रविवार, 9 अक्तूबर 2016

आज का साईकिल टूर....रैली के रास्ते से


आज बहुत दिनों बाद साईकिल टूर पर निकला...पिछले दिनों उमस ही इतनी थी ....घर से निकलते ही कुछ लोग बड़े अनुशासन में सड़क के एक तरफ़ पर चलते हुए श्री काशीनाथ स्मारक की तरफ़ उन की पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में रखे एक आयोजन की तरफ़ चले जा रहे थे...
बंगला बाज़ार से रैली स्थल की तरफ़ प्रस्थान करते लोग..

बिजली पासी किले का वह द्वार जो जेल रोड़ (बंगला बाज़ार) की तरफ़ खुलता है ..

खाने पीने की चीज़ों का धंधा ज़ोरों पर था..सुबह के नाश्ते का जुगाड़ 
बिजली पासी किले ग्राउंड  एक द्वार  
किला चौराहे से आगे से भी लोग आ रहे थे..शायद रमाबाई स्मारक से आ रहे होंगे 

सभी सड़कें रैली स्थल की ओर जाती दिखीं..

बिजली पासी किले स्मारक का मेन गेट ..यहां खानपान की व्यवस्था है ...पिछले दो तीन दिनों से यहां टैंट लग रहे थे..


फकड़ी पुल पर यह अपना धंधा चमकाता दिखा...गठड़ी वाले को इस की बीन रोक नहीं पाई लगता है ...

अंबेडकर चौराहा (अवध चौराहा) से श्री काशीनाथ स्मारक की तरफ़ जाते लोग ..एक ने सपेरे का खेल देखने की इच्छा ज़ाहिर की तो उस के साथियों ने उसे जो बात कही, वह यहां लिखने लायक नहीं है ...समझने वाले समझ गये, मुझे पता है ...


स्मारक स्थल के बाहर पानी के टैंकर की व्यवस्था ..

यह उस रैली स्थल का मुख्य प्रवेश-द्वार ...ज़ूम कर के देखिए... 

किताबें बिक रही थीं, फ्रूट चाट , लईया-चना, कमीज़ों की रेहड़ीयां का काम अच्छा चल रहा था..





ये ऊपर खाली सड़कें शायद इसलिए खाली हैं क्योंकि ये लोगों के आने का मुख्य रुट नहीं था..
घर में भी अकेले ..बाहर भी अकेले ....कुछ बुज़ुर्ग...
लेकिन विश्व बुज़ुर्ग दिवस तो हम लोगों ने सेलीब्रेट कर लिया है न पहले ही ...

भाई, तुम कहां?...यह मेरा सहायक सुरेश है ...इस की ड्यूटी स्टेशन पर लगी थी ...
बाहर गांव से आने वाले लोगों के एमरजैंसी इलाज वाली टीम के एक हिस्से के रूप में
स्मारक के अंदर जाने के लिए ऊंची दीवार फांदने का उत्साह भी देखने लायक था..
एक अधेड़ औरत भी इस में शामिल थी...
बंगला पुल के पास भीड़ काफी थी, लेकिन बड़ी सुव्यवस्थित और शांत ..
यह कार्यकर्ता प्रचार गीत के ऊपर थिरक कर लोगों को एंटरटेन भी कर रहा था..
 इस को देखते ही मुझे यह गीत याद आ गया...मेरी तो उधर दस मिनट रुकने की इच्छा बड़ी प्रबल थी, लेकिन मेरे सहायक ने तुरंत कह दिया ...चलिए, सर...चलते हैं!


बंगला पुल 




बंगला बाज़ार से अभी भी लोग निरंतर रैली स्थल की तरफ़ प्रस्थान कर रहे थे ..
इतना टूर लगाने के बाद मुझे यही लगा जैसे मैंने परम आदरणीय बाबासाहेब भीम राव अंबेडकर की याद में भी स्मारक रूप में स्थापित कुछ मंदिरों की परिक्रमा कर ली सुबह सुबह ...

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

इन्हें कहां घुस के मारे कोई !

1975 में शोले फिल्म आई तो गब्बर का रोल देख कर शायद बच्चे सहम गये होंगे...

लेकिन फिर इतना इत्मीनान हो जाता कि यह तो फिल्मी कहानी नहीं है, ऐसा पहले कहीं होता होगा...फिर पता चला कि ये डकैत वकैत चंबल के बीहड़ों में अभी भी होते हैं...


पहले ये ट्रेनों में डकैतियां हिंदी फिल्मों में ही दिखती थीं...

लेकिन अब तो ....

अब तो आए दिन यह ट्रेन डकैतियों की खबरें आने लगी हैं...आम सी बात लगने लगी है शायद...लोग पता नहीं अब इन खबरों का संज्ञान लेते भी हैं या नहीं या यह सोच कर इत्मीनान कर लेते हैं कि शुक्र है कि मैं या मेरा बच्चा तो उस गाड़ी में नहीं था...

नहीं, हर जान की कीमत एक जैसी है ...उस एक जान के साथ बीसियों लोगों की जानें परोक्ष-अपरोक्ष रुप में जुड़ी होती हैं...
लखनऊ से जाने वाली ट्रेन डकैती वाली खबर ने आज सुबह का सारा उत्साह काफ़ूर कर दिया...सच मानिए, दूसरी कोई भी खबर और अगला पन्ना पटलने की इच्छा ही नहीं हुई...


पता नहीं यह पागलपन कब थमेगा! 

अब तो यही लगने लगा है कि जैसे खबरिया चैनल उस दिन उछल उछल कर घोषणा कर रहे थे कि आतंकियों को उन के घर में घुस कर मारा...अब पता नहीं इन आंतरिक आतंकियों का कब नंबर लगेगा...पता नहीं कभी लगेगा भी कि नहीं ! 

उन आतंकियों का पता तो लगा लिया गया ...उन्हें ठोक भी दिया गया लेकिन इन शातिर अंदरुनी आतंकियों का तो पता नहीं चलता ... कुछ दिन पहले किसी ने यह ज्ञान बांटा था...

सरकारें अपना काम कर रही हैं...छींकें आ जाने पर या शरीर में थोड़ी हरारत महसूस होने पर लोग अब रेल के आला अधिकारियों को तुरंत ट्वीट करने लगे हैं ...और अगले स्टेशन का डाक्टर कईं बार अढ़ाई घंटे मच्छरों से जूझते हुए उस मरीज़ को देखने के लिए ट्रेन का इंतज़ार करता रहता है ....यह बिल्कुल प्रामाणिक बात है ...

लेकिन छुर्रा-चाकू घोंप कर कोई कहीं भी गाड़ी में घुस कर डकैत-लुटेरे गायब हो जाए...निःसंदेह चिंता का विषय तो है ही ...जुबान हम लोग पूरी खोल पाएं या नहीं, यह दूसरा मुद्दा है ... लेकिन इस तरह के असामाजिक तत्वों के मन में डर-खौफ का नामो-निशान ही नहीं रहा, ऐसा लगता है .......लगता ही नहीं है सिर्फ़, पक्की बात है ! 

अब इतनी पुलिस, इतनी आरपीएफ, इतने सुरक्षा दस्ते कहां से आएं......काश! जो उचक्के पकड़े जाएं, उन को सजा देने की प्रक्रिया तेज़ हाे जाए...और सज़ा सुनिश्चित हो ....तो शायद कुछ बात बने....

वरना यही प्रार्थना करिए कि आने वाली बुलेट ट्रेन में कुछ ऐसा भी प्रावधान हो कि यह डाकू-लुटेरों का भी अपने पास पता लगा के तुरंत बुलेट बरसाने लगे...ताकि यात्रियों के माल-जान की सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके...

आम आदमी कुछ कर तो सकता नहीं....बस चुपचाप इसे सुनता रहे ...बिना कुछ बोले-कहे ...





बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

रोशनाई का काम तो है ही रोशनी फैलाना...

रोशनाई का मतलब ?.... वही स्याही जो अब जगह जगह लोगों के चेहरों पर फैंकी जा रही है...

यह पागलपन ही है एक तरह से ... कुछ और न कर सके तो किसी के चेहरे पर स्याही ही फैंक दी...हिम्मत है तो इसी स्याही को पेन में उंडेल कर कुछ कमाल कीजिए...

रोशनाई का काम तो रोशनी फैलाना है बस...कम से कम सिरफिरे लोगों को इसे तो बख्श देना चाहिए...

आज भी देखी एक तस्वीर किसी नेता जी की ... स्याही गिरने की वजह से बौखलाए हुए दिख रहे थे...

यह पता नहीं स्याही का आइडिया इन खुराफ़ातियों को कहां से आ गया है ...पहले तो हालात और भी खराब थे...जिसे देखो स्टेज पर जूता फैंक दिया करता था..

दरअसल भारत जैसे प्रजातंत्र में इन चीज़ों की कोई जगह ही नहीं है...इस तरह की पागलपंथी करने वालों की अच्छी मुरम्मत होनी चाहिए...

मुझे यह लग रहा है कि कहीं इन स्याही फैंकने वालों के चक्कर में स्याही पर ही प्रतिबंध न लग जाए....जैसे और भी कईं चीज़ों पर लगा हुआ है ...अपना नाम, अता-पता लिखवाओ..आधार कार्ड की कापी लाओ..तो मिलेगी स्याही ...वरना नहीं!

आज स्याही से पुते हुए एक नेता की फोटो देखी तो अचानक से मेरे मन में बचपन में पहली कक्षा से लेकर अभी तक इस स्याही से अपने रिश्ते की बातें एक चलचित्र की भांति चलने लगीं...पांच पैसे की दवात, पांच पैसे की रोशनाई से लेकर अब चार हज़ार की कलम से चार सौ रूपये की स्याही से लिखने की ५० साल की यात्रा....मुझे लगता है कि मैं इस यात्रा के बारे में बहुत से लेख कभी लिखूंगा...बच्चे भी बडा़ मज़ाक करते हैं कि ये बापू के हथियार हैं....मुझे लगता था कि ये जो हज़ारों रूपये के पेन हैं, ये बेकार हैं....नौटंकीयां हैं बेकार की... लेकिन नहीं....एक बार इस्तेमाल करने के बाद इन की लत लग जाती है....
इसे देख कर ४० साल पुराने दिन तो याद आ ही गये होंगे आप को भी ...
यह अकसर होता ही है ..कुछ साल पहले मैं एक जूता खरीद रहा था...एक युवक एक विदेशी ब्रांड की ही डिमांड कर रहा था...शायद वह उन के पास था नहीं...मैंने ऐसे ही कह दिया कि वह नहीं तो यह भी तो ठीक ही है...लेकिन उस युवक ने मुझे इतना कहा कि सर, adidas का जूता पहनने के बाद अब मेरे से कोई जूता पहना ही नहीं जाता...अब जब मैं भी इस तरह के दूसरे ब्रांड्स के शूज़ खरीदने की हिम्मत करने लगा हूं...बच्चों के द्वारा बार बार फटकारे जाने के बाद ...अब मैं सोचता हूं कि जूते ही यही हैं। किस तरह से हमारे ओपिनियन, शायद हमारे नखरे भी ... और हमारा नज़रिया भी चीज़ों के बारे में निरंतर बदलता रहता है ......As my son often says... "Money is damn important. It buys experiences!" मुझे भी अब कुछ कुछ ऐसा ही लगने लगा है 😀 😘

चार सौ रूपये का यह शॉक जो अब मैं झेल लेता हूं खुशी खुशी ..😀
दो चार दिन पहले मेरा बेटे ने किसी जगह अपने दस्तख़त करने थे...टेबल पर मेरा पैन पड़ा था...साईन करने के बाद कहने लगा कि बापू, कमाल का पैन है ....मजा आ गया है ...साईन करते मुझे लग रहा था जैसे मैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हूं...

यह बात सच है कि जब तक हम लोग किसी चीज़ का इस्तेमाल नहीं करते ...हमें अंगूर खट्टे ही लगते हैं शायद...लेकिन एक बार इन्हें इस्तेमाल करने के बाद तो फिर बस....

जब मैंने इस तरह के कीमती पेन खरीदने शुरु किए तो भी साथ में पार्कर की इंक खरीदनी भी थोड़ी महंगी ही लगती थी...छोटी सी शीशी ५० रूपये की ....बंबई में था कुछ साल पहले तो इंक देख रहा था ...कोई आठ सौ की, कोई छः सौ की ...मैंने भी हिम्मत के चार सौ रूपये की एक शीशी ले ही ली...मैं इस तरह की फिज़ूलखर्ची करते समय आज के युवाओं के बारे में सोच लेता हूं ...वे परवाह नहीं करते पैसे की तो ...हम ही क्यों करें!

लेकिन यकीन मानिए, उस चार सौ रूपये की इंक की बोतल से मुझे पता चला कि इंक इसे कहते हैं....उस का फ्लो, उस की चमक, उस की चकाचौंध.......फिर तो मुझे उस इंक की ही लत लग गई...मैं जब भी उसे खरीदता हूं सोचता हूं कि दो पिज़्जा खरीद रहा हूं... तो चार सौ रूपये की स्याही खरीदते हुए शॉक नहीं लगता...

बस, मेरे ख्याल में स्याही के बारे में इतना ही काफ़ी है अभी के लिए...बस वही विचार है कि रोशनाई से रोशनी फैलाने का ही काम कीजिए....इस के इस्तेमाल से लोगों के जीवन से अंधकार मिटाने का प्रयास कीजिए.....इस तरह की स्याही फैंकने वाला शोहदापन हमें कष्ट देता है ...

महंगे पेन और स्याही की बातों को अब बंद कर रहा हूं ...यह तस्वीर लगा कर ... डॉयरी का यह पन्ना मैंने वही बचपन वाली कलम से उसी स्याही से ही लिखा था (लखनऊ में इस कलम को सेठा कहते हैं...) ..और यह वाला पन्ना मुझे बहुत प्रिय है ....


इंक्म टैक्स वालों के पास अगर यह पोस्ट पहुंच जाए तो पहली raid वह मेरे यहां ही मार देंगें.......लेकिन उन्हें किताबों कापियों, ़डॉयरियों, और लेखन हथियारों के अलावा कुछ भी नहीं हाथ लगने वाला....हम खुद अब अपने घर को कबाड़खाना और कभी कभी म्यूज़ियम कहने लगे हैं... और सच में यह ऐसा ही है !!

रविवार, 2 अक्तूबर 2016

पंजाबियों से नफ़रत !

कोई कोई मरीज़ भी न..

मरीज़ के साथ बहस करना, उलझना...यह सब डाक्टर लोग नही करते अकसर...मुझे भी इस से बड़ी नफ़रत है ...मैं तो बहस किसी से भी नहीं करता...शुरू से ही ऐसा ही हूं...क्योंकि मेरा सिर दुःखने लगता है बहसबाजी के नाम ही से...चुप रह कर हार मान लेना या हां में हां मिला देना ठीक लगता है ...

लेकिन फिर भी कईं महीनों के बाद एक न एक मरीज़ अच्छा सिर दुःखा जाता है ... दो चार दिन पहले एक आया था...इस तरह के मरीज़ जब कभी भी दोबारा आते हैं तो उन्हें देखते ही उलझन होने लगती है ...

यह जो बंदा था, बेहद बदतमीज, अजीब सा बोलने का लहजा, ऊंची आवाज़ ....कोई बात नहीं, फिर भी सिर पर चढ़ने को उतारू...

मैं बहुत बार अपने अटैंडेंट से भी यही शेयर करता हूं कि किसी भी डाक्टर से बेेकार में उलझना हिमाकत है .. कुछ लोगों को दस मिनट  इंतज़ार करना भी दुश्वार होता है .. बात कुछ भी नहीं हुई कहने लगा मुझे सीएमएस (हमारे अस्पताल की हैड) से बात करनी होगी...मैंने कहा कर लेना..दरअसल, मैं समझता हूं कि हम एक छोटे से कमरे में बैठ कर कईं बार परेशान हो जाते हैं ...इसलिए सारे अस्पताल को, कर्मचारी संगठनों, कर्मचारियों की सारा दिन बातें सुनना और उद्योगीय शांति के नाम पर सब को साथ लेकर चलना बहुत मुश्किल काम है .....इसलिए मैं कभी नहीं चाहता कि हम लोग अपने चीफ़ को बेकार की छोटी छोटी बातों में उलझाए रखें...जो भी है, जैसे भी निर्णय खुद कर लेने चाहिए...

यह जिस मानस की मैं बात कर रहा हूं..इसे जुकाम-खांसी भी थी...और अचानक मेंरे सामने दो तीन बार ज़ोर ज़ोर से खांसा ...मुझे इसे इतना तो कहना ही पड़ा कि मुंह पर हाथ तो रख लो ....लेकिन उसने मेरी नहीं सुनी...और मुझे उसी समय लगा कि मुझे भी यह सौगात दे रहा है ... अब आज के ज़माने में एक अनपढ़ को भी पता है कि खांसते-छींकते हुए मुंह के ढक लेना होता है...ऐसे में मुझे तो बहुत बार ऐसा लगता है कि कुछ मरीज़ जानबूझ पर यह सब करते हैं...वे समझते हैं कि चिकित्सक सुपरमैन हैं....ऐसा नहीं है...इम्यूनिटी कितना बचा लेगी...अगर हमला करने वाले कीटाणु-विषाणु की संख्या ज़्यादा होगी तो कुछ नही ंहो पाता ...हम भी इन रोगों की चपेट में आ ही जाते हैं....कल से जुकाम से परेशान हूं..

हां, एक और ४० साल का व्यक्ति याद आ गया अभी अभी ... अपनी मां के इलाज के लिए आता है ...दस बारह बार आ चुका होगा...लेखक है ...बड़े बड़े सेठों और नेताओं की किताबें लिखता है ...प्रायोजित लेखन....दो दिन पहले अचानक कमरे में आया तो कहने लगा ...डाक्टर साहब, एक बात करनी है एक मिनट...मैंने कहा ..हां, हां, बोलिए.....उसने कहा कि आप पंजाबी हैं न, मैंने कहा ..हां,   फिर उसने कहा ...."डाक्टर साहब, मैं पंजाबियों से बेहद नफ़रत करता था लेकिन आप के यहां इतनी बार आने से मेरा यह इंप्रेशन हमेशा के लिए ध्वस्त हो गया है..."

मैं हैरान हुआ और पूछा कि ऐसा क्यों?.....कहने लगा कि मेरा किसी पंजाबी लड़की से प्यार हो गया था...आगे मैंने कुछ नहीं पूछा....वैसे वह ब्राह्मण परिवार से संबंध रखता है ...

मैं इसलिए खुश हो गया कि चलो, इसी बहाने पंजाबियों और पंजाबियत की सेवा ही कर दी मैंने कि उन के प्रति घृणा को मिटा दिया किसी इंसान के मन से ...हा हा हा हा हा हा ...

एक मरीज़ आता था, मुंह के छाले से ....पहले तो औरों से दवाई लेता रहा ..फिर मेरे पास आने लगा ...मुझे लगा कि इस की बायोप्सी होनी चाहिए.... मैंने उसे कहा कि बायोप्सी करते हैं.. नहीं माना, हर बार बहस...आप को मुझे दवाई देने में दिक्कत ही क्या है, आप दवाई ही नहीं देना चाहते....तीन चार पांच बार मैं उस का कहना मानता रहा....उस के बाद मैंने दवाई देने से मना कर दिया....तब उसे लगा कि बायोप्सी करवा ही लेनी चाहिए...बायोप्सी में कैंसर होने की बात पुष्ट हो गई..कैंसर रोग विशेषज्ञ के पास भेजा गया ....उसने कहा कि बहुत ही सही समय पर आ गये हो, दो तीन साल पहले की बात है ...उस की सर्जरी हो गई और वह ठीक ठाक है ...अब कहता है कि आपने बहुत अच्छा किया कि मुझे दवाई देने से जब मना किया....लेकिन उसे भी देखते ही मेरा सिर भारी हो जाता था.....बहुत बहस किया करता था...अब दो तीन महीने में आता है चैक अप के लिए और मैडीकल कालेज के डाक्टर की बात कहता है कि तुम तो अपने डाक्टर को ही दिखा लिया करो जिसने तुम्हें वक्त रहते हमारे यहां भेज दिया...

हर मरीज़...हर इंसान अलग है ... पंजाबी खराब नहीं होते....बहुत बार हम लोग ऐसे ही अपने मन में एक ओपिनियन बना लेते हैं....बेवकूफी होती है बिल्कुल ......लेकिन हम बाज कहां आते हैं! ..हर शख्स अपने आप में विलक्षण है....यह शिक्षा मुझे टाटा इंस्टीच्यूट आफ सोशल साईंसेस, बंबई  में पढ़ते हुए मिली...

शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

तंबाकू मुंह में दबाए हुए शख्स के दांत कैसे देखें!


"आप पहले इसे थूक के आइए !"...कल मैंने एक दांत का इलाज करवाने आए एक शख्स को बोला जो मुंह में तंबाकू दबाए डेंटल-चेयर पर बैठ गया था..

"यहीं कुल्ला कर लूं?" ...मैंने मना किया - नहीं, आप बाहर जा कर अच्छे से मुंह धो कर आइए..

लेकिन डाक्टर साहब, जहां मैंने यह रखा हुआ है उधर वाले दांत में तकलीफ़ नहीं है, तकलीफ़ तो ऊपर वाले दांत में है...
यह बात मैं पहली बार किसी मरीज़ के मुंह से सुन रहा था ..और मुझे आभास तो हो गया था कि यह कोई दबंग ही है...वरना, किसी चिकित्सक के पास जाकर इतनी जिरह..

बहरहाल, वह ७०-७२ वर्ष का बुज़ुर्ग बाहर गया, अच्छे से मुंह धो कर आया...

और फिर से अपनी तंबाकू का महिममंडन करने लगा... डाक्टर साहब, इसे तो हम सारा दिन मुंह में रखते हैं, रह ही नहीं पाते, पता ही नहीं कितने बरसों से इसे रख रहे हैं...अपने थैले में से ये पैकेट निकाल के मेरे सामने रख दिया..

आगे बताने लगे कि अभी तो मैं थूक आया हूं ...लेकिन एक बात बताऊं...मेरी बाजू की हड्डी गई थी टूट, उसे जोड़ने के लिए आप्रेशन चला साढ़े तीन घंटे...आप्रेशन से पहले मैंने मुंह में तंबाकू दबा लिया तो हड्डी के डाक्टर ने मुझे हड़का दिया...लेकिन मैंने भी कह दिया कि इस को अगर मैं मुंह में नहीं दबाऊंगा तो आप पांच मिनट भी मेरे ऊपर काम नहीं कर पाएंगे...बताने लगा कि आखिर डाक्टर मान गए..अच्छा, यह बात है तो दबा लो भई।


मैं यही सोच रहा था कि यार बंदा तो यह बडा़ दबंग है ...लेकिन मेरी मजबूरी थी कि मैं तंबाकू मुंह में रहते उस का मुंह कैसे देखूं! .. उस की दबंगई मुझे उस के तंबाकू का ब्रॉंड देख कर ही समझ में आ रही थी..

उस का इलाज होने के बाद जब मैं उस की दवाई लिख रहा था तो वह मुझे सुनाता जा रहा था कि यह पैकेट महज़ १२ रूपये का आता है ..सब कुछ इस में मिक्स है, चूना, खुशबू, गोंद... इस की आप महक तो देखिए....मैंने कहा ..नहीं, यार, अगर मेरा भी इसे चबाने को मन हो गया तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी...

यह पैकेट यह शख्स १५ दिन चलाता है ..सारा दिन इसे होठों के अँदर या गाल के अंदर कहीं भी दबा के रखता है और कहता है कि मैं इसे थूकता नहीं हूं..अंदर ही लेता हूं...मैंने कहा कि पैकेट पर तो लिखा है कि थूकना है ...कहने लगा, कुछ नही ंहोता...मैं इस के बिना नहीं रह सकता...

मैं इस के नुकसान गिनाने लगा तो कहने लगा, मैं इसे नहीं छोड़ पाऊंगा, इस के बिना जी नहीं पाऊंगा...और फिर गंभीर मुद्रा में कहने लगा कि डाक्साब, इस उम्र में अकेलापन बड़ा सालता है, घर में माहौल ऐसा है कि सब के बीच में भी मैं अपने आप को अकेला पाता हूं ...और इसी तंबाकू का सहारा है ...घर के बाहर मुझे अकेलापन नहीं लगता...

हां, तो मैंने इन के मुंह को अच्छे से देखा और इन के दांतों में तो बहुत सी खराबीयां थी हीं ...वे भी तंबाकू के इस्तेमाल से ही जुड़ी हुईं लेेकिन इस के अलावा मुंह के कैंसर या उस की पूर्वावस्था जैसी किसी तकलीफ़ के लक्षण नहीं दिखे .. मैंने समझाया तो बहुत लेकिन वे सुनने के लिए तैयार ही नहीं थे...

कहने लगे कि और तो और यह तंबाकू इतना बढ़िया है कि राहुल गांधी ने भी आधा पैकेट रख लिया था...उसे मिलने गये थे, मुंह में इसे दबाया हुआ था..जब इन का उससे वार्तालाप चल रहा था तो राहुल ने पूछा कि यह खुशबू कहां से आ रही है, इन्होंने बताया ...राहुल ने कहा कि क्या मैं यह पैकेट देख सकता हूं...राहुल ने देखा .. और इन से पूछ कर आधा पैकेट अपने पास रख लिया...इन्हें इस बात से शायद गर्व महसूस हो रहा था..लेकिन मुझे पता है राहुल ने खाया बिल्कुल न होगा....वह अलग बात है कि मीडिया में उन की रोड-यात्रा के दौरान कुल्फी खाते हुए...दो दिन पहले किसी ग्रामीण के घर दाल-रोटी खाते हुए तस्वीरें हमें दिखती रहती हैं, लेकिन तंबाकू खाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता!

इस शख्स की तंबाकू चबाने-खाने की आदतें ब्यां कर देने के बाद मुझे लगता है कि कुछ बातें क्लियर करनी ज़रूरी है....
अगर इस शख्स के मुंह में तंबाकू से पैदा होने वाली दांतों एवं मसूड़ों से इतर कोई गंभीर जानलेवा बीमारी के लक्षण नहीं भी हैं ..तो भी हम यह नहीं कह सकते कि तंबाकू ने इस के शरीर पर कुछ असर नही ंकिया होगा...तरह तरह की जांचें जब विभिन्न विशेषज्ञ करते हैं तो ही समझ में आती है कि तंबाकू किस अंग में किस तरह से कहर बरपा रहा है ... हां, शायद कुछ हाड-कोर किस्म के बच भी जाते हों...यह भी संभव है ..लेेकिन कौन बचेगा और कौन चपेट में आ जायेगा यह कोई नहीं कह सकता...इसलिए बेहतर यही है कि लोग इस तरह के शौक न ही पालें...फिर लत पड़ते देर नहीं लगती...

हां, एक बात याद आ गई...बहुत साल पहले किसी ने एक विशेषज्ञ से यह पूछा था कि मैंने तो आठ दस ही सिगरेट पी और मेरे फेफड़ों में दिक्कत आ गई , दिल की बीमारी हो गई...लेकिन मेरे ही गांव का मुसद्दी तो पिछले कम से कम ५० सालों से हुक्का, बीड़ी, तंबाकू ..पता नहीं क्या क्या खाए पी जा रहा है, हट्टा-कट्टा है, भला चंगा है...उस विशेषज्ञ ने बड़ी सटीक जवाब दिया था कि देखो भई, यह जो इस तरह के शौक हैं न, इन के शरीर पर होने वाले असर की तुलना आप इस से कर सकते हैं कि ये एक दीवार में पानी के रसाव की वजह से निरंतर सीलन जमा होने जैसी बात है ....यह सीलन तो जमा हो ही रही है ..अब कौन सी दीवार उस सीलन की वजह से गिर जायेगी या कौन सी टिकेगी ...यह कोई नहीं कह सकता.... अगर आप अपना भाग्य अजमाना ही चाहते हैं ...तो वह तो मुद्दा ही अलग है ...

तंबाकू का इस्तेमाल करने वालों में कौन सा अंग कब इस की चपेट में आ जाए...कोई कुछ नहीं कह सकता जब तक धमाका ही न हो जाए...मेरी नानी के दांतों में तकलीफ़ थीं, पहले सब जगह झोलाछाप डाक्टर ही थे, दांत भी उखाड़ देते थे ..टीके भी लगा देते थे, जुलाब की गोलियां भी दे देते थे...दांत उखवाड़ने के बाद सारा दिन सिर कस के लेटे रहना और सारा दिन खून बहते रहना ये आम सी बातें थी...वह भी डरती थीं ...इसलिए उन्होंने इस दर्द से बचने का एक रास्ता निकाल लिया...क्रीमी स्नफ आती थी ...थी क्या, अभी भी आती है ....जिसे नसवार कहते हैं...उन्होंने मुंह में उसे रखना शुरू कर दिया..लत पड़ गई.. हम बच्चों की बेवकूफी देखो कि हमें नानी के मुंह से आती वह महक बहुत भाती .. चुपके चुपके मंगवाया करती थीं वह डिब्बा हम बच्चों से ...लेकिन हर जगह वह साथ ही लेकर चलतीं...

बहरहाल, जब मैं दांतों की एबीसी जान गया तो सब से पहले उन के सारे दांत निकलवाए और जिस डैंटल कालेज में मैं पढ़ाता था, वहां से उन का डैंचर भी लग गया...बहुत बढ़िया...खाने पीने के मजे हो गये..लेकिन नसवार का इस्तेमाल चलता ही रहा, .कुछ सालों बाद लगभग ८० साल की अवस्था रही होगी..अचानक नानी को पेशाब के साथ खून आने लगा ... नहीं थम रहा था, जांच हुई , पेशाब की थैली (ब्लेडर) का कैंसर बताया गया...बहुत इलाज हुआ, आप्रेशन हुआ, रेडियोथेरेपी भी हुई..लेेकिन चंद ही महीनों में वे हमेशा के लिेए रुख्सत हो गईं....RIP, the noble, adorable granny!

और यही पता चला कि तंबाकू का इस्तेमाल करने वालों में ब्लेडर के कैंसर का भी रिस्क बहुत ज्यादा बढ़ जाता है ...क्योंकि इस तरह की चीज़ों का निष्कासन तो यूरिन से ही होता है ..अगर किसी का मुंह बच गया तो ब्लेडर काबू में आ गया....

हां, तो ऊपर मैं दबंग की बात कर रहा था...जो दांत दिखाने आया था लेकिन तंबाकू थूकने के लिए तैयार नहीं था...सड़क पर चलत ेचलते पान-गुटखे-मसाले के छींटे कपड़ों पर कभी कभी पड़ जाते हैं ...इस का कोई समाधान नहीं है, बेकार में अपना ब्लड-प्रेशर बढ़ाने से क्या हासिल, मरीज़ मुंह में कभी कभी मसाला, पान दबा कर आ जाते हैं ेलेकिन बाहर जा कर थूक कर आने के  लिए तुरंत मान भी जाते हैं...लेेकिन सब से डर तब लगता है जब मुंह में यह सब दबाए लोगों से कभी किसी दफ्तर या बाज़ार में बात करनी होती है ....उस समय मुझे उन की सेहत से कहीं ज़्यादा अपनी नई कमीज़ की सेहत की चिंता होती है ..अगर इस के ऊपर छींटे पड़ गये तो फिर यह तो गई! ...बहुत बार भुगत चुका हूं!

पिछले चालीस वर्षों से भी शायद ज्यादा समय से यह गीत जिस तरह से पान चबाने की आदत को ग्लैमराइज़ कर रहा है, इस ने भी हम लोगों की इस आदत को बहुत बढ़ावा दिया होगा...

कैंसर के इलाज का भी एक प्रोटोकॉल है

दो अढ़ाई साल पहले एक अधेड़ महिला मेरे पास मुंह में एक घाव के साथ आई...परेशान सी...उस का बेटा साथ में था।
मुझे देखने में कैंसर जैसे लक्षण दिखे..

वे बताने लगे कि दो बार बाहर से आप्रेशन करवा चुके हैं ..लेकिन फिर से यह ज़ख्म बन जाता है ...

मैंने कहा कि आप कागज़ ले कर आइए...ले आए वे अगले ही दिन..किसी सामान्य से प्राइवेट अस्पताल में किसी सर्जन ने उन की सर्जरी की हुई थी...लेकिन कुछ सिस्टेमिक सा नहीं लगा ...न ही तो इसे नियमित जांच के लिए बुलाया जाता था .. न ही कोई इस की रेडियोथैरेपी ही हुई थी (सिकाई)...रुपया-पैसा ये लोग बहुत लगा चुके थे ..दो लाख के करीब...बार बार रोेए जा रही थी वह औरत कि हम बच तो जाएंगे न!

मैंने इन दोनों को समझाया कि आप लोगों के लिए बेहतर यही होगा कि आप बंबई के टाटा कैंसर अस्पताल में चले जाइए...सब से बढ़िया आप का इलाज वही हो पाएगा..वे तुरंत मान गये..उस मरीज़ को वहां रेफर कर दिया गया..

दो तीन महीने बाद वह महिला दिखाने आई..बहुत खुश ...टाटा अस्पताल वालों ने अच्छे से आप्रेशन कर दिया था...और बाद में सिकाई (रेडियोथैरेपी) भी कर दी थी...वह बहुत खुश थी..अपने साथ बर्फी का डिब्बा भी लेकर आई...मैंने मना किया कि हम मिठाई नहीं खाते तो रोने लग पड़ी...अब पहले से परेशान महिला जो इतना भुगत चुकी थी उसे रुला कैसे सकते थे!

और उस के बाद वह नियमित तीन तीन महीने के बाद जांच के लिए टाटा में जाती रही ...वहां पर दो तीन दिन रहना पड़ता...वे लोग कुछ एक्सरे करते ...रक्त की जांचें करते ...और मुंह का निरीक्षण करते ...सब कुछ दुरुस्त है के आश्वासन पर मरीज़ को अगली तारीख देकर भेज दिया जाता...

मुझे नहीं पता कि अब उस ने कब टाटा में चैक-अप के लिए जाना है ...वैसे ही मुझे ध्यान आया कि उस के बेटे से बात करते हैं...अब वे लोग अपने गांव जा कर बस गये हैं...उस के बेटे को फोन लगाया अभी दस मिनट पहले, वह समझदार है...जिन मरीज़ों को मैं टाटा भेजता हूं उसे इस लड़के का और कुछ दूसरे लोगों का नंबर (जो वहां इलाज करवा चुके हैं!) दे देता हूं कि वहां जाने से पहले अगर मन में कुछ प्रश्न हों तो इन लोगों से बात कर लीजिए...यह लड़का सब को अच्छे से समझा देता है और बीमारी और नई जगह के बारे में उन के मन में उपजे डर का कुछ तो निवारण कर ही देता था...

मुझे आज उस से बात कर के बड़ा दुःख हुआ...बताने लगा कि मुंह आदि तो सब ठीक है ..लेकिन मां बरसात में गिर गई हैं..रीड़ की हड्डी टूट गई है ...बिस्तर पर पड़ी हुई हैं.....किस्मत के खेल!!

एक और वाकया आप से शेयर करना चाहता हूं... सात आठ साल पहले की बात है पीटर आया था मुंह में एक घाव के साथ... देखने में कैंसर सा ही लग रहा था..उस की तंबाकू खाने-चबाने की आदतें भी ऐसा ही शक पैदा कर रही थीं.. उसे बड़े सरकारी अस्पताल में भेजा गया ... बस, उस के बाद वह कभी दिखा ही नहीं ...बहुत महीने बीत जाने के बाद एक दिन किसी और काम से आया तो उस से पूछा कि हां, कैसा रहा इलाज...

बस, हो गया, सब ठीक है ...शुक्रिया आप का आपने बिल्कुल समय रहते वहां भिजवा दिया...

बातों बातों मे ंउसने बताया कि वहां पर इलाज के लिए बहुत लंबी लाइन थी...अभी एक महीना और नंबर नहीं आता ...मुझे तो वहां के एक डाक्टर अपने गांव के ही मिल गये ...उन्होंने मेरा इलाज एक नर्सिंग होम में जा कर कर दिया....जितने पैसे दूसरों से लेते थे, गांववाले होने के नाते मुझ से १०-१५ हज़ार कम ही लिए थे...

मैंने पूछा कि आप्रेशन के बाद कुछ सिकाई-विकाई हुई थी...नहीं, नहीं, कुछ नहीं...सब ठीक है ...मैंने उस से कहा था कि अपने कागज लेकर आना, देख लेंगे....लेकिन उस की बेपरवाही और मेरी बात को हल्के से लेना उस के लहजे से ही पता चल रहा था और वह लौट कर नहीं आया...

यह जो दूसरे मरीज़ की बात मैं शेयर कर रहा हूं ..वह इसलिए है क्योंकि ये बातें भी अब कड़वे सच की तरह हो गई हैं....बड़े बड़े संस्थानों में लंबी वेटिंग लिस्ट होती हैं ...ऐसे में इन मरीज़ों को लगता है कि इतने दिन भी क्यों इस रोग को पाला जाए, पैसा खर्च के इस से तुरंत निपट लेते हैं...

टाटा अस्पताल, पीजीआई संस्थान, मैडीकल कालेज, क्षेत्रीय कैंसर संस्थान .....ये सब ऐसी संस्थाएं हैं जहां पर कैंसर का इलाज करने के लिए एक टीम होती है ...मरीज़ की मैनेजमैंट से संबंधित कोई भी निर्णय एक टीम अनुभवी टीम द्वारा लिया जाता है ...एक बिल्कुल सटीक प्रोटोकॉल होता है जिसे वे लोग अच्छे से फालो भी करते हैं ...(मैं जितने भी मुंह के कैंसर के मरीज़ टाटा अस्पताल भेजता हूं...वहां से लौटने के बाद उन की पेशेंट केयर और सुव्यवस्था की प्रशंसा करते नहीं थकते!)...लेकिन इन संस्थाओं की भी अपनी क्षमता है, वे भी मरीज़ों का लोड एक सीमा तक ही उठा सकते हैं ....इसलिए किन मरीज़ों को उन की केयर चाहिए और किन का इलाज उन मरीज़ों के गृह-नगर के आस पास ही किया जा सकता है, वे यह भी निर्णय करते हैं ....और अभी वे लोग सर्जरी तो कर देते हैं लेकिन सिकाई आदि के लिए मरीज़ के गृह-नगर के मैडीकल विभाग के मैडीकल कालेज के नाम एक अच्छा सा विस्तृत नोट मरीज को दे देते हैं जिस में लिखा रहता है कि उन्होंने क्या किया है, और आगे इस का क्या किया जाना है ..और सिकाई की डोज़ तक वे लोग अपनी उस चिट्ठी में लिख देते हैं...

हां, तो मैं उस मरीज़ की बात कर रहा था जिस ने बाहर से आप्रेशन करवा लिया था...आप्रेशन ऐसे बाहर करवाने में कोई बुराई नहीं है...मैं जानता हूं कि जो लोग इस तरह के जटिल आप्रेशन करते होंगे वे एस प्रशिक्षित सर्जन तो होते ही हैं....लेेकिन मेरा ऐसा मानना है कि कहीं न कहीं कुछ कमी तो रह ही जाती है इस तरह की जल्दबाजी में ....

अब मैंने तो अभी तक शायद ही कोई मरीज़ देखा हो (मुझे इस समय याद नहीं आ रहा) जिस के मुंह की कैंसर की सर्जरी हुई हो और बाद में उसे रेडियोथैरेपी न दी गई हो....और इस तरह के निर्णय बड़े सरकारी अस्पतालों एवं संस्थानों में एक पूरी टीम किया करती है ....और जब एक ही डाक्टर किसी निजी अस्पताल में इस तरह का इलाज कर रहा है तो जाने अनजाने कुछ न कुछ तो छूटने की गुंजाईश तो रह ही जाती होगी...इस के कारणों की तरफ़ अगर आप देखेंगे तो आप भी समझ सकते हैं...

मरीज़ को यह पता नहीं होता अकसर किसी भी कैंसर का इलाज बस उस की सर्जरी ही नहीं होता ....उस के बाद उस की बॉयोप्सी रिपोर्ट आने के बाद आगे की रणनीति तय करना ..सिकाई के बारे में, रेगुलर फॉलो-अप के बारे में ...उस के जो अंग विकृत हुए हैं ...उन की पुर्नवास के बारे में ..इसके अलावा भी बहुत सी बातें होती हैं जिन्हें एक अनुभवी टीम के सदस्य देखते रहते हैं...

अच्छा, एक बात और भी है अब इस पर लोग चर्चा करने लगे हैं कि निजी कारपोरेट अस्पताल मरीज़ों और उन के तीमारदारों को इस के बारे में अंधकार में ही रखते हैं कि कौन से कैंसर का इलाज कितना कारगर है...और उस तरह के इलाज के बाद मरीज़ की लाइफ-एक्सपेंटेंसी कितनी है ..अब लोग यह आवाज़ उठाने लगे हैं कि अगर सारे इलाज के बाद भी मरीज़ ने कुछ सप्ताह ही जीना था, तो  इस के बारे में परिवारीजनों को कुछ तो संकेत दिया होता ....लाखों रूपयों खर्च होने के बाद भी आदमी तो बच नहीं सका....दर दर के कर्ज़दार अलग से हो गये...यह सब समस्याएं तो हैं ही ...और कुछ तो बदलने-वदलने वाला है नहीं, यह पक्की गारंटी हैं....लॉबी बड़ी शक्तिशाली है, अगर जनमानस ही सचेत हो जाए तो कुछ बात बन सकती है ...

और बात तो बाद की बात है ...सब से पहले चलिए आज से किसी भी रूप में तंबाकू के इस्तेमाल से तौबा कर लीजिए....आप बहुत सी बीमारियों से बचे रहेंगें...

बस, आज सुबह ये सब बातें शेयर करने की इच्छा हुई ....आज लगभग ६ महीने के बाद अपनी स्टडी-रूम में बैठ कर यह पोस्ट लिख रहा हूं ...वरना दूसरी जगहों पर बैठ कर लिखना मुश्किल ही होता है....आज बिल्कुल भी उमस न होने की वजह से महीनों बाद यहां बैठ कर इसलिए लिख पा रहा हूं क्योंकि स्टडी-रूम में एसी नहीं है..किराए का आशियाना है, तोड़-फोड़ मना है, बस, इसीलिए..लेेकिन टेबल पर बैठ कर लिखना बहुत सुविधाजनक है ...

मैं जो संदेश इस पोस्ट के माध्यम से आप तक पहुंचाना चाहता था, आशा है एक फीका सा आइडिया तो हो ही गया होगा.... Wish you all pink of health ...Stay healthy...stay blessed always...take care!

जनाब राहत इंदौरी साहब की इस बात से मैं पूरी इत्तेफाक रखता हूं...आप का इस के बारे में क्या ख्याल है ...

मेरे रेडवे पे इस समय जो गीत बज रहा है उस में दिलों का हाल चाल कुछ इस तरह से लिया-दिया जा रहा है .....आप भी सुनिए...

मंगलवार, 20 सितंबर 2016

विदेशी फल भी बेमौसमी फलों जैसे...

कुछ महीने पहले हम लोग गोवा गये तो मैं वहां पर तरह तरह के फल देख कर बहुत हैरान था...नाम तो पता होने का सवाल ही नहीं, मैंने इन्हें पहले कभी देखा भी नहीं था...बस, उत्सुकता वश उन्हें देख रहा था..विदेशी टूरिस्ट आ रहे थे और इन महंगे फलों को खरीद रहे थे.. फल-विक्रेता अपनी टूटी-फूटी और काम-चलाऊ अंग्रेजी से अच्छा-खासा काम चला रहे थे..

चलिए, उस दिन हम ने तो वहां विदेशी फलों की बहुत सी किस्में देख लीं (लेकिन हम खरीदे सिर्फ़ आम ही) ..वैसे दो चार इस तरह के विदेशी फल हम लोगों को रिलायंस ग्रीन, स्पैन्सर्ज़, बिग-बाज़ार में भी फ्रुट्स कार्नर में दिख जाते हैं..

मैंने इन फलों को कभी नहीं खऱीदा...बहुत बार तो इन का नाम ही नहीं पता होता, अगर पैकिंग पर न लिखा हो तो, दूसरा, इन के स्वाद का कुछ पता नहीं होता और तीसरा कारण यह कि काफ़ी महंगे लगते हैं...इसलिए कभी भी इस तरह के नये नये फल खरीदने का सबब ही नहीं हुआ...

लेेकिन कल बाद दोपहर जब मैं टीवी पर एक प्रोग्राम देख रहा था तो मुझे यह जान कर अच्छा लगा कि अगर हम लोग विदेशी फल नहीं खरीदते तो यह कोई खराब बात नहीं है ...उस प्रोग्राम में बाबा रामदेव, एक हाई-प्रोफाईल डाइट-एक्सपर्ट और किसी कारपोरेट अस्पताल का कोई वरिष्ठ डाक्टर पहुंचा हुआ था.. नगमा इस कार्यक्रम को पेश कर रही थीं...

उस न्यूट्रीशिनिस्ट ने बड़े अच्छे से लोगों को यह समझाया कि जो फल किसी देश में पैदा होते हैं ...वे वहां क लोगों के लिए उसी मौसम में खाने के लिए मुफ़ीद होते हैं...यह प्रकृति की अपनी सुंदर व्यवस्था है...इसलिए अगर वहां पैदा होने वाले फल हम अपने यहां मंगवा कर उन्हें खाने लगें ...खूब महंगे होने की वजह से हम समझें कि यह हमारी सेहत के लिए बढ़िया है ...ऐसा बिल्कुल भी नहीं है...मुझे यह बात बिल्कुल सही लगी...

उस विशेषज्ञ ने किवी फल का उदाहरण लिया .. कि किस तरह से विटामिन सी के दीवाने किवी फ्रूट के पीछे दौड़ने लगे हैं और अपने अमरूद को खाने की परवाह नहीं करते जो कि उससे भी बेहतर विटामिन सी का स्रोत है ..

मुझे लगा कि इस बात को ब्लॉग पर शेयर किया जाना चाहिए...क्योंकि मैं बेमौसमी फलों के बारे में तो पिछले वर्षों में काफी लिख चुका हूं...अगर आदमी अपनी हैसियत से भी ज़्यादा सेब का मौसम न होते हुए भी २०० रूपये किलो सेब खरीद कर खाता है तो बेकार है ..इस का फंडा यही है कि किस मौसम में हमारी विभिन्न पौष्टिक तत्वों की क्या ज़रूरत है...प्रकृति उसी अनुसार हमें वही फल देती है ...

कोल्ड-स्टोर में रखे बेमौसमी फल सेहत के लिए मुफीद नहीं हो सकते...यहां तक कि बेमौसमी सब्जियों के लिए भी यही कहा जाता है कि बेमौसमी सब्जियां भी सेहत के लिए ठीक नहीं होतीं...इस तरह की सब्जियों की पैदावार के लिेए बहुत ज्यादा मात्रा में कीटनाशक का इस्तेमाल किया जाता है ...वही बात हुई ..एक करेला ऊपर से नीम चढ़ा।

कल वह प्रोग्राम ठीक ही था, रामदेव ने कहा (किसी रिपोर्टर ने कहा कि अब तो बाबा रामदेव देश का सब से बड़ा किसान है!)...कि प्लेटलेट्स तीन चार हज़ार होने पर अगर कोई एक बार गिलोई का सेवन कर ले ..उसे पी ले ..तो उस के प्लेटलेट्स एक ही दिन में १०-१२ हजा़र तक पहुंच जाते हैं...तब नगमा ने उस कारपोरेट अस्पताल के डाक्टर को पूछा कि आप का इस के बारे में क्या ओपिनियन है..उसने कहा कि मैं तो ऐसा पहली बार सुन रहा हूं...यह सुनते ही बाबा उछल पड़े कि मैंने तो नहीं कहा कि बुखार के लिेए पैरासिटामोल लेना ठीक नहीं है, इन्हें भी गिलोई से मुझे पता नहीं कि क्या परेशानी है!....वही बात है, दशकों से देख रहे हैं कि कोई समन्वय नहीं है...आयुर्वेदिक दावों की वैज्ञानिक पुष्टि शायद हो नहीं रही, सरकारी प्रयास कितने भी हो रहे हैं, एक प्रणाली दूसरे सिस्टम की सुनने के लिए तैयार नहीं है ...मुझे लगता यह ऐसे ही चलता रहेगा...हर तरह की मार्कीट शक्तियां काम पर लगी हुई हैं...एलोपैथी में ही नहीं, देशी-यूनानी में भी !

आज यह लिफ़ाफ़ा यहीं बंद कर रहा हूं.. कितना लिखें,यार, वैसे भी समझदार को ईशारा ही काफ़ी होता है ...

दलित फूडस
यह दलित फूड क्या है, मुझे भी इस के बारे में आज की दैनिक जागरण से ही पता चला..आप भी इस खबर को पढ लीजिए..


उस शहीद के बच्चों की कठिन परीक्षा वाली खबर से बड़ा ही ज्यादा दुःख हुआ.....ईश्वर किसी को भी इस तरह की परीक्षा में न डालें..


सोमवार, 19 सितंबर 2016

टैटू गुदवाना एक खतरनाक शौक तो है ही ..

कितनी बार मैं इस विषय पर पहले भी लिख चुका हूं..लेकिन बार बार लिखने से अपने आप को रोक नहीं पाता क्योंकि आज के युवाओं में इस से जुड़े खतरों से बहुत कम जानकारी है..मुझे हमेशा ऐसा लगता है ..

मैं भी कुछ पिछले १५ वर्षों से पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के मेलों-त्योहारों में इन टैटू गुदवाने वालों का क्रेज देख रहा हूं...पंजाब के मुक्तसर में माघी मेला लगता है ...लगभग १५ साल पहले मैंने वहां सैंकड़ों लोगों को टैटू गुदवाते देखा ..बिल्कुल खराब हालात...अनहाईजिनिक... बीमारियां परोसने के अड्डे एक तरह से..

जी हां, जिस तरह से सड़कों पर बैठे कारीगरों द्वारा टैटू बनाए जाते हैं ...उन के फन के पूरे नंबर हैं..लेकिन वे भी नहीं जानते कि वे जाने-अनजाने हैपेटाइटिस बी, सी और एचआईव्ही इंफेक्शन जैसी गंभीर समस्याएं फैला रहे हैं...फैला तो और भी लोग रहे हैं...सड़क किनारे बैठे दा़ंतों के डाक्टर मरीज़ों का जब इलाज करते हैं, झोलाछाप जब अपने शिकारों को एक छींक आने पर सूई घोंप देता है, फुटपाथों पर बैठे नाई, चलते फिरते लाल टोपी धारी कान रोग विशेषज्ञ, भगंदर को जड़ से खत्म करने का दावा करने वाले बंगाली डाक्टर (इसी नाम से इन्हें बुलाया जाता है)...ये सब भी बीमारियां फैला भी रहे हैं और अकसर इन में स्वयं भी इस तरह की इंफेक्शन होने का अंदेशा तो रहता ही है ..


दो तीन पहले की बात है मैं लखनऊ में कहीं टहल रहा था, यह टैटू देखा तो इस बंदे से पूछ ही लिया कि यह क्या है, कहने लगा कि मंत्र है...मैंने पूछा कि इतनी बड़ी लिखत-पढ़त आज पहली बार देख रहा हूं...फोटो ले लूं?...उसने आज्ञा दे दी. वैसे हैं तो ये फिजूल के पंगे ...जो मैं अब लेने का आदि हो चुका हूं...अब कुछ नहीं हो सकता!

आज सुबह इस बंदे को ओपीडी में देखा तो इस का टैटू यह दिख गया...

मैंने इस को कहा कि तुमने भी सैफ की तरह का काम करवाया हुआ है!

मेरा सहायक पास ही खड़ा था, कहने लगा कि इस काम में एक दिक्कत है ...एक दोस्त का किस्सा बताने लगा कि उस की शादी हुई ..बीवी का नाम गुदवा लिया बाजू पर...लेकिन कुछ समय बाद उस से अनबन रहने लगी ..कहने लगा कि मुझे अब उस के नाम से भी नफरत है, सुबह सुबह बाजू देखता हूं तो उस का नाम दिखता है, बहुत खराब लगता है ...इसी चक्कर में उसने एक दिन चाकू से छील कर और किसी जुगाड़ से अपनी बाजू के उस हिस्से की चमड़ी ही जला डाली..


दो चार दिन पहले यहां हमारे घर के पास ही एक मेला लगा हुआ था...रात के ११ बजे के करीब भी इन टैटू गुदवाने वालों की दुकानदारी चमक रही थी ...बहुत से युवा लगभग इन दर्जन भर टैटू-मेकर्ज़ को घेर कर बैठे हुए थे ...इस तरह की भीड़ में किसी को कुछ सलाह नहीं दी जा सकती ...लेेकिन वे सभी बच्चे अपने आप को विभिन्न खतरनाक बीमारियों को एक्सपोज़ तो कर ही रहे थे..

ऐसा नहीं है कि ये टैटू इन जगहों पर ही गुदवाना खतरनाक है, बडे़ बड़े टुरिस्ट जगहों जैसे मनाली, गोवा, शिमला जैसी जगहों पर बड़े बड़े टैटू स्टूडियों में भी क्या पूरी तरह से एसैप्सिज़ रख पाते होंगे कि नहीं, कुछ पता नही....मुझे ऐसे लगता है कि नॉन-मैडीकल युवाओं के लिए इस तरह के काम पूरी सुरक्षा अंजाम दे पाना नामुमकिन सा होता होगा...दरअसल मुझे इन जगहों की टैटू सुविधाओं के बारे में कुछ ज्यादा पता भी नहीं है।

मुझे नहीं पता टैटू गुदवाने का इतिहास कितना पुराना है ..लेकिन हमारे पेरेन्ट्स, ग्रैंडपेरेन्ट्स सभी लोगों के हाथ या बाजू पर कुछ न कुछ गुदा ही रहा है ..या तो कोई धार्मिक चिन्ह या उनका नाम ...लेकिन पहले भी इस से संक्रमण होते तो होंगे, हमें उन का नाम नहीं पता होगा...जैसे हम आज कल हैपेटाइटिस सी के बारे में सुन रहे हैं कि इतने केस इसलिए आ रहे हैं क्योंकि बीस-तीस साल पहले रक्त चढ़ाने से पहले हैपेटाइटिस सी का परीक्षण ही नहीं होता था...बस, इसी चक्कर में भी संभवतः यह संक्रमण व्यापक स्तर पर फैलता रहा होगा...जो केस कुछ वर्षों बाद लिवर डिसीज़ होने पर चिकित्सकों की पकड़ में आने लगे..ऐसा ही है यह  टैटू गुदवाने का खतरनाक खेल...कुछ भयंकर बीमारियां जिन के बारे में पुख्ता प्रमाण हैं कि वे इस से फैल सकती हैं...हो सकता है कि कुछ बीमारियां और भी हों, जिन के बारे में हमें पता ही न हो!

हम तो अभी तक टैटू के लिए इस्तेमाल की जाने वाली मशीन की सूईं को लेकर ही चिंताग्रस्त हैं, लेकिन विकसित देशों में तो वे दूसरी बात से परेशान है ..इस के लिए इस्तेमाल की होने वाली इंक की मिलावट और उसमें जीवाणुओं की कंटेमीनेशन के बारे में वे बड़े सजग हैं..मैंने कुछ पेपर्ज देखे थे ...

चलिए, इस बात को यही खत्म करते हैं .. ढिंढोरा पीटना हमारा काम है, कोई भी निर्णय लेना पाठकों के हाथ में है! Take care...Tattoos and body-piercing are not as harmless as they are projected to be! वही ठीक है, जैसे बच्चे करते हैं ..डिस्पोजेबल टाइप के टैटू, दो मिनट में लगाते हैं, दोस्तों के साथ उन की पार्टी में चिल करते हैं..और अगले दिन धो डालते हैं...


बेवकूफ़ी का सौंदर्य ...

आज कल मैं ब्लॉगर मित्र अनूप शुक्ला की हास्य-व्यंग्य पुस्तक बेवकूफ़ी का सौंदर्य पढ़ रहा हूं ..इसलिए सोचा कि अब इस पोस्ट का नया शीर्षक कहां से लाऊं...उसी से ही काम चला लेता हूं...

अनूप शुक्ला का तारुफ़ मैं आप से पहले भी करवा चुका हूं ..उन का फुरसतिया ब्लॉग पिछले १०-१२ वर्षों से बहुत बढ़िया चल रहा है ...मैंं तो इन की फेसबुक पोस्टों को भी बिल्कुल एक अच्छे विद्यार्थी की तरह पढ़ता हूं ...बहुत ही बढ़िया लिखते हैं ...

मुझे भी लगा कि मेरे पोस्टें कुछ ज़्यादा ही भारी भरकम होने लगी हैं...मुझे ही बोझिल लगती हैं ! थोड़ा हल्कापन भी होना ज़रूरी है।

मैं आज सुबह सोच रहा था कि दिन में हम बीसियों ऐसी बातों को सोचते, देखते, अनुभव करते हैं जिस से हमें हंसी आ जाती है ..कभी हम खुल कर हंस लेते हैं ..नहीं तो मन ही मन ...शायद कईं बार लगता होगा कि यह तो यार बेवकूफ़ी वाली बात है, इसे कैसे दोस्तों के साथ शेयर कर के उपहास के पात्र बन सकते हैं!

बस, यहां गलती कर देते हैं हम...छोटी छोटी बेवकूफियों से अगर हमें आनंद मिलता है तो फिर उन्हें लिख-पढ़ या सुना कर दूसरों के साथ शेयर करने में हर्ज़ ही क्या है!

दगड़ू बता रहा था कि अब उन के यहां यह फरमान आया है कि ये जो स्वच्छता मुहिम चलाई जाती है ..इसके लिए भी अब सख्ती हो रही है विभाग में ...शुरू शुरू में तो लोगों का हाथ में झाड़ू उठा लेने से चल जाता था...खट कर के फोटू खींची और डाल दी सोशल मीडिया के कुएं में...लेकिन फिर मांग होने लगी कि स्वच्छता अभियान के बाद जो साफ़-सफ़ाई हुई...वह भी तो दिखनी चाहिए...इसलिए सफाई के बाद की भी फोटू उस कुएं में डालनी लाज़मी हो गई...लेकिन कुछ तो खुराफ़ाती लोग रहे होंगे तब भी ..इसलिए मुलाजिमों को और कस दिया गया कि सुनो, पहले तो जिस गंदगी वाले एरिया में सफाई करोगे उस की बदहाली ब्यां करती कुछ फोटू डालो...और फिर बाद में सफ़ाई हो जाने के बाद की फोटू डालो....शायद इतना काफ़ी न था, अब यह टंटा भी जल्दी खत्म हो जाए...अब ही वीडियो अपलोड करनी पड़ेगी...दगड़ू को तो लगने लगा है कि जब से फोनों में कैमरे आ गये हैं यह गंदगी भी तभी से दिखने लगी है...

दगडू भी बड़ी चुटकियां लेता है ..हंसते हंसते कह रहा था कि कईं फोटे देख कर गंदगी के तो हंसते हुए पेट में बल पड़ जाते हैं..मुझे कहने लगा ध्यान से देखिएगा उन फोटो को ..साफ़ लगता है कि अब सफाई करनी है तो कुछ तो नीचे गिरा दिया जाए...और फिर वे फोटू भी बड़ी वॉयरल हुआ करती थीं कि जितने पत्ते, उतने ही झाड़ू लेकर डटे हुए श्रमदान करने वाले ...उन तस्वीरों ने भी लोगों को खासा एंटरटेन किया... अब तो साहब यह आलम है कि बहुत बार सफ़ाई करते समय वे पत्ते भी नहीं दिखते ...लेेकिन अब एडिटिंग टूल्स भी लोग समझने लगे हैं ...वे फर्श दिखाते ही नहीं बहुत बार...


सफाई के लिए हमें सच में अपनी मानसिकता बदलनी होगी ...दिल से...ये रस्में भी ज़रूरी हैं क्योंकि लोगों की यादाश्त बड़ी कच्ची होती है ...लेकिन इस समय मुझे प्रधानमंत्री मोदी के मन की एक बात याद आ रही है ..जब इन गौरक्षकों ने धूम मचा रखी थी, किसी को कहीं भी पकड़ पर गोरक्षा के नाम पर टाइट कर देते थे....ऐसे में  उन्होंने कुछ दिन पहले कहा कि ये गौरक्षक नहीं हैं...पता नहीं कौन कौन से तत्व इस में घुस आये हैं...अगर गऊमाता से इन्हें इतना ही प्यार है तो सब से पहले ये पालीथीन से गऊयों को बचा लें....वे बता रहे थे कि जब वे मुख्यमंत्री थे गुजरात में तो एक बार उन्होंने देखा कि एक गाय के पेट से दो बाल्टी भर कर पालीथीन की थैलियां निकाली गईं थीं....

मुझे यह बात बहुत सही लगी कि हम लोग इतने प्रयासों के बावजूद भी पालीथीन को रोक नहीं पा रहे ...मुझे तो तब बहुत खुशी होगी जब हम लोग इस हठ को अपने मन से छोड़ देंगे...और इस का सब से बढ़िया प्रमाण वही होगा जब हमें कोई भी गाय सड़कों पर पालीथीन की थैली चबाते हुए नहीं दिखेगी...सच में यह दृश्य बेहद दुःखी करता है ...मन रोता है उस समय कि यह बेजुबान जानवर हमारी बेवकूफ़ी का खामियाजा भुगत रही है ... वैसे भी हम लोग जगह जगह बड़े बडे़ पालीथीन की थैलियों के अंबार लगे देखते हैं तो यही प्रार्थना करते हैं कि ये कैसे भी लोग इस्तेमाल करना बंद कर दें तो ही हर तरफ फैली इस गंदगी का शायद कुछ हो जाए...


कल मैं बाज़ार गया तो कपड़े का थैला लेकर जाना भूल गया... वहीं पर एक व्यक्ति चलते फिरते थैले बेच रहा था...मैंने भी उस से ले लिया ...खरीदने से पहले ही मुझे लगा कि यार, मैं यह क्या ले रहा हूं ...सारा दिन तो मैं पानमसाले-गुटखे की भर्त्सना करता रहता हूं और थैला इन पानमसालों की ब्रॉंड-अम्बैसेडरी वाला....सब से डर तो मुझे लगा कि अगर कोई मरीज़ ने मुझे इस थैले के साथ देख लिया तो मेरी तो छुट्टी हो गई पक्की... उसने अगर मुझे कहा न भी तो मन में यही सोचेगा कि अस्पताल में तो हमें पानमसाले के विरोध में भाषण पिलाता रहता है ...और यहां देखो....

बहरहाल, मैं मजबूर था...मैंने यही सोचा कि मेरे कहने पर मेरे मरीज़ अगर यह सब खाना छोड़ते नहीं तो मुझे इस थैले से साथ देख कर कौन है जो खाना शुरू कर देगा!...वैसे भी पानमसाले-गुटखे के सेचूरेशन प्वाईंट तक तो हम पहले ही पहुंच चुके हैं!!

सब्जियों के बारे में भी कुछ बेवकूफी से भरी बातें कर के इस पोस्ट को बंद करूंगा...

कल बाज़ार में देखा कि आंवले और मूंगफली आ चुकी है .. और कचालू (बंडा) भी खूब बिक रहा है ...  तीनें चीज़ें खरीदी गईं...है कि नहीं बेवकूफी, ये भी कोई लिखने वाली बातें हैं !

इस सीज़न में पहली बार कल बाज़ार में आंवले दिखे ..
मुझे याद है पहले आंवले हमें शीतकाल के दिनों में ही दिखते थे  
कल ही पहली बार सीज़न की मूंगफली भी दिख गई ..मैंने कहा ..भाई, यह तो कच्ची है,
उसने बताया कि यह उबाल कर खाने वाली है बाबू 
कचालू तो अपने फेवरेट हैं ही ...यहां लखनऊ में इसे बंडा कहते हैंं...
फोटू ली थी इसलिए आप से शेयर कर दीं.

हमें यहां तो रेडियो धीरे धीरे टीवी की जगह लेता दिख रहा है ...
कुछ भी करते समय ... कुछ भी लिखते समय ..ध्यान कल उड़ी के उन शहीदों की तरफ़ ही जाता है बार बार ..कोटि कोटि नमन 

रविवार, 18 सितंबर 2016

शायद आज पहली बार रेडियो पर स्वपनदोष शब्द सुना ...

रेडियो-ट्रांजिस्टरों के संग्रह में हमारे यहां नेशनल पैनॉसॉनिक का एक टू-इन-वन भी है ...कभी भी इसे लगा लेते हैं...इस की साउंड-क्वालिटी बहुत बढ़िया है .. लेकिन इस में अब कैसेट चलती नहीं..जो कैसेट्स दो चार रखी हुई हैं शायद इतनी पुरानी हो चली हैं कि लगाते ही अंदर फंस जाती है ...जैसा कि आज सुबह यह कांड हुआ जिस की फोटू मैंने अपने मित्रों से शेयर भी करी
 आज सुबह के इस कांड ने तो ३६ साल पुराने ज़ख्म हरे कर दिए...
चलिए यह भी बता देते हैं कि मैंने काफी समय तक रेडियो धमाल नाम से एक ब्लाग भी बनाया ..उस पर रेडियो के जमाने की अपनी यादों को सहेजने की कोशिश भी करी ..अभी भी कायम-दायम है वह भी ...लेकिन यहां यह भी बताना ज़रूरी होगा आज के जेनरेशन के लिए कि एफएम के अलावा भी रेडियो की दुनिया है .. एफएम तो शायद १९९४ में आया...इस से पहले केवल मीडियम वेव फ्रिक्वेंसी पर आल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस और विविध भारती जैसे प्रोग्राम ही हम लोग अकसर सुना करते थे ..विविध भारती भी तो बहुत बाद में ही आया था..कुछ कुछ शहरों में ही कैच हुआ करता था..

शार्ट वेव की बात करें तो मुझे अपने पड़ोस के नानक सिंह अंकल जी की याद आती है कि किस तरह से वह १९७१ के हिंदु-पाक युद्ध और शायद १९७२ में बंगला देश बनने की खबरें सुनने के लिेए अपने बरामदे में अपना ट्रांजिस्टर पकड़ कर उसे इधर उधर घुमा कर बीबीसी की खबरें या रेडियो सिलोन कैच करने की कोशिश करते ..और अगर पांच दस मिनट बीबीसी कैच हो जाता तो हम भी उन के साथ वे खबरें सुन लेते ..इस के अलावा शॉट वेव से अपना कोई नाता दरअसल रहा नहीं..

भूमिका कुछ ज़्यादा होती दिख रही है ... मेरे में यही बुरी बात है कि मैं बात को खींचता बहुत ज़्यादा हूं ..कोई बात नहीं, सुधर जाऊंगा धीरे धीरे...

हां, तो मैं अपने नेशनल पैनासानिक वाले सेट की बात कर रहा था ...एक टेप कटवाने के बाद मुझे लगा कि चलिए आज इस पर रेडियो ही सुनते है ं...खुशी हुई कि उस समय आकाशवाणी लखनऊ के कार्यक्रम चल रहे थे ...

पाठकों की सुविधा के लिए बताना चाहूंगा कि ये जो एफएम की सुविधा है यह हर जगह नहीं है ..अभी भी अधिकतर हिंदोस्तान अपनी रेडियो की ज़रूरतें मीडियम वेव के द्वारा ही पूरी करता है ..और सरकार के अब इस सर्विस को चलाए रखना ज़्यादा से ज्यादा खर्चीला होता जा रहा है ..लेकिन चिंता न करिए...प्रधानमंत्री की मन की बातें भी अधिकतर इस मीडियम वेव से ही देश के जनमानस तक पहुंचती है ...

हां, तो जैसे ही मैंने रेडियो लगाया तो स्वपनदोष पर कुछ प्रोग्राम चल रहा था ...मेरे लिए यह एक सुखद आश्चर्य था ...आल इंडिया रेडियो पर स्वपनदोष के बारे में बातें हो रही हैं....

मैंने भी कुछ नौ-दस साल पहले इस विषय पर एक लेख लिखा था अपने एक दूसरे ब्लॉग हैल्थ-टिप्स पर ....जिस का शीर्षक था...स्वपनदोष जब कोई दोष है ही नहीं तो!  बस, ऐसे ही एक दिन मन किया कि आज इस विषय पर लिखते हैं ...तरूण एवं युवा बड़े परेशान रहते हैं ...लिख दिया...इस के बाद तो मेरे पास थैंक्स की ईमेल्स का तांता लगने लगा .. मुझे भी अच्छा लगा..शुक्रिये की ईमेल आती हैं...अभी भी। मैंने क्या किया, जो मेरी परेशानी रही मेरे स्कूल-कालेज के दिनों में उसे ईमानदारी से यंगस्टर्ज़ के सामने रख दिया और उस से जुड़ी भ्रांतियों का ध्वस्त करने का प्रयास किया ...जिस की वजह से मैं लगभग सात आठ साल परेशान रहा ...बस, मैंने इतना ही किया . अभी मेरी इस लेख के आंकड़ों पर नज़र पड़ी तो मैंने पाया कि इसे साठ हजा़र लोग पढ़ चुके हैं...

हां, तो आज जो आकाशवाणी लखनऊ पर कार्यक्रम चल रहा था जिस में स्वपनदोष पर चर्चा हो रही थी ...मुझे वे बातें मेरे लेख से बिल्कुल मेल खाती दिखीं... कुछ प्रश्न किये जा रहे थे ..एक प्रश्न आया कि क्या स्वपनदोष उन लड़कों में ही होता है जो लड़कियों के बारे में गलत सोचते हैं ....उस का जवाब उस प्रोग्राम में यह दिया गया कि नहीं, यह हर युवक में होता है ...यह कोई बीमारी नहीं है, बात केवल इतनी सी है कि जब आप के शुक्राणु परिपक्व हो जाते हैं तो वे स्वपनदोष के जरिये आप के शरीर से बाहर निकल जाते हैं...

मुझे उस प्रोग्राम को सुनते यही लग रहा था कि जितनी जानकारी तरूणावस्था एवं नवयुवकों एक आकाशवाणी जैसे मीडियम के द्वारा उपलब्ध करवाई जानी मुनासिब है, वे उसे बढ़िया से पहुंचा ही रहे थे ..हां, कार्यक्रम का नाम था..."मैं कुछ भी कर सकती हूं!"

प्रोग्राम में यह भी बताया गया कि इस से कमजोरी नहीं होती ...यह भी समझाया गया कि इस स्वपनदोष की वजह से बहुत से बच्चों का अपनी पढ़ाई में मन नहीं लगता ...वे समझते हैं कि यह एक बीमारी हो गई है उन्हें .. जी हां, यही होता है ..मेरे साथ भी तो ऐसा ही हुआ ...नवीं कक्षा से लेकर १९७७ से अगले लगभग पांच साल तक मैं भी इसी काल्पनिक परेशानी से ग्रस्त रहा ..पढ़ाई में मन नहीं लगता था...यही सोच कर कि पता नहीं यह कौन सा लफड़ा है... किताब सामने होती लेकिन अकसर ध्यान इस तरफ ही रहता कि क्या यह मेरे साथ ही हो रहा है...यहां तक कि क्लास में दोस्तों के साथ भी इस तरह की तकलीफ़ के बारे में कभी चर्चा नहीं की ...वे मेरे पढ़ाई लिखाई के सब से महत्वपूर्ण दिन थे..लेेकिन मैं अपने पोटेंशियल से बहुत कम पढ़ाई-लिखाई करता .. मन ही नही ंलगता थी, क्या करता! 

जब मैंने वह रेडियो लगाया उस के बाद वह प्रोग्राम बस पांच दस मिनट ही चला ..लेेकिन मुझे यह कल्पना ही इतनी सुखद लगी कि बहुत बढ़िया, इस तरह की सटीक जानकारी यंगस्टर्ज़ तक इतने बड़े मीडिया के द्वारा पहुंचाई गई ....आकाशवाणी लखनऊ को बहुत बहुत साधुवाद...कल निदेशक को या तो चिट्ठी लिखूंगा, वरना उन से मुलाकात ही करने चला जाऊंगा..

अच्छा लगता है जब लोग इस तरह के मुद्दों के बारे में बोलने लगते हैं...गंदी बात, गंदी बात वाले घिसे पिटे दिन नहीं रहे...अगर युवाओं में मन में कोई उलझन है तो उसे दूर करना ही होगा....मैंने अपने २००८ में लिखे लेख में भी यह गुज़ारिश की थी कि सभी पिता अपने तरूण बेटों को इस तरह के मुद्दों के बारे में समय तरह बताते रहा करें.. यह निहायत ज़रूरी है।

कुछ सप्ताह पहले यहां लखनऊ में यूनीसेफ की तरफ़ से एक बहुत बड़ा कार्यक्रम था स्कूली छात्राओं के लिए जिस में उन्हें सैनिटरी नैप्किन के महत्व आदि के बारे में बताया गया था ... मीडिया में इस मुद्दे को प्रमुखता से कवर किया गया था कि लड़कियों की पर्सनल हाइजिन (menstrual hygiene) ठीक न होने की वजह से उन में आगे चल कर महिलाओं से संबंधित कुछ रोग होने की संभावना ज्यादा होती है ...यूनिसेफ को बहुत बहुत बधाई ..अगर एक बार इस तरह की अलख जगी है तो इस की रोशनी देश के हर स्कूल की उस उम्र की बच्चियों तक भी पहुंचनी चाहिए..

ये सब ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें पुराने दिनों की तरह चटाई के नीचे नहीं सरकाया जा सकता .... हर छात्र-छात्रा को उऩ के मन में उथल-पुथल पैदा करने वाली बातों का उचित समाधान तलाशने का पूरा अधिकार है!

आप इस मुद्दे के बारे में क्या सोचते हैं? ...लिखिएगा...

मेरा नौ-दस साल पुराना लेख... मैंने इसमें कभी भी कुछ बदलाव नहीं किया .. यह रहा उस का लिंक .. स्वपनदोष जब कोई दोष है ही नहीं तो!