पहले यह तो बता कि क्या है यह उदवाड़ा, आप भी यही सोचने लगे न ...मैंने भी पहली बार जब इस जगह का नाम सुना तो मुझे भी ऐसा ही लगा था कि आखिर क्या है उदवाड़ा जैसी जगह में कि अचानक यह इतनी लाइम-लाइट में आ गई कि इस छोटे से स्टेशन पर रेलवे ने एक ऑफीसर रेस्ट हाउस भी बना दिया..और स्टेशन को एकदम चकाचक कर दिया है...मैंने न तो स्टेशन देखा है और न ही रेस्ट हाउस ...वैसे भी अगर आपने रेलगाडी से वहां जाना है तो आप को पैसेंजर गाड़ी लेनी पड़ेगी....और जिन फर्राटेदार गाडि़यों में हम सफर करते हैं, उन में बैठे हुए तो शायद बाहर झांकने पर कभी इस तरह के स्टेशन का नाम भी हम से न पढ़ा जा सके ... वैसे तो बाहर झांकने की अब फ़ुर्सत ही किसे होती है...
हां, तो चलिए आज इतवार के दिन आप को भी उदवाड़ा घुमा दिया जाए...हमें भी जब से इस के बारे में पता चला कि यह इतनी ऐतिहासिक जगह है तब से मैं भी इसे जी भर कर देख लेने के लिए बड़ा बेताब था...वलसाड़ से कार में जातें हैं तो यही कोई आधे-पौन घंटे की दूरी पर है ...बाकी स्पीड़ पर निर्भर है ..दूरी तो २०-२२ किलोमीटर की ही है ...लेेकिन रोड़ फोर-लेनिंग वाली नहीं है...
खैर, हमें किसी ने बताया कि उदवाड़ा इस लिए बहुत मशहूर है क्योंकि वहां पर पारसी समुदाय से जुड़ा बहुत पुराना फॉयर-टेंपल है....(पारसी समुदाय के लोगों के धार्मिक स्थान को फॉयर-टेंपल कहते हैं जिन में पारसी धर्म के लोग ही जा सकते हैं..)...पहली बार बंबई के मेट्रो सिनेमा के पास ही एक फॉयर-टेंपल के बाहर बरसों पहले यह नोटिस चस्पा देखा तो कुछ अजीब सा लगा था ...लेकिन फिर समझ में आ गया कि हर धर्म की अपनी मान्यताएं हैं, धारणाएं हैं...उसमें क्या अजीब है, अपने आप से कहा कि तू कुछ और देख ले, इतना कुछ है देखने के लिए इस कायनात में...तू भी उधर ही जाना चाहता है जिधर जाने से तुझे रोका जाता है...
खैर, फिर वक्त के साथ पारसी धर्म और पारसी लोगों के बारे में पता चलता रहा ..अधिकतर मुझे यह सब टाइम्स ऑफ इंडिया के पन्नों से ही पता चला ..ये कहां से आए, अपने आप में मस्त रहते हैं, देश के लिए इन्होंने कितना कुछ किया...इन में शादियां कैसे होती हैं, प्राण त्याग देने पर किसी के मृत शरीर का क्या किया जाता है ...कहीं पढ़ा था मैंने कि इनमें मृत शरीर को जलाते-दफनाते नहीं हैं, लेकिन उसे किसी विशेष जगह पर चील-कौवों के खाने के लिए रख दिया जाता है ...मैंने सुना है कि आजकल ऐसा करना बंद है ...मुझे कुछ पता नहीं, आप गूगल अंकल से ही पूछिए...मेरे पास जितनी अधकचरी जानकारी थी मैंने आप तक पहुंचा दी ...
अच्छा तो उदवाड़ा गांव में पहुंचते ही लगा मानो कितनी सदियां पीछे चले आए हों....हर तरफ़ पसरी शांति-सन्नाटा....हर शै ठहरी हुई ...शांतिप्रिय पारसी लोग दिखे ..बाबा आदम के ज़माने की के कुछ घर, कुछ बिल्डिंग ....बहुत से कुएं भी दिखे ....और ये कुएं काम में नहीं थे...लेकिन इन्हें भरा भी नहीं हुआ था, मैंने ऊपर लिखा न चील-कौवों के बारे में ...उसी संबंध में ही कुओं के बारे में भी पारसी धर्म की कुछ धारणाएं हैं...इसलिए कुओं का पारसी लोगों की ज़िंदगी में एक ख़ास स्थान है ...
हमें पता नहीं था कि गांव के बीचो-बीच एक बीच भी है ....वहां पर भी लोग इत्मीनान से बैठे गपशप में लगे हुए थे ...वहां की रेत भी अलग तरह की लगी ....आप को इस का रंग कुछ अलग सा नहीं लग रहा ..
एक पारसी महिला से बात हुई - बेहद खूबसूरत घर था उन का ..वह बाहर ही खड़ी थीं...कहने लगीं कि उस के पति ४० साल से ज़्यादा बरस नौकरी में बिताने के बाद कहने लगे कि यहीं उदवाड़ा में बस जाएंगे ...बता रही थीं कि तीन नौकर भी हैं लेकिन इतने बड़े घर का रखरखाव कर पाना बड़ी टेढ़ी खीर है...एक बेटा अमेरिका में है, दूसरा बंबई में है....हम से भी जब तक इस घर का ख्याल रखा जाएगा, यहां रहेंगे ...जब लगेगा नहीं हो पा रहा है, तो बंबई में ही जा कर रहने लगेंगे....
उस महिला की बातों से ऐसा आभास हुआ जैसे वे लोग मजबूरी में रह रहे हों....मुझे ऐसा लगा तो मैंने लिख दिया..लेकिन मैं किसी के बारे में क्या लिखूं मैं भी तो ऐसा ही हूं...सुख सुविधाएं भी चाहिए, सुकून भी चाहिए ...शरीर को कोई ज़हमत भी नहीं देनी...हा हा हा ..यह भी कैसी नौटंकी है ..😎 ...चलिए, उदवाड़ा की और बातें करते हैं...
मुझे उदवाड़ा गांव की गलियों में घूमते-फिरते लोनावला जैसी फील आ रही थी ..बस, जैसे पहाड़ों की जगह समुंदर ने ले ली हो ....उदवाडा़ में भी एक दो बहुमंजिला इमारतें दिख गईं ..यही कोई चार पांच मंज़िल वाली ..और एक शानदार धर्मशाला भी दिखी ..लोग वहां ठहरे भी हुए थे ...मुझे वहां पर ऐसा लग रहा था जैसे लोग वीकएंड रिट्रीट के लिए भी आते होंगे ..मैंं भी जब २५-३० साल पहले सिद्ध समाधि योग से जुड़ा हुआ था तो हमें भी एडवांस मेडीटेशन कोर्स के लिए चार पांच दिन के लिए रिट्रीट के लिए देहरी आश्रम ले जाते थे ..वहां पर कुदरती माहौल में रहना, अपने मोबाइल फोन चार दिन के लिए बंद कर के जमा करवा देना....लगभग व्रत रखे रखना, ऊपर से शंख-प्रश्रालन ...(यही होता है शब्द ...सुनने में तो ऐसा ही लगता था...) इस के लिए हमें एक दिन सुबह सुबह गर्म पानी पीना होता था ..उस के बाद हमें एक घंटा हाजत होती रहती थी और पूरा पेट साफ़ होने पर ही हमें बात समझ आने लगती थी ..कोई चाय नहीं, कोई सिगरेट नहीं, पान मसाला नहीं ....अच्छा लग रहा है उन दिनों को याद कर के ...पता करूंगा कि अभी भी क्या मेरे जैसे बिगड़ैल को दाखिला दे देंगे .... मैंने मेडीटेशन को वहीं से समझा ....करता हूं आज भी कभी कभी...बहुत अच्छा लगता है ...
खैर, अब मेरे ख्याल में आप को उदवाड़ा की तस्वीरें ही दिखाई जाएं ...बातें तो बहुत हो गईं ...दरअसल हम लोग देर शाम के वक्त पहुंचे थे ..थोड़ा जल्दी जाना चाहिए था...चलिए, जब हो आए, वही घड़ी मुबारक है ...
उदवाड़ा गांव में जाते ही सब से पहले यह सुंदर घर दिखाई पड़ा ...
सौ साल पुरानी एक बिल्डिंग में अब एक जनाना अस्पताल है ...पढ़िए इस बोर्ड को आप को ..
अस्पताल की खूबसूरत बिल्डिंग
गांव में अधिकतर घर जर्जर हो चुके...कोई रहता नहीं अब इन में ..
बेहतरीन सुंदर घर खस्ताहाल में शायद किसी की याद में संजो रखे होंगे...
कुएं बहुत से हैं गांव में ..और पारसी समाज में कुओं के अहमियत को मैं पहले ही लिख चुका हूं...
एक और खूबसूरत घर देखिए..
चलते चलते समंदर का किनारा ही आ गया...
समंदर की तरफ़ बढ़ने से पहले इस कुएं में भी झांक लीजिए...जब मैं दूसरी तीसरी क्लास में था तो पैदल ही हम लोग मोहल्ले के दूसरे बच्चों के साथ स्कूल जाते थे ...अमृतसर के इस्लामाबाद एरिया में रेलवे फाटक के पास एक बहुत बड़ा कुआं था...पानी से भरा हुआ...मैं अकसर उस को झांक कर ही आगे बढ़ता था ...पता नहीं मैं उसमें क्या ढूंढने जाता था 😂
दूर से देखने पर ऐसा लगा जैसे कि यह कुछ परिवारों का प्राईव्हेट बीच है ...लेकिन वही होता है जब तक किसी चीज़ के पास जा कर न देखो तो हम अपनी ही धारणाएं बना लेते हैं...यहां पर कईं जगह पर बैंच लगे हुए थे...
इसे देखिए यह कैसे कुदरती नज़ारोे के पास पहुंचते ही अपनी औकात भूल जाता है ...वैसे कहता रहता है घुटने दुखते हैं...लेकिन इन जगहों पर इसे कुछ याद नहीं रहता..😃...बच्चों को बार बार याद दिलाना पड़ता है, ध्यान से पापा!!😎
बीच पर 15-20 सीढियां बनी हुई थीं, ...उन से नीचे आने पर बीच ऐसा दिखाई दिया
बीच के किनारे पर यह दलदल समझ में नहीं आई...पानी तो बहुत दूर था...ज्वारभाटे का कुछ चक्कर होगा...अब इतना भूगोल जान लेते तो क्या बात होती!!
यह धर्मशाला तो देख कर तबीयत खुश हो गई ...लोग आकर यहां ठहरते होंगे ...मैंने कहा न यह जगह बड़ी शांत है...
जगह जगह पुराने खंडहर ....इमोशल वेल्यू शायद - पुरखे रहते होंगे जिन के यहां, अब वे अधिकतर बंबई जैसे बड़े शहरों में रहने चले गये हैं...
झांक ले यार तू भी कुएं में ....
डरावने कुएं ...सुनसान जगहों पर
यह बोर्ड पढ़ने से पता चला कि यह किसी ज़माने में किसी डाक्टर साब का विल्ला था ...
खंडहर भी बहुत कुछ ब्यां कर जाते हैं...
बढ़िया खिड़की ...
खूबसूरत घर ....मैं तो जहां भी जाता हूं मुझे वही जगह खूबसूरत लगने लगती है, मेरी तो यहीं पर बस जाने की तमन्ना हुई...
स्ट्रीट -आर्ट का नमूना भी दिख गया एक दीवार पर ...
यह पारसी समुदाय का फॉयर-टेंपल है ...अब मुझे क्या पता अंदर कैसा है, बाहर लिखा तो है पारसी लोगों के अलावा किसी दूसरे को अंदर जाने की इजाजत नहीं है ...
इन घरों की तारीफ़ के लिए इतने अल्फ़ाज़ कहां से लाऊं..
वाह..बहुत खूब...
माशाल्लाह .....
ठहरा हुआ सा गांव...सुकून से भरा हुआ...कभी हो कर आइए..लेकिन हमारी तरह देर शाम को न जाइए...सुबह जाइए, सारा दिन वहीं बिताइए...जगह और लोगों को जानिए...हमारे जैसे हाथ मत लगाने जाइए....कुछ ंघंटे तो ज़रूर टिकिए वहां ...
जिन घरों में लोग रह रहे हैं उन में से कुछ का तो बहुत अच्छे से रखरखाव किया गया है ...
बैंच भी ऐसे कि उन पर बैठने तो क्या, लेटने के लिए मन मचल उठे....
वाह रे तेरी नक्काशी ....
यह जो लकड़ी का एक दरवाज़ा सा है न यह दरअसल परदे के लिए एक स्क्रीन का काम कर रहा है, अगली तस्वीरों से आप को स्पष्ट हो जाएगा...
वह लकड़ी की सुंदर स्क्रीन जिस की मैं बात कर रहा था ...
सारे गांव में एक ही दुकान दिखी हमें ...
कोई इस से पूछे कि क्या यह तेरा विल्ला है, बिल्ले...जितनी ठसक से तू उस के गेट पर पोज़ दे रहा है!!😎
वापिस लौटने का वक्त हो गया ....लेकिन गांव से बाहर निकलते ही यह तो हरियाणा के किसी दूर-दराज के गांव की कोई सड़क लग रही थी ...😎😃
अच्छा, यहां जाना कैसे है...यह भी सुनिए...यह जगह उदवाड़ा रेल और रोड़ से वापी और वलसाड़ से अच्छी तरह से जुड़ी हुई है ...वलसाड़ से 22किलोमीटर है और वापी से तो और भी कम है ..यही कोई 30-40 मिनट की ड्राइव ...वैसे उदवाड़ा का अपना स्टेशन भी है ...लेकिन वहां पर पैसेंजर गाड़ियां ही रूकती हैं...स्टेशन एक दम बढ़िया है ..देखिए, कभी चक्कर लगे तो हो कर आइए....पारसी समुदाय का सब से पवित्र जगहों में से एक है ....
इतने खूबसूरत बहुत से खंडहर देख कर पता नहीं मेरे दिलोदिमाग में तो यही गीत बार बार कौंध रहा है ... पारसी समुदाय को उन के समाज की तरफ़ से यह हिदायत है कि आप अपनी जनसंख्या बढ़ाइए और इस के लिए इन्हें कुछ इंसेन्टिव भी देने की बात भी कहीं पढ़ी थी..लेकिन अपने यहां तो अकसर कहते ही हैं कि बच्चे तो भगवान की देन हैं😂 ...इसी के चलते पारसीयों की जनसंख्या दुनिया भर में दिनोंदिन घट रही है ...
राधा देवी भरे पूरे परिवार में जिस में उन के पति, उन का बेटा, बहू और उन से बहुत प्यार करने वाले उन के पोते-पोतियां हैं, माटुंगा में रहती हैं... खुशी खुशी दिन कट रहे थे ...फिर धीरे धीरे 70 साल की उम्र तक पहुंचते पहुंचते राधा देवी की यादाश्त कम होने लगी ...वह कुछ ज़्यादा ही भूलने लगीें...
उन का बेटा दीपक जो माटुंगा के ही एक कॉलेज में प्रोफैसर है, उन्हें लेकर एक सामान्य चिकित्सक के पास गया...डाक्टर साहब पुराने पढ़े हुए थे ...बिना कोई महंगी जांचें किए ही उन की समझ में आ गया कि यह महिला तो एल्ज़ीमर्ज़ (यादाश्त ख़त्म हो जाने की बीमारी) की तरफ़ बढ़ रही है ...डाक्टर ने दीपक को सारी बातें अच्छे से समझा दीं ...और ज़रूरी एहतियात रखने के लिए भी बता दिया कि आने वाले समय में किस तरह से उन की मां के लिए तकलीफ़े बढ़ने वाली हैं, इसलिए घर में सब को बता दें कि इन्हें घर से बाहर अकेले न निकलने दें...और इन के खाने-पीने का भी ख़ुद ही ख्याल रखना होगा...इन्होंने कब खाया है और क्या खाया है?
धीरे धीरे दीपक को समझ में आने लगा कि मां का तो घर के बाहर कहीं अकेले जाना भी सुरक्षित नहीं है ...दीपक अपनी बिल्डिंग के पहले माले पर रहता था, एक दिन मां नीचे बिल्डींग के बागीचे में दीपक के बेटे के साथ गई ...बेटे तो चंद मिनटों में वापिस लौट आया लेकिन मां बहुत देर तक जब न आई तो दीपक भाग कर नीचे गया और वहां गुमसुम बैठी मां को अपने साथ ऊपर ले आया...उस दिन के बाद उन्होंने मां को कभी भी अकेले कहीं जाने भी नहीं दिया और घर में भी उन्हें कभी अकेले नहीं छोड़ा...
जैसे तैसे ईश्वरीय इच्छा के समक्ष नतमस्तक हो कर पूरा परिवार खुशी से रह रहा था। दीपक की बहन ने नया घर लिया था दहिसर में ...उसने कहा कि गृह-प्रवेश के समारोह में सभी को आना है ....दीपक का पूरा परिवार और मां सब बड़ी चाव से गृह-प्रवेश वाले दिन बहन के घर बधाई देने पहुंच गए...मां को तो कुछ समझता नहीं था, वह तो बस दीपक को ही पहचानती थी और दीपक ही से खाना खाती थी..। दीपक को कईं बार लगता कि हम कहावतें तो सुन लेते हैं कि बुज़ुर्ग लोग बिल्कुल बच्चों के जैसे हो जाते हैं ...और अब वह इस बात को अपनी ज़िंदगी में अनुभव कर रहा था ...वह कईं बार कहता कि अब उसे अपनी मां बिल्कुल प्यारी नन्हीं मुन्नी बेटी जैसी ही लगती है ..और यह कहता कहता वह अकसर भावुक हो जाया करता....
हां, तो उस दिन बहन के घर में बहुत से रिश्तेदार भी आए हुए थे ..बहन ने जो नया घर लिया था वह आठवीं मंज़िल पर था .. सब लोग मिलने-जुलने में मसरूफ़ थे, कईं रिश्तेदार तो कितने लंबे अरसे बाद दिख रहे थे, सारे वहीं थे, इसलिए मां की किसी को ख़ास चिंता करने की कोई ज़रूरत महसूस न हुई क्योंकि सभी घर के लोग ही तो थे। अचानक दीपक के बेटे ने पूछा कि दादी, कहां है। बस, दीपक के तो चेहरे का रंग उड़ गया...सारी जगह खोज हुई, आठवीं मंज़िल के दूसरे फ्लैटों में भी देख लिया...टैरेस पर भी हो आए...दीपक बदहवास हुआ पड़ा लिफ्टवाले से भी कईं बार पूछ बैठा कि मां नीचे तो नहीं गई...लिफ्ट वाले ने कहा कि मैं तो साहब अभी आया हूं ....पता नहीं...।
दीपक का पूरा परिवार और बहन का पूरा कुनबा मां की तलाश में लग गए...लेकिन मां कहीं हो तो पता चले....नीचे जा कर सोसायटी का बागीचा, उस के साथ सटे हुए मंदिर में भी देख आए..लेकिन कहीं कोई अता-पता नहीं...घर के आस पास तो हर जगह देख लिया...दीपक का रेलवे में भी रसूख था, इसलिए किसी को कहलवाने से वह स्टेशन पर जाकर सीसीटीवी कैमरों की फुटेज भी देखने लगा ..लेकिन कुछ सुराग नहीं लग रहा था ...सब को लगने लगा कि मां को क्या धरती निगल गई....देखते देखते शाम हो गई...दूसरे स्टेशनों के सीसीटीवी कैमरे के फुटेज से भी कुछ पता नहीं चला....सुबह से शाम हो गई ....सारे परिवार का दिल डूबता जा रहा था ...मां को सिर्फ दीपक के पिता का नाम और माटुंगा याद था, लेकिन इससे होता ही क्या है, ऐसे तो तूड़ी (चारा) के बड़े ढेर में सूईं ढूंढने वाली बात थी, जिस शहर में लोग आंखों से काजल चुरा लेते हैं, ऐसे में मां आठ घंटे से गायब है ..गले में सोने की चैन और हाथों में सोने की चार चूड़ीयां पहन रखी थीं मां ने ... सब मना कर रहे थे कि अब मां की जान की हिफ़ाज़त के लिए यह सब पहनना मुनासिब नहीं ..लेकिन दीपक और उस की बहन जानते थे कि मां को सोने के गहने पहनना कितना पसंद है..इसलिए वह हमेशा गहने तो पहने ही रहती ..वैसे भी दीपक को लगता कि मां को कहीं भी अकेले तो हम भेजते नहीं, ऐसे में कोई ख़तरा नहीं...
दीपक तो बदहवास सा दहिसर की सड़कों की खाक छान रहा था ...बहन अपने पति के साथ दहिसर स्टेशन की जीआरपी चौकी पर रिपोर्ट लिखवाने चली गई...वहां बैठा दारोगा बार बार एक ही बात पूछे जा रहा था कि ऐसा कैसे हो सकता है कि इतनी बुज़ुर्ग औरत अपने आप आठवीं मंज़िल से नीचे भी आ गई और फिर यहां स्टेशन पर भी आ गई ....बहन ने यही कहा कि स्टेशन का तो हमें नहीं पता, हम लोग आसपास तो सब जगह देख ही चुके हैं ...इसीलिए हम अब हार कर स्टेशन पर आये हैं ....खैर, इंस्पैक्टर ने पूछना शुरू किया कि मां ने पहना क्या था, साड़ी का रंग क्या था, मां का ढील-ढौल कैसा है, कद-काठी कैसी है...पैरों में क्या पहन रखा था.... बहन सब कुछ बता रही थी और वह लिख रहा था .....तभी अचानक क्या हुआ? ...जैसे ही उसने अपना सिर ऊपर उठाया और उस के कमरे के दरवाज़े की तरफ़ उस की नज़र गईं तो वह एक लम्हे के लिए ठिठक सा गया .....अरे!!!!!......और उसने दीपक की बहन की कहा कि पीछे मुड़ के वह देख ले, उस की मां लौट आई है ...
बहन ने पीछे मुड़ कर देखा, एक सिपाही उस का हाथ पकड़ कर उसे इंस्पैक्टर की मेज़ की तरफ़ लेकर आ रहा था ....बेटी मां को गले लगा कर बिलख बिलख कर रोने लगी... लेकिन बेचारी मां को तो कुछ समझ हो, कुछ याद हो तो वह कुछ कहे ...वह वैसे ही गुमसुम सी खड़ी रही, फिर इंस्पैक्टर ने बैठा कर चाय-नाश्ता करवाया और खुशी खुशी विदा किया ....
इस के बाद परिवार में फिर से खुशियां लौट आईं ....सब राजी खुशी रहने लगे ...मां को और भी ख़्याल रखा जाने लगा ..
एक बरस बाद ....
दीपक की बहन और उसकी बेटी स्वाति दहिसर के एक सिनेमा घर में फिल्म देखने गई हुई थीं...सिनेमा ख़त्म होने के बाद जब वे खड़े हुए तो कुछ सीटें छोड़ कर स्वाति की नज़र एक मोबाइल फोन पर पड़ी...उसने उसे उठा लिया ... और मां से कहने लगी कि इसे गेट-कीपर को दे देते हैं....मां के मन में पता नहीं क्या ख्याल आया कि उसने कहा कि नहीं, अपने साथ रख ले, जिस का होगा, उस का फोन आएगा और आकर ले जाएगा....
और वे मोबाइल को लेकर घर लौट आए...तुरंत ही उस फोन पर घंटी बजी...स्वाति ने उठाया ...दूसरी तरफ़ से बात करने वाले इंसान ने अपने खोए हुए फोन के बारे में और कहां पर खोया सब कुछ बताया ....तो स्वाति ने कहा कि हां, वह हमारे पास ही है, आप कभी भी आ कर ले जाइएगा....और उसने अपना पता भी उस कॉल करने वाले को बता दिया। अगले दिन सुबह सुबह जैसे ही एक युवक अपना मोबाइल लेने आया तो दीपक की बहन ने उसे पहचान लिया ...और कहने लगी कि अरे, आप तो वही हैं जो दहिसर चौकी में काम करते हैं...उस युवक ने पूछा कि आपने मुझे पहचान कैसे लिया..
दीपक की बहन ने कहा ...कैसे न पहचानूंगी उस फरिश्ते को जिस की वजह से एक बरस पहले मुझे मेरी खोई हुई मां मिल गई थी, आप ही वह युवक थे जो मां का हाथ पकड़ कर मेरे हाथ में थमा गये थे ...मेरा तो सारा परिवार आप के एहसान के नीचे दबा हुआ है, आप का कर्ज़ मेरे ऊपर उधार है बहुत....और यह कहते कहते उसने मोबाइल उस युवक को लौटा दिया..तब तक स्वाति उस नेक इंसान के लिए चाय-नाश्ता भी लेकर आ चुकी थी...
चाय पीते उस युवक ने इतना तो कह ही दिया ... ताई, आप जिस कर्ज़ की बात कर रही हैं, वह तो आपने चुका दिया मुझे यह मेरा फोन लौटा कर..।
दीपक की बहन से रहा नहीं गया....आँखें भरी हुई, गला रूंधा हुआ ...और कहने लगी...बेटा, जो तुम्हारा कर्ज़ है वह तो मैं कभी ज़िंदगी भर न चुकता कर पाऊंगी, वह तो बहुत भारी कर्ज़ है, इस फोन का क्या है, अगर, बेटा, तुम्हें एक दिन और न मिलता तो तुम दूसरा कहीं से भी राह चलते चलते खरीद लेते ...लेकिन अगर उस दिन तुम ने अपनी ड्यूटी अच्छे से न की होती, एक बदहवास बुज़ुर्ग औरत को प्लेटफार्म पर बैठे हुए अगर तुम्हारी पैनी निगाहें न देख पातीं तो मैं दूसरी मां को कहां से लाती!!
बस, इस के आगे कोई कुछ बोल न सका....सब की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी ....उस युवक के प्रति कृतज्ञता प्रगट करने वाले आंखों से निकलते मोती ....और वह ताई के पांव छू कर चल दिया ....और ताई इसी कर्ज़ के बारे में सोचने लगी जो कभी चुक न पाएगा। कुछ कर्ज़ ऐसे ही रहने ज़रूरी भी होते हैं शायद.....😢
मैंने पिछले दो कड़ियों में दोस्तो आप तक लता मंगेश्कर जी के अंतिम संस्कार का आंखो देखा हाल पहुंचाने की एक मामूली सी कोशिश की थी, अभी उस महान हस्ती के बारे में चंद अल्फ़ाज़ और लिख कर अपनी बात ख़त्म करने लगा हूं... पहली कडी और दूसरी कड़ी लिंक यह रहा ...
लता दीदी आप की याद में ....कल सात रास्ते पर भी आप को लोग याद कर रहे थे ...
लता जी के जाने के बाद ख्याल आ रहा कि मैं उन्हें दीदी किस ज़ाविए से कह रहा हूं...वह तो मेरी मां की हमउम्र थीं तो उस तरह से मेरी तो मौसी ही लगी ...है कि नहीं....सारे हिंदोस्तान की वे कुछ न कुछ लगती हैं और सूरज चांद के अस्तित्व तक लगती रहेंगी...अधिकतर की दीदी, बहुत से लोगों की बहन और मेरे जैसे कुछ लोग जिन्होंने लिखते लिखते उन से मौसी का रिश्ता ही बना लिया...जो भी हो, वे बहुत अच्छी थीं और मुझे तो टीवी या यू-ट्यूब पर उन की बातें सुनना बहुत ज़्यादा भाता था...बिल्कुल सहजता से कोमल बातें करती तो ऐसा लगता कि उन के मुखारबिंद से फूल झड़ रहे होते ...उन की बच्चों जैसी बिंदास हंसी तो मुझे और भी फ्लैट कर जाती ...
आज से तीस चालीस पहले हम लोग कभी उन के बारे में बात करते तो कोई यह भी कह देता कि लता जी के गले का करोड़ों रूपये का बीमा हुआ है ...कोई कहता कि लता जी जब गाती हैं तो उन की आवाज़ में इतनी खनक है कि उन्हें किसी भी संगीत के वाद्य-यंत्र की ज़रूरत ही कहां है....हां, तो मैं बात कर रहा था किस तरह से लोगों ने उन के साथ अपनेपन के रिश्ते कायम कर रखे थे ...मुझे उन से मिलने की बहुत तमन्ना थी ....लेकिन ज़रूरत नहीं कि सभी ख्वाहिशें पूरी भी हों, कुछ अधूरी भी अगर रह जाएं तो भी बंदे का दिमाग ठिकाने पर रहता है ...
दो दिन पहले मेरे पास एक आफीसर आए तो लता की बात छिड़ गई ..मैंने कहा कि लता दीदी ने तीन पीड़ीयों का मन बहलाए रखा ..वह कहने लगा तीन नहीं चार, डा साहब. वह आफीसर यही कोई 35-40 साल का था, उस ने मुझे अच्छे से चार पीड़ीयां गिना भी दीं...अपने नाना जी से शुरू कर के ...लेकिन पता नहीं मेरी मोटी बुद्धि में बात देर से पड़ती है ...मैं अभी लिखते वक्त उन चारों का हिसाब लगा नहीं पा रहा हूं ..अगली बात मिलने पर पूछूंगा..मैं कौन सा ऐसे ही छोड़ देने वाला हूं ...😎..वैसे उन्होंने ने बताया कि उन की मां तो लता जी के यूं चले जाने पर खूब रोती रहीं। अनुपम खेर की माता जी की एक वीडियो देख रहा था ...वह भी बेहद भावुक हो रही थीं...उन्होंने भी यही कहा कि लता जैसी न कोई थी और न ही कोई फिर से पैदा ही होगी...
लता जी के अन्तयेष्ठि के वक्त दूर दूर से लोग पहुंचे हुए थे ...सब उन से बेइंतहा प्यार करने वाले ...हर तरफ़ से आवाज़े आ रही थीं...नारे लग रहे थे ...लता दीदी अमर रहें ...लता दीदी अमर रहें...इतना प्यार बटोर कर ले गई हिंदोस्तान की यह बेटी...पास ही एक युवक खड़ा किसी से बात कर रहा था कि उस के पास तो कुछ पैसे भी नहीं थे, बस शिवाजी पार्क पहुंचने की तमन्ना थी... बस, जैसे तैसे भायंदर से यहां तक पहुंच गया...बता रहा था कि लता जी का अंतिम स्ंस्कार आज ही कर दिया ...अगर कल होता तो बाहर गांव से भी बहुत से लोग यहां पहुंच पाते ...खैर, ये तो पारिवारिक फ़ैसले होते हैं ..
पास ही एक दूसरा बंदा खड़ा था दूधे नाम से ...उसने बताया कि उस की घाटकोपर में फुटपाथ पर कपड़ों की दुकान है ...वह तो अढ़ाई बजे ही वहां पर पहुंच गया था ..मैंने पूछा इतनी जल्दी आ कर क्या किया...उसने बहुत सहजता से कहा कि मैं आकर यही देखता रहा कि कहां से अंदर जा पाऊंगा ..इतनी भीड़ में अंदर घुस भी पाऊंगा कि नहीं....सभी गेट देखता रहा और आखिर में बता रहा था कि इतना नज़दीक से लता दीदी के दर्शन हो गए...मेरी तमन्ना पूरी हो गई। मैं मन ही मन सोच रहा था कि यही तमन्ना तो हम भी लेकर आए थे जिसे ईश्वर ने पूरा कर दिया...
कुछ किन्नर भी अपने सहयोगियों के साथ वहां पर दिखे ...सब के भाव इस महान् हस्ती के साथ कुछ इस तरह से जुड़े दिखे कि मैं ब्यां नहीं कर पा रहूा हूं ...किन्नरों ने भी लता जी के गाए गीतों पर खूब नाच-कूद की ...इस वक्त यहां पहुंच कर यह उन का उस कर्ज को हल्का करने का इरादा रहा होगा ....लेकिन यह कर्ज कोई चुका न पाएगा....लता जी तो हम सब को इस कर्ज के नीचे अच्छे से दबा कर चली गईं .... मेरे पास खड़े एक युवक ने पास ही खड़े एक दूसरे युवक की तरफ़ इशारा किया कि देखिए, उस के पिता जी बीमार हैं, खटिया पर हैं ...यहां आ नहीं पाए ...तो यह यहां से उन्हें चिता के दर्शन करवा रहा है और साथ में कह रहा है ....साथ में क्या कह रहा है, वह मेरी समझ में नहीं आया...मैंने उसी मराठी मानस से पूछा कि क्या कह रहा है ...उसने मुझे हिंदी में बताया कि वह अपने पिता जी को बता रहा था कि सब खत्म हो गया...
एक बात और बताऊं ...लता जी के अंतिम संस्कार के वक्त वहां पर आए सभी लोग अपने ही लग रहे थे ...ऐसे लग रहा था कि अपने घर का ही कोई सदस्य रूख्सत हो गया हो जैसे ...तभी तो चिता पूरी जलने तक किसी का बाहर जाने का मन ही नहीं कर रहा था ..वहीं खड़े खड़े इस देवी की जलती चिता को निहार रहे थे चुपचाप...जब मैं वीडियो बना रहा था तो एक युवक मेरे पास आया कि मैं मोबाइल नहीं ला पाया, अगर आप मेरे को यह वीडियो भेज देंगे तो बड़ी मेहरबानी होगी ..मैंने कहा कि मेहरबानी कैसी, उसी वक्त कोशिश की उस के नंबर पर भेजने की ..लेेकिन नहीं हो पाया...घर आने पर भूल गया... अगले दिन सुबह होते ही उसे तीन वीडियो भेजे और साथ में लता जी पर लिखे अपने ब्लॉग का लिंक ...वह बहुत खुश हुआ...
इस दिव्यांग के जज़्बे को सलाम...🙏
हां, जब मैंने लौटते वक्त बैसाखियों के सहारे चल रहे एक दिव्यांग शख्स को बाहर जाते देखा तो मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि कितना प्यार करते होंगे लोग इस देवी से कि इतनी मेहनत कर के यह दिव्यांग भी यहां पर अपने श्रद्धांजलि देने पहुंच गया ...पता नहीं कितनी दूर से आया होगा ...और इतने बड़े शिवाजी पार्क में भी तो इसे इतना चलना पड़ा होगा...मैं सोच रहा था कि इस वक्त चुस्त-दुरुस्त लोग नेटफ्लिक्स के हवाले हुए पड़े होंगे और यह बंदा इतनी मेहनत-मशक्कत कर के ........ऐसे लोगों के जज़्बे को भी मेरा सलाम।
गुस्ताख़ी माफ, वीडियो बनाने के लिए ..लेकिन लोगों को आज कर वीडियो की बात ही समझ में आती है, क्या करें...
और इस देवी को स्वर्ग की तरफ़ प्रस्थान इसी तरह से निहारते हुए हम वहां से लौट आए...Rest in peace, Lata Didi, you have done a lot for humanity! Now it is time to take some eternal rest!
मुझे यह भी लग रहा था कि इतना समय हो गया मुंबई में और शिवाजी पार्क नहीं आए कभी ...यह भी क्या बात हुई...बस, जब मैं लंबी दूरी के लिए साईकिल चलाने निकलता था पिछले बरस तो बाहर ही से देख लेते थे ...या खबरों में पढ़ लेते थे इस की ऐतिहासिकता के बारे में ...और यह भी कि सचिन तेंदुलकर भी बचपन में यहीं प्रेक्टिस किया करते थे ...लता जी भी क्रिकेट की जबरदस्त फेन थीं..उस दिन एक वीडियो देख रहा था जिसमें वह बता रही हैं कि पहले जब टेस्ट-मैच चार चार दिन चलते थे तो कईं बार मैच देखने के लिए वह आठ दिन तक घर ही में रहती थीं ..उन दिनों कोई रिकार्डिंग भी नहीं करती थीं...
पार्क के बाहर लगी हुई स्व. मीनाताई ठाकरे की प्रतिमा
लता जी, अब हम भी इन फूलों में, इन की खुशबू में, खुली खुशनुमा फ़िज़ाओं में, कुदरती नज़ारों में, हंसते चेहरों में आप को ढूंढ लिया करेंगे, देख भी लिया करेंगे ...आप का गाया यह बेहद सुंदर गीत सुन लिया करेंगे .🙏.. वाह...गले में मां सरस्वती ने वास भी ऐसा किया कि करोड़ों अरबों लोगों में आप की आवाज़ का जादू बरसों-बरसों तक चलता ही चला गया ...और यह चलता ही रहेगा...हमने लोरी सुनने की उम्र में मां की लोरीयों के साथ साथ आप के वही गीत सुने, बड़े होने पर शोखी भरे गीत..आगे चल कर हमें जीवन की सीख, अच्छे-बुरे रास्ते की पहचान दिखाने वाले गीत, फिर और आगे चले तो वे गीत सुनने लगें जिन में ज़िंदगी का मक़सद पता चलता है ...अभी इन गीतों को समझ कर आत्मसात करने की कोशिश ही कर रहे थे कि आप तो चली ही गईं....
मैं आज सुबह आप को बता रहा था कि मैं लता जी के अन्तयेष्ठि स्थल - दादर के शिवाजी पार्क तक पहुंच गया...(इस लिंक पर आप पूरी बात देख-पढ़ सकते हैं..)
जब मुझे किसी से पता चला कि शिवाजी पार्क के अंदर भी जा सकते हैं ..लता जी को श्रद्धांजलि देने तो मैं भी एक लाइन में लग तो गया ...अंदर घुसने से पहले सभी लोगों की अच्छे से तलाशी और मेटल-डिटेक्टर से जांच हो रही थी ...मैं भी लाइन में लग तो गया ..बाप रे बाप....इतनी लंबी लाइन ...गेट से बाहर भी पता नहीं कितनी दूर तक फैली हुई...और अंदर भी बहुत लंबी लाइन ...सिर के बाल सारे पके हों तो, उस का यह फायदा यह भी होता है कि आप को आप ही की उम्र के आसपास के अनजान बालों को लाल-काला रंग हुए लोग भी चाचा कहने लगते हैं...मैं गेट के बाहर लगी लाइन के आखिर में जा ही रहा था कि किसी तरफ़ से आवाज़ आई कि चाचा इधर ही लग जाओ...मैं वहीं खड़ा हो गया...मैंने सोचा कि अब चाचा बाकी काम अपने आप कर लेगा ...क्योंकि हमारा कल्चर ऐसा है कि हम बूढ़े लोगों को ज़्यादा टोकते नहीं हैं....मैं कुछ लोगों के आगे तो ऐसे ही निकल गया ...इतने में पता नहीं लाइन में क्या भगदड़ हुई ...लोग दो लाइनें बनाने लगे और मैं फिर आगे चलने लगा ..और इस तरह मुश्किल से पांच दस मिनट में लता जी के पार्थिव शरीर तक पहुंच गया ....सादर नमन किया ...बड़ा ग़मग़ीन माहौल था वहां...पहले तो लता जी को राजकीय सम्मान दिया गया... बैंड से धुनें बज रही थीं...मंत्रोच्चारण चल रहा था ...कुछ समय बाद ही चिता को आग दे दी गई ...
इस ताई को सुनना ही बहुत मार्मिक था...ज़ी टीवी की एक ऐंकर से इन की गुफ्तगू चल रही थी...बार बार भावुक हो रही थीं..इन्हें देख कर आसपास खड़े हम सब लोग भी भावुक हो गए...कल मुझे यह अहसास हो रहा था कि जहां आप रहते हैं न, वहां की भाषा भी सीख लेनी चाहिए...ज़्यादा दिमाग नहीं लगाना चाहिए, मुझे भी अपने ऊपर गुस्सा आ रहा था कि इतने बरस हो गए यहां रहते हुए लेकिन अभी तक मराठी नहीं सीखी....वैसे मैं गुज़ारे लायक बात तो समझ ही लेता हूं और जो नहीं समझ पाता उस बात को किसी की आंखों में पढ़ लेता हूं ...
ज़ी वी वाली एंकर गईं तो दूसरे किसी चैनल का ऐंकर आ गया...लेकिन ताई की अब फिर से वह बात दोहराने की इच्छा न थी, वह अपने साथ आई महिला को इशारा करती है कि अब फिर से मेरे से नहीं होगा, चल चलते हैं...इस ताई की यह बात सच में मेरे दिल को छू गई...मुझे मराठी ज़ुबान बहुत अच्छी लगती है, ख़ास कौर जो गावठी मराठी गांव के लोग बोलते हैं...
लोगों ने अपने अपने ढंग से लता दीदी को श्रद्धांजलि दी
संसार की हर शै का इतना ही फ़साना है ...इक धुंद में आना है, इक धुंद में जाना है 😂🙏
परसों शनिवार बाद दोपहर मैं कैंप्स कॉर्नर से हाजी अली की तरफ़ जा रहा था...कैंप्स कॉर्नर से पैडर रोड़ लेने लेने की बजाए मैंने बहुत अरसे के बाद वार्डन रोड वाली रोड ली...ब्रीच कैंड़ी अस्पताल के गेट के बाहर 40-50 लोग खड़े थे ...इन्हें देख कर हैरानी हुई क्योंकि इस अस्पताल के बाहर कभी कोई भीड़ इस तरह से जुटी नहीं दिखी...आगे आने पर सोचा कि ये शायद टैक्सी-ऑटो वाले होंगे ...लेकिन ख़्याल लता दीदी का भी आया क्योंकि वह भी तो यहीं पर भर्ती हो कर कोरोना से जंग लड़ रही हैं ...फिर यही लगा कि उन की हालत में तो लगातार सुधार हो रहा है ...मन किया कि वहां रुक कर पता करना चाहिए था...इसी उधेड़बुन में ही हाजी अली चौक आ गया...
कल ऐतवार सुबह जैसे ही उठा तो फोन उठाने ही पता चल गया कि लता दीदी की सेहत खराब है और वे वेंटीलेटर पर चल रही हैं, फ़िक्र हुई ...कुछ ही वक्त बाद वाट्सएप से खबर मिली की लता दीदी तो चल बसीं...देश के करोड़ों लोगों की तरह हमें भी बहुत दुख हुआ ...एक बार तो इच्छा हुई कि उसी वक्त पैडर रोड पहुंच जाएं ...उन के दर्शन कर के आएँ....लेकिन तब तक सूचना भी मिल गई कि उन का पार्थिव शरीर जनता के दर्शन हेतु शिवा जी पार्क में रखा जाएगा और शाम 6.30 बजे उन का अंतिम संस्कार कर दिया जाएगा..
सुबह ही से लता जी के गाए हुए गीत ही रेडियो के विभिन्न चैनलों पर बजते रहे ...और वे अपने साथ यादों के सैलाब लेकर आते रहे ...खैर, पैडर रोड जाऊं या सीधा शिवाजी पार्क यह सोचते सोचते ही दोपहर हो गई ...तब तक पहले पैडर रोड जाने वाली ऑप्शन तो खत्म हो गई ...शाम साढ़े पांच पौने छः बजे के करीब मैं शिवा जी पार्क के लिए निकला...साढ़े छः बजे पहुंच भी गया वहां पर ....लेकिन पता ही नहीं लग रहा था कि अंदर जाने का रास्ता कहां से है ...पुलिस का पूरा कड़क बंदोबस्त था ...किसी ने कहा कि व्ही.आई.पी गेट से ही अंदर जा सकते हैं...वैसे तो मैं किसी भी तरह के VIP कल्चर का घोर विरोधी हूं लेकिन उस गेट की तरफ़ निकल गया ...वैसे तो किसी को भी उस वक्त अंदर नहीं ले रहे थे, सभी लोग बाहर ही खड़े थे ..मैं भी उधर ही खड़ा हो कर उन्हीं लोगों के बीच इंतज़ार करने लगा...यह पता नहीं किस चीज़ का ...वहां से शिवा जी पार्क के अंदर का मंज़र कुछ भी तो नहीं दिख रहा था..
20-30 मिनट हो गये तो कोई ऐसे ही किसी से बात कर रहा था कि किसी दूसरे गेट से लोग अंदर जा रहे हैं...मैं भी उधर तरफ़ निकल गया ..लेकिन मेरे पास अपना आइडेंटिटी कार्ड भी न था, वैसे तो वहां पूछ भी नहीं रहे थे...अंदर जाने से पहले मेटल-डिटेक्टर से सब की जांच हो रही थी...मैं भी कुछ वक्त लाइन में इंतज़ार करने के बाद लता दीदी के पार्थिव शरीर के पास पहुंच गया ...उस वक्त उन्हें राजकीय सम्मान दिया जा रहा था ...
सुबह से ही मेरी इच्छा थी कि स्वर कोकिला लता जी को ऋदांजलि देने तो कैसे भी जाना ही चाहिए ...जिस देवी के गीत सुनते सुनते हम लोग बूढ़े हो गए ...जिन को सुनते सुनते हमारे मां-बाप वाली पीढ़ी तो इस जहां से कूच ही कर गई, और अब तीसरी पीढ़ी उन को सुनते सुनते हैरान होती है कि जब इन का गाया कोई गीत सुनते हैं तो ऐसे लगता है कि उन्हें किसी म्यूज़िक की ज़रूरत ही नहीं है, इतना सुरीला कोयल जैसा स्वर ..गले में सरस्वती मां ने वास ही कर लिया हो जैसे...
डूबते सूरज के साथ आज सुर का एक सूरज भी डूबने वाला था...लेकिन वह अपने गीतों की वजह से अमर हो चुका है ...
दादर स्टेशन के बाहर पहले जैसे भीड़-भड़क्का
और खरीदारी करने वालों का हुजूम भी वैसा ही ...
दादर(पश्चिम) से जाते वक्त रास्ते में यह प्रतिमा भी दिखाई दी ...🙏
अच्छा, एक बात और भी शेयर करनी है ...जब मैं दादर की तरफ जा रहा था तो रास्ते में देख रहा था कि हर तरफ़ काम पहले की ही तरह चल रहा है ...लोग बीच पर वैसे ही इक्ट्ठे हुए हैं, अड्डेबाजी वैसे ही चल रही है, दादर स्टेशन के बाहर पहले जैसे भीड़-भड़क्का है ..सब कुछ पहले जैसा चल रहा है ...इतनी बड़ी हस्ती आज हमारे बीच में से उठ गई जिस का हमारे ज़िंदा रहने को ज़िंदगी बनाने में इतना बड़ा योगदान है ...
यह बात इस बात का रिमांइडर भी है कि जाना तो सब ने है ...कोई आगे कोई पीछे...हम हैं कि दुनियावी चीज़ों के चक्कर में अपना दिमाग खराब किए रहते हैं...किसी से ढंग से पेश नहीं आते, हमारा व्यवहार कईं बार ऐसा होता है कि अगर किसी को कोई काम न हो हम से तो कोई हम से बात ही न करना चाहे, चेहरों पर भद्दी त्योरियां चढ़ी हुई हर वक्त, लोगों के साथ गेम खेलते हैं, किसी को नीचा किसी को ऊंचा दिखाने के चक्कर में अपनी ज़िंदगी रोल देते हैं, चापलूसी, चुगलखोरी, ईर्ष्या, नफ़रत, घमंड, अहम्....अभी तो इतना कुछ ही याद आ रहा है, बाकी का फिर कभी याद कर के लिख लेंगे ...इतनी भी क्या जल्दी, जब जीना है बरसों... ऐसे मौके पर हाज़िर होकर इंसान को अपने अंदर भी झांकने को एक मौका मिलता है कि अगर हश्र सभी का यही है तो क्या जो यह इतने हम रोज़ खेल खेलते हैं उन से क्या हासिल!!
ऐसे वक्त पर हमें अपने नश्वर होने का आभास होता है ..इतने इतने नामचीन, महान हस्तियां हमारे बीच में से उठ गईं ...जाना सब को है...लेकिन वह सफ़र कैसा है, यही बात अहम् है...क्या हम खुश रह पाए और दूसरों को खुशियां बांट पाए....लता जी ने तो ज़िंदगी भर खुशियां ही बांटी ...मेरी मां की उम्र थीं लता जी ...मुझे पक्के से याद है जब लता जी के 75 साल के होने के जश्न की खबर आ रही थीं तो मेरी मां ने उन्हें देख कर कहा था ...देख, प्रवीण, लता मंगेश्कर अभी भी कितनी अच्छी लगती हैं....इतनी उम्र की होने के बाद भी। मैंने कहा था कि बीजी, आप भी बहुत अच्छी लगती हैं ...और फिर हम हंसने लगे थे ..मां चार साल पहले छोड़ गई थीं, लता जी भी कल चली गईं ...
जब इस देवी की चिता चल रही थी तो यह गीत बज रहा था ...बेहद भावुक
अब तो ऐसा लगता है त्योहार फिल्मी गीतों तक ही सिमट कर रह गये हों जैसे ...इस बार ही क्या, हर बार ही ऐसा ही होने लगा है ...13 जनवरी को लोहड़ी थी, उत्तर भारत का ख़ास त्योहार ..उस दिन भी किसी के वाट्सएप मैसेज आ गये ...वही ...सुंदर मुंदरीए...तेरा कौन ग्वाचा...., एक गीत जो बच्चे समूह में गाते हैं किसी के घर में जाकर और लोहड़ी लेकर आते हैं ...लोहड़ी मिलने का मतलब आज से 40 साल पहले ही खाने की अच्छी अच्छी चीज़ें मिलना खत्म हो गया था..बच्चे भी मूंगफली, रेवड़ी, भुना हुआ मक्का मिलने पर नाक मुंह बनाने लगे थे ...बस, तब से ही लोहड़ी का मतलब पैेसे देना-लेना हो गया...वक्त वक्त की बात है, वे भी क्या करें..हर कोई अपनी जगह पर ठीक है ...
मुझे याद है हम लोग स्कूल में भी थे तो भी लोहड़ी के दिन अकसर छुट्टी तो नहीं होती थी ..लेकिन मास्टर साहब मूंगफली-रेवड़ीयां मंगवा लेते थे जिन्हें हम सब मिल कर खाते थे...फिर कालेज में भी यही होता था ...बड़े हो गये थे तो बड़ी बड़ी लकड़ियों को आग भी लगाई जाती थी ...जिसे लोहड़ी जलाना कहते हैं...साथ में वही गाना बजाना और उछल कूद नाच चलता था पंजाबी गीतों पर ...उसी दौर का एक गीत मुझे बडे अच्छे से याद आ रहा है, अभी ढूंढता हूं और आप तक पहुंचाता हूं ...😄
इस में एक मुटियार अपने चाहने वाले गभरू को कह रही है कि मेरे पीछे आते वक्त मेरा लौंग ढूंढते हुए आना...जो गुम हो गया है ..(महिलाएं नाक में जो छोटा सा चमकने वाला नोज़-पिन पहनती हैं उसे पंजाबी में लौंग कहते हैं...😎)
घरों में भी वैसे ही लकड़ीयों और उपलों का ढेर लगा कर उन में आग लगाई जाती, मूंगफली रेवड़ी उस आग में भी डाली जातीं ...और बस हो गई पूजा...फिर मोहल्ले में जिन घरों में नई बहू आई होती या जिस घर में किसी शिशु की किलकारीयां पिछली लोहड़ी के बाद गूंजी होतीं...उन के घर विशेष रूप से यह लोहड़ी का जश्न मनाया जाता ...प्रीति भोज भी होता..और वही खाना-बजाना...लिखते लिखते मुझे लोहड़ी के मौसम की एक खास सौगात याद आ गई ...वह अमृतसर में कईं दिनों तक बिकती रहती है सर्दी के मौसम में ...खोये से बनी हुई बेहतरीन मिठाई उस में किशमिश पड़ी रहती थी ...हमें भी अच्छी लगती थी लेकिन मेरी बड़ी बहन तो भुग्गे की दीवानी हैं ...इसलिए मेरे पिता जी उन दिनों खास तौर पर भुग्गे को लाना कभी न भूलते ....यादें भी क्या हैं ..कहां से कहां ले जाती हैं....
हां जी, अगर लोहडी का पर्व मुकम्मल हो गया हो तो आगे बसंत की तरफ़ चलें...उसे भी मना कर छुट्टी करें ....
बचपन में बसंत ऋतु से जुड़ी यादें भी कम हैं क्या, पीले कपड़े पहनो जहां तक हो सके, पीले रंग के मीठे चाव खाते थे ...पतंगबाजी देखते थे क्योंकि मुझे मेरी तमाम कोशिशों के बाद पतंग उड़ाना आया ही नहीं, मैं बताने लगूंगा तो गिनते गिनते थक जाएंगे...मैं बहुत से मामलों में बहुत फिसड्डी रहा हूं और आज भी हूं ...यह तो वही बात है कि पढ़ने में बहुत अच्छा रहा ...इसलिए नौकरी मिल गई ...बहुत सी बातें ढंक गई उस से ..ताश मुझे नहीं आती पत्ते पर पत्ते वाली गेम के सिवाए....देखिए, अब मैं गिनाने लगा तो मुझे कुछ भी लिखने के लिए समझ ही नहीं आ रहा .... समझ गए न आप!!
कोई कोई बात जैसे हम लोगों की यादें के शिलालेख पर खुद ही जाती हैं ...लोहड़ी पर कड़ाके की ठंड होती थी, ठिठुरते ठिठुरते जब उस अलाव के आस पास बैठे होते तो मां यह बात ज़रूर छेड देती ...बस, हुन तो ठंड थोडेयां दिनां दी ए...बस लोहड़ी गई ते बसंत आई ...बस, आई बसंत ते पाला हडंत .... (बस, अब सर्दी के दिन गिने-चुने ही हैं, लोहड़ी गई तो बसंत भी आई समझो ...और बस, बसंत आई तो समझो सर्दीयां चली गईं...) हमें सुनते सुनते लगता था कि अपनी बीजी कोई जादूगरनी तो नहीं, कितनी आसानी से मौसम खुशनुमा होने की आस बंधा देती हैं...हमारे बालमन को उस वक्त लगता जैसे ठंडी उसी वक्त कम हो गई है ...शायद मां की गर्म बातों का असर होगा ...पसीना सा आने लगता ...बहुत दिलेर थी मां, पाज़िटिविटी की चट्टान, ऐसे ही हरेक को ढाढस बंधाए रहतीं..
खैर, फिर मैं कहीं भटक गया ...त्योहार के मौसम में ...हां जी, एक फिल्म आई थी ..Earth 1947 ...उस का एक गीत पतंगबाजी करते वक्त फिल्माया गया है, मुझे सारी फिल्म से कहीं ज़्यादा वह गीत और उस का म्यूजिक पसंद है ....पतंगबाजी हम देखते ज़रूर ...आई बो ...आई बो ....(मतलब पेचा लगाते लगाते किसी कूी पतंग कट गई ) की आवाजें ....शोरगुल, ह्ल्ला-गुल्ला, सब छत पर चडे हुए ,.छत के बन्ने हैं या नहीं, बच्चों को कोई परवाह नहीं, इसलिए बहुत बार बच्चे छत से गिर भी जाते ...फिर कुछ हादसे चाईनीज़ डोर की वजह से भी होने लगे ....किसी का मुंह कट रहा है, और किसी का गला ...पर अभी भी इस पर कोई रोक नहीं है, लोग घायल होते रहते हैं लेकिन जो इस्तेमाल करते हैं वो ही नहीं, राह चलते दो पहिया वाहनों वाले भी जिन के मुंह के साथ कटी हुई पतंग की डोर उलझ गई और काट दिया चेहरा .....इलाज करवाते रहो, रंग में डल गया भंग...
लिखते लिखते कछ ख्याल आ जाते हैं बहुत अरसे के बाद ...अभी मैंने डोर लिखा तो मुझे डोर फिल्म का एक बेहद सुंदर गीत याद आ गया जिसे मैं किसी ज़माने में बार बार सुना करता था...आज भी बसंत पंचमी के दिन ज़रूर सुनना चाहिए...
मुझे यह फिल्म डोर और इस का यह गीत बहुत ज़्यादा पसंद है...फिल्म की कहानी बड़ी भी बडी मासूम सी थी और विचारोत्तेजक भी...सोचने पर मजबूर करने वाली ..कभी मौका मिला तो देखिएगा ज़रूर ...
बड़ी बहन के आशीर्वाद की पाती ...
चलिए जी, हो गई अब बसंत भी ...एक और बसंत गुज़र गया ढींग मारने के लिए, अपनी बात का सिक्का मनवाने के लिए ...कि हम ने तो भई इतने बसंत देखे हैं ,...तुम ने तो अभी देखा ही क्या है । असल बात यह है कि मुझे तो इस बात का पता ही न चलता कि आज बसंत है अगर मेरी बहन का मुझे यह संदेश न पुहंचा होता ...बहुत बहुत शुक्रिया विनोद दीदी आप का...वैसे मेरे जैसे बंदे के लिए जो बंबई में रह रहा हो उस के लिए बसंत का इतना ही मतलब है कि आप सब के साथ पुरानी यादें हरी भरी कर लीं फिर से ...और अभी जो बसंत रूत का जो गीत सुनाऊंगा वह सुन कर आप भी मस्त हो जाएंगे ... एक बात और, आज हमारे एक साथी ने, डा पाल साहब (निहायत नेक इंसान हैं ...) ने बसंती रंग की बहुत अच्छी लिनिन की कमीज़ पहनी हुई थी ...उन की कमीज़ देख कर भी मेरी ट्यबलाईट की बत्ती न जली तो अपने आप को क्या कहूं ...
चलिए, कोई बात नहीं ...जैसा देश वैसा भेष,,,,कहने का मतलब यही है कि मुंबई जैसे महानगरों में कहां लोग जलाएं लोहड़ी , और कहां करें पतंगबाजी....और वैसे भी लोहड़ी जलाने के लिए वैसी हाड़ तोड़ने वाली सर्दी भी तो चाहिए...लेकिन एक बात बताऊं इस बार पिछले दिनों बंबई में बहुत ठंड पड़ी ....मैं भी रात में रज़ाई लेकर, मोजे पहन कर ...और सिर पर मंकी-कैप डाल कर सोया कुछ दिन तो ...क्या करूं, मेरे सिर को थोड़ी भी ठंड लगती है तो दुखने लगता है ... लेकिन एक बात है बंबई की कि लोग यहां अपने हिस्से से भी ज़्यादा जीना जानते हैं ..त्यौहार तो इलाकों के हिसाब से होते हैं ..कुछ उत्तर भारत के, कुछ दक्खन के, कुछ पूरब के और कुछ पश्चिम में .....देश की यह विविधता ही सब से बड़ी खूबी है ...है कि नहीं........और वैसे बंबई वाले के लिए त्यौहार ? --- यहां तो भई हर रोज़ त्योहार है, किसी भी माल में, किसी भी बीच पर चले जाइए.....हर तरफ़ मेले लगे हुए लगते हैं ....बुरी नज़र न लगे इन मेलों को ...लगभग दो साल के बाद दो तीन दिन से लोग खुल कर बाहर निकल कर जश्न मना रहे हैं ....यहां हर दिन एक जश्न है ...सारा दिन मेहनत-मशक्कत करने के बाद, काम धंधा जमा कर, जब कोई बंदा घर सही सलामत लौट आया हो तो यह भी एक परिवार के लिए जश्न जैसी बात ही है, दोस्तो ....
Earth 1947 का यह गीत बहुत पापुलर हुआ ...और नंदिता दास के अभिनय के तो क्या कहने! लाजवाब...👍
कल रात आलू के परांठे खाने की इच्छा हुई तो दो बहुत ही मशहूर दुकानों से ये मंगवाए गए ..क्योंकि एक दुकानदार दही के साथ देता है और दूसरा चने के साथ ...लेकिन इतने बेकार, कच्चे-पक्के परांठे मैंने ज़िंदगी में कभी नहीं खाए...( कल रात इन्हें जैसे तैसे खा लिया क्योंकि मुझे पता है ये बहुत महंगी जगह से मंगवाए गये थे 😂-) दो तीन बार जब मैंने बाहर खाने की कोशिश की तो काट छांट के ही खाए होंगे ..लेकिन वह भी परेशान हो हो कर ..क्योंकि पता नहीं हमें हमारी मां (सब की मां खाने-पिलाने में एक जैसी होती हैं) ने बचपन से इतना बढ़िया खिलाया सब कुछ ...अंगीठी और स्टोव वाले दौर में भी ...पसीने से तरबतर होते हुए भी ....और बीच बीच में कभी कभी बड़ी बहन ने भी ऐसा खाना खिला दिया है कि उस स्तर तक हमारी श्रीमति जी ही पहुंच पाती हैं अकसर ....मां तो एक एक परांठे को पूरा वक्त लगा कर ..दबा दबा कर ऐसा अच्छे से सेंक कर देती कि रूह खुश हो जाती ...पता नहीं इतना सब्र कहां से ले आती थी ...मां कहीं भी जाती दो दिन से ज़्यादा न टिकती ...कल ही मेरी बहन फोन पर याद कर रही थी कि बिल्ले, बीजी मेरे पास यहां अगर आ भी जाते तो दो दिन ही सही से टिकते, फिर वही रट लगाने लगते कि विनोद, मेरी वापिसी की सीट करवा दे ..मेरा मन उदास हो रहा है ...😎😂 साथ में हंस भी रही थी यह बात सुनाते सुनाते ....
चलिए, मांएं तो ऐसी ही होती हैं...कुलदीप मानक का यह गीत पंजाब का सुपर-डुपर गीत है भाईयो....इसे सुनने से मन हल्का हो जाता है ..आंखे भी भीग जाएं तो भीग जाने दो....कभी कभी आंखों की इस तरह की सफ़ाई भी ठीक होती है ...इसे सुनने समझने के लिए आप को पंजाबी भाषा का ज्ञान होना कतई ज़रूरी नहीं है, वह इतने दिल से गा रहे हैं कि आप सब कुछ समझ जाएंगे...
हां, तो आलू के जिन परांठों का मैंने ज़िक्र किया जिन को मैंने खाया ...उन को खाने के बाद मुझे डर ही लगा रहा कि कहीं गैस की वजह से मेरा सिर ही न दुखने लग जाए ...मैं इस बीमारी से बड़ा डरता हूं ...लेकिन, नहीं, भगवान की कृपा रही ...रात में दो-तीन बार उठना पड़ा लेकिन वह तो मच्छरों की वजह से ...लेकिन जिस तरह से उन परांठों की, दही और चने की पैकिंग थी ...उस के क्या कहने...पैकिंग देखते ही किसी बंदे के पेट में चूहे जॉगिंग करने लगें ....खैर, मैंने तो बता दिया कि मैं तो कईं बार किसी हाटेल में आलू के परांठे आने पर उस का एक निवाला चखने पर भी उसे छोड़ देता हूं ..नहीं खाया जाता, क्योंकि मां ऩे और अमृतसर ने इतना बढि़या खिला दिया है कि अब श्रीमति जी और कभी कभी मिलने पर बड़ी बहन के परांठे ही मन भाते हैं...ईश्वर इन्हें सलामत रखे ...इतनी मेहनत करती हैं खाना बनाने में कि खाने वाले को शर्म आने लगे ...सच में 😂....जब कुछ समय के लिए मैं अमृतसर होस्टल में रहा तो भी हमारा एक पहाड़ी मेस मैनेजर बहुत बढ़िया आलू के परांठे बनवाता था ...कोई सिरदर्दी नहीं कि यह यहां से कच्चा है, यह वहां से अधपका है ...चलिए, परांठों को यहां छोड़े ....आगे चलते हैं...बस, ऐसे ही आज कल तो ऊंची दुकान, फीका पकवान वाली बात मालूम पड़ती है ...
सुबह सुबह चाय के साथ ही इसे खा-फुट लिया है, बाद में डिप्रेशन होने लगती है ...
आज लेट उठा ..चाय पीते वक्त पास ही एक अमूल का कोकोनट कुकीज़ का पैकेट दिख गया ... सुबह चाय के साथ दो बिस्कुट ही लेता हूं ... इस से ज़्यादा कहां इच्छा ही होती है ...लेकिन यह कैसी पैकिंग थी इस बिस्कुट के पैकेट की ...खोलते ही इस का तो पूरा ही लंगार ही खुल गया ...अब क्या करे कोई ....कितनी बार क्या, अनगिनत बार होता है खास कर जब कभी टैव्लिंग कर रहे होते हैं कि कुछ खाने-पीने की चीज़ खरीद लेते हैं , और उसे खोलते ही वह ऐसे खुलती है कि फिर लगता है कि इस को खत्म कर के ही सांस लें....कहां इसे संभालते फिरेंगे ...आज जो कोकोनुट कुकीज़ का पैकेट खोला तो न चाहते हुए भी वे 6-7 बिस्कुट जबरदस्ती चाय में डुबो डुबो कर हड़प लिए ....लेकिन बाद में मन खराब तो होता ही है कि मैं अपनी सेहत के साथ क्यों यह सब खिलवाड़ कर रहा हूं ...इस चक्कर में कि बिस्कुट का पैकेट खुल गया है, इसे संभालना मुश्किल है, कहीं भी रखो, नमी पकड़ लेते हैं ...चलो, पेट में ही डाल कर इस नमी वाली टेंशन से तो फारिग हो लें....
कंपनी सफल रही, अपनी पैकेजिंग की वजह से ...यह तो एक अदद उदाहरण थी ...दिन भर में अनेकों मिसालें दिख जाएंगी हम को ...मैं कईं बार हंसता यह याद कर के कि बचपन में कालगेट कैसे एक लोहे की ट्यूब में आती थी और उस के साथ एक लोहे की चाबी सी भी आती थी ..जो उस के एक तरफ़ लगा कर सलीके से ट्यूब निकालते थे ...वह चाबी कभी इस्तेमाल की तो नहीं..लेकिन हां, जब ट्यूब खत्म होने की कगार पर होती तो उस के एक सिरे को उस चाबी की मदद से मरोड़ना पड़ता था, और कईं बार तो उस पर पत्थर मार पर भी टूयब निकालना याद है ..क्योंकि तब आज जैसा व्यवस्था और सुविधा नहीं थी कि राशन चाहे रोज़ मंगवाओ, चाहे दिन में चार बार मंगवाओ...अभी कही ंसे सर्फ आ रहा है, कहीं से चाय पत्ती ....पहले तो महीने की शुरुआत में घर में जो राशन आता था ...उस का मतलब सारा महीना उसी से काम चलाना होता था ...क्योंकि उस के अलावा राशन का कुछ अलग से बजट न होता था ..ऐसे में 29 या तीस तारीख को कालगेट खत्म होने पर या तो नमक-तेल इस्तेमाल करो....या फिर वही पत्थर उठा कर, पेस्ट को ईंट पर रख कर ...निकाल तो अगर थोड़ी बहुत निकलती है तो ..और बाद में शायद घर के सामने से जो पतीसे वाला निकलता था वह उस टूटी-मुड़ी हुई टूयब को लेकर कुछ पतीसा भी दे देता था ...मैंने यह सब आपबीती - आपबीती भी नहीं, लगभग सब लोगों का हाल तो यही था, लेकिन कुछ लोग मुंह नहीं खोलते, चलिए, नहीं खोलते तो न खोलें, उन की चुप्पी उन्हें मुबारक.....लेकिन आज की टुथपेस्टों की पैकेजिंग देखिए....बस उन से ब्लू-टुथ से ही पेस्ट निकलने की कमी है...वरना उन को हाथ लगाते ही पेस्ट जैसे अपने आप बाहर निकलने लगती है और ऊपर से इन पेस्टों का नोज़ल इतना बड़ा करते जा रहे हैं कि कंपनी चाहती है कि कमबख्तो, छोड़ो अब इस की जान निकालोगे ...जल्दी जल्दी टूयब भी नईं ले लिया करो...तुम लोगों ने कौन सा अब बाज़ार जा कर किराने की दुकान पर इंतज़ार करना है, मैसेज करना है और सामान हाजिर हो जाएगा...
पेस्ट ही क्यों, बॉथरूम में पडी 15-20 शीशीयों की तरफ़ नज़र दौडाता हूं तो हर तरफ़ मार्केटिंग के जलवे दिखाई देते हैं, हमारे वक्त में गुसलखानों में एक देसी, एक अंग्रज़ी और सरसों के तेल की एक कुप्पी और झांवा होता था, पैर रगड़ने के लिए...लेकिन अब तो समझ में ही नहीं आता...हर तरफ तरह के वॉश, कंडीशनर, शैंपू...कईं बार लगता है कि हम भी वक्त से पहले ही इस संसार में आ गए...आज के दौर में आते तो बात ही कुछ और होती ..हम लोगों ने तो लाइफब्वाउ और रेक्सोना के आगे कभी कुछ सोचा ही न था...सीकरी की वजह से कभी घर में टाटा का शैंपू आ भी जाता तो पड़ोसियों तक को खबर होती कि इन के यहां तो शैंपू इस्तेमाल होता है ...हां, तो बात लंबी खिंच गई ....बात यही है कि ये गुसलखाने में अनेकों चीज़े धरी पड़ी होती हैं इन की पैकेजिंग भी ऐसी होती हैं कि इन्हें जल्द से जल्द खत्म करो ...और आगे बढ़ो और हर रोज़ कुछ नया ले कर आओ ...और इन गुसलखानों की शोभा बढाओ....वैसलीन तक जो कि हमें उंगली टेढ़ी कर के निकालनी पड़ती थी, वह भी लोशन की शक्ल में आने लगी है ...दो बूंद चाहिए होती है और लेकिन बोतल को दबाते ही चम्मच भर बाहर आ जाती है ....उस वक्त माथा पीटने की इच्छा होती है कि अब इस का करें तो क्या करें, टोस्ट पर लगा लें क्या ....😎
हर तरफ मार्केटिंग का बोलबाला है ...पैकेजिंग पर जो़र है ...इतना ज़्यादा कि खामखां की शोशेबाजी में सब रमे हुए हैं ...लेकिन कोई फायदा नहीं इन चोंचलों का ....Keep it short and sweet, stupid ...वाली बात अकसर याद आ जाती है .... दवाईयों के मामले में भी इतनी गंदगी है और मैं पिछले 20 साल से .(.जब से यह जैनरिक और ब्रांडे़ड की नौटंकी शुरू हुुई है) ..मैंने इन विषयों पर खूब लिखा ..लेकिन मुझे आज तक यह समझ नहीं आई कि कैमिस्ट की दुकान पर जो हमें दवाई बिक रही है ..वह ब्रेंडेड है या जैनरिक ..क्योंकि इन दोनों में ज़मीन आसमान का फर्क है ...कुछ दवाईयों पर दाम अगर लिखा है 100 रूपये है तो वह अपने किसी खास को 17 रूपये की दे देगा ...और गरीब मज़दूर उसी दवाई को पूरे 100 रुपये में लेकर जाएगा....इन दवाईयों में भी बहुत गोरखधंधा है ...इतना बडा धंधा है कि लिखते हुए भी डर लगता है क्योंकि यह इतना बड़ा माफिया है कि इन के लिए किसी भी ज़्यादा बोलने वाले का मुंह हमेशा के लिए बंद करना कोई बड़ी बात नहीं है ....ठीक है, सरकार ने जन औषधि केन्द्र खोल रखे हैं...लेकिन वहां तक अकसर ज़रूरतमंद पहुंच ही नहीं पाते ...एक तो अनपढ़ता इतनी है, ऊपर से दूसरे तरह के दबाव.....जिन के बारे में आप मुझ से बेहतर जानते हैं....ऐसे ही अनजान बनने का नाटक मत करिए....मैं काफ़ी कुछ चेहरों से भांप लेता हूं .. 😎... बंद चिट्ठी में लिखी बात पढ़ लेता हूं ...ओह, मैं भी सुबह सुबह कैसी कैसी ढींग मारने लग गया ...इसलिए अभी इसी वक्त यह पोस्ट बंद करने का वक्त है ...
दुनिया से जाने वाले ...जाने चले जाते हैं कहां ...स्मिता पाटिल एक बेहतरीन अदाकारा, नेक इंसान...इन के चले जाने का हमें बहुत दुःख हुआ था ...इन की स्मृति को सादर नमन ....कुछ लोग हर तरफ़ से तारीफ़ें ही बटोरते हैं, स्मिता पाटिल भी ऐसी ही थीं...