यकीनन बात तो बिल्कुल सही है...छोटी मोटी बातों में ही बड़ी तूफ़ानी खुशियां छुपी रहती हैं।
आप को ही कल ही की बात सुनाता हूं...मैंने सड़क पर देखा कि दो छोटे बच्चे एक साईकिल पर बड़ी मस्ती से जा रहे थे...अब इस में वैसे तो कोई बड़ी बात नहीं लगती अकसर बच्चे मस्ती में साईकिलों आदि पर चलते ही हैं...
लेकिन दोस्तो पता नहीं इन दोनों बच्चों की मस्ती में क्या बात थी और इन के साईकिल की गजब की डेकोरेशन थी कि मैं क्या, बहुत से लोग इन्हें देख रहे थे..मैंने कुछ तस्वीरें भी खींची ...यहां शेयर कर रहा हूं...दरअसल मैंने नोटिस किया कि ये बच्चे एक पतंग को कहीं से ला रहे थे (कटी हुई को लूट कर या खरीद कर, क्या फर्क पड़ता है)..साईकिल के पीछे बैठा हुआ तो उसे संभालने में पूरा व्यस्त था और चलाने वाला फुल मस्ती में हांक रहा था....लेकिन जो बात शायद को लोगों को आकर्षित कर रही थी वे थे ये लाल रंग के फुम्मन (पंजाबी शब्द)...पता नहीं इसे हिंदी में क्या कहते हैं...जो इस साईकिल के टायरों पर टंगे हुए थे।
ये फुम्मन देखने में कितने सुंदर लगते हैं....बस, एक तरह से टोटल इफैक्ट था..इन लाल, चमकीले, सुंदर फुम्मनों का, बच्चों के हर्षोल्लास, इन की मस्ती का, बेफिक्री का......ऐसे में किसे जगजीत सिंह की वह गजल याद ना आती होगी....दौलत भी ले लो, वो शोहरत भी ले लो...मगल मुझ को दिलवा दो, मेरे बचपन के वो दिन....वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी।
सच में इस तरह की खुशियां होती हैं जो देखने में शायद किसी को तुच्छ लगें लेकिन आपने भी नोटिस किया ये कितनी संक्रामक निकली ...जी हां, खुशियां तो संक्रामक ही होनी चाहिए।
ये बच्चे पीछे छूट गये तो मुझे भी बीते दिनों की बातें याद आने लगीं कि हम भी बचपन में अकसर देखा करते थे कि लोग साईकिल के हैंडल की मुट्ठ (जहां से हम साईकिल को पकड़ते हैं-- Hand grip)पर रंग बिरंगे कवर और टायरों के एक्सल के साथ लाल पीले फुम्मन बंधवा लिया करते थे ... और कुछ ऐसे ही फुम्मन, परांदे, लाल पीले रंग के कपड़े के टुकड़े रिक्शे वाले भी अपने नये खरीदे रिक्शे पर बांधे रखते थे ...और मेरे जैसे लोग हंसी हंसी में कहां मसखरी करने से बाज़ आते थे....यह मैं अमृतसर की बातें सुना रहा हूं ...रिक्शा पर बैठते बैठते हंसते हंसते रिक्शावाले से ज़रूर कह देना...यार, रिक्शा बहुत सुंदर सजा रखी है.....यह सुन कर वह भी खुश हो कर हंस देता था।
कल मैंने इन दोनों बच्चों को इतनी मस्ती में देखा तो मुझे अपने दिन भी याद आ गये कि कितना रोमांच होता था अपने पापा के साईकिल पर बैठने का ....और कुछ मांग नहीं...बर्फी तो वे दिला ही देते थे ...लेिकन बस उन के साथ साईकिल के अगले डंडे पर बैठ कर ऐसे लगता था जैसे ..........जैसे क्या, उम्र के उस दौर में हमें तुलना भी कहां आता है, बस खुशी होती थी .......शुद्ध खालिस १०० प्रतिशत खुशी।
मुझे याद है जब मैं छोटा था तो मुझे साईकिल के डंडे पर बैठने में थोड़ी दिक्कत तो होती थी...लेकिन मैं कहता नहीं था...एक तो मुझे वह डंडा चुभता रहता था और दूसरा, मेरे पांव रखने की जगह नहीं हुआ करती थी...शायद १९६० के दशक में छोटी काठी या फुट-होल्ड मिलते भी न हों, anyway, no regrets.....passed wonderful moments with my lovely and caring, doting father.
अपनी तकलीफ़ का ध्यान था, इसलिए जब आज से १४-१५ साल पहले मेरा छोटा बेटा साईकिल पर बैठने लगा तो मैंने इन दोनों बातों की तरफ़ विशेष ध्यान दिया....बेटों को भी साईकिल पर मेरे साथ बैठ कर उतना ही अच्छा लगता था जितना मुझे ......यह एक तरह से यूनिवर्सल सच्चाई ही है कि दुनिया के सभी बच्चों को अपने बापू के या मां के साईकिल पर सवारी करना बहुत भाता है...लेिकन समय के तो जैसे पंख लगे हुए हैं। परसों बेटा राघव यह तस्वीर देख रहा था तो अचानक कहने लगा......पापा, समय बहुत जल्दी बीत जाता है!...... सो तो है, यार, इसे कौन बांध पाया है।
हां, एक बात और ध्यान में आ गई....जब हम लोगों के साईकिल सीखने का ज़माना था ..तो पहले हम लोग कितने कितने दिन या शायद महीनों तक बाज़ार से छोटा साईकिल किराये पर ला कर चलाया करते थे....फिर उसके बाद हमें बड़े साईकिल को कैंची चलाने की छूट मिलती थी....कईं सालों बाद मैंने कुछ दिन पहले एक लड़के के उसी कैंची अंदाज़ में साईकिल चलाते देखा था....फिर उस के बाद घर में पड़े बहन के लेडी साईकिल को चलाना शुरू किया जाता था.....कारण सिर्फ इतना ही कि गिरने का चांस कम होगा, और गिर भी गये तो चोट कम आयेगी......जब इतनी प्रैक्टिस हो जाती थी तो एक दिन वह आता था जब सच में टेक-ऑफ का दिन होता था...उस दिन जो आप की मदद कर दिया करता था, बस उसे ही श्रेष्य जाता था कि उसने ही साईकिल चलाई....हमारे पड़ोस में एक हमारी चंचल दीदी हुआ करती थीं......मुझे बिल्कुल साफ याद है, एक दिन में ऐसे ही साईकिल चला रहा था तो उसने पीछे से कैरियर को पकड़ कर मुझे साईकिल चलाने की िहदायत दी......दो तीन बार लड़खड़ाया तो ....लेिकन पांच दस पंद्रह मिनटों में मैं अपने आप साईकिल चला रहा था....यह ही एक छोटी सी बात जिस की मुझे बहुत बड़ी खुशी मिली.....जैसे संसार ही बदल गया उस दिन के बाद.....साईकिल पर पैर रखो और ले आओ बाज़ार से बर्फ़, समोसे, जलेबियां, बर्फी ....कुछ भी।
लेिकन यह मैं कहां से कहां निकल गया....दोस्तो, आप को ध्यान होगा, मैंने इस ब्लॉग में पहले भी लिखा है कि यहां लखनऊ में साईकिल ट्रैक कुछ तो बन चुके हैं...कुछ बन रहे हैं....किसी को कहते सुना एक दिन पहले कि चुनावी मौसम में इन ट्रैकों को भी क्या कवर कर दिया जायेगा (क्यों कि ये समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह है) जैसे लखनऊ के दर्जनों बागों में पत्थर के सैंकड़ों हाथियों को चुनाव के मौसम में कपड़े पहना दिये गये थे....राजनीति पर लिखना मेरा काम नहीं है ...बस, मेरी सलाह यही है कि यार, जब ट्रैक के ऊपर टॉट डाला जायेगा, उस को तो अभी टाइम है....शुक्र है कि इस प्रदेश में किसी ने साईकिल पर यात्रा करने वाले के बारे में सोचा तो .....चलिए, आज से एक और प्रण करते हैं कि हर काम के सकारात्मक पहलू पर ही ध्यान केंद्रित किया करेंगे और कल से अपने साईकिलों को इन ट्रैकों पर दोड़ाना शुरू करते हैं........याद आया, मैंने भी दो तीन महीने से साईकिल को नहीं देखा......आज उसे मैं भी दुरूस्त करवाता हूं....वैसे मुझे यह विज्ञापन भी बहुत पसंद हैं.....बहुत ज़्यादा......दादी की ज़िंदादिली को शत-शत नमन् जिस में उस का पोता अपनी साईिकल दादी के हाथ में देने से बहुत ही ज़्यादा डर रहा है, लेकिन दादी अपने शाल को पोते को थमा कर, खुद उस के साईकिल पर सवार हो कर हवा से बातें करने लगती है..Wonderful Ad..but i dont remember the product for which this wonderful Ad has been prepared! I wonder if the Advertising has passed of FAILED!
आप को ही कल ही की बात सुनाता हूं...मैंने सड़क पर देखा कि दो छोटे बच्चे एक साईकिल पर बड़ी मस्ती से जा रहे थे...अब इस में वैसे तो कोई बड़ी बात नहीं लगती अकसर बच्चे मस्ती में साईकिलों आदि पर चलते ही हैं...
लेकिन दोस्तो पता नहीं इन दोनों बच्चों की मस्ती में क्या बात थी और इन के साईकिल की गजब की डेकोरेशन थी कि मैं क्या, बहुत से लोग इन्हें देख रहे थे..मैंने कुछ तस्वीरें भी खींची ...यहां शेयर कर रहा हूं...दरअसल मैंने नोटिस किया कि ये बच्चे एक पतंग को कहीं से ला रहे थे (कटी हुई को लूट कर या खरीद कर, क्या फर्क पड़ता है)..साईकिल के पीछे बैठा हुआ तो उसे संभालने में पूरा व्यस्त था और चलाने वाला फुल मस्ती में हांक रहा था....लेकिन जो बात शायद को लोगों को आकर्षित कर रही थी वे थे ये लाल रंग के फुम्मन (पंजाबी शब्द)...पता नहीं इसे हिंदी में क्या कहते हैं...जो इस साईकिल के टायरों पर टंगे हुए थे।
ये फुम्मन देखने में कितने सुंदर लगते हैं....बस, एक तरह से टोटल इफैक्ट था..इन लाल, चमकीले, सुंदर फुम्मनों का, बच्चों के हर्षोल्लास, इन की मस्ती का, बेफिक्री का......ऐसे में किसे जगजीत सिंह की वह गजल याद ना आती होगी....दौलत भी ले लो, वो शोहरत भी ले लो...मगल मुझ को दिलवा दो, मेरे बचपन के वो दिन....वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी।
सच में इस तरह की खुशियां होती हैं जो देखने में शायद किसी को तुच्छ लगें लेकिन आपने भी नोटिस किया ये कितनी संक्रामक निकली ...जी हां, खुशियां तो संक्रामक ही होनी चाहिए।
ये बच्चे पीछे छूट गये तो मुझे भी बीते दिनों की बातें याद आने लगीं कि हम भी बचपन में अकसर देखा करते थे कि लोग साईकिल के हैंडल की मुट्ठ (जहां से हम साईकिल को पकड़ते हैं-- Hand grip)पर रंग बिरंगे कवर और टायरों के एक्सल के साथ लाल पीले फुम्मन बंधवा लिया करते थे ... और कुछ ऐसे ही फुम्मन, परांदे, लाल पीले रंग के कपड़े के टुकड़े रिक्शे वाले भी अपने नये खरीदे रिक्शे पर बांधे रखते थे ...और मेरे जैसे लोग हंसी हंसी में कहां मसखरी करने से बाज़ आते थे....यह मैं अमृतसर की बातें सुना रहा हूं ...रिक्शा पर बैठते बैठते हंसते हंसते रिक्शावाले से ज़रूर कह देना...यार, रिक्शा बहुत सुंदर सजा रखी है.....यह सुन कर वह भी खुश हो कर हंस देता था।
कल मैंने इन दोनों बच्चों को इतनी मस्ती में देखा तो मुझे अपने दिन भी याद आ गये कि कितना रोमांच होता था अपने पापा के साईकिल पर बैठने का ....और कुछ मांग नहीं...बर्फी तो वे दिला ही देते थे ...लेिकन बस उन के साथ साईकिल के अगले डंडे पर बैठ कर ऐसे लगता था जैसे ..........जैसे क्या, उम्र के उस दौर में हमें तुलना भी कहां आता है, बस खुशी होती थी .......शुद्ध खालिस १०० प्रतिशत खुशी।
मुझे याद है जब मैं छोटा था तो मुझे साईकिल के डंडे पर बैठने में थोड़ी दिक्कत तो होती थी...लेकिन मैं कहता नहीं था...एक तो मुझे वह डंडा चुभता रहता था और दूसरा, मेरे पांव रखने की जगह नहीं हुआ करती थी...शायद १९६० के दशक में छोटी काठी या फुट-होल्ड मिलते भी न हों, anyway, no regrets.....passed wonderful moments with my lovely and caring, doting father.
अपनी तकलीफ़ का ध्यान था, इसलिए जब आज से १४-१५ साल पहले मेरा छोटा बेटा साईकिल पर बैठने लगा तो मैंने इन दोनों बातों की तरफ़ विशेष ध्यान दिया....बेटों को भी साईकिल पर मेरे साथ बैठ कर उतना ही अच्छा लगता था जितना मुझे ......यह एक तरह से यूनिवर्सल सच्चाई ही है कि दुनिया के सभी बच्चों को अपने बापू के या मां के साईकिल पर सवारी करना बहुत भाता है...लेिकन समय के तो जैसे पंख लगे हुए हैं। परसों बेटा राघव यह तस्वीर देख रहा था तो अचानक कहने लगा......पापा, समय बहुत जल्दी बीत जाता है!...... सो तो है, यार, इसे कौन बांध पाया है।
राघव और पापा २००१-०२ के आस पास |
लेिकन यह मैं कहां से कहां निकल गया....दोस्तो, आप को ध्यान होगा, मैंने इस ब्लॉग में पहले भी लिखा है कि यहां लखनऊ में साईकिल ट्रैक कुछ तो बन चुके हैं...कुछ बन रहे हैं....किसी को कहते सुना एक दिन पहले कि चुनावी मौसम में इन ट्रैकों को भी क्या कवर कर दिया जायेगा (क्यों कि ये समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह है) जैसे लखनऊ के दर्जनों बागों में पत्थर के सैंकड़ों हाथियों को चुनाव के मौसम में कपड़े पहना दिये गये थे....राजनीति पर लिखना मेरा काम नहीं है ...बस, मेरी सलाह यही है कि यार, जब ट्रैक के ऊपर टॉट डाला जायेगा, उस को तो अभी टाइम है....शुक्र है कि इस प्रदेश में किसी ने साईकिल पर यात्रा करने वाले के बारे में सोचा तो .....चलिए, आज से एक और प्रण करते हैं कि हर काम के सकारात्मक पहलू पर ही ध्यान केंद्रित किया करेंगे और कल से अपने साईकिलों को इन ट्रैकों पर दोड़ाना शुरू करते हैं........याद आया, मैंने भी दो तीन महीने से साईकिल को नहीं देखा......आज उसे मैं भी दुरूस्त करवाता हूं....वैसे मुझे यह विज्ञापन भी बहुत पसंद हैं.....बहुत ज़्यादा......दादी की ज़िंदादिली को शत-शत नमन् जिस में उस का पोता अपनी साईिकल दादी के हाथ में देने से बहुत ही ज़्यादा डर रहा है, लेकिन दादी अपने शाल को पोते को थमा कर, खुद उस के साईकिल पर सवार हो कर हवा से बातें करने लगती है..Wonderful Ad..but i dont remember the product for which this wonderful Ad has been prepared! I wonder if the Advertising has passed of FAILED!