रविवार, 24 अप्रैल 2022

पिंजरे होने ही नहीं चाहिए....

सच में पिंजरे होने ही नहीं चाहिए...जिस का काम ही किसी की उड़ान में खलल डालने का हो, उस का वजूद भी किस काम का। मुझे पिंजरों से सख्त नफ़रत है...आप मन ही मन सोच रहे होंगे कि फिर क्या करें, चिड़िया घर के पिंजरों में कैद खतरनाक जानवरों का क्या करें, खुल्ला छोड़ दें, यह तू सुबह सुबह क्या बात कर रहा है....यही सोच रहे हैं न ...एक बात तो है कि अगर चिडि़या घर के अंदर बंद पिंजरों में कैद जानवरों की बात करें तो मुद्दे बहुत से हैं...इन जानवरों को भी बंद कर के रखना कितना मुनासिब है या नहीं, वह एक बड़ा मुद्दा है ...लेकिन इस वक्त तो मैं इन छोटे पक्षियों को छोटे पिंजरों में बद करने की बात करना चाह रहा हूं...

पिंजरों में बंद तोते बचपन से ही किसी न किसी के घर में देखते रहे हैं...उन के बोल सुन कर हैरानी होती थी, कभी यह सोचने की फुर्सत ही हमें कहां थी कि इस तोते को कैसे लगता होगा...बिना उड़ान के उस का भी तो दम घुटता होगा। बंद कमरों में कैसे हमारी जान पर भी बन आती है ...अभी ख्याल आ रहा है पंजाबी कॉमेडी की कुछ वीडियो का, पंजाबी के कुछ चुटकुलों का जिस में तोता को कुछ पंजाबी की गालियां सिखा दी जाती हैं...और फिर वह जब वह गालियां देता है तो सुनने वालों का पेट हंस हंस कर दुखने लगता है ...यह भी क्या बात हुई, इस वक्त मुझे एक भी ऐसा चुटकुला याद नही ंआ रहा, लेकिन मुझे ऐसे चुटकुलों ने बहुत हंसाया है..

लखनऊ में रहते थे तो वहां एक एरिया है नक्खास ...वहां पर कुछ दुकाने हैं, जहां पर सैंकड़ों रंग बिरंगे पिंजरे और सैंकड़ों रंग-बिरंगे छोेटे, छोटे प्यारे प्यारे परिंदे बिकते देखा करते थे ...मन खराब ही होता था जब लोग ये सब खरीद कर अपनी साईकिल या स्कूटर पर ले कर जाते थे...लखनऊ ही क्यों, अब तो जगह जगह ये सब कुछ बिकता ही है क्योंकि रंग बिरंगे परिंदे लोगों को खुश करते हैं ..

लेकिन यह तो कोई बात न हुई कि अपनी खुशी के लिए हम परिंदों को कैद कर दें...दाना-पानी कितना भी उम्दा हो, क्या फ़र्क पड़ता है, उड़ान भरने से तो उन्हें हमने वंचित कर दिया...कल किसी के ड्राईंग रूम में दो पिंजरे पड़े देखे..छोटे छोटे प्यारे प्यारे परिंदे उन में दिख रहे थे ..चुपचाप उदास से ही दिखे मुझे तो लेकिन उस के घर के बच्चे खुश थे...

रहम करो यार इन नन्हे परिंदों पर ...आज़ाद करो इन्हें 🙏

एक नौटंकी का ख्याल आ रहा है ...पहले तो खूब होती थी , आजकल भी होती होगी पता नहीं..क्योंकि मैं इस तरह की चोंचलेबाज़ी से कोसों दूर रहना पसंद करता हूं ...हम क्या देखते थे कि किसी त्योहार पर, किसी बड़े आयोजन के दौरान या उस से ठीक पहले कोई मुख्य अतिथि विथि टाइप का बंदा सैंकड़ों परिंदों को हवा में रिहा करता दिखता....मुझे यह सब बकवास बात लगती है...पहले इतने पक्षियों को तुम ने कहीं न कहीं से तो पकड़ कर कैद किया ही होगा कि यह बड़ा आदमी उन्हें आयोजन के वक्त रिहा करेगा...हां, बड़े बड़े राष्ट्रीय पर्वों के दौरान जब कैदियों के रिहा होने की बात सुनते हैें तो दिल खुश हो जाता है ...लेकिन ये सैंकड़ों परिंदों को आज़ाद करने वाली हरकत एक दम घटिया सी हरकत लगती है ..उन्हें वैसे ही चुपके से छोड़ दो, जिस जीव की फ़ितरत ही है उड़ान भरना, उसे भला क्या तुम आज़ाद करोगे, पहले तुम अपने पिंजरों से तो बाहर निकलो...

लेकिन हां, जब किसी परिंदे की जान पर बन आती है तो कोई नेक बंदा इन की सहायता कर के उ्न्हें उड़ान भरने में मदद करता है तो मन को जो सुख मिलता है वह ब्यां करना भी मुश्किल है, इन को उस वक्त उड़ान भरते देख कर मन खुशी से झूम उठता है ...पिछले रविवार अपने एक साथी ने गाज़ियाबाद से वॉटसएप पर एक वीडियो भेजी ...आप भी देखिए किस तरह से उसने एक परिंदे को आज़ाद किया जो किसी स्टेडियम में पड़े हुए किसी नेट में फंसा हुआ था...बहुत खुशी हुई उस की परवाज़ देख कर ....आप भी देखिए वह वीडियो ....



और हां, आज लिखते लिखते मुझे मेरे ब्लॉग की एक पांच साल पुरानी पोस्ट का ख्याल आ गया....यह लखनऊ की बात है...मेरी ओपीडी के बाहर लटक रही किसी तार में एक परिंदा उलझ गया...मेरे अटैंडेंट सुरेश ने कैसे उस की मदद की, यह आप ज़रूर पढ़िए...मैं अकसर सुरेश को यह याद दिलाया करता था ...अभी अपनी पोस्टों की लिस्ट में उस पोस्ट को ढूंढने लगा तो मुश्किल हो रही थी, फिर लिखा परिंदा परवाज़ और झट से वह पोस्ट दिख गई ...लेकिन पता नहीं ुकछ तस्वीरें, कुछ वीडियो उस में से गायब हैं...चलिए कोई बात नहीं, आप को तो उसे पढ़ने से मतलब है ...और मुझे तो वह भी नहीं क्योंकि मैं अपना लिखा कुछ भी दूसरी बार पढ़ने से बहुत गुरेज़ ही करता हूं ...क्योंकि हलवाई भी अपनी मिठाई नहीं खाता क्योंकि उसे ही पता रहता है उस की मिठाई में कितनी ख़ामियां हैं ....आप इसे पढ़िए ज़रूर ....

परवाज़ सलामत रहे तेरी ए दोस्त 

काश, जब परिंदों के रिहा होने की बात आती है तो मुझे ट्रकों में ठूंसे हुए मुर्गे-मुर्गियों का भी बहुत ख्याल आता है ..काश, इन ट्रकों के दरवाज़े अपने आप खुल जाया करें बीच बाज़ार में ...और ये परिंदे रिहा हो जाया करें.......लेकिन रिहा होने के बाद भी क्या, ये तो किसी का भी निवाला ही बनेंगे...आज कर वाट्सएप पर एक स्टेटस दिख रहा है कि दुनिया में सब से ज़्यादा मारा जाने वाला प्राणि मुर्गा ही है ..साथ में लिखा है जिसने भी दुनिया को जगाने की कोशिश की है, उसे मौत के घाट पर उतारा ही गया...। स्टेटस विचारोत्तेजक है बेशक। 

अभी मैं इस पोस्ट के लिए परिंदों से जुड़ा कोई गीत ढूंढ रहा था तो एक बहुत ही खूबसूरत गज़ल दिख गई ....मैं हवा हूं कहां वतन मेरा ...दश्त मेरा न यह चमन मेरा ... (इसे भी सुनिए)...दश्त का मतलब का जंगल....

सच में परिंदों का कहां कोई मुल्क है, कहां कोई मज़हब ...वह गीत भी तो है ..पंछी नदिया पवन के झोंके...कोई सरहद इन्हें न रोके ...गीत तो हमें इसी तरह से सुनने भाते हैं लेकिन परिंदे उड़ान भरें भी तो कैसे, उन्हें तो हम ने कैद कर दिया....और शेरो-शायरी भी ऐसी सुनते हैं कि ..इन परिंदो को भी मिलेगी मंज़िल एक दिन, ये हवा में खुले इन के पंख बोलते हैं.......लेकिन उन के पंख बंद कफ़स में खुलें तो कैसे खुलें...(क़फ़स - पिंजरा) ...परिंदों के मज़हब से जुड़ी एक दो बातें लखनऊ रहने के दौरान एक सत्संग में सुनी थी ...जो थोड़ी थोडी़ याद आ रही है, पूरी तो नहीं ...

परिंदे कभी मस्जिद पर जा बैठते हैं, कभी मंदिर पर ...कभी गुरूद्वारे पर ...उन के लिए सब एक ही है...

हम से तो अच्छी है परिंदों की ज़ात....कभी इधर जा बैठे, कभी उधर जा बैठे....

और एक बात ...

मस्जिद की मीनारें बोलीं, मंदिर के कंगूरों से ... 

हो सके तो देश बचा लो इन मज़हब के लंगूरों से ...

बचपन में मेरे जो साथी हाथों में गुलेल लेकर कबूतर या घुग्गी पर निशाना लगा कर पत्थर से वार करते थे, मुझे बहुत बुरे लगते थे ....मुझे यही लगता कि अभी तो ये पेढ़ों पर खुशी खुशी चहक रहे होते हैं और अगले ही पल ये कमबख्त दोस्त इन्हें मार कर नीचे गिरा देते हैं और सुना है कि कुछ तो बाद में घुग्गियों को पका कर खाते भी थे ...एक बात याद आई, हमें मां बताया करती थीं कि जब वह बहुत छोटी सी थीं तो नाना जी को यरकान (टायफाड) हो गया..तब कोई इलाज वाज तो था नहीं, कईं दिन तक रोज़ एक बटेर की ज़ख़्नी पीते रहे और ठीक हो गए....(ज़ख़्नी का मतलब सूप).....अब पता नहीं उन को क्या था, क्या न था, क्या बटेर किसी बीमारी का इलाज हो सकता है, लेकिन मां-नानी सुनाती थीं तो बड़े होने पर भी चुपचाप सुन लेते थे ...हमें तो नाना जी हमेशा ज़माने से आगे चलने वाले ही दिखे ....आज से पचास साल पहले रीडर-जाइजेस्ट पढ़ना, उर्दू में दूसरों के लिए कहानियां लिखना...जिन्हें हिंदी में अनुवाद कर के लोग कहां के कहां पहुंच गए...और नाना जी 82 साल की उम्र में भी मैथ और इंगलिश की ट्यूशन पढ़ा कर अपने खर्चे-पानी का जुगाड़ करते दिखे, अंबाला के नामचीन मास्टर जी ...उन की पुण्य याद को सादर नमन...कोई कोई बात जैसे दिल में बैठ जाती है...जब भी बचपन में ननिहाल गए...रात में सोते वक्त उन को एक रेडियो के बटनो ं के साथ जद्दोजहद ही करते देखा...कमबख्त वह रेडियो कभी चलते नहीं देखा....पता नहीं दिक्कत सिग्नल में थी या अपने नाना की जेब में ...उस वक्त यह पता नहीं था, आज पता है......लेकिन कहीं न कहीं मन तो दुःखी होता ही था... 

कट टू टॉपिक .... 👇

हां तो जिस पिंजरे वाले घर में हम गए थे ...उस बिल्डिंग से बाहर आने पर मैंने ऐसे ही एक शेयर दाग दिया...कुछ क़फ़स पर ही था कि सोने का हो या लोहे का ..क़फ़स तो आखिर क़फ़स ही है ....इतना सुन कर बेटे ने हमें भी कुछ याद दिला दिया - डैड, यह जो सुबह बस्ता डाल कर काम पर निकल जाते हो और शाम को थके-मांदे घर लौट आते हो ...यह भी तो एक क़फ़स ही है ...कोई ज़रूरत नहीं है न अब इस क़फ़स में बंद रहने की ....और सब हंसने लगे.......उसे लगा कि शायद मुझे कुछ अजीब सा लगा होगा, फिर कहने लगा कि मैं भी जो काम कर रहा हूं ..एक क़फ़स ही में रहने के मानिंद है ...फिर कहने लगा कि हर कोई ख़ुद के क़फ़स में कैद है डैड....लेकिन पहली बात उस की जो उसने मेरे बस्ते और थके-मांदे घर लौटने पर कही थी, वह बिल्कुल सही ठिकाने पर जा लगी थी ...इसलिए सोच रहा हूं ......क्या, .........सोच कर बताऊंगा ...

तोते पर गीत ढूंढने लगा तो कुछ बहुत आम गीत दिखे ...तोता राम कुंवारा रह गया जैसे गीत...फिर अपने बचपन के दिनों का एक बहुत खूबसूरत गीत याद आ गया...बोल रे मेरे तोते .......लेकिन मैं वहां गल्ती कर गया...बोल तो हैं...बोल रे मेरे गुड्डे ...चलिए, उसे ही सुनिए आज....मुझे यह गीत भी बहुत पसंद है ...अपने स्कूल में देखे हुए कठपुतलियों के खेल याद आ जाते हैं ...और ऊपर से इस का संगीत इतना मधुर - कानों में शहद घोलता हुआ...