मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

बोरीवली नेशनल पार्क- कुछ यादें, कुछ बातें, कुछ गीत !

बोरीवली नेशनल पार्क के बारे में कल सुबह जब मैं लिखने बैठा ...लिख तो दिया ..लेकिन दिन भर यही लगता रहा कि बोरीवली नेशनल पार्क जैसे नैसर्गिक स्थल के बारे में बस इतना ही ...यह तो तूने रीडर्स को एक ट्रेलर दिखा दिया...जिस जगह पर जाने के लिए तुम बरसों बरस तरसते रहे - और वह भी खामखां ही ...इतना सुगम रास्ता, शहर के बीचोंबीच एक जंगल होते हुए भी तुम वहां लगभग 25 बरस बाद गए...जिस जगह पर 2-3 घंटे बिताए ...और वहां से बाहर आने की इच्छा ही नहीं हो रही थी, उस के बारे में बस इतना ही कपिल देव जैसे ब्लेड के बारे में कहता है कि पालमोलिव दा जवाब नहीं, तूने उसी तर्ज़ पर यह कह कर अपनी बात कह दी ...बोरीवली नेशनल पार्क दा जवाब नहीं..(इस लिंक पर क्लिक कर के आप पढ़ सकते हैं...) 

रह रह कर मन में यह ख्याल भी आता रहा कि वैसे तो मुझे शहर के फुटपाथ नापते वक्त अगर कोई कान सफाई करने वाला कारीगर भी दिख जाता है तो मैं उस का भी पूरा तवा लगा देता हूं लेकिन बोरीवली नेशनल पार्क जैसे स्वर्ग के लिए तेरे पास बस कहने को इतना ही है! यही ख्याल आ रहा है कि लिखने वाले का मक़सद होता है कि पढ़ने वाले को इस हद तक मुतासिर करना कि वह भी वहां जाने का प्रोग्राम बना ले कम से कम अगले इतवार का -  उससे पहले उसे छुट्टी लेने में दिक्कत है भी कोई अगर ...

सब कुछ तो लिख रखा है ..क्या है न बाहर से आने वाले लोगों को कुछ भी लिखा हुआ पढ़ने की बहुत उत्सुकता रहती है ...सुरेंद्र मोहन पाठक दो साल पहले मिले - 300 से ज़्यादा नावल लिख चुके हैं...बता रहे थे कि उन्हें शुरू ही से पढ़ने का इतना शौक था कि जिस लिफाफे में मूंगफली खरीदते थे, मूंगफली खाने के बाद उस लिफाफे को भी पढ़ कर फैंकते थे ... 
मराठी इतनी मुश्किल भी नहीं...जितना समझ में आ जाए, ठीक है, बाकी तुक्के लगा लीजिए...पेपरों में तो लगाते ही रहे हैं हम लोग ...

पार्किंग के रेट थोड़े ज़ाज़ती लगे ...और भी विदेशी सैलानियों के लिए अलग रेट ... क्या ऐसा करना ज़रूरी है....मैं तो अमेरिका के बाग-बगीचों में गया, अलग रेट की तो बात छोड़िए, कोई टिकट ही नहीं थी वहां ...

ज़रूरी बात है...फोटो पर क्लिक कर के पढ़ लीजिए...

अरे वाह...कमाल है..फिर भी हमें यहां आने की बजाए आलस की चादर ओड़े पड़े रहना क्यों इतना भाता है 
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पढ़ लीजिए, डरिए नहीं...

अच्छा, तो यह बात है!!

बड़ी उम्र के लोग इस तरह के पंगों में पड़ते कम ही दिखते हैं....कल देखा तो बहुत अच्छा लगा ..इच्छा तो मेरी भी हुई ...लेकिन फिर वही ख्याल आ धमका ..लोग क्या कहेंगे!!😎

लीजिए, यह भी है अगर आप कुदरत से बिल्कुल भी वाकिफ़ नहीं है ...आप एक बार यहां पधारिए तो ...

तितलियों के बारे में जान कर तबीयत रंग-बिरंगी हो गई ...

यह वाली मराठी थोड़ी मुश्किल लगी ...कोई बात नहीं, बाद मे एक युवती को देखा को जो एसएलआर कैमरे की मदद से तस्वीरें ले रही थी ..

किस ज़ाविए से आप को लगता है कि यह तस्वीर मुंबई की होगी...इतनी हरियाली, रोशनी और सूरज देवता के साक्षात दर्शन 

बाबा, मैं तो आप का मुरीद हो गया..आपको भी अपने फेफड़ों में इतनी हवा भरते देख कर मुझे पहुंचे हुए योगियों का ख्याल आ गया....इस ऑकसीजन की कमी ही तो थी कोवि़ड के दूसरे चरण में जिस ने लोगों को तड़फा तड़फा कर मौट के घाट उतार दिया....करिए, आप करते हुए, खुशी हुई आप को देख कर .. एक गीत भी याद आ गया.....चलती है लहरा के पवन कि सांस सभी की चलती रहे...

आंखों में समेट लेने के लिए इतने दिलकश नज़ारे.....लेकिन फोटोबाज़ी से मुझे जैसे को फ़ुर्सत मिले तभी तो कुछ और सहेंजें......बस, वही कुछ सहेज पाया जिसे कैमरे की आंखों ने देखा ..

घुटने वुटने का दर्द भी तो दर्द ही है ...मैं भी तब तक चलता रहा जब तक घुटनों ने इजाजत दी ..फिर जब लगा कि अब घुटनों को इस से आगे मत घसीट, लफड़ा हो जाएगा ...मैं भी वापिस हो लिया ... क्या करें, शरीर के साथ किसी तरह की जबरदस्ती कहां चलती है, वह हम लोगों से चला लेने की घोर मूर्खता कर बैठते हैं बस...

धीरे धीरे सुबह हुई...जाग उठी ज़िंदगी ........लेकिन अभी बोटिंग का वक्त नहीं हुआ था ...

नौकाविहार में बिल्कुल भी रुचि नहीं है...डर लगता है कि कहीं नौका उलट पलट गई ..बेबुनियाद डर है, इन के पास सैलानियों की सुरक्षा के पूरे जुगाड़ हैं ..बहुत साल पहले चंडीगढ़ की सुखना झील में हम लोगों ने बोटिंग की थी, जिस में अपने पैरों से उसे चलाते हैं...लाइफ जैकेट पहन तो रखी थी, लेकिन डर ही लगता रहा ...हिंदी फिल्मी के हीरो-हीरोईनों को ही बोटिंग करते देखना अच्छा लगता है ..

वाह ..क्या खूब...कुछ जगहों पर फल एवं ता़ज़े गाजर-खीरे बिकते देख कर तो मज़ा ही आ गया...

और इन जगहों पर छोटे बच्चों को ताज़े फलों एवं सब्जियों का फल पीते देख कर तो और भी अच्छा लगा...

इस मंज़र ने मुझे अमेरिका के नियाग्रा फाल्स से पास वाला एक रास्ता याद दिला दिया...

भोर भए पंछी धुन से सुनाएं...जागो रे, गयी रूत फिर नहीं आए... 

शहर के बीचों बीच खूबसूरत जंगल हैं लेकिन हम जिन कंकरीट के जंगलों में रहते हैं वहां भी परदे टांगे रहते हैं ...

बस, उस दिन पार्क में इसे देख कर थोड़ी फिक्र हुई कि कहीं विकास की ब्यार यहां तो चलने नहीं आ गई ...



समझ नहीं आता इन जगहों पर जा कर ......आखिर कितनी फोटों लें, हर लम्हे की आगोश में तो दिलकश मंज़र लिपटे पड़े हैं ..

कुछ जगहों पर इस तरह के गेट लगे हैं..

ऊपर वाले गेट के अंदर ऐसे दिख रहा था ..बाहर गार्ड बैठा था, उसने बताया कि यहां पर सफारी करने जाते हैं...मेरे पूछने पर उसने बताया कि शेर रात में यहां तक आ जाते हैं..



रास्ते में यह पिकनिक स्पाट है ...जहां पर लोग ताज़े फल-सब्जियों का लुत्फ उठाते दिखे ...

चाउमीन, बर्गर, पिज़ा, मोमोज़, डोनट्स पर पल रही जेनरेशन के इस खौफ़नाक दौर में  साईक्लिंग कर रहे इन स्कूल-कालेज के बच्चों को फलो-सब्जियों-जूस के स्टालों पर खडे़ देख कर ही मेरी तो थकावट ही जाती रही ...

पार्क के बीचों बीच जो लोग रहते हैं वे भी कुदरती तरीके से ही रहते दिखे...जैसे उन्होंने जंगल के पौधों एवं जीवों के साथ शाँतिपूर्ण सहअस्तित्व का एक करार कर रखा हो......

थोड़ा है, थोडे की ज़रूरत है ...जिंदगी फिर भी यहां  खूबसूरत है .. 

मुुझे याद नहीं कब पिछली बार मैंने बच्चों को इस तरह के खेल खेलते देखा होगा ...बरसों बरस पहले शायद कभी ...हां, बचपन में मैं कंचे का चेम्पियन ज़रूर हुआ करता था और डालड़े वाले डिब्बे में उन्हें सहेज कर रखता था...अकसर शाम के वक्त उन्हें धो भी ेलेता....बचपन के दिन भुला न देना... हा हा हा हा हा ... 


कईं बोर्ड तो मेरी समझ में ही नहीं आए.....चलिए, यह ज़रूरी भी तो नहीं...थोड़ा बहुत नादानी भी तो रहनी चाहिए.. ज़मीन पर टिके रहने के लिए यह भी ज़ूरूरी है .. 

यहां पहुंचते पहुंचते मेरे घुटनों ने तो कह दिया कि अपने पर नहीं भी तो हम पर तो तरस कर ...वरना तुम्हें भी पता है अगर हम अपनी पर आ गए तो क्या कर सकते हैं...तुझे कईं बार ये सबक सिखा तो चुके हैं ..हा हा हा ..मुझे लगा कि कन्हेली गुफाएं आ ही गई होंगी...गार्ड से पूछा तो उसने बताया कि यहां से अभी 4 किलोमीटर है ...आप किसी बस को हाथ दीजिए..वह रूक जाएगी..मैंने वहां से वापिस लौटना ही बेहतर समझा..


वापसी के वक्त भी इन्हें बेपरवाही से अपने खेल में मग्न देखा ...

ज़रूरी नहीं कि कुदरत की हर रमज़ को समझने की कोशिश की जाए....Many times at many places,  just Being is the recipe of life! Just being a silent spectator! 

Passion is a passion....lucky ones pursue their's! 








माहौल, आबोहवा ऐसी कि उदास, ग़मग़ीन चेहरों पर भी फिर से जीने की तमन्ना लौट आए....


O Foolish self, don't hold on! Don't forget that beautiful message outside your neighbourhood church - When you let go, you grow !

Everything and everybody seemed to be at peace with itself! 

पार्क के बीचों बीच जंगल में यह स्टेशन ...

बच्चों के लिए ट्रेन की सवारी का भी जुगाड़ ......शायद आजकल यह बंद है .

हर वह कुदरती जगह जिस के पास रह कर अपनी ख़ाकसारी का एहसास होता रहे, वह जगह मुकद्दस है ..

मुझे इन पेड़ों को देख कर मनाली की अपनी ट्रिप याद आ गई ....

यह बोर्ड मुझे भी थोड़ा कंफ्यूज़िंग ही लगा ...एक जगह लिखा था कि वाहन नहीं जा सकते ....पैदल जाने वालों के लिए कोई स्प्ष्ट हिदायत न दिखी.....इन लोगों का भी इसी मुद्दे पर मंथन चल रहा है कि आगे जाएं या नहीं...

बस, आज के लिए इतना ही ...क्योंकि यह तस्वीर लेते ही मेरे मोबाइल की बेटरी खत्म हो गई...मैं पावर-बैंक साथ लेकर गया तो था लेकिन मोबाइल चार्जिंग की वॉयर घर पर ही भूल गया था ... इसलिए वापिस लौटना ही मुनासिब था ..वैसे भी घर लौटते लौटते दोपहर बारह बज ही गए..

जाते जाते यह है मेरा आज का ख्याल.... आज जब मैं सुबह उठा तो उस देवी की आवाज़ में विविध भारती रेडियो पर उस देवी के भजन लगे हुए थे जिसे हमें लता मंगेश्कर कहते हैं...यह भजन चल रहा था ... गजानन जननी तेरी जय हो, तेरी जय हो जी जय हो .. ....(सुनने के लिए लिंक पर क्लिक करिए) ...सुबह सुबह इस कोयल की आवाज़ सुनने को मिली ......कल रात सोते वक्त सोशल मीडिया पर इस देवी के अस्पताल के प्रवास के दौरान किसी ने जो वीडियो बनाई होगी उसे देखा....बहुत बुरा लगा ...पहले तो उस बेवकूफ पर जिस ने इस देवी का वीडियो बनाया और वह भी इतनी बीमारी की हालत में ...और फिर उसे आगे शेयर भी किया ....ऐसे लगा कि हमारी मां की बीमारी का ही वीडियो किसी सिरफिरे ने सोशल मीडिया पर शेयर कर दिया हो...और जिस देवी को हम सब ने 90 साल की उम्र पार होने पर भी एक अच्छे से बेहद सलीके से कपड़े-गहने पहने देखा...और मुंह से फूल झरते हुए देखे ...सच में वह देवी ही थी ..



ऐसे फिल्मी गीत भी मेरे लिए भजन ही हैं, जिन्हें बार बार सुनना मुझे बेहद सुकून देता है ...

निदा फ़ाज़ली साहब की खुूबसूरत बात याद आ गई ...
सब की पूजा एक सी,,,अलग अलग हर रीत...
मस्जिद जाए मौलवी..कोयल गाए गीत 

सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

बोरिवली नेशनल पार्क दा कोई जवाब नहीं ...






लंबे अरसे से हसरत थी कि बोरिवली के नेशनल पार्क हो कर आया जाए...20-25 साल पहले एक दो बार गए तो थे लेकिन उसे जाना नहीं कहते...उसे बस नाम के लिए जाना कहा जा सकता है कि दूसरों को कह सकें कि हम ने भी वह पार्क देखा हुआ है ..

हां तो बरसों पहले जब गए थे वहां तो पार्क के गेट ही से जो बस मिलती थी पार्क के अंदर कन्हेली गुफाओं तक जाने के लिए..बस उस में बैठे ..वहां गुफाओं तक पहुंच गए...उन गुफाओं को घंटा आधा घंटा निहारा...तब तक अंधेरा होने को हुआ..सब लोगों के साथ ही बाहर निकलना पड़ा ...हो गया जी बोरिवली नेशनल पार्क वाला चेप्टर भी खत्म। 

लेकिन बरसों से मैं इस पार्क के बारे में पढ़ता रहा हूं ...अच्छा, एक बात का कल मुझे ख्याल आ रहा था कि जब हम बच्चे खेलते हैं तो कोई खेल खेल में हमारा गला दाबने लगता तो हम क्या करते ?- हम उस लौंडे पर बहुत ज़्यादा गुस्सा हो जाते, बहुत कोसते उसे ..क्योंकि उस खेल खेल में ही सही लेकिन हमारा दम तो घुटने का हो गया...मैं समझ रहा हूं कि यही बात बोरिवली नेशनल पार्क की है ...बेशक यह मुंबई वासियों के फेफड़े है...इसलिए जब कोई भी इस के अंदर बाहर कोई भी पंगा लेना चाहता तो मुंबई वासियों ने उस की अच्छी खबर ली है...क्योंकि उन्हें गवारा नहीें कि कोई उन के फेफड़े को लालची निगाहों से देखने की ज़ुर्रत भी करे...

मैंने बहुत से बोटैनिकल गार्डन देखे हैं...लखनऊ का मशहूर वनस्पति उद्यान, वाशिंगटन का बोटैनिकल गार्डन भी देखा ...लेकिन कल बोरिवली नेशनल पार्क में कुछ वक्त बिताने के बाद मैं कह सकता हूं कि मैेंने ऐसा पार्क आज तक नहीं देखा...लिखने को तो इस पर मै एक किताब लिख दूं ..लेेकिन अभी उस की इच्छा है नहीं...

जहां भी जाता हूं उस के बारे में लिख देता हूं ..क्यों भला? ... कोई मकसद नहीं बिल्कुल, अगर कुछ होता तो मैं वह भी लिख देता बिना किसी संकोच के ..बस, एक मकसद यही होता है कि जिस जगह को, जिस चीज़ को देख कर मैं इतना लुत्फअंदोज़ हुआ, और भी लोगों तक यह बात पहुंचे ताकि वे भी वहां जाकर उस जगह का आनंद ले सकें....

मेरे कुछ पुराने ब्लॉगर दोस्त ट्रेवल ब्लॉग लिखते हैं ..देश के कोने कोने में दुर्गम जगहों पर जाते हैं...और सब कुछ बढ़िया लिख देते हैं...लेकिन मैं अकसर हमारे पास की जगहों के बारे में ही लिखता हूं जहां ट्रेन या किसी पब्लिक टांसपोर्ट की मदद से पहुंचा जा सके...मैं उन सब स्थानीय जगहों के बारे में लिखना चाहता हूं जहां पहुंचने के लिए किसी को तरसना न पडे, बस, अपने जूते पहने और निकल गए...शाम तक वापिस लौट आने के लिए...मैं आज सोच रहा था कि अगर मेरे पास भी कोई ऐसा लेख-आलेख पहुंच जाता तो शायद मेरी भी इस पार्क से दोस्ती पहले ही हो गई होती...

इस पार्क के बारे में लिखने को तो बहुत कुछ है ..लेकिन आज नहीं हो पाएगा...कुछ बातें लिखूंगा..बाकी की बाद में कभी लिखूंगा...वैसे भी इसे आप जा कर देखिए..वहां कईं घंटे रुकिए, टहलिए ..जितना भी हो पाए...न हो पाए, तो कुदरत की गोद में सुस्ता ही लीजिेए..बहुत हो गई भागम-भाग.......चैन से पंक्षियों की चहचहाहट का आनंद लीजिए...बहुत ही कुछ है वहां पर सब के लिए ...छोटे छोटे बच्चों से लेकर बड़े से बड़े बुज़र्गों तक ..सब के लिए...

एक बुज़ुर्ग को तो फेफड़ों में इतनी शिद्दत से सांस भरते देखा कि मैं ही डर गया...मुझे एक बार लगा कि रामदेव का इस से मुकाबला करवा दें तो शायद यह जीत जाए...मैं उन के इस जौहर की वीडियो बनाने लगा तो मुझे यही लगा कि बेटा, इन के चक्कर में तूने अपनी बैटरी और मेमोरी दोनों खत्म कर लेनी है ...चल, अब तू आगे चल...ये तो कोई योगी ही जान पड़ते हैं....पार्क का पूरा फायदा उठाए बिना रुकेंगे नहीं- न रूकेंगे, न थकेंगे...😎

बहुत से लोग अंदर साईकिल चला रहे थे ... उस के बारे में ज़रूर लिखूंगा विस्तार से ...लेकिन एक बात याद रह गई कि सुनसान सड़कोंं पर युवक एक युवती को साईकिल सिखाने के लिए श्रमदान भी करता दिखा ....जैसे हम युवकों को अकसर बाहर स्कूटर सिखाने की ड्यूटी निभाते देख लेते हैं यदा-कदा..। और हां एक दंपति को देखा ..मेरे जैसे भारी भरकम..लेकिन उस बंदे ने उस खातून को साईकिल के अगले डंडे पर बिठाने का जोखिम उठा रखा था...। उस युगल को देख कर भी एक खामखां किस्म का विचार तो आया कि उन्हें आवाज़ दे कर इतना तो कह दिया जाए... सही रास्ता पकड़े हो, मंज़िल की ऐसी की तैसी, वह भी मिल जाएगी ..हौले..हौले!!

इस पार्क के बारे में और भी लिखूंगा...पहुंचना कैसे है? --कोई झंझट नहीं है वहां पहुंचने में..बोरीवली लोकल के स्टेशन के पूर्व में आ जाइए...आप मेरी तरह से किसी से पूछेंगे कि पार्क कहां है ..तो वह उस सड़क की तरफ़ इशारा कर देगा जो आप को पैदल पांच मिनट में हाइवे पर ले जाएगी.....बस, सामने ही है नेशनल पार्क .....जब भी फुर्सत हो, हो कर आइए, फुर्सत नहीं भी है तो भी हो कर आइए....वरना एक दिन की छुट्टी लीजिए..हां, ख्याल रखिए, यह सोमवार बंद रहता है ..सुबह आठ बजे खुलता है, शाम को 5.30 बजे बंद...और हां, वहां पर जा कर अंदर साईकिल किराए पर भी मिलते हैं....कार, स्कूटर पर जा रहे हैं तो जाइए...पार्किंग की कोई दिक्कत नहीं है, सब कुछ है वहां.......बस, आप की वहां जाने की तमन्ना होनी चाहिए...और घूम कर आएं तो सब के साथ अपनी खुशियां शेयर करने में संकोच या कंजूसी न करिए..खुशियां बांटने से और बढ़ जाती हैं.. है कि नहीं ?

को

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2022

सादगी ही कामयाबी की कुंजी है ...

मुझे दो तीन पहले अचानक ख्याल आया कि नवीं-दसवीं कक्षा की बात है ...नौमाही इम्तिहान (थर्ड-क्वॉरटली) चल रहे  थे...1977-78 की बात है..नवीं-दसवीं जमात के दिन ...दिसंबर का ही महीना होगा शायद..हम लोगों का हिंदी का पर्चा था...हम पेपर शुरु होने से पहले ऐसे ही स्कूल की ग्राउंड में हंसी-ठठ्ठा कर रहे थे कि हो न हो निबंध तो मोरार जी देसाई के ऊपर ही लिखना होगा...क्योंकि मोरार जी भाई कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री बने थे .. लो जी, अंदर जा कर बैठे, पर्चा मिला ..मिलते ही हम सब के हाथों के तोते उड़ से गये...क्योंकि वर्तमान प्रधानमंत्री देसाई पर ही निबंध लिखना था...

लिखने की कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन लिखने के कुछ तो मसाला चाहिए...कुछ पता भी नहीं था उन के बारे में ...शायद जो एक दो दिन से हिंदी की अखबारों में आ रहा था, उसमें ही कुछ कुछ याद रह गया...एक तो उन की उम्र बार बार रेडियो पर बता रहे थे कि वे 82 साल की उम्र में प्रधानमंत्री बने हैं...हमें भी इस बात को उस बालावस्था में बहुत कौतूहल था कि यार, इतनी उम्र में प्रधानमंत्री ..लेकिन फिर उन की सेहत का राज़ भी एक दो दिन पहले अखबार में पढ़ लिया था कि वे गौमूत्र का नियमित इस्तेमाल करते हैं...यही कुछ पता था, ज़्यादा कुछ पता था ही नहीं उन के बारे में....कोई इंटरनेट नहीं था, कोई खबरिया चैनल भी तो न था जो रातों रात उन के गांव में जा कर उन के पुरखों की चौपडियां भी खंगाल लेता ... खैर, बहुत मुश्किल हुई उस दिन ...रोज़ अखबार पढ़ने या देख भऱ लेने का सबक उस दिन भी मिल गया...मेरे जैसा बंदे को भी जो लिखने में गप्पबाजी अच्छी कर लेता था...बस, एक पैराग्राफ से कैसे एक पन्ना बड़ी सफाई से भर देना है, यह हुनर थोड़ा बहुत मुझे आता था...लेकिन उस दिन मुझे भी मसाले की कमी नहीं, बहुत कमी लगी थी ..

मोरारजी भाई की याद कैसे आ गई मुझे इतने बरसों बाद ..उन के गुज़रने के बाद.....उस का कारण यह है कि मैं आजकल वह किताब पढ़ रहा हूं जो उन्होंने 76 साल की उम्र में लिखी थी ...स्टोरी ऑफ मॉय लाइफ... क्या गजब किताब है ..अच्छा, उस दौर में यह अपनी कहानी कहने का बड़ा शौक और ज़ौक हुआ करता था बडे लोगों को ...इतनी सादगी से लिखी गई है ..कि मेरे पास अल्फ़ाज़ नहीं है, उस की तारीफ करने के लिए...मैं उस के चेप्टर बीच बीच में पढ़ रहा हूं लेकिन एक बार जब कोई चेप्टर शुरू करता हूं तो फिर जितनी भी नींद सिरहाने पर खड़ी हुई हो, उसे पढ़ कर ही बत्ती बुझाता हूं...उन्हें पढ़ते हुए ऐसे लगता है कि जैसे किसी से कोई किस्सा सुन रहा हूं..चलिए आप को किताब के दर्शन तो करवा दें...मैं अकसर किताब को पढ़ते पढ़ते यही सोच रहा था कि लिख तो उन्होंने इसे तब दिया था जब मैं श्रेणी चार में था, लेकिन मेरे तक या हमारी लाइब्रेरी तक पहुंचती तब तो न बात बनती ....

मोरार जी भाई यहीं अपने यहां थाणे के डी सी भी रह चुके थे प्रधानमंत्री बनने से 55-60 साल पहले 




सच में जो कहते हैं कि गुज़रे दौर के लेखकों को पढ़ना उन से मुलाकात करने के बराबर ही है ...लेकिन हां, मैं तो इन के लिखने की सादगी का कायल हो गया हूं...यह भी किसी उस दौर का ब्लॉग जैसा ही लगा ...इतनी सादगी, इतनी ईमानदारी से लिखी गई किताब। 

एक और किताब याद आ रही है डा राजेन्द्र प्रसाद की जो हमारे राष्ट्रपति रह चुके हैं ...जब मैं उर्दू पढ़ना सीख रहा था तो कहीं से मुझे उन की लिखी जीवनी मिल गई - खुद उन की ही लिखी हुई ...लेकिन उर्दू में ...एक तरफ़ तो मैं उर्दू में फिल्मी गीतों की किताबें पढ़ रहा था ...दूसरी तरफ़ मैंने इस महान शख्स की उर्दू में लिखी स्वै-जीवनी पढ़नी शुरू कर दी ...भाषा की इतनी सादगी देखी कि आराम से मैं उन की लिखी सभी बातें पढ़ कर समझ पा रहा था...

कभी भी नज़र दौडाइए लेखकों पर ..वही लेखक कामयाब हुए अपने जीवनकाल में, नहीं तो बीसियों बरसों बाद जिन की भाषा में सादगी थी, कोई लाग-लपटे न था, जैसा सोचा वैसा लिख दिया...जैसा अहसास हुआ, कागज़ पर टिका दिया...रूह से निकली इबारत देखी प्रेमचंद के लेखन में ...और भी बीसियों लेखकों के लेखन में...बीस साल में बहुत से हिंदी-इंगलिश के लेखकों को पढ़ चुका हूं ...किस किस का नाम गिनाऊं ...लेकिन कामयाब वही हुए जिन्होंने सादगी का दामन न छोड़ा ...मिर्जा गालिब साहब पहले बड़ी मुश्किल ज़ुबान मे ंलिखते थे, लोग समझ ही. न पाते थे ..फिर किसी ने उन पर तंज कसा किसी मुशायरे में कि अपनी कही बात को अगर खुद ही समझे तो क्या समझे...ऐसी ही कोई बात हुई...उस के बाद उन्होंने आम ज़ुबान में लिखना शुरु किया और आज भी देखिए उन के चर्चे दुनिया भर में हैं ...

फिल्में देखिए...फिल्मों के नगमे देखिए, डॉयलाग देखिए...जो बरसों से हमारी ज़ुबान पर चढ़े हैं ..वे सब के सब आम बोल चाल की भाषा में ही रचे गए...चूंकि सब कुछ अपने ही परिवेश से लिया हुआ था, वे कब हमारे दिलोदिमाग पर छा से गए पता ही नहीं चला, यही इन लेखकों का जादू रहा है...

कहीं भी नज़र दौडाएं ...लिखने की सादगी, बोलने की सादगी, पहनने की सादगी ही कामयाबी की सीढ़ी है... दफ्तरों में देखते हैं तो दुख यह होता है कि इंगलिश का ज्ञान उतना है नहीं जितना होना चाहिए..लेकिन लिखनी इंगलिश ही है, हिंदी मे लिखते नहीं ...ऐसे बात कैसे बनेगी....अच्छा, हिंदी की बात से याद आया कि सरकारी संस्थाओं में लोग हिंदी क्यों उतनी अच्छी से अपना नहीं पाए जितना पैसा इस काम के लिए खर्च हो रहा है क्योंकि वहां भी भारी-भरकम शब्दों को ही तरजीह दी जाती है ...बीच बीच में कुछ नौकरशाह आए जिन्होंने लिखने में भी बोलचाल की भाषा को ही इस्तेमाल करने की नेक सलाह दी ..लेकिन नहीं...हम कहां मानते हैं किसी अच्छी बात को ...हमें तो चीज़ें जटिल करना ही भाता है ......एक बात पर और गौर करिएगा...यह जो अनुवाद है वह भी इतनी सादगी से होना चाहिए कि पढ़ने वाले को इस का पता ही नहीं लगना चाहिए...आप किसी भी दस्तावेज़ का हुबहू अनुवाद शब्द-दर-शब्द कर ही नहीं सकते ...ऐसे अनुवाद से क्या फायदा जिस से कि कहने को तो अनुवाद हो जाए ...लेकिन उस की रूह ही दब कर मर जाए कहीं ...दो दिन पहले मुझे अंंग्रेज़ी में लिखे तीन पन्नों का अनुवाद करना था....उन तीन पन्नों को हिंदी में अनुवाद करने के लिए मुझे तीन दिन लग गए ...मुझे अकसर ऐसे मौकों पर अहसास होता है कि यह अनुवाद करना भी खासा मुश्किल काम है ...लेकिन वही बात है ..कुछ भी हो, हर काम में सादगी बरकरार रहनी चाहिए...लिखते वक्त यह ध्यान में ऱखना ज़रूरी होता है कि पढ़ने वाले को किसी किस्म की दिकक्त न होने पाए...वह बस एक फ्लो में पढ़ पाए, और समझ ले हमारे लिखे को ..जैसे हम किसी से खतोकिताबत कर रहे हैं...

लिखने के दो ही मकसद हो सकते हैं ...एक तो यह कि अपनी बात को दूसरों तक अच्छे से पहुंचा देना और दूसरा यह कि अपनी ज़ुबान का, अपने भाषा-विज्ञान का सिक्का मनवाने लग जाना ...लेकिन यह दूसरी बात मेरे पल्ले नहीं पड़ती ...इसी चक्कर में टाइम्स आफ इंडिया में इंगलिश के बड़े बड़े लेखकों के मज़मून मेरे पल्ले अच्छे से पड़ते नहीं ...इतना मुश्किल लिखते हैं ये सब कि मैं दो चार शब्दों का तो अंदाज़ा लगा लेता हूं ..लेकिन फिर एक दो पैराग्राफ पढ़ते पढ़ते मुझे लगता है कि ये हाई-फाई बात तो भई अपने पल्ले पड़ नही रही, मैं उसे बीच मे ही छोड़ देता हूं ...लेकिन बहुत से पुराने ..पुराने ही क्यों, ऩए लेखकों की सादी लेखन-शैली भी काबिले-तारीफ़ तो है ही ...ऐसा लगता है कि सार लेख को एक ढीक लगा कर पी जाएं .😎..(लस्सी का गिलास जैसे मुंह में लगा कर उसे तभी हम होठों से अलग करते थे जब एक ही सांस में पी लेते थे सारी लस्सी..बिना सांस लिए...इसे कहते हैं एक ही ढीक लगा कर पीना....हां, वह मलाई वलाई तो होठों से बाद में साफ होती रहेगी...), उसी तरह कोई एक दो अल्फ़ाज़ जो मु्श्किल जान पड़े हों उन्हें डिक्शनरी में देख लेते हैं...

अच्छा तो अब बोलचाल की जुबान को देखिए... जितनी हम उसे सादी रखते हैं उतनी ही दूसरे तक वह बिना लाग-लपेट के पहुंच जाती है ...बोलचाल को कामयाब बनाने का एक ही तरीका है कि जिस बंदे से बात कर रहे हैं उस के स्तर तक उतर कर अपनी बात को उस तक पहुंचाना और यह सुनिश्चित भी करना कि वह हमारी कुछ बात समझ पाया भी कि नहीं ...यह जो लोग नाटक करते हैं ना कि उसे तो केवल मराठी आती है, गुजराती आती है, पंजाबी आती है ...मुझे ऐसे लोगों से भी शिकायत है ..एक 60 साल की औरत गांव से आप के पास आ गई दवाई लेने ..अब अगर उसे अपनी भी भाषा आती है तो उस में उस का क्या दोष, क्यों हम उसे यह पूछ कर अपराध बोध करवाते हैं कि हिंदी नहीं आती, ज़रा भी नहीं आती क्या....ये सब फिज़ूल की बातें है ं...ये पूछने की बजाए वह भाषा ही सीख लेनी चाहिए ..नहीं, तो थोड़ी उस के मुंह से निकली बात समझिए ..आ जाती है सब समझ अगर समझने की कोशिश करते हैं तो ...जो नहीं आती, वह उस की आंखें ब्यां कर देती है ं....लेकिन कभी देखिए ऐसे लोगों की बातों में एक बहुत ही खुशनुमा सादगी होती है ..आप को नहीं लगता कि वे बस बोलते ही रहें.......मुझे तो लगता है ज़रूर, इसीलिए मैं उन की बात कभी भी बीच में नहीं काटता, क्योंकि उन्हें सुनना कानों को अच्छा लगता है ....

मैं अकसर अपने जूनियर डाक्टरों से यह शेयर करता हूं कि हमारे पास आने वाले लोगों को इस बात से कुछ फ़र्क नहीं पड़ता कि हम कितनी बड़ी तोपे हैं, हमने कितनी किताबें पढ़ लीं..मोरारजी भाई को पढ़ा या कुलदीय नैयर को या नहीं पढ़ा ..उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ा हमारी विद्वता से ...बस हमारी कही बात उन के पल्ले पड़नी चाहिए...अच्छे से, सादगी से ... इत्मीनान से ..वैसे सोचा जाए तो हमारे पास आने की यह छोटी सी मासूम मांग कोई इतनी बड़ी भी नही है कि हम उसे पूरा ही न कर पाएं....वह किसी बात को मानेगा तभी न जब वह उस को समझ पाएगा...वरना, जैसे काले अक्षर भैंस बराबर होते है, मुंह से निकले बोल जिन्हें कोई समझ ही न पाए...वे भी बेकार में की गई मेहनत ही है ...

मेरे ख्याल में आज के लिए इतना ही काफी है ...काफी फिलासफी झाड़ दी है ... बात यहीं खत्म करते हैं ..टीना मुनीम की बात सुनते हुए ..

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2022

डाक्टर की पहचान ..

अनुशासन से ही बात बनती है ..!

अच्छा, चलिए, आप भी हिंदी फिल्में बहुत देखते हैं...ज़रा डाक्टर की पहचान तो बताईए..सफेद कोट और गले में लटकती टूटीयां...(जिसे आला भी कहते हैं..)...यही न ...किसी भी बड़े प्राईव्हेट अस्पताल में चले जाइए- आप को वहां सभी डाक्टर साफ़-सुथरे सफेद एप्रेम में दिखेंगे...साथ में एक बढ़िया सी नेम-प्लेट भी लगी दिखती है ...

लेकिन अकसर हम लोग देखते हैं कि सरकारी अस्पतालों में इस तरफ़ कोई खास ध्यान नहीं देता ...मैं भी एक सरकारी अस्पताल में डाक्टर हूं...लेकिन देखता हूं बहुत से लोग हैं जिनकी एप्रेन पहनने में ज़्यादा रुचि दिखती नहीं...जब कि जब हमें मेडीकल कॉलेज के पहले साल में यह पहनना नसीब होता है तो हम जैसे आसमां पर उड़ने लगते हैं...मेडीकल कॉलेज के सामने वाले चाय के खोखे पर चाय भी पीनी है तो उसे हाथ में टांग कर निकल जाते थे...वरना साईकिल के हैंडल पर टिका लेते थे यहां वहां जाते हुए..कितना मज़ा आता था..मैं और मेरा एक साथी ..बीडीएस के पहले वर्ष के दौरान 1980 में एक दिन साईकिल पर घर लौट रहे थे कि बरसात शुरु हो गई, हम दोनों ने अपने एप्रेन से अपने सिरों को ढक लिया ....वह अब लुधियाना का एक नामचीन डाक्टर बन चुका है, उस का भाई यूनिवर्सिटी का वाइस-चांसलर है, और कुछ दिन पहले उन्हें हिंदी लेखक के लिए पदम-श्री सम्मान की घोषणा हुई है ...आज भी जब हम उन दिनों को याद करते हैं तो इतना हंसते हैं कि क्या कहें ....बस पेट में बल पड़ने की कसर रह जाती है...

अकसर एमबीबीएस- बीडीएस के सारे कोर्स के दौरान एप्रेन पहनना ही होता है, क्लीनिक ड्यूटी लगती है...अगर अनुशासन में नहीं रहेंगे तो कालेज में रह जाएंगे दस बरस तक..यही डर होता है न हमें और एक बात यह भी कि जब हमने स्टूडेंट लाइफ में वह कोट पहना होता और कोई हमें डाक्टर साब कह कर बुलाता तो हमारी तो बांछें ही खिल जाती...हम उस की बात का इतने अच्छे से जवाब देते कि उसे भी लगता कि यह कैसा डाक्टर हुआ, अजीब सा ही है, इतना वेहला कि सारा रास्ता ही समझाने लग गया...हमारी बांछें तो खिल ही उठतीं, साथ में शायद एक छटांक खून में भी इज़ाफा हो जाता क्योंकि एनॉटमी हाल में गालियां खा खा के वैसे ही हालत खस्ताहाल हुए होते थे ..ऐसे में बाहर आते ही रास्ते पर जाता कोई हमें डाक्टर साहब के नाम से बुलाए तो उस का हाथ चूम लेने का मन किस का न करे .....यही लगे कि पूछ यार, तू कुछ भी पूछ...इतनी मेहनत करने के बाद भी ये एनाटमी वाले तो अपनी क़द्र डाल नहीं रहे, हीरे की पहचान तो तेरे को ही है....

लिखते लिखते एक बात और याद आ गई कि हमारी पीढ़ी को यह हिंदी फिल्मों को फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने का भी बड़ा सड़ाका था.. (मुझे नहीं पता यह सड़ाका किसे कहते हैं...बस, पंजाब में सुनते रहे हैं, इसलिए मैं भी वैसे का वैसे लिख दिया..) ...हम वहां जाते तो जम कर ब्लैक हो रही होती ..उतने पैसे कहां होते हैं मुफलिसी के दिनों में ....हम लोग खिड़की पर अपना स्टूडेंट कार्ड दिखाते ...अब वह टिकट बेचने वाला बाबू क्या जाने कौन पढ़ने वाला डाक्टर और कौन पढ़ चुका ...बस, अकसर हमारा काम हो जाता ...टिकट मिल ही जाती ...इतनी इज़्ज़त थी ...मेरे पास येज़्दी मोटरसाईकिल था हाउस-जाब में, मेरे बड़े भाई ने मुझे भिजवाया था....लेकिन पैसे जेब में सिर्फ पेट्रोल के ही होते थे ... किसी चालान वान के लिए कुछ नहीं होता था...फिर वही डाक्टरी का कार्ड ही काम आता था...आज भी कहीं ट्रैफिक की गलती हो जाती है तो कह देते हैं कि हम तो डाक्टर हैं यहां....हवलदार अकसर भले लोग होते हैं छोड देते हैं ...लेकिन मैं अकसर घर में बच्चों के साथ यह सोच कर बहुत हंसता हूं कि अगर कभी हवलदार पटल कर कि....होगा, भाई तू डाक्टर ...लेकिन इस से क्या तेरे को रेड लाइट जंप करने का परमिट मिल जाता है, नो-पार्किंग में लगाने का हक मिल जाता है क्या डाकटर साहब आप को ...!

खैर, यह हो गई हल्की फुल्की बातें ..लेकिन दोस्तो यह मुद्दा इतना हल्का है नहीं ...जिस अस्पताल में मैं काम करता हूं वहां पर अस्पताल में काम कर रहे सभी चिकित्सा अधिकारियों एवं कर्मचारियों को यह हिदायत दी जा रही है कि जब तक ड्यूटी पर हैं, अपनी डै्स में रहें और अपना आई-कार्ड भी गले में टांगा होना चाहिए...वैसे तो इस तरह के निर्देश दिए जाने की नौबत आनी ही नहीं चाहिए क्योंकि यह तो हर कर्मचारी का अपना फ़र्ज़ है .

कईं बातें हो जाती हैं ..आजकल बड़े अस्पतालों में जब कोई अप्रिय घटना घट जाती है तो कोई किसी की शिनाख्त करे तो करे कैसे...अस्पताल में काम करने वाले ही एक दूसरे को नहीं पहचानते ...जानना तो बहुत दूर की बात है ...मैं ही जिस अस्पताल में काम कर रहा हूं बहुत कम लोगों को जानता हूं ..और मुझे वहां काम करते हुए आठ महीने होने वाले हैं...इसलिए मैं अपने डिपार्टमेंट में काम करने वाले डाक्टरों को अकसर कहता हूं कि इतना बडा़ अस्पताल है ...जब भी वक्त मिले 10-15 मिनट के लिए कभी कभार अस्पताल के अलग अलग एरिया में जा कर वहां की सुविधाएं देखो करो..वहां पर काम करने वालों से मिलो करो...अब हर कोई यही सोच ले कि मुझे ही कोई मिलने आएगा तो फिर काम नहीं चलेगा...आजकल हम जिस जगह पर काम रहे हैं वहां के विभिन्न विभागों की, डाक्टरों की, सुविधाओं की इतनी तो जानकारी होनी चाहिए कि दूर गांव से आए किसी मरीज़ के छोटे से सवाल का जवाब तो दे सकें...इसलिए अपने लिए न सही, ऐसे दूर-दराज से आने वाले जो बडे़ बड़े टीचिंग अस्पतालों में बहुत बार भटक से जाते हैं ...उन के लिए तो अपने अस्पताल की पूरी जानकारी रखनी चाहिए...

एक तो आजकल मोबाइल की वजह से हर कोई खाली वक्त में उसी गैजेट में गुम-सुम रहता है, हम सब को ज़रूरत है उससे बाहर निकल पर रियल वर्ल्ड ेमें विचरने की ...किसी से बात करेंगे तो ही बात बनेगी...

हां, तो बात चल रही थी कि सफेद कोट पहन कर आया करें , नेम-प्लेट लगी होनी चाहिए...कपड़े फार्मल पहने होने चाहिए...चलिए, एक उदाहरण देखते हैं...हम अगर किसी अस्पताल में जाते हैं तो एक हाल में पांच छः डाक्टर हैं, कोई जीन-टीशर्ट में है, गले में सोने की मोटी चेन, हाथों में अगूठियां, दूसरे ने भी जीन पहनी है, शर्ट बाहर निकली हुई है, एक डाक्टर ने कहने को तो सफेद कोट (एप्रेन) पहना हुआ है ..लेेकिन वह पानपराग चबा रहा है, और देखते ही देखते उस ने डस्टबिन में थूक भी दिया है.., और एक जूनियर डाक्टर है, जिसने सलीके से कपडे़ पहन रखे हैं ...साफ सुथरे ..ब्रांडेड-नॉन-ब्रांडेड का कुछ भी फर्क नहीं पड़ता, बस, साफ सुथरे सलीके से पहनी हुई पैंट-कमीज़, टाई भी लगाई हुई है....अब आप खुद सोचिए कि आप उस कमरे में जिंदगी में पहली बार दाखिल हो रहे हैं तो आप किस डाक्टर के पास जाना चाहेंगे ...जी हां, वही जूनियर डाक्टर ...क्योंकि वही ठीक ठाक डाक्टर लग रहा है....वही बात है कि जिस मरीज़ से हम पहली बार मिल रहे हैं उसे कुछ पता नहीं सीनियर क्या होता है, जूनियर क्या होता है ...उसे तो बस डाक्टर एक डाक्टर जैसा दिख जाए तो उस की लाटरी लग जाती है जैसे...

हम सब की कपड़ों की अपनी अपनी पसंद हैं...मुझे भी जीन के साथ चाईनीज़ कॉलर की बढ़िया सी लिनिन शर्ट (बाहर निकाली हुई), स्कैचर्ज़ शूज़ के साथ पहनना पसंद है ...अगर जीन नहीं तो लिनिन की पतलून भी .....कभी कभी मैं पहन तो लेता हूं ड्यूटी पर लेकिन मुझे अपने आप में एक अजीब सी शर्म महसूस होती रहती है कि यार, मैं डाक्टर हूं अस्पताल में आया हूं या मेहबूब स्टूडियो में किसी करेक्टर रोल के लिए स्ट्रगल कर रहा हूं यहां आ कर ...इसलिए अब मैं भी फार्मल ड्रेस और एप्रेन पहनने की ही कोशिश करता  हूं ...क्योंकि यही एक डाक्टर की असल पहचान है ..वैसे तो कोशिश लफ़्ज़ मुझे लिखना ही नहीं चाहिए था...ड्रेस पहन कर हम किसी के ऊपर एहसान नहीं कर रहे हैं --सरकारी अस्पताल में हैं, सरकार की तनख्वाह पर पल रहे हैं ..तो हर आने वाले मरीज़ को हक है यह जानने का कि वह जिस से बात कर रहा है, वह है कौन ....उसे पूछने की ज़रूरत पड़नी ही नहीं चाहिए...और वैसे हमने देखा यह भी तो है कि कितने लोग डाक्टर से उस का नाम पूछ पाते हैं ...शायद हज़ारों नहीं तो सैंकड़ों में एक..लेकिन जिज्ञासा हरेक के मन में रहती है कि जिस से वह एक बार मिल कर जा रहा है, अगर अगली बार भी वही मिल जाए तो बेहतर होगा ...या अगर किसी डाक्टर का रवैया किसी को थोड़ा भी दोस्ताना सा, हंसमुख सा लगता है तो वह अगली बार अपने आप को उसी के हवाले करने चाहे तो कैसे ढूंढेगा उसे फिर से ...इस मशीनों, उपकरणों के जंगल में ...

अच्छा, एक मज़ेदार बात और भी है ...60 साल के होने पर बंदे के पास और कुछ हो न हो, तजुर्बे बहुत होते हैं ...और कमबख्त यह ललक भी लग जाती है कि कोई हमारे तजुर्बों से फायदा भी ले ..क्यों ले यार कोई तुम्हारे तजुर्बों से फायदा, तुमने अपने वक्त में किसी की सुनी थी ...किसी ज़माने में तुम उड़े फिरते थे ..पांव नहीं लगते थे न ज़मीन पर ...आज नई पीढ़ी के दिन हैं...हां, तुम ज़्यादा से ज़्यादा अपने तजुर्बे बांट दिया करो....थोपने की तो सोचो ही मत ...फैसला पढ़ने वालों पर छोड़ दिया करो।

हां, तो तजुर्बा यह है कि हम ने भी पिछले 35 सालों में हर तरह की ड्रेस, एप्रेन पहन कर और न पहन कर, शेव किए बगैर डयूटी जाने से लेकर ..कडाडे की ठंडी में बिना नहाए, ड्राई क्लीन करने वाले सारे कूल एक्सपैरीमेंट कर रखे हैं ..उसी के बलबूते मैं यह बात आज ढंके की चोट पर कह रहा हूं कि जैसे वकील, पुलिस इंस्पेक्टर, फौजी, बस कंडक्टर अपनी ड्रेस पहनते हैं, उसमें फख्र महसूस भी करते हैं ..वैसे ही मुझे भी रोज़ अच्छे से शेव कर के, नहाने के बाद , बढ़िया तरीके से तैयार हो कर, साफ सुथरे कपड़े पहन कर, अच्छे से फार्मल शूज़ (पालिश किए हुए) पहन कर अस्पताल में ड्यूटी जाना ही अच्छा लगता है ...इन में से एक भी चीज़ न हो, शेव न की हो, शूज पालिश न हों, पेंट-कमीज़ अगर मुचडे़ हुए से हों (मुचड़ा पंजाबी का लफ़्ज़ है,  जिस का अर्थ है, सिलवटें 😎) ... तो अपने आप में ही कुछ तो कमी लगती है ...अपना ही आत्मविश्वास वैसा नहीं होता जैसा होना चाहिए...मरीज़ तक भी वह हमारी कमी पहुंच ही जाती है .. ने तो परफ्यूम भी ठूंस रखे हैं मेरे अलमारी में ..कहते हैं अपनी जेब में भी रखो करो, बापू, लेकिन बापू, इतनी आलसी है कि कभी लगाता ही नहीं, याद ही नहीं रहता ...हां, जब बापू के दिन थे तो परफ्यूज़ के चाहे शीशी एक ही होती थी लेकिन उसे खत्म नहीं होने देता था, खत्म होने से पहले ही नईं खरीद लेता था...

एक तर्क यह भी है कि कुछ लोगों का कि डाक्टरों की पोशाक कौन देखता है...उन के पास तो गुण ही इतने होते हैं..बेशक होते हैं. लेकिन उस स्तर तक पहुंचने भी अनुशासन की गली से होकर ही जाता है ...और फिर वे डाक्टर लोग कोई सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, उन्हें शायद किसी किस्म की बंदिशें नहीं बांध पाती ...वे सूफी लगने लगते हैं ...सच में, मैंने कुछ ऐसे महान डाक्टरों को देखा है ....मेरी दुआ है कि हर डाक्टर सिद्धियां प्राप्त करे लेकिन जब तक यह काम नहीं हो पाता, चलिए ...आज से हम सब यह प्रण लें कि हम ड्यूटी पर साफ सुथरे फार्मल कपड़ों में दिखा करेंगे, फार्मल शूज़ पहने हुए...अगर दाढ़ी बढा़ई हुई तो अलग बात है, वरना रोज़ शेव करना ..बालों को अच्छे से संवार के रखना भी ज़रूरी है ...मरीज़ सब कुछ देख रहा होता है ....हम उसे अनाड़ी समझते हैं, वह हमारी ड्रेस, हमारी बोलचाल, हमारे सफेद कोट की साफ-सफाई, उस का साईज़, सब कुछ ताड़ रहा होता है , क्या करे बेचारा, हम भी जब कभी मरीज़ के रोल में आए हैं तो हम ने भी तो यही किया है..है कि नहीं? ...

बात तो छोटी सी है ...गुज़ारिश है ...हम लोग डाक्टर हैं, डाक्टर दिखने भी चाहिएं..मरीज़ को सपना नहीं आता कि कौन डाक्टर है कोन क्या है, और दूसरा नेमप्लेट लगी होगी तो वह हमारा नाम भी जान जाएगा और आप के नाम की तूती देश के कोने कोने में बोलने लगेगी.......एक बार अजमा कर तो देखिए..ये सब बातें मैं अपने आप से भी कह रहा हूं कि मैं भी आज के बाद पूरी कोशिश करूंगा कि आप को फार्मल कपडो़ं में ही, एप्रेन में, नेम-प्लेट के साथ ही दिखूं .......वरना मुझे भी अपने साथियों की नज़रों मे गिरने का ज़ोखिम उठाना पडे़गा...

अगर हम डा्कटर लोग अच्छे से ड्रेस अप हैं तो मरीज़ों का भरोसा बहुत बढ़ जाता है, उन्हें लगता है कि मैं सुरक्षित हाथों में हूं ..डाक्टर अपने काम के प्रति, अपने पेशे के प्रति संजीदा है ...मुन्ना भाई एमबीबीएस वाली बातें फिल्मों मेंं ही अच्छी लगती हैं ..मन बहलाने के लिए ख्याल अच्छा है गालिब ..। जैसे हैं, जो पेशा है, जो काम करते हैं, उस के मुताबिक नज़र आना भी तो ज़रूरी है ..😂..गलती से भी कोई इसे नसीहत की घुट्टी मत समझिए..कल से मैं भी इन सब चीज़ों का खास ख्याल रखूंगा ... और कल से सुबह जल्दी जल्दी में पहनने वाले कपडे़ के इंतखाब की उस प्रैक्टिस पर भी लगाम लगाऊंगा जिस के तहत जैसे ही कपड़ों से ठूंसी अलमारी खोलता हूं, जो कमीज़ खोलते ही नीचे गिर जाती है, वही पहन लेता हूं ..फार्मल, कैजुएल के खाने ही अलग करने की कोशिश करूंगा ..और हां, ड्यूटी से आते ही जैसे ही मैं अपने फार्मल कपडे उतार कर वापिस जीन-टीशर्ट पहनता हूं, इतनी आज़ादी महसूस करता हूं कि क्या बताऊं...इसे पढ़ कर मेरे साथी मुझ से यही कहने लगेंगे कि यार, तुझे आज़ादी इतनी ही प्यारी है तो तो चुपचाप वीआरएस लेकर मन का रांझा राज़ी ऱख ...तू इन चक्करों में पड़ता ही क्यों है भाई.....वैसे, उस की भी योजना चल रही है, किसी को बताइएगा मत ...घर वाले सारे पीछे पड़े हुए हैं कि क्या पड़े हुए हो इस चक्कर में ....मैं कहता हूं कि मैं घर में बैठा बोर हो जाऊंगा .....तो सारे एक ही आवाज़ में कह उठते हैं......बापू, आप और बोरियत, आप बोर नहीं होंगे, उस की गारंटी हमारी! चलिए, सोचते हैं ...

मुझे लगा कि इतनी भारी भरकम पोस्ट के बाद कम से कम गाना तो कोई ढंग का हो ...तभी मुझे मेरे एक बहुत ही फेवरेट गाने का ख्याल आ गया.....बहुत ही अच्छा लगता है मुझे यह गीत...अपना हर दिन ऐसे जिए ..जैसे कि आखरी हो...मुझे इस गीत के बोल बेहद पसंद है ..a song full of life! - Has an important message too for all of us! - Live in the moment!! 

धीरे धीरे सुबह हुई ....जाग उठी ज़िंदगी ...

धीरे धीरे सुबह हुई...जाग उठी ज़िंदगी ...
पंछी चले अंबर को ...माजी चले सागर को ... 

सुबह सुबह उठ कर कुछ भी करने का मन नहीं है तो सोचा कि चलिए इस डॉयरी में ही कुछ लिख देते हैं....फिर दूसरों को भी पढ़वाएंगे...एक साथ बैठे लोग कुछ नहीं कहते चाहे...लेकिन दिन में जो भी एक दो लोग यह डॉयरी पढ़ कर मुझे कुछ कहते हैं बस वही मुझे अगली पोस्ट लिखने के लिए उकसाता रहता है ...और कहने वालों की इमानदारी मैं उन के अल्फ़ाज़ से कहीं ज़्यादा उन की आंखों में पढ़ लेता हूं...

मैं कईं कईं हफ्तों तक, शायद कभी कभी महीनों तक भी ..सुबह उठ कर टहलने टालता रहता हूं... बहाने सुनिएगा?..अगर तो मैं जल्दी जाग जाता हूं तो लगता है कि अभी तो इतनी जल्दी है, रास्ते में कुत्ते ही न पड़ जाएं (एक बार ऐसा हो चुका है..बाल बाल बचा था...) , अगर थोड़ा देर हो जाए तो सोचता हूं कि अब कौन जाए, तैयार हो कर ड्यूटी पर चलते हैं, क्यों बेकार की किट-किट...60 साल की उम्र होने पर अकसर कोई टोकता नहीं है, लेकिन फिर भी अपने आप ही लेटलतीफी की वजह से नज़रों में थोड़ा बहुत तो गिर ही जाता है ...कहां से गिर जाता है?- कहीं से नहीं अपनी नज़रों से यार, और कहां से गिरना है...😂 

अच्छा, एक बात और भी है कि यहां बंबई में सुबह होती भी बहुत देर से है ..यह भी एक बहाना ही तो हुआ..क्या मेरे एक बंदे के लिए सूरज अपना टाईम-टेबल बदल दे ... साईकिल चलाना हो तो मुझे यही आलस रहता है कि कोई उसे अब पार्किंग से जाकर उठाए, इतने महीनों से तो चलाया नही, पता नहीं हवा है भी कि नहीं...

बस, ऐसे ही बहाने करता रहता हूं अपने आप से ..और मुझे प्रातःकाल ही भ्रमण अच्छा लगता है, देर शाम या रात में टहलना तो मुझे कार्बनमोनोआक्साईड फांकने जैसा लगता है ...और उस वक्त जो लोग जॉगिंग कर रहे होते हैं, रुक कर उन्हें बिन मांगी नसीहत देने की इच्छा भी होती है कि यार, क्या आप को इतने ट्रैफिक में जॉगिंग करने के ख़तरे पता हैं ..लेकिन फिर अपने आप को यहां मुंबई में तो रोक ही देता हूं ...बिन मांगी नसीहत देने के लिए...लखनऊ में तो मैंने दो तीन युवकों को एक बार ऐसी नसीहत की घुट्टी पिला भी दी थी .. हा हा हा हा ...

अच्छा, एक बात और है...जिस दिन सुबह जल्दी उठ जाऊं तो फिर शाम तक थकावट सी होने लगती है...इस का समाधान तो मेरी श्रीमति जी ने कर दिया कुछ अरसा पहले...उन्होंने मुझे यह ज्ञान दिया कि देखिए, अगर सुबह जल्दी उठ ही जाते हैं तो कोई बात नहीं, लेटे रहिए बिस्तर पर, लेकिन मोबाइल को मत छुए...कुछ ही वक्त में फिर से नींद आ जाएगी....अब मैं इसी ज्ञान का इस्तेमाल कर के एक-दो घंटे की नींद और ले लेता हूं...

अच्छा, एक उलझन और भी है मुझे ...जिन लोगों से मेरा ऑफिशियल नाता है उन के साथ मैं बस ड्यूटी तक ही नाता रखना चाहता हूं ..और ऐसा करता भी हूं ...इस के पीछे भी कुछ किस्से हैं, कभी मूड में रहूंगा तो वह भी सुना दूंगा...मैं बिल्कुल स्विच आन-ऑफ की फिलासफी में विश्वास करता हूं ...इस का हिसाब आप इस तरह से लगा सकते हैं कि मैं अपनी ड्यूटी ऑफ होते ही सब से पहले तो अपनी शर्ट जो मैंने पेंट के अंदर टक-अन की होती है, उसे बाहर निकाल कर आज़ादी महसूस करता हूं ..और शाम के वक्त भी जिस भी कॉलोनी में रहता हूं वहां पर सैर वैर नहीं करता ..क्योंकि वही चेहरे बार बार कौन देखे...घोर बोरियत होती है ...और अगर दिख जाएँ तो वही डर्टी-पॉलिटिक्स (मुझे नफ़रत है इस तरह की गॉसिपिंग से) ...क्या लेना देना यार, अपनी अपनी बंसी बजाओ..मस्त रहो...। इसीलिए भी मैं सुबह सवेरे किसी अलग जगह पर जाने की फिराक में रहता हूं ....

कल भी मैं जब सुबह 6.30 बजे उठा तो बाहर अंधेरा ही था...सोचा कि ऐसे तो नहीं होगा...यह अंधेरा तो ऐसे ही रहेगा...भाई तू अपने मन में उजियारा कर ..मैं तुरंत बांद्रा में बैंड-स्टैंड वाली रोड पर चला गया...यह सेंट एंड्रयूज़ चर्च से शुरू होती है ..और आगे बांद्रा फोर्ट पर जा कर खत्म होती है ...

जैसे ही मैं पोमरेड पर चढ़ा मैंने देखा कुछ लोग इस मंज़र की तस्वीर खींच रहे थे ..मेरा पहला रिएक्शन यही था कि सूरज चढ़ भी गया क्या, लेकिन फिर लगा कि सूरज पश्चिम में तो डूबता है, यह तो चंद्रमा जी ही होंगे ...फिर दूसरा विचार आया कि सुबह 6.45 पर भी चंद्रमा जी दिख रहे हैं...पता नहीं, इसी पशोपेश में पास ही जा रहे एक उम्रदराज शख्स से यह पूछने में मुझे कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं हुई कि यह तो मून ही होगा...उसने ने जैसे ही मुंडी हिलाई ...मैं तो वहां से सरपट आगे निकल गया...फ़िजिक्स मेरी बहुत कमज़ोर ही थी ...मुझे सच में ये सब सबजेक्ट बेहद नीरस लगते थे ...लेकिन अब नौकरी के लिए कुछ तो पढ़ना ही था ..

जब हम घर में चादर ताने सो रहे होते हैं तो लगता है कि सारी दुनिया घरों ही में दुबकी पड़ी है ..लेकिन बाहर निकलते ही पता चलता है कि लोग बाहर निकल चुके हैं ..अपनी सेहत का ख्याल रखते हैं ..मेरे जैसे नहीं है, सब कूछ जानते हुए भी आलस की लोई ओड़े रखते हैं....दिन में खूब चल लेता हूं ...चलता ही हूं जब तक घुटने दुखने नहीं लगते, फिर वापिस लौट आता हूं ...लेकिन सुबह के कुदरते नज़ारों का लुत्फ़ उठाने की तो बात ही कुछ और है...



15 मिनट चलते चलते मैं यहां तक पहुंच गया ..बांद्रा फोर्ट के गेट के अंदर ...अंदर जाने पर यह खंडहर भी दिखते हैं यह सी-रॉक होटल के खंडहर हैं ...7 मई 1975 में . आज से 47 साल पहले मैं मेरे चाचा की बेटी की शादी में यहीं पर था, और इसी दीवार से बार बार इस समंदर की लहरों को देख कर खुश हो रहा था ...उस शादी में राजकपूर, उन की बीवी और राजेन्द्र कुमार भी आए थे...मेरे चाचा की अच्छी दोस्ती थी फिल्मी हस्तियों से ...राजकपूर, यश चोपड़ा इन सब से ...हां, तो उस दिन राजकपूर शादी में हाथ लगाने नहीं आए थे ...दो घंटे वहीं बैठे रहे ...हम उन्हें दूर से देख कर खुश हो रहे थे ...और हम बच्चे पूरे होटल में ऐसे घूमने निकले जैसे हम ने उसे खरीद ही लिया हो...हाटेल की ग्राउँड फ्लोर पर एक कमरे को खोला तो वह टेबल-टैनिस वाला कमरा था..वहां पर ऋषि कपूर सफेद निक्कर और टी-शर्ट पहने खेल रहे थे ..अभी हम उन्हें निहार ही रहे थे कि किसी ने हमें उस कमरे से बाहर कर दिया... हा हा हा हा ..

वैसे तो सारा दिन हम लोगों के चेहरे पर बारह बजे रहते हैं ...मुझे नहीं पता कि हम किस लिए ऐसा करते हैं...अपने इन्हीं चेहरों की वजह से दूसरों का भी दिन खराब कर देते हैं ...लेकिन सुबह कुदरत की गोद में हम लोगों के चेहरे कैसे खिल उठते हैं...यह शेल्फी लेने पर ही पता चलता हूैं...

बंदा अपने आप से यह पूछने पर मजबूर हो जाता है कि यार, तू वही बोरिंग सा बंदा ही है ...इस में तो तू बडा़ ज़िंदादिल किस्म का लग रहा है ... 

और हां, एक बात और ....सी-रॉक जहां पहले था ...उस के सामने बैंड-स्टैंड पर टाटा-लैंडएंड पांच सितारा होटल है ..मैं कौन सा कभी अंदर गया हूं ...बाहर से ही देखा है ...लेकिन उस बांद्रा फोर्ट में ज़रूर कईं बार जा चुका हूं ..और आप सब को भी वहां ज़रूर जाने की सलाह देता हूं ..आप को वहां बड़ा मज़ा आएगा..वहां से सी-लिंक दिखता है, वह एक अलग बात है ..लेकिन पिछले उस किले का इतिहास जानने के लिए आप को इस किले की तरफ़ ज़रूर जाना चाहिए..यह सुबह 6 से शाम 6 बजे खुला रहता है, कोई टिकट नहीं है, और गाडी़ पार्किंग ढूंढने की भी कोई सिरदर्दी नहीं, इस के बाहर पर्याप्त जगह है .. आप को वहां जाकर अच्छा लगेगा ...बार बार जाने को मन मचलेगा.. 

मुझे यह बांद्रा फोर्ट बहुत रहस्यमयी लगता है ...इतने राज़ अपने आप में समेटे हुए...कल तो मैं अंदर नहीं गया..लेकिन बहुत बार जा चुका हूं...सुबह सुबह इस एरिया की एम्बिएैंस ही अनूठी होती है ...लोग वहां पर सुबह सुबह स्पैशल फोटो शूट या कुछ डांस कालेज के युवक-युवतियां प्रोफैशन स्तर के शूट करवाने आते हैं ..

क्या यह मंज़र देख कर भी आप की वहां आने की तमन्ना नहीं हो रही? 

बांद्रा फोर्ट के पास पार्किंग की कोई कमी नहीं है ...

बांद्रा फोर्ट के गेट के बाहर ही है यह टाटा-लैंड्स एंड फाइव-स्टार होटल ...

बांद्रा फोर्ट का गेट ...फिर से याद दिलवा रहा हूं सुबह 6 से शाम 6 बजे तक 

महानगरों में पौधों का रख-रखाव भी इतना आसां नहीं है जितना हम समझते हैं, इसलिए पेड़-पौधों से मोहब्बत करिए..

मेरा तो 7.30 के करीब लौटने का वक्त हो गया...सोचा कि मन्नत पर ही एक नज़र मार लें ...(यह लोहे के गेट वाला) ..उधर शाहरूख तो नहीं दिखा ..लेकिन ज़िंदगी की एक सीख लिखी हुई दिख गई ...

उस सीख को आप भी पढ़िए....क्या पता आप पर भी कुछ असर हो जाए...सब को इस सबक को निरंतर याद रखना बहुत ज़रूरी है ..
Don't save your loving speeches
For your friends till they are old
Donटt write them on their tombstone
Speak them rather now instead....


दूसरी भी एक बढि़या सी सीख दूसरी तरफ़ लिखी मिल गई ...

जो लोग नेक काम कर जाते हैं ..वे हमेशा लोगों को याद रहते हैं ...

मैंने आप को भी यह रिमाइंड करवाया ...




काश! मैं ऑर्ट ऐप्रिशिएशन की कुछ तो तहज़ीब सीख पाता ..इतने इतने महान शिल्पकार हुए हैं और हमें इन के बारे में पता ही नहीं कुछ ... 

आते वक्त जिस जगह से मैंने चंदामामा फोटो खींची थी, वहीं से पूर्व दिशा से सूरज महाराज जी प्रकट होते दिख गए..चलिए, दिल की सुकूं तो मिला कि सुबह वाले चंदा मामा ही थे, सूरज कभी पछम से थोड़े न उगता है, मुहावरों के सिवाए...धत् तेरे की ..तेरे अनाड़ीपन की 

दो साल पहले अमेरिका में यह मंज़र देखा कि कारों के पीछे साईकिल टांगे हुए थे ..अब यहां भी यह मंज़र दिख जाते हैं...ये लोग कहीं जाकर साईकिल चलाएंगे या चला कर आए होंगे...चलिए, कुछ भी है, घर से निकले तो हैं सुबह सुबह ...यही बात सब से अच्छी है ...

कहते हैं न सुबह की सैर करो तो दिन अच्छा बीतता है ...मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ..कल की विशेष बात यह रही कि एक वयोवृद्ध दंपति जो अपने दांतों की मुरम्मत मेरे से ही करवाते हैं...बहुत ज़्यादा बुज़ुर्ग हैं...पता नहीं बात करते हैं तो आंखें उन की हमेशा भरी सी क्यों लगती हैं मुझे ...कल मेरे लिए एक पेन लेकर आए...मेरे लिए सब से बेहतरीन तोहफा है ...मैं किसी से भी कुछ भी तोहफे वोहफे लेने के सख्त खिलाफ हूं ..मिठाई तक नहीं लेता...वही बहाने ...कि हम लोग खाते ही नहीं है, (खाते तो ऐसे हैं कि आप हैरान रह जाएँ अगर देख लें तो😂😂) आप का बहुत बहुत शुक्रिया...बच्चों को खिलाइए.। मैं ऐसे लोगों को हमेशा यही कहता हूं कि इस से मेरी आदतें बिगड़ जाएंगी ....मैं कहीं न कहीं मन में दूसरे लोगों से भी इन सब चीज़ों की अपेक्षा करने लगूंगा ...फिर तो मैं बेकार हो जाऊंगा...इसलिए मैं नहीं लेता कुछ भी किसी सी ....और एक बात, यह बात कि हम खुद नहीं खाते, आगे खिला देते हैं...यह भी बेकार की बात है ...आगे खिलाएं या पीछे खिलाएं ...इस से मैसेज गलत जाता है ...जिस का नमक आप एक बार खा लेते हैं कहीं न कहीं उस के लिए सॉफ्ट-कार्नर बन ही जाता है ..वह भी कुछ तो अपना हक समझने लगेगा..चाहे लाइन-तोड़ कर आप के पास पहुंचना ही इस हक में शामिल हो........मुझे इन सब टुच्ची हरकतों से हमेशा से घोर नफरत है...हर वह काम जिस की वजह से आप को हमें किसी की नज़र मेंं नज़र मिलाने से थोडी़ सी भी हिचकिचाहट हो, बेकार है वह काम....

प्यार अनमोल है ... अगली बार उन का नुस्खा इसी कलम से लिखूंगा...

लेकिन, हां, इस बुजुर्ग दंपति की बात ही कुछ और है...उन का प्यार उन की आंखों में झलकता है ...क्या करें, आदमी के सारे कायदे घुटने टेक देते हैं प्यार के आगे ...वैसे तो मेरे पास एक से बढ़ कर एक कम से एक हज़ार फाउंटेन पैनों की एक बहुत अच्छी कलेक्शन है, मुझे शौक है कईं सालों से ....लेेकिन उन का यह पैन मेरे लिए बेशकीमती है ...मैं थोडा़ सा झिझका लेते हुए...लेकिन उन के हाव-भाव देख कर मेरे उसूलों ने वहीं पर अपने घुटने टेक दिए....यह रहा वह बेशकीमती तोहफ़ा....

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

क्या सच में ये सब खेल ज़रूरी हैं...

जब हम बचपन में खेल खेलते हैं तो कितना मज़ा आता है, कोई किसी का ख़ास मक़सद नहीं ...बस, मस्ती करना और खुश रहना..पसीनों पसीना होकर जब सांस फूलने लगता तो आराम कर लेते ...और सांस रलने लगती (सामान्य होने पर) फिर से उन मासूम खेलों में मशगूल हो जाते ...और सच में ये सब खेल हमें तंदरूस्त रखते थे ..ह

लेकिन आज कल ये जो मोबाइल पर हम हर वक्त खेल खेलते रहते हैं, यह हमें बीमार करने के लिए काफी है ...कोई किसी तकलीफ से परेशान है, किसी की दूसरी कोई परेशानी है ...हो न हो, इस में कुछ तो रोल उन सब गेम्स का है जो हम सुबह उठने से शुरू हो कर रात को सोने तक खेलते रहते हैं ...बचपन वाली गेम्स से तो सेहत अच्छी रहती थी, लेकिन ये जो वाट्सएप वाली गेम्स हैं इन से तो दिमाग में ऐसी खिचड़ी पकती है कि कुछ पूछो मत ... 

Games people play! 

मुझे भी कुछ दिनों से ऐसा ख्याल आ तो रहा था कि यार, हम लोग इस वाट्सएप पर भी कितनी गेम्स खेलते रहते हैं...और ख्याल रखने वाली बात यह है कि ये सभी की सभी गेम्स हमें बीमार करने के लिए काफी हैं...हमें लगता है कि हम रोमांच का मज़ा ले रहे हैं लेकिन ऐसा नहीं है...सोचने वाली बात है कि हमारे दिमाग पर कितना दबाव रहता होगा ...तरह तरह के तथ्य याद रखने के लिए...चलिए, शुक्र है मैं तो अपने मन की बात लिख कर हल्का हो जाता हूं ...बस, मुझे मेरी क़लम सामने रखी मिलनी चाहिए... 
मैंने इंगलिश में ये बातें लिख तो लीं लेकिन जी भरा नहीं ....ऐसे लग रहा है कि कुछ तो रह गया है और मुझे ऐसे नींद कैसे आने वाली है ....इसलिए सोच रहा हूं कि इन चारों चेहरों के बारे में अपने दिल की तहों में कहीं छुपे बैठे विचार एक जगह लिख लूं ...अपने लिए ...किसी दूसरे के लिए ...मुझे इस का ध्यान रखना है, दूसरों की दूसरे जानें....

चेहरा नं ..1...यह चेहरा हमारा वाट्सएप ग्रुप पर नज़र आता है ...हम बडे़ बीबे बच्चे बने होते हैं वहां पर ..या तो चुप रहते हैं ...नहीं तो सब कुछ चंगा ही चंगा , सब वधिया जी वधिया ...बस जी तुसीं से चक दित्ते फट्टे ...चक दित्ते फट्टे ...इस मोड में भी होते हैं अकसर ..सभी नहीं ...लेकिन वही जो ज़्यादा टपोशियां मारने के आदि होते हैं ..बिल्कुल मेरे जैसे ...जब कि दिल से जानते हैं कि यह सब बकवास है, किसी काम की बातें नहीं ..क्या सिद्ध कर लेंगे और इस से हो क्या जाएगा...कुछ भी तो नहीं। बस, एक तरह का चस्का ...हर पोस्ट पर कूदने का ...अपनी राय देने का ...इस में भी समझदार लोगों को interpersonal relations की झलक साफ़ देखने को मिलती है ...आजकल हर कोई समझदार है, सिर्फ अपने आप को ही समझदार समझने वाला सही में खोता (गधा) है ...चलिए, यह जो चेहरा है, इस में कुछ खास पता नहीं चलता...क्योंकि सब दनादन तालियां मारने के मोड में पाए जाते हैं ..वरना चुप्पी साधे रहते हैं....

चेहरा नं 2 ..अच्छा, कोई एक ग्रुप है कल्पना कीजिए...उस के दो मेेंबर जब आपस में अलग से मैसेज करते हैं तो उन की टोन, उन की आत्मीयता या कठोरता (कुछ भी हो सकता है) अलग ही होती है ...यह स्वभाविक भी है, भीड़ में हम लोग जिस तरह से पेश आते हैं वह वन-टू-वन में बदला हुआ पाते हैं ...अधिकतर यह अनुभव अच्छा ही होता है ..बस, वही चंगा जी चंगा, वधिया जी वधिया...तुसीं बड़े घैंट जी ...बड़े घैंट ...

चेहरा नं 3 .. यह जो हमारा चेहरा है वह तब दूसरों की नज़र में आता है जब किसी वाट्सएप ग्रुप से तालुल्क रखने वाले कुछ लोग किसी गोष्ठी में मिलते हैं.... इस परिस्थिति में हम लोग जिस तरह से दूसरे सदस्यों से पेश आते हैं या वे हम से पेश आते हैं, यह सब बड़ा विचारोत्तेजक होता है ..आदमी सोच में पड़ जाता है कि क्या ये वही लोग हैं जो अलग से तो ऐसे मैसेज करते हैं या जिन का चेहरा नं 4 तो अलग ही ब्यां कर रहा होता है .. 

इस चेहरा नं 3 की गेम के बारे में हम ऐसे समझ सकते हैं कि हम शायद आपस में दूसरे मैंबरों का ऐसा तवा लगा चुके होते हैं (बुरा भला कह चुके होते हैं) अलग से कि वहां पर हमें आपस में एक दूसरे की बात पर कोई प्रतिक्रिया देनी भारी पड़ती है ...हम बस कटे-कटे से उस गोष्ठी में बैठे उस के खत्म होने का इंतज़ार करते रहते हैं... इस तरह से जब एक वाट्सएप ग्रुप वाले मिलते हैं एक जगह तो बड़ा अजीब सा लगता है ..सब कुछ कमबख्त बनावटी ...कागज़ के फूलों जैसा ...जो रंग ले भी आएं तो रूप कहां से लाएंगे...सोशल इंजीनियरिंग के फंडे भी जो लोग समझते हैं, चाहे वे गेम्स खेले या न खेलें, फालतू की गुटबाजी का वक्त किस के पास है ....जिन को इन सब का शौक का उन्हें यह मुबारक ...क्योंकि इस से होता-हवाता कुछ नहीं है ...दोस्तो, कभी फ़ुर्सत के लम्हों में सोचिएगा कि किसी बंदे को किसी दूसरे के आगे बुरा-भला कहने से आखिर हो क्या जाएगा....यकीन मानिए..कुछ नहीं होगा..जिस की बुराई कर रहे हैं उस का तो यकीनन कुछ न होगा...गारंटी से कह रहा हूं..लेकिन बुराई करने वाले ज़रूर आसपास के साथियों में घटिया सा, सस्ता सा लगने लगता है ..क्योंकि बातें कभी भी छुपी रहती नहीं हैं, दीवारों के भी कान होते हैं .। खैर, गुटबाजी बिल्कुल बेकार है ... मस्त रहिए...खुश रहिए...यहां पर किसी को 150 साल तो रहना नहीं ...राज़ी खुशी जो वक्त पास हो जाए, उसी का शुक्र मनाइए...बस खेल खेलना बंद करिए... वह कैसा है, क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है....छोड़ो यार इन बातों को, हम सब को अपने अपने गिरेबान में झांकने से ही फुर्सत नहीं मिलनी चाहिए....अगर बैठ कर कमियां ही निकालनी हैं तो ... 

चेहरा नं 4 ...चेहरा नं 4 तो बड़ी मज़ेदार एंटिटि होती है ...यह चेहरा हमें तब दिखाई पड़ता है या हम तभी दिखा पाते हैं जब किसी वाट्सएप ग्रुप के दो मेंबर जो एक दूसरे पर भरोसा करते हों, ऐसे दो सदस्य जब आपस में दिल खोल कर बातें करते हैं तो इस चेहरे के दर्शन हो पाते हैं ....वरना नहीं..। और इतने खुले वातावरण में जब इन मेंबरों को बात चल रही होती है, हंसी-मज़ाक भी चल रहा होता है तो ये दोनों यह सोच कर चक्कर में पड़ जाते हैं दूसरे बंदे के बारे में कि क्या यह वही शख्स है जो वाट्सग्रुप पर तो मुंह पर पट्टी बांधे रखता, और किसी मीटिंग में भी किसी की बात पर कोई खास प्रतिक्रिया देता नहीं, अपनी बात कहता नहीं...लेकिन जब अलग से मिल रहा है तो इतनी खुल कर बात कर रहा है ....