मुझे इस आप्रेशन की वर्षगांठ जैसा शब्द िलखने में कष्ट हो रहा है ... लेिकन सच्चाई यह है कि कुछ यादें अमिट छाप छोड़ जाती हैं..
मुझे अच्छे से याद है कि आज के ही दिन ५ जून १९८४ की रात में उस दिन मैं और मां ही घर में थे..मैं २१-२२ वर्ष का था, मेरे एग्ज़ाम होने वाले थे उन दिनों....हम लोग आंगन में चारपाईयों पर सोने की इंतज़ार में थे..अचानक लाइट गुल हुई...और टैंकरों, तोपों की भयंकर आवाज़ें शुरू हो गईं...हम लोग अमृतसर के गोबिंदगढ़ किले से सटी कॉलोनी में रहते थे...यह जगह गोल्डन टेंपल से बस दो-अढ़ाई किलोमीटर की दूरी पर है..
पहले तो हमे लगा कि आर्मी की कोई एक्सरसाईज़ होगी...होती थी कभी कभी गोलाबारी ..आवाज़ें आया करती थीं...चंद मिनटों के लिए रुक रूक के...लेकिन उस दिन की तोपों, गोलों और गोलियों की आवाज़ बहुत अलग थी...भयंकर आवाज़ें थीं...किसी अनहोनी की आवाज़ें...
१९७१ की भारत पाक जंग को नज़दीक से देखा था...अचानक लड़ाकू हवाई जहाजों का आ जाना..कालोनी में भूमिगत बंकरों का बन जाना दो िदनों में, शाम के समय ब्लैक-आउट हो जाना, बीड़ी-सिगरेट वालों की खिंचाई होना...सब कुछ देख रखा था उन दो-तीन हफ्तों में...
लेकिन उस ५ जून १९८४ की रात तो उस से भी भयंकर थी...सारा आकाश लाल हो चला था..धूल-मिट्टी और लाली का गुब्बार...ऐसे लग रहा था कि जैसे दो देशों की जंग लग गई है ...वह रात बहुत भारी थी..सारे पंजाब पर, देश पर ..सारी दुनिया पर ...दुनिया ग्वाह है कि इसी के कारण बहुत सा इतिहास ही बदल गया ...उस रात ऐसा लग रहा था जैसे आज तो अमृतसर फनाह हो जायेगा....जहां तक मुझे याद है अगले कईं दिन कर्फ्यू लगा रहा ..
शायद उस दिन सारा अमृतसर जागता ही नहीं रहा होगा...सुबकता रहा होगा...हर कोई सदमे में था... लेिकन उस के कुछ दिन बाद भी हम लोगों ने कुछ ऐसी बातें सुनीं और देखीं भी जिन्हें याद भी नहीं किया जाना चाहिए...संक्षेप में कहें तो ब्लू-स्टार एक काला धब्बा था...कुछ भी कारण रहे हों, हर कोई एक आवाज़ में यही कह रहा था कि सरकार ने ऐसे हालात पैदा होने ही क्यों दिए कि अमृतसर जैसी पवित्र नगरी के इस महान स्थान पर इस तरह की कार्यवाही की आखिर ज़रूरत पड़ी!
श्री दरबार साहब, गोल्डन टेंपल या श्री हरिमंदिर साहिब ...ये सारे पंजाबियों की एक पहचान है...मैं तीन चार साल से लखनऊ में हूं...बहुत से मरीज़ों से बातें होती रहती हैं...तो वे बहुत बार पूछ भी लेते हैं ...आप कहां से हैं, मैं बताता हूं कि मैं अमृतसर से हूं...तो वे झट से चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान ला कर कहते हैं...अच्छा, हम भी गोल्डन टैंपल गये हुए हैं..फिर वे श्री दरबार साहिब की तारीफ़ें करने लगते हैं...वहां की साफ़-सफाई, वहां के अटूट लंगर की, वहां के सेवा-भाव की ...वहां के खुलेपन की ...वहां की रहमतों की ...क्या क्या दर्ज करूं, समझ नहीं आ रहा....
मेरी बचपन की यादों में गोल्डन टेंपल पूरी तरह से रचा बसा है ...किस तरह से हम लोग रिश्तेदारों के आने पर रिक्शों पर बैठ कर वहां ज़रूर जाया करते ...आधा दिन वहीं बिताना...परिक्रमा करनी, स्नान करना, लंगर छकना ...दुखभंजनी बेरी के दर्शन करना...
मेरे प्यारी नानी...(स्व.)श्रीमति मेला देवी..पढ़ाई से कईं गुणा ज़्यादा गुढी हुई...त्याग और सहनशीलता की देवी! |
कार सेवा का मतलब?.... दोस्तो, बरसों के बाद जब हरिमंदिर साहब के सरोवर में गार (मिट्टी) इक्ट्ठी हो जाती थी तो उस को निकालने की सेवा की जाती थी...इसे कार सेवा कहते थे...आज से चालीस साल पहले इतने फिल्टर-विल्टर भी नहीं थे, गार तो इक्ट्ठी हो ही जाती थी..कुछ बरसों बाद फिर कार सेवा होती थी..हां, तो उस में क्या किया जाता था...हज़ारों की संख्या में साध-संगत (श्रद्धालु) नीचे तालाब में उतर जाते थे...(पानी तो उस से पहले निकाल लिया जाता था) ..फिर वहां पर सारा काम कस्सियों से होता था...जमी हुई गार को उखाड़ने का ...उसे तसलों में डाल कर बाहर निकालने का ....साध-संगत का इतना जमावड़ा देख कर लगता था जैसे लोगों का समुद्र हो वहां....मैंने उस समय से पहले इतने ज़्यादा लोग कभी नहीं देखे थे...
मुझे गार का रंग भी याद है ..लगभग काले रंग की गार ...मेरी नानी रोज़ थोड़ा सी गार वहां से लेकर चलने को कहतीं...उसे मिट्टी के गोले की शक्ल दे देती ..लगभग एक किलो का तो होता ही होगा...ऐसे कईं गोले उन्होंने उन दिनों में अंबाला में अपनी सहेलियों के लिए इक्ट्ठा कर लिए थे...जाते समय वे उन्हें ले गईं ...और जहां तक मुझे याद है..अगले दस सालों तक जब भी हम लोग अपनी नानी के यहां रहने गये...हमें उन के ट्रंक में वह हमेशा गोले दिखते...धीरे धीरे उन का साईज़ कम हो रहा था...
यह किसी दूसरे गुरूद्वारे के सरोवर की कार सेवा की तस्वीर है . |
यह जो आस्था है ना, यह बहुत पर्सनल सी बात है ...मुझे बहुत बार लगता है कि ज़्यादा पढ़ाईयों ने हम लोगों का दिमाग खराब ज़्यादा और दुरुस्त कम किया है ...यह मेरा पर्सनल ओपिनियन है...
दरबार साहिब के लंगर की कितनी बातें करें...छोटा मुंह और बड़ी बात...वहां जब भी बैठा होता हूं तो रोम-रोम रोमांचित हुआ रहता है ...इतनी सेवा, इतना अपनापन, इतना समर्पण...no words can describe that feeling!
Sunday Times ..June5' 2016 |
मुझे यह पोस्ट लिखने के बाद एक फिल्म का ध्यान आया है ..Punjab 1984...मेरे बेटे ने मुझे बंबई से आते वक्त डाउनलोड कर के दी थी..मैंने उसे ट्रेन में देखा था...लेिकन उस दिन मेरे ऊपर क्या गुजरी, मैं ब्यां नहीं कर सकता...अभी मैं देख रहा था..यू-ट्यूब पर पड़ी हुई है ...just search on Youtube ... "Punjab 1984" by Diljit Dosanjh and if possible, watch this movie to understand what really went wrong with Punjab thereafter! Please do watch!