शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

यह उन दिनों की बात है ...2. जब ट्यूशन लगवाना बाइसे फ़ख्र न था...

साल 1974 - चलिए आज मेरे साथ पचास साल पहले वक्त की गलियों में टहलने चलिए...मैं आज बाहर टहलने नहीं जा रहा हूं..सोच रहा हूं यहीं पर ही टहल लूं..जी हां, उन दिनों मैं अमृतसर के डी.ए.वी स्कूल में छठी जमात में पढ़ता था। 

तो जनाब हुआ ऐसे कि मुझे शुरु ही से पढ़ने लिखने का शौक तो था ही ...छुट्टी वुट्टी नहीं करता था ..मास्टरों की बात को अच्छे से सुनना और मानना मेरी आदतों मे शामिल था ..और वक्त पर स्कूल जाना भी होता था ..कुछ साल पैदल, बाद में साईकिल पर...

लेकिन छठी कक्षा में पढ़ते पढ़ते जैसे ही बीज-गणित (एलजेब्रा) पढ़ना शुरू किया तो मुझे कुछ मुश्किल सी महसूस हुई कुछ दिन... मेरे साथ बैटने वाले दोस्त मनीष से मैं पूछ लेता, वह बड़ा नेक बंदा था ...एलजेब्रा के सवाल हल करने मेंं खुशी खुशी मेरी मदद कर देता ...लेकिन फिर भी मुझे एलजेब्रा कुछ अजीब सा ही लग रहा था...

मैं एक दिन स्कूल से घर लौटने पर रोने लग गया...मेरे पापा ने पूछा ...मैं साफ़ साफ़ कह दिया कि पापा जी, मुझे हिसाब का सब्जैक्ट अच्छे से समझ नहीं आ रहा ...बस, फिर क्या था...पापा जी ने पूछा कि क्या वह मास्टर जी ट्यूशन पढ़ाते हैं...मुझे जो पता था वह मैंने बता दिया जो मुझे पता था क्योंकि ट्यूशन पढ़ने वालों पांच छः क्लास के साथियों से यह तो पता चल ही गया था कि वे स्कूल की छुट्टी होने के बाद शाम चार से पांच बजे मास्टर जी से ट्यूशन के लिए रुकते थे...महीने में कितने पैसे ट्यूशन के लगते हैं जितना इस के बारे में भी मुझे जितना पता था वह भी मैंने पापा जी को बता दिया...

पापा ने मेरी कापी का एक पन्ना फाड़ा ...उस पर चिट्ठी लिखी जिन्हें वह वैसे भी वह बड़े चाव से, इत्मीनान से लिखा करते थे ...चिट्ठी लिख कर उन्होंने उसे एक बार फिर से पढ़ा और उसे मेरे हवाले करते हुए कहा कि इस ख़त को कल मास्टर जी को दे देना...मैंने वैसा ही किया ...मुझे पता नहीं आज तक कि पापा ने उस चिट्ठी में ऐसा क्या लिखा था - यार, पूरा पन्ना भरा हुआ था...खैर, उस दिन मास्टर जी ने स्कूल की आखरी घंटी के बाद मुझे भी अपनी उस ट्यूशन की क्लास में ही बैठने को कह दिया...बस, फिर क्या था, यकीन मानिए, मुझे दो चार दिन में ही एलजेब्रा बहुत अच्छे से समझ में आने लगा...और मैं खुश..


चाक एन डस्टर फिल्म देख कर पता चला कि एलजेब्रा कितना आसान है ...अभी इस गाने में ज़रीना बहाव को देखा तो उन से हुई मुलाकात याद आ गई....
चार पांच बरस पहले ज़रीना जी से लखनऊ में मुलाकात हुई तो बहुत अच्छा लगा...मैंने उन्हें यह भी कहा कि मैंने उन की सभी फिल्में देखी हैं बार बार ...चितचोर, घरौंदा...वह बहुत खुश हुई ...

खुशी मुझे भी बहुत हुई थी उस दिन...क्या है ना, पहले हमारा इस तरह के अज़ीम कलाकारों के साथ एक रिश्ता जुड जाता था जैसे...कोई हमें बड़ी बहन दिखती तो किसी की ममता में हमें अपनी मां की तस्वीर नज़र आती ...

ट्यूशन का एक महीना पूरा होने का था....पता चला कि महीने के 25 रूपये ट्यूशन की फीस है ...छठी क्लास के बाकी के जितने भी महीने रहते थे वह ट्यूशन जारी रही ...और पापा मुझे महीना पूरा होते ही एक सफेद लिफाफे में 25 रूपये के कड़कड़ाते नोट डाल कर देते कि मास्टर साहब को दे देना..और उन पैसों को लेकर स्कूल जाते वक्त मेरी तो भई जान ही निकली रहती जैसे कि मैं पता नहीं कितना बड़ा खजाना लेकर स्कूल की तरफ़ पैदल मार्च करने का कोई जोखिम उठा रहा हूं ...लेकिन मेरे बाल मन को इतना अहसास तो था कि यह रकम भी इन के लिए बडी़ ही है, कईं बरसों बाद यह लगता था कि पता नहीं कौन से खर्चे कम के उस वक्त उस ट्यूशन की इस फीस का जुगाड़ करते होंगे ...चलिए...मैं सारा दिन उस लिफाफे को अपने बस्ते में पड़े रहने देता...बार बार कईं बार चेक कर लेता ...लेकिन पता नहीं उन दिनों भी इतनी अक्ल कहां से थी कि देता मैं मास्टर साहब को ट्यूशन के पीरियड में ही था....

चलिए जी, यह तो थी अपनी पहली और आखरी ट्यूशन की दास्तां.....उस के बाद कभी भी ट्यूशन नहीं रखी ....कभी ख्याल मन में आया भी तो उस वक्त में तो जो ट्यूशन के रेट चल रहे थे उन दिनों, उस के बारे में मालूम पड़ता तो घर में आकर पापा से कहने की हिम्मत ही नहीं होती क्योंकि पहले बच्चे बोलते कम थे लेकिन मां-बाप की जेब के बारे में बिना किसी के कुछ कहे-सुने बहुत कुछ जान लेते थे ...

खैर, वह ज़िंदगी में मेरा ट्यूशन का तजुर्बा बहुत अच्छा रहा ...वह मास्टर जी ऐसे नेक कि कभी किसी भी छात्र को मजबूर नहीं किया कि उनसे ट्यूशन पढ़नी ही है। और हां, वह लिफाफे में 25 रूपये डाल कर मास्टर जी के भिजवाने वाली बात ..मैं बहुत बरसों बाद जब उस बात को याद करता तो मुझे यह अहसास होता कि मेरे पापा भी ज़माने के हिसाब से बहुत आगे थे कि उन्हें यह भी लगता कि मास्टर को पैसे देते वक्त भी तहज़ीब से देने होते हैं...

दो दूनी चार का यह दृश्य देख कर आप भी ऱोये थे न....मुझे पता है...क्योंकि मेरे साथ भी हर बार ऐसा होता है...

और यही प्रथा फिर आगे मैंने बच्चों की ट्यूशन के मास्टरों को उन की फीस भिजवाते वक्त भी चलाए रखी...हमेशा लिफाफे में डाल कर बड़ी इज़्ज़त से ही यह फीस दी जाती ... क्योंकि भाई हम भाजी मार्कीट से धनिया-पुदीना नहीं खरीद रहे ...और अगर फुटपाथ पर हम कुछ खऱीद कर पैसे उन के हाथ में इज़्ज़त से थमाने की बजाए उन के आगे किसी फलों के ढेर पर या भाजी के ढेर पर रख कर आगे भढ़ने लगते हैं तो मुझे तो बहुत बार किसी बुज़ुर्ग दुकानदार महिला ने कईं बार दम भर है कि यह तरीका नहीं होता..पैसे देने का ..मराठी में कहती हैं लेकिन मैं समझ लेता हूं ...कहती हैं कि पैसे हाथ में सलीके से पकड़ाने होते हैं...दो चार बार इन औरतों से डांट खाने के बाद अब मैं सुधर गया हूं ...किसी को भी पैसे थमाने वक्त पूरा ख़्याल रखता हूं.. 

अच्छा, जैसे जैसे वक्त आगे बढ़ता चला गया ..ट्य़ूशनों का चस्का मास्टरों को भी लगने लगा शायद लेकिन मां-बाप को तो ज़रूर लगने ही लगा ..मास्टरों के बारे में यह सुना जाने लगा कि वे बच्चों को उन के पास ट्यूशन पढ़ने के लिए मजबूर करते हैं ...लेकिन हमें तो कभी किसी ने ट्यूशन पढ़ने के लिए नही ंकहा ..जो सच है वह ज़रूर दर्ज कर देना चाहिए...ऐसे ही सुनी सुनाई बातों पर यकीं नहीं करना चाहिए। 

लेकिन फिर भी ट्यूशन इस कद्र पढ़ी-पढ़ानी वाली चीज़ हो गई जैसे कोई फैक्ट्री चल रही हो ...हमारी कालोनी में हमारे स्कूल से साईंस टीचर रहते थे ..सुबह एक बैच स्कूल खुलने से पहले ..और शाम के वक्त छुट्टी होने के बाद तीन चार या दो तीन बैच पढ़ाते थे .. 1977-78 के दिनों की बातें हैं..हमारे नवीं-दसवीं के दिन ... उन के घर के बाहर बीसियों साईकिल खड़े रहते थे ...और मोहल्ले वाले खामखां टोटल मार मार के अपनी हालत खराब करते रहते कि इतने साईकिल दिन भर में खड़े रहते हैं ..अगर एक स्टूडेंट से इतने पैसे भी लेते होंगे तो इस का मतलब इतना तो कमा ही लेते होंगे...खैर, बहुत काबिल और नेक थे ...हमें स्कूल में ही अच्छे से पढ़ा देते थे और मुझे याद है नवीं कक्षा में जब साईंस के पेपर में मेरे 40 में से 38 अंक आए थे तो उन्होंने मेरे पेपर का एक एक पेज सारी क्लास को दिखा कर कहा कि पेपर में कैसे लिखा जाता है, यह देखो...और मैं बैठे बिठाए क्लास का हीरो नं 1 बन जाता....

अच्छा, एक बात और भी है कि उन दिनों लोगों के मन में यह भी था कहीं न कहीं कि ट्यूशन से होता हवाता कुछ नहीं ...बस, फेल होने वाले को पास करवा देती है....और वैसे भी जो पढ़ाकू किस्म के बच्चे होते थे ..वे कम ही दिखाई देते थे ऐसी ट्यूशन की महफिलों से...शेल्फ-स्टड़ी का सबक हमें घर ही से मिलता रहता था...भाई-बहन को पढ़ते देख कर। 

खैर, यह वह दौर था ...पचास साल पहले ... जब ट्यूशन पढ़ाने वाले मास्टर जिन्हें घर बुलाया जाता था उन का अपनी शिष्या को बीजगणित-रेखागणित पढ़ाते पढ़ाते कुछ ऐसा समीकरण बैठ जाता था कि बात शादी करने करवाने तक पहुंच जाया करती थी ..दो किस्से हमारी कॉलोनी में हो गये थे ..दसवीं क्लास की छात्राएं थीं और मास्टर जी से फिर उन की शादी हो गई ...मुझे अभी उन दोनों मास्टरों के चेहरे और उन छात्राओं के चेहरे भी याद हैं....और शादीयां सफल ही रहीं ...लेकिन उस दौर में लोग उस तरह के रोमांस की चर्चा करते वक्त किसी रूमानी नावल पढ़ने जैसा मज़ा लेते...सच कह रहा हूं...हमें भी उड़ती उड़ती बाते सुन कर कुछ कुछ होता तो था लेकिन यह पता न था कि यह है क्या ...


अब लगता है इस पोस्ट को बंद करूं ...अभी ट्यूशन की बातें बहुत सी बची हैं..कभी मूड हुआ...जैसे आज सुबह मूड बन गया तो इतना कुछ बिना किसी शर्म-संकोच के लिख दिया...कुछ तो अभी लिखने को बाकी है ...देखता हूं.....और हां, जाते जाते एक बात ज़रूर कहना चाहूंगा कि ये जो ट्यूशन पढ़ाने वाले मास्टर घरों में आते थे उन की छवि बड़ी रोमांटिक बनाने में हमारी हिंदी फिल्मों ने भी बड़ी भूमिका निभाई है ..बेशक...पुरानी से पुरानी फिल्में देख लीजिए...जब भी कोई मास्टर किसी के घर में घुसा...उसने वहां जा कर कुछ पढ़ाया वढ़ाया या नहीं, लेकिन उन का नैन-मटक्का ज़रूर चल निकला...इसलिए जैसे ही फिल्मों में ट्यूशन लगाने की बात ही चलती अपने तो कान फौरन खड़े हो जाते ...कि अब चलेगी फिल्म सही ...

लिखते लिखते मुझे ख्याल आ गया कि आज की पोस्ट लिखते लिखते तो टीचर याद आ गये....ज़रूर टीचरों को याद रखना चाहिए...यह मिट्टी से सोना बनाने वाले कलाकार हैं....बीस-बाईस साल पुरानी बात है ...मैं फिरोजपुर में नौकरी कर रहा था...वहां तो अमृतसर का रास्ता बस में दो घंटे का ही है ...मैं कईं बार पुराने गली-कूचों को बिना वजह देखने, पुरानी यादों को ताज़ा करने चला जाता ..एक बार मैं पूछते पूछते अपने एक टीचर के घर पहुंच गया...संयुक्त परिवार में रह रहे थे ..मैं उनके लिए बर्फी का डिब्बा लेकर भी गया था ...क्योंकि मुझे लग रहा था कि मैं किसी मंदिर में भगवान के दर्शन करने जा रहा हूं ... मैंने उन का आशीर्वाद लिया...लेकिन वह अपनी यादाश्त लगभग खो चुके थे ...कड़ाके की ठंड थी उन दिनों ..एक पुराना, घिसा हुआ कंबल उन्होंने लपेटा हुआ था ...पेंशन नहीं होती प्राइवेट स्कूलो में ...बच्चे नौकरियां कर रहे थे ..मैं उन के साथ और उन के परिवार के साथ संपर्क में था...उन्होंने मुझे बंबई चिट्ठी भी लिखी थी...25 साल पहले ..मेरे पास अभी भी पड़ी हुई है ...उस दिन मुझे मिलने पर यही लगता रहा कि यह वह बंदा है जिस के पास एक ही गर्म सूट था, एक ही शूज़ थे ..लेकिन उन का सलीके से उन्हें रोज़ चमका कर पहनना और सूट को अच्छे से साफ़ रखना ..हमें उन की पर्सनेलिटि अच्छी लगती थी ...उस दिन मुझे लगा कि इन्हें जेब-खर्च तो यार अब भेजना बनता है ...उस के बाद मैं उन को हर महीने 500 रूपये का मनीआर्डर करता रहा ...जब तक वह जीवित रहे ...मैंने एक बार मनीआर्डर के साथ जो संदेश लिख भेजते हैं उस में लिख भी दिया था कि यह मास्टर साहब का जेब-खर्च है, उन के खाने-पीने का ख्याल रखिए... उन के जाने के बाद गुरू मां को भी मनीआर्डर भिजवाता था .....लेेकिन जब वह भी चल बसीं तो वह नाता भी टूट गया....

ये सब बातें लिखना मुझे बहुत अजीब सा लग रहा था कि मैं बर्फी का डिब्बा ले कर गया ...500 रूपये का मनीआर्डर हर महीने करवाता था ..जो लोग मुझे अच्छे से जानते हैं वे जानते हैं, दूसरे इस लिखने को किस अंदाज़ में लेंगे मुझे रती भर भी फ़र्क नही पड़ता ..और हां, मेरी मां को जब मैंने यह मनीआर्डर वाली बात बताई थी तो उन्हें इतना अच्छा लगा था कि मैं क्या लिखूं...कहने लगी थीं कि बहुत ही अच्छा करते हो... शायद हमें अपने मां-बाप से, हमारे समाज से जो मिलता है, सारी उम्र हम वही लौटाते हैं ...आप को क्या लगता है। यह जेब-खर्च वाली बात इसलिए लिख दी क्योंकि पता नहीं हमे ंकहां से प्रेरणा मिल गई ...इसे पढ़ कर शायद किसी दूसरे को भी कुछ आइडिया आ जाए...इसलिए दिल की बातें शेयर कर देनी चाहिए...

पोस्ट को पढ़ कर थोड़ा इमोशनल हो जाएं तो हो जाने दीजिए...मैं ही इसे लिखते लिखते कितनी बार हुआ...चलिए, अब खुशी की वजह से जो आंखें नम हो गई हैं, उन्हें पोंछने के लिए आप को एक बढ़िया गीत सुनाते हैं... सुनिएगा ज़रूर ....पुराने रोमांटिक गीतों को जब मैं देखता हूं, सुनता हूं तो सोच पड़ जाता हूं कि कह तो तब भी सब कुछ देते ही थे लेकिन कहने का एक नफ़ीस सलीका था.😂😄😎 (उस दौर के गीतकारों की याद को सादर नमन) ...अब तो वेबसीरीज़ में ...गालीयां चेप देना ही कूलनैस का द्योतक हो गया हो जैसे...

 

कोई कोई पो्स्ट लिखने लगो तो सच में प्रसव पीडा़ को सहने जैसा काम होता है ...यह पीड़ा सही तो नहीं है लेकिन सुना बहुत है ..जब तक बात पूरी नहीं लिखी जाती, दर्द चैन से बैठने नहीं देता.....आज तो वैसे भी ऐसे लग रहा है जैसे कोई चित्रहार ही पेश कर रहा हूं 😎😎 -