कोई कोई मरीज़ भी न..
मरीज़ के साथ बहस करना, उलझना...यह सब डाक्टर लोग नही करते अकसर...मुझे भी इस से बड़ी नफ़रत है ...मैं तो बहस किसी से भी नहीं करता...शुरू से ही ऐसा ही हूं...क्योंकि मेरा सिर दुःखने लगता है बहसबाजी के नाम ही से...चुप रह कर हार मान लेना या हां में हां मिला देना ठीक लगता है ...
लेकिन फिर भी कईं महीनों के बाद एक न एक मरीज़ अच्छा सिर दुःखा जाता है ... दो चार दिन पहले एक आया था...इस तरह के मरीज़ जब कभी भी दोबारा आते हैं तो उन्हें देखते ही उलझन होने लगती है ...
यह जो बंदा था, बेहद बदतमीज, अजीब सा बोलने का लहजा, ऊंची आवाज़ ....कोई बात नहीं, फिर भी सिर पर चढ़ने को उतारू...
मैं बहुत बार अपने अटैंडेंट से भी यही शेयर करता हूं कि किसी भी डाक्टर से बेेकार में उलझना हिमाकत है .. कुछ लोगों को दस मिनट इंतज़ार करना भी दुश्वार होता है .. बात कुछ भी नहीं हुई कहने लगा मुझे सीएमएस (हमारे अस्पताल की हैड) से बात करनी होगी...मैंने कहा कर लेना..दरअसल, मैं समझता हूं कि हम एक छोटे से कमरे में बैठ कर कईं बार परेशान हो जाते हैं ...इसलिए सारे अस्पताल को, कर्मचारी संगठनों, कर्मचारियों की सारा दिन बातें सुनना और उद्योगीय शांति के नाम पर सब को साथ लेकर चलना बहुत मुश्किल काम है .....इसलिए मैं कभी नहीं चाहता कि हम लोग अपने चीफ़ को बेकार की छोटी छोटी बातों में उलझाए रखें...जो भी है, जैसे भी निर्णय खुद कर लेने चाहिए...
यह जिस मानस की मैं बात कर रहा हूं..इसे जुकाम-खांसी भी थी...और अचानक मेंरे सामने दो तीन बार ज़ोर ज़ोर से खांसा ...मुझे इसे इतना तो कहना ही पड़ा कि मुंह पर हाथ तो रख लो ....लेकिन उसने मेरी नहीं सुनी...और मुझे उसी समय लगा कि मुझे भी यह सौगात दे रहा है ... अब आज के ज़माने में एक अनपढ़ को भी पता है कि खांसते-छींकते हुए मुंह के ढक लेना होता है...ऐसे में मुझे तो बहुत बार ऐसा लगता है कि कुछ मरीज़ जानबूझ पर यह सब करते हैं...वे समझते हैं कि चिकित्सक सुपरमैन हैं....ऐसा नहीं है...इम्यूनिटी कितना बचा लेगी...अगर हमला करने वाले कीटाणु-विषाणु की संख्या ज़्यादा होगी तो कुछ नही ंहो पाता ...हम भी इन रोगों की चपेट में आ ही जाते हैं....कल से जुकाम से परेशान हूं..
हां, एक और ४० साल का व्यक्ति याद आ गया अभी अभी ... अपनी मां के इलाज के लिए आता है ...दस बारह बार आ चुका होगा...लेखक है ...बड़े बड़े सेठों और नेताओं की किताबें लिखता है ...प्रायोजित लेखन....दो दिन पहले अचानक कमरे में आया तो कहने लगा ...डाक्टर साहब, एक बात करनी है एक मिनट...मैंने कहा ..हां, हां, बोलिए.....उसने कहा कि आप पंजाबी हैं न, मैंने कहा ..हां, फिर उसने कहा ...."डाक्टर साहब, मैं पंजाबियों से बेहद नफ़रत करता था लेकिन आप के यहां इतनी बार आने से मेरा यह इंप्रेशन हमेशा के लिए ध्वस्त हो गया है..."
मैं हैरान हुआ और पूछा कि ऐसा क्यों?.....कहने लगा कि मेरा किसी पंजाबी लड़की से प्यार हो गया था...आगे मैंने कुछ नहीं पूछा....वैसे वह ब्राह्मण परिवार से संबंध रखता है ...
मैं इसलिए खुश हो गया कि चलो, इसी बहाने पंजाबियों और पंजाबियत की सेवा ही कर दी मैंने कि उन के प्रति घृणा को मिटा दिया किसी इंसान के मन से ...हा हा हा हा हा हा ...
एक मरीज़ आता था, मुंह के छाले से ....पहले तो औरों से दवाई लेता रहा ..फिर मेरे पास आने लगा ...मुझे लगा कि इस की बायोप्सी होनी चाहिए.... मैंने उसे कहा कि बायोप्सी करते हैं.. नहीं माना, हर बार बहस...आप को मुझे दवाई देने में दिक्कत ही क्या है, आप दवाई ही नहीं देना चाहते....तीन चार पांच बार मैं उस का कहना मानता रहा....उस के बाद मैंने दवाई देने से मना कर दिया....तब उसे लगा कि बायोप्सी करवा ही लेनी चाहिए...बायोप्सी में कैंसर होने की बात पुष्ट हो गई..कैंसर रोग विशेषज्ञ के पास भेजा गया ....उसने कहा कि बहुत ही सही समय पर आ गये हो, दो तीन साल पहले की बात है ...उस की सर्जरी हो गई और वह ठीक ठाक है ...अब कहता है कि आपने बहुत अच्छा किया कि मुझे दवाई देने से जब मना किया....लेकिन उसे भी देखते ही मेरा सिर भारी हो जाता था.....बहुत बहस किया करता था...अब दो तीन महीने में आता है चैक अप के लिए और मैडीकल कालेज के डाक्टर की बात कहता है कि तुम तो अपने डाक्टर को ही दिखा लिया करो जिसने तुम्हें वक्त रहते हमारे यहां भेज दिया...
हर मरीज़...हर इंसान अलग है ... पंजाबी खराब नहीं होते....बहुत बार हम लोग ऐसे ही अपने मन में एक ओपिनियन बना लेते हैं....बेवकूफी होती है बिल्कुल ......लेकिन हम बाज कहां आते हैं! ..हर शख्स अपने आप में विलक्षण है....यह शिक्षा मुझे टाटा इंस्टीच्यूट आफ सोशल साईंसेस, बंबई में पढ़ते हुए मिली...
मरीज़ के साथ बहस करना, उलझना...यह सब डाक्टर लोग नही करते अकसर...मुझे भी इस से बड़ी नफ़रत है ...मैं तो बहस किसी से भी नहीं करता...शुरू से ही ऐसा ही हूं...क्योंकि मेरा सिर दुःखने लगता है बहसबाजी के नाम ही से...चुप रह कर हार मान लेना या हां में हां मिला देना ठीक लगता है ...
लेकिन फिर भी कईं महीनों के बाद एक न एक मरीज़ अच्छा सिर दुःखा जाता है ... दो चार दिन पहले एक आया था...इस तरह के मरीज़ जब कभी भी दोबारा आते हैं तो उन्हें देखते ही उलझन होने लगती है ...
यह जो बंदा था, बेहद बदतमीज, अजीब सा बोलने का लहजा, ऊंची आवाज़ ....कोई बात नहीं, फिर भी सिर पर चढ़ने को उतारू...
मैं बहुत बार अपने अटैंडेंट से भी यही शेयर करता हूं कि किसी भी डाक्टर से बेेकार में उलझना हिमाकत है .. कुछ लोगों को दस मिनट इंतज़ार करना भी दुश्वार होता है .. बात कुछ भी नहीं हुई कहने लगा मुझे सीएमएस (हमारे अस्पताल की हैड) से बात करनी होगी...मैंने कहा कर लेना..दरअसल, मैं समझता हूं कि हम एक छोटे से कमरे में बैठ कर कईं बार परेशान हो जाते हैं ...इसलिए सारे अस्पताल को, कर्मचारी संगठनों, कर्मचारियों की सारा दिन बातें सुनना और उद्योगीय शांति के नाम पर सब को साथ लेकर चलना बहुत मुश्किल काम है .....इसलिए मैं कभी नहीं चाहता कि हम लोग अपने चीफ़ को बेकार की छोटी छोटी बातों में उलझाए रखें...जो भी है, जैसे भी निर्णय खुद कर लेने चाहिए...
यह जिस मानस की मैं बात कर रहा हूं..इसे जुकाम-खांसी भी थी...और अचानक मेंरे सामने दो तीन बार ज़ोर ज़ोर से खांसा ...मुझे इसे इतना तो कहना ही पड़ा कि मुंह पर हाथ तो रख लो ....लेकिन उसने मेरी नहीं सुनी...और मुझे उसी समय लगा कि मुझे भी यह सौगात दे रहा है ... अब आज के ज़माने में एक अनपढ़ को भी पता है कि खांसते-छींकते हुए मुंह के ढक लेना होता है...ऐसे में मुझे तो बहुत बार ऐसा लगता है कि कुछ मरीज़ जानबूझ पर यह सब करते हैं...वे समझते हैं कि चिकित्सक सुपरमैन हैं....ऐसा नहीं है...इम्यूनिटी कितना बचा लेगी...अगर हमला करने वाले कीटाणु-विषाणु की संख्या ज़्यादा होगी तो कुछ नही ंहो पाता ...हम भी इन रोगों की चपेट में आ ही जाते हैं....कल से जुकाम से परेशान हूं..
हां, एक और ४० साल का व्यक्ति याद आ गया अभी अभी ... अपनी मां के इलाज के लिए आता है ...दस बारह बार आ चुका होगा...लेखक है ...बड़े बड़े सेठों और नेताओं की किताबें लिखता है ...प्रायोजित लेखन....दो दिन पहले अचानक कमरे में आया तो कहने लगा ...डाक्टर साहब, एक बात करनी है एक मिनट...मैंने कहा ..हां, हां, बोलिए.....उसने कहा कि आप पंजाबी हैं न, मैंने कहा ..हां, फिर उसने कहा ...."डाक्टर साहब, मैं पंजाबियों से बेहद नफ़रत करता था लेकिन आप के यहां इतनी बार आने से मेरा यह इंप्रेशन हमेशा के लिए ध्वस्त हो गया है..."
मैं हैरान हुआ और पूछा कि ऐसा क्यों?.....कहने लगा कि मेरा किसी पंजाबी लड़की से प्यार हो गया था...आगे मैंने कुछ नहीं पूछा....वैसे वह ब्राह्मण परिवार से संबंध रखता है ...
मैं इसलिए खुश हो गया कि चलो, इसी बहाने पंजाबियों और पंजाबियत की सेवा ही कर दी मैंने कि उन के प्रति घृणा को मिटा दिया किसी इंसान के मन से ...हा हा हा हा हा हा ...
एक मरीज़ आता था, मुंह के छाले से ....पहले तो औरों से दवाई लेता रहा ..फिर मेरे पास आने लगा ...मुझे लगा कि इस की बायोप्सी होनी चाहिए.... मैंने उसे कहा कि बायोप्सी करते हैं.. नहीं माना, हर बार बहस...आप को मुझे दवाई देने में दिक्कत ही क्या है, आप दवाई ही नहीं देना चाहते....तीन चार पांच बार मैं उस का कहना मानता रहा....उस के बाद मैंने दवाई देने से मना कर दिया....तब उसे लगा कि बायोप्सी करवा ही लेनी चाहिए...बायोप्सी में कैंसर होने की बात पुष्ट हो गई..कैंसर रोग विशेषज्ञ के पास भेजा गया ....उसने कहा कि बहुत ही सही समय पर आ गये हो, दो तीन साल पहले की बात है ...उस की सर्जरी हो गई और वह ठीक ठाक है ...अब कहता है कि आपने बहुत अच्छा किया कि मुझे दवाई देने से जब मना किया....लेकिन उसे भी देखते ही मेरा सिर भारी हो जाता था.....बहुत बहस किया करता था...अब दो तीन महीने में आता है चैक अप के लिए और मैडीकल कालेज के डाक्टर की बात कहता है कि तुम तो अपने डाक्टर को ही दिखा लिया करो जिसने तुम्हें वक्त रहते हमारे यहां भेज दिया...
हर मरीज़...हर इंसान अलग है ... पंजाबी खराब नहीं होते....बहुत बार हम लोग ऐसे ही अपने मन में एक ओपिनियन बना लेते हैं....बेवकूफी होती है बिल्कुल ......लेकिन हम बाज कहां आते हैं! ..हर शख्स अपने आप में विलक्षण है....यह शिक्षा मुझे टाटा इंस्टीच्यूट आफ सोशल साईंसेस, बंबई में पढ़ते हुए मिली...