इसी तरह के ही निबंध हम लोगों के मास्टर साहब हम लोगों को लिख कर लाने को कहते थे...आज किसी ने कुछ नहीं कहा है ...अभी अभी उठा ही हूं...मेरे पास विकल्प हैं ..या तो बाहर निकल कर टहलने के बहाने समंदर से आने वाले बढ़िया हवा के झोंकों का लुत्फ़ ले आऊं..और या बेड पर ही बैठे अपनी यादों की अल्मारी में पड़े कबाड़ को ही थोड़ा देख लूं...मैं यादों की अल्मारी को सलीके से खोल कर उसमें पड़ी चीज़ों को देखने का फैसला किया है ...मुझे लगता है इस काम में वक्त लगेगा...लेकिन कोई बात नहीं, लगेगा तो लगेगा...अगर ज़रूरत हुई तो अपनी बात को दो किश्तों में समेट लेंगे..
फ्रिज के बारे में सोचता हूं तो मुझे वह पुराने दिन बहुत याद आते हैं ...मैं 13-14 बरस का रहा होऊंगा जब हमारे यहां पर फ्रिज आया था ...देखिए, अभी मैंने लिखना शुरू ही किया है कि मेरे दिलोदिमाग में मिट्टी के मटके आ कर कहने लगे हैं कि हमें मत भूलना...नहीं बाबा, नहीं, तुम तो मेरे खुशनुमा साथी रहे हो, कैसे भूल सकता हूं तुम को...लिखूंगा...लिखूंगा, तुम्हारे बारे में भी लिखूंगा ..यार, थोड़ा सब्र तो रखो...
मुझे नहीं लगता आज यह निबंध एक किश्त में हो पाएगा...चलिए, किसे जल्दी है! स्कूल में तो शास्त्री जी मास्टर से ठुकाई को डर की वजह से रोज़ का काम रोज़ हो जाता था, अब हम आज़ाद हैं, दो क्या, बेटा, निबंध तीन किश्तों में भी लिख दिया तो भी चलेगा...
अच्छा, बच्चों को फ्रिज में रखी किसी चीज़- दाल-सब्जी, फल, फ्रूट से कुछ फर्क नहीं पड़ता ...उन का तो स्विगी, ज़ोमैटो ज़िंदाबाद जो दस मिनट में ही काके दे ढाबे से या जय जवान रेस्टरां से उन की दाल मक्खनी या शाही पनीर उन को थमा जाता है...हां, उस दाल या पनीर के कुछ चम्मच भी बच जाते हैं तो अगले दिन या उस के भी अगले दिन निकालने के लिए ही वह फ्रिज खोलते हैं...या फ्रिज में रखे रेडीमेड परांठे के पैकेट से परांठे निकालने के लिए ...और मैं फ्रिज अमूमन फ्रिज में रखी चीज़ों को निकाल कर डस्टबिन में फैंकने के लिए तो फ्रिज खोलता हूं और फ्रूट, दूध, दही, छाछ आदि निकालने के लिए ...हमारे यहां फ्रिज में अकसर इतनी भीड़ होती है कि कहीं का भी गुस्सा फ्रिज में रखी चीज़ों पर ही निकलता है ...यार, यह कढ़ी अभी तक पड़ी है, ये राजमाह..ये क्या कर रहे हैं अभी तक ...मैं तुरंत इन्हें निकाल कर डस्टबिन में फैंक देता हूं ..क्योंकि मुझे यही डर रहता है कि श्रीमति जी इन चीज़ों को निकाल कर गर्म कर के खा लेंगी ...और तबीयत बिगाड़ लेंगी खामखां....और जैसा कि मैंने बताया कि बच्चों को कुछ भी फर्क नहीं पड़ता कि वहां क्या पड़ा है...लेकिन मैंने उन के दिमाग में भी ठूंस दिया है बार बार कह कह कर ..कि खाने पीने की पुरानी चीज़ों को देखते ही डस्टबिन में फैंक दिया करिए... वे व्यस्त लोग हैं, कभी कभी यह नेक काम करते हैं, वरना मैं ही कभी कभी देख लेता हूं ...क्योंकि श्रीमति जी बाहर दूसरे शहर में रहती हैं और दस-पंद्रह दिन में एक दो दिन के लिए ही आती हैं...
मैं दुनियावी ज्ञान बटोरने में कितना भी पीछे रह गया होऊं, दुनियादारी के रंग-ढंग से वाकिफ़ होऊं या न होऊं...लेकिन हमारी मां ने हमारे दिलोदिमाग में बचपन से यह ठूंस दिया था कि फ्रिज तो बीमारी का घर है ....इस में रखी दाल-सब्जी और आटा तो ज़हर हो जाता है वहां पड़ा पड़ा ...इसलिए जब भी कभी हमें गैस चढ़ जाती, सिर दुखने लगता, दिल कच्चा होने लगता तो मां तहकीकात में लग जाती ...इस बात की तह में जाने लगतीं कि इसने घर में ऐसा खाया क्या है ....अगर उन्हें पता चला कि फ्रिज में रखे गूंथे हुए आटे की रोटी खाई थी इसने ...तो बस, अगली बार से इस बार को सुनिश्चित करती कि हमें मिलने वाली रोटी ताज़े गूंथे हुए आटे की ही हो ...
बीजी ते बीजी दे हत्थां दीयां बनीयां रोटियां- वेख के ही खुश हो लईदै हुन... |
मुझे भी फ्रिज में रखी दाल, सब्जी, चावल, खिचड़ी, हलवा... जैसी चीज़ों से सख्त नफ़रत है ....मां नहीं रही ...लेकिन उस की यह नसीहत याद है ...फिर बार बार हम खुद भी पढ़ते रहते हैं कि दाल-सब्जी का ज़ायका तो ताज़ी ताज़ी तैयार की हुई का, दो तीन घंटे तक ही कायम रहता है... एक हद देखते रहे हैं बचपन से कि दोपहर की बची दाल-सब्जी रात को भी खा लेते थे ...या रात की बनी दाल-सब्ज़ी सुबह परांठे के साथ खा लेते हैं....या उस दाल वाले परांठे ही बन जाते हैं अकसर ...लेकिन इस के आगे तो बचे-खुचे खाने को खाना तो बहुत ज़्यादा रिस्क वाला काम माना जाना है हमारे यहां ....क्या करें, जो आदतें पड़ जाती हैं वे ताउम्र साथ रहती हैं...आज की पीढ़ी को अगर फ्रिज में रखे आर.डी के परांठे ही पसंद हैं तो यह उनकी पसंद है ...अच्छा, एक बात याद आ गई, बीस-पच्चीस साल पहले की बात है ...बीजी की एक कज़िन उनसे मिलने आईं...हम लोग बंबई सेंट्रल मे रहते थे ...श्यामा आंटी ...उन के साथ दुबई में रहने वाली उन की बेटी भी थी ...मां की और उन की कज़िन की खूब बनती थी...बोलते-बतियाते खूब हंसा करतीं ...बचपन के दिनों को और उस दौर के किरदारों को याद करते करते ..लेकिन उस दिन उन्हें वापिस जाने की जल्दी थी...कारण यह था कि अगले दिन उन की बेटी जो दुबई में रहती हैं, उसने वापिस लौटना है ..और अभी जाकर 100-150 चपातियां सेंकनी हैं उन्हें ...जब हमें पता चला हमारी तो सांस ऊपर की ूऊपर अटकते अटकते बची। हमे ंयह बताया गया कि वे दोनों मियां-बीबी नौकरी करते हैं, ्वक्त नहीं मिलता ... इसलिए जब भी यहां आते हैं तो रोटियां ले जाते हैं, फ्रिज में रख देते हैं...कईं कईं दिन चल जाती हैं, सेंक कर खाते रहते हैं...
चलिए, अब बाकी की बातें अगली पोस्ट में करूंगा...दरअसल हमारे मास्टरों के डर से हम लोग उस दौर में निबंध लिखते वक्त यहां वहां की यबलीयां नहीं मार पाते थे...जैसे कि आज कल करने लगे हैं ...आप खुद देखिए कि फ्रिज के लाभ-हानियों पर निबंध लिखने बैठा हूं सुबह सुबह और अभी तक मुश्किल से भूमिका ही बांध पाया हूं ...चलिए, इतना तो बता ही दूं कि मुझे इस में लिखना क्या है ...जनाब, मुझे निबंध के ज़रिए उस दौर के ज़ायके को आप तक पहुंचाना है जब हमारे घर में फ्रिज नहीं होता था ...और फिर कैसे फ्रिज के आने से हमारे साथ साथ हमारे पड़़ोसीयों की ज़िंदगी भी बदल गई ..कुछ बातें दिल खोल कर लिखनी होती हैं...परवाह नहीं कितना वक्त लग जायेगा...देखा जाएगा...मुझे भी सारी बात लिख कर ही चैन आयेगा. वरना बार बार मुझे साईकिल पर जा कर हाथ में पकड़ कर बर्फ लेकर आने वाले दिनों की याद सताती रहेगी.......एक बार लिख दूंगा तो यह बार बार उस पुरानी यादों की संदूकची में झांकने से निजात तो मिलेगी ...
आज के लिए इतना ही ...कहना तो बहुत कुछ था..अभी नहीं लिखा ..चलिए, भूमिका तो बंध गई...अगर कोई कसर रह गई होगी तो धर्मेंद्र और सायरा बानो पर फिल्माया यह खूबसूरत गीत भी तो कुछ काम करेगा...