बुधवार, 8 जून 2016

लेखन में पैसा-वैसा कुछ है नहीं!

कल मैंने एक लेख लिखा था कि लिखना शुरू कैसे करें?...चलिए, आप ने नहीं देखा, अच्छा ही किया...😊😊

आज मुझे ध्यान आ रहा कि लेखन को एक प्रोफेशन बनाने से पहले अच्छे से सोच-समझ लेना चाहिए..एक हॉबी के तौर पर, एक तफरीह के लिए लिखना ..या आप के पास कुछ ऐसा है जो आप दुनिया से बांटना चाहते हैं...बिल्कुल वही सूर्य की रोशनी वाली बात...तो आप बस लिखते रहिए...ऐसे ही ...लेिकन राशन पानी लेखन से चल पाए...मुझे नहीं लगता, होंगे कोई विरले जो यह काम कर लेते होंगे...उस के लिए लेखन के साथ जुगाड़ू प्रवृत्ति होना भी लाजमी है..

जो बातें शेयर करता हूं ...कोई झूठ वूठ न ही लिखता हूं..न ही ज़रूरत है..लेकिन इतना ध्यान अवश्य करता हूं कि जिस बंदे ने जो बात मेरे को गोपनीय से बताई है मैं कुछ भी हो जाए उस को धोखा नहीं देता, चाहे कुछ भी हो जाए...बस, एक यही अच्छी आदत है ...मरीज़ों की बातें बहुत सी शेयर करता रहता हूं इस ब्लॉग में लेिकन गारंटी है कि अगर कोई मेरी पोस्टों को पढ़ कर किसी को पहचान पाए.....हां, कुछ हट्टे-कट्टे बुज़ुर्गों की फोटो ज़रूर लगा देता हूं क्योंकि उन्हें भी अच्छा लगता है और मुझे भी आप को टहलने के लिए प्रेरित करने के लिए कुछ तो मसाला चाहिए होता है..
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एक ३५-४० के आदमी से मुलाकात हुई...(कहां हुई, कैसे हुई... रहने दें) ..मैंने पूछ लिया कि आप क्या करते हैं...कहने लगा कि मीडिया में हूं...मीडिया में आदमी क्या है, क्या नहीं है, यह किसी से दो बातें कर के पता चल जाता है ...अच्छे से...फिर वह बंदा कहने लगा कि मैं किताबे भी लिखता हूं..मुझे अच्छा लगा..

मेरे कहने पर वह अगली मीटिंग में अपनी एक किताब ले आया...यह किताब क्या थी, चाटुकारिता का एक ग्रंथ था...मुझे कवर देख कर ही बात समझ में आ गई...लेकिन उस पर उस का नाम कहीं नहीं लिखा था..बताने लगा कि जिस आदमी का नाम उस किताब पर है उससे उसे पचास हज़ार रूपये मिले हैं....मुझे इतनी खुशी हुई कि मैं ब्यां नहीं कर सकता...मैंने उस की पीठ थपथपाई ...इसलिए कि अब हिंदी के लेखकों में इतना दम होने लगा कि वे भी इतनी बड़ी रकम पा सकते हैं...

जी हां, वह शख्स गोश्त-राइटर था (Ghost writer) ...भूतलेखक कहते हैं इसे ..अभी फ़ादर कामिल बुल्के की अंगरेजी हिन्दी कोश से देखा है ... इस में क्या होता है किसी रचना को लिखता कोई और है ..लेिकन उस का नाम कहीं नहीं होता, उसे बस अपना मेहनताना लेकर किनारा कर लेना होता है...

बंदा बता रहा था कि उसने सात के करीब किताबें लिख दी हैं इस तरह से ...हर एक के चालीस-पचास हज़ार रूपये मिल जाते हैं....मैं उस की इस उपलब्धि पर बहुत खुश हुआ ...सिर्फ इसलिए कि मैंने अपने नाना जी की गोश्त राइटिंग के बारे में भी सुन रखा है, उन के बारे में भी अभी बताऊंगा...इत्मीनान रखिए...

हां, उस बंदे की किताब में २०० के करीब किसी लीडर की तस्वीरें थीं, टनाटन ग्लॉसी पेपर पर... एक अच्छे पब्लिशिंग हाउस ने किताब प्रकाशित की थी...ज़ाहिर है उस छापने वाले की भी सेवा की गई होगी ...बीच बीच कुछ लिखा था...लिखा क्या था, तारीफ़े के पुल बांधे गये थे..

वह मुझे कहने लगा..कैसी लगी?...मैंने कहा..बहुत अच्छी है.. क्योंकि मैं उस के श्रम की अपने नाना जी के श्रम से तुलना कर रहा था...और मुझे अच्छा लग रहा था कि जैसे इस माई के लाल ने मेरे नाना जी का बदला लिया है दुनिया से ...at times, how irrational thinkers we become so foolishly! Anyway, fact is fact! ...कहने लगा रखेंगे पढ़ने के लिए?....मैंने कहा ..नहीं, देख तो ली है..आप के काम आ जायेगी...मैंने इसलिए नहीं ली किताब की पढ़नी मैंने है नहीं, बिना वजह मैं घर में मौजूद दुनिया के लगभग सभी विषयों पर उपलब्ध सैंकड़ों किताबों में इसे कहां घुसाऊंगा...पहले ही घर में गालीयां पढ़ती रहती हैं ...किताबों के बढ़ते अंबार की वजह से! 

नाना जी, श्री देवी दास जी बसूर 
मेरे नाना जी, स्व. देवी दास जी बसूर, उन्हें विभाजन के बाद Pak-occupied Kashmir (PoK) से अंबाला आ कर रहना पड़ा...शुरू शुरू में १९४७ के बाद कुछ समय के लिए वह जालंधर में एक अखबार में सब-एडीटर रहे ..लिखने पढ़ने का शौक तो था ही ... उर्दू का अखबार था... कुछ अरसे बाद वे लुधियाना में किसी रईस के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगे ..उस रईस ने उन्हें रहने के लिए जगह भी दे दी थी..लेकिन यह सिलसिला चल नहीं पाया...सारा परिवार अंबाला में था...इसलिए कुछ समय बाद इन्होंने अंबाला में ही ट्यूशनें पढ़ानी शुरू कर दीं... 

हम लोग जाते तो देखते कि वह सुबह और शाम चार -पांच बच्चों को ट्यूशन दिया करते थे.. गणित और इंगलिश के बहुत अच्छे ट्यूटर थे..वे तो कभी नहीं बताते, लेकिन नानी को पूरा पता रहता था कि शहर का कौन सा निकम्मा और नालायक बच्चा कैसे इन के पास आकर अच्छे अंकों में पास हो गया... नानी को उन बच्चों के मां-बाप बताया करते थे...इस चक्कर में अपनी नानी की भी तूती बोलती थी...अच्छी बात है ...

लेकिन उन का एक दोस्त था, नाम नहीं लिखूंगा.....आठवीं ,दसवीं कक्षा में हम लोग हिंदी की किताब पढ़ते तो मेरी मां बता दिया करती कि यह तो तुम्हारे नाना का दोस्त है ...वह बहुत मशहूल लेखक था...फिर हमें धीरे धीरे पता चला कि उस लेखक के लिए मेरे नाना जी गोश्त-राइटिंग करते थे...बिल्कुल यारी दोस्ती में या कभी कुछ थोड़ा बहुत वह दे दिया करता था... नाना जी उर्दू में कहानियां लिखा करते और वह उन्हें हिंदी में अनुवाद कर के अपने नाम से छाप दिया करता ... धीरे धीरे वह बंदा तो बहुत बड़ा आदमी बन गया...

लेकिन अपने नाना जी हमेशा तंगहाली में ही रहे......लिखते हुए थोड़ा असहज लग रहा है...लेिकन उन्होंने जिंदगी पूरी सादगी और ईमानदारी से ..अपने बलबूते पर जी.....बहुत शांत थे... खाना-पीना एक दम सीधा-सादा...सफेद कमीज और पायजामा हमेशा... पढ़ने के शौकीन ..अखबारें और पत्रिकाएं पढ़ते रहना ..ज़्यादा बात नहीं किया करते थे..उन की बैठक में हम लोग जाते तो बस हमें देख कर मुस्कुरा दिया करते ...

क्या आप यकीं करेंगे कि कोई इंसान ८०-८२ साल की उम्र तक ट्यूशनें पढ़ाता रहा हो...हमनें उन्हें कभी बीमार नहीं देखा...लेकिन बढ़ती उम्र के साथ ट्यूशनें आनी कम हो गईं...मुझे अच्छे से याद है हमारा भी उन से ऐसा लगाव कि उस उम्र में उन के ट्यूशन वाले छात्रों की संख्या कम होते देख कर मुझे बहुत बुरा लगता...कारण आप समझ ही सकते हैं! लेकिन यह मुझे पता है कि पढ़ाते बहुत ही अच्छा थे...इंगलिश और गणित पर मास्टरी, कोई जवाब ही नहीं। 

अच्छा, वापिस उस भूतलेखक की तरफ़ आता हूं...जिसने कुछ पन्ने लिख कर ...५० हज़ार रूपये का जुगाड़ कर लिया.. मुझे खुशी हुई ...मैंने उसे इतना तो कहा ..कि क्या उसे पता है कि ५० हज़ार रूपये में आपने उस व्यापारी का कितना बड़ा काम कर दिया है ... सोचने लगा, फिर कहने लगा कि हां, मैं सब समझता हूं ..इस किताब के बलबूते वह अपने लाखों के काम करवायेगा...क्या करें, अपनी इच्छा अनुसार पैसे मांगे भी तो नहीं जा सकते। 

मैंने फिर भी कहा ...नहीं, यार, कोशिश तो करो...अगली बार यह राशि बढ़ा दो....पता नहीं मुझे क्यों लग रहा था मैं अपने नाना जी को मिलने वाले कम पैसों का बदला ले रहा था...उसे अपनी राशि बढ़ाने के लिए कह कर ...how foolish of me! Isn't it?

I love this song so very much!! ...particularly the lyrics and the geat great Dada Muni..



शहीदों के सरताज.. श्री गुरू अर्जुन देव जी...कोटि कोटि नमन्

आज श्री गुरू अर्जुन देव जी का शहीदी पर्व है...मैंने पेपर में देखा कि एक न्यूज़-रिपोर्ट तो थी कि कहां कहां पर लंगर लगेगा...लेिकन इस महान् शख्शियत के बारे में ..इऩ के साहित्य सृजन के बारे में..श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी का संपादन इन के द्वारा कितनी कुशलता से किया गया...इस के बारे में कुछ भी नहीं था..बस, दो पंक्तियां लिखी थी लाहौर में मुगल शासक जहांगीर ने इन्हें किस तरह से शहीद करवा दिया...

बस, इतनी जानकारी से क्या बात बन जायेगी?...मैंने देखा है कि हमारी उम्र के लोगों को ही विभिन्न धर्मों के बारे में कुछ भी ज्ञान नहीं है...ऐसे में अगली पीढ़ी से क्या एक्सपेक्ट करें कि वह विभिन्न धर्मों के बारे में जानकारी ग्रहण करे।

यह बहुत ही ज़रूरी है ...मुझे यह शेयर करने में कोई शर्मिंदगी नहीं है कि मुझे स्वयं नहीं पता होता कईं बार अन्य धर्मों के बारे में कि आज फलां फलां त्योहार है, इस मित्र ने फेसबुक पर या अन्य किसी सोशल मीडिया पर कोई पोस्ट डाली है तो यहां बधाई देनी बनती है ..या क्या कुछ कहना बनता भी है! विशेषकर मुस्लिम पर्वों के बारे में मेरे साथ ऐसा ही होता है ...मैं इन दोस्तों की पोस्टों पर टिपियाते हुए पहले दूसरे लोगों के कमैंट देख लेता हूं, फिर उसी अनुसार अपनी मंगल कामनाएं भेजता हूं..

मैं अकसर सोचता हूं कि हम ऐसे कब तक इतने वाटर-टाईट डिब्बों में अपने आप को कैद कर रखेंगे...हमें एक दूसरे के धर्म के बारे में अच्छे से जानना होगा...वैसे भी ये रब्बी पुरूष किसी एक समुदाय के लिए तो आते नहीं...सारी कायनात का कल्याण करना ही इन का उद्देश्य होता है ...
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सतगुर आउंदा दुनिया उत्ते सारे ही संसार लई...
सतगुर आउंदा दुनिया उत्ते एके दे प्रचार लई...

दुनिया के सभी धर्म जोड़ने की बात करते हैं...बेशक! हमारी जानने की इच्छा कम होती जा रही है ..हम घिसी पिटी फूहड़ सी हिंदी फिल्में, सीरियल बार बार देखते नहीं थकते...लेकिन किसी सत्संग आदि जगह में इस तरह से बैठते हैं जैसे कोई सज़ा मिली हो!
बुल्लेया रब का की पाना..
एधरो पुटना तो ओधर लाना...
हां, आज मेरी बहुत इच्छा हुई कि मैं गुरू साहिबान के बारे में कुछ पढ़ूं...लेकिन कहां पढ़ूं...दोस्त लोग तो बस पोस्टर भेज देते हैं शहीदी दिन के ...लेकिन गूगल कब काम आयेगा...इसे हमें ढंग से इस्तेमाल कर लेना चाहिए...और जिस भाषा में कुछ जानकारी चाहते हैं अगर सर्च उसी लिपि में करेंगे तो बेहतर होगा...

हां, एक बात जैसा कि आप जानते ही हैं कि लगभग हर तरह की जानकारी विकिपीडिया पर तो मिल ही जाती है ...सब से पहले मैंने गुरू साहब के बारे में इस लिंक पर जाकर पढ़ा... गुरू अर्जुन देव जी महाराज (विकिपीडिया लिंक)

 इस के बाद मुझे कुछ और भी जानने की इच्छा थी ..इसलिए मैं दूसरे किसी सर्च रिज़ल्ट पर चला गया और गुरू महाराज के बारे में और भी जानकारी प्राप्त हुई.. गुरू साहब का जीवन परिचय 

हर विषय पर इतनी सामग्री पड़ी है इंटरनेट पर, बस हम लोग ही सुस्त रहते हैं। महान लोगों के जीवन के बारे में पढ़ते रहने से हमें कुछ तो प्रेरणा मिलती ही है..बेशक...सब चीज़ अखबारों से और इलैक्ट्रोनिक मीडिया से ही एक्सपेक्ट नहीं कर सकते! क्या ख्याल है?


अगर आप पंजाबी भाषा समझ लेते हैं तो मेरे कहने पर आप छः मिनट का समय निकाल कर संत सिंह मस्कीन साब की बात ज़रूर सुन लीजिए...

गुरू साहब अर्जुन देव जी की शहादत को हमारा कोटि कोिट नमऩ..

गुरू अर्जुन देव जी साहिब के ऊपर यह एक डाक्यूमेंटरी भी है ..

बचपन से ही ऐसी यादें है कि इस शहीदी दिवस पर हम लोग जगह जगह लगी शबीलों पर जाकर मीठे दूध की छबीलों से प्रसाद लेते,  उबले हुए चने भी मिलते ..क्या कहते हैं इन्हें पंजाबी में..हां, भंगूड़...कईं बार रूह-अफज़ा वाला दूध मिलता..कभी कोई शर्बत ...लेकिन भंगूड़ साथ में ज़रूर बांटे जाते...

गुरू जी को कोटि कोटि नमन ...इस प्रेरणा दिवस के हम सब यह प्रेरणा लें कि जिस एकत्व का पाठ उन्होंने मानवता को पढ़ाया, प्यार, नम्रता का संदेश दिया...हम सब उस पर चल पाएं। 

मैं भी अभी थोड़े समय में गुरूद्वारे जाकर मानवता के कल्याण की अरदास करूंगा और गुरू घर का प्रसाद ग्रहण करूंगा..क्या आप ने प्रसाद ग्रहण किया ?



चलिए, लखनऊ को थोड़ा जानते हैं!



आज सुबह मेरी इच्छा हुई कि साईकिल पर लखनऊ शहर को देखा जाए...ये सब जगहें पहले से देखी हुई हैं..लेिकन वैसे ही इच्छा हुई..कल बड़ा मंगलवार था ...यह यहां एक मेले की तरह होता है ..और सैंकड़ों जगह पर शहर में खाने-पीने के भंडारे लगते हैं...कैंट एरिया से गुज़रना हमेशा अच्छा ही लगता है घने पेड़ों की झुंड की वजह से ...फौजी लोगों से हमें पेड़ों के रख-रखाब की तहज़ीब सीखने की ज़रूरत है।

मीडिया में कुछ आ रहा था इन भंडारों से पहले की इस की वजह से प्लास्टिक कचड़ा बहुत बड़ी मात्रा में इक्ट्ठा हो जाता है ...लेकिन देखने में तो मुझे ऐसा कुछ विशेष दिखा नहीं...बहुत अच्छा लगा..
यह लखनऊ का चारबाग स्टेशन है ..मैं यहां से होते हुए अमीनाबाद के लिए निकला..





चारबाग स्टेशन से नाका चौराहा तक जाते हुए पाया कि बहुत सी जगहों पर ऐसे पत्ते बिक रहे हैं...देखते ही याद आया कि बट पूजन था...शायद उस से से कुछ लिंक हो...लेकिन मेरी फिज़ूल की उत्सुकता कहां ऐसे शांत हो पाती...इस बंदे से पूछ लिया कि ये कौन से पत्ते हैं...उस ने बताया कि यह महुआ के पत्ते हैं..रायबरेली, बछरावां आदि जगहों से लाते हैं..सौ सौ के बंडल हैं..२० रूपये में बिकते हैं...उसी ने ही बताया कि पान को इस में बांध कर दिया जाता है ...आप चाहें तो उसे दो तीन दिन रख लीजिए...सूखेगा नहीं..उस की ताज़गी जस की तस बनी रहती है ..अखबार-वार में तो पान खराब हो जाता है ...

चलिए, अच्छी बात है ..पेड़ों ने लोगों की इस तरह से भी रोज़ी-रोटी का जुगाड़ किया हुआ है...
यह अमीनाबाद का गणेशगंज बाज़ार है ..मैने देखा है िक देश के सभी शहरों के पुराने इलाके सब एक जैसे ही लगते हैं..शांत से...अमृतसर, फिरोजपुर, जगाधरी, दिल्ली, बंबई, त्रिचरापल्ली...सब पुराने इलाके एक जैसे!!



अमीनाबाद के गड़बड़झाला एरिया में यह बाज़ार कैसी सुबह सुबह...बीसियों मजदूरों ने इसे घेर रखा था..पास जाकर देखा तो यह शख्स एक मैजिक पर्स (बटुआ) बेच रहा था...बात केवल इतनी सी थी कि इस में पैसे रखते ही वे अपने आप जकड़े जाते हैं...२०-२० रूपये में बिक रहे थे...उस हाकर की बातों में इतना दम था कि मैं तो उस का वर्णन भी नहीं कर पाऊं...मेरी भी इच्छा तो हुई ..फिर ध्यान आया कि वैसे ही हमारा घर पहले ही से एंटीक चीज़ों की वजह से एक म्यूज़ियम सा बनता जा रहा है ..और पास ही उबले हुए चनों का थोड़ा नाश्ता-पानी भी चल रहा था..




अमीनाबाद के हनुमान जी के मंदिर भी बाहर देखा तो इसी तरह का मंजर ही दिखा..मैंने पहले भी लिखा कि मुझे इस तरह का बॉयोडिग्रेडेबल कचड़ा देख कर अच्छा लगा...लगभग जितना भी आज मैं घूमा वहां पर ९० प्रतिशत कचड़ा पत्तल से तैयार दोनों का ही था...
यह लखनऊ का प्रसिद्ध केसरबाग चौराहा है ...ऐतिहासिक महत्व की एक अहम् जगह...


आज कर गोमती नदी के किनारे एक कारीडोर तैयार हो रहा है ...सैलानियों के टहलने के लिए...जोरों शोरों से काम चल रहा है बहुत सी जगहों पर एक साथ..गोमती के िकनारे, लखनऊ शहर में..





 यहीं गोमती नदी के िकनारे से ही लौटने की इच्छा हुई..लेकिन बड़ा हनुमान मंदिर पास ही में ही था...उधर भी हो आया....लखनऊ का यह मंदिर हमेशा श्रद्धालुओं से खचाखच भरा रहता है..इस की बहुत अधिक मान्यता है ...बोलो बजरंग बली का जय!!


इस मंदिर के पास भी बिल्कुल कचड़ा नहीं दिखा ...इन पत्तल की प्लेटों को देख कर यही लगा कि क्यों लोग भंडारों में या लंगरों में बेकार में थर्मोकोल और घटिया और रिसाईकल्ड प्लेटों का पहाड़ खड़ा कर देते हैं...कईं बार लोकाचार के कारण मजबूरी होती है ..लेिकन मेरी इन जगहों पर कभी भी कुछ खाने की इच्छा नहीं होती...कोफ़त सी होती है ...आिखर दिक्कत है क्या इन प्लेटों में...सस्ती तो होती ही हैं बेशक..लेकिन इन का डिस्पोज़ल कितना बढ़िया से हो जाता है ...ठीक है, कुछ दाल इधर उधर गिर भी जायेगी तो उस के लिए हज़ारों प्लास्टिक की प्लेटों का अंबार लगाने से तो बच जायेगा...बहुत से लंगरों में भी अब स्टील की प्लेटें भी गायब होती जा रही हैं...शायद धोने वोने का चक्कर होता होगा, मेरे जैसों को तो लंगर लेकर वहां से भागने की जल्दी होती है ..लेिकन व्यवस्था करने वालों को तो सब कुछ देखना पड़ता है...हम तो बस नुक्ताचीनी करने में माहिर हैं......जो भी है, प्लेटें दोनें तो भई पत्तल के ही अच्छे लगते हैं..वरना तो सिर ही दुःखता है!


वापिस लौटते समय यह लक्खी दरवाजा दिख गया...देखा तो पहले भी इसे बहुत बार है ...अखबारों में भी इस के बारे में आता रहता है लेिकन यह शिलालेख जो ऊपर है ...इस पर कभी ध्यान नहीं गया...पता है क्यों?....हम जब मोटरकार या दो पहिया वाहन पर होते हैं तो हमें कहां यह सब देखने की फुर्सत होती है...आज सुबह इधर कुछ सन्नाटा था और मैं साईकिल पर था तो िदख गया...वरना तो ... वैसे लक्खी दरवाजे की फोटू कुछ ज़्यादा बढ़िया नहीं आई...रोशनी का चक्कर था..

और यह ऊपर तस्वीर है यह केसरबाग सफेद बारादरी की है ...लखनऊ के सांस्कृतिक आयोजनों की जान...फिल्म निर्मात्ता मुजफ्फर अली भी यहां पर अकसर कुछ प्रोग्राम करते रहते हैं...वैसे भी यहां कुछ न कुछ चलता ही रहता है ...

बस करता हूं अब....बस, जाते जाते यही ध्यान आ रहा कि किसी भी शहर की रूह को महसूस करने के लिए मेरे विचार में एक ही उपाय है ..पैदल नाप लीजिए इन सब जगहों को ...वरना, साईकिल तो है ही...बाकी, तो सब जुबानी जमा-खर्ची है, जितनी भी कर लें....आप सोच रहे होंगे कि अब तू हम से साईकिल चलवाएगा..I never meant that! Just shared my experience which has always been so blissful and invigorating!

इस पोस्ट को सील करते हुए और शहर को सुबह सुबह इतना सा देखने के बार मुझे एक ही प्रार्थना का ध्यान आता है ...जब भी यह गीत बजता है या मैं बजाता हूं तो मैं भी इस अरदास में सच्चे दिल से शामिल हो जाता हूं...एक एक शब्द दिल को छूता है ..प्रहार करता है.....आप भी पूरी तन्मयता से सुनिएगा...

मंगलवार, 7 जून 2016

लिखना शुरू कैसे करें?

कुछ याद आया?...मुझे तो आया...बस, लिखने के लिए ऐसा जुनून चाहिए, और कुछ नहीं...
बहुत बार इस तरह के प्रश्न पूछे जाते हैं कि हम लोग लिखना तो चाहते हैं लेकिन झिझक होती है...बात है भी ठीक, अपनी ज़िंदगी की किताब कैसे अचानक लोगों के सामने खोल दी जाए!

लेिकन हर काम के लिए एक सतत प्रयास और अभ्यास तो चाहिए ही ...लिखना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है...सन् २००० से पहले जब मैं विभिन्न पत्रिकाओं के लिए अपने क्षेत्र से जुड़े लेख भेजा करता था तो मुझे यही लगता था कि मेरे पास तो बस २०-३० विषय ही हैं, जिन पर मैं कुछ कह सकता हूं..उस के बाद क्या लिखूंगा?...१५ साल घिसने के बाद अब सैंकड़ों बातें हैं करने के लिए...बातों से बातें स्वतः ही निकलने लगती हैं...लेकिन वक्त की कमी, आलस्य और उमस भरी गर्मी की वजह से वे मन में ही रह जाती हैं। 

इतने में क्या हुआ...यह शायद २००१ या २००२ की बात है...केन्द्रीय हिंदी निदेशालय ने एक प्रतियोगिता रखी ...नवलेखक अपनी अपनी रचनाएं भेजें..चयनित लेखकों को हम लोग नवलेखक शिविरों में भेजेंगे..

उन दिनों मुझे कंप्यूटर पर हिंदी में लिखना नहीं आता ..वैसे कंप्यूटर था भी नहीं उन दिनों हमारे पास...मैंने भी एक लेख लिख कर पोस्ट कर दिया...डाकिया डाक लाया...यह भी लेख संस्मरणों पर ही आधारित था..

कुछ दिनों बाद चिट्ठी आ गई कि आप को आसाम के जोरहाट में दो हफ्ते के लिए नवलेखक शिविर के लिए आमंत्रित किया जाता है ...जोश होता है उस उम्र में..फिरोजपुर से दिल्ली, दिल्ली से गुवाहाटी और वहां से जोरहाट की ओवर-नाइट यात्रा ...पहुंच गये जी जोरहाट...

वे पंद्रह दिन मेरे लिए बहुत अहम् थे...देश भर के प्रसिद्ध लेखक और हिंदी विद्वान उन्होंने वहां बुलाए हुए थे..सुबह से शाम तक हिंदी लेखन के बारे में बाते ही बातें...अपनी बात खुले से कहने की सीख....

एक तिवारी जी थे ..उन से हमने हिंदी की डिक्शनरी देखने का सलीका सीखा...सच में हम लोग हिंदी की डिक्शनरी में कुछ ढूंढ ही नहीं पाते थे पहले...उन्होंने ही प्रेरित किया कि कुछ भी लिखो...रोज एक पन्ना लिखो...साल में ३६५ पन्ने हो जायेंगे ...उन में से सौ पचास तो कहीं छपने लायक होंगे...अगर नहीं भी होंगे तो आप लिखते लिखते अपनी बात कहनी सीख जाएंगे...

मुझे उन की बातें बड़े काम की लगीं...वे अकसर कहते कि आप जो भी लिखते हैं रोज़ वह भी आने वाले समय में साहित्य ही कहलायेगा...वे अपने नाना की बात सुना रहे थे कि दशकों पहले उन के नाना जी ने एक जगह पर सब्जियों, दालों, चाय, शक्कर, घी के भाव लिखने शुरू किए...वे उम्र भर इसे लिखते रहे...और वह बता रहे थे कि आज की तारीख में वे प्रामाणिक दस्तावेज़ हैं, यह भी साहित्य ही है...

पंडित नेहरू बेटी इंदिरा के नाम जो खत लिखते थे ..किसे पता था कि वे छपेंगे, किताब की शक्ल ले लेंगे....ऐसी अनेकों अनेकों उदाहरणें हैं....

बस, सुझाव यही है कि रोज़ कुछ न कुछ लिखने की आदत डाल लीजिए...रोज़ का मतलब रोज़....छुट्टी आप को चाहिए ही क्यों?...

मुझे कोई कहता है ना कि लिखें तो लिखें क्या, मैं अकसर उन्हें यह भी कहता हूं कि चलिए..आप शुरूआत इस तरह से करिए कि दिन भर में हमारे पास सैंकड़ों नहीं भी तो बीसियों वाट्सएप मैसेज आते हैं...इन में से दर्जनों ऐसे होते हैं जिन्हें हम अगले ही क्षण आगे शेयर करते हैं...मुझे तो कईं बार यह बड़ी फिक्र होती है कि यार, अब इन्हें फिर से पढ़ना होगा तो कैसे हो पायेगा?

आप स्वयं देखिए कि कितनी बार आपने वाट्सएप मैसेजों को पीछे पीछे सरका के देखा...कितनी बार?...शायद कभी यह मैं कर लेता हूं...लेकिन बहुत बार मेरी आलसी प्रवृत्ति मुझे ऐसा करने से रोक देती है ...छोड़ो यार, जो गया सो गया, अब आगे इतने मैसेज इक्ट्ठा हो गये हैं...इन्हें देखते हैं...

बिल्कुल शुरुआत में आप एक काम कर सकते हैं...एक बड़ी सी डायरी लगा लीजिए..उस में उन सभी मैसेजों को लिखना शुरू करें जिन्होंने आप को गुदगुदाया, हंसाया, कुछ सोचने पर मजबूर किया या फिर आप की आंखें ही नम कर दी हों... 

अच्छा, आप यह काम शुरू करिए..और मुझे बताइए कि आपने शुरू कर दिया है ...आगे की क्लास उस के बाद...

अभी ध्यान आया कि मैंने कुछ साल पहले इंटरनेट लेखन की वर्कशाप के बाद कुछ ज्ञान भी बांटा था..अगर कभी फुर्सत हो तो देखिएगा..मुझे तो उन्हें देखते हुए डर लग रहा है, पता नहीं क्या कुछ टिका दिया होगा... मैं उन्हें वापिस नहीं देखता क्योंकि फिर मैं उन में गुम हो जाता हूं... 

उन लेखों के िलंक यह रहे ..वैसे ये खूब पापुलर हुए थे उस ज़माने में .... 

चलिए, अपनी कापी खोल लीजिए..और मोबाइल से अच्छे अच्छे मैसेज निकाल कर लिखना शुरू करिए... and start exploring this wonderful of words! 

आप भी समझ लीजिए कि इस मस्ती की पाठशाला में आज आप का पहला दिन है...

लखनऊ शहर के बदलते मिजाज...

यह मौसम की बात नहीं है...मौसम तो अब हर जगह एक जैसा ही हो रहा है ...गर्मी में तंग करने वाली उमस-वुमस तो अब हमारे साथ ही जायेगी...इस का कोई क्विक-फिक्स उपाय नहीं है, हम सुधरने वाले हैं नहीं..

मैं तो मिजाज की बात कर रहा था इस शहर की ...कुछ समय पहले हम ने अपने एक साथी से ऐसे ही पूछ लिया कि यहां इस शहर में इतनी वारदातें क्यों होती हैं!...चलिए, वारदातें भी अब लगभग सभी जगहों पर होने ही लगी हैं..लेिकन जिस तरह के वारदातें यहां दिन-दिहाड़े होती हैं उस से यही लगता है कि यहां पर गुंड़ों को किसी का खौफ़ ही नहीं है..

हमें यह जवाब दिया गया कि आप को यू.पी के दूसरे शहरों का नहीं पता... भाग्यशाली हैं वे लोग जिन्हें लखनऊ पोस्टिंग मिल जाता है ...यहां आने के लिए तो लोग सोर्स लगवा २ के हार जाते हैं...ठीक है, हम मान गये..

दूसरे शहरों से अचानक याद आ गया कि हमें भी बरेली और सुल्तानपुर भिजवाए जाने की पूरी तैयारियां थीं...पूरी फिल्मी स्टोरी है...लेकिन Central Administrative Tribunal (CAT) ने बचा लिया..क्या करेंगे, मजबूरी में CAT की चौखट तक जाना ही पड़ा। कारण यह था जो किसी फाइल में नहीं है, ३-४ साल के मेरे बेटे से badmintom खेलते हुए वह बच्चों वाली छोटी सा प्लास्टिक शटल एक उच्च अधिकारी की बेगम के सिर पर जा लगी ...बस, तब से हमारे बुरे दिनों की शुरूआत हो गई...

मैं भी किधऱ की बात िकधर ले गया...वे किस्से बताने को उम्र पड़ी है!

दरअसल आज कल जगह जगह बोर्ड दिख जाते हैं...लखनऊ बदल रहा है....लखनऊ सुधर रहा है...

मैंने पिछले दो तीन दिनों में अपनी साईकिल यात्राओं के दौरान मैट्रो का काम पूरे ज़ोरों शोरों से होते देखा है ..सोचा कि वे फोटू ही आप से शेयर कर दूं... मैं कितना लिखूंगा?..A picture is worth 1000 words!

यह जो तस्वीर है यह आलमबाग एरिया के मवैया एरिया की फोटो है ..परसों की है ..सुबह सुबह यहां पर खूब तेज़ी से काम चल रहा होता है ...पहले चरण में मैट्रो लखनऊ के अमौसी एयरपोर्ट से चारबाग रेलवे स्टेशन तक चलने वाली है इसी वर्ष के दिसंबर से पहले ... यह मैट्रो स्टेशन चारबाग मैट्रो स्टेशन से एक-डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर ही है...यहां पर मैट्रो के काम के लिए कुछ न कुछ पंगा ही रहा ...मुश्किल था ... प्रशासनिक नज़र से ...आप इस तस्वीर में देख रहे हैं...एक रेलवे लाइन है पहले से जिस पर से एक गाड़ी गुज़र रही है...अब मैट्रो का ट्रेक उस के ऊपर बनेगा...कुछ ग्रेडिएंट की दिक्कत थी..लेकिन रेलवे के इंजीनियरों को और विशेषकर उस महान शख्शियत श्री धर जी को सलाम...मैं आज सुबह सोच रहा था कि इस तरह के इंसानों को तो ईश्वर को ५० साल की उम्र बोनस में और दे देनी चाहिए...९० साल की उम्र में उन का उत्साह देखने को बनता है ...सादगी से भरा उम्दा जीवन..

कल और आज सुबह की साईकिल यात्रा के दौरान कुछ और तस्वीरें खींची मैट्रो रूट की आप तक हाल चाल पहुंचाने के लिए...


ये जो ऊपर दो तस्वीरें हैं ये कानपुर रोड़ की हैं..अमौसी एयरपोर्ट से दो तीन किलोमीटर पहले की हैं...ज़ोरों शोरों से काम चालू है ..

हां, परसों शाम कथाकारों के एक जमावड़े की तरफ़ जाते हुए अचानक हज़रतगंज एरिया में यह मैट्रो का बोर्ड िदख गया..यहां यह बताना चाहूंगा कि दूसरे चरण में काम चारबाग रेलवे स्टेशन से चलेगा और हज़रतगंज एरिया से होते हुए आगे जायेगी मैट्रो... लेकिन अभी यहां पर आज पहली बार मैंने यह बोर्ड देखा ...पता नहीं क्यों मुझे अचानक बचपन के दिनों में मिलने वाले लालीपॉप का ध्यान आ गया...समझने वाले को इशारा ही काफ़ी है...जो न समझे वो अनाडी है!

एक बात ज़रूर शेयर करना चाहूंगा कि हज़रत एरिया का मतलब जैसे अमृतसर के लिए लारेंस रोड़, दिल्ली की कनाट प्लेस, बंबई का फ्लोरा फाउंटेन एरिया....लखनऊ के लिए यह एरिया वैसा ही है ...यह जिस जगह पर आप इस मैट्रो का बोर्ड देख रहे हैं यह उत्तर रेलवे लखनऊ मंडल के बिल्कुल सामने हैं...इस एरिया में शाम को बेवजह तफरीह करने के लिए एक शब्द भी सुनते हैं......गंजिंग...Ganjing...  यहां तक कि अखबार वालों ने भी यह कंसेप्ट पकड़ कर हर रविवार के दिन गंजिंग फेस्टीवल करना शुरू कर दिया है ...उस दिन यहां ट्रैफिक की नो-एंट्री होती है .. लेकिन खूब धूम-धमाका, संगीत...खाने, मौज-मस्ती का मेला लगता है ...

दरअसल मेरी कोई पोस्ट पेड़ या पानी के मटके डाले िबना पूरी होना ही नहीं चाहती..क्या करूं..मजबूरी है ...
   कुछ दिन पहले शहर के ऐशबाग एरिया में शाम कुछ ऐसी दिखी थी.

इस तरह की तस्वीरें शायद आप को भी इस उमस भरी सुबह में कुछ ठंडक पहुंचा दें...मुझे तो मिल गई!

पता नहीं पिछली बार कब किसी पैदल यात्री को इतनी मस्ती से चलते देखा...पीछे से किसी बाईक के ठुक जाने के डर से बेपरवाह..
लखऩऊ की वी आई पी रोड़ पर आज सुबह से यह देख कर मैंने भी १९ जून की डेट झट से ब्लॉक कर दी...


पैदल चलने वालों के लिए अलग जगह, साईकिल वालों के लिए अलग, क्या करूं ..इतनी खुशी समा नहीं पा रहा हूं..



लगता है अब इस पोस्ट के िलफाफे को बंद करूं...और ड्यूटी पर निकल पड़ूं...बातों का क्या है...बातें ही बातें तो हैं अपने जैसे लोगों के पास...मेरे Nexus5 में हज़ारों फोटू हैं.....और हर फोटो एक दास्तां ब्यां करती है.......लेकिन कितना कुछ ब्यां करें, अब मैं भी बुड़्ढा होने लगा हूं....थक जाता हूं ..लिखते लिखते.. 😊

मेरा बेटा एंटरटेन इंडस्ट्री में हैं...creative head है....और बहुत बार मजाक करता है कि बाप, मुझे फिल्मी बनाने में तेरा बड़ा हाथ है, जब हमारी उम्र के बच्चे पढ़ने में लगे रहते थे तो तू हमें फिल्में दिखाता रहा ..हिंदी-पंजाबी के फिल्मी गीत सुनाता रहा, पंजाबी के लोकगीत सुनाता रहा, भगवंत मान की सीडियां दिखाता रहा ...रिजल्ट (Product)  तेरे सामने हैं ...मैं भी उसे कहता हूं कि मुझे फिल्मी बनाने में मनमोहन देसाई जैसे गजब फिल्म निर्मात्ताओं का हाथ है ... जिन्हें देखते- सुनते मैं अब भी किसी दूसरे ही संसार में खो जाता हूं .. 😊

सोमवार, 6 जून 2016

नमक हो टाटा का टाटा नमक..

नहीं ना, यह कोई स्पांसर्ड पोस्ट नहीं है...बस, कुछ बात करने की इच्छा हुआ टाटा नमक के बारे में .

आज शाम एक मित्र से बात हो रही थी..पता नहीं कैसे बातों से बात निकली कि उसने कहा कि प्रवीण, मैं टाटा नमक के कुछ पैकेट ले कर आया..उसी दिन वह दालें भी खरीद कर आया था...और उस दिन के बाद जब उन के घर में दालें बनने लगीं तो वे काली होने लगीं...उन लोगों को लगा कि सारी दालें खराब हैं...लेकिन नहीं दालें तो ठीक थीं...

मित्र बता रहा था कि वह नमक के पैकेट वापिस करने चला गया...और फिर बाबा रामदेव वाले नमक के पैकेट ले कर आया...बाबा की तारीफ़ कर रहा था..मैंने कहा ठीक है, बाकी तो कुछ भी उस का ले आना, पतंजलि की दंत कांति पेस्ट और मंजन से बच के रहना......मैं सैंकड़ों मरीज़ों के दांतों पर इस का प्रभाव देख चुका हूं..

अच्छा, जब मैंने उस की यह दालों के काला होने की बात सुनी तो मैंने उसे इतना पूछा कि तुम टाटा का नया वाला नमक ले कर आए होंगे, कहने लगा ..हां, तो मैंने उसे कहा कि उस में आयरन है ..(लोह युक्त नमक है वह) ..इस लिए दालों आदि में जब इस तरह का नमक डाला जाता है तो वे काली पड़ ही जाती हैं, उस के बारे में चिंता नही करनी चाहिए..

दरअसल मुझे याद आ रहा था उस से बात करते हुए कि लगभग तीन महीने पहले मैंने एक पोस्ट लिखी थी...लोहयुक्त नमक के ऊपर...इस का लिंक यह रहा ..आप इस लिंक पर क्लिक कर के देख सकते हैं...लोह युक्त नमक 

अपने पुराने लेख मैं लगभग कभी देखता नहीं...मुझे एम्बेरेसमेंट सी होती है ...पता नहीं क्यों, यह सब मैंने क्यों लिख दिया...पूरी किताब ही भला क्यों खोल के रख दी, बस, इसी चक्कर में मैं अपने पुराने लेखों को कभी पढ़ना नहीं चाहता...हां, बिल्कुल जैसे हलवाई अपनी मिठाई नहीं खाता..

मुझे ध्यान आ रहा था कि मैंने उस लेख में कुछ प्रश्न रखे थे..लेकिन अब ध्यान आता है कि यह कोई इश्यू नहीं है ... कि अगर किसी का हीमोग्लोबिन सही है तो उसे यह नमक नहीं लेना चाहिए... वैसे भी कहां एक आम भारतीय इतनी अच्छे से पोषित है कि उसे इस तरह से लोहयुक्त नमक की ज़रूरत नहीं है ...सब ले सकते हैं..और वैसे भी इस से किसी भी बंदे की दिन भर की आधी ज़रूरत ही पूरी होती है ...

एक विचार यह भी है कि टाटा जैसी कंपनी को इस तरह के मुद्दों को अच्छे से प्रचारित करना चाहिए था..इस मित्र ने मेरे से बात कर ली, मैंने अपनी तरफ़ से उस के संशय का समाधान कर दिया.....लेिकन अगर उसे पहले से पता होता या उस टाटा प्लस वाले पैकेट के ऊपर ही लिखा होता तो सब लोग पहले से ही तैयार होते ...कि दाल अाज थोड़ी काली बनने वाली है...है कि नहीं?

यह तो कमी रह गई ...टाटा कंपनी से ..और वैसे वेबसाइट पर यह लिखा हुआ कि यह नमक जब दालों आदि में डाला जायेगा तो उन का रंग डार्क हो जायेगा...

टाटा कंपनी की वेबसाइट पर एक प्रश्न है कि टाटा प्लस नमक (यानी लोह एवं आयोडीन युक्त नमक) से क्या भोजन के स्वाद में फर्क पड़ता है?..
Using Tata Salt Plus doesn't affect food taste. Some food items like pulses, rice, potato and vegetables may turn dark on addition of Tata Salt Plus. This is due to iron availability in Tata Salt Plus. For example, when an apple is cut and kept exposed, it turns dark due to its iron content, but is still edible and absolutely safe to use. 
जानकारी के लिए लिखना चाहता हूं कि १०० ग्राम टाटा प्लस नमक में .. सोडियम ३८ग्राम के लगभग, ऑयरन ८५ मिलीग्राम, और आयोडीन की मात्रा १५ppm से ज़्यादा होती है ..

अभी मैंने घर में पूछा तो मुझे Tata Salt Lite दिख गया... इस में सोडियम की मात्रा कम होती है ..३३ ग्राम के लगभग...लेिकन इस में ऑयरन नहीं है लेिकन आयोडीन तो है ही ...



नींद आ रही है, जल्दी से इसे खत्म कर रहा हूं...मुझे ध्यान आ रहा है कि कुछ िदनों के बाद नमक पर कुछ न कुछ लिखने का बहाना मिल ही जाता है ...आज भी मैंने हिन्दोस्तान पेपर के संपादकीय पन्ने पर नमक को कम करने के बारे में एक अच्छा लेख पढ़ा था, कल आप से वह भी शेयर करूंगा...

लेकिन जाते जाते एक आग्रह कि हो सके तो टाटा नमक प्लस ही इस्तेमाल करिए...हम लोगों ने भी अभी तक इसे इस्तेमाल नहीं किया...चलिए, हम लोग भी इसे इस्तेमाल करेंगे....जिस तरह से जब टाटा कंपनी का आयोडीन नमक आया था... तो लोग अनाप शनाप कुछ कहने लगे थे......लेिकन वह एक वरदान सिद्ध हुआ....निःसंदेह यह टाटा प्लस नमक भी एक बड़ा वरदान सिद्ध होगा....क्योंकि आज कल जिस तरह से लोगों का खान-पान हो गया है, एनीमिया थोड़ा बहुत तो बहुत सी महिलाओं में, बच्चों, बुज़ुर्गों में भी देखा ही जा रहा है ...

मेरी पिछली पोस्ट के प्रश्नों पर ज़्यादा गौर मत कीजिएगा और मेरे विचार में इस नमक का इस्तेमाल करने में ही समझदारी है ...मुझे यह प्रचारित करने का कुछ पैसा नहीं मिला ..और मैं कभी भी पैसे के लिए इस तरह का काम करूंगा भी नहीं.....आश्वस्त रहिए....अगर आप इस नमक का इस्तेमाल शुरू करने से अपने फैमली डाक्टर से बात भी कर लें तो और भी अच्छा रहेगा...

OK...Good night....शुभरात्रि, शब्बा खैर, रब राखा......Take care!

Related post...        लोहयुक्त नमक के बारे में आप का क्या ख्याल है? (पढ़ने के लिए यहां क्लिक करिए)

गाना यहां एम्बेड करते समय मुझे ध्यान आया कि नमक के ऊपर तो कोई गीत याद नहीं आ रहा ...फिर ध्यान आ गया नमक हराम का, नमक हलाल का भी ......सोचा, वैसे भी आज के दौर में नमक हरामी ज़्यादा चलन में है, उस ग्रेट फिल्म का यह गीत ही शेयर करते हैं...a wonderful and captivating song!


मथुरा कांड की जन्मपत्री पढ़िए...

पिछले कुछ दिनों से मैं टीवी पर खबरें नहीं देख रहा था..कोई विशेष कारण नहीं था..बस, ऐसे ही किसी न किसी काम में व्यस्त था..

मेरी मां ने ही दो तीन दिन पहले एक बार ऐसे ज़िक्र किया कि मथुरा में बहुत बुरा हो रहा है ...मुझे कुछ पता नहीं था..मैंने ऐसे ही कह दिया...जी हां।

कुछ समय बाद उसी दिन या अगले दिन किसी खबरिया चैनल पर एक टिक्लर चल रहा था ...रामवृक्ष के बारे में कुछ...

अब अफवाहें, अंधविश्वास, डर, खौफ़, तथाकथित बाबाओं के बारे में सुन सुन कर अपनी भी कुछ इस तरह की कंडीशनिंग हो चुकी है कि हम कुछ इस तरह के नाम सुन कर अपनी ही राय तुरंत बना लेते हैं...

रामवृक्ष का नाम मैंने जैसे ही सुना ..मुझे लगा यह भी किसी वृक्ष-रिक्श का चक्कर होगा...ढूंढ लिया होगा किसी पुरातन पेड़ को ..वैसे भी पर्यावरण दिन आने वाला है ...लेकिन तभी देखा कि वहां पर आगजनी हो रही है, लाठियां भंाजी जा रही हैं...सब कुछ अजीब सा लग रहा था..

अगले दिन पेपर में पढ़ लिया...कुछ कुछ समझ में आया...बहुत से खबरिया चैनलों पर अब विश्वास पूरा होता नहीं है..

दो दिन से खूब देख रहे हैं कि किस तरह से वहां मथुरा के उस पार्क में एक अलग सत्ता केन्द्र उस बंदे रामवृक्ष ने स्थापित कर रखा था..

एक बात और भी है कि हम वही देखते हैं वही सुनते हैं ..जो मीडिया हमें दिखाना चाहता है ...सब टीआरपी का चक्कर तो है ही, पैसों का भी चक्कर है ...बड़ा अजीबोगरीब बिजनेस माडल है हिंदोस्तान में मीडिया का ...सच्चाई जनता तो कहां पहुंच पाती है !


और कुछ दिखे न दिखे...ड्रीमगर्ल हेमा मालिनी के बारे में सनसनीखेज खबरें ज़रूर देख-सुन ली कि उस के लोकसभा क्षेत्र में इतनी आगज़नी हो रही थी और वह अपनी शूटिंग के बारे में तस्वीरें ट्विट करती रही....वैसे सुनील दत्त को छोड़ कर सभी फिल्मी सितारे जो लोकसभा राज्यसभा पहुंचे, उन का ट्रैक रिकार्ड ऐसा ही है...यह मैंने एक रिपोर्ट में पढ़ा आज..शायद नवभारत टाइम्स में ...पूरे आंकड़ों के साथ उन सब का रिपोर्ट कार्ड लगा हुआ था...

मेरे मन में पिछले दो तीन दिन से कईं प्रश्न उठते रहे कि यार, यह बंदा रामवृक्ष ...शरीर से भी इतना हृष्ट-पुष्ट नहीं लग रहा..लेकिन इस की बॉडी-लैंग्वेज ..और इतना दुःस्साहस ...पता नहीं कौन इस के पीछे है...अकेला आदमी ऐसी हिम्मत नहीं कर सकता...कुछ तो ताकतें पीछे होंगी...

कल एक मंत्री का ब्यान टीवी में देख रहा था जिसके बारे में सत्ताधारी पार्टी के एक व्यक्ति ने टिप्पणी की थी ...उस का ब्यां सुना तो उसने साफ़ कहा कि जांच तो होने दो, सच सामने आ जायेगा...

कल रात और आज सुबह उस पार्क में विनाशलीला की तस्वीरें दिखती रहीं...क्योंकि कल मीडिया को उस पार्क के अंदर जाने की अनुमति मिल गई थी...

चलिए, आप के सब्र का और इम्तिहान नहीं लेता हूं.. बस, इस पोस्ट के माध्यम से मैं एक सुझाव देना चाहता हूं हम लोग सारा दिन कुछ न कुछ इधर से उधर और उधर से इधर वाट्सएप पर शेयर करते रहते हैं...ऐसा ही है ना?...लेकिन संवेदनशील मुद्दों के बारे में शेयर करते समय हमें उस जानकारी के स्रोत के बारे में भी बता देना चाहिए...

इतना कुछ आता रहता है ...गु्र्दे खराब है, कैंसर जैसा रोग है ..तो फलां फलां जगह पर फलां फलां नंबर पर फोन करिए... उसे मिलिए...शर्तिया इलाज है, कुछ कुछ सरकारी जानकारी भी कभी कभी मिल जाती है ...लेकिन मैं गूगल पर जा कर या उस मंत्रालय की वेबसाइट पर विज़िट करने के बाद पुष्टि होने के बाद ही उसे आगे किसी से शेयर करता हूं....अगर उस में कुछ शेयर करने लायक होता है तो ...

दरअसल हम जो कुछ भी वाट्सएप पर शेयर करते हैं...चाहे वह माल हमें पीछे से आया है या अपने दिमाग की ही उपज हो ..एक बार हमारे हाथ से वह निकल गया तो उस पर हमारी मोहर लग गई...और अगर वह बात गलत निकली तो हमारी विश्वसनीयता पर ही प्रश्न लग जाता है ...इसलिए वाट्सएप पर अपनी छवि इस तरह की बनाईए कि अगर आप कुछ शेयर कर रहे हैं तो आप के संपर्क में आने वाले लोगों को लगे कि यह बंदा यह बात शेयर कर रहा है तो ज़रूर सच ही होगी... He/she is a no-nonsense type of person!

अपनी बात की विश्वसनीयता के लिए एक अच्छा उपाय यह भी है कि आप जो भी शेयर कर रहे हैं उस के नीचे उस का स्रोत भी लगा दें...जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है....आज मैं एक ग्रुप में रामवृक्ष के इतिहास के बारे में कुछ पढ़ने लगा....उस पढ़ते हुए लग रहा था कि अब यह बात ठीक है या गलत, इस का कौन फैसला करे....इसे आगे शेयर करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता....लेकिन तभी देखा उस पोस्ट के अंत में उस वेबसाइट का लिंक था जहां से उसे लिया गया था...

तुरंत उस महानुभाव की प्रशंसा की ...उन की इस शेयरिंग की वजह से इतनी अहम् जानकारी हासिल हुई...यह आदत आप भी डाल लीजिए...किसी की वाजिब प्रशंसा करने से कुछ कम नहीं हो जाता ...जो दिल में हो कह डालिए.

मैं उस लिंक पर भी गया ...और उस का लिंक आप के लिए यहां भी लगा रहा हूं...इसे अवश्य पढ़िए...और अच्छे से मेरी तरह दो बार पढ़िए....हम राजनीति नहीं करते ..लेकिन खबरों की खबर तो ले ही सकते हैं...उस में तो कोई बुराई नहीं...

यह जो मैं स्रोत को quote करने की बात कह रहा हूं...(attribution) ..वह इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि हम लोग वाट्सएप पर जब भी कोई वाकया शेयर करते हैं उस समय हम लोग एक सिटिजन जर्नलिस्ट की भूमिका में हैं...

और सीधी सी बात ...बाकी बातों को दरकिनार भी कर दीजिए..तो भी अपनी विश्वसनीयता की खातिर केवल और केवल वही शेयर करें जिस के बारे में आपने पुष्टि कर ली हो.....वरना लोग आप को भी गंभीरता से लेना बंद कर देते हैं....

और एक सुझाव जाते जाते ..कईं बार ५०० शब्दों की जगह आप की टूटी फूटी टाइपिंग के माध्यम से कही दो पंक्तियां ज़्याद प्रभावशाली हो जाती हैं...और इस से अपनी बात को खुल कर कहना भी आने लगता है ....

रामवृक्ष के बारे में जानिए इस लिंक पर जाकर ....  जयगुरूदेव के साम्राज्य पर कब्जे को लेकर हुआ मथुरा में महाभारत     ....इस रिपोर्ट को पढ़ते हुए मैं यही सोच रहा था कि जो लोग इस तरह की रिपोर्ट तैयार करते हैं वे निःसंदेह बहुत निर्भीक होते हैं...वरना अखबारों से तो मुझे इस तरह की कोई सूचना इन दिनों में दिखी नहीं...सब की मजबूरियां हैं..चुनाव सिर पर खड़े हैं, और इस तरह का लफड़ा सत्ताधारी पार्टी कहां अफोर्ड कर सकती है!

पोस्ट का उद्देश्य केवल यही था कि किसी खबर को शेयर करते समय उस का सोर्स भी बता दिया करिए....यह बात मैंने दस -बारह साल पहले सीखी थी...आज ध्यान आया आप से साझा की जाए...it add to your credibility!


रविवार, 5 जून 2016

आप्रेशन ब्लु-स्टार की धुंधली यादें...


मुझे इस आप्रेशन की वर्षगांठ जैसा शब्द िलखने में कष्ट हो रहा है ... लेिकन सच्चाई यह है कि कुछ यादें अमिट छाप छोड़ जाती हैं..

मुझे अच्छे से याद है कि आज के ही दिन ५ जून १९८४ की रात में उस दिन मैं और मां ही घर में थे..मैं २१-२२ वर्ष का था, मेरे एग्ज़ाम होने वाले थे उन दिनों....हम लोग आंगन में चारपाईयों पर सोने की इंतज़ार में थे..अचानक लाइट गुल हुई...और टैंकरों, तोपों की भयंकर आवाज़ें शुरू हो गईं...हम लोग अमृतसर के गोबिंदगढ़ किले से सटी कॉलोनी में रहते थे...यह जगह गोल्डन टेंपल से बस दो-अढ़ाई किलोमीटर की दूरी पर है..

पहले तो हमे लगा कि आर्मी की कोई एक्सरसाईज़ होगी...होती थी कभी कभी गोलाबारी ..आवाज़ें आया करती थीं...चंद मिनटों के लिए रुक रूक के...लेकिन उस दिन की तोपों, गोलों और गोलियों की आवाज़ बहुत अलग थी...भयंकर आवाज़ें थीं...किसी अनहोनी की आवाज़ें...

१९७१ की भारत पाक जंग को नज़दीक से देखा था...अचानक लड़ाकू हवाई जहाजों का आ जाना..कालोनी में भूमिगत बंकरों का बन जाना दो िदनों में, शाम के समय ब्लैक-आउट हो जाना, बीड़ी-सिगरेट वालों की खिंचाई होना...सब कुछ देख रखा था उन दो-तीन हफ्तों में...

लेकिन उस ५ जून १९८४ की रात तो उस से भी भयंकर थी...सारा आकाश लाल हो चला था..धूल-मिट्टी और लाली का गुब्बार...ऐसे लग रहा था कि जैसे दो देशों की जंग लग गई है ...वह रात बहुत भारी थी..सारे पंजाब पर, देश पर ..सारी दुनिया पर ...दुनिया ग्वाह है कि इसी के कारण बहुत सा इतिहास ही बदल गया ...उस रात ऐसा लग रहा था जैसे आज तो अमृतसर फनाह हो जायेगा....जहां तक मुझे याद है अगले कईं दिन कर्फ्यू लगा रहा ..

शायद उस दिन सारा अमृतसर जागता ही नहीं रहा होगा...सुबकता रहा होगा...हर कोई सदमे में था... लेिकन उस के कुछ दिन बाद भी हम लोगों ने कुछ ऐसी बातें सुनीं और देखीं भी जिन्हें याद भी नहीं किया जाना चाहिए...संक्षेप में कहें तो ब्लू-स्टार एक काला धब्बा था...कुछ भी कारण रहे हों, हर कोई एक आवाज़ में यही कह रहा था कि सरकार ने ऐसे हालात पैदा होने ही क्यों दिए कि अमृतसर जैसी पवित्र नगरी के इस महान स्थान पर इस तरह की कार्यवाही की आखिर ज़रूरत पड़ी!

श्री दरबार साहब, गोल्डन टेंपल या श्री हरिमंदिर साहिब ...ये सारे पंजाबियों की एक पहचान है...मैं तीन चार साल से लखनऊ में हूं...बहुत से मरीज़ों से बातें होती रहती हैं...तो वे बहुत बार पूछ भी लेते हैं ...आप कहां से हैं, मैं बताता हूं कि मैं अमृतसर से हूं...तो वे झट से चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान ला कर कहते हैं...अच्छा, हम भी गोल्डन टैंपल गये हुए हैं..फिर वे श्री दरबार साहिब की तारीफ़ें करने लगते हैं...वहां की साफ़-सफाई, वहां के अटूट लंगर की, वहां के सेवा-भाव की ...वहां के खुलेपन की ...वहां की रहमतों की ...क्या क्या दर्ज करूं, समझ नहीं आ रहा....

मेरी बचपन की यादों में गोल्डन टेंपल पूरी तरह से रचा बसा है ...किस तरह से हम लोग रिश्तेदारों के आने पर रिक्शों पर बैठ कर वहां ज़रूर जाया करते ...आधा दिन वहीं बिताना...परिक्रमा करनी, स्नान करना, लंगर छकना ...दुखभंजनी बेरी के दर्शन करना...

 मेरे प्यारी नानी...(स्व.)श्रीमति मेला देवी..पढ़ाई से कईं गुणा ज़्यादा गुढी हुई...त्याग और सहनशीलता की देवी!
शायद मैं पांचवी कक्षा में रहा होऊंगा..दरबार साहिब की कार सेवा की घोषणा हुई ...मुझे याद है मेरी नानी विशेष रूप से अंबाला से अमृतसर इस सेवा के लिए आईं...और जितने दिन वह रहीं...उतने दिन रोज़ाना वह कार सेवा में भाग लेती रहीं...दो तीन बार तो वह मेरी मां के साथ गईं...बाकी दिन, वह मेरे स्कूल से आने का इंतज़ार किया करतीं... जैसे ही मैं स्कूल से आकर खाना खा लेता, मुझे कहतीं...चलो, सेवा के लिए चलो...हम लोग दस-पंद्रह मिनट में कार सेवा के लिए पहुंच जाते...अच्छा, मुझे तो वहां चिकनी मिट्टी से कभी कभी फिसलने का डर भी लगता ..लेकिन उस देवी का विश्वास फौलाद की तरह पक्का, वह बिल्कुल परवाह नहीं करती थीं।

कार सेवा का मतलब?.... दोस्तो, बरसों के बाद जब हरिमंदिर साहब के सरोवर में गार (मिट्टी) इक्ट्ठी हो जाती थी तो उस को निकालने की सेवा की जाती थी...इसे कार सेवा कहते थे...आज से चालीस साल पहले इतने फिल्टर-विल्टर भी नहीं थे, गार तो इक्ट्ठी हो ही जाती थी..कुछ बरसों बाद फिर कार सेवा होती थी..हां, तो उस में क्या किया जाता था...हज़ारों की संख्या में साध-संगत (श्रद्धालु) नीचे तालाब में उतर जाते थे...(पानी तो उस से पहले निकाल लिया जाता था) ..फिर वहां पर सारा काम कस्सियों से होता था...जमी हुई गार को उखाड़ने का ...उसे तसलों में डाल कर बाहर निकालने का ....साध-संगत का इतना जमावड़ा देख कर लगता था जैसे लोगों का समुद्र हो वहां....मैंने उस समय से पहले इतने ज़्यादा लोग कभी नहीं देखे थे...

मुझे गार का रंग भी याद है ..लगभग काले रंग की गार ...मेरी नानी रोज़ थोड़ा सी गार वहां से लेकर चलने को कहतीं...उसे मिट्टी के गोले की शक्ल दे देती ..लगभग एक किलो का तो होता ही होगा...ऐसे कईं गोले उन्होंने उन दिनों में अंबाला में अपनी सहेलियों के लिए इक्ट्ठा कर लिए थे...जाते समय वे उन्हें ले गईं ...और जहां तक मुझे याद है..अगले दस सालों तक जब भी हम लोग अपनी नानी के यहां रहने गये...हमें उन के ट्रंक में वह हमेशा गोले दिखते...धीरे धीरे उन का साईज़ कम हो रहा था...
यह किसी दूसरे गुरूद्वारे के सरोवर की कार सेवा की तस्वीर है .
क्या करती थीं वह या उन की सहेलियां उन गार के गोलों का ...उन के लिए वह साधसंगत के चरणों की धूल थी ...बहुत पवित्र मिट्टी थी...

यह जो आस्था है ना, यह बहुत पर्सनल सी बात है ...मुझे बहुत बार लगता है कि ज़्यादा पढ़ाईयों ने हम लोगों का दिमाग खराब ज़्यादा और दुरुस्त कम किया है ...यह मेरा पर्सनल ओपिनियन है...

दरबार साहिब के लंगर की कितनी बातें करें...छोटा मुंह और बड़ी बात...वहां जब भी बैठा होता हूं तो रोम-रोम रोमांचित हुआ रहता है ...इतनी सेवा, इतना अपनापन, इतना समर्पण...no words can describe that feeling!

Sunday Times ..June5' 2016
पता है मुझे आज आप्रेशन ब्लू-स्टार का ध्यान कैसे आ गया?...मैं तो बस यही सोच रहा था कि आज सावित्री बट पूजन है, विश्व पर्यावरण दिवस है ..आज के टाइम्स के पहले पन्ने पर एक snippet दिखी कि ब्लू-स्टार की वर्षगांठ से मीडिया को बाहर रखा गया है ...मेरे विचार यह उन का निर्णय ठीक है, मीडिया को इस में जाकर लेना क्या है, ये विश्व भर के पंजाबियों के लिए विशेषकर सिक्ख समुदाय के लिए बड़ी संवेदनशील घड़ियां होती हैं...आप को उन लम्हों में घुस कर करना क्या है, आप में से अधिकतर चैनलों को तो बस टीआरपी चाहिए..उस के लिए आप इसी दिन के दो साल पुराने वीडियो चला दीजिए....जब वहां हुई एक झड़प को इतना बड़ा मुद्दा बना दिया गया.......कुछ समय हर बंदे को अकेला छोड़ दिया जाना चाहिए, बहुत से पुराने ज़ख्मों के भरने के लिए डाक्टर भी यही कहते हैं....अब इसे खुला छोड़ दो, हवा लगने दो....उसी तरह से उन लोगों को भी आज के दिन के लिए अपने तरीके से अरदास कर लेने दीजिए....शुक्रिया...

मुझे यह पोस्ट लिखने के बाद एक फिल्म का ध्यान आया है ..Punjab 1984...मेरे बेटे ने मुझे बंबई से आते वक्त डाउनलोड कर के दी थी..मैंने उसे ट्रेन में देखा था...लेिकन उस दिन मेरे ऊपर क्या गुजरी, मैं ब्यां नहीं कर सकता...अभी मैं देख रहा था..यू-ट्यूब पर पड़ी हुई है ...just search on Youtube ... "Punjab 1984" by Diljit Dosanjh and if possible, watch this movie to understand what really went wrong with Punjab thereafter! Please do watch!