़ा जाए तो सारी पब्लिक उस पर  अपनी मर्दानगी की छाप छोड़ देना चाहती है .. मार मार के लहुलूहान कर देती है अलग ...पुलिसिया कार्रवाई सो अलग ...या तो एक काम कर लो, अगर लहुलूहान कर ही दिया है तो यह भी एक सबक है, छोड़ दीजिए उसे ....लेकिन कानून अपने हाथ में लेने का भी हक किसी को भी नहीं है ...

हां, तो मैं उस नौ-दो ग्यारह हो गये चोर की बात कर रहा था, मुझे कैसा लगा?... छोड़िए, क्या करेंगे जान कर ...कुछ बातें लिखने और बोलने में अच्छी नहीं लगतीं...आप भी चुपचाप इत्मीनान से इस गीत के बोलों में रम जाइए...वैसे तो आपने भी राजेश खन्ना-मुमताज की फिल्म रोटी बहुत बार देख ही रखी होगी....



तिनके का सहारा...

अगर इस पोस्ट को पढ़ने वाले डाकखाने, बैंक, बिजली बोर्ड के दफ्तर या किसी की सरकारी कार्यालय में स्वयं जाते हैं तो वे मेरी बातों से अच्छे से रिलेट कर पाएंगे ..वरना जो सभी कामों के लिए अपने चपरासियों पर आश्रित हैं, वे कृपया इसे पढ़ने में अपना समय व्यर्थ न गवाएं...

बैंक से बात याद आई...कुछ साल पहले हमारे एक सीनियर ने हमें एक बार अच्छे से समझा दिया कि लोग अपने जिस चपरासी को अकसर अपनी बैंक का पास-बुक थमा देते हैं ...जाओ एंट्री करवा आओ, पैसे निकलवा लाओ...ऐसे लोग ही आप के लिए सब से बड़े विजिलेंस इंस्पैक्टर होते हैं ...उन दिनों पैसे भी ये चपरासी लोग ही निकलवा कर लाया करते थे...एटीएम चले नहीं थे...उन्होंने बताया कि आप की हर ट्रांजेक्शन पर हर एंट्री पर उन की नज़र होती है..

यार, बात तो डा मिट्टू साहब की मन को छू गई..और पल्ले बांध के गांठ बांध ली...

बैंक में अपना काम है तो ज़ाहिर सी बात है कि खुद ही जाना पड़ेगा... लेकिन बहुत बार कापी प्रिंट करने वाला बाबू नहीं होता, वह होता है तो प्रिंटर बीमार होता है , दोनों अपनी जगह पर तने हुए हैं तो नेटवर्क गायब होता है ...बेशक सिरदर्दी तो हो गई है ...लेेकिन कुछ तकलीफ़े सहने के लिए ही होती हैं..आप अपने पास ही खड़े ८० साल के बेबस बुज़ुर्ग को पसीना पोंछते देखते हैं तो आप को भी बिना किसी चूं-चपड़ के चुपचाप खड़े रहने की एक वजह मिलती है....मुझे आप का तो पता नहीं, लेकिन मेरे साथ ऐसा ही होता है...

डाकखाने में गये तो स्पीड पोस्ट खत उस समय बुक किया जाएगा या नहीं...वही समस्याएं अभी तो दूसरा काम फंसा हुआ है, प्रिंटर में दिक्कत, नेटवर्क लोचा, मुझे कईं बार यह अहसास होने लगता है जैसे कोई जुर्म तो नहीं कर दिया यहा आकर.....और यह सब बहुत बार होने लगा है ....

हर दफ्तर से संबंधित मेरे पास बहुत से तजुर्बे हैं ...क्योंकि मैं हर काम खुद करने में विश्वास रखता हूं ...वरना आदतें इतनी ज्यादा खराब हो जाती हैं ..देखते हैं हम कुछ सेवानिवृत्त लोगों को ...कि उन की ८० प्रतिशत तकलीफ़ें तो पुराने अच्छे दिनों को याद करने में ही गर्क हो जाती हैं..ये बातें हमें हमारे पिता जी ने ही बचपन में अच्छे से समझा दी थीं कि हमेशा अपना काम खुद करने की आदते डालो....वरना बाद में रिटायर दरोगा कि तरह परेशान होना पड़ेगा...

सही बात है ..रिटायरमैंट के बाद अकसर कौन किसी को पहचानता है ...अकसर ..लेकिन कुछ अच्छे लोगों को मिलने के लिए लोग तब भी आतुर रहते हैं ..कुछ तो हमेशा के लिए फिर कभी नज़र ही नहीं आते ..गधे की सींग की तरह....बात सोचने वाली यह है कि हम किसी से दिन में बीसियों बार सेल्यूट एक्सपैक्ट ही क्यों करें, कर रहें न सब अपनी अपनी ड्यूटी ....सफाई सेवक अपनी बेहतरीन सेवाएं दे रहा है, हमारे कमरों को टनाटन रखता है, मैं लोगों के दांतों को टनाटन रखता हूं ...वह एक दिन नहीं दिखेगा तो काम नहीं चलेगा...दांतों का तो लोग जो हाल कर रहे हैं, हम सब जानते ही हैं..

ओह माई गॉड , यह मैं किधर निकल गया....

हां, तो मुझे कुछ इस तरह के विचार आ रहे थे सुबह थे...बलराज साहनी साहब का एक लेख देख रहा था ..वे एक बार लाहौर गये अपने एक मित्र के निमंत्रण पर...वह उन्हें लाहौर स्टेशन रिसीव करने आए...साहनी साहब लिखते हैं कि उन की वजह से मेरी कोई भी सिरदर्दी कस्टम चैकिंग, और भी सामान खुलवा कर देखने की प्रक्रिया कुछ भी नहीं हुई...बस, दो मिनट में हम लोग फ्री हो गये ..और यही नहीं, उन दोनों को वहां के अफ़सरों ने चाय भी पिलाई ... लेकिन मजे की बात, साहनी साहब इस से खुश नहीं थे, वे लिखते हैं कि मैं तो लाहौर के एक एक प्लेटफार्म पर घूमना चाह रहा था....मैं उन की बात से इत्तेफाक रखता हूं क्योंकि अगर मैं अमृतसर जाऊं तो मैं भी वहां के प्लेटफार्मों पर भी बहुत सा समय बिताना चाहूंगा...

हां, तो पहचान की बात हो गई कि किस तरह से पहचान की वजह से हमारे काम आसान हो जाते हैं...

नोयडा में मेरा एक बैंक खाता है ... वहां से मुझे नया एटीएम कार्ड लेना हो, नई पासबुक इश्यू करवानी हो, या और भी कुछ काम हो तो मैं अपने एक मित्र को ज़रूर साथ ले लेता हूं ..क्योंकि उस की वहां पर अच्छी पहचान है, सारा स्टॉफ उस का सम्मान करता है, मुझे वहां कौन पहचाने, काम भी पांच मिनट से पहले हो जाता है और चाय की सेवा भी ...(जिस की मुझे बिल्कुल भी इच्छा नहीं होती..) -वैसे तो अपने अपने घटिया -बढ़िया जैसे भी हों, फंडें हैं...मेरा यह है कि कामकाज की जगह में आने वालों का चाय पानी नाश्ता खिलाना पिलाना या पूछना ही ठीक नही ंहै..हां, पानी तक ठीक है, वरना उस फार्मेलिटी के चक्कर में पब्लिक परेशान हो जाती है ....मैंने हमेशा से इसे फॉलो किया है ...अस्पताल में बैठे हैं यार, किसी रेस्टरां में तो नहीं, इतने ही संबंध प्रगाढ़ करने की फिक्र है तो बंदे को घर में बुला कर उस की टहल-सेवा कीजिए...यह मेरा अपना दकियानूसी नज़रिया हो सकता है, लेकिन मैं इसे कभी बदलने वाला नहीं...कभी किसी के लिए साल में शायद एक बार यह काम करना पड़ता है तो मुझे बड़ी तकलीफ होती है, सब से बड़ी तो यह कि जब तक चाय आ न जाए, कुछ और काम किया ही नहीं जा सकता, फिजूल की बातें करते जाइए और सुनते जाइए... सीधी सीधी बात है, अगर हम ने किसी का काम वह कर दिया जो वह करवाने आया है तो  इसी में चाय, छाछ, मट्ठा, मिठाई सब कुछ आ जाता है ...वरना हमें भी मीठी गोलियों को स्टॉक भरपूर रखना पड़ता है ..

हां, मैं बैंक की बात कर रहा था कि दूसरे शहर में मैं वहां भी किसी सहारे के नहीं जाना चाहता ..सिर्फ़ इसलिए कि मुझे वहां चंद घंटे ही ठहरना होता है और पता नहीं बड़े बाबू का मूड कैसा हो, कैसा न हो..अगर अगली तारीख पड़ गई तो बड़ी दिक्कत हो जायेगी....

अब ज़रा पुलिस स्टेशन की बात कर लें... हमारे गृह-नगर में हमारे घर में चोरी हो गई कुछ साल पहले ...चोर सब कुछ ले गये ...क्या करें, वहां कोई रहता नहीं है, ताला लगा हुआ था..अब नौकरी करें या उसे संभालें...बहरहाल, मुझे यह तो पूरी उम्मीद थी कि कुछ भी वापिस मिलने वाला तो है नहीं, लेेकिन फार्मेलिटी के तौर पर रपट तो लिखवानी ही पड़ेगी...मैं पहली बात किसी थाने में गया था...उसने मेरी रपट नहीं लिखी... बस, एक सादे कागज़ पर मेरी तरफ़ से एक चिट्ठी लिखवा के रख ली...मुझे भी पता था कि इस को होना-हवाना कुछ नहीं है...अगले दिन आया वह दबंग दरोगा ...चोरी हुए सामान में दो-तीन तोले सोना और लगभग दो हज़ार की रकम भी शामिल हुई देख ...बड़ी लापरवाही से कहने लगा...आज कल सोना कौन घर में रखता है और पैसा भी कौन ऐसे रखता है ...लोग १००-२०० रूपया झट से एटीएम से ही निकलवाते हैं ..यह २००७ की बात है ...मैं तो सब समझ ही रहा था, वह वहां से दफ़ा हुआ तो मैंने शुक्र किया ... शायद रपट इसलिए नहीं लिखी गई क्योंकि मेरे साथ कोई रसूख वाला आदमी नहीं था...

अस्पतालों में ही देख लीजिए...वहां पर काम करने वाला कोई भी कर्मचारी जब अपने किसी परिचित मरीज़ के साथ डाक्टर के पास जाता है तो उस मरीज़ में एक आत्मविश्वास पैदा हो जाता है ...जब मेरे जैसे लोगों का खून बहुत गर्म होने की वजह से उछाले मारता है तो हम लोग उस दिन तो नहीं, अगले दिन उस मरीज़ को इतना ज़रूर कह दिया करते कि फलां फलां को साथ लाने की क्या ज़रूरत थी, क्या मेैं वैसे तु्म्हें न देखता, उसी के साथ लाने पर ही क्या देखता.... फिर धीरे धीरे समय बीतता गया, मैं भी आप सब की तरह अपने प्रोफेशन में घिसता चला गया...घिसते घिसते कुछ बातें समझ में आने लगीं....कि अगर मैं किसी अनजान जगह पर जाता हूं तो किसी पहचान को ढूंढता हूं ...छोटी से छोटी, बड़ी से बड़ी, काम बन पाए या न , वह अलग बात है.....लेकिन मैं ढूंढता तो हूं ही ... इसलिए अब यह हालत है कि कोई मरीज़ अगर किसी हमारे कर्मचारी को साथ लेकर आता है तो मरीज़ के सम्मान के साथ साथ मैं उस साथ आए हुए बंदे को भी अच्छे से एक्नालेज करता हूं... अगर कोई यूनियन नेता साथ होता है तो उसे भी आराम से मंत्री जी, प्रधान जी, कामरेड जी... इतना कहने में मेरा कुछ नहीं जाता, मरीज़ को अपने साथ चलने वाले बंदे के मार्फ़त मेरे में विश्वास हो जाता होगा....अब यह कितना हो पाता है या नहीं, पता नहीं, कभी इस के आगे जाने की कोशिश नहीं की, न ही फुर्सत थी कभी ....

लेकिन तिनके के सहारे वाली बात तो है एकदम पक्की ...अब जो है सो है... मुझे तिनके से यह बात याद आ गई...



अपनी मातृ-भाषा में लिखना बातें करने जैसा



आज से १५-१६ वर्ष पहले एक नवलेखक शिविर में एक उस्ताद जी ने हम लोगों को समझाया था कि अपनी मातृ-भाषा में भी ज़रूर लिखा करो ...

उन की बात कुछ कुछ समझ में आई..कुछ कुछ न आई..और शायद न ही समझने की कोशिश की ...बस, एक ही खुमारी चढ़ी हुई कि बस, हिंदी में ही लिखना है...

ठीक है, हिंदी में लिखना ठीक है, अपनी राष्ट्रभाषा है ....

लेकिन जिस तरह से हम लोग अपने आप को अपनी मातृ-भाषा (mother tongue) में एक्सप्रेस कर सकते हैं वह किसी दूसरी भाषा में हो ही नहीं सकता...

मैं इंगलिश ठीक ठाक लिख लेता हूं...हिंदी भी ठीक ठाक ही है ..(no bragging intended!) ... और इस के पीछे कम से कम बीस वर्ष की लिखने-पढ़ने की साधना है ...जिस के बारे में मैं अकसर लिखता रहता हूं..

लेकिन इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी जितना खुलापन मैं पंजाबी लिखते पढ़ते हुए महसूस करता हूं वह हिंदी लिखते हुए नहीं कर पाता हूं ...अंग्रेज़ी की तो बात ही क्या करें...और यह स्वभाविक भी है ...

मैं अकसर शेयर करता हूं कि मातृ-भाषा में लिखना, बात करना अपनी मां से बात करने जैसा है...जिस तरह से हम लोग जितनी बेतकल्लुफ़ी से अपनी मां से बात कर लेते हैं, उतना हम किसी दूसरे से शायद ही खुल पाते हों ..कुछ सोचना नहीं पड़ता, शायद बोलने से पहले तोलना भी नहीं पड़ता...क्योंकि शब्द अपने आप झड़ते हैं...

मैंने भी पंजाबी भाषा (गुरमुखी स्क्रिप्ट) में कुछ वर्ष लिखा ..जब तक हम लोग फिरोज़पुर में थे ...पंजाबी अखबारों में लेख भेजता था ..वे छपते भी थे..लेकिन बाद में वह लिखना छूट गया...लेकिन कभी कभी पंजाबी भाषा में कुछ भी पढ़ ज़रूर लेता हूं ..विशेषकर पंजाब शिक्षा शिक्षा बोर्ड द्वारा प्रकाशित पाठ्य-पुस्तकें ...इन में से कुछ तो मैंने कुछ साल पहले खरीदी थीं, जो नहीं हैं उस के लिए अपने एक सहपाठी मित्र को जो अमृतसर में अब शिक्षा विभाग में वरिष्ठ अधिकारी हैं, उन्हें भिजवाने के लिए कहा हुआ है..

आज सुबह मैंने एक ऐसी ही किताब उठाई ....अक्खी डिठ्ठी दुनिया...(हिंदी में इसे कहेंगे ..आंखों देखी दुनिया..) यह पंजाब की ११ वीं कक्षा की पाठ्य-पुस्तक है...इस में बड़े बड़े साहित्यकारों के लेख हैं...जैसा उन्होंने दुनिया को देखा ..

मैंने इस में बलराज साहनी जी का एक लेख पढ़ा... रज्जी-पुज्जी मिट्टी ...अब मैं आप को इस का मतलब समझाऊं...अच्छा, जब हम लोग अच्छे से खा पी लेते हैं ..तो एक संतुष्टि का अनुभव करते हैं न, उसे कहते हैं कि हम रज्ज-पुज्ज गये हैं...बलराज साहब ने इस बात को मिट्टी के साथ जोड़ा है ...


उन्होंने यह लेख पंजाबी में लिखा है ..पहले वे इंगलिश में लिखते थे, फिर हिंदी में लिखने लगे ..फिर कहीं जा कर पंजाबी की बारी है ...लेकिन इस लेख के बारे में मैं यह कहना चाहूंगा कि यह इतना बढ़िया लेख है कि मेरे पास इस की प्रशंसा करने के लिए शब्द ही नहीं हैं...मैं कोशिश करूंगा कि इस का हिंदी अनुवाद कहीं से ढूंढूं ..अगर नहीं भी मिला तो भी मैं इस का अनुवाद कर के आप से शेयर करूंगा...

इसमें साहनी साहब ने अपनी लाहौर यात्रा का वर्णन लिखा हुआ है ...बेहतरीन लिखा है ...इतनी ईमानदारी से लिखा कि क्या कहूं...

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

मंजे उठने पर इतना बवाल क्यों भई !


अभी कुछ दिन पहले राहुल गांधी की खाट पे चर्चा कार्यक्रम के बाद लोग लगभग २००० मंजे अपने साथ लेकर चले गये...कल देखा अखबार में ..परसों सोशल मीडिया पर भी यह बात छाई रही ...लेकिन मेरे विचार में यह कोई मुद्दा ही नहीं...

इतनी इतनी रईस ये सब राजनीतिक पार्टियां हैं, अगर २००० मंजे लोग अपने साथ एक सोविनर की तरह अपने साथ ले भी गये तो इन पार्टियों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। एक बात पब्लिक इशारा तो करे कि वोट भी उसका जिस का मंजा ...तो लाइन लग जायेगी मंजे देने वालों की ...

कुछ लोगों के कमैंट्स इस मुद्दे पर कल दिखे...
खाट ले जाने वाले चोर और माल्या डिफॉल्टर यह सही नहीं: राहुल
कांग्रेस उपाध्यक्ष ने कहा कि खाट ले जाने वालों को चोर और विजय माल्या को डिफॉल्टर कहा जा रहा है। यह सही नहीं है। 

बदलना होगा इस परसेप्शन को
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की खाट पंचायत का हवाला देते हुए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा, यदि सपा के कार्यक्रम में इस तरह की घटना होती तो खबर छपती कि समाजवादी गुंडों ने खाट लूट लीं। मगर, कांग्रेस के कार्यक्रम में ऐसा हुआ तो कहीं नहीं छपा कि कांग्रेसी गुंडों ने खाट लूट ली। अखिलेश ने कहा, यह परसेप्शन ठीक करने की जरूरत है।  

सिंचाई मंत्री यूपी सरकार शिवपाल ने कहा ... राहुल गांधी खाट पर बैठने की नौटंकी कर रहे हैं।  

खाट पर चर्चा तो मैं भी अभी करूंगा ..लेकिन नौटंकी वाली बात पर याद आया कि नौटंकी तो सारे ही कर रहे हैं लेकिन बड़े लोगों की नौटंकी किसी की समझ में आती नहीं, जब आती है तब तक देर हो चुकी होती है ...आम आदमी की नौटंकी से याद आया कि कल रात में यहां लखनऊ में हमारे घर के पास एक राम डोर मेला लगा हुआ था...बड़ी भीड़ थी...और अव्यवस्थित वाली भीड़...मैं भी चंद मिनट उस तरफ़ गया...जगह जगह नौटंकी भी चल रही थी... जिस में १५-२० वर्ष की छोटी छोटी बच्चियां अजीब तरीके से डांस कर रही थीं...मुझे यह अजीब सा लगा ...लेकिन एक बात है कि वे लोग नौटंकी के नाम पर नौटंकी कर रहे थे...लेकिन बड़े लोगों का कुछ पता नहीं चलता कि कौन नौटंकी कर रहा है, कौन नहीं...समय ही यह राज़ खोलता है! आज शाम को इस रामडोर मेले पर भी एक रिपोर्ट लिखूंगा....
लखनऊ के बंगला बाज़ार में कल शाम राम डोर मेले का एक दृश्य 
बहरहाल, खटिया चोरी होने की बात करते हैं ...इतना बवाल तो तब भी नहीं हुआ था जब २० -२५ साल पहले गोबिंदा और करीना ने जाड़े के मौसम में अपनी खटिया सरकाने वाला गीत गाया था..मुझे तो वह गीत सुन कर ही ऐसा लगता था जैसे कि भूचाल आ गया हो...

खटिया को हम लोग पंजाब में मंजा कहते हैं और इस तरह के मंजे जैसे पब्लिक ने उठा रखे हैं इन्हें नवारी मंजे कहते है ं...मुझे व्यक्तिगत तौर इन पर आराम करना बहुत पसंद है ...बचपन में हम लोग इन्हीं मंजों पर ही गर्मी के दिनों में आँगन में सोया करते..घमौरियां होती तो और भी बढ़िया...मैं नीचे बिछौना भी न बिछाता बहुत बार ...क्योंकि हिलने ढुलने से खारिश ठीक होने का सुख भी मिल जाया करता...हर आंगन में एक लाइन मेें ये मंजे तरतीब से लगे होते ...और एक लकड़ी के स्टूल पर एक टेबल फेन चल रहा होता ... बढ़िया नींद, उमदा सपने, सुबह उठने पर अंग अंग में ताज़गी का अहसास....

फिर १९८० के दशक में वे फोल्डिंग वाले मंजे आ गये ... किसी किसी घर में होते थे ...लोग उसे खोलने के लिए साथ में किसी की मदद लिया करते ...वरना वह उछल कर मुंह की तरफ़ आ सकता था ..मैंने १९८४ में नई नई डिग्री ली थी ...एक दिन अचानक एक कंपांऊडर जो हमें सूईंयां घोंपा करता था...वह अपनी बीवी को ले कर आया कि लोहे वाला मंजा खोलते समय मुंह पर लगा और होंठ से खून निकल रहा है ...और दांत आगे वाला हिल गया है ....पहली बात मुझे अहसास हुआ कि मैं भी किसी के काम आ सकता हूं....फर्स्ट एड दी, समझाया कि इस दांत को रेस्ट चाहिए कुछ दिन, इस से कुछ भी काटना नहीं, दो एक दवाई लिख दी.। तो ऐसा आतंक था इन लोहे के पलंगों का ....लोग खोलते समय बड़ा सचेत रहा करते थे!
 कितना लिखें....इन मंजों पर ...हमारा क्या है, हमें तो और कुछ आता नहीं, लिखते ही चले जाएंगे....

बंद करता हूं इस मंजा पुराण को यहीं पर .... मंजे से याद आया ..हम लोग एक बार दादर के प्रीतम हाटेल पर खाना खाने गये बंबई में...वहां पर बीसियों मंजे बिछे हुए... और वेटर भी तंबे वाले ....बर्तन भी पेंडू...और दाल भी धीमे आंच पर तैयार हुई ....सब कुछ पंजाब के गांव जैसा या एक पेंडू ढाबे जैसा......पहली बार उस दिन बंबई में किसी ढाबे में खाना खाने का मज़ा आया...

बस, यही बंद कर रहा हूं ... अभी पुरानी ऐल्बमें देखीं कि कोई मंजे वाली फोटो तो देखूं....बहुत सी थीं, लेकिन अब एल्बम बीच बीच में खाली हो चुकी हैं...पहले हम लोग एक एक फोटो को अच्छे से सहेज कर रखते थे, अब तो एक दिन पहले वाली शेल्फी भी अगले ही दिन फोन में जगह कम होने की वजह से डिलीट कर दिया करते हैं.... we have become foolishly practical!

तुझे सूरज कहूं या चंदा ...


तोंदू तोतला बनने से पहले वाले मास्टरी के दिन १९९० के आसपास ...बेकार में मैंने लाइन बदल ली.. 
साईकिल भ्रमण २००० के आसपास...फिरोज़ुपर पंजाब 

२५ साल पहले की मधुर यादें...
२०००२-०३ के दिन थे..इसे भी शिमला पहुंचते ही कुछ ऐसी हवा लगी कि इसके तेवर ही बदल गये... 
जाते जाते यह विचार आ रहा है कि जिस तरह से ऊपर मंजों की लूट-घसोट दिख रही है, मुझे मेरे बचपन की बात याद आ गई जब दशहरे का मेला तभी सफल माना जाता था जब रावण के जलने के बाद उस के पिंजर की कोई जली-सड़ी एक छोटी सी लकड़ी हाथ में लग जाती थी जिसे लोग घर ले जाया करते थे...अगर तो वे इसे बुराई पर अच्छाई के लिए एक रिमांइडर या सोविनर या प्रतीक की तरह ले कर जाते हैं तो बात समझ में आती है ...वरना तो सब बेवकूफियां हम भी करते ही रहे हैं...अब रावण के पिंजर की एक लकड़ी या एक सस्ता सा नवारी मंजा ...क्या फर्क पड़ता है, जिसे ज़रूरत थी ले गये....मिट्टी पाओ यारो ते एह वधिया जिहा पंजाबी गीत सुनो ..जिस तो बिना पंजाब दा कोई वी लेडीज़ संगीत पूरा नहीं हुंदा ...मेरी मंजी थल्ले कौन, भाबी दीवा जगा..... इसे सुनिए ज़रूर, बहुत बढ़िया है .....



गुरुवार, 8 सितंबर 2016

तंग शूज़ का राज़


कल रात मैं एससी सुपरफॉस्ट एक्सप्रेस जिसे राजधानी भी कहते हैं ...इस से नई दिल्ली से लखनऊ आ रहा था ..यह गाड़ी ११.३० बजे रात को नई दिल्ली से छूटती है और सुबह ७.३० बजे लखनऊ स्टेशन पर पहुंच जाती है ..

एसी फर्स्ट का माहौल मुझे बड़ा फीका-सा ही होता है ... सब लोग एक दम सीरियस से, और कॉरीडोर में चपरासियों, मातहतों, और सिक्योरिटी वालों का तांता....किसी के कुछ विशेष इंट्रेक्शन का ज़्यादा स्कोप नहीं होता और अगर सामने वाला बंदा मेरे जैसा संकोची स्वभाव का हो तो हो गया इंट्रेक्शन...मेरे तो मरीज़ ही हैं जो मेरे से मन की बातें उगलवा लेते हैं और अपनी बातें भी खुल कर लेते हैं...वरना तो मेरे संकोची स्वभाव का किसी को मेरे चिट्ठों से शायद ही गुमान हो पाता हो!

हां, जैसे ही मैं फर्स्ट एसी के उस केबिन में गया ...नीचे वाली सीट पर बैडिंग पहले से ही सलीके से बिछी हुई थी ...अन्य दो यात्री अपने अपने फोन पर लगे हुए थे...एक साहब फोन पर आखिरी समय में एसी फर्स्ट में सीट मिल जाने की खुशी ब्यां कर रहे थे ....मेरी ऊपर वाली बर्थ पर थे यह ...खुश थे कि टिकट तो कंपनी ही करवा देती है ...कल लखनऊ ..फिर वहां से इलाहाबाद और क्या पता अगले दिन कलकत्ता जाने का फरमान मिल जाए...

खैर मैंने ऊपर लिखा है न कि इस फर्स्ट एसी श्रेणी में किसी का किसी से कोई इंट्रेक्शन तो होता नहीं ..लेकिन जितने जितने हमारे फोन आते जाते हैं...हम न चाहते हुए भी अपना परिचय देते रहते हैं...ऐसा हम सब के साथ होता है, यह कोई नई बात नहीं..

ठीक है केबिन के दरवाजे को चिटकनी लगाई और हम लोग सो गये....सुबह साढ़े छः बजे मैं उठ गया...मैं वॉश रूम में जाने लगा ..जुराबे तो मैंने पहन ही रखी थीं, मैंने अपनी सीट के नीचे रखे शूज़ डाले ...कुछ ज्यादा ही टाइट लगे ...मुझे महसूस हुआ कि यह क्या बात हुई ...शूज़ टाइट कैसे हो गये! वैसे वॉश-रूम से लौटने तक मैंने इस के बारे में कुछ ज़्यादा मैंने अपने तंग शूज़ के बारे में सोचा नहीं...

वॉश-रूम से लौटा तो १३९ नंबर से ट्रेन को स्पॉट किया ..पता चला कि आठ मिनट की देरी से चल रही है ... मैं सोचा कि अब क्या फिर से लेटने का झंझट करना ...बाहर का नज़ारा देखते है ं....मैंने नीचे वाली सीट ऊपर उठा दी ताकि बैठने में आसानी हो जाए...और मैं बाहर ताकने लगा ...कुछ समय बाद मलीहाबाद, फिर काकोरी, और फिर आलमनगर ....गाड़ी आलमनगर स्टेशन पर ३०-४० मिनट खडी हो गई...

एक परेशानी आज कल एसी के डिब्बों में एसी टू और एसी फर्स्ट में यह हो गई है कि नीचे की सीट वाला कोई भी बंदा उसे ऊपर उठाता नहीं ..सारा दिन बिस्तर फैला कर रखते हैं और इसलिए पसरे रहते हैं ताकि ऊपर वाला बंदा कहीं किनारे में न आकर बैठ जाए...हम उस दौर के पुराने लोग हैं जब लोग सुबह सात बजे नीचे वाली सीट को ऊपर उठा देते थे ताकि ऊपर वाला बदकिस्मत बंदा भी कुछ इधर-उधर-बाहर-अंदर झांक तो ले बेचारा....उसने भी टिकट खरीदी है!

हां लगभग साते सात बजे ऊपर वाला भला-मानस भी नीचे उतर आया तो तैयार हो के बैठ गया..मेरे साथ ही नीचे वाली सीट पर ....मैं एक पंजाबी लेखक कुलवंत सिंह विर्क साहिब की कहानी-किस्सों की किताब पढ़ रहा था लेकिन बीच बीच में मेरा मन अपने कसे हुए शूज़ को बिना देखे उसके कारण टटोलने में लगा रहा ...

अपने शूज़ पहनते ही मेरी समस्या हल हो गई ..
किसी बंदे के शूज़ का इस तरह से अचानक तंग होना मैडिकल दृष्टि से ठीक नहीं होता...इस का मतलब होता है कि पांव में सूजन आई ....और सुबह उठते वक्त ही अगर पांव में सूजन है तो और भी चिंता की बात होती है ...कईं बार किसी किसी बंदे के पांव थोड़ा सूज जाते हैं सारा दिन खड़े रहने की वजह से ...या अन्य कारणों की वजह से ..जिस की सामान्य चिकित्सक उचित जांच भी करते हैं ...लेेकिन मुझे यही लग रहा था कि मेरे शूज़ अचानक तंग कैसे हो गये...इतने कसे हुए!

 फिर मेरी दिमाग की फिर्की घूमने लगी कि अभी तो मैंने तीन चार दिन से ही एक दवाई लेनी शुरू की है ...कहीं इस का कोई साइड-इफेक्ट तो नहीं कि शरीर में फ्लूयड-रिटेंशन होने लगा है ...सोचा, कोई बात नहीं, विशेषज्ञ से बात करेंगे...

इसी उधेड़बुन में था और गाड़ी रूकी ही हुई थी कि मेरे सहयात्री के ये शब्द मेरे कानों में पड़े ..."भाई साहब, कहीं आप के और मेरे शूज़ बदली तो नहीं हो गये"

लीजिए, मेरी समस्या का हल मिल गया...मैंने उन की पीठ पर गर्मजोशी से हाथ मारा ..और कहा कि मैं, सुबह से इस बात का कारण जानने की कोशिश कर रहा था कि मेरे शूज़ अचानक इतने टाइट कैसे हो गये. उन्होंने ठहाका लगाते हुए बताया कि वे अपनी जगह परेशान थे कि रात रात में ही ऐसा क्या हो गया कि शूज़  इतने लूज़ हो गये....इतना कहना था और जब हमने नीचे अपने जूतों की तरफ़ देखा तो हमारे केबिन में खूब ठहाके लगे .... हम दोनों के शूज़ बिल्कुल एक जैसे थे ...उस भद्रपुरूष की यह विनम्रता थी (वे इलाहाबाद से थे) कि कहने लगे कि मेरे तो बिल्कुल सस्ते से शूज़ हैं.. मैंने कहा ...नहीं, यार, मेरे भी कौन से जापानी हैं! मैंने उस बंदे को अपने जूते डाले देखा तो इतने लूज़ कि मुझे हैरानी हुई कि यह बंदा यह पहन कर वॉश-रूम भी कैसे हो कर आया होगा!

फिर तो बातें होती रहीं...मैंने कहा कि मुझे शूज़ इतने तंग लग रहे थे कि मेरे से तो पहने ही नहीं जाते ...वह बताने लगे कि इतने खुले शूज़ के साथ तो मेरे से तो चलना दूभर था ...मुझे तो स्टेशन पर उतर कर पहले जूते की दुकान ढूंढनी पड़ती....एक बात फिर से माहौल ठहाकामय हो गया...

८.३० के करीब लखनऊ चारबाग स्टेशन पर हम पहुंच गये ...और अपने अपने गन्तव्य स्थान की तरफ़ प्रस्थान किया....एक सबक फिर मिल गया आज कि संवाद से हर बात का हल हो सकता है ...बोल चाल बंद नहीं करनी चाहिेए...वरना, अकसर इन गाड़ियों में ऐसा ही होता है कि हम लोग बिन बात किए जैसे अपने कैबिन में घुसते हैं, उसी तरह कोरे ही बिना किसी संवाद के अपना स्टेशन आने पर ट्रेन से बाहर आ जाते हैं...

आज से चालीस साल पहले कथा-कीर्तन पर भी चप्पलें अदला-बदली हो जाया करती थीं अकसर ... लेकिन वह कोई इश्यू नहीं होता था क्योंकि लगभग सभी की सभी तीन रूपये वाली कैंची चप्पलें घिसी पिटी हालत में हुआ करती थीं...अगर अपनी नहीं मिली तो लोग तुरंत दूसरी पहन कर पतली गली पकड़ लिया करते ...बस, इतना सा ध्यान कर लेते थे कि उस की पहले से मुरम्मत न हुई हो ... हा हा हा हा हा ...कितने सीधे थे लोग भी पहले!

मैं बाहर आते समय यही सोच रहा था कि हम लोग जब ज़रूरत से ज़्यादा पढ़ लेते हैं तो अपने ऊपर इतना आत्मविश्वास करने लगते हैं ...ओवर-कॉंफिडैंस की हद तक ...कि we start taking everything for granted! ... मेरी प्रोफेसर बहन एक बार हमारी मां को स्टेशन पर छोड़ने आई तो फिरोजपुर की गाड़ी की जगह चेन्नई की गाड़ी में लगभग रवाना करने ही वाली थीं कि जीजा जी ने बचा लिया......कल मैं दिल्ली मैट्रो में उलट दिशा में वैशाली की बजाए द्वारका की तरफ़ छः स्टेशन चला गया...फिर से पलट कर आया...

वही पंजाबी बेबे की बात ही ठीक है ..एक बस में बैठ गईं पोटली के साथ....कंडैक्टर को बोल दिया कि पुत्तरा मानां वाला पिंड आवे तो दस देवीं....कंडैक्टर ने कहा कि जी, बीबी जी, दस दिआंगे ...लेकिन बेबे को चैन नहीं पड़ रहा था...बार बार दस मिनट में एक बार पूछ ही लेती ...कंडैक्टर कहता ...बेबे, किहा न ...तुसीं चिंता न करो...दस दिआंगे ते तुहानूं मानावालां पिंड पहुंचन ते ...लेकिन इस चक्कर में हुआ यह कि मानांवाला पिंड निकल ही गया..बस दस किलोमीटर आगे आ गई तो कंडेक्टर को बेबे पर दया आई और उसने ड्राईवर को बताया कि बेबे तो यार बार बार याद दिला रही थी, बहुत माड़ा हो गया..हम आगे निकल आए...यार, मेरी बेनती है ..बस पिच्छे ले ले......जी हां, वही हुआ....वे लोग वापिस मानांवाला पिंड दे स्टॉप ते आ गये और बेबे को कहा ....आ गया जी बीबी जी मानांवाल उतर जाओ........बेबे ने कहा ..हाय वे, मैं तो जाना अमृतसर ऐ....मुंडे ने तो बस पक्केयां कीता सी कि मानावालां पिंड पहुंचन ते अपनी दवाई खा लिओ ज़रूर.....

हां, जूतों पर यह पोस्ट लिखते लिखते मुझे एक बेहतरीन फिल्म बम बम बोले का ध्यान आ गया...कुछ साल पहले देखी थी, नाम नहीं याद आ रहा था ... छोटे बेटे से पूछा कि वह कौन सी फिल्म थी जिस में एक छोटी सी प्यारी सी बच्ची के शूज़ फटे होते हैं और उसे नये शूज़ लेने का बड़ा चाव होता था, उसने तुरंत नाम बता दिया ..कि शायद बम बम बोले ही होगी...जी हां, वही फिल्म थी, यू-ट्यूब पर भी है, देखिए अगर पहले नहीं देखी ..एक ट्रेलर के रूप में इस का एक छोटा सा गीत यहां एम्बेड कर रहा हूं ...





सोमवार, 5 सितंबर 2016

टीचर जी, मेरे बच्चे को यह सब जरूर सिखाना


आज कल मैं इस ब्लॉग पर चिट्ठी-पत्री की ही बातें कर रहा हूं...

कुछ चिट्ठीयां ऐसी भी होती थीं जिन्हें हम लोग सहेज कर रख लिया करते थे ..बार बार पढ़ने के लिए...


इस बात का ध्यान मुझे कल आया जब मुझे ध्यान आया कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ने एक चिट्ठी अपने बेटे के स्कूल प्रिंसीपल को लिखी थी। लिंकन ने इसमें वे तमाम बातें लिखी थीं, जो वह जिंदगी में बेटे को सिखाना और समझाना चाहते थे...

चलिए, आज अध्यापक दिवस के अवसर पर उस चिट्ठी को ही फिर से पढ़ लेते हैं...ऊबने का तो प्रश्न ही नहीं....

सम्माननीय महोदय,  
मैं जानता हूं  कि इस दुनिया में सारे लोग अच्छे और सच्चे नहीं हैं। यह बात मेरे बेटे को भी सीखना होगी। पर मैं चाहता हूं कि आप उसे यह बताएं कि हर बुरे आदमी के पास भी अच्छा दिल होता है। हर स्वार्थी नेता के अंदर अच्छा लीडर बनने की क्षमता होती है। मैं चाहता हूं कि आप उसे सिखाएं कि हर दुश्मन के अंदर एक दोस्त बनने की संभावना भी होती है।  
ये बातें सीखने में उसे समय लगेगा, मैं जानता हूं। पर आप उसे सिखाइए कि मेहनत से कमाया १ रुपया, सड़क पर मिलने वाले ५ रुपये के नोट से ज़्यादा कीमती होता है।  
आप उसे बताइएगा कि दूसरों से जलन की भावना अपने मन में ना लाए। साथ ही यह भी कि खुलकर हंसते हुए भी शालीनता बरतना कितना जरूरी है। मुझे उम्मीद है कि आप उसे बता पाएंगे कि दूसरों को धमकाना और डराना कोई अच्छी बात नहीं है. यह काम करने से उसे दूर रहना चाहिए।  
आप उसे किताबें पढ़ने के लिए तो कहना ही, पर साथ में उसे आकाश में उड़ते पक्षियों को, धूप में हरे-भरे मैदानों में खिले-फूलों पर मंडराती तितलियों को निहारने की याद भी दिलाते रहना। मैं समझता हूं कि ये बातें उसके लिए ज्यादा काम की हैं।  
मैं मानता हूं कि स्कूल के दिनों में ही उसे यह बात भी सीखना होगी कि नकल करके पास होने से फेल होना अच्छा है। किसी बात पर चाहे दूसरे उसे गलत कहें, पर अपनी सच्ची बात पर कायम रहने का हुनर उसमें होना चाहिए। दयालु लोगों के साथ नम्रता से पेश आना चाहिए। दूसरों की सारी बातें सुनने के बाद उसमें से काम की चीजों का चुनाव उसे इन्हीं दिनों में सीखना होगा।  
आप उसे बताना मल भूलना कि उदासी को किस तरह से खुशी में बदला जा सकता है। और उसे यह भी बताना कि जब कभी रोने का मन करे तो रोने में शर्म बिल्कुल महसूस न करे। मेरा सोचना है कि उसे खुद पर विश्वास होना चाहिए और दूसरों पर भी। तभी तो वह एक अच्छा इंसान बन पाएगा।  
ये बातें बड़ी हैं और लंबी भी। पर आप इनमें से जितना भी उसे बता पाएं, उतना उसके लिए अच्छा होगा। फिर अभी मेरा बेटा बहुत छोटा है और बहुत प्यारा भी।  
आपका
अब्राहम लिंकन 
चिट्ठीयां हमारे पेरेन्ट्स ने भी लिखीं हमारे टीचर्ज़ को और हम ने भी लिखीं अपने बच्चों के अध्यापकों को ...कुछ याद आ रहा है। पहले आज सुबह की सैर की कुछ तस्वीरें ....

अद्भुत प्रकृति का वरदान 
प्रकृति के रहस्य की बंद पोटली ..
अगले पेड़ में यह अद्भुत पिटारा खुला मिला ..
डीएवी स्कूल अमृतसर के दिनों की बात है ..छठी कक्षा में था ...गणित विशेषकर बीजगणित समझ नहीं आ रहा था...कुछ दिन बीत गए...एक दिन घर आ कर मैं रोने लगा ...अपने पिता जी को कारण बताया...उन्होंने उर्दू में एक चिट्ठी लिखी और मुझे उसे मास्टर जी को देने को कहा...उस दिन से ही मास्टर साहब ने मुझे ट्यूशन के लिए रोकना शुरू कर दिया...कुछ ही दिनों में मुझे सब कुछ समझ में आने लगा...कुछ महीने के लिए वह ट्यूशन चलती रही ...लेकिन एक बात मैंने जो आज से ४० साल पहले सीखी कि मेरे पिता जी हर महीने मेरी ट्यूशन की फीस एक सफेद लिफ़ाफे में मुझे देते थे मास्टर साहब को देने के लिए....मुझे यह बहुत अच्छा लगता था ...वरना खुले में उन्हें २५ रूपये महीना थमाना ऐसे लगता जैसे वह दुकानदार हैं और मैं ग्राहक ...छोटी छोटी बातें हमें छू जाती हैं कईं बार ...और मैंने भी इस प्रैक्टिस को अपने बच्चों की ट्यूशन में भी बरकरार रखा ...हर बार मासिक फीस आदर सहित एक सफेद लिफ़ाफे में रख कर ही भिजवाई....

लेकिन कुछ कुछ मस्ती भी की बच्चों के साथ...मेरी जिन बेवकूफियों पर वे आज भी ठहाका लगाते हैं कि देखो, बापू ने इंगलिश वाले क्लास टीचर को क्या लिख दिया था ...

तो हुआ यूं कि बड़ा बेटा सातवीं आठवीं कक्षा में था, फिरोज़ुपर पंजाब की बात है ...इंगलिश पढ़ाने वाले टीचर संधू साहब उस के क्लास टीचर भी थे....मुझे उसदिन क्या मजाक सूझा....बेटे ने होमवर्क नहीं किया था...और संधू साहब चांटे वांटे लगा दिया करते थे ...स्कूल जाने से पहले मुझे कहता है कि कुछ लिख दो पापा, बचा लो...मैंने कहा ..लाओ, यार, डायरी लाओ....लेकिन हिंदी में लिखूंगा...हंसने लगा ...कहने लगा ...चाहे, कैसे भी लिखो, लिख दो बस।

मैंने उस में लिख दिया.....
"महोदय, तबीयत ठीक न होने की वजह से बच्चा गृह-कार्य करने में असमर्थ रहा। कृपा क्षमा कीजिए।"

 उस दिन स्कूल से आया तो बहुत खुश...बच गया था पिटने से ...सारा घटनाक्रम सुना रहा था कि पापा, होमवर्क चैक करते समय मैंने आप का लिखा नोट संधू साहब के आगे कर दिया....जिसे पढ़ कर संधू साहब भी हंस पड़े और मुझे कहने लगा ...चल, सीट पर जा !

 पुरानी बातें हो गईं, नईं बात यह है कि जब कभी मैं शिक्षा मंत्री बन जाऊंगा चॉक एंड डस्टर जैसी फिल्में शिक्षक दिवस पर सभी स्कूलों में इस दिन दिखाए जाने का आदेश दिया करूंगा....बेहतरीन फिल्में...शिक्षकों की व्यक्तिगत पीड़ा और उन की दैनिक चुनौतियों को ब्यां करती इस तरह की फिल्में इन महान् अध्यापकों के प्रति हमारी सुप्त या उनींदी संवेदनाओं को झकझोड़ने का काम करती हैं निःसंदेह ....छोड़िए, शिक्षकों पर और प्रवचनबाजी सुनने और झाड़ने को अब यहीं छोडि़ेए...अगर अभी तक इस फिल्म को नही ं देखा तो आज कम से कम यही शुभ काम कर लीजिए..




रविवार, 4 सितंबर 2016

बैरंग ख़तों की दास्तां

आज मैं आप के साथ अपने बैरंग ख़तों की दास्तां शेयर करूंगा...मैंने लिखा था कल कि ख़तों के ज़माने की अपने पास बहुत सी यादें हैं...कल जब मेरी मां एक ऐसे ही लेख को बांच रही थीं तो मुझे अचानक हंसते हुए कहने लगी कि तुम तो सुवर्षा को भी कितने बैरंग ख़त लिखा करते थे...मुझे भी याद आ गया ...

एक दो बातें पहले स्पष्ट करने लायक हैं, एक तो सुलेख लिखना और दूसरा बैरंग ख़त...सुलेख लिखने से मतलब यह होता था कि हमें हिंदी, पंजाबी और इंगलिश पढ़ाने वाले टीचर ५५ दिन चलने वाली छुट्टियों के लिए एक काम होम-वर्क के अलावा यह भी थमा दिया करते थे कि हर रोज़ कापी में एक पेज़ सुलेख का लिखना है ...सुलेख का मतलब साफ़ साफ़ सुंदर लिखना अधिकतर हिंदी पंजाबी में इसे कलम से लिखना होता और इंगलिश वाले सुलेख के लिए निब लगे होल्डर का इस्तेमाल करना होता!

दूसरी बात, स्पष्ट यह करना चाहता हूं कि पंजाबी भाषी अधिकतर लोगों की हिंदी भाषा ठीक ठाक ही है ...बचपन से हम सुनते आ रहे हैं ..बरंग खत..लेकिन इस पोस्ट को लिखने से पहले मैंने सोचा कि कालिका प्रसाद के हिंदी कोष से देख तो लूं कि सही शब्द आखिर है क्या!.... बरंग तो कोई शब्द था ही नहीं, बेरंग भी देखा, वह भी नहीं दिखा ...फिर एक बार लगा कि यह उर्दू का शब्द ही होगा, उर्दू हिंदी शब्दकोष में देखता हूं...उस से पहले बैरंग शब्द मिल गया ...बैरंग का मतलब यह लिखा हुआ है ...चिट्ठी, पारसल आदि जिसका महसूल भेजनेवाले ने न चुकाया हो .. महसूल का मतलब यहां पर है जिस पर डाक-टिकट  विकट न लगाया गया हो...एक दूसरा अर्थ भी लिखा है इस में ...बिना काम हुए विफल लौटना....आपने भी सुना ही होगा कई ॆबार लोग बाग इस्तेमाल करते हैं इसे कि वह गया तो था फलां काम के लिए लेकिन उसे बैरंग लौटना पड़ा...

चलिए, हो गई व्याकरण की अच्छी अच्छी बातें ..लेकिन बोझिल सी ... अभी किस्से को हल्का किये देते हैं...तो जनाब हुआ यह कि हम उस समय पांचवी छठी कक्षा में रहे होंगे....सुलेख वुलेख ज़ोरों शोरों से चल रहा था ...खुराफ़़ात हुई कि अब इस से इंप्रेस किसे करें....सब से पहले शिकार के रूप में अपनी मौसी सुवर्षा का ध्यान आया ... खतो-किताबत का रिवाज़ बहुत बढ़िया था उन दिनों में ...लेकिन कौन जाए डाकखाने में पोस्टकार्ड लाए...फिर लौट कर पेटी में डालने जाए...मुझे पता नहीं किस ने मुझे यह रास्ता बताया या मेरी खुद की ही खुराफ़ात रही होगी कि मैंने कापी के एक पन्ने पर मौसी के नाम चिट्ठी लिखी .....जैसा कि आप इस तस्वीर में देख रहे हैं...



उसे इस तरह से फोल्ड किया ...
फिर से फोल्ड किया और तैयार हो गया पूरा खत...




अब कापी से एक पेज और फाड़ा और उस में इस खत को रख कर एक मुकम्मल लिफ़ाफा तैयार कर लिया...


सभी रिश्तेदारों के अते-पते-ठिकाने उस जमाने में घर के बच्चे बच्चे को याद हुआ करते थे...मुझे अभी भी बीसियों याद हैं...तो उस पर अपने मौसा जी का नाम पता लिखा और आते जाते गिरा दिया उस लाल डाकपेटी में ....


अरे यह क्या, कुछ ही दिनों में मौसी का जवाब आया कि प्रवीण का खत मिला .. बस, अपना हौंसला बुलंदी पर ....इतना आसान है यह सब, हम अपनी कापी के पन्ने पर कुछ भी लिखें, और वह मौसी के घर पहुंच जाता है ...बस, उस के बाद तो मैंने जैसे इन बैरंग ख़तों की झड़ी लगा दी...जब मन करना, मौसी को ऐसा ही बैरंग ख़त लिख कर पोस्ट-बॉक्स में फैंक आना....यह अच्छा खेल मिल गया था मुझे....

उस मौसी को ही टारगेट बनाया गया क्योंकि वह हमारी पढ़ाई लिखाई के बारे में अकसर पूछती रहती थीं, नंदन, चंदामामा आदि प्रतिकायें देखने के लिए भी कहा करती थीं...यही सोचा कि चलो इन्हें ही इंप्रेस करते हैं....वैसे एक आध बार नानी को भी कम टिकट जैसा कोई बैरंग खत चला गया होगा, लेकिन उन की परेशानियों का ध्यान आते ही कभी उन से इस तरह से तफरीह करने की इच्छा भी नहीं हुई।

हां, किस्सा अभी बाकी है ...इत्मीनान कीजिए...

उन दिनों डाक लिफाफा पच्चीस पैसे का होता था ...अब जिस तरह से मैं बैरंग ख़त भिजवाता था, उस पर मौसी को डाकटिकट का डबल भुगतान करना होता था ...याने के ५० पास...कुछ बार ऐसा ही चलता रहा, कुछ महीनों बाद जब मिले तो मौसी ने मज़ाक मज़ाक में समझाया .... तब तक मेरा शौक भी पूरा हो चुका था ....

लेकिन अब ध्यान यह ज़रूर आता है कि शायद उन दिनों डाकविभाग की कमाई के दो ही साधन थे ...एक तो इस तरह की बैरंग चिट्ठीयों से कमाई और दूसरा घर में रखे रेडियो की लाईसेंस फीस भी डाकखाने में हर साल कुछ पांच दस रूपये जमा करवानी पड़ती थी ...और उस की बाकायदा एक कापी भी बनी हुई थी ...

हां, बैरंग चिट्ठीयां सिर्फ इसी तरह से ही न जाया करतीं....दरअसल उन दिनों सत्तर अस्सी के दशक में इन ख़तों के दाम कभी कभी पांच दस पैसे बढ़ जाया करते थे ... फिर अगर पुराने लिफाफे पर बड़ी हुई दर के बराबर की पांच पैसे की टिकट नहीं लगाई और उसे ऐसे ही पोस्ट-बॉक्स में ठेल दिया तो भी उस चिट्ठी पाने वाले को उस का दोगुना भुगतान करना पड़ता था..थे कि नहीं कड़े कानून!

आज कल जिस तरह से डाकिये ने स्पीड-पोस्ट की चिट्ठीयों की डिलीवरी की लिस्ट पकड़ी होती है उन दिनों वह बैरंग चिट्ठीयों को एक अलग पैकेट और वसूली जाने वाली रकम (जो हमेशा एक रूपये से कम ही हुआ करती थी...) की लिस्ट थामे रहता था ...एक तरह से आप समझ लीजिए कि आपने बैरंग चिट्ठी न डाल दी बल्कि एक रजिस्टरी ही करवा दी हो ...क्योंकि डाकिये की जान तभी छूटती थी जब वह छुट्टे पैसे लेकर पोस्टआफिस में जमा करवा देता था...

बैरंग चिट्ठीयां आती थीं हमारे यहां भी ...हर घर में आती थीं कभी न कभी..लेकिन कमबख्त उस समय बिल्कलु मातम सा छा जाता  था ...हमारी एक पड़ोसन तो कईं बार बच्चों से कहलवा देती ... "असीं नहीं लैनी चिट्ठी, लै जा अपने नाल ही ...जा जा के कह दे डाकिये नूं." (हमें नहीं लेनी चिट्ठी, डाकिये को कह दो जा कर कि ले जाए अपने साथ ही वापिस उस बैरंग चिट्ठी को !)

 लेकिन इस तरह के दृश्य कम ही दिखते थे ..लोग मन ममोस कर, कोसते हुए कैेसे भी उस बैरंग चिट्ठी को डाकिये को भुगतान कर के ले ही लिया करते थे.......वरना डाकिया इस का बुरा मान जाता था और साफ़ धमकी भी दे जाया करता था कि आगे से भी चिट्ठीयां तो आप की और भी आयेंगी ही। संदेश साफ होता था ..अब कौन उस ज़माने के डाकिये से पंगा लेता!

 मुझे कईं बार यह भी ध्यान आता है कि घरों में चिट्ठीयो ंका स्टाक करने की भी कोई प्रथा भी थी नहीं...हर बार ज़रूरत पड़ने पर ही दो पोस्टकार्ड और एक अंतरदेशीय लिफाफा लाया जाता था, कईं बार उस के लिए भी दो चक्कर लग जाया करते थे ...कि खतों का स्टॉक खत्म हो गया है ....

पोस्ट-ऑफिस से खत लाना, लिखना और वापिस उसे लाल डिब्बे के हवाले कर के आना एक पूरी प्रक्रिया थी ...लेकिन फिर भी अच्छे दिन थे...आप का क्या ख्याल है?

अभी भी बहुत बार डाकखाने में कंप्यूटर चल नहीं रहे होते जब स्पीड-पोस्ट करवाने जाते हैं, कभी नेटवर्क नहीं होता, कभी किसी और काम में बाबू व्यस्त होता है तो झुंझला के मना कर देता है .....इसलिए अभी बैरंग ख़तों की इतनी पुरानी यादें ताज़ा करने के बाद मुझे एक आइडिया आया है जिसे मैं आप से शेयर नहीं करना चाहता....