उत्तर रेलवे मंडल चिकित्सालय के 275-बेड का इंडोर अस्पताल पूर्णतयः कोविड मरीज़ों के लिए समर्पित है - इसमें रोज़ाना कोरोना के नये मरीज़ दाखिल हो रहे हैं और रोज़ाना तंदरूस्त होकर मरीज़ यहां से डिस्चार्ज हो रहे हैं...
इसी क्रम में आज लखनऊ के किशोर-सुधार गृह के 51 तरूण आज इंडोर अस्पताल से डिस्चार्ज हुए...दरअसल 14 दिन पहले किशोर-गृह में रहने वाले 55 बच्चों को कोरोना-पॉज़िटिव पाया गया...उन सब को लखनऊ स्थानीय प्रशासन द्वारा यहां दाखिल करवाया गया...चिकित्सा विभाग की मेहनत रंग लाई ...इन की पूर्ण सेवा-सुश्रुषा की गई ... कल टेस्ट हुआ तो 51 बच्चे कोरोना निगेटिव हो चुके थे ...आज इन को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई।
आज इन बच्चों को यहां से डिस्चार्ज होने वाला इवेंट भी जैसे इंडोर अस्पताल के इतिहास में एक छोटा-मोटा सुनहरे पन्ने की तरह जुड़ गया...अगर देखा जाए तो किशोर-गृह से बच्चे आए...तंदरुस्त हो गये ...छुट्टी हो गई ...बात ख़त्म। ड्यूटी पूरी हुई। लेकिन नहीं, इस में भी कुछ भावुक क्षण जुड़ गए..।
श्रीमति अपर्णा त्रिपाठी -अध्यक्षा, उरे महिला कल्याण संगठन, लखनऊ (बाएं से तीसरी), सीएमएस उ रे डा. सिन्हा को किशोर-गृह के बच्चों के लिए उपहार सौंपती हुईं
उत्तर रेलवे महिला स्वास्थ्य संगठन की अध्यक्षा श्रीमति अपर्णा त्रिपाठी ने इन सभी बच्चों को डिस्चार्ज किए जाने के समय एक एक टी-शर्ट और एक कैप देने का बेहद सराहनीय कदम उठाया...और तो और, जाते वक्त अस्पताल की मुख्य चिकित्सा अधीक्षक, डा वी एम सिन्हा ने इस बच्चों को इतनी आत्मीयता और वात्सल्य-भाव से संबोधित किया जैसे हम लोग अपने बच्चों को दूसरे शहर में भेजने से पहले थोड़ा समझाते हैं ...थोड़ा आगाह करते हैं।
सभी बच्चों को एक स्मृति-चिन्ह की तरह उपहार दे कर भेजना और सीएमएस का स्वयं इन से इस तरह बातें करना किसी के भी मन को छू-जाए। इसे कहते हैं अपनी ड्यूटी से भी परे जा कर किसी काम को अंजाम देना.....श्रीमति अपर्णा त्रिपाठी और डा वी एम सिन्हा को बहुत बहुत साधुवाद। इन बच्चों को इस कदम से यह अवश्य लगा होगा कि हम भी समाज का एक सामान्य हिस्सा जो कि वे बेशक हैं...कोई पता नहीं कौन सी घड़ी, कौन सी घटना किस इंसान की ज़िंदगी बदल देती है.
बच्चों को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे किसी नामचीन स्कूल में सुबह की असेंबली चल रही है और वे सब अनुशासन में रह कर अपनी बातें साझा कर रहे हैं ...डा सिन्हा ने उन्हें कहा कि आपने देखा कि किस तरह से सारे मेडीकल स्टाफ ने आप सब की सेवा की ...अब आप को भी अच्छा नागरिक बन कर देश का नाम रोशन करना है ...ऐसी पहल पहली बार देखने को मिली और सब को छू गई। 👏
इंडोर अस्पताल में कोरोना की टेस्टिंग का सिलसिला निरंतर चालू है ...और मरीज़ों की सूचना के लिए हर तरह की जानकारी उपलब्ध करवाई जा रही है ताकि आने वाले लोगों को असुविधा से बचाया जा सके...।
लखनऊ के संजय गांधी पीजीआई मेडीकल इंस्टीच्यूट से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर है एपेक्स ट्रामा सेंटर (यह भी पीजीआई संस्थान का ही हिस्सा है) ... एक महीने से भी कुछ ज़्यादा ही समय हो गया होगा...मैं उस ट्रामा सेंटर के पास से गुज़र रहा था...अचानक अस्पताल के बोर्ड पर नज़र पड़ी - राजधानी कोरोना अस्पताल....एक बार तो ख्याल आया कि शायद यह कोई नया अस्पताल तैयार हुआ होगा ...लेकिन फिर ध्यान से देखा तो समझ में आया कि यह तो वही एपेक्स ट्रामा सेंटर ही है जिस का नाम बदल कर राजधानी कोरोना अस्पताल रख दिया गया है ...
इसी कोरोना अस्पताल का साइड-व्यू
आज पीजीआई के पास से गुज़र रहा था तो संस्थान के बाहर ही एक बहुत बढ़िया नोटिस लगा हुआ था ...आप भी इसे पढ़िए...मुझे यही ख्याल आया कि सभी अस्पतालों में इस तरह के नोटिस तैयार करवा कर बाहर ही लगवा देने चाहिए...विशेषकर जिन अस्पतालों में कोविड के मरीज़ों का इलाज चल रहा है वहां तो इस तरह की सूचनाएं या इस से भी आगे - जैसी भी अस्पताल प्रशासन ज़रूरी समझे (कस्टम-मेड टॉइप) ...सब कुछ लिखित में बाहर टंगा होना ज़रूरी है ...
इस फोटो पर क्लिक कर के आप इसे अच्छे से पढ़ सकते हैं...
जितनी सूचना कोविड के मरीज़ों और उन के तीमारदारों तक सहज पहुंच जाएगी ...उतनी ही शरारती तत्वों द्वारा उपद्रव करने-करवाने की संभावनाएं कम हो जाएंगी...दरअसल बात यह है कि कोविड-संक्रमित मरीज़ों को ज़िला प्रशासन द्वारा जो भी अस्पताल अलॉट किया जाता है ...ज़ाहिर सी बात है वह जगह उन के लिए नई होती है ...वे उस अस्पताल के बारे में, वहां के प्रशासन के बारे में कुछ नहीं जानते ...वैसे कुछ सुन रहे थे कि अब तो ऐसे अस्पताल में दाखिल होने वाले मरीज़ों को स्मार्ट-फोन भी अपने पास रखने की सहूलियत दी जा रही है ..इसलिए अस्पताल के बारे में, मरीज़ों के बारे में ...उन के खान-पान के बारे में जितना ज़रूरी हो बाहर लिख कर टंगा होना चाहिए....ऐसे ही जैसे पीजीआई संस्थान के बाहर आप यह नोटिस लगा हुआ देख रहे हैं ..मेरे विचार में यह ज़रूरी कदम है...
अब आप सोचिए इस तरह का कंटेंट वाट्सएप पर वॉयरल हो रहा है ...
सूचना जितनी इन लोगों तक पहुंचेगी उतनी ही गलतफ़हमीयां दूर होंगी...बेवजह की नाराज़गी कम होगी ...सोशल-डिस्टेंसिंग का पालन होगा ...वरना अकसर सुनते हैं कि अस्पतालों के बाहर कोविड मरीज़ों के तीमारदारों का तांता लगा रहता है ...एक दो बार तो मैंने भी देखा तो मुझे भी किसी प्रतियोगी परीक्षा जैसा दृश्य ही लगा ....यह किसी के भी हित में नहीं है...
हिन्दुस्तान - 22 अगस्त 2020 (लखनऊ)
हां तो जब से मैंने पीजीआई के एपेक्स ट्रामा सेंटर का नाम बदला हुआ - राजधानी कोरोना अस्पताल देखा है, मुझे रह रह कर यही ख़्याल आता है कि कोरोना इतनी जल्दी हम लोगों की ज़िंदगी से जाने वाला नहीं ...लेकिन अफसोस की बात यह है मैं जब भी बाहर निकलता हूं मुझे तो कहीं पर भी सोशल डिस्टेंसिंग (सामाजिक दूरी) का पालन होता नहीं दिखा ...सिर्फ़ नाक के नीचे एक मैला-कुचैला फेस-मास्क टांग लेने से क्या होगा........कुछ भी तो नहीं।
कुछ महीने पहले वाट्सएप पर एक चुटकुला आ रहा था ..यही कोरोना के बारे में कि जब टीवी लगाते हैं तो लगता है बस, हर तरफ़ कोरोना ही कोरोना है .....लेकिन जब बाहर जाकर बाज़ार में रौनकें देखते हैं तो ऐसे लगता है कुछ भी नहीं है। टीवी मैं कभी देखता नहीं इसलिए ख़बरें कम ही पता चलती हैं मुझे लेकिन जब मैं घर से बाहर कहीं भी जाता हूं तो हर तरफ़ लापरवाही का नाच ही देखता हूं .. आंकड़े भी तो खौफ़नाक हैं!
चलिए, अपना और अपनों का ख्याल रखिए...और जो भी सूचना हो सही स्रोत से ही प्राप्त करिए...वाट्सएप पर ज़्यादा भरोसा मत करिए ..आज एक अजीब सी वीडियो मिली वाट्सएप पर ---ऊपर लगाई है, देखिए उसे ....लेकिन इन बातों पर भरोसा मत करिए..
गणेश चतुर्थी की आप सब को बहुत बहुत बधाईयां ...गणपति बप्पा सारी दुनिया को खुश रखें..🙏
"शर्मा जी, आप की फिटनेस का राज़ अब समझ में आया.."- पिछले हफ्ते मैंने बैंक के एक अधिकारी को यह कहा तो उन की तो बांछें खिल गईं...उन्हें समझ ही में नहीं आ रहा था कि चुप रहें, बात को आगे बढ़ाएं या खुशी को पान की पीक के साथ ही निगल जाएं....
मुझे नहीं पता कि उन्होंने अपने मुंह के अंदर भरी पीक को कैसे मैनेज किया ....लेकिन तुरंत बोल उठे---"डाक्टर साब, कहां देखा आपने मुझे?"
"वहीं पराग डेयरी वाली रोड़ पर ...आपको बड़ी मस्ती से टहलते देखता हूं..."
शर्मा जी हंसने लगे ...और बोले - "3-4 किलोमीटर टहलना भी हो जाता है, और साथ में फूल भी ले आता हूं..."
टहलने वाली बात तो मुझे भा गई ..लेकिन फूल वाली बात पर मैं अटक गया..."शर्मा जी, फूल!"
हंसते हंसते कहने लगे- "इसी बहाने पूजा के लिए फूल भी तोड़ लाता हूं.."
एक बात तो तबीयत हुई कि कह दूं शर्मा जी क्या ही अच्छा हो, अगर आप थोड़ा वक्त और सो लिया करें ...कम से कम फूलों की आफत तो न आएगी। सुबह सवेरे टहलने के बहाने डेयरी से दूध लाने वाली बात तो हम लोग बचपन से सुनते-देखते रहे हैं लेकिन सुबह टहलने के बहाने फूलों को इक्ट्ठा करने वाली बात अजीब सी लगी ....
जिन पेड़ों को हम ने रोपा नहीं, पानी दिया नहीं , परवरिश की नहीं, परवाह की नहीं ....उन के फूलों पर हमारा हक कैसे हुआ !!
फिर मुझे ध्यान आया कि यहां लखनऊ में अकसर देखता हूं कि जो लोग सुबह टहलने निकलते हैं उन में से कुछ के हाथ में एक पन्नी होती है जिस में वे लोग यहां-वहां से फूल तोड़ तोड़ कर ठूंसते रहते हैं....मुझे यह देख कर बहुत अफसोस होता है ...मैं मन ही मन सोचता हूं कि ईश्वर, इन्हें इस समय इन खूबसूरत फ़िज़ाओं में भेजा ही क्यों, प्रभु, आप तो सर्वशक्तिमान हो, इन्हें एक-दो घंटे सोए ही रहने दिया करो...
जी हां, मुझे फूल तोड़ने वालों से बहुत बड़ी शिकायत है ....और वह भी सड़क पर लगे और पार्कों में खुशियां लुटाते, मुस्कुराहटें बिखेरते खूबसूरत फूल लोग ऐसे तोड़ तोड़ कर इक्ट्ठा करने लगते हैं...
सुबह सुबह पता नहीं कितने उदास चेहरों पर इन फूलों को देखते ही खुशी लौट आती है ...फूलों की फितरत ही ऐसी है ...जोश मलीहाबादी याद आ गए ...वे फरमाते हैं ....
गुंचे, तेरी ज़िंदगी पे जी हिलता है.... बस, एक तबस्सुम के लिए खिलता है ... गुंचे ने कहा ... इस चमन में बाबा, एक तबस्सुम भी किसे मिलता है...
जहां तक मुझे याद है बचपन में कभी कभी चोरी-चुपके फूल तोड़ते थे ...लेकिन जैसी ही थोड़ी बहुत समझ आई तो आस पास की सार्वजनिक जगहों पर बोर्ड लगा देखते थे ...फूल तोड़ना मना है। बस, हमारे मन में बैठ गया कि फूल तोड़ेंगे तो माली पकड़ लेगा और पिटाई भी करेगा ..इसलिए इस आदत से बच गए.
मुझे यह भी याद है घर में सैंकड़ों गुलाब के फूल लगे रहते थे ..बड़े बड़े गुच्छे... लेकिन वे अपने आप ही नीचे गिरते थे ...इतने ज़्यादा फूल देख कर हमारे आस पास की महिलाएं मेरी मां को कहा करती थीं कि आप तो गुलकंद तैयार कर लिया करो....मां को भी फूल तोड़ने में कोई खास रूचि न थी, कभी एक दो बार गुलकंद तैयार भी हुआ ...और हां, मेरी बड़ी बहन 31 मार्च के दिन सुबह 40-50 गुलाब के फूल तोड़ कर मुझे चारपाई पर साथ बैठा कर सूईं-धागा लेकर बडे़ चाव से एक फूलों की माला ज़रूर तैयार कर के मुझे अखबार में लपेट कर दे देती कि जैसे ही स्कूल के मास्टर साब तुम्हारा रिज़ल्ट बोलेंगे ....तुम ने उन के पास जाकर उन्हें फूलों का हार पहनाना है ..यह सिलसिला पांचवी कक्षा तक चलता रहा ....और वे लम्हे मेरी यादों का खज़ाना है ...
कालेज पहुंचे ...एक दिन बॉटनी का पीरियड चल रहा था ...प्रोफैसर कंवल साहब ने एक छात्र को क्लास के बाहर लगे एक पेड़ की तरफ इशारा किया और कहा कि उस का एक पत्ता लेकर आओ....वह झट से गया....उसने एक झटके से पूरी की पूरी टहनी ही खींच लाया....उसे नहीं पता था कि प्रोफैसर साहब उसे देख रहे हैं....जैसे ही लौटा ....उन्होंने उसे ऐसे घूरा और कहा ....अगर तुम्हें कोई ऐसे खींचे.....मैंने तो एक पत्ता लाने के लिेए कहा था....
बस, वह घटना भी 16-17 साल की उम्र में दिमाग में ऐसे दर्ज हुई कि कभी भूली नहीं ....जैसे फूलों पर फिल्माए गए वे सब हिंदी फिल्मी गीत जिन्हें कईं दशकों से सैंकड़ों बार देख-सुन चुके हैं लेकिन मन ही नहीं भरता....दिलो-दिमाग की हार्ड-ड्राईव में ऐसे स्टोर हो चुके हैं कि क्या कहें....जब भी उन्हें सुनते हैं, कहीं खो जाते हैं...
हां, तो बात हो रही थी सुबह सवेरे फूल तोड़ने वाले गिरोह की ...अच्छा एक बात और भी है, उन सब को यह आभास होता है कि वे कुछ गलत कर रहे हैं....लेकिन फिर भी आदत से मजबूर ....चार महिलाएं टहल रही होती हैं कईं बार तो हरेक के साथ में अलग से एक फूलों से भरी पन्नी होती है ...
घर में बहुत बढ़िया फूलदान हैं....बहुत ही खूबसूरत- मैटल के, सिरामिक के, पीतल के ....बहुत से एंटीक पीस भी ...लेकिन उन को ऐसे ही कभी कभी देख लेते हैं...फूल तोड़ कर उन में ठूंसने का कोई शौक नहीं है ...लेकिन कभी कभी जो फूल नीचे ज़मीन पर गिरे होते हैं मैं उन्हें ज़रूर उठा लेता हूं...क्योंकि मुझे लगता है कि हम उन्हें ही उठाने के हकदार है ...हंसते-खेलते, खिलखिलाते फूलों को तोड़ कर घर या ऑफिस की साज-सज्जा के लिए या उस प्रभु को अर्पण करना भी कहां तक जायज़ है जो स्वयं इस सारी रचना का कर्त्ता-धर्ता है ....और घर-दफ्तर में आए चार लोग झूठी तारीफ़ कर भी दें कि क्या फूल हैं...लाजवाब, उस के भी क्या हासिल!
फूल तो भई अपने पते पर - अपनी डाल पर ही लगे --खिलखिलाते, खुशियां बिखरते ही अच्छे लगते हैं....अगर फूलदानों का शौक है तो उस में प्लास्टिक के फूल आज कल बहुत बढ़िया मिलने लगे हैं, उन्हें ठूंस दीजिए गुलदानों में ...
इतना लिखने के बाद यह ख्याल आ रहा है कि यह भी कोई टापिक हुआ ...फूल तोड़ना मना है ....फिर ध्यान आया बचपन में घर में आनी वाली हिंदी मैगज़ीन सरिता का ....मेरी मां को पढ़ने का बहुत शौक था ...वे उसे ज़रूर पढ़ा करती थीं....और हम भी तीसरी-चौथी कक्षा में उस मैगज़ीन को हाथ में पकड़ते ही चुटकुलों, कार्टून के अलावा उस पन्ने को ढूंढने लगते जिस का शीर्षक होता था....मुझे शिकायत है....इस में साथ में लिखा होता था कि आप सार्वजनिक स्थानों पर इस की कतरन ज़रूर चिपका दीजिए......ये मैं 45-50 साल की बातें कह रहा हूं...जैसे किसी पाठक ने अपनी शिकायत में यह लिखा होता कि उसे शिकायत है उन लोगों से जो ट्रेन में टायलेट इस्तेमाल करने के बाद फ्लश नहीं चलाते, गंदगी फैलाते हैं.....और मैगजीन की तरफ से यह लिखा होता कि इस कतरन को संबंधित जगह पर चिपका दीजिए....हमारी भी इच्छा तो होती तो हम भी यह काम करें ....लेकिन कभी किया नहीं ...बस, पढ़ कर ही मज़ा ले लिया करते थे...
आज सुविधाएं हैं, नेट है, थोड़ा बहुत अपने मन की बात कहना भी जानने लगेे हैं...इसलिए इस तरह की हम सब से जुड़ी शिकायतें अपने ब्लॉग पर ही डाल दें....इसे देख कर अगर किसी ने भी सुबह टहलते रास्तों पर सजे हुए बेइंतहा खूबसूरत फूलों को तोड़ने से गुरेज कर लिया तो मेरी मेहनत सफल हो गई ....और मैं आप से कुछ मांग थोड़े ही न रहा हूं..!!
अमूमन लोग इतना डिग्री हासिल करने के लिए नहीं पढ़ते जितना पिछले दो-ढाई महीने में हम सब ने कोरोना की पढ़ाई कर ली...मुझे याद है मेरा ममेरा भाई जो मेरी नानी के पास रहता था, वह बी.ए की परीक्षा आने पर ही दो दिन किताबें देख लिया करता था - एक बार मैं वहीं पर था, उस का मिलिट्री साईंस का फाइनल परचा था- किताब तक उस के पास नहीं थी, अकसर वह किताबों की परवाह न किया करता ...नानी से उसने पैसे लिए, किताब लाया।
किताब भी कौन सी? - किताब के नाम पर एक कुंजी चला करती थी हमारे ज़माने में जो कोई भी परचा पास करवा देने की गारंटी लिया करती थी ... अकसर परचे से कुछ दिन पहले मिलने वाली ऐसी कुंजियां पढ़ने के लिए कम और नकल का सामान (परचियां) बनाने के लिए ज़्यादा इस्तेमाल में लाई जाती थीं...लो जी, मैंने देखा वह रात 9 बजे के करीब वह कुंजी खरीद लाया - फिर मैंने देखा कि वह उस के पन्ने फाड़ फाड़ कर नकल की सामग्री तैयार करने में जुट गया है ...साथ में कहता जा रहा था कि प्रैक्टीकल का तो सब सैट है, बस थियोरी पास करने की मेहनत लगेगी ...पेपर में नकल करने का सिलसिला उस का बचपन से ही चला आ रहा था ... पहले शरीर में जगह जगह नोटस लिख कर ले जाता था...मैं जब उससे पूछता - पपू, तुम्हें डर नहीं लगता, यार। जवाब में जब वह बिंदास हंसता तो मुझे यह बात बड़ी अजीब सी लगती...ख़ैर, उस रात भी वह नकल की परचीआं बनाने में व्यस्त रहा ....मैं और नानी सो चुके थे ...
चलिए, पपू का रिजल्ट तो देख लें, आगे चलने से पहले ...जी हां, वह हाई-सैकंड डिवीज़न में पास हो गया (जो उस दौर में एक छोटा-मोटा स्टेट्स सिंबल से कम न था) ...इसलिए मैंने कहा कि आम तौर पर बी.ए की पढ़ाई के लिए लोगों को इतना पढ़ते नहीं देखा जितना कोरोना ने पढ़ा दिया...
लेकिन आम आदमी ने जितनी भी कोरोना की पढ़ाई की या वह कर रहा है,वह बेकार है- वह वाट्सएप के आंकड़ों से सहम जाता है, अमीर मुल्कों के मरीज़ों की दिल दहला देने वाली तस्वीरें देख कर घबरा जाता है ...क्या क्या लिखें, इसे पढ़ने वाले सब जानते हैं कि हम लोगों ने वाट्सएप पर कोरोना के नाम पर परोसी गई क्या क्या जानकारी हासिल कर ली है ....लेकिन अधिकतर जानकारी उस के लिए थी ही नहीं, उस के किसी काम की थी ही नहीं, उस का उस से कोई लेना देना भी नहीं था...कुछ तो उसे गुमराह करने के लिए ठेली गई थी ...मेडीकल विषय बड़ा विशाल है, यह शौकिया पढ़ने-समझने वाली बात नहीं है ... डाक्टर लोग 10-15 साल पढ़ते हैं ...फिर कहीं जाकर वे उस मुकाम पर पहुंचते हैं जहां वे अपनी बात को अच्छे से कह पाते हैं और मरीज़ भी उन की बात को गंभीरता से लेने लगते हैं ...
तो फिर क्यों वाट्सएप पर हर तरह का कचरा देख कर हम अपना मूड खराब कर लेते हैं...मुझे तो सच में लगने लगा है कि मेरा सिरदर्द का थ्रैशहोल्ड ही कम है, कमबख़्त छोटी छोटी बात पर दुःखने लगता है ...मैं उस दौरान यही सोचता हूं कि हम लोग इस महामारी के बारे में जानते हैं ...लेकिन जो आम इंसान इस के बारे में नहीं जानता उस के ऊपर क्या गुज़रती होगी...लेकिन बात वही है कि वाट्सपर पर मिलने वाली जानकारी को छानना सब को सीखना होगा ....लेकिन यह काम जितना कहने में आसान लगता है उतना है नहीं, कम से कम थोड़ा कम पढ़े-लिक्खों के लिए...लेकिन वाट्सएप पर शेयरिंग के धुरंधरों में कम पढ़े-लिखे क्या और ज़्यादा पढ़े-लिखे क्या..
बातें तो दो चार थीं जो हम सब लोगों को शुरूआती दौर से ही चल चुकी थीं...खांसने, छींकते वक्त इंसान होने का परिचय देना है, एक दूसरे से दूरी बना कर रखनी है, नाक-मुंह को ढक कर रखना है, मिलते समय हाथ मिलाना नहीं है, हाथ साफ रखने हैं ... बस, बात तो इतनी सी थीपता ..लेकिन उस का बतगंड ऐसा बना कि हम दूसरे चक्करों में पड़ कर सब से ज़्यादा ज़रूरी इन बातों को ही नहीं सही से मान पा रहे हैं ..
पिछले कुछ दिनों से जब से यह थोड़ी-बहुत ढील मिली है, मैंने जब भी बाहर देखा न तो आपस में दूरी बनाए रखने वाली बात का पालन होते देखा और न ही नाक-मुंह ढक लेने की बात का कोई असर होते दिखा ... मुंह पर कुछ लोग ज़रूरत से ज़्यादा हाई-फाई और महंगे फेस-मास्क टिकाए घूम रहे हैं जिन का उन के लिए कौई औचित्य नहीं है, और कुछ ऐसे ही एक पट्टी सी बांध कर बाज़ार के लिए निकल पड़े हैं .. आते जाते दारू की दुकानों पर नज़र पड़ी तो देख कर दुःख ही हुआ ...इस बार दारू के नुकसान के बारे में नहीं, लेकिन बिल्कुल पास पास खड़े लोगों को देख कर दुःख हुआ ...
बहुत से लोगों को देखता हूं कि वे फेसमास्क से मुंह तो ढक ले रहे हैं लेकिन उसे नाक से नीचे ही रखते हैं...लेकिन यह भी खतरनाक है - कितनी बार जगह जगह से कहा जा रहा है कि सादा कपड़ा, गमछा आदि भी आमजन के लिए पर्याप्त है .. लेकिन जो मैंने देखा है इस को कम लोग मान रहे हैं....
एक बात यह हम को समझना होगी कि आज कल आप के सामने वाला हर आदमी (मेरे समेत) एक बायोलॉजिक हथियार लिए हुए है ...वह सक्रिय कब होता है?- जब वह छींकता है, खांसता है ...और ज़ोर से बात करता है ...ये वे अवसर हैं जब उस के शरीर से ड्राप-लेट्स की तरह निकलने वाले संक्रामक पार्टीकल्स उस के आसपास खड़े दस-बीस लोगों तक पहुंच जाते हैं....अब उस की छींक एक साधारण छींक थी जो गांव में किसी के द्वारा याद करने पर आती है, एलर्जी है ....या कोरोना संक्रमण से है, यह कौन तय करेगा....खांसी उसे किसी पुरानी छाती के संक्रमण की वजह से आ रही है, धूम्रपान एवं प्रदूषण से जुड़ी व्याधियों की वजह से है, या हृदय रोग की वजह से होने वाली खांसी है यह या चक्कर कोरोना का ही है, इन सब के चक्कर में आप पड़ ही नहीं सकते .....और न ही आप उस से उलझ सकते हैं कि हां, भई तुम ने छींका क्यों, खांसी क्यों करी.......बस, हर इंसान इतना ज़रूर कर सकता है कि जब भी भीड़-भाड़ वाली जगह पर निकलें तो नाक-मुंह कवर होना चाहिए....यह जो भीड़-भाड़ वाली बात मैंने कही है -- इस का भी ख्याल रखें कि आप ठेलिया से सब्ज़ी ले रहे हैं, गिनती के तीन लोग हैं ...कौन कब खांस देगा, कौन कब छींक देगा, क्या आप कह सकते हैं......इसलिए नाक-मुंह कवर रखने के अलावा कोई भी रास्ता है ही नहीं...।
फेसमास्क की बात हो रही है....इतना लिखा-पढ़ा जा रहा है भई इस मौज़ू पर भी कि कोई चाहे तो एक छोटा-मोटा थीसिस तैयार कर ले, लेकिन जैसा कि मैं तो पहले ही कह चुका हूं कि ज़्यादा ज्ञान पढ़ना और फिर शेयर करना मेरे बस की बात नहीं है, मेरा तो यह सोच कर ही सिर भारी होने लगता है ...सच में ...हम तो उस ज़माने के पढ़े लिखे लोग हैं जब क्लास में जो हमारे मास्टर जी या बहन ही कह दिया करती थीं, कापी पर लिखवा दिया करती थीं...हम तो भई उस से टस-मस नहीं होते थे, वे चीज़ें हमारे लिए पत्थर पर खुदी लकीरें हुआ करती थीं...उन्हें ही याद कर के रट लेते थे, मान लेते थे और उन पर ही अमल किया करते थे - बस, उन बातों से टस मस होने का सवाल ही पैदा नहीं होता था .. और दूसरे भर के ज्ञान का तो छोड़िए, किताबों में भी क्या लिखा है, उस से भी हमें कोई ज़्यादा सरोकार नहीं होता था, हमें तो बस अपनी तख्ती पर लिखी हुई बात ही शाश्वत सत्य लगतीं।
हमारे ज़माने के हमारे मास्टर जी हमें इतनी सी बात लिखा देते और हम चुपचाप उसे मान लेते ... खांसने, छींकते वक्त इंसान होने का परिचय देना है, एक दूसरे से दूरी बना कर रखनी है, नाक-मुंह को ढक कर रखना है, मिलते समय हाथ मिलाना नहीं है, हाथ साफ रखने हैं ... बस, बात तो इतनी ही है...!!
अच्छा एक बात और है....छोटी छोटी बातें ही सब से ज़्यादा ज़रूरी हुआ करती हैं.... इन्हें बार बार रेडियो और अख़बार में देखने-सुनने से असर तो होता ही है ... नाक में उंगली डालने की बात करें तो फ़र्क़ कम-ज़्यादा पढ़े लिखे में इतना होगा कि यह काम पढ़ा-लिखा ज़रा परदे में करता है जब उसे कोई देख नहीं रहा है ..लेकिन करते सभी हैं.....लेकिन इन दो महीनों में दो-तीन बार जब कभी मुझ से ऐसी हरकत हुई तो मैं तुरंत बाथ-रूम की तरफ़ भागा हूं और उसी वक्त नाक और हाथ को अच्छे से साफ़ किया है ...असर तो ज़रूर होता है ...इसलिए सही जानकारी का भी पहुंचना बहुत ज़रूरी है ...एक बात है, पहले लोग जल-नेती वगैरह कर लिया करते थे ...नाक साफ रहती थी, अब मेरे जैसों को नहीं आता यह सब कुछ, सीखने की ख़्वाहिश ज़रूर है, ज़रूर सीखूंगा और किया भी करूंगा ..यह बिल्कुल वैज्ञानिक है ...लेकिन जब तक नहीं सीखते सुबह-शाम अच्छे से साबुन से हाथ धोकर नाक साफ़ कर लेने में ही समझदारी है ......आप का क्या ख्याल है, ऐसा नहीं कि मैं कह रहा हूं इसलिए समझदारी वाली बात ही होगी...आप अपनी समझ से चलिए.....जिस किसी से परामर्श करना है, करिए लेकिन छोटी छोटी बातें बेहद ज़रूरी हैं ....
डाक्टर हूं, हर वक्त सर्जीकल मास्क पहन कर घूम सकता हूं .....लेकिन ऐसा जानबूझ कर नहीं करता ....जब मरीज़ों के बीच नहीं होता हूं तो चेहर पर रूमाल इत्यादि ही बांध कर रखता हूं ....लोग जैसा हमें करते देखेंगे, वैसे ही वे भी करने लगते हैं ...लक्ष्य यही होना चाहिए कि लोग वैसे ही इतना ज़्यादा त्रस्त हैं इतने लंबे समय से ...उन्हें आसान सी बातें बताएं, उन्हें चक्करों में मत डालें ....किसी को भी चक्कर में डालना बहुत आसान है, लेकिन चक्करों के चक्रव्यूह से निकालने में थोड़ी मेहनत तो लगती है, ऐसी मेहनत करते रहना चाहिए...कोई भी चीज़ सीख कर तो कोई भी नहीं आता, जो बात हमें मालूम है, उसे बिल्कुल आसान शब्दों में दूसरों तक ज़रूर पहुंचाएं...हमारी बात में जितनी संप्रेष्णीयता होगी, उतना ही व असर करेगी..।
आज के लिए अभी के लिए इस डायरी को यहीं बंद कर रहा हूं... जाते जाते यह गाना सुनिए...
श्रमिक घर लौट रहे हैं ...जो रेलगाड़ियों से आ पा रहे हैं, उन्हें देख कर सुकून मिलता है ...और जो तस्वीरें हमने पिछले दिनों देखीं सड़क के रास्ते आने वाले श्रमिक जो हर तरह की दुश्वारी झेल कर- भूखे, प्यासे, बाल-बच्चों और बुज़ुर्ग मां-बाप के साथ, शिखर दोपहरी में रिक्शा पर, ठेलिया पर, नहीं तो पैदल ही गांव के रास्ते पर चल निकले हैं ....उन्हें देख कर मन दुःखी भी हुआ और बार बार उन के सही सलामत अपने अपने आशियाने तक पहुंचने की दुआ करता रहा।
ज़िंदगी ज़िंदाबाद ...👍
अभी कुछ समय पहले वाट्सएप पर देखा कि अपने जिस साथी की आज लखनऊ के चारबाग स्टेशन पर बाहर से आने वाले श्रमिकों की स्क्रिनिंग करने की ड्यूटी लगी थी ...उस ने कुछ तस्वीरें शेयर की थीं...उन में से एक फोटो को ध्यान से देखा तो ऐसे लगा जैसे एक श्रमिक थर्मल स्कैनिंग के वक़्त अपनी शेल्फी लेने के चक्कर में है ...। उसे देख कर मुझे कैसा लगा ? - उसे देख कर मुझे हंसी आई ....लेकिन यह हंसी किंचित भी किसी की हंसी उड़ाने वाली हंसी न थी, यह वह हंसी थी जो मुझे अकसर अपने ऊपर भी आ जाती है ...हां, तो मुझे उस श्रमिक की इस छोटी सी बात से यह अहसास हुआ कि हिंदोस्तान का आम आदमी भी कितना ज़िंदादिल है ...जैसा कि मेरे साथ होता है, मेरे से रहा नहीं गया....मैंने कुछ लिखा...वाट्सएप ग्रुप पर लेकिन उसे तुरंत पोंछ दिया...क्योंकि मुझे अधिकतर वाट्सएप ग्रुप्स पर कुछ ज़्यादा मज़ा आता नहीं ...बहुत से कारण हैं इसके, लेकिन यह मुद्दा नहीं है ..।
उस फोटो को ज़ूम कर के देखा ...मेरे से रहा नहीं गया, मैंने तुरंत उस डाक्टर को ही फोन मिलाया जिसने ये तस्वीरें भेजी थीं...मैंने उसे कहा कि भाई, ये जो बंदा अपनी शेल्फ़ी खींच रहा है, इस की ज़िंदादिली ने तो मेरे दिल को छू लिया ...पता नहीं बंदा कहां से आ रहा है, कहां जाना है, इस स्टेशन से आगे जाने का क्या ठिकाना है, रहने, खाने-पीने का शायद ही कोई ठौर-ठिकाना होगा...लेकिन इस शख़्स की ज़िंदादिली पर प्यार आ गया ...इन हालात में भी शेल्फ़ी लेने के चक्कर में है...। उस डाक्टर ने बताया- शेल्फ़ी कहां, वह तो वीडियो बना रहा था, उसे मेडीकल स्टॉफ को कहना पड़ा कि जल्दी आगे चलिए, भाई, भीड़ इक्ट्ठा हो रही है..
शेल्फ़ी लेने के बारे में बहुत सी बातें आती रहती हैं ...लेकिन मुझे कभी भी कोई बंदा शेल्फ़ी लेता आक्वर्ड नहीं लगा- भला ऐसा क्यों ? - उस का कारण मैं बाद में बताता हूं ...लेकिन अभी एक बात और याद आ गई कि हम लोग कुल्लू से मनीकरण गुरुद्वारा जा रहे थे ..जून 2007 की बात है ...इतनी खराब सड़क, भुरते हुए किनारे, नीचे ब्यास दरिया अपने उफ़ान पर ...यकीं मानिए, उस सड़क पर एक तरफ़ से ही जैसे गाड़ियां जा रही थीं, देख कर डर लग रहा था...ऐसे में दूसरी तरफ़ से आती गाड़ी देख कर तो क्या हालत होती होगी, हम लोग आज भी याद करते हैं तो कांप जाते हैं ...लेकिन फिर भी पहाड़ के एक्सपर्ट ड्राईवर कैसे कट-वट मार कर....एक दूसरे को रास्ते देते-लेते अपने ठिकानों की तरफ़ चले जा रहे थे ...लेकिन उस दिन के बाद मुझे कभी भी ट्रैफिक जाम से डर नहीं लगा .......जैसे मैंंने कहा न कि मुझे कभी भी कोई भी शेल्फ़ी लेता बंदा गलत नहीं लगता, अब नहीं लगता तो नहीं लगता, क्या करें......बस, मैं यह दुआ ज़रूर करता हूं कि आज कल के युवा रेलवे लाइनों पर और ख़तरनाक पहाड़ियों पर खड़े होकर शेल्फी न खिंचवाया करें....
मेरे घर आई इक नन्हीं परी ...रेलगाड़ी पर हो के सवार !!
कल भी जिस डाक्टर की ड्यूटी थी उसने भी एक श्रमिक की पत्नी की डिलीवरी के बारे में लिखा था ...साथ में उस प्यारी सी बच्ची की फोटो भी थी...ऐसे हालात में उस परी ने इस दुनिया में आंखें खोली थीं ...जच्चा-बच्चा को अग्रिम देखभाल के लिए लखनऊ के दूसरे अस्पताल में उन्हें तुरंत रेफर भी कर दिया गया था ...यह तस्वीर दिखाई दी तो इस परी की अच्छी सेहत की दुआ की और अपने मां-बाप के साथ सही सलामत अपने घर पहुंचने की प्रार्थना की ..
बस, ऐसे ही यह लिखने बैठ गया .... आम आदमी की ज़िंदादिली को सलाम करने के लिए....कभी भी देखिए, मैंने तो बहुत कुछ देखा है, देख देख कर बुड्ढा हो गया हूं कि आम इंसान को जितनी दुश्वारी होती है उन्हें उतनी ही कम शिकायत होती है किसी भी व्यवस्था से ....मैं अकसर यह सोच कर बहुत हंसी आती है कि जैसे जैसे रेल गाड़ी की यात्रा का दर्जा बढ़ने लगता है ...शिकायतों उन की ही सब से ज़्यादा होती हैं ...कभी आप भी इस तरफ़ गौर फरमाईएगा..
अनुपम खेर की एक फिल्म आई थी ..ए वेडनेसडे ---अच्छी फिल्म थी ...एक डॉयलाग था उसमें - never underestimate the power of a poor bloody common man! आम आदमी के साथ मैं कोई विशेषण नहीं लगा रहा हूं ....क्योंकि मैं समझता हूं कि जिन्हें हम श्रमिक कहते हैं, आम जन कहते हैं ....यह भी बहुत ज़हीन होते हैं ...और ज़िंदादिल भी .... वो बात अलग है कि रोज़ी-रोटी के लिए इन्हें अपने गांव-कसबे को छोड़ कर दर-बदर भटकना पड़ता है ...और बड़े शहरों में इन श्रमिकों के साथ जैसा व्यवहार होता है ... वे किन हालात में वहां गुज़र-बसर करते हैं ...सामाजिक सुरक्षा नाम की कोई चीज़ नहीं होती इन के पास.... यह सब हम जानते ही हैं......इस सब के बावजूद भी अगर इन में से कुछ लोग अपनी ज़िंदादिली कायम रख पाते हैं तो उन के इस जज़्बे को सलाम करना तो बनता है ......है कि नहीं!
हिन्दुस्तान दिनांक 25 मई 2020, लखनऊ
और हांं, मैंने ऊपर लिखा है कि दो अढ़ाई बरस पहले मेरी मां जब हम से रूख़सत हुई तो मैं और उस के पोते उन के पार्थिव शरीर के साथ शेल्फ़ी ले रहे थे ...इसलिए उस दिन के बाद मुझे कभी भी कहीं भी कोई भी शेल्फ़ी लेता अजीब नहीं लगता ... (बस, वह अपनी सुरक्षा का ध्यान रख रहा हो..) ...अच्छा, एक बार फिर से दुआ करते हैं कि सभी श्रमिक सही सलामत अपने अपने ठिकाने पर पहुंच जाएं और इन्हें अपने गांव, खेत-खलिहान से ही इतना कुछ मिल जाया करे कि इन्हें अपना घर-बार छोड़ कर दर-बदर भटकना ही न पडे़ कभी ..........आमीन......आज ईद है, काश! यह दुआ भी कुबूल हो जाए!
बचपन के दौर का सब से पहला गीत जो मुझे अकसर याद आता है ...(रेडियो पर खूब बजता था यह)
वाट्सएप पर हम जिन लोगों से जुड़े होते हैं ... अकसर उन का मिज़ाज भी अच्छे से समझने लगते हैं ....कुछ का तो जैसे काम ही सनसनी फैलाना होता है ...और ख़्याल आता है उन की पोस्टें देख कर कि ख़बरिया चैनलों से भी ज़्यादा तेज़ी से तो ये सनसनी फैला रहे हैं ...कईं बार आपने देखा होगा कि चैनल वाले तो फिर भी कुछ तस्वीरें नहीं दिखाते और साथ में कह देते हैं कि ये तस्वीरें आप को विचलित कर सकती हैं ..लेकिन वाट्स पर तो बाप-रे-बाप -इतना ज्ञान, इतनी खौफ़नाक तस्वीरें ...बच्चे, बुज़ुर्ग सभी देखते हैं ..सहम जाते हैं ...आप और मैं जितना मर्ज़ी सोच लीजिए इस का कुछ नहीं कर सकते ...ये आत्म-संयम का मामला है ...और हर किसी की मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा हुआ मुद्दा है ...
हां, तो हुआ यूं कि इसी महीने की शुरुआत के दिनों की ही बात होगी ...एक डाक्टर ने किसी ग्रुप में एक पोस्ट शेयर की जिसमें लिखा था कि अब जितना भी सामान आप के पास है, उसी से ही काम चलाएं ...बाहर न निकलें ..अगले एक हफ्ते का वक्त बड़ा निर्णायक हैै ...क्योंकि कोरोना का वॉयरस हर तरफ़ हवा में फैल चुका है ..।
एक बडे़ सीनियर डाक्टर की यह पोस्ट देख कर मुझे ऐसा लगा कि शायद इसे पहले भी मार्च के आखिरी दिनों में कहीं देखा होगा ..लेकिन फिर लगा कि मुझे ऐसे ही लग रहा होगा...वाट्सएप माल के ढ़ेरों पार्सल तो रोज़ाना पहुंचते हैं ...लेकिन उस पोस्ट को पढ़ कर मुझे बड़ी फ़िक्र हुई .....जिस वक्त मैंने यह पोस्ट पढ़ी उस वक्त यही कोई रात के साढ़े नौ बजे थे ...लेकिन यकीं मानिए उसे पढ़ कर मेरा मन बहुत उदास हो गया .......और मैंने चादर तानी और लमलेट हो गया..। मैं इस पोस्ट पर इतना यकीं कर बैठा क्योंकि यह एक सीनियर डाक्टर ने भेजी थी...
सुबह उठते ही जैसा हम सब लोग मोबाइल देवता के दर्शन करते हैं ...मैंने जैसे ही वाट्सएप खोला तो मुझे उस पोस्ट के जवाब में एक पोस्ट दिखी किसी दूसरे डाक्टर की जिसने उस पोस्ट के जवाब में लिखा हुआ था कि यह तो पोस्ट 26 मार्च की थी ...मैंने पहले ही आप को बताया कि शक तो मुझे भी था .. 😅....बहरहाल, उस डाक्टर का जवाब पढ़ कर मेरी तो भई जान में जान आई ..क्योंकि हर तरफ़ हवा में वॉयरस होने का मतलब बड़ा खौफ़नाक होता है .. ज़ाहिर है यह एक फ़र्ज़ी क़िस्म की पोस्ट थी। हो जाता है, हम से किसी से भी कभी भी ऐसे अचानक शेयर अथवा फारवर्ड हो ही जाता है, कोई बड़ी बात नहीं है।
मैं आज इतने दिनों बाद यह सब क्यों लिखने बैठ गया ....अच्छा तो हुआ यूं कि आज संयोगवश हमने एक पोस्ट देखी ... यही वाट्सएप पर ही थी ...बंबई में कोई सीनियर डाक्टर ने हम लोगों को यह ताक़ीद की थी कि वाट्सएप पर कुछ भी ठेलने से पहले अच्छे से उसके बारे में सोच समझ लिया करें - अभी मैं उस आर्टीकल यहां ही चस्पा किए दे रहा हूं ..इंगलिश में है, आप अगर पूरा पढ़ना चाहें ...उन्होंने लिखा कि पिछले दिनों सायन हास्पीटल मुंबई में कोरोना की वजह से जिन लोगों की तकलीफ़ें वाट्सएप पर दिखाई गईं ....उन को देखने पर उन्हें कुछ 54 साल पुरानी बातें अपने बचपन की याद आ गईं ...वह 13-14 बरस के थे ...1967 की बात है ..उन का गला दुखने लगा ...घर में सब ने कहा कि कोई बात नहीं, सब ठीक है ...लेकिन उन की मां को लगा कि नहीं कुछ तो गढ़बढ़ है ...वे बालक को लेकर डाक्टर के पास गईं ..लेकिन यह कोई आम रोग नहीं था ...जिस की दवाई देकर मरीज़ को घर भेज दिया जाता ...यह तो डिप्थीरिया (गल घोंटू) रोग था ...जो एक बेहद संक्रामक (संचारी) रोग था ...इस के ग्रस्त होने वालों की मौत बड़ी पीड़ा दायक होती थी ... उन दिनों इस का टीका अभी नहीं आया था...
वह डा्क्टर अपने ब्लॉग में लिखता है कि उसे फ़ौरन एक आइसोलेशन वार्ड में भर्ती कर दिया गया....किसी को अंदर आने की इजाज़त नहीं थी ...मां भी बाहर ही से देखने को तरस जाती कि मैं ठीक तो हूं ...डाक्टर लिखता है कि मेरी उम्र तेरह बरस होेने की वजह से मुझे बडे़ लोगों के वार्ड में ही रखा गया ...जहां मैंने बड़ा दुःख देखा ...एक दिन मेरे साथ वाले बिस्तर वाला मरीज़ चल बसा ...मुझे यह पता चला कि किस तरह से मृत-मरीज़ के शरीर को उन के परिजनों को सौंपने से पहले कितने और मुद्दे होते है ं...फिर वह डाक्टर लिखता है कि मैं दो दिन कोमा में रहा ..दो दिन बाद जब मैं सुबह उठ पाया तो मैंने ईश्वर का शुक्र किया कि मैं उठ तो पाया ... ऐसे ही फिर उस आइसोलेशन वार्ड में जब तक उस के बाहर आने का दिन नहीं आया वह डाक्टरों और नर्सों की मदद करने लगाा ...किसी मरीज़ को दवाई और किसी को खाना देने लगा ...लंबी बात को छोटी करूं तो यह है कि उस के मन में डाक्टर बनने के लिए एक इच्छा पैदा हो गई ...
जब वह बिल्कलु ठीक हो गया और जिस दिन घर आया तो मां ने उस की पसंद का खाना उसे ठूंस ठूंस कर खिलाया ...उसने मां से कहा कि मैं भी डाक्टर बनूंगा... हां, फिर वह डाक्टर कहता है कि ज़िंदगी में यह ऐसा मोड़ था जिस की वजह से वह डाक्टर बन गया और वह निरंतर रोगियों की सेवा में लगा हुआ है ...डिटेल्स आप उस लेख में पढ़ लीजिए.... I am a Doctor in Mumbai ..please forward and receive whatsapp with care!(Click on this to read)
हिंदी में तो मेरे से जैसा लिखा गया, मैंने लिख दिया ......बाकी आप इस लिंक पर जा कर पढ़ लीजिए......वह लिखता है कि उसे यह भी मालूम हुआ बचपन में उस बीमारी के दौरान ही कि क्यों कर लोग आइसोलेशन-वार्ड आदि के नाम से भागते हैं ...लेकिन अगर वह आप के और दूसरों के हित में हो तो करना ही पड़ता है ......उस का पैग़ाम यही है कि जब किसी अस्पताल में शवों की तस्वीरें दिखाई जाती हैं आज के सोशल-मीडिया पर तो यह बात भी याद रखने की है कि ये अस्पताल इंसानियत के वो मंदिर-मस्जिद हैं (पता नहीं यह लिखा है कि नहीं उसने ....चलिए, अगर मैं जोड़ भी रहा हूं तो अच्छी बात ही है..) ...जहां से बहुत से लोग दूसरी ज़िंदगी का तोहफ़ा लेकर फिर से अपने आशियाने में अपनों के बीच भी लौटते हैं ..जैसा कि वह ख़ुद लौटा ...जीवन दान पाते हैं ...उन दयालु-कृपालु डाक्टरों की कृपा से ...
मुझे डाक्टर की बात सुंदर लगी इस लिए सोचा हिंदी में लिख कर शेयर करते हैं ....
हां, वाट्सएप पर शेयर बहुत कुछ हो रहा है ...अब सोच रहा हूं इतने ज़्यादा कंटैंट आने लगा ...किस को पढ़ें, किस को छोड़ें ....दो चार दिन पहले एक आदमी ने घर ही में अपनी हजामत करते हुए की एक वीडियो डाल दी ....उसे कईं ग्रुप्स में देखा ....हमें तो देख कर ही सहम गये ...हम तो ये सब कहां ट्राई करेंगे ......लेकिन देखने में ही लगे कि अगर कोई ऐसी चीज़ें ट्राई करने लगे और वह अपने आप को कोई गंभीर चोट लगवा बैठे तो आप किसे दोष देंगे ..
यह वक़्त इस तरह के ख़तरों के खेल खेलने का तो नहीं है, अगर कुछ भी ऊंच-नीच हो जाए तो क्या करेंगे....चिकित्सा सेवाओं पर वैसे ही तरह तरह की पाबंदीयां हैं ...
वाट्सएप भी अजीब चीज़ है....मेरा तो मन भर चुका है इस से भी ...न्यूज़-चैनल हो या टीवी ...अब देखने की इच्छा ही नहीं होती ...कितना लंबा अरसा हो गया है ...पिछले 60 दिनों में मुझे नहीं लगता कि मैंने कभी किसी खबरिया चैनल को देखा हो ....हां, दो चार बार एनडीटीवी इंडिया लगा देखा तो पांच दस मिनट ज़रूर देखने लगा ...लेकिन वाट्सएप पर अब सामान बहुत आने लगा है ,..दरअसल कोई पता ही नहीं कौन किसे कैसी नसीहत दे रहा है, क्यों दे रहा है....कल मुझे बड़ी हंसी आई -एक ग्रुप में एक मेडीकल ज्ञान से जुड़ा एक लेख सा था ...अच्छा लगा ...मैंने देखा तो वह हमारे अस्पताल का ही एक अटैंडेंट हमें ज्ञान बांट कर चला गया....मुझे वह सोच कर बड़ी हंसी आई। वैसे तो ज्ञान कहीं से आए उस का स्वागत होना चाहिए...लेकिन फिर भी ....आप समझते ही हैं कि अगर किसी विषय़ के बारे में हमारी कोई शैक्षित योग्यता इत्यादि ही नहीं है तो इस शेयरिंग-वेयरिंग के चक्कर में पड़ा ही क्यों जाए..
बड़ी जल्दी होती है हम लोगों को आगे से आगे बातें शेयर करने की .......लेकिन कोशिश करिए कि थोड़ा देख-जांच के ...कोई रेस नहीं लगी हुई ...ग्रुप में जब कोई किसी को मुबारक बाद देने लगे तो बड़ी सिरदर्दी लगती है ..क्योंकि अगले 100 मैसेज --पहले 50 उस को मुबारक बाद देने वालों को और फिर उस के अगले 50 उन का शु्क्रिया अदा करने वाले मैसेज ...सजा लगती है ऐसे 100 मैसेज पढ़ना ...आप फोन उठाइए, उसे मुबारकबाद दीजिए...उस से पार्टी लेने की तारीख़ तय कीजिए...कुछ भी करिए.
सारा दिन कोरोना ..कोरोना ..कोरोना ...आंकड़े ...आंकडे़ ....आंकड़े ---अब यह दर इतनी फ़ीसदी हुई और अब इतनी फ़ीसदी हुई ...यह दर घट गई और यह बढ़ गई...सच दिमाग का दही बन जाता है ...अब तो मैं बहुत से ग्रुप्स में जाता ही नहीं हूं रोज़ ---कभी फ़ुर्सत हुई तो देख लिया...
हां, एक बात ...पहले यह भी चलन था कि लोग अपनी बगिया के फूलों की तस्वीरें शेयर करते थे वाट्सएप पर ....सुबह सुबह ...अच्छा लगता था...कोई सुबह के नैसर्गिक नज़ारे की तस्वीर भेजता था ....मुझे हमेशा ऐसे लगता है कि जो भी भेजिए...मौलिक भेजिए -- चाहे दो अल्फ़ाज़ ही लिखिए ..लेकिन ख़ुद लिखिए...उन्हें पढ़ने में ही मज़ा आता है .... वैसे देखा जाए तो इस वाट्सएप में ऐसा पोटैंशियल है कि यह हमें एक तरह से ख़तो-किताबत की सुविधा मुहैया करवा रहा है ...और उस से भी बढ़ कर उस में हम फोटो भी चिपका दें, वीडियो भी नत्थी कर दें, वीडियो कॉल करें, ऑडियो नोट भेजें ...कुछ भी ... सोचने वाली बात यह है कि क्या हम वाट्सएप का पुरा इस्तेमाल कर भी पा रहे हैं?
मुझे तो कुछ बात अगर नहीं सूझती तो मैं तो साठ-सत्तर के दशक को कोई गाना या कोई नया सा, बढ़िया सा GIF ही चिपका कर भाग लेता हूं ...
कल बाद दोपहर मैं फल खरीदने के लिए सड़क किनारे लगी एक रेहड़ी के पास रूका. वहां पर पहले से एक दंपति फल ख़रीद रहे थे ..मैं थोड़ा दूर खड़ा हो गया...मैंने देखा कि उन्होंने तो मॉस्क के नाम पर कुछ पहना तो हुआ है ...लेकिन उस फल वाले ने अपना मुंह नहीं ढका है ..मैंने उसे कहा कि मुंह ढके रखो...उसने झट से अपने पास ही पड़े गमछे को उठाया और यह कहते हुए कि अभी तो लगाया हुआ था ...उसने वह मैला-कुचैला कपड़ा अपने मुंह पर टिका लिया ...।
पिछले कुछ दिनों में कईं बार देखा है गुटखा, पान आदि चबाते लोग अपने मुंह पर लगी काली पट्टी नुमा लगे मास्क के इलास्टिक को थोड़ा इधर-उधर करते हैं, पीक थूकते हैं और वापिस उस मास्क को मुंह पर सेट कर के मुतमईंन हो लेते हैं...मेरा एक मित्र हंसते हंसते लोटपोट हो रहा था जब वह अपने दफ़्तर का किस्सा सुना रहा था कि वहां पर अंदर जाते वक्त किसी तरह की सोशल-डिस्टेंसिंग का पालन नहीं हो रहा था ..एक बात ...दूसरी बात जो उसे बड़ी अजीब लगी कि हर आने वाले शख़्स का दूर से तापमान देखने वाला कर्मचारी बीच बीच में मोबाइल पर बतियाए जा रहा था ....मुंह में पता नहीं सुपारी जैसा कुछ चबाए भी जा रहा था, दूसरे हाथ से एक मंजे हुए वैज्ञानिक की तरह लोगों को तापमान मापे भी जा रहा था...और खास बात यह कि अपना मॉस्क भी ऊपर-नीचे किए जा रहा था ..और मित्र ने बताया कि अपनी और दूसरों की सुरक्षा का इतना ढुल-मुल रवैया रखते हुए भी कोरोना-वारियर वाला चोगा उसने पूरा चढ़ाया हुआ था।
दफ़्तर के अंदर जाने वाले किसी शख़्स से वह मुलाज़िम उलझ गया कि मुझे क्या पता कि तुम पैरासिटामोल खा कर आए हो ....अब वॉटसएप ने हरेक को इतना पढ़ा लिखा तो बना ही दिया है कि सामने से वह आदमी बोला कि ये जिन लोगों को अंदर घुसने दे रहे हो, तुम्हें क्या पता कि इनमें से कितने लोग घर से पैरासिटामोल खा कर आए हैं...।दोस्त कहने लगा कि यह जो हम लोग डिस्क्रिशन पॉवर का बडा हो-हल्ला मचाए रहते हैं न - यह भी फ़क़त बड़े साब लोगों की ही नहीं होती, ये हर इंसान के पास होती है ...अब यही इंसान की सुनिए, अगर फोन पर बात करते वक्त हो गई कुछ गर्मा-गर्मी तो सारा कानून, खुन्नस अगले इंसान पर कि तुम्हें मास्क लगाना भी नहीं आता और अगर मूड है खुशनुमा तो कोई बात ही नहीं, बीच बीच में "जान पहचान वाले" एक दो लोग अकड़ कर सीधे घुसे जाते भी दिख जाते हैं...
और उस मित्र ने बताया कि दफ़्तर के अंदर जाने से पहले पैर से आप्रेट होने वाली हाथ धोने की और टूटी जिस के साथ ली गई बीसियों शेल्फ़ीयां वॉयरल हो गईं थीं, आज उस का पैर से दबाने वाला हिस्सा चालू ही नहीं हो रहा था ...हंसते हंसते कहने लगा कि चलो यार उस का भी कोई ग़म नहीं क्योंकि उस पानी की ज़रूरत तो तभी पड़ती जब हाथ धोने वाला लिक्विड-सोप हाथ पर लगाया होता ....लेकिन उसे तसल्ली इस बात की हुई कि लिक्विड-सोप ख़त्म हो चुका है, अलबत्ता उस का डिलीवरी सिस्टम बिल्कुल काम कर रहा था ...चलिए, हाथ-धुले, नहीं धुले उस टेम्परेचर चैक करने वाले मुलाज़िम वाले नाके से भी पास हो गये ...तभी एक दूसरा मुलाज़िम दफ़्तर के अंदर घुसने वाले हर शख़्स की हथेली पर चंद बूंदे सेनेटाईज़र की रख रहा है ...
जी हां, यह आज कल दफ़्तर में या किसी अस्पताल के बाहर भी ऐसा नज़ारा देखने को मिले तो चौंकिए नहीं -- कुछ बातें दुरुस्त करने की ज़रूरत है हम जानते हैं लेेकिन बहुत सी बातें इन दफ़्तरों के बस की हैं भी नहीं और शायद हो भी नहीं सकती ...कह देना बहुत आसान है कि हर आने जाने वाले को फेस-मास्क दिया जाएगा ...सेनेटाईज़र से उस के हाथ सेनेटाईज़ किए जाएंगे ...ये सब बातें पढ़ने-सुनने और देखने में आदर्श तो लगती हैं लेकिन जब तक हर शख़्स अपनी सुरक्षा का जिम्मा ख़ुद नहीं लेगा, बहुत मुश्किल है कुछ भी कर पाना। चलिए, यह एमरजैंसी है, शायद आम आदमी को नसीहत की मुग़ली-घुट्टी पिलाने का मौका भी नहीं है, इसलिए जैसी व्यवस्था चल रही है, जो मुहैया करवाया जा रहा है उसे स्वीकार करिए और अपनी भी ज़िम्मेदारी समझिए...
बहुत से बुज़ुर्ग लोगों को भी देखता हूं - घर में तैयार हुए कपड़े के मॉस्क अच्छे से मुंह पर लगाए निकलते हैं...मंद रफ्तार से सोशल डिस्टेंसिंग का पूरा ख़्याल रखते हुए अपनी खरीदारी करते हैं और आराम से अपने आशियाने के लिए पैदल या साईकिल पर इन्हें लौटते देखता हूं ...अच्छा लगता है कि ये अपना ख़्याल रखते हैं ...बाकी रही बात बाहर इन के साथ गुफ़्तगू करने वाले लोग -- हम जितने मर्जी़ जहां भर के आडंबर कर लें लेकिन कटु सत्य यह है कि हमारी आबादी का यह हिस्सा अकेला था और अकेला ही है ...ख़ैर, जो है सो है....अभी तो कोरोना को धोने की बात हो रही है, यह कहां मैं बागबान की तरफ़ निकल गया...
आगे चलते हैं ...चलते क्या हैं, पहले तो यह बता दूं कि मैंं आज मैं इत्ती सवेरे कैसे उठा बैठा हूं ....इस समय सवा चार बजे हैं, मैं तीन बजे से उठा हुआ हूं ...क्योंकि रात होते ही मच्छरों के आतंक की वजह से मैं सोने के नाम से खौफ़ खाने लग गया हूं ...लखनऊ की शायद सब से साफ़ सुथरी कालोनी में रहते हैं ...एक पत्ता भी नीचे गिरा नज़र नहीं आता ...लेकिन फिर भी मच्छर इतने हैं ...मच्छरदानी, ऑल-आउट, ऑडोमास और वह जो इंस्टैंट-मच्छर मार टिकिया आने लगी है ....ये सब एक साथ इस्तेमाल होते हैं लेकिन फिर भी हालत ऐसी है कि मैं कल बेटे को कह रहा था कि ऐसा कुछ नहीं हो सकता है कि हम लोग रात में काम करें और सुबह सोते रहें ......वह कहने लगा कि यही तो मैं कहता हूं, लेकिन जब मैं कहता हूं तो आप को ठीक नहीं लगता ...मैंने कहा कि तुम तो भाई नेट-फ्लिक्स के चक्कर में कहते हो ...
हां, मच्छर गुणगान यह इसलिए चल पडा़ कि गुज़रे दौर में यह भी किसी के रूतबे का एक इंडिकेटर हुआ करता था कि उस की कॉलोनी में कीटनाशक दवाई का छिड़काव या फॉोगिंग कितने अंतराल के बाद होती है ..पंजाबी में एक बड़ी मशहूर कहावत है कि किसी का मत्था ढमना --- इस का मतलब यह है कि किसी के लिए दिखावटी उपाय कर देना ...इसी तर्ज़ पर बरस में एक बार इस तरह का छिड़काव भी हो जाता रहा है यहां वहां ...जहां पर यह करना ज़रूरी होता है ..ज़रूरी का मतलब आप ख़ुद समझ लीजिए...यह तो थी मच्छर की बातें .....बातें तो अब करनी हैं कोरोना की .....कल मैंने अपने फ्लैट की बालकनी से देखा कालोनी में एक पानी के टैंकर जैसी गाड़ी घुसी और उस पर कुछ स्प्रे करने वाला कुछ यंत्र लगा हुआ था ...और यह सड़कों पर और कॉलोनी के पेड़ों और बेलों पर छिड़काव किए जा रहा था ...एक बार तो मुझे लगा कि.. दो महीने में एक बार इस तरह के छिड़काव से भला क्या होगा....लेकिन और कुछ होगा कि नहीं होगा ...किसी की छवि तो चमकेगी क्योंकि रात होते होते कॉलोनी वाले वाटसएप ग्रुप पर कॉलोनी के उस शख़्स का शुक्रिया अदा करने वाले का तांता लग जाता अगर कॉलोनी के सैक्रेटरी ने उस ग्रुप को वन-वे ट्रैफिक न किया होता ....क्योंकि उसमें केवल हम उस के भेजे मैसेज पढ सकते हैं ....
गुड मार्निंग, लखनऊ ....
हां, तो यह जो संभावित सोडियम-हाइपोक्लोराइट के छिड़काव की बात है ....बात अच्छी है या बुरी, मैं यह भी नहीं जानता, क्योंकि विभिन्न सार्वजनिक जगहों पर तो जब लोगों के ऊपर इस तरह का छिड़काव कुछ दिन पहले किया गया तो मीडिया में इसकी बहुत आलोचना हुई कि यह आप लोग क्या कर रहे हैं, इस तो आम लोगों को नुकसान हो रहा है ....और कॉलोनी जैसे बडे़ इलाके में इस तरह का छिड़काव ख़ुश करने का फ़क़त एक ज़रिया बेशक हो सकता है ...और कुछ नहीं ...क्या हमें लगता है कि अमेरिका के पास धन-वैभव की कमी है .....और अगर इन सब चीज़ों से कुछ ज़्यादा लाभ होने वाला होता तो क्या वह कम करता ...इसलिए अब हम लोग भी ख़ुश करने वाली मानसिकता से, या चुप करवाने वाली या मुंह बंद रखवाने वाली गुलामों वाली मानसिकता से बाहर निकलें जितनी हो सके उस से भी जल्दी तो बेहतर होगा .....हर बात का औचित्य ख़ुद ढूंढें ...यह कोई बताने नहीं आएगा ...क्योंकि अभी भी मार्कीट शक्तियां बड़ी हावी हैं ...हैरानगी तो इस बात की है कि इस कोरोना के दौर में भी ... इसलिए सच ख़ुद तलाशना होगा और जब कहीं मिल जाए तो उसे कम से कम उन लोगों के साथ तो ज़रूर बांटिए जिन के पास वाट्सएप नहीं है, और जो आसानी से आप की बात पर यकीं भी कर लेंगे क्योंकि सोशल-मीडिया से जुड़े लोगों को सचेत करने के लिए तो दुनिया भर के संदेशे हैं...वे देर-सवेर अपना सच ख़ुद ही ढूंढ लेंगे ..उन की रिसर्च अलग तरह की है ..
हम लोग अस्पताल से ड्यूटी कर के आते हैं तो यकीं मानिए ऐसे लगने लग गया है जैसे पता नहीं कहां से हो आए हैं...सीधा बाथ-रूम का रुख करते हैं ...हाथ अच्छे से धोते हैं ....मुंह धोते हैं ...फिर कपड़े बदलते हैं, उतारे हुए कपड़े बाहर बालकनी की तार पर ही छोड़ देते हैं ताकि अगर कोरोना के कीटाणु उन पर चिपके हैं तो वे मर जाएं ... फिर अपने जूते को भी बालकनी में ही छोड़ देते हैं ताकि उसे धूप-हवा लगे ...अपने मॉस्क को उतार कर एक पन्नी में रखते हैं क्योंकि चार-पांच दिन बाद उस का नंबर आएगा ....फिर मोबाइल को सेनेटाइज़ करते हैं ....इतना सब कुछ करते करते थक जाते हैं ...प्यास लग जाती है ...झल्लाहट होती है कि कमबख़्त यह सब कब ख़त्म होगा, हम लोग कब चैन की सांस लेंगे ..और हां, फिर हाथ में जो भी कागज़, चाभी या कोई सामान जो बाहर से लेकर घर में अंदर घुसे थे...फिर शक की सूई उस पर जा टिकती है ....लेकिन जब तक दिमाग़ का दही बन चुका होता है ...और चुपचाप सोफे पर पसर जाते हैं ...
लेकिन यह क्या , जैसे ही सैनेटाईज़्ड मोबाइल को हाथ में लिया ....और वाट्रसएप देवता के दर्शन किए ...उसी वक्त ख़्याल आया कि यह सेनेटाईज़र से एक तरह की ओबसैशन के चलते अभी भी हम लोग अपनी सोच को तो सेनेटाईज़ कर ही नहीं पाए ... वही ज़हनियत ...बस, फ़र्क़ इतना कि अब जिम खुल नहीं रहे, बाहर टहलने में भी रोका टोकी है, ऐसे में सोशल-मीडिया पर ही कोई धार्मिक पोस्ट उछाल कर वहीं पर थोडी़ दिमाग़ी कसरत ही क्यों न कर ली जाए.......कल भी यही हुआ ......अच्छे पढ़े -लिखों के ग्रुप में किसी ने एक वीडियो डाल दी ..जिसमें किसी प्राईव्हेट अस्पताल के किसी कर्मचारी ने किसी मरीज़ से पूछ लिया कि उस का मज़हब क्या है......ज़ाहिर सी बात है वह शख़्स भड़क गया ...बात वहां के प्रशासन तक पहुंची तो वीडियो में दिखाया गया कि वे कहने लगे कि ऐसी बात नहीं है कि यहां पर किसी एक धर्म के लोगों का ही इलाज होता है ....यह तो पागल है ...वह बंदा कहने लगा कि अगर पागल है तो अस्पताल में क्या कर रहा है, इसे पाग़लख़ाने में भर्ती करवाओ......
जैसे ही किसी ने यह वीडियो शेयर की .....क्या पता फेक है, असली है ....आजकल हर दूसरी वीडियो तो अगले दिन फेक साबिर हो रही है --ऐसे में किस पर यकीं करें किस पर न, यह भी एक सिरर्दी तो है, लेकिन हमारी ख़ुद की मोल ली हुई क्योंकि हम ही तो हर वक़्त सोशल मीडिया की कालिख वाली कोठरी में घुसे रहते हैं ...जहां पर अधिकतर एजैंडे पर काम चल रहा होता है .. कोई अपनी छवि चमकाने की फ़िराक में है तो कईंयों ने केवल नफ़रत फैलाने का काम अपने जिम्मे लिया होता है ...कोई सनसनी फैला रहा है तो कोई कुछ और । हां, उस अस्पताल वाली वीडियो के शेयर होते ही उस ग्रुप पर दो धडे़ बन गए ...एक बार तो मन किया कि देशप्रेमी फिल्म का अमिताभ पर फिल्माया गये उस गीत के यू-टयूब लिंक ही छोड़ दूं --नफ़रत की लाठी तोड़ो ....मेरे देश-प्रेेमियो ...
दस साल पुरानी अपनी यह फोटो देख कर सोचता हूं कि दस साल में बंदा कितना बुड्ढा दिखने लगता है 😂😂
अच्छा, दोस्तो, अब सुबह हो गई है ...आप को अपनी बालकनी से इस के दीदार करवाते हैं ......बात मेरी अभी अधूरी है- कोरोना को धोेने की बातें तो अधूरी ही रह गई हैं ...बेशक जो लोग संभावित कोविड-19 के मरीज़ों के सामने कोरोनो की आंख में आंख डाल कर डटे हुए हैं, उन सब को सफ़ाईकर्मी से लेकर सुपर-स्पैशलिस्ट तक सभी को ...मेरा दंडवत नमन ...और बाकी के लोग जो बाहर सड़कों पर प्रशासन के बार बार आगाह किए जाने के बावजूद बिना मास्क पहने या सोशल-डिस्टेंसिंग से बेपरवाह आंख-मिचौनी खेल रहे हैं ....और महंगे सेनेटाइज़र को ही संजीवनी बूटी समझने की हिमाकत कर रहे हैं, उन के लिए यही संदेश है कि इस वक्त कोरोना के इस दौर में ऐसे ही मज़हब के खेल मत खेलिए......सामने वाले हर शख़्स को कोरोना का संभावित मरीज़ शायद न भी सही , कम से कम इस ख़तरनाक वॉयरस का वाहक तो समझ ही सकते हैें ......लेकिन, इस चक्कर में किसी के भी साथ कोई भेदभाव के चक्कर में मत पड़िए, इस का मज़हब से कोई लेना देना नहीं.....बस, कुछ छोटी छोटी बातों का ख़्याल रखिए.....जिसे मेडीकल भाषा में कहते हैं यूनिवर्सल प्रिकाशंज़ (हरेक द्वारा बरतने योग्य सावधानीयां) ..
और जहां तक बात है कोरोना को धोने-धुलवाने की .......उस बात पर फिर अमिताभ की वह 40 साल पुरानी बार बार देखी फिल्म लावारिस का वह गीत याद आ गया जिस में एक जगह वह फिल्म की नायिका से पूछता है कि पैसे से तुम भला क्या क्या खरीदोगे ........लेकिन मैं अपने आप से पूछ रहा हूं कि कोरोना के चक्कर में दिन भर में क्या क्या, कब तक, किस किस चीज़ से, कितनी कितनी बार धुलते रहेंगे .......आप भी सोच तो यही रहे होंगे .....लेकिन अब सोचना बंद करिए और यह गीत सुनिए ...कालेज के उन दिनों में इस तरह के गीत हमारे दिलो-दिमाग पर छाए रहते थे .....अभी तो हैं वैसे तो .....अमिताभ ने ही अपने फ़न से दुनिया की बड़ी ख़िदमत की है ....आप गीत सुनिए .....(काश, इस वक्त मैं आप को दिखा पाता कि मेरे शरीर मच्छरों के काटने के कितने निशान हैं .....मैं अकसर घर में कहता हूं कि अगर इस तरह की कालोनी में मच्छरों की यह मार है तो बाहर क्या हाल होगा ......लेकिन बात वही है, हम लोग आइसोलेटेड नहीं रह सकते, तस्वीर में आपने कॉलोनी की सफ़ाई तो देख ली है ..लेकिन इस की बांउड्री के बाहर वही खुले नाले हैं , वहीं थोड़ी दूर गंदगी के अंबार है ......इसलिए, जब सभी को साफ़-सफ़ाई वाला माहौल मयस्सर होगा तभी हम सब मच्छरों के आंतक की चिंता किए बग़ैर चैन की नींद सो पाएंगे ....वरना यूं ही चलता रहेगा ...!!.... ठीक उसी तरह कोरोना से बचने का भी बिल्कुल सीधा सा मंत्र है कि सभी सुरक्षित रहेंगे तो हम भी सुरक्षित रहेंगे ....बिल्कुल पंजाबी की उस बेमिसाल कहावत जैसे ...कर भला, हो भला......तेरे भाने सरबत दा भला!
अच्छा जी, अपना बहुत सारा ख़्याल रखिए...कोरोना की धुलाई की बाकी बातें अगली पोस्ट में करेंगे...
आज स्कूल वाले ग्रुप में हम सब ने बहुत मगज़मारी की -अमृतसर के सिनेमा घरों के नाम याद करने के चक्कर में पड़े रहे...कल से मन दुःखी है, कल इरफ़ान खान चला गया...आज जब एक स्कूल के साथी ने ऋषि कपूर की रुख्सती की ख़बर बताई तो बहुत बुरा लगा ...मैंने ऐसे ही लिखा कि ऋषि कपूर की तो बहुत सी फ़िल्में हम लोगों ने इन थियेटरों में ही देखीं...मैंने कुछ थियेटरों के नाम गिनाए....अचानक मुझे एक थियेटर का नाम भूल गया जो ऊंचे पुल के नीचे हुआ करता था...बस, वहां से ऐसा सिलसिला चला - शायद डेढ़-दो घंटे --बीच बीच में ऑडियो मैसेज भी ...एक तरह की ज़ूम मीटिंग जैसा ...जितना जिस को पता था ...उसने उसी वक्त बताया ..किसी ने कुल गिनती बता दी ...किसी ने किसी टाकीज़ का रास्ता समझा दिया... और लो जी अमृतसर की 19 टाकीज़ की लिस्ट तैयार हो गई... एक आधी अधूरी लिस्ट अभी ग्रुप पर हाथ से लिख कर डाली ही थी तो बैंक मैनेजर योगेश साहब को हमारी हैंड-राइटिंग के बारे में कुछ याद आ गया तो कहने लगे कि अभी भी इतना ख़ुबसूरत लिखते हो, प्रवीण... 😀अच्छा लगा ...कमबख़्त ये सब बातें अभी भी इन्हें अच्छे से याद हैं, यह मानना पडे़गा..
अफ़सोस इस बात का हुआ कि अब इन में से एक भी टाकीज़ नहीं है अमृतसर में ...जैसा मुझे अपने स्कूल वाले गैंग से पता चला।
चलिए, लिस्ट तो मैं यहां भी एक लगा ही देता हूं...क्योंकि मैं अकसर सोचता हूं कि मेरे पास फ़िल्मों, फ़िल्मी गानों, गीतकारों, रेडियो प्रोग्रामों के अलावा कुछ भी नहीं है ...ध्यान इन सब चीज़ों में भी अटका रहता था ... आते जाते रास्ते में जो भी टाकीज़ दिखती, वहां रुक कर शो के टाइम पता कर लेने ..होता चाहे उन में 15 मिनट का ही फ़र्क था, एक थियेटर से दूसरे थियेटर के शो-टाइमिंग में ...
सिटी लाइट - यह थियेटर अमृतसर के पुतलीघर एरिया में था - वहां पर हम ने बहुत सी फिल्में देखीं...आम तौर पर यह वह थियेटर था जो थोड़ा सस्ता सा समझा जाता था ... मुझे याद है मैं बहुत छोटा था, मैंने 'धर्मा' फिल्म वहां पर देखी थी...एक और बचपन की याद है ...जाडे़ के दिन थे ..मां और उन की मोहल्ले की तीन चार सहेलियां एक दिन मैटीनी शो देख कर आईं... आते आते अंधेरा पड़ चुका था... लेकिन मां बहुत खुश थी ..वे सब 'तलाश' फ़िल्म देख कर आईं थीं, मां को बहुत पसंद आई थीं यह फ़िल्म...
कुछ कुछ याद है यह थिेयेटर में तो हम लोग तभी जाने की सोचते जब जेब में पैसे होते कम और फ़िल्म देखने को मन मचल रहा होता ...जहां तक मुझे याद है वहां पर टिकट 1-2 रूपये में मिल ही जाया करती थी...ये सब 45-50 साल पहले की बातें हैं.
प्रकाश - प्रकाश टाकीज़ अमृतसर स्टेशन के बिल्कुल सामने हुआ करती थी और यहां पर तो बहुत ही फ़िल्में देखीं...'खून-पसीना', 'हेराफेरी', 'शोले', 'नटवरलाल' ....और भी पता नहीं कितनी ही लेकिन बहुत सी याद नहीं आ रही हैं...इस थियेटर में तो फ़िल्म देखना ऐसे था जैसे बाज़ार तक ही जा रहे हैं.. अब नहीं है..
एनम - यह थियेटर जहां तक मुझे याद है 1972 के आसपास तैयार हुआ था .. मेरी मौसी की नयी नयी शादी हुई थी, मौसा जी के साथ आईं, फिल्म देखने तो जाना ही था, साईकिल रिक्शा पर मैं सब से पहले सवार हो बैठा...फिल्म थी 'जुगनू'.... वाह, मज़ा आ गया ...धर्मेंद्र की फिल्म . फिर तो उस एनम में बहुत फ़िल्में देखीं...जहां तक मुझे याद है वहां टिकट खरीदना एक सिरदर्दी हुआ करती थी ..ख़ैर, अब जो बीत गया सो उसे जाने देते हैं......कुछ साल पहले मैं जब अमृतसर गया और उधर से निकला तो मैंने उस पुरानी बिल्डिंग की फोटो खींचनी चाही लेकिन मेरे फोन की बैटरी ही नहीं थी ...और एक बात, मेरी पसंदीदा फिल्म 'फ़कीरा' भी तो मैंने दीदी-जीजा जी के साथ यहीं देखी थीं, यही कोई 1976 के आस पास की बात होगी...
एक फिल्म और भी देखी थी वहां पर नवीं जमात में था ...ऋषि कपूर और रंजीता की 'लैला मजनू' --- वाह, क्या मज़ा आया था ..
आदर्श टाकीज़ - यह लारेंस रोड चौंक पर थी ...वहां पर ज़्यादा फ़िल्में देखने का मौका नहीं मिला - यही दो चार देखी होगीं...
नंदन - यह भी एक बढ़िया टाकीज़ थी ...बुहत सी फ़िल्में देखीं वहां पर भी ...लेकिन 'शान' और 'दोस्ताना' तो याद आ रही है ...'याराना' का पता नहीं कहां देखी थी..
अमृत टाकीज़ - यह कटड़ा जैमल सिहं पर थी ...आज ही इस का नाम याद दिलाया गया ..मुझे नहीं लगता कि यहां पर कोई भी फिल्म देखी हो ...पता नहीं यह बड़ी अजीब सी लगती थी टाकीज़ --इस के साथ ही मेरा टेलर मास्टर था जहां से मैं हमेशा कपड़े सिलवाया करता था...ऐसे कोई डिज़ाइनर कपडे़ नहीं होते थे...सीधी सादी पतलून कमीज़ बडे़ बड़े कॉलरों वाली उन दिनों के हीरो लोगों की नकल करने के लिए ...😀- हम भी परले दरजे के बेवकूफ़ हुआ करते थे. ..थे मतलब!!?
चित्रा टाकीज़ - यह टाकीज़ अमृतसर के हाल गेट के बाहर हुआ करती थी ...कुछ फिल्में देखीं वहां भी ..लेकिन वह भी पुराना ही थियेटर था ...एक याद है उस के साथ भी जुड़ी हुई ...एक बार मोहल्ले की छःसात औरतें और उन के बच्चे हम लोग एक साथ वहां फिल्म देखने गये थे ...'दो कलियां' ....ओ हो, दो कलियां फ़िल्म का नाम लिया और उस में नीतू सिंह (बाल कलाकार) का वह गीत याद आ गया ..बच्चे मन के सच्चे, सारे जग की आंख के तारे ....बार बार ध्यान ऋषि कपूर के परिवार की तरफ़ जा रहा है, ईश्वर उन्हें यह सदमा सहने की हिम्मत दे।यहां पर भी कभी कभी पंजाबी फिल्में लगी दिखती थीं...
अमृत टाकीज़ - इस का रास्ता समझने में मुझे आज बहुत दिक्कत हुई ...कईं साथियों के ऑडियो मैसेज आने के बाद जगह की समझ तो आ गई लेकिन यह भी लगभग यकीं हो गया कि वहां पर कोई फ़िल्म देखी ही नहीं होगी...जी हां...लेकिन नाम इस का ज़रूर सुनते थे. बाद में अपने एक साथी से पता चला कि यह तो फैमिली टाइप के लिए फिल्म-थियेटर नहीं था, मतलब तो आप समझ ही गये होंगे, आप भी कौन सा इतने अनाडी़ हैं 😉
रिजेंट - यह डीएवी कालेज के पास ही एक मशहूर सरदार लस्सी वाला हुआ करता था, उस के सामने यह रिजेंट टाकी थी ...यहां भी कम ही फ़िल्में देखीं...बहुत कम ...और कालेज से भाग कर फ़िल्में विल्में देखना हमें इस से बड़ा डर लगता था ...डर क्या, कमबख़्त पाप लगता था, सच कह रहा हूं.. इस के बारे में सोचते हुए भी डर लगता था, ऐसा नहीं था कि कोई हमारी सीआईडी कर रहा होता था, लेकिन नहीं, बस उन दिनों यही था कि कालेज आने का मतलब है अच्छे से पढ़ कर घर लौट जाना है ...😁😂
न्यू रियाल्टो - यह भी रेनोवेट हुआ था ...अच्छा हो गया हम लोगों के कालेज तक पहुंचते पहुंचते ...यह अमृतसर की हैड पोस्ट आफिस के सामने था ...और एक बात ..इस के बाहर अमृतसरी कुलचे छोले की रेहड़ी लगती थी ...वहां पर फ़िल्म देखने जाने का मतलब होता था कि पहले होगी अच्छे से पेट पूजा -फिर देख लेंगे फ़िल्म-विल्म ...वे भी क्या दिन थे, हम लोगों के पास वक़्त ही वक़्त था ...किसी किस्म की कोई जल्दी नहीं, कुलचे-छोले खाने के बाद, और उस के बाद गन्ने का रस पीने के बाद, फिर देखना कि अभी भी 30-40 मिनट हैं टिकट मिलने में ....लेकिन कोई दिक्कत नहीं, आराम से हम लोग थिेयेटर के बाहर लगी बीस तीस तस्वीरें देख देख कर ही फिल्म को पहले ही से थोडा़ बहुत समझने की फ़िराक़ में रहते ...
संगम - अमृतसर के बस अड्डे के सामने यह टाकीज़ थी ...शायद 1970-75 के आसपास नईं नईं ही बनी थी...यहां भी कुछ फिल्में देखीं...शायद 'रोटी-कपड़ा-मकान' भी यहीं देखी थी....लेकिन एक बात इस संगम टाकीज़ के बारे में यह भी बताते चलें कि यह अमृतसर के उन चंद थियेटर्ज़ में से था जहां पर पंजाबी फिल्में भी लगा करती थीं...जहां तक मुझे ध्यान है, मैंने चंद पंजाबी फिल्में ही थियेटरों में देखी होंगी...हमें उन दिनों ऐसा लगता था कि पंजाबी फ़िल्मों को तो घर में टीवी पर ही देख लेते हैं..
सूरज चंदा तारा -- यह शायद 1980 के आसपास तैयार हुआ ...हम लोग वहां जाकर बड़ी हैरानी से देखा करते थे कि एक ही इमारत में दो फिल्में एक साथ ..क्योंकि पहले तो सूरज चंदा ही था , तारा तो बाद में जुड़ा ...अच्छा लगता था वहां जाकर भी फिल्में देखना ..काफ़ी फ़िल्में देखीं वहां पर ...इस समय याद आ रहा है 1981 में अपने मामा के साथ रिक्शा में बैठ कर गया था ...कौन सी फिल्म थी ....'नसीब' ...फिल्म ऋषि कपूर की याद आ गई ...दरअसल कपूर परिवार का इतना योगदान है फिल्म इंडस्ट्री में कि इन की यादें उमड़-घुमड़ कर आती ही रहेंगी ..
पहले एक बात यह भी मज़ेदार थी कि जब रिश्तेदार आते थे तो उन्होंने एक दो फि़ल्में ज़रूर देखनी होती थीं .....और बच्चों के मज़े हो जाते थे ...इस वक़त लिखते ही मुझे इतना मज़ा आ रहा है कि मैं ब्यां नहीं कर पा रहा हूं.. एक बात ईमानदारी से लिखूं कि यह लिखने-विखने का भी चक्कर ऐसा है कि आदमी अपनी यादों का एक अंश ही लिख पाता है ...बाकी तो उस के मन में ही बातें दबी की दबी रह जाती हैं.....लेकिन मैं ऐसा मानता हूं कि लेखक की कोशिश यही होनी चाहिए कि वह दिल खोल कर रख दे...लिखते वक्त ईमानदारी बेहद ज़रूरी है ..
चन्दन-पैलेस(लिबर्टी), इन्द्र पैलेस, राज, निशात - ये चार टाकीज़ के नाम है जो हमारे वक्त के 1970 के आसपास (जब हम बच्चे थे) के अमृतसर के एक किनारे पर पड़ते थे ...क्या कहते थे ..गेट हकीमां के आगे....या कोई मज़ाक में कह देता कि ये थियेटर तो पाकिस्तान में हैं ....ज़्यादा लोग इधर जाते नहीं थे क्योंकि यहां पर फिल्में भी कुछ अजीब किस्म की ही लगती थीं...शायद पुरानी फ़िल्में भी हुआ करती थीं......लेेकिन अमृतसर के सिनेमा घरों में पहली फ़िल्म देखने की मेरी याद ही इन में से किसी थियेटर की है ...हम लोग वहां पर 'सास भी कभी बहू थी' का दोपहर का शो देखने गये थे ....मुझे तो वह गीत हमेशा के लिेए याद रह गया....ले लो चूड़ियां... ले लो चूडि़यां ...और दूसरा वह गीत ...ख़ाली डिब्बा ख़ाली बोतल, ख़ाली से मत नफ़रत करना ...ख़ाली सब संसार .। कालेज के दिनों में वहां पर 'डिस्को-डांसर' फ़िल्म भी इन में से ही किसी थियेटर में ही देखना याद है ...दरअसल ये चारों टाकीज़ हैं भी बिल्कुल पास पास ही ...हैं क्या, हुआ करती थीं, अब तो वहां बने होंगे मल्टी-प्लेक्स...
लिबर्टी थियेटर के बारे में दोस्तों ने बताया कि यह चाटीविंड एरिया में था, पहले इस का नाम चंदन-पैलेस होता था, बाद में लिबर्टी थियेटर बन गया ...
गगन - यह भी 1975-76 के आस पास नया नया ही बना था ....यह अमृतसर के बटाला रोड पर था ... पहले तो जब भी दीदी जीजा जी अमृतसर आते उन के साथ फ़िल्में देखने का मुझे बड़ा शौक हुआ करता था ...उन के साथ ही 'मां', 'नूरी' जैसी फिल्में वहीं देखीं... फिर हमारा कालेज भी इस के साथ ही था, बीडीएस थर्ड ईयर में वहां पर एक बार फिल्म देखी ...पहले दिन ... 'बेताब' लगी थी उस दिन - 1982 की बात है ...
माया - जहां तक मुझे याद है यह थियेटर 1980 के आस पास तैयार हुआ था ..और यह छेहरटे में था ... थोडा़ दूर ही पड़ता था ..इसलिए बाद में शायद एक दो फ़िल्में कभी 1984-85 के बाद कभी देखी हों तो हों....याद कुछ भी नहीं है बिल्कुल ...हां, एक फ़िल्म तो देखी ही होगी ...क्या पता पोस्टर देखने ही अपने यैज़्दी पर निकल गया होऊंगा...फ़िल्म न ही देखी हो..
अशोका - जी हां, इस टॉकी का नाम नहीं याद आ रहा था, साथी मनिंदर सिंह ने बताया कि यह अशोका टाकीज़ है ...और इस की जगह के बारे में याद दिलाया ...यहां पर भी बहुत सी फ़िल्में देखीं...एक तो राज कुमार की फिल्म ही थी ..तेरे जीवन का है, कर्मों से नाता ..तू ही अपना भाग्य विधाता ... बहुत अच्छी थी फ़िल्म 'कर्मयोगी' .... यहां पर कुछ और फिल्में भी देखी थीं जैसे कि 'कस्मे-वादे' और 'गोलमाल' भी ....शायद 'विधाता' भी यहीं कहीं देखी होगी .......लेकिन उस का भी पक्का याद नहीं है..
आज के लिए इस डॉयरी को यहीं बंद कर रहा हूं ... Thanks Maninder, Vikram, Satish and Madhur for valuable inputs. Sweet remembrances of our school days.😁
ऋषि कपूर और इरफ़ान खां की रुह की शांति के लिए आइए दुआ करते हैं ....ऋषि कपूर को मैंने 7 मई 1975 को पहली बार हाटेल सन एंड सैंड मुंबई में टैनिस खेलते देखा था ..वहां पर मेरे चाचा की बेटी की शादी थी, उस शादी में राजकपूर, कृष्णा कपूर और राजेन्द्र कुमार भी शिरकत करने आए थे ....जाने कहां गये वो दिन !! राज कपूर का पैग़ाम हम सब के लिए ...देख भाई ज़रा देख के चलो ...आगे ही नहीं पीछे भी .... मां नहीं, बाप नहीं ....कुछ भी नहीं रहता है .......न तेरा है न मेरा है .........Show must go on!! अभी कल दोपहर ही मैं विविध भारती रेडियो पर ऋषि कपूर की एक पुराना इंटरव्यू सुन रहा था ...कितनी बढ़िया बातें सुना रहा था ... सुन कर बहुत अच्छा लगा था ... आज मन सच में बड़ा दुःखी है ....बंदे ने हमें 45 साल तक हंसाया, रूलाया और गुदगुदाया - हमें ही क्यों, हमारे मां-बाप को भी और हमारे बच्चों को भी!! विनम्र श्रद्धांजलि..
यारां नाल बहारां....शुक्रिया, योगेश ...इस यादों की बरात के लिए...जींदे वसदे रहो!
एक तो इस सोशल मीडिया ने लोगों का जीना दूभर कर रखा है ....सुबह सवेरे ही हरकत में आ जाते हैं वाट्सएप ज्ञानी लोग अपने अपने टोटकों के साथ कि भाई लोगों, इन चीज़ों का सेवन शुरू कर लीजिए, कोरोना आप के पास फटकेगा नहीं...कुछ तो इतने हास्यास्पद होते हैं कि क्या कहें...
चिकित्साकर्मी भी इन दिनों अपने काम में इतने मसरूफ़ हैं कि उन्हें फ़ुरसत नहीं कि सोशल मीडिया की पोस्टों का खंडन अथवा समर्थन करते फिरें ...फिर भी वक्त निकाल कर विभिन्न जन संचार माध्यमों से वे पूरी कोशिश करते रहते हैं कि जनता तक सही सटीक जानकारी पहुंचे।
किसी व्यक्ति में अगर ख़ून की कमी हो - हीमोग्लोबिन का स्तर सात-आठ ग्राम फ़ीसद हो तो मैंने बहुत बार कहते सुना है कि अनार का जूस शुरू कर दिया है परसों से ....रोज़ाना पिला रहे हैं....फिर उन्हें अच्छे से समझाना पड़ता है कि किसी भी तरह की बीमारी से बचने, टकराने का सब से बड़ा हथियार है सीधा-सादा हिंदोस्तानी खाना - और उस के साथ डाक्टर की सलाह से ली जाने वाली दवाई- अगर खाना ही उपलब्ध नहीं है या संतुलित खाना नहीं खाया जा रहा है तो फिर दिक्कतें ही दिक्कतें हैं ...एक -दो चार नहीं, अनेकों।
यह केवल खून की कमी की ही बात नहीं है ...बहुत सी तकलीफ़ों के लिए लोग अपने आप ही तरह तरह के टॉनिक लेकर इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं....दोष उन का भी नहीं है, जानकारी का अभाव है ...कईं बार जानकारी हो भी तो भी दिमाग काम करना बंद कर देता है जब हम लोग किसी अपने को तकलीफ़ में देखते हैं ...मेरी मां कैंसर की आखिरी स्टेज से जूझ रही थी ..उन दिनों अगर वह अच्छे से दिन भर में एक दो गिलास जूस के पी लेतीं ...या दो चार चम्मच खिचड़ी ही खा लेतीं तो मैं इस ख़ुशफ़हमी में मुबतिला हो जाता कि क्या पता मां की सांसें ऐसे ही चलती रहें......लेकिन अफ़सोस!!
कोई भी विपदा आन पड़े तो जैसे इंसान का दिमाग सुन्न हो जाता है .....ठीक वैसे ही कोरोना में तरह तरह के दावे कि यह ले लो, कोरोना नहीं होगा...वह ले लो कोरोना नहीं होगा...अभी याद आया कि मार्च ेेके शुरू में मैं होटल में एक कार्यक्रम में गया था ..लखनऊ की एक महान हस्ती हुई हैं...मुंशी नवल किशोर.. उन की याद में एक प्रोग्राम था ..प्रोग्राम के अंत में एक सज्जन ने छोटी छोटी शीशियां निकालीं जैसे इत्र की छोटी शीशीयां होती हैं...और उन्होंने कहा कि यह दवाई आप लोग नाक में सुबह शाम डाल लीजिए ...कोरोना पास नहीं फटक सकता। वे यूनानी चिकित्सा पद्धति से जुड़े हुए थे ...मुझे इस तरह के दावे में कोई दम नहीं दिखा ..और यह हो भी कैसे सकता है ..
मैं आज क्यों यह सब लिखने बैठ गया? - कल मैं पेट्रोल पंप पर था, पेट्रोल डालने वाला पहचानता है, पूछने लगा - डाक्टर साब, यह पैकेट पीने से क्या इस महामारी से बचा जा सकता है?, उसने जेब में से ओआरएस का पैकेट निकाल कर मुझे दिखाते हुए पूछा. कहने लगा कि आज कल खाने का तो कोई ठिकाना नहीं है, पास वाली दवाई की दुकान वाला कहता है कि रोज़ इसे पीते रहो, इस से इम्यूनिटि बढ़ जायेगी (उसने यही लफ़्ज़ बोला था) और इस महामारी से बचे रहोगे....मैंने उसे बताया कि कहीं आसपास कोई मौसमी फल या ककड़ी-खीरा-टमाटर मिल जाए तो उसे खाना बेहतर होगा ...और इस तरह की चीज़ों से कोई इम्यूनिटि-वूनिटि में इज़ाफ़ा नहीं होता..। बता रहा था कि एक पैकेट 35 रूपये का आता है, मैंने अपनी तरफ़ से तो उसे अच्छे से समझा दिया...
वैसे यह इम्यूनिटि का फंडा है क्या ..
यह इम्यूनिटि हम लोगों की जीवनशैली का टोटल है..इस में हम लोग क्या कर रहे हैं, क्या नहीं कर रहे हैं और हमारी सोच कैसी है , ये सब बाते हमारी इम्यूनिटी तय करती हैें.....इसलिए इस के बारे में अच्छे से समझने की ज़रूरत है ...
एक बात तो यह है कि अगर हम लोग कहते हैं कि इम्यूनिटि हमारी जीवन शैली का कुल जमा टोटल है और अगर पहले से किसी की ज़िंदगी बेपटड़ी भी रही है तो भी उसे मायूस होने की ज़रूरत नहीं....आज ही से शुरूआत की जा सकती है ...जब जागो तभी सवेरा...
व्यसन - एक बहुत ज़रूरी बात यह है जितने भी व्यसन हैं वे हमारी इम्यूनिटि को गिरा देते हैं...इसलिए अगर आप इन तीस चालीस दिनों में मजबूरन ही सही, अगर किसी ऐसे ही व्यसन से दूर रह पाएं हैं तो अब इसे पास न फटकने दें....यह कोई कही-सुनी बात नहीं है ..बिल्कुल पत्थर पर लकीर जैसी पक्की बात है कि विभिन्न तरह के व्यसन हमारी इम्यूनिटि को कम कर के हमें मुख़्तलिफ़ बीमारीयों की तरफ़ धकेल देते हैं.....डाक्टरों का क्या है, उन्होंने तो इशारा ही करना होता है ...बाकी हर इंसान की ज़िंदगी अपनी है ....मैं परसों किसी को कह रहा था कि सिगरेट बंद कर दो...उसने कहा कि हां, बहुत कम पीता हूं.......अब आगे हम लोगों के पास कहने को रह ही क्या जाता है ......बच्चा बच्चा जानता है कि कोरोना का अजगर सारी कायनात पर फन उठाए खड़ा है और इस बीमारी में सब से ज़्यादा असर फ़ेफ़ड़ों पर ही होता है, ऐसे में क्यों सिगरेट, बीड़ी के चक्कर में फ़ेफ़ड़ों के लिए मुसीबत मोल ली जाए....क्योंकि आज की तारीख़ में उन का सही से काम करना भी तो ज़रूरी है .. उस के लिए हम सब को प्राणायाम ज़रूर करना चाहिए...अगर अभी तक नहीं किया तो क्या हुआ, आज ही से थोड़ा थोडा़ शुरू कीजिए...कहां से सीखें? - उस का जवाब यही है कि अगर हम चाहते हैं तो कुछ भी सीख लेते हैं...और हां, अगर प्राणायाम को किसी मज़हब के साथ जोड़ कर देखा जा रहा है तो इसे प्राणायाम् कहें ही न, इसे सांस की एक्सरसाइज़ कह लीजिए...(ब्रीदिंग एक्सरसाईज़). और जितना हो सके योगाभ्यास भी करें...
इम्यूनिटि का चक्कर उन सब चीज़ों से है जो हम करते हैं या नहीं करते हैं....हम लोग एक्सरसाईज़ करते हैं या नहीं, शरीर को हिलाते-ढुलाते हैं कि नहीं, सुबह की धूप में बैठते हैं या नहीं, घरों की खिड़कियां धूप और हवा के लिए खोलते भी हैं या नहीं, ये धार्मिक घृणा फैलाने वाली पोस्टों को देखते हैं या नहीं, अपने आप को संतुलित रखने के लिए मेडीटेशन (ध्यान) करते हैं या नहीं....अभी मुझे लिखते लिखते यही ख़्याल आ रहा है कि हमारी ज़िंदगी में आखिर ऐसी कौन सी चीज़ है जो हमारी इम्यूनिटि को प्रभावित नहीं करती ....सब कुछ करती है ...अभी ध्यान आया कि मैंने यह इम्यूनिटि लफ़्ज़ पहली बार अपने जीजा जी से सुना था --मैं आठवीं नवीं कक्षा में था, बार बार जुकाम हो जाता था ...बस में बैठते ही जी मितलाने लगता था ...एक बार उन्होंने कहा कि ये सब इम्यूनिटि कम होने की वजह से होता है .
हां तो दोस्तो बात इतनी है कि सादा खाइए...अब लॉक-डाउन में किसी को खाने के बारे में ज़्यादा उपदेश देना भी बहुत घटिया बात लगती है, ठीक है न जो भी जिसे मिल रहा है खा ही रहा है ....पड़ोस में रहने वाले कुछ लोगों की जान निकली रही पिछले दिनों की संतरे नहीं मिल पा रहे ....एक दिन कॉलोनी के बाहर संतरे देखे तो उन्हें बता दिया....एक बात और आप ने लॉक-डाउन के शुरूआती दिनों में बहुत सुनी होगी कि विटामिन सी लीजिेए...इस से इम्यूनिटि बढ़ जाती है ......ऐसा कुछ नहीं होता, डाक्टरों ने इस बात का खंडन किया है ....ठीक है, विटामिन सी लीजिए. ..अगर संतरे, आंवले जैसी चीज़ों के रूप में लेते हैं तो अच्छी बात है ...संतुलित आहार का हिस्सा है ....और संतुलित आहार तो इम्यूनिटि बढ़ाने में मददगार होता ही है ...
इम्यूनिटि भी एक ऐसा टॉपिक है कि अगर हम लोग इसके बारे में जान गए तो बात एक फ़िक़रे भर की है .....हमेशा अपने खाने पीने का ख़्याल रखें, एक्सरसाईज़ करें, व्यसनों से दूर रहें, प्राणायाम ज़रूर करिए, ध्यान ज़रूर करिए, सकारात्मक साहित्य देखिए एवं पढ़िए....नकारात्मक लोगों से कन्नी कतराते रहें .....प्रकृति के पास रहें ....अपनी हैसियत के मुताबिक़ खाना-पीना लेते रहें .....अगर हो सके तो सलाद, अंकुरित अनाज एवं दालें, और मौसमी फल भी ज़रूरी हैं..
इम्यूनिटि चाहे कुछ दिनों में नहीं बढ़ जाती लेकिन शुरूआत तो कभी भी कर ही सकते हैं ....तुलसी, शहद, अदरक, तरह तरह के काढ़े सब बढ़िया हैं ...करिए इन्हें ज़रूर इस्तेमाल करिए ....लेकिन ये ही केवल संजीवनी बूटी नहीं है कोरोना को मात देने के लिए ...ऊपर लिखी सभी बातों का ख़्याल रखिए ...
और क्या लिखें, अपना ख़्याल रखिए - मस्त रहिेए..
दिल की बात ...
जाते जाते मेरे दिल की बात -- यह जो ऊपर लिखा ये सब वैज्ञानिक बातें हैं ..एक दम मैडीकल तथ्यों पर आधारित ...जो मेरे बाएं तरफ़ के दिमाग ने लिखवा दीं.......लेकिन जैसा कि मैं अकसर बेटों से कहता हूं कि मेरे दिल और दिमाग में अकसर जंग छिड़ी होती है ...दिमाग कुछ कहता है -- और दिल कुछ और ....दिमाग की बात ऊपर लिख दी है ....लेकिन दिल यही कहता है कि हम कितना भी पढ़-लिख जाएं ....कितना भी ज्ञान बटोर लें .....लेकिन सब चीज़ों का कंट्रोलर तो कहीं और बैठा है .....बुल्ले शाह की ये बातें मेरा दाईं तरफ़ वाला दिमाग मुझे रह रह कर याद दिलाता रहता है ...
कोरोना के बारे में इतना कुछ सोशल मीडिया में आ चुका है कि अब तो डाक्टर भी सोच रहे होंगे कि हमारे कहने लायक रहा ही क्या...
हक़ीक़त है कि बहुत कुछ दिखा इस टॉपिक के ऊपर -- हर तरफ़ से ..और क़िस्म की बातें ...बहुत सी बातें गुमराह करने वाली-- दिक्कत यह है कि जो इन बातों को सोशल मीडिया पर शेयर कर रहा है उसे भी इस बात का इल्म नहीं होता कि वह क्या शेयर कर रहा है, पर उसे किसी ने वह जानकारी भेजी और उस ने आगे सरका दी...
मैं भी ज़्यादा बातें नहीं करना चाहता --- इस पोस्ट में तो दो चार बातें ही करूंगा .. क्योंकि बहुत सी बातें तो हम लोग पहले ही से जानते हैं...
यह जो सोशल-डिस्टेंसिंग वाली बात है ना, यह गंभीरता से लेने वाली बात है ...बहुत दुःख हुआ उस दिन जिस दिन घर ही में थाली बजाने को कहा गया था और दुनिया बाज़ारों में ढोल-नगाड़े लेकर पहुंच गई.. इस से लॉक-डाउन का मक़सद ख़त्म हो जाता है ..
यह बात हम सब लोग कोरोना के बारेे में अच्छे से याद रख लें कि लॉक-डाउन के दौरान हम लोग कोरोना से जंग नहीं लड़ रहे हैं, हम इस से छिप रहे हैं ...इस का मतलब यह है कि लॉक-डाउन तो ज़रूरी है ही ...लेकिन जब लॉक-डाउन खुलेगा तो वह भी हमारे सब के इम्तिहान की घड़ी होगी...सरकारें जितना कर सकती हैं कर ही रही हैं, हम लोगों की भी ज़िम्मेदारी है -
इस बात तो नोट करें कि कोरोना अभी कहीं जाने वाला नहीं -- कब तक? - जब तक इस का कोई टीका तैयार नहीं हो जाता या लोगों में एक सामूहिक इम्यूनिटी पैदा नहीं हो जाती है ...इसे इंगलिश में हर्ड-इम्यूनिटी भी कह देते हैं ...इस बीमारी का टीका कब बनेगा..कोई कह रहा है एक साल लग सकता है, कोई डेढ़ साल कह रहा है ...सभी मेडीकल विशेषज्ञ इस काम में जुटे हुए हैं ...जी हां, एक तरीका तो वह है कि जब लोगों को इस का टीका लग जाएगा तो उन में इस बीमारी से लड़ने की शक्ति पैदा हो जाती है .. बिल्कुल वैसे ही जैसे बहुत सी दूसरी बीमारियों के लिए टीके लगते हैं और लोग उन बीमारीयों से बचे रहते हैं....यह तो एक तरीका है, दूसरा तरीका है ...अगर सारी जनसंख्या का कुछ प्रतिशत (मुझे नहीं प्रतिशत कितना है ..कुछ कह रहे हैं 60 फ़ीसद, कुछ कह रहे हैं 90 फ़ीसद, लेकिन इतनी गहराई में आप भी न जाएं) इस बीमारी से संक्रमित हो जायेगा ...चाहे उन में इस बीमारी का ज़्यादा जटिल रूप देखने को नहीं भी मिलेगा (और 80-85 प्रतिशत केसों में ऐसा ही होगा) या ऐसा भी हो सकता है कि उन में से बहुत से लोगों में कुछ लक्षण ही न हों ...चाहें किसी में लक्षण हों, चाहे थोड़े-बहुत लक्षण हों अथवा बीमारी की जटिल व्याधियों के लिए उसे अस्पताल में रहना पड़ा हो ....बात सीधी सीधी इतनी सी है कि जो भी हो लेकिन इन सब लोगों में इस बीमारी से लड़ने के लिए (इम्यूनिटी) एंटीबॉडी बन चुके हैं...यह एक तरह का हथियार होता है जो किसी बीमारी से हमारी रक्षा करता है ..
अब एक बात और अच्छे से सुनिए ...बहुत सी बीमारीयां तो ऐसी ही होती हैं जैसे हैपेटाइटिस बी ...टेटनस, काली खांसी आदि कि एक बार शरीर में इन से बचाव का टीका लग गया तो यह हमें उसे बीमारी से सुरक्षा प्रदान करता है ... हां, यह होता है कि कईं बार डाक्टर के मशविरे के मुताबिक बूस्टर डोज़ लगवानी होती है ..
लेकिन मसला कोरोना में यह भी बताया जा रहा है कि कुछ केसों में यह दोबारा भी हो रहा है ....इसलिए किसी किस्म की ढिलाई की गुंजाइश नहीं है ......कोई ऐसा न समझे कि एक बार कोरोना हो गया तो फिर से नहीं होगा...इसलिए वह तो जैसे मरज़ी घूमे ...बिना मास्क लगाए और बिना सोशल-डिस्टेंसिग का ख़्याल रखे। नहीं, ऐसा मुनासिब नही है क्योंकि इस के फिर से होने के भी कुछ केस सामने आए हैं....मेडीकल वैज्ञानिकों को यह लग रहा है कि जिन लोगों में एक बार कोरोना होने के बाद दूसरी बार हुआ ...उन में यह वॉयरस के बदले हुए रूप (वॉयरस म्यूटेट होने से) की वजह से हो रहा है ....ये सब बातें अभी ज़्यादा खोज की स्टेज पर ही हैं, इसलिए बस इसे भी थोड़ा ख़्याल में रख लीजिए।
एक बात का ख्याल रखना और भी ज़रूरी है कि हो सकता है कि जिस इंसान को कोरोना इंफेक्शन तो है लेकिन लक्षण कुछ नहीं हैं....लेकिन क़ाबिले-गौर बात यह है कि यह शख्स भी वॉयरस संक्रमण आगे फैलाने में सक्षम है और संक्रमण होने से अगले 35 दिन तक ....चाहे ख़ुद इस में लक्षण नहीं हैं.....इसलिए यह जो बात है न कि हम लोग मुंह पर गमछा रख लेते हैं या महिलाएं कहती हैं कि हम फल-सब्जी लेने जाते हैं तो मुंह पर दुपट्टा रख लेते हैं ....नहीं, यह गलत है ...चेहरे पर घर पर बना हुआ फेस-मास्क तो लगाना ही होगा...हमेशा याद रखिए...
लेखक अपनी ड्यूटी पर
बाकी की बातें कल करेंगे .... लेकिन इतना ज़रूर ख़्यार रखिए कि घर में बने फेस-मास्क ज़रूर पहन लिया करें ... यह बहुत ज़रूरी है...यह जंग लंबी चलने वाली है ........इसलिए लॉक-डाउन के दिनों के बाद भी हमें एहतियात बरतनी होंगी ...मेडिकल विशेषज्ञों का मानना है लॉक-डाउन खुलने के बाद कोरोना के केसों में बहुत इज़ाफ़ा होगा ....यह जो दो-तीन महीने का समय सरकारी सेहत विभाग को मिला है इस में बहुत सी तैयारियां की जा चुकी हैं और अभी भी की जा रही हैं ताकि अचानक बहुत से केसों के आ जाने से चिकित्सा तंत्र कैसे उन्हें संभाल पाने में सक्षम रहे..
कल सुबह मैं आप से रोग-प्रतिरोधक शक्ति बढा़ने के बारे में विस्तार से बात करूंगा ...अच्छा, आज यहीं बंद करते हैं ....मस्त रहिए, स्वस्थ रहिए....हिंदु-मुस्लिम वाले मुद्दों में न उलझिए....कुछ हाथ नहीं लगेगा...हम सब एक हैं...बेचारे सब परेशान हैं...सब के लिए दुआ करिए...बड़ी ताक़त है दुआ में ...
आने वाला पल जाने वाला है ... अभी बिग-एफ.एम पर यह गीत बज रहा था तो मुझे याद आ गया कि इसने तो मुझे एक इनाम भी दिलाया था अभी हाल ही में ... एक कांफ्रेस में गया था ...वहां पर एक गेम चल रही थी ...गाने की शुरूआती धुन वे बजाते थे और धुन बजाते ही जितनी जल्दी हो सके आप अपना हाथ खड़ा करेंगे ...बस, इस की धुन शुरू हुई और दो-तीन सैकेंड में मैंने पहचान लिया - फिर मुझे वह अपनी बेसुरी आवाज़ में उसे गाना भी था... और इनाम भी मिला...खुशी इतनी हुई जितनी पांचवी कक्षा में योग्यता छात्रवृत्ति की लिस्ट में आने पर हुई थी....
फिल्मी गाने भी क्या चीज़ हैं...मैं तो इन्हें सुनते ही इन्हें लिखने वालों के बारे में सोचने लगता हूं कि कैसे उन्होंने ये सब लिख दिया... अद्भुत ...मुझे साठ-सत्तर के अधिकतर गाने बहुत भाते हैं...इन के लिरिक्स, म्यूज़िक और परदे पर इन पर अभिनय करने वाले .. वाह ..वाह ...वाह!
सोचता हूं बहुत बार कि बचपन में जवानी में हम गीतों को उन के खिलंड़रेपन के लिए पसंद करते थे ...फिर धीरे धीरे जैसे जैसे उम्र बढ़ती है तो उन के बोल भी दिमाग में कहीं दस्तक देने लगते हैं... और 50-60 की उम्र के आसपास जब ज़िंदगी के तज़ुर्बों वाले एयर-फोन्स के साथ उन्हें सुनते हैं ...फ़ुर्सत में ---तो लिखने वालों के हाथ चूम लेने की हसरत होती है ... लेकिन वे दरवेश अब कहां ...वे तो अपना काम कर के वो गए ..वो गए....कुछ के बारे में बहुत कुछ जानने का मौका मिलता है .. फिर भी कम ही लगता है ... मसलन, कुछ अरसे से उस महान गीतकार आनंद बक्शी के बेटे राकेश बक्शी से उन के बारे में सुनता रहता हूं ....बहुत अच्छा लगता है ...और उन के गीतों की रचना के बारे में मज़ेदार बातें पता चलती हैं..।
महान गीतकार नीरज जी को भी लखनऊ में बहुत बार मिलने का मौका मिला .. उन का लिखा हुआ एक एक गीत भी मन को छू जाता है ..बेमिसाल गीत लिख दिए उन्होंने भी ..और सभी गीतकारों के बारे में पढ़ना मुझे बहुत भाता है ..
किस किस का नाम लूं ....सभी गीतकारों ने हमें ऐसे तोहफ़े दिेए हैं कि उन की तारीफ़ करने के लिए अल्फ़ाज़ भी तो चाहिए...वे कहां से लाऊं!!
अच्छा एक बात और शेयर करूं ...मैं उर्दू सीख रहा था ...ज़माने के हिसाब से मैं थोड़ा डफर तो हूं ही ...चलिए, कोई बात नहीं ...लेकिन उर्दू पढ़ने-लिखने की तमन्ना बहुत थी ...कुछ महीने बीत गए लेकिन वाक्यों की बनावट-बुनावट पल्ले ही न पड़ रही थी ...ऐसे में क्या हुआ कि लखनऊ की सड़कों की ख़ाक छानते हुए (मैंने यह काम बहुत किया है..) मुझे कहीं से मुझे उर्दू में लिखी फुटपाथ से वे 5-10 रूपये में बिकने वाली किताबें मिल गईं ...किशोर कुमार के गीत, मो.रफ़ी के गीत ... बस, फिर क्या था, वे सब मेरे पसंदीदा गीत तो थे ही ...मैंने उर्दू में लिखी इबारत को समझने-पढ़ने के लिए उन किताबों को खोल कर यू-ट्यूब पर वे गीत सुनने शुरू कर दिए ... बस, फिर क्या था, मुझे उर्दू के अल्फ़ाज़ की बनावट की पहचान होने लगी ... मैं आज सोचता हूं तो मुझे हंसी भी आती है कि कईं बार जुगाड़ भी कैसे काम कर जाते हैं..
चलिए, वह गीत तो सुन लें जिसे मैंने शायद कॉलेज में पांव रखते ही गोलमाल फिल्म में देखा था ......फिल्म भी हम लोगों ने स्कूल-कॉलेज के ज़माने में शायद ही कोई छोडी़ हो, 40 साल पुराना यह वह दौर था जब मेरी प्यारी मौसी को यह गलतफ़हमी हो गई कि उस के भांजे की शक्ल अमोल पालेकर से कितनी मिलती है और वह सब को यह बताती फिरती थीं (शुरू ही से हम ऐसे तोंदू-तोतले थोड़े न थे..) 😂
अब इच्छा नहीं होती मल्टीप्लेक्स में जाकर देखने की .....अब तो कईँ बार हो चुका है कि मैं इंटरवल से पहले ही सो जाता हूं क्योंकि वह से भाग कर बाहर आने की सर्वसम्मति नहीं बन पाती ...आजकल तो जब भी फिल्म देख कर आते हैं, अकसर एक तरह से निश्चय करते ही हाल से निकलते हैं कि बस, अब नहीं आया करेंगे !!
यकीं रखिए, यह कोरोना वाला मौजूदा पल भी जल्दी चला जाएगा ...लेकिन इस के लिए आप लोग घर में बैठे रहिए...मिनट मिनट की यह ख़बर ढूंढने के चक्कर में कि यह महामारी किस चरण में हैं, आप अपने चरणों को अपने घर ही में रोके रखिए...बड़ी मेहरबानी होगी ..
मुझे तो इस फिल्म का नाम भी चार पांच दिन पहले ही पता चला ....लखनऊ टाइम्स में दीपिका, रणवीर को लखनऊ के शीरोज़ में देखा ...शीरोज़ को चलाने वालीं एसिड-अटैक पीड़ित युवतियों के साथ...
उस दिन ही पता चला कि छपाक नाम से कोई मूवी रिलीज़ होने वाली है ... दीपिका ने उसमें काम किया है...
गुज़रे दौर में फिल्मों केे बारे में कम से कम कुछ हफ्ते पहले तो पता चल ही जाया करता था ... जगह जगह पर पोस्टर लग जाया करते थे .. हम लोग स्कूल-कालेज आते वक्त उन्हें निहारते और जैसे तैसे उन की एडवांस-बुकिंग का जुगाड़ करने के बारे में सोचने लगते ...
लेकिन वक्त ज़्यादा ही बदल गया देखते ही देखते ...फिल्म का पहला दिन -- और सारे हाल में 20-30 लोग ही होंगे ... अजीब लगता है ...लेकिन आज कल फिल्में चलती भी तो पांच सात दिन ही हैं...बस वीकएंड की भीड़ ही बिजनेस करवा जाती है ...
फिल्म बहुत अच्छी है ...एक एसिड अटैक पीड़ित युवती मालती के संघर्ष की कहानी है ....दीपिका ने तो अपना किरदार बखूबी निभाया ही है ...
लखनऊ के शीरोज़ में मैं दो कार्यक्रमों में शिरकत कर चुका हूं ..एक तो मेरे एक मित्र की किताब का बुक-लांच था और दूसरा लखनऊ कथा-कथन का कार्यक्रम था...अच्छी जगह है ...रेस्टरां भी है वहां ...फिल्म तो आप लोग देखिए ही और जब भी मौका मिले शीरोज़ भी हो आया करिए...सुकून से बैठने की सही जगह है ..
शीरोज़ का मतलब ? - जैसे युवकों को हीरो (हीरोज़) कहते हैं....ऐसी बहादुर बेटियों को शीरोज़ कहने की एक पहल है ...
मालती की कहानी हमारी संवेदनाओं को झंकृत करती है बेशक ..उस ने इतनी लंबी लड़ाई लड़ी कसूरवार को सज़ा दिलवाने के लिए और फिर एसिड की बिक्री पर रोक लगवाने के लिए ... लेकिन दुःख इस बात का भी हुआ फिल्म के बाद जब आंकडे़ दिखाए गये कि एसिड-अटैक रुके नहीं हैं...चल ही रहे हैं जैसे कि एसिड की बिक्री भी नहीं रुकी ...कोई भी एसिड खरीद सकता है ... यह जान कर दिल बहुत दुःखी हुआ...
मुझे याद आ रहा है कुछ बरस पहले जब कोर्ट का फैसला आया था एसिड की बिक्री पर रोक लगने के बारे में तो सब लोग बहुत खुश थे ...लेकिन इस तरह के नियम लागू करने कितने मुश्किल हैं, कितने आसान ... ये तो जानकार ही बता सकते हैं...स्टेक-होल्डर ...मेरे जैसा बंदा इस के बारे में क्या बताए जो फ़क़त एक बार 30 साल पहले जब बाजा़र से घरेलू साफ़-सफ़ाई के लिए एसिड लेने गया था तो दुकानदार ने एक रजिस्टर में नाम पता लिखवा कर और मुझे ऊपर से नीचे तक देख कर ही वह बोतल दी थी!!
फिल्म के एंड में आंकड़े कुछ इस तरह के दिखाए गये कि 2017 में भी एसिड-अटैक तो शायद 250 के करीब हुए और हाल ही में 2019 में दिल्ली में एक एसिड-अटैक की शिकार युवती को तो अपनी जान भी गंवानी पड़ी ...
यह भी मैं क्या लिख गया...जान गंवानी पड़ी ...एसिड-अटैक की शिकार जिन बेटियों की जान नहीं भी जाती उन का जीना कैसे दूभर हो जाता है ... मैंने भी यह फिल्म देख कर ही जाना ...हर किसी की बांह पकड़ने वाला भी तो नहीं होता ...अपने बलबूते पर महंगे इलाज, सर्जरी, प्लास्टिक सर्जरी करवाना कहां लोगों के बस में होता है ...
दस दिन में निर्भया कांड के दोषियों को सजा-ए-मौत हो जायेगी ...एसिड अटैक के मुजरिम कमबख़्तों को भी ऐसी ही कड़ी सजा मिलनी चाहिए ... होगा! यह भी होगा, ऐसी उम्मीद कर सकते हैं.... हमें अपनी न्याय-प्रणाली से पूरी उम्मीद है ....
गुटखे पर भी तो प्रतिबंध है ...मुझे इस के बारे में लिखते-समझाते 30-35 बरस बीत गये ... लेकिन लोगों ने इस का भी तोड़ निकाल लिया है ...अब पान मसाले के पैकेट के साथ ही लोग पिसी-हुई तंबाकू का एक पाउच भी ले लेते हैं ...उन दोनों को मिला कर गुटखा तैयार हो जाता है ...लेकिन गुटखा खाने वाले तो अपनी ही जान लेते हैं ........जब कि एसिड अटैक करने वाले तो प्रतिबंध के बावजूद दूसरे की जान लेने पर उतारू होते हैं...
यही सोच रहा हूं कि देश की समस्याएं बेहद जटिल हैं ... यहां पर कहीं भी दो गुणा दो चार नहीं है !! हर इंसान मजबूर है ..ऊपर से लेकर नीचे तक ...अब यह मत पूछिए, ऐसा क्यों !
मेघना गुलजार का शुक्रिया कि किसी ने ऐसी पीडि़त युवतियों की दास्तां लोगों तक पहुंचाई तो ....इस तरह की फिल्मों को टैक्स तो माफ होना चाहिए ..