मंगलवार, 7 मार्च 2023

रविन्द्र जैन की याद में हुए प्रोग्राम की झलकीयां .

दो दिन पहले शाम को यहां मुंबई के षणमुखानंद हाल में रविंद्र जैन की याद में एक म्यूज़िक कंसर्ट था...यह ६.३० बजे शुरू होना था...लेकिन मुझे ड्यूटी पर कुछ ऐसा काम था कि मुझे फ़ारिग होते होते साढ़े सात बज गए ...मुझे यही लगा कि कुछ भी कर लूं, सवा आठ बजे तक ही पहुंच पाऊंगा ....वही हुआ वहां पहुंचते पहुंचते साढ़े आठ तो बज ही चुके थे ...

आर जे अकादमी- रविंद्र जैन अकादमी

जल्दी से हाल में घुस गया...लेकिन यह क्या, २०-३० लोग तो चाय, वडा और समोसे का लुत्फ उठा रहे थे ...मैंने किसी से पूछा कि इंटर्वल हो गया क्या। कैंटीन वाले ने कहा कि नहीं, बस होने ही वाला है ..। मैंने समोसा खरीदते वक्त ऐसे ही पूछा कि इतने लोग बाहर कैसे हैं....तो किसी दूसरे ने कहा कि हरेक की अपनी पसंद है। चलिए, मैंने भी सोचा कि अब इतना लेट तो हो ही चुका हूं, एक समोसा मैं भी खा ही लूं.....मैं भी बिल्कुल ढीठ प्राणी हूं ...मुझे अमृतसर के इलावा हिंंदोस्तान की किसी भी जगह का समोसा पसंद नहीं है, थोड़ा बहुत फिरोज़पुर का भी ठीक ठाक था..लेकिन अमृतसर की हर खाने की तरह वहां का समोसा भी एकदम दा-बेस्ट(मेरी व्यक्तिगत राय है यह)....मुझे किसी भी दूसरी जगह का समोसा पसंद नहीं है, लेकिन फिर भी खा लेता हूं और फिर अपनी तबीयत खराब कर लेता हूं ..क्योंकि यह जो कच्चा कच्चा मैदा दिखता है न समोसे में ....यह मेरी जान का दुश्मन है....हर बार खा कर तौबा करता हूं लेकिन फिर कुछ दिनों बाद भूल जाता हूं...

चलिए, मैं हाल में अंदर जा कर बैठ गया....बहुत सी सीटें खाली थीं, तो मैंने जो खाली देखी वहीं बैठ गया....जैसा कि टिकट से ही पता चलता है वहां पर सुरेश वाडेकर और अनूप जलोटा भी आने वाले थे...हाल में पहुंचते ही सुरेश वाडेकर गीत गाते दिखे ....हुस्न पहाड़ों का ...क्या कहने कि बारह महीने...मौसम जाड़ों का .... उस के बाद सब को सम्मानित करने का सिलसिला शुरू हो गया....


एक बहुत बड़ी गायिका वहां स्टेज पर उपस्थित थीं....बेगम अख्तर के साथ रह चुकी हैं...और भी बहुत से बडे़ बड़े उस्तादों से सीख चुकी हैं....लोगों ने कुछ गाने की फरमाईश की तो देखिए और सुनिए उन्होंने कैसे बिना किसी साज़ के फ़ौरन समां बांध दिया ......यह होता है टेलेंट ...प्रतिभा....रियाज़ का कमाल........


श्रीमति दिव्या रविंद्र जैन

श्रीमति रविंद्र जैन, सुरेश वाडेकर की दीदी को सम्मानित करते हुए, इस तस्वीर में सूरज बड़जात्या के बड़े भाई --नाम भूल गया मैं (शाल ओढ़े हुए) और उन के साथ उन की श्रीमति भी नज़र आ रही हैं...ये सब पुराने लोग आपस में बडे़ अच्छे से संपर्क में हैं....


अभिषेक रविंद्र जैन, रविंद्र जैन के सुपुत्र सुरेश वाडेकर के साथ खड़े हैं



जब मैं हाल के अंदर पहुंचा तो वहां पर सुरेश वाडेकर राम तेरी गंगा मैली का वह गीत गा रहे थे ...हुस्न पहाड़ों का ...

अब देखिए मेरे वहां पहुंचने के १०-१५ मिनट के बाद ही इंटरवल हो गया....मैं तो पहले ही वह कच्चा-पक्का समोसा खा कर तंग हो रहा था..इसलिए मैंने तो कहां बाहर जाना था, बैठा रहा वहीं पर .....😂

रविंद्र जैन के बारे में कुछ बरसों तक ज़्यादा जानकारी थी नहीं....लेकिन जब टीवी पर उन के कईं इंटरव्यू देखे तो समझ में आने लगा कि स्कूल कालेज के जमाने से जिन गीतों पर मैंं फिदा था उन में से बहुत से तो रविंद्र जैन के संगीत से सजे हुए थे ...

१९७८-७९ के दिन याद - ४०-४५ बरस पहले वाले दिन याद करूं ..अपने कालेज के नये नये दिन ....एक रेडियो होता था...जिसे 
ठंडी़ के दिनों में रात के वक्त आड़ा तिरछा घुमाते रहने से कईं बार दो चार मिनट के लिए विविध भारती लग जाया करता था ...उसी दौरान विविध भारती पर इस तरह के गीत सुनते थे ......सुनयना का सुनयना., सुनयना.....आज इन नज़ारों को तुम देखो और मैं तुम्हें देखते हुए देखूं....विकीपीडिया  पर देखा तो पता चला कि इस से पहले भी जो गीत चितचोर फिल्म के, गीत गाता चल आदि के सुनते आ रहे थे ...उन के संगीत से लुत्फ़अंदोज़ हुए रहते थे उन में भी दादू का ही संगीत था...रविंद्र जैन मोहब्बत करने वाले उन्हें दादू कहते हैं...

दिव्या जैन की माता जी निर्मला जैन भी एक महान् लेखिका थीं। प्रोग्राम के दौरान दादू का रामायण सीरियल में जो अहम् योगदान था, उस के बारे में भी बातें हुईं....उस धारावाहिक में जैन साहब ने बहुत से गीत, भजन गाए...एक कलाकार ने आकर उन का यह गीत सुनाया.....सुनो रे राम कहानी   ...अभी मैं इस गीत के नीचे लिखे क्रेड्टस देख रहा था तो पता चला कि इस के बोल, संगीत और आवाज़ सब कुछ उन का ही है ...रामायण सीरियल के बाद उन्हें फिल्मों में पार्श्व गायन के भी बहुत से अवसर मिलने लगे ...और वह गीत, शेरो शायरी, गज़लें, नज़्में भी लिखा करते थे ....हिदी, उर्दू, अवधी, भोजपुरी में भी लिखते थे ...सुरेश वाडेकर भी उन के साथ जुड़ी अपनी यादें साझा कर रहे थे कि किस तरह से लगभग रोज़ाना ही उन के साथ बैठना होता था ....

इस के बाद दूसरे गायकों ने कुछ गीत प्रस्तुत किए जिन में भी रविंद्र जैन ने संगीत दिया था....

पहेली फिल्म का गीत ...सोना करे झिल मिल...यह फिल्म १९७६ की है ...और इसे हम लोग ४५ साल से सुनते चले आ रहे हैं....लेकिन अभी तो जब कहीं बजता है तो सब काम छोड़ कर बैठ जाते हैं....

हिना फिल्म का यह गीत...जाने वाले ओ जाने वाले ....

छोड़ेंगे न हम तेरा साथ ओ साथी मरते दम तक ....(मरते दम तक- १९८७) 

ले तो आए हो तुम सपनों के गांव में ...(दुल्हन वही जो पिया मन भाए) 


अभी मैंने देखा मैंने यह गीत यू-ट्यूब पर लगाया तो अपने आप ही कुछ गीत बाद में चलने लगे.....एक था ...अंखियों के झरोखों से ...मैंने देखा जो सांवरे ....मुझे जिज्ञासा हुई कि देखा जाए यह किस का गीत है ....नीचे लिखा था, गीतकार रविंद्र जैन...जितने भी उस दौर के सुपर-डुपर गीत हुए.....उन में से बहुत से गीतों का संगीत दादू का रहा, या उन के लिखे हुए थे .....और बाद में तो वह पार्श्व गायन भी करने लगे...

                                                सुनो तो गंगा यह क्या सुनाए.....कि मेरे तट पर वो लोग आए ...(सुरेश वाडेकर)

इस तरह के प्रोग्राम में शिरकत इसलिए नहीं करते लोग कि गीत सुन लेंगे...गीत तो सुनेंगे ही ....वो तो अब मोबाइल पर कभी भी सुन सकते हैं ...इस तरह के आयोजनों के दौरान इन अज़ीम शख्सियतों के आस पास रहे लोगों से उन के बारे में जानने का मौका मिलता है ...अनूप जलोटा बता रहे थे कि मैं जब भी उन्हें मिलता तो कहते - यार, वो वाला भजन सुनाओ....ऐसी लागी लगन....मीरा हो गई मगन ..अनूप जलोटा ने वह भजन भी सुनाया...इस से पहले उन्होंने शुरुआत अपने उस भजन से की ..श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम....अनूप जलोटा का एक प्रोग्राम हमें लखनऊ में भी देखने का सुअवसर मिला था ...क्या लंबी आवाज़ खींचते हैं......वाह......

श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम.....

ऐसी लागी लगन ....मीरा हो गई मगन .... 

भजन को बीच ही में रोक के कहने लगे कि यह लंबी लंबी जो आवाज़ निकलती है यह बाबा रामदेव के प्राणायाम का कमाल है ......एक किस्सा सुनाने लगे......एक व्यक्ति जो निरंतर प्राणाायाम किया करता था ...बहुुत लंबी उम्र भोग कर जब ९४-९५ की उम्र में स्वर्गधाम पहुंचा तो मुख्य द्वार पर एक सुंदरी ने उसे वेलकेम ड्रिंक दिया...उसे बहुत खुशी हुई.....वह अभी थोड़ा आगे पहुंचा तो एक दूसरी सुंदरी ने उन के गले में गुलाब के फूलों की एक माला पहनाई .....वह बहुत खुश .......आगे गया तो एक सुंदरी ने उन के समक्ष एक नृत्य की प्रस्तुति दी.....वह बंदा वहां बैठा बैठा यह सोचने लगा कि बेकार में बाबा रामदेव के प्राणायाम के चक्कर में बहुत देरी हो गई यहां आने में ... 😎 दो भजन गाने के बाद अनूप जलोटा ने वह गीत सुनाया ....घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं ....जाते जाते कहने लगे कि यह उन के अपने घर का प्रोग्राम होता है ...यहां वह लोगों से मिलने आते हैं, दादू की याद में पुष्पांजलि देेने आते हैं....

२८ फरवरी को रविंद्र जैन का जन्म दिवस है ....

एक बात और लिख दूं....कहीं भूल न जाऊं...मैं अकसर रेडियो ही सुनता हूं....कल रेडियो पर नौशाद साहब के संगीत के बारे में एक फिल्म लेखक कहने लगा कि फिल्म में उन का संगीत ऐसा होता था जैसे कोई किसी गांव से हो आया हो .....अभी मुझे लिखते हुए याद आया .....तो यह लगा कि बिल्कुल ठीक बात है ...और रविंद्र जैन साहब का संगीत सुन कर ऐसे लगता है जैसे अपने घर पर चारपाई पर नहीं बैठ कर किसी गांव-छोटे कसबे के मेले में घूमते हुए खुशियां मना रहे हैं......सोचिए कोई भी फिलम जिस में इन का संगीत था...चितचोर, अंखियों के झरोखों से ...गीत गाता चल ... क्या क्या गिनाएं .....अपने पास तो इतना भी सब्र नहीं है कि इन महान् हस्तियों के बारे में लिखते हुए घड़ी की तरफ़ देखने लगते हैं.... हां, भाई लोगो, रविंद्र जैन की एक किताब भी छपी हुई है ....देखिए यहां इस की जानकारी- दिल की नज़र से। 

लीजिए, प्रोग्राम के अंत में जब किसी गायिका ने यह गीत गाया .......फकीरा फिल्म का ...दिल में तुझे बिठा के ...कर लूंगी मैं वंदना ....मुझे नहीं पता था कि इस का संगीत भी रविंद्र जैन का ही था......१९७६ की फिल्म का वह सुपर डुपर गीत ...४७ साल पहले अमृतसर के किसी थियेटर में देखी थी ....वह गीत हमेशा के लिए याद रह गया....

प्रोग्राम के आखिर में दादू का संगीतमय किया हुआ वह गीत पेश किया गया.....जोगी जी धीरे धीरे....(फिल्म -नदिया के पार) ..होली के दिन चल रहे हैं तो इस गीत पर धमाल तो होनी ही थी...यह गीत बजते ही लोग मस्ती में आकर नाचने लगे ....





प्रोग्राम संपन्न हुआ ......लेकिन मेरे लिए अभी कुछ बाकी था शायद .....मैं जिस दरवाज़े से बाहर आ रहा था, उस के सामने अनूप जलोटा का हार्मोनियम उठाए जब उन का एक सहायक दिखा तो मैंने ऐसे ही पूछ लिया.....जलोटा साहब निकल गए....उसने तुरंत कहा, आप के पीछे ही तो खड़े हैं......मैंने अनूप जी को उन के भजनों के बारे में जो कहना था कहा ....कि हमारी तो दिन की शुरूआत ही उन के भजनों से होती है ...वह खुल कर हंसने लगे ...मैंने कहा कि आप के भजन सुन कर बहुत अच्छा लगता है ...कईं बार तो रात को सोते वक्त भी रेडियो पर उन के भजन सुनते सुनते ही निंदिया मैया के आंचल में पहुंच जाते हैं....मुस्कुराते मुस्कुराते एक शेल्फी हुई ....यह सब अचानक हुआ तो लगा कि जिस चीज़ की हम दिल से तमन्ना करते हैं, कुदरत हमें वह चीज़ दिलाने की जी-जां से कोशिश करने लगती है ... 

इतनी राम कथा सुना दी मैंने अब एक बात और सुनिए....मैं अकसर रविंद्र जैन चौक से होकर गुज़रता हूं ..पिछले दो चार दिन में उत्सुकता वश आसपास के दुकानदारों से पूछ चुका हूं कि रविंद्र जैन कहां रहते थे .....या कहां है उन का निवास.....मेरा सवाल सुन कर वे गुम सुम से हो जाते हैं ...जैसे मैंने पता नहीं क्या पूछ लिया हो उन से .....उन्हें नहीं पता कुछ भी ....मैं सोचता हूं कि मेरी उम्र का ही कोई पुराना बंदा ही उन के निवास के बारे में बता पाएगा......लेकिन इस बात की मुझे यकीं है कि उन के लिखे हुए, उन के गाए हुए और जिन गीतों को उन्होंने संगीत दिया ......उन सब गीतों का यह गीतों का भरपूर आनंद लेती होगी......बिना यह जाने की उन के सामने लगे चौक पर जिस हस्ती के नाम का बोर्ड लगा है वही है इन गीतों का जादूगर ......खैर, चलिए, कलाकार अपने फ़न के ज़रिए तब तक ज़िंदा रहते हैं जब तक ये सूरज चांद सितारे दिपायमान रहेंगे .....हम में प्राणशक्ति का संचार करते रहेंगे..... 

दादू को भावभीनी श्रद्धांजलि.....




सोमवार, 6 मार्च 2023

एंटीबॉयोटिक्स से कहीं ज़्यादा भरोसा है मुलैठी पर..

अगर मैं दंत चिकित्सक न होता तो पंजाबी लोकगीत गायक तो बन ही जाता ..नहीं तो किसी म्यूज़ियम का क्यूरेटर हो जाता...कुछ भी कर लेता...बहुत काम हैं जिस तरफ़ भी बंदा अपने मन को लगा ले....मुझे पुरानी एंटीक, विंटेज चीज़ों में खास रूचि है ....सौ साल पुरानी कोई किताब हो, अस्सी साल पुराने मैगज़ीन हों....मैं एंटीक शाप्स में और ऑनलाइन इन को ढूंढता रहता हूं ...ये मेरे लिए सिर्फ़ आइट्म ही नहीं होती, दरअसल ये अपने वक्त के किस्से ब्यां करती हैं और मुझे लिखने के लिए मजबूर करती हैं ...मेरे लिए ये चीज़ें नहीं है, मेरे लिए ये सब लिखने के प्राप्स हैं....जैसे नाचने वालों को प्राप्स लगते हैं, मुझे ये सब प्राप्स लगते हैं लिखने के लिए ....

खैर, बात यूं है कि कुछ दिन पहले यहां मुंबई की एक एंटीक शाप में मुझे एक डिब्बी दिखी ...क्या है न, अब ऐसी चीज़ों को देखने से ही एक अंदाज़ा सा हो जाता है कि ये ५० साल पुरानी होगी, यह सौ साल पुरानी वगैरह वगैरह ....खैर, इन दुकानदारों को भी पता रहता है कि जो कलैक्टर इस तरह की दो कौड़ी की चीज़ को ढूंढ़ते हैं, और खरीदते हैं ...उन से कैसे पैसे निकलवाने हैं....चलिए, वे अपनी जगह ठीक हैं....मेरे लिए वह चीज़ अनमोल है जिसे मैंने आज तक कभी नहीं देखा, और आने वाले समय में भी देखने की कोई गुंजाइश नहीं है ... 

चलिए, मैंने वह डिब्बी खरीद ली ...दाम बताऊंगा तो बेवकूफ़ी लगेगी ...खैर, मुझे लेनी थी सो ले ली....देखिए आप भी इसे ....



इस लिंक पर जा कर यह भी देखिए यह अस्सी साल पुरानी डिब्बी इ-बे पर ३४ यू एस डॉलर में बिक रही है ...यह रहा लिंक ....

आपने भी पढ़ लिया होगा कि इस में मैंथोल और मुलैठी का रस (एक्सेट्रेक्ट) आता था ...और यह गले में खिच खिच के काम आती थीं ..इंगलैंड की किसी कंपनी से बन कर आती थीं हिंदोस्तान में ....मुझे याद आ रहा है प्राइमरी क्लास के एक मास्टर ने एक बार हमें बताया था कि अंग्रेज़ों के राज में सूईं भी इंगलैंड से आती थीं और यहां बिकती थीं....यह भी देखिए कि मुलैठी जैसी चीज़ को भी किस तरह से पैक-वैक कर के इंगलैंड से लाकर यहां बेचा जाता था ....ऐसे और भी कुछ प्रोड्क्ट्स - कुछ आम दवाईयों के बारे में भी किसी और दिन बताऊंगा ....

मुझे यह डिब्बी देख कर बहुत ज़्यादा हैरानी हुई थी ....क्योंकि मेरी उम्र ६० साल है और जहां तक याद है बचपन से ही हमें मुलैठी पर ही भरोसा रहा ...गले में खिच खिच होती, दर्द वर्द होता, खांसी जुकाम होता ...तो हमें मुलैठी ही चबाने के लिेये दी जाती ....उन दिनों दांतों में भी अच्छी ताकत थी ...न नुकुर करते करते उसे चबा ही लेते और झटपट आराम भी मिल जाता ....कभी एंटीबॉयोटिक इस्तेमाल करने का कुछ झंझट ही न था...नमक वाले पानी से गरारे करो, मुलैठी चबाओ, बेसन का पतला सीरा, गुड़ वाली सौंठ खाओ....और मस्त रहो .....यही थी अपनी खांसी-जुकाम, गले में खिच खिच की दवाईयां ....वैसे तो अभी तक भी यही हैं...लेकिन अब कभी कभी एंटीबॉयोटिक लेने की नौबत भी आ जाती है ...लेकिन फिर भी भरोसा अभी भी मुलैठी पर पूरा है ...

कुछ दिन पहले मैं अपनी बड़ी बहन से मुलैठी के बारे में बात कर रहा था ...उन का गला खराब था ..मैंने कहा कि मुलैठी चबाओ...तो कहने लगी कि मिलती ही नहीं कहीं....मैंने बताया कि बाबा रामदेव की दुकानों पर मुलैठी क्वाथ मिलता है ...मुलैठी को लगभग चूरा कर के ....(shredded licorice) ....मुझे भी यह दिक्कत कईं बार आई है...लेकिन बहन बता रही थीं कि उन के पास मुलैठी का चूरण है वह उसे चाय या पता नहीं गर्म पानी में डाल कर पी लेती हैं....उन को भी राहत मिल जाती है ... अच्छी बात है, हमारे अपने अपने ज़िंदगी के तजुर्बे हैं, जिसे जिस चीज़ से राहत मिले, मां भी ८०-८५ की उम्र तक ये सब चीज़ें ही इस्तेमाल करती थीं ....और पुरानी चीज़ों की भी अच्छी अहमियत तो थी ही, ऐसे ही थोड़े न फिरंगी मुलैठी के रस को इस पैकिंग में इंगलैंड से लाकर बेचते रहे .....८० साल पहले ....यह डिब्बी तो ८० साल पुरानी है ....क्या पता यह धंधा कितना पुराना होगा...

मुलैठी को खरीदना अब मुश्किल हो गया है ....किसी पुरानी दुकान के पुराने बनिये से मिल भी जाती है कभी तो उस में अकसर घुन सा लगा होता है ...उसे चूसने की इच्छा नहीं होती....खैर, बाबा रामदेव की दुकानों पर जो मुलैठी क्वाथ मिलता है वह भी बढ़िया है ..दस पंद्रह बरस पहले १५ रूपये में मिलता था....अब भी ४० रूपये में मिल जाता है ...लेकिन है यह चीज़ बहुत बढ़िया ....

मुलैठी क्वॉथ ..

मुलैठी क्वाथ ऐसा दिखता है ....एक चम्मच मुंह में डाल कर चबाते रहिए...कुछ मिनट ..तुंरत राहत महसूस होती है ...


अभी दो तीन महीने पहले मुझे एक लिट-फेस्ट में उषा उत्थुप के प्रोग्राम में जाने का मौका मिला ....उन्हें सुन कर बहुत अच्छा लगा ..इतनी लाइवली हैं...अपनी यादें सुना रही थीं कि किस तरह से उन्हें एड्वटाईज़िंग में पहला मौका मिला ...उन्हें विक्स की गोली के लिए कोई जिंगल लिखना था...कुछ समझ में नहीं आ रहा था ....लास्ट मिनट पर उन की कही लाइन ने जैसे हिंदोस्तान की खिच खिच दूर भगा दी ..........गले में खिच खिच, गले में खिच खिच .....क्या करो....विक्स की गोली लो, खिच खिच दूर करो....मैं इस के बारे में अपने किसी पुराने ब्लॉग में लिख भी चुका हूं ....लेकिन इस वक्त मुझे लिखते लिखते फिर लगा कि खिच खिच पर कोई फिल्मी गीत कैसे नहीं है .....बस, ऐसे ही सोच रहा था तो पता नहीं कहां से खिच खिच से तो नहीं हिचकी वाले फिल्मी गीत की याद आ गई ...यह लिखना बंद कर के पहले तो उसे सुना.....यह मेरे कालेज के दौर का गाना है, बहुत पंसद है ....इस की मेरे पास कैसेट भी थी, बहुत सुना करता था ....लेटे लेटे, आंखें मूंद कर 😂😎😉....हा हा हा हा हा हा हा.....वे दिन भी क्या दिन थे...!! आज सुबह जब मैं जगा, तेरी कसम ऐसा लगा ....कि तूने मुझे याद किया है .....हिच हिच हिचकी लगी ...हिचकी...


कुछ आज की भी बात कर ली जाए.....कल दोपहर मेरे गले में अचानक बहुत ज़्यादा इरिटेशन शुरू हो गई ....खांसी भी ...खिच खिच भी ...मैंने मुलैठी ढूंढी और जैसे ही उसे चबाया, आराम आने लगा .....और कल से वही कर रहा हूं....इस से तुरंत राहत मिलती है ...लेकिन मैं यह सब लिख किस के लिए रहा हूं ....कौन सुनता है किसी की आज ....लेकिन जिन पर लिखने की जिम्मेवारी है, उन का फ़र्ज़ होता है सब कुछ सच सच दर्ज करते जाना ......इस से ज़्यादा कुछ नहीं .....वैसे भी लेखकों का काम है मुनादी करना ....

बात वही है पिछले कुछ दिनों से मुझे कुछ खास विषयों पर लिखना था ..बस, वह ऐसे ही टलता रहा, आज ऐसे ही मुलैठी की यादों ने इन को पहले समेटने के लिए मजबूर कर दिया....मैं अपने किसी मरीज़ को मुलैठी के बारे में बताता हूं तो उसे समझ नहीं आती कि मैं क्या कह रहा हूं......अगर मीठी लकड़ी कहता हूं तो कुछ को समझ में आ जाता है ....


रविवार, 15 जनवरी 2023

बदल गई अब वो नसीहत...."थोड़ी थोड़ी पिया करो"


बाज़ारवाद बहुत ताकतवर है....हमारे तसव्वुर से भी कहीं ज़्यादा ...इसलिए भी होठों पर चु्प्पी का ताला लोगों को लगाना पड़ता है ... हां, यह जो दारू के बारे में नसीहत बदलने वाली बात है यह मीडिया में ज़्यादा दिखाई नहीं देगी...लेकिन फिर भी जो चोटी के मीडिया हाउस हैं वे अपनी परंपरा पर खरे उतरते हुए पब्लिक को इशारा तो कर ही  देते हैं...और कुछ वाट्सएप पर इस तरह के स्टेट्स डाल कर अपना फ़र्ज़ निभा देते हैं...

कुछ दिन पहले हमारे एक सीनियर डाक्टर हैं उन्होंने लेंसेट मैगजीन के हवाले से यह बात लिखी थी वाट्सएप पर कि अल्कोहल की कोई भी मात्रा सुरक्षित नहीं है ....हर मात्रा में दारू तबाही मचाने में सक्षम है। अभी कुछ बरसों पहले की बात है यह है कि कहा जाता था कि जो लोग थोड़ी थोड़ी पी लेते हैं, वे तनाव से दूर रहते हैं, मस्त रहते हैं, दिल की बीमारियों की चपेट में आने से थोड़ा बच जाते हैं....यही कह कर लोगों ने अपने दिल को समझा के रखा ....यह थोड़ी थोड़ी कब बहुत ज़्यादा होने लगी किसी को पता ही न चला...और जब आसपास के लोगों ने रोकना चाहा तो वही दलील दी जाती कि यह तो डाक्टर लोग भी कहते हैं कि थोड़ी बहुत तो लेते रहना चाहिए...

खैर, अभी कुछ अरसा पहले यह चर्चा होने लगी ...जनमानस में नहीं, बल्कि चिकित्सकों ने यह सलाह देनी शुरु कर दी कि थोड़ी बहुत दारू जो रोज़ लेने की बात है यह उन लोगों के लिए जो रोज़ाना पीते हैं और बहुत पीते हैं, टल्ली हो जाते हैं...वे अगर बिल्कुल थोड़ी मात्रा में लेने लगेंगे तो तनाव-वाव से दूर रहेंगे और हार्ट-वार्ट की तकलीफ़ों से दूर रहेंगे ..मुझे लगता है कि डाक्टरों की इस दलील ने लोगों को अगर दारू पीने के लिए उकसाया न भी हो तो भी उस से होने वाली बीमारियों का डर तो कुछ खत्म कर ही दिया....

खैर, यह वाली सलाह इस तरह से दी जाती थी कि अगर कोई दारू नहीं पीता है तो उसे थोड़ी दारू पीने के लिए नहीं कहना है ...यह बहुत ज़रुरी बात थी ...लेकिन इतनी सी बात भी सुनता कौन है...जिस तरह से दारू को पिछले कुछ सालों से समाज ने स्वीकार किया है, पिछले दस-बीस सालों में यह भी हम सब देख ही रहे हैं....वैसे लिखने वाली बात है नहीं, मेरा काम कोई मोरल-पुलिसिंग का न है, न मैं करना चाहता हूं ...आदमी क्या और औरत क्या, लेकिन अकसर बंबई में इंगलिश दारू की दुकानों के बाहर दारू खरीदने वाली की भीड़ में महिलाओं एवं युवतियों को देखता हूं ....और आते जाते रेस्टरां के बाहर अपने दोस्तों के साथ युवतियों को सिगरेट के छल्ले उड़ाते देखना भी एक आम बात लगती है ...

जैसा मैंने ऊपर लिखा कि मार्केट शक्तियां बड़ी पावरफुल हैं....अपने रास्ते में आने वाले किसी को भी कब हटा दें, किसी को पता भी न चले, एक बात ...और किस तरह से विज्ञापनों का सहारा लेकर दारू, सिगरेट जैसी चीज़ों को कहां से कहां पहुंचा दें ...कोई कल्पना चाहे न भी कर पाए, लेकिन देख तो हम सब रहे ही हैं...

हां, अब मुद्दे पर आते हैं...लेंसेट एक बहुत ही सम्मानीय एवं प्रतिष्ठित मैगज़ीन है....मैंने इसे १९८६ में पहली बार देखा था...हमारे कालेज की लाइब्रेरी में आता था ...जिन प्रोफैसर साहब के पास मैं एमडीएस कर रहा था वह इसे पढ़ने के बहुत शौकीन थे, दोपहर में खाने के बाद अकसर उन्हें इसे पढ़ता देखते थे हम ...और मैं भी लाईब्रेरी में ऐसे ही कभी कभी इस के पन्ने उलट-पलट लेता था...बिल्कुल पतला कागज़ और बिलकुल पतली सी मैगज़ीन ..छपाई अति उत्तम...और कंटेंट अति विश्वसनीय..

हां, उस दिन हमारे एक वरिष्ठ साथी ने हमारे ग्रुप में यह बात शेयर की कि दारू की कोई भी मात्रा सेफ नहीं है....तो पढ़ कर यही लगा कि बड़ी ज़रूरी बात है ...इस के बारे में मुझे भी लिखना चाहिए ...यह कुछ दिन पहले की बात है ...मसरूफ़ रहने से बात आई गई हो गई ....

Health and Cancer risks associated with low levels of alcohol consumption  (इस पूरे लेख को आप यहां पढ़ सकते हैं..) 

लेकिन दो दिन पहले जब टाइम्स ऑफ इंडिया देख रहा था ..सच में अब देखने की ही नौबत आ गई है....रोज़ सोचता हूं फलां फलां लेख तो ज़रूर शाम को पढूंगा ...लेकिन शाम को इतना थक-टूट जाते हैं कि अखबार देखने की इच्छा ही नहीं होती...सुबह वक्त नहीं होता ..खैर, उस दिन भी यही खबर दिखी कि विश्व स्वास्थय संगठन ने भी यही कहा है कि दारू की थोड़ी से थोड़ी मात्रा भी सेहत के लिए हानिकारक है, कईं तरह के कैंसर के जोखिम को बढ़ाती है ...लीजिए आप भी पढ़िए...

टाइम्स ऑफ इंडिया, मुंबई .१२ जनवरी २३


मेरी नज़र में हिंदोस्तान के सब से बेहतरीन अखबार को बाज़ारवाद के उमड़ते बवंडर में भी इस तरह की खबर को जगह देने के लिए शुक्रिया...👍🙏

यह खबर पढ़ने के बाद फिर एक बार लगा कि इस तरह की जानकारी तो हिंदी में भी मुहैया करवानी चाहिए अपने ब्लॉग के ज़रिए मुझे ...चाहे है वो भी एक खुशफ़हमी कि पता नहीं ब्लॉग में जनमानस की ज़बान में लिखने से पता नहीं मै कौन सा पहा़ड़ उखाड़ लूंगा ..चलिए..अपना काम तो कर देना चाहिए...जंगल मे आग लगी तो चिडिया अपनी चोंच में पानी भर भर के उस आग में फैंकनी जाती..किसी ने कहा, अरी पागल, तेरे चोंच भरे पानी से क्या होगा...तो वह बोली, मेरा नाम तो आग बुझाने वालों में लिखा जाएगा....वही बात है इस ब्लॉग में इस दारू न पीने वाली बात को लिखना भी...

दो दिन सोचता ही रह गया लेकिन इस वक्त सोच रहा हूं कि अच्छा ही हुआ...लोगों ने लोहड़ी तो अच्छे से दारू-शारू के साथ मना ली...वरना यह सब पढ़ कर मज़ा किरकिरा हो जाता ....क्योंकि वैसे तो सभी जगह लेकिन पंजाब के तो गीत सुन कर ऐसा लगता है जैसा कि वह दारू पर ही जी रहा है, जीप पर चढ़े हुए कंधे पर दुनाली को टांगे दारू पी कर बड़कां मारने की बातें ...लेकिन यह सब इतना रोमांटिक है नहीं जितना दिखता है ..आस पास के सब लोग जिन को दारू, सिगरेट, बीड़ी पीते देखता था, सब के सब इन्हीं चीज़ों से होने वाली बीमारियों का शिकार हो के चले गए....और कुछ ऐसे भी जिन्होंने कभी इन का सेवन नहीं किया चले तो वह भी गए ....ऐसा नहीं है कि मैं अमर हूं या जो कुछ ऐसा खाते पीते नहीं, वे १५० साल जी लेंगे....ऐसा नहीं है, लेकिन बात इतनी सी है कि मक्खी देख कर तो नहीं निगली जाती ...क्या ख्याल है आपका?

अब ख्याल आ रहा है कि पढ़ने वालों को लग रहा होगा कि तुम भी तो बताओ अपने बारे में ....तो उस का जवाब यह है कि सारे अपने सारे खानदान में मैं एक अकेला ही ऐसा हूं जो पता नहीं कैसे बच गया इस से ...अच्छा ही हुआ, वरना जिस तरह का मैं ही मैं तो ठेके पर ही बैठा रहता...ऐसा क्या हुआ कि मैं इसे चखने से भी महरूम रह गया ..क्योंकि मुझे इस से पहले ही से बड़ी नफ़रत थी ...खास कर किसी भी दारू पिए हुए बंदे से बात करने की बात से ही ...फिर १८-१९ बरस की उम्र थी...मेडीकल कालेज अमृतसर की पैथोलॉजी की प्रोफैसर डा प्रेम लता वडेरा हमें एक दिन अल्कोहल के लिवर पर होने वाले बुरे प्रभावों - फैटी लिवर, सिरहोसिस- के बारे में इतने अच्छे से पढ़ा रही थीं कि ऐसे लगा जैसे एक मां अपने बच्चों को सचेत कर रही हो ....वह एक बहुत नामचीन पैथोलॉजिस्ट थी ....हमारी मां की उम्र की ही थीं ...पढ़ाने का तरीका भी ऐसा उम्दा ....(वैसे वो मेरी आंसरशीट को क्लास में दिखाया करती थीं कि ऐसे लिखते हैं पेपर में , यह होती है प्रिज़ेंटेशन....😎) ... देखिए, उन के पढ़ाने का असर कि उस दिन क्लास में मन ही मन यह निश्चय कर लिया कि दारू को तो हाथ नहीं लगाना ....और पापा जो शाम को एक-दो छोटे छोटे पैग लेते थे, उन्हें भी मैंने यह कह कर बोर करना शुरू कर दिया कि पापा, यह खराब है, यह नुकसान करती है ...लेकिन ...लेकिन, वेकिन, छोड़ो, यार ...जितना लिख दिया बस काफ़ी है। 

एक वक्त वह भी आता है कि जब किसी चीज़ को छोड़ने से भी कुछ खास फर्क पड़ता नहीं, समझ गए न आप.....जैसे गुटखा खाने वाले लोग मुंह के एडवांस कैंसर का इलाज करवाने आते हैं तो कहते हैं कि एक महीने से गुटखा छुआ तक नहीं..बीड़ी पंद्रह दिन से बंद है ....मन तो होता है कहने को कि पी लो, अब और जितनी पीनी हो ....लेकिन मरीज़ से ऐसी बात कहां हम लोग कर पाते हैं....हम भी यही कह कर उस का मनोबल बढ़ाते हैं ...अच्छा किया, बहुत अच्छी बात है ...वैसे ऊपर जो मैंने विश्व स्वास्थ्य संगठन की फेक्ट-शीट लगाई है उसमें यह भी कितना स्पष्ट लिखा है कि जो लोग तंबाकू और दारू दोनों चीज़ों का इस्तेमाल करते हैं उन में कैंसर होने का खतरा कितना बढ़ जाता है ..

चलिए, अब इस बात को यहीं विराम देते हैं...ज़्यादा कागज़ काले करने से भी कुछ होता वोता नहीं है...समझदार को इशारा काफी होता है ...अब तो लगता है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह बात अस्पतालों में जगह जगह लगी होनी चाहिए कि दारू की कम से कम मात्रा भी सेहत के लिए सुरक्षित नहीं है ... हां, मैं पंजाब की बातें कर रहा था ..दुनाली, जीपों, दारू और दारू पी कर बड़कें मारने की ....मुझे आज यह लिखते लिखते अचानक याद आया कि हम लोग बचपन में देखा-सुना करते थे कि पंजाब में विवाह शादी से पहले लेडीज़-संगीत (पंजाबी में उसे गौन या गावन कहते थे ...घर घर जा कर उस का सद्दा दिया जाता था...) शादी के कईं कईं दिन पहले यह शुरू हो जाता था ...चार पांच दिन पहले तो हमने देखा है, सुना है ...उसमें भी इस तरह के गीत ढोलक के साथ बजते थे ....नशे दीए बंद बोतले, तैनूं पीन गे ..हाय, तैनूं पीन गे नसीबां वाले ...(नशे को बंद बोतले, तुझे नसीबों वाले पिएंगे).. 😂


एक बात तो मैं दर्ज करनी भूल ही गया कि अभी मेरी जितनी उम्र है उस का आधा हिस्सा जिसने अमृतसर जैसे शाही शहर में बिताया हो ..जहां खाने पीने की पूरी ऐश थी...लज़ीज़ शाही खाना....आलू के परांठे और उस के बाद पेढ़े वाली मलाईदार लस्सी दा कड़े वाला गिलास....कमबख्त उस से ही इतना नशा हो जाता था कि दूसरे नशे के बारे में सोचने की होश ही किसे रहती....एक आम कहावत भी है न ..नशा तो रोटी में भी है ... सच बात है बिल्कुल...। लिखते लिखते याद आया हमारी एक कज़िन हम से १० साल बड़ी होंगी ...जब बंबई से अमृतसर आईं हमारे यहां तो एक दिन पानी का गिलास पकड़ कर इस गाने पर एक्टिंग करने लगीं ..हम सब बच्चों को अपने आस पास बिठा के ....हमें बड़ा अच्छा लगा, वह पानी का गिलास पकड़ कर १-२ मिनट के लिए ही यह गीत गाते झूम रही थीं.... हमने तब फिल्म भी न देखी थी ...बहुत बरसों बाद देखी... हां जी हां, मैंने शराब पी है ... 


अगर आप इस पोस्ट की भूमिका भी देखना चाहें तो यहां पधारिए.... 

शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

थोड़ी थोड़ी पिया करो.......लेकिन, ठहरिए!!

पचास बरस पहले का दौर याद आता है जब इस गीत या गज़ल का ख्याल आता है ...याद आता है वह वेस्टन कंपनी का टेप-रिकार्डर और उस में टेप पर बज रहा पंकज उधास का गाया वह गीत ....थोड़ी थोड़ी पिया करो...अच्छा लगता था उसे सुनना....१५ बरस पहले २००८ की बात होगी...अभी शायद मुझे ब्लॉगिंग करते एक साल ही हुआ था कि मैंने एक ब्लॉग लिखा था...थोड़ी थोड़ी पिया करो। नहीं, इसमें किसी को दारू पीने के लिए उकसाने वाली बातें न थीं....दिल से लिखा गया एक ब्लॉग था...जो पढ़ने वालों को इतना पसंद आया कि किसी मेहरबान ने उस का उन दिनों एक पॉडकॉस्ट ही बना दिया...

खैर, दारू की जब बात चलती है तो लोगों के दिलो-दिमाग में यही बात घर कर चुकी है कि थोड़ी बहुत पी लेना सेहत के लिए ठीक ही है ...इस से कोई दिक्कत नहीं होती, बल्कि सेहत पर कुछ अच्छा असर ही पड़ता है ..बिना टेंशन को दूर भगाने के लिए यह सब कुछ करता है ...यह तो एक प्रचलित धारणा है ही ...हर जगह ....दारू पीने वालों ने अपने मन को समझा लिया था ...और दारू बेचने वालों की तो बात ही क्या करें...वह लॉबी तो इतनी ताकतवर है कि किसी को कुछ बताने की ज़रूरत है नहीं...

आज बहुत अरसे बाद इस पर लिखने लगा हूं तो इतनी बातें याद आ रही हैं कि लगता है जो जो याद आ रहा है लिख दूं... यादों के झरोखे से दिखने वाले मंज़र कब दूर हो जाते हैं पता ही नहीं चलता....हमारे ताऊ जी के बेटे ने आज से ५०-५५ बरस पहले एक इंगलिश वाइन की शाप खोली...मैं यही कोई सातवीं-आठवीं कक्षा में था...मुझे अच्छे से याद है कि मैं एक दिन उस वाईन-शाप पर गया ...और पता नहीं मुझे क्या करना है, किसी कुर्सी को थोड़ा इधर उधर सरकाना था ...तो वाइन-व्हिस्की या पता नहीं क्या (इंगलिश दारू ही थी) ..उस का एक डिब्बा कार्डबोर्ड का वहां पड़ा था...उन बोतलों से भरा हुआ...मैं जैसे ही उसे उठाया, वह नीचे से फट गया और सारी बोतलें टूट गईं...मुझे बहुत बुरा लगा...थोड़ा डर भी लगा ...वैसे डर बहुत कम था क्योंकि मैं अपने घर वालों को जानता हूं, ये सब बडे़ ही भले लोग हैं, दूसरों को कुछ नहीं कहते तो मुझे इन्होंने क्या कहना था....

लेकिन यह बात तो मेरे दिलोदिमाग में आज भी ताजा है कि इतना बड़ा कांड होने के बावजूद किसी ने मुझे इतना भी नहीं कहा कि यार, यह क्या हो गया....वहां पर ऐसा माहौल था जैसे कुछ हुआ ही नहीं, जैसे रसोई में कोई गिलास टूट गया हो....अभी ख्याल आ रहा है कि हम लोगों से जैसा बर्ताव हुआ होता है, हम वही बर्ताव दुनिया को लौटाते हैं .....खैर, हमारे उस कज़िन की दुकान घाटे का सौदा ही थी...क्योंकि बिजनेस चलाना उन के बस की बात न थी, एक बात ....दूसरी बात यह कि शाम को उन के दोस्तो की महफिल रोज़ उस वाइन-शॉप में ही लग जाती थी...और एक महंगी सी बोतल तो उन को चाहिए होती थी ...और इस के साथ साथ दुनिया भर को दारू उधार देने से (जो कभी वापिस न मिला) वह दुकान का ऐसा दिवाला पिट गया कि उसके शटर नीचे गिर गए.... और उन्होंने आल इंडिया रेडियो में एक अच्छी नौकरी कर ली....इस के बाद बीसियों बरसों तक जब तक कुनबे के बुज़ुर्ग जिंदा रहे ...उन के ठहाके इसी बात पर लगते रहे कि चोपड़ों ने दारू की दुकान खोली और वह तो बंद होनी ही थी ...कोई उस ठेके से जुड़ा कोई किस्सा सुनाने लगता और कोई कुछ ...अरे यार, मैं एक बात तो भूल गया कि यह ठेके हमारे ताऊ जी की कोठी के बाहर ही था, मुझे याद है अंधेरा होते ही एक बोतल उस ठेके से उन के लिए भी पहुंचा दी जाती ..कईं बार तो वह खुद ही आ कर ले जाते ...

वैसे भी यह उन दिनों की बात है जब यह समझा जाता था या यह माना जाता था कि अगर दारू इंगलिश है तो कोई बात नहीं ....यह तो देसी दारू ही है जो शरीर खराब करती है, यही आम धारणा थी लोगों में। और एक बात ...यह जो केंटीन से दारू मिलती थी आर्मी वालों को ..लोगों को उसे पा लेने का बडा़ क्रेज़ था, आर्मी में न काम करने वाले भी इतने व्यापक स्तर पर उस कैंटीन से मिलने वाली दारू का जुगाड़ कैसे कर लेते थे ...यह देख कर बड़ी हैरानी होती थी ...जुगाड़ भी ऐसे ऐसे कि क्या कहें....मौसा जी किसी छावनी में बैंक मैनेजर क्या हो गए, सारे कुनबे में उन का रुतबा बढ़ गया ....पता नहीं मैनेजरी से या इस बात से कि अब वह वहां की कैंटीन से अच्छी क्वालिटी की दारू हासिल करने का जुगाड़ कर पाते ....मुझे उन दिनों की बातें याद आती हैं तो बहुत हंसी आती है जब किसी छत पर या बैठक में दारू की महफिल जमी होती तो कमरे में कितने ठहाके लगा करते ...खुशियां ही खुशियां....सिगरेट से धुएं से भरा कमरा ...ऊल जूल बातें करते बंदे....मुझे पता इसलिए है क्योंकि कईं बार जब बर्फ कम पड़ जाती तो बाज़ार से बर्फ लाकर, दाल मौठ के साथ ...उसे अंदर पहुंचाने की ड्यूटी मेरी या मेरे जैसे किसी दूसरे की लगती थी ....ठहाकों के बावजूद उस कमरे में जा कर अजीब सा महसूस होता था ....जिसे मैं अभी तक कभी लिख नहीं पाया हूं ...खैर, उसे भी लिख दूं कभी तो ... 


खैर, उस दौर में हमारे चाचा लोग ५५५ के सिगरेट पीते थे और जॉनी वॉकर दारू ही लेते थे ....मुझे याद है अच्छे से क्योंकि मुझे उस जानी वाकर, वैटे 69 की खाली बोतलें बहुत पसंद थीं...और हमें उन के खाली होने के बाद फ्रिज में पानी ठंडा रखने के लिए इस्तेमाल करने पर ही हर बार पांच फीसदी नशा हो ही जाता था ...और हम इन सब की रईसी को देख कर बस दांतों तले उंगली ही न दबाते थे ..दंग तो रह ही जाते थे ...५५५ कंपनी का सिगरेट ...जिसे उन दिनों शहर में ढूंढना मुश्किल होता था ....सिगरेट के बारे में भी उन दिनों यही बात मानी जाती थी कि जितना महंगा होगा उतना ही कम खराब होगा....५५५ पीने वाले भी कभी कभी ऐसे ही टशन के लिए बीड़ी के दो कश भी मारा करते थे, मैंने यह सब देखा है । वैसे मुझे गुज़रे दौर में महंगे दारू की खाली बोतलें ही न लुभाती थीं, मुझे अभी भी पुराने दौर की चीज़ों से खास लगाव है ...कुछ महीने पहले किसी एंटीक की दुकान पर ५५५ सिगरेटों की लोहे वाली डिब्बी दिख गई ...मैंने पहले कभी न देखा इस तरह की लोहे की डिब्बी को .......बहुत ज़्यादा महंगी बेच रहा था, खैर, मैंने उसे खरीद लिया ...क्योकि अभी तक तो ऐसी सिगरेट की डिब्बी न देखी थी न सुनी, और न ही आगे ही देखने की कभी उम्मीद ही लगी ....अभी ढूंढने लगा यहां पर फोटो लगाने के लिए तो मिली नहीं......पता नहीं कहीं पर रख कर भूल गया हूं....खैर, नेट से फोटो लेकर यहां लगा देता हूं....



आज सुबह सुबह उठते ही इस दारू का, इन सिगरेटों का ख्याल ऐसे आया कि लगभग ५० बरस पुरानी एक मैगजी़न के पन्ने अभी उलट ही रहा था कि सिगरेट के इस इश्तिहार पर नज़रें जा टिकीं....बस, फिर क्या था, बीते दिन आंखों के सामने घूमने लगे ...कभी यह कभी वो...पढ़ने की तो इच्छा थी नहीं, सोने का भी मन नहीं था चाहे नींद लग रहा था अभी पूरी नहीं हुई.....बस, और कुछ न सूझा तो यही डॉयरी लिखने बैठ गया...

यह डॉयरी लिखने की बात यह है कि जो मुद्दे की बात लिखना मैं चाह रहा हूं ....वह तो मैंने शुरू भी नहीं की। क्या करूं....पुरानी इधर उधर की यादों ने ही ऐसे घेर लिया कि लगा कि पहले इन्हें समेट लूं ...लेकिन फिर भी एक छोटा सा अंश ही समेट पाया ...और जो असल बात है वह कहने से रह गया.....कोई नहीं, अगली पोस्ट में उस बात को करते हैं.......ब्रेक के बाद!!😎😂

मंगलवार, 3 जनवरी 2023

किताबें पढ़ना तो चाहते हैं लोग....

किताबों की खुशबू में ही कुछ जादू है जो खींचती हैं मुझे ...एनसीपीए,मुंबई, नवंबर २०२२

कल शाम मैं एक बुक स्टोर में कोई किताब ढूंढ रहा था कि मेरे पास खड़े एक २५-३० बरस के युवक ने मुझ से पूछा कि क्या आप  पढ़ने के लिए मेरे लिए कोई बुक सुजेस्ट कर सकते हैं....पहले तो मैं एक बार चकरा सा गया कि अब यह काम भी मेरे हिस्से में आ गया...क्या मैं इतना पढ़ाकू दिखने लगा हूं ...चलिए, दिखूं या न दिखूं लेकिन मुझे किताबें खरीदने का बहुत शौक है ...बहुत ज़्यादा शौक है ...और एक तरह की नहीं, हर तरह की किताबें ...अपना अपना शौक है, किताब कितनी भी महंगी हो, मुझे नहीं लगती....मुझे यही लगता है कि मान लेंगे १-२ पिज़ा खा लिए या बाहर कहीं खाने चले गए....मन को समझाने की बात है, शुरू शुरु में तो इस तरह से समझाना पड़ता था लेकिन अब उसे भी समझ आ गई है, इसलिए अब यह काम भी नहीं करना पड़ता। 

हां, मैंने उस युवक से पूछा कि वह किस जॉनर की किताब पढ़ना चाहेगा...उसने कहा कि हैरी-पॉटर टाइप कुछ। खैर, वहां पर हैरी पॉटर की कोई किताब नहीं थी ...मैंने उसे कहा कि इस सेक्शन में तो अधिकतर नावल, इंस्पिरेशनल बुक्स, और ज्ञान झाड़ने वाली किताबें हैं...ज्ञान झाड़ने वाली बात पर वह हंसने लगा...मैंने उसे जैफरी आर्चर की कहानियों की किताब की तरफ़ इशारा किया..लेकिन उस ने उसे भारी भरकम देख कर अहमियत न दी....खैर, मैंने वह किताब खरीद ली...और उसने कहा कि मैं तो अभी शुरूआत ही कर रहा हूं कुछ पढ़ने से ...इसलिए उसने एक पतला सा नावल खरीद लिया...


मुझे अच्छा लगता है जब मैं किसी को किताब खरीदते, पढ़ते या डिस्कस करते देखता हूं...पिछले रविवार मुझे एक भव्य समारोह में जाने का मौका मिला...जहां पर बड़े बड़े लेखकों का जमावड़ा लगा हुआ था...वहां पर २-३ घंटे कैसे कट गए पता ही न चला...मौका सा धर्मवीर भारती साहब के ऊपर एक किताब का विमोचन...जिन्होंने भारती जी का नाम न सुना हो, उन के लिए बता दें कि वह धर्मयुग साप्ताहिक के १९६० से १९८७ तक संपादक थे ...उन्होंने धर्मयुग को उन ऊंचाईयों तक पहुंचाया कि एक दौर में उस की चार लाख कापियां छपी थीं...और कईं बार जब कोई अंक खत्म हो जाता था तो टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग के बाहर लोग प्रदर्शन करने लगते थे कि कापियां खत्म हैं, हमें नहीं मिलीं, दोबारा छापिए। ऐसा था, लोगों का प्यार धर्मयुग के लिए....

अपने बचपन का साथी ..धर्मयुग 

उस दिन जब उन की श्रीमति जी - पुष्पा भारती जी को सुना तो पता चला कि इस के पीछे जादू क्या था...वह सरल सादा भाषा इस्तेमाल करते थे ...मुझे भी तब समझ में आया कि १९७० के दशक में, अमृतसर शहर में पांचवी छठी कक्षा में पढ़ने वाला मेरे जैसा छात्र और परिवार के सभी लोग धर्मयुग के इतने दीवाने थे कि उस के लिए आंखें बिछाए रहते ...खैर, उस दिन वह किताब भी खरीद ली और उसे पढ़ कर जैसा वह ज़माना फिर से जी रहा हूं आज कल...

मैं तो किताब कब लिखूंगा मुझे नहीं पता ...मां यह कहती कहती चली गई...दो एक प्रकाशक कहते कहते थक गए ...लेकिन मैं पता नहीं किस बात का इंतज़ार कर रहा हूं ...सठिया तो गया ही हूं ...फिर भी अभी तक कुछ नहीं किया ....मैंने बीते साल की ३१ दिसंबर तक एक किताब की पांडुलिपि पूरी करने का संकल्प अपने स्टडी़-रूम में टांग रखा है, और किताब का नाम भी....लेकिन कुछ नहीं हुआ...बीस बरसों से बस प्लॉनिंग ही चालू है ...जब की खूब किताबें देख कर, अगर पढ़ कर नहीं भी तो उन के पन्ने उलट-पलट कर यह तो मन में विश्वास हो चुका है कि मैं किताब तो लिख ही सकता हूं और ठीक ठीक तरह की लिख सकता हूं....हिदी.पंजाबी, इंगलिश और उर्दू की किताबें पढ़ता हूं लेकिन अभी तक यही मन बनाया है कि अगर कभी किताब लिखूंगा तो वह होगी हिंदोस्तानी ज़बान में ही ..जो हम लोगों की बोलचाल की भाषा है ..हिंदी, उर्दू मिक्स...आम जन की समझ में आने वाली मासूम सी बातें....जैसा कि मैं जानबूझ कर अपने इस ब्लॉग में लिखता हूं.......मुझे किताब के लिए विषय ढूंढने में कोई मुश्किल नहीं है, न ही विषयों की कोई कमी है, बस, एक जगह टिक कर कुछ दिन बैठने भर की बात है ...शायद यही कोई आठ दस दिन ... लेकिन वह कब मुमकिन हो पाएगा, मुझे भी नहीं पता। 

दो महीने पहले एन.सी.पी.ए में ...

किताब लिखने के बारे में एक कथन मैंने कुछ महीने पहले एक किताब में यह पढ़ा था कि लेखक को वह किताब लिखनी चाहिए जो वह पढ़ना तो चाहता है लेकिन अभी तक लिखी नहीं गई है। अपना भी मंसूबा तो कुछ ऐसा ही है ..देखते हैं....

तीन बरस पहले जब अमेरिका गए तो वहां एक शाम न्यू-यार्क में एक लाइब्रेरी के सामने से गुज़र रहे थे ...क्या बात थी उस जगह की...मज़ा आ गया था....अंदर तो नही गया लेकिन उस लाइब्रेरी के इर्द-गिर्द फुटपाथ की कारीगरी देख कर ही हमें नज़ारा आ गया था ...अभी आप को भी वहां की फोटो दिखाते हैं...पढ़िएगा ज़रूर , मज़ा आएगा आपको भी ( चाहे ज़ूम ही क्यों न करना पड़े हरेक फोटो को ...)  वहां पर उस फुटपाथ पर क्या क्या लिखा हुआ है ....एक बात जो मुझे हमेशा के लिए याद रह गई कि किताबों को पढ़ना गुज़रों दौर के महान लोगों से मुलाकात करने जैसा शौक है ....जी हां, मैं भी यही मानता हूं...























कभी कभी लोकल ट्रेन में किसी को अखबार पढ़ते या कोई किताब पढ़ते देखता हूं तो अच्छा लगता है ....कोई कोई धार्मिक किताबें भी पढ़ते हैं...कोई मोबाईल में यह काम करते हैं...दो दिन पहले एक सिख युवक मोबाइल में कुछ गुरमुखी में लिखा पढ़ रहा था, जब उसने मोबाइल बंद किया तो मैंने पूछ ही लिया कि क्या वह जपुजी साहब का पाठ कर रहा था। उसने कहा ..हां, और साथ में उसने कुछ और नाम लिया जिसे मैं अब भूल गया हूं...


एक तरफ तो इतना पढ़ने लिखने की बातें , दूसरी तरफ़ ए.बी.सी तक को छोड़ने की इत्लिजा... एक तरफ़ तो बचपन में ऐसे गीत बज रहे होते रेडियो पर और दूसरी तरफ़ हाथ में चंदामामा, नंदन, धर्मयुग और राजन-इकबाल के बाल उपन्यास थामे रहते .... हा हा हा हा .

शनिवार, 31 दिसंबर 2022

आया रे खिलौने वाला खेल खिलौने ले के आया रे ...

मुंबई के लोकल स्टेशन पर जब आप सीढ़ी से नीचे उतरें और सामने ट्रेन खड़ी हो तो ज़्यादा कुछ सोचने-समझने की गुंजाईश होती नहीं सिवाए इस के कि जो भी डिब्बा सामने दिखे जिसमें चढ़ने भर की जगह हो, बस उस में सवार होने की करो, बाकी ढोने का काम तो भारतीय रेल बखूबी कर ही देगी...


आज सुबह मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ...मैं जिस डिब्बे में चढ़ा वह सामान वाला डिब्बा था ...जहां तक लोग भारी सामान लेकर चढ़ते हैं...वहां बैठने की जगह भी थी ..पांच सात मिनट का सफर था, मैं बैठ गया....इतने में एक रंग बिरंगी बड़ी सी टोकरी लेकर एक आदमी चढ़ा...उसे नीचे टिकाने के बाद वह अपने मोबाइल में मसरूफ हो गया...और मेरा दिमाग यह गुत्थी सुलझाने में लग गया कि यार, यह है क्या, ये खिलौने हैं कैसे.....खैर, एक दो मिनट बीत गए...गुत्थी वुत्थी तो सुलझी नहीं, लेकिन पता नहीं मुझे कहां से बरसों पुराना एक गीत याद आ गया ...आया रे खिलौने वाला खेल खिलौने ले के आया रे ....मुझे क्या, हमारे वक्त में यह गीत सब को बहुत भाता था..खूब बजा करता था हमारे रेडियो पर ...

लेकिन मेरे से रहा नहीं गया, मेरा स्टेशन आने वाला था और मुझे अभी तक यही पता न चल सका कि इस टोकरे में है क्या...आखिर, मैंने उस टोकरे वाले पर एक सवाल दाग ही दिया...क्या ये खिलौने हैं?..सवाल तो उसने सुन लिया, हल्का सा उसने मेरी तरफ़ देखा भी लेकिन जवाब देनी की ज़रूरत न समझी...शायद, बंबईया तौर तरीके सीख चुका था या कुछ और कारण होगा....मुझे भी बिल्कुल बुरा नहीं लगा...सवाल उछालना अगर मेरा काम है तो उसे पलट कर जवाब के साथ मेरी तरफ़ फैंकने में किसी की क्या विवशता हो सकती है .....बिल्कुल नहीं...

मुझे यह याद नहीं कि मैंने अपने पास बैठे एक युवक से भी वही सवाल पूछा या उसने खुद ही मुझे बता दिया कि यह तो बुढ़िया के बाल हैं। उसने कहा कि जिसे कैंड़ी-फ्लास भी कहते हैं...मैं तुरंत समझ गया कि अच्छा यह तो वही अपने बचपन वाली 'बुड्ढी दा झाता' (बुढ़िया के बालों का गुच्छा है), हमें कैंड़ी-फ्लास का नाम तब कहां आता था, हमने करना भी क्या था नाम वाम पता करके, बस, हमें उस ठंडे-ठंडे, मीठे मीठे झाटे को खाते हुए मज़ा बहुत आता था ..

मुझे भी थोड़ा याद तो आया कि इस तरह से कैंडी-फ्लास बिकते मैंने कुछ अरसा पहले भी दुर्गा पूजा के किसी पंडाल के बाहर देखे थे ...बड़े बड़े लिफाफों में ५०-५० रूपये में बिक रहे थे ...वह युवक कहने लगा कि अब पैकिंग ऐसी होने लगी है कि ज़्यादा से ज़्यादा सेल हो सके...सही कह रहा था वह.....अब मुझे एक और जिज्ञासा हुई कि यह गिलास इतने रंगों के हैं या कैंडी-फ्लास के इतने कलर हैं....वह भी पता चल गया कि ये अलग अलग फ्लेवर हैं, अलग अलग रंग में...


आज तो वह कैंडी-फ्लास बेचने वाला तो कहीं पीछे छूट गया....मैंने चार पांच बार आनंद बख्शी साहब का वह गीत सुन लिया....आया रे खिलौने वाला खेल खिलौने ले के आया रे ...बख्शी साहब के गीतों की कोई क्या तारीफ़ क्या करें, हर गीत जैसे हमारे जज़्बात की अक्काशी करने वाला ...अच्छा, मज़े की बात यह भी रही कि जैसे ही मुझे उस गीत का ख्याल आया, मैंने यू-ट्यूब पर उसे लगा लिया....मुझे एक मिनट सुनने के बाद यही लगा कि इतने सादे, मीठे, दिल से निकले बोल भी बख्शी साहब की कलम ही से निकले होंगे ...जी हां, जब चेक किया तो मेरा अंदाज़ा बिल्कुल सही निकला.... ज़िंदगी की हर सिचुएशन के लिए फिल्मी गीत हम जैसे लोगों ने दिलो-दिमाग में ऐसे सहेज रखे हैं जैसे लोग मैमोरी-ड्राईव में हज़ारों गीत संजो कर रखते हैं...शायद हम लोगों के दिमाग में भी एक ड्राइव ही अलग से बन चुकी है ...बरसों से इन गीतों को सुनते सुनते, इन का लुत्फ़ उठाते उठाते और इन के बजने पर किसी सपनों की दुनिया में खोते खोते... 

कैंडी़-फ्लास की बात पर लौटते हैं ...इतनी तरह की रंग बिरंगी कैंडी-फ्लास जिस में पता नहीं कौन कौन से कलर और फ्लेवर पड़े हुए  होंगे ...वैसे तो आज कल जो भी बाज़ार में बिक रहा है सब में कलर, फ्लेवर, प्रिज़र्वेटिव तो ठूंसे ही होते हैं ...लेकिन फिर भी हम सब कुछ खाए जा रहे हैं बिना अंजाम की परवाह किए....वैसे, बहुत बार ज्ञान भी खामखां छोटी छोटी खुशियों के आड़े आ जाता है ...शुक्र है जब हम लोग बर्फ के गोले बार बार मीठा रंग डलवा कर खाते थे, उस वक्त इन सब के बारे में कुछ पता न था, वरना ज़िंदगी की उन यादों से भी महरूम ही रह जाते ....

अभी सोचा कि दो महीने पहले दुर्गा पूजा के मेले की कुछ तस्वीरें भी लगा देता हूं...कैंडी-फ्लॉस की 😎.....कैंडी-फ्लास से याद आया कि कहीं बार बार पढ़ता हूं कि कैंडी-क्रश नाम की कोई मोबाईल गेम भी है...उस से दूर रहने को कहते हैं लोग....मैंने भी अभी तक उसे खोल कर नहीं देखा...बस, यूं ही बैठे बैठे कैंडी-फ्लॉस का नाम लेते हुए कैंडी-क्रश का ख्याल आ गया....




सोचने वाली बात है कि ये लोग दरअसल बच्चो की ज़िदंगी में खुशियां घोलने आते हैं ...हमें जब अपना या अपने बच्चों का वक्त याद आता है तो एक अजीब सी खुशी मन में होती है ...जब उस बुज़ुर्ग औरत का ख्याल आता है जो सुबह सवेरे रोज़ बाजा बजाते हुए बेटे को फिरोज़पुर में एक गुबारा देने आती थी.....उसे देखते ही बेटा झूमने लगता था ....और उसे देख कर हम ....ऐसे ही खुशियां बढ़ती हैं....

छोटी छोटी खुशियां थीं....छोटे छोटे खिलौने थे...मां अकसर मंदिर से मेरे लिए एक मिट्टी का तोता लेकर आती थी....मुझे वह सचमुच में एक तोता ही लगता था ...हरा चमकीला रंग, लाल चोंच ...यादों का क्या है, आती हैं तो इन की एक आंधी सी चल पड़ती है ...और खिलौने वाले भी हमें याद आते हैं ...एक तो वह जो हमें बाइस्कोप से सारी दुनिया की सैर करवा जाया करता था ..और इतने सस्ते में ..पांच दस पैसे में ....उस की डुगडुगी की आवाज़ सुनते ही हम लोग भाग कर उस के बाइस्कोप को घेर लेते ... 


हां, बाइस्कोप की बातों से याद आया कि अगर आप न पता हो तो बता दें कि इतवार के दिन दोपहर में २ से ३ बजे तक विविध भारती पर एक प्रोग्राम आता है ..बाइस्कोप की बातें ...जिस में एक फिल्म को लेकर उस की पूरी स्टोरी, डायलाग, गीत सुनाए जाते हैं...बिल्कुल फिल्म देखने जैसा लगता है ...मैं उस प्रोग्राम को कभी मिस नहीं करता ...सब काम छोड़ कर उसे सुनता हूं ...वैसे तो अगले दिन सोमवार सुबह भी वह रिपीट होता है .....क्यों क्या परेशानी है, रेडियो नहीं है ? - उस की कोई ज़रूरत नहीं, मोबाइल पर ही आल इंडिया रेडियो की न्यूज़ ऑन एयर डाउनलोड कर आप दिन भर उस पर विविध भारती के बढ़िया कार्यक्रमों का आनंद ले सकते हैं...पिछले इतवार के दिन मेरा साया फिल्म की स्टोरी सुनी...बहुत बढ़िया ...कल आप भी सुनिएगा... 

गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

वो अटैची का कवर खरीदने वाला दौर ...

मुझे अकसर आस पास के लोग पूछते हैं कि तुम्हें लिखने के आइडिया कैसे आते हैं....उन को मैं सिर्फ एक ही जवाब देता हूं कि यह कोई राकेट साईंस नहीं है...मेरा लिखना तो क्या है, कुछ भी नहीं, लिखने वाले ८-८ मिनट में सुपरहिट गीत लिख गए जो ५० साल बाद भी सुपरहिट हैं...इसलिए यह लिखने विखने का कोई सिलेबस नहीं है, न ही कोई सिखा सकता है...बस इशारा कर सकता है ...मैं तो पिछले ३० बरसों से यही सीखा हूं....१९८८ से २००० तक मुझे यही लगता रहा कि बंदा अपने प्रोफैशन से जुड़ें विषयों पर ही लिख सकता है ...ज्ञान बांट सकता है ...लेकिन २०-२२ बरस पहले मुझे यह पता चला कि लिखने के मौज़ू और भी हैं...दो तीन कोर्सों पर उन दिनों बीस-तीस हज़ार खर्च भी किया...लेकिन कुछ बात समझ में आई नहीं ..

बीस बरस पहले यही लगता था कि मेडीकल विषय पर तो लिखने के लिए २५-३० लेख ही तो हैं, उस के बाद क्या करूंगा....लेकिन आहिस्ता आहिस्ता पांच सात बरस में यह समझ आ गया कि लिखने के बहाने तो अनेकों हैं...विषय भी अपने आस पास बिखरे पड़े हैं, जितने चाहिए उठा लीजिए....बस, उस के लिए एक दो शर्तें हैं...लोगों से जुड़ कर रहना और ज़मीन पर रहना। समझने वाले समझ रहे हैं..। बस, वही आप को लिखने की मौका देते हैं....कईं बार स्टेशनों पर, फुटपाथ पर आते जाते कोई ऐसा शख्स दिख जाता है कि लगता है जैसे यादों की आंधी आ गई हो उसे देखते ही ...

दादर स्टेशन का पुल ... २८ दिसंबर २०२२ 

कल सुबह भी ऐसा ही हुआ...दादर स्टेशन के पुल पर यह शख्स दिखे ...हाथ में कोई ब्रेंडैड अटैची उठाई हुई जिस पर कवर चढ़ा हुआ था, साथ में एक दो थैले ..हां, थैलों का रूप ज़रूर बदल गया है इधर कुछ बरसों से ...सब से पापुलर ये पानमसाले वाले थैले हैं ...एक थैला ८०-१०० रूपये का आ जाता है...जब हमारी बदली होती है तो हमें भी अपनी किताबों-कापियों-रसालों को ढोने के लिए ये चाहिए होते हैं ..एक बार तो ४०-५० के करीब ये थैले हो गए हमारे सामान के साथ ...और हम लोगों ने पैकर-मूवर के आने से पहले इन्हें अपनी बैठक में रख दिया....मुझे उस दिन इतनी हंसी आई और मैंने इन के साथ फोटू भी खिंचवाई ....मुझे यह मज़ाक सूझ रहा था कि ४० बरस हो गए पान मसाले-गुटखे का इस्तेमाल करने वालों को डांटते हुए, उन का इलाज करते हुए..लेकिन कोई पानमसाले के इतने थैले हमारे घर में देख ले तो उसे यही लगे जैसे कि मैं इन कंपनियों का ब्रॉंड अम्बेसेडर हूं......

 डेंटल सर्जन के घर में पान मसाले के इतने थैले (२०२० -लॉक डाउन से पहले) ...यह घोर कलयुग नहीं तो और क्या है ...😂

खैर, उस शख्स की बात हो रही थी जिन को मैंने कल सुबह दादर स्टेशन पर देखा और झट से मोबाइल में सहेज लिया...कहां दिखती हैं अब इस तरह की कवर के साथ अटैचियां ....यह तो कंकरीट के इस जंगल का और पब्लिक के समंदर की वजह से मुकद्दर से कभी कुछ ऐसा दिख जाता है जो हमें यादों की दुनिया में ले जाता है ..हां, मैंने इन अटैचियों पर और यहां तक कि होल्डाल (बैड-रोल) और सुराही लेकर सफ़र करने के दौर पर अपने पंजाबी के ब्लाग में कुछ पोस्टें भी लिखी थीं कुछ बरस पहले ....उन के लिंक लगाता हूं यहां, अगर कोई पढ़ना चाहे तो ...

ਓਏ ਰਬ ਤੁਹਾਡਾ ਭਲਾ ਕਰੇ - ਓਹ ਅਟੈਚੀਆਂ ਸੀ ਕਿ ਵੱਡੇ-ਵੱਡੇ ਅਟੈਚੇ!

जैसा कि उस शख्स की इस तस्वीर में आप देख रहे हैं वह अपने साथ कुछ बेल-बूटे भी लेकर आए हैं या ले कर जा रहे हैं ....किसी सगे-संबंधी के पास आए होंगे ...खैर, यह भी एक चीज़ होती थी जो अकसर हम लोग अपने रिश्तेदारों के पास लेकर जाते थे या वे जब आते थे तो दो चार ऐसी टहनियों हमारे बाग में ज़रूर लेकर आते थे ...अब यह जो महंगे महंगे पौधे हम लोग भेंट में देते हैं, पहले यह सब कुछ नहीं दिखता था, ज़िंदगी बड़ी सीधी-सरल थी ...

कल मैं कुछ लोगों को यह तस्वीर दिखा कर उन से पूछ रहा था कि बताइए इस तस्वीर में किस चीज़ की कमी है ....वे तो बता नहीं पाए, आखिर मुझे ही बताना पड़ा कि पुराने दौर में सामान के साथ जब तक एक पानी की सुराही न होती तो सामान पूरा नहीं होता था...सुराही इसलिए कि गिलास मे पानी आराम से डाला जा सकता है और ट्रेन में अपनी जगह पर टिके रहती थी ...मटके को कोई कहां टिकाए, अपनी गोद में ...नहीं, ऐसा संभव नहीं था, मटका तो नहीं, छोटी सी मटकी लोगों को अपनी गोद में रख कर जाते देखा भी है और खुद हम भी लेकर गये हैं...मटकी में अपनी पापा की अस्थियां जिस पर लाल कपड़ा बंधा हुआ था और हरिद्वार ले जाते समय उस का टिकट भी कटवाया है ...

चलिए, इधर उधर भटकना बंद करें.....वापिस उस अटैची पर आते हैं...इस तरह की अटैचीयों लोग अकसर मिलेट्री कैंटीन से लेने का जुगाड़ कर लेते थे ...कैंटीन की दारू की तरह ...कैंटीन में बहुत सस्ते में मिल जाती थी ...और जुगाड़ भी देखिए कैसे कैसे ...कुछ पैसे बचाने के लिए इतनी मेहनत...खास कर दहेज में बेटियों को इस तरह का सामान देने के लिए लोग मिलेट्री कैंटीन से ही यह सब खरीदने का जुगाड़ कर लेते थे ....हमने भी जुगाड़ से ही ऐसी एक छोटी अटैची वी-आई-पी की खरीदी थी ...हमारे मौसा जी अंबाला में एक बैंक में कुछ मैनेजर टाइप थे ...उन की मिलेट्री कैंटीन में पहचान थी, उन्होंने ही हमें यह खरीदवा कर दी थी ..कम मोल पर ...आम आदमी की खुशियां भी कितनी छोटी छोटी होती हैं...यह १९८० के दशक के शुरूआती बरसों की बात है ...उन्हें बढ़िया बढ़िया दारू भी कैंटीन से लाने का बड़ा क्रेज़ था ...इसलिए रिश्तेदारी में उन्हें लोग बाग मानते थे ...बीस साल की उम्र में परफ्यूम और आफ्टर शेव लगाने का क्रेज़ नया नया होता है ...मुझे भी ओल्ड-स्पाईस की बोतल वहीं से मिली थी ...

हां, यह वह दौर था जब इस तरह के अटैची खरीदने के बाद उन्हें सब से पहले कवर करने का जुगाड़ किया जाता था ...कवर कुछ लोग सिलवाते थे मोटे कपड़े के चैन-वैन लगी होती थी ...और बाद में तो ये कवर जगह जगह अलग अलग क्वालिटी के बिकने भी लगे थे। नहीं, यार, हम लोगों ने कभी खुद को इतना गरीब भी नहीं समझा कि इन अटैचियों पर कवर डालने की नौबत आ गई हो ...हमें तब भी यही लगता और अब भी लगता है कि इन को अगर कवर ही करना है तो इन को खरीदना ही क्यों, वही पहले वाले लोहे के ट्रंक ही चलाते रहिए.......खैर, यह तो एक खामखां की बात है ..हरेक की अपने मन की मौज है ...पता नहीं कोई कितनी तंगहाली या खुशहाली में इस तरह की अटैची का जुगाड़ कर पाता है ..खैर, मुझे स्टेशनों पर और गाड़ी पर किसी को इस तरह की अटैची से कुछ निकालते डालते देख कर बड़ी हंसी सूझती ...कवर की चैन पर लगा हुआ ताला खोल, फिर अटैची का लॉक खोलना, फिर उसमें से बाबू की ऊनी टोपी निकालनी या मुन्ने के बापू का मफलर या मौजे, या बबलू के पापा की चप्पलें या वह फांटावाला पायजामा जो उन्हें सफर में लगेगा ही लगेगा, वरना नींद ही नहीं आएगी .....कितनी मेहनत का काम लगता था यह सब देखना भी ....

मेरे मामा अजमेर से जब हमारे पास पंजाब मे ंआते तो उन्हें दिल्ली में गाड़ी बदलनी होती थी ...पुल पुल थे सीढ़ियों वाले...उन्होंने पास एक ऐसा भारी भरकम अटैची होता था..उम्र हो चली थी उन की भी ...वह हमें हंसते हंसते जब सफ़र के किस्से सुनाते तो हर बार कहते उस अटैची को एक भारी भरकम गाली निकाल कर कि जब इसे लेकर सीढ़ियां चढ़ जाता हूं जैसे तैसे तो पहुंच कर इच्छा होती है कि इसे ज़ोर से ठोकर मार दूं (ठुड्ढा मारां ऐहनूं उत्तों ही ते थल्ले सुट दिआं) ...और वहीं से इसे नीचे गिरा दूं....हम उन की इस बात पर बहुत हंसा करते ...

हां, गाड़ी में उन दिनों इस तरह की महंगी अटैचीयां कईं बार चोरी भी हो जाती थीं...इसलिए लोगों ने इसे सीट के नीचे चैन से बांध कर रखना शुरू कर दिया...मुझे तो उस चैन और ताले से यह बड़ा डर लगता है कि अगर स्टेशन आ जाए और हम लोग उस चेन की चाबी गंवा बैठें तो....खैर, लोगों को गाड़ी के अंदर आकर इस तरह की अटैची को ताले से बांध कर उस की चोरी से निश्चिंत होते देखना भी कम रोचक न था...हम भी कईं बार यह सब करते थे, हम भी तो इसी हिंदोस्तानी मिट्टी में पले-बढ़े हैं... हा हा हा हा हा ...

फिर धीरे धीरे पहियों वाले अटैची आने लगे ....लेकिन अब भी देखता हूं कि चाहे पहियों वाले अटैची बैग आने लगे हैं लेकिन लोग ....लोग क्या, हम सब लोग उन को ऐसे ठूंस देते हैं सामान के साथ कि उन को पहिये के साथ लेकर चलना भी मुश्किल होने लगता है ...और खास कर के अगर सीढ़ीयां चढ़नी पड़ जाएं तो नानी तो क्या, उस की नानी भी याद आ जाए...

मैं गोपाल दास नीरज जी के गीतों का बहुत बड़ा फैन हूं .....वही, शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब ..गीत के रचयिता ...अभी मैं कुछ देख रहा था तो उन की एक वीडियो दिख गई ..लखनऊ रहते हुए उन को कईं बार पास से देखने का मौका मिला...एक बार बात भी हुई ...वह अकसर कहा करते थे ...

जितना कम सामान रहेगा...
उतना सफर आसान रहेगा...
आठ बरस पहले लखनऊ में जब गोपाल दास नीरज जी के जन्म दिवस समारोह में जाने का मौका मिला ..

चलिेए, यही बंद करते हैं अपनी बात ....यह तो टॉपिक ऐसा है कि इस पर एक पोथी लिखी जा सकती है ..वह इसलिए कि हम लोगों ने यह सब जिया है, आंखों देखी बाते हैं, जिन्हें अच्छे से महसूस भी किया है ...और आम बंदे की बिल्कुल छोटी छोटी खुशियों को देखा है .......वैसे ट्रेन-बस के सफर में कितनी भी धक्का-मुक्की सह लेंगे, सब्र कर लेंगे लेकिन मेरी अटैची पर कोई खरोंच नहीं पड़नी चाहिए...इसलिए उसे किसी तरह की झरीट से आहत होने से बचाने के लिए अटैची पर कवर तो चढ़ाना ही पड़ता है, क्या करें मजबूरी है.. 😎😂



कुछ बरस पहले गीतों के दरवेश नीरज जी के जन्मदिवस पर लखनऊ में फिर शिरकत करने को मौका मिला ....