दोस्तो, हम लोग जिस सत्संग में जाते हैं वहां पर हमें सभी तरह के कर्म-कांडों से दूर रहने की प्रेरणा मिलती है, उस में एक बात यह भी है कि ज़रूरी नहीं कि आप सुबह सवेरे नहा धो कर ही सत्संग में जाइए। लेकिन अकसर स्टेज से प्रवचन में यह बात दोहराई जाती है कि हमें कपड़ों का चुनाव अवसर के अनुसार करना चाहिए। फिर कहा जाने लगा कि बहनें सतसंग में रीवीलिंग कपड़ें न पहनें तो अच्छा हो...
बात है भी सही कि सतसंग के वातावरण के अनुकूल ही हमारी वेशभूषा हो तो हम सब शांति से सतसंग की बातों को ग्रहण कर सकते हैं। कल बात चल रही थी कि पुरूष लोग अब लोअर पहन कर ही आने लगे हैं....ऐसा न लगे उधर से गुज़रने वाले लोगों को कि ये लोग तो बस नींद से उठ कर आ कर बैठ गये हैं।
दोस्तो, यह बात भी आई कि ज़रूरी नहीं कि हम लोगों के पास आठ-दस-बीस जोड़ें हों तो ही हम लोग साफ़-स्वच्छ दिख सकते हैं... अगर दो ही कपड़ें हों तो भी उन्हें साफ़-स्वच्छ पहन कर रहने से हमारा मन तो खुश रहता ही है, देखने वाले पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।
अच्छा, दोस्तो, सतसंग की बात को तो यहीं पर विराम देता हूं...एक विषय पर आप से विचार साझा करना चाहता हूं...पिछले कईं दिनों से इच्छा हो रही थी, आज ध्यान आ गया।
दोस्तो, हम लोग किसी सरकारी अस्पताल में अगर जाते हैं और अगर एक ही ओपीडी के एक कमरे में बहुत से चिकित्सक बैठ कर मरीज़ों की जांच कर रहे हैं तो आप किस चिकित्सक की पंक्ति में लगना चाहेंगे?....ज़ाहिर सी बात है अन्य बातों के साथ साथ कहीं न कहीं हमारे मन में यह भी रहता है कि किस डाक्टर ने कपड़े अच्छे डाले हुए हैं, कौन अप-टु-डेट सा दिख रहा है, हम लोग अकसर उसे ही घेर कर खड़े होना पसंद करते हैं, अगर वह बातचीत भी हर एक से ठीक ठाक कर रहा है, हंसमुख है........ये सब चीज़ें भांपने के लिए किसी आईआईएम की डिग्री नहीं चाहिए, एक देहाती अनपढ़ भी ये सब बातें तुरंत ताड़ जाता है।
एक बात तो पक्की है कि हमारे कपड़े अच्छे होने का मतलब यह तो बिल्कुल भी नहीं कि कपड़े ब्रांडेड हों, महंगे हों, लेकिन यह ज़रूरी है कि वे साफ़-सुथरे हों, मौसम के अनुकूल हों और इस्त्री किए हुए हों।
डाक्टरों के नाखून अच्छे से कटे हुए होने चाहिए, मुंह में गुटखा, पानमसाला नहीं होना चाहिए, अपनी कुर्सी पर बैठ कर सिगरेट तो बिल्कुल नहीं....(यह सब देखा है इसलिए लिख रहा हूं)....
मैं अकसर देखता हूं कि आज के युवा डाक्टर चप्पलों में ही अस्पताल आने लगे हैं, होता क्या है इस हालात में मरीज़ के मन में डाक्टर की काबिलियत के प्रति संदेह पैदा हो जाता है, कुछ बातें केवल हमें मरीज़ के भरोसे के लिए करनी होती हैं, सच में मरीज़ के मन में इन सब छोटी छोटी बातों का बहुत प्रभाव पड़ता है, वह डाक्टर की बात भी तभी मानता है जब उसे उस पर भरोसा सा हो जाता है .....और कुछ बातें ऐसी भी होती हैं जो हमें इसलिए ध्यान में रखनी होती हैं क्योंकि उन से हमें अच्छा लगता है।
दोस्तो, हर प्रोफैशन के पहनावे के कुछ नियम-कायदे हैं, जो अगर हम नहीं भी फॉलो करते तो कोई हमें नौकरी से बाहर नहीं कर देगा...खास कर सरकारी में....अगर शूज़ अच्छे से पॉलिश नहीं हैं, सफेद डाक्टरी कोट नहीं भी पहना तो हमें कईं बार लगता है कि क्या फर्क पड़ता है, लेकिन मरीज़ के मन को बहुत फर्क पड़ता है......अगर दाढ़ी नहीं बनाई किसी दिन तो दोस्तो हमें अपने आप से बात करने की ही इच्छा नहीं होती तो दूसरे से हम क्या वार्तालाप करेंगें।
दोस्तो, यह सब मेरी आपबीती है ...यह कोई किताबी बातें नहीं हैं.....यह सब मैं एक मरीज़ एवं एक डाक्टर के रूप में अनुभव कर चुका हूं। दोस्तो, मुझे याद है अगर कभी बहुत ज़्यादा कड़ाके की ठंड होनी तो मैंने नहाने की बजाए ड्राई-क्लीन हो कर चले जाना, पैरों में अच्छे शूज़ की अलावा भी सब कुछ पहन कर देख चुका हूं, दाढ़ी न बना कर जाने का हश्र भी देख चुका हूं... सर्दी के दिनों में सिर पर मंकी कैप को फोल्ड कर के भी ओपीडी में बैठ चुका हूं...
लेकिन आज जब आत्मावलोकन करता हूं तो यही पाता हूं कि हमें अस्पताल में हर काम विश्वास को जीतने के लिए करना होता है.....ऐसा तो बिल्कुल नहीं है कि सरकारी अस्पताल में बैठे हैं तो क्या पड़ना इस सब झंझट में......नहीं, हमें अपने प्रोफैशन के अनुसार तो दिखना और फील करना ही चाहिए......इस में कोई दो राय नहीं .... यकीनन मरीज़ का भरोसा जीतने के लिए भी यह सब बहुत ज़रूरी होता है....यार, मरीज़ को लगे तो सही कि यह ठीक ठाक लगता है, यह मुझे भी ठीक कर देगा।
जब हम लोग कालेज में डाक्टरी पढ़ते हैं और जब नये नये डिग्री पाते हैं तो इन सब चीज़ों के प्रति बेहद सजग होते हैं......लेकिन पता नहीं कईं बार धीरे धीरे क्यों ये सब चीज़ें हम थोड़ी सी ध्यान में रखना बंद कर देते हैं......अब आप देखिए कि एक डाक्टर अपने कमरे में बैठा हुआ है, उस की कमीज़ के ऊपर के दो बटने खुले हुए हैं....और उस की मोटी सी सोने की चेन दिख रही है, अब आप भी बताइए कि मरीज़ को क्यों नहीं लगेगा कि कहीं वह पहाड़गंज के किसी प्रापर्टी डीलर के पास तो नहीं आ गया!
एक बात का और ध्यान आ गया.......बिल्कुल सच...दोस्तो, बार बार यह लिखना कि मैं झूठ बिल्कुल नहीं कहता इस ब्लॉग पर, ठीक नहीं लगता....हां, एक डाक्टर को किसी जमाने में जानता हूं जो हर अंगुली में सोने की अंगुठी भिन्न भिन्न पत्थरों और मोतियों से जड़ी हुईं पहने रहता था...और उस के कमरे और कमरे के बाहर बीसियों देवी देवताओं की तस्वीरें टंगी रहती थीं....मुझे यह सब बहुत अजीब लगता था.......अच्छा, एक बात और.....धंधे उस के पूरे के पूरे गोरख ही थे.........ऐसे में क्या नहीं लगता कि हम लोग चीटिंग कर रहे हैं और वह भी मरीज़ से...
क्या ज़रूरत है मरीज़ के सामने ईश्वर से डरने का नाटक करने की .......अगर ईश्वर हम लोगों के मन में बसा हुआ है तो हमारे सामने बैठा हर बंदा ही स्वयं ईश्वर है.....और यह सत्य भी है... फिर बेवजह की नौटंकी करने की ज़रूरत नहीं पड़ती .... किसी भी धर्म-जाति-वर्ण के मरीज़ के सामने डाक्टर की धार्मिक एवं आध्यात्मिक प्रेफरेंसेज़ प्रगट ही क्यों हों, इस की ज़रूरत ही क्या है। हम धार्मिक आस्थाएं कुछ भी हों, इस से मरीज़ को क्या फर्क पड़ता है!
दोस्तो, ये सब बातें शायद आप को बेतुकी लगें लेकिन मेरे लिए यह एक रिमाइंडर था कि मुझे कल से ही इन सब बातों को पूरा पूरा ध्यान रखना होगा, मरीज़ के भरोसे के लिए तो है ही , अपना मन भी अच्छा रहता है, किसी से ढंग से बात करने की इच्छा ही तभी होती है.....आपने नोिटस किया कि मैंने कहीं भी अपने आप को मरीज़ से श्रेष्ठ फील करने की बात नहीं की......और यह भी बहुत ज़रूरी है.....बिल्कुल उस की सतह पर आकर बात करने से बात में अलग ही तासीर पैदा होती है....यह इस खाकसार का तजुर्बा उसे लिखने के लिए उकसा रहा है।
बात है भी सही कि सतसंग के वातावरण के अनुकूल ही हमारी वेशभूषा हो तो हम सब शांति से सतसंग की बातों को ग्रहण कर सकते हैं। कल बात चल रही थी कि पुरूष लोग अब लोअर पहन कर ही आने लगे हैं....ऐसा न लगे उधर से गुज़रने वाले लोगों को कि ये लोग तो बस नींद से उठ कर आ कर बैठ गये हैं।
दोस्तो, यह बात भी आई कि ज़रूरी नहीं कि हम लोगों के पास आठ-दस-बीस जोड़ें हों तो ही हम लोग साफ़-स्वच्छ दिख सकते हैं... अगर दो ही कपड़ें हों तो भी उन्हें साफ़-स्वच्छ पहन कर रहने से हमारा मन तो खुश रहता ही है, देखने वाले पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।
अच्छा, दोस्तो, सतसंग की बात को तो यहीं पर विराम देता हूं...एक विषय पर आप से विचार साझा करना चाहता हूं...पिछले कईं दिनों से इच्छा हो रही थी, आज ध्यान आ गया।
दोस्तो, हम लोग किसी सरकारी अस्पताल में अगर जाते हैं और अगर एक ही ओपीडी के एक कमरे में बहुत से चिकित्सक बैठ कर मरीज़ों की जांच कर रहे हैं तो आप किस चिकित्सक की पंक्ति में लगना चाहेंगे?....ज़ाहिर सी बात है अन्य बातों के साथ साथ कहीं न कहीं हमारे मन में यह भी रहता है कि किस डाक्टर ने कपड़े अच्छे डाले हुए हैं, कौन अप-टु-डेट सा दिख रहा है, हम लोग अकसर उसे ही घेर कर खड़े होना पसंद करते हैं, अगर वह बातचीत भी हर एक से ठीक ठाक कर रहा है, हंसमुख है........ये सब चीज़ें भांपने के लिए किसी आईआईएम की डिग्री नहीं चाहिए, एक देहाती अनपढ़ भी ये सब बातें तुरंत ताड़ जाता है।
एक बात तो पक्की है कि हमारे कपड़े अच्छे होने का मतलब यह तो बिल्कुल भी नहीं कि कपड़े ब्रांडेड हों, महंगे हों, लेकिन यह ज़रूरी है कि वे साफ़-सुथरे हों, मौसम के अनुकूल हों और इस्त्री किए हुए हों।
डाक्टरों के नाखून अच्छे से कटे हुए होने चाहिए, मुंह में गुटखा, पानमसाला नहीं होना चाहिए, अपनी कुर्सी पर बैठ कर सिगरेट तो बिल्कुल नहीं....(यह सब देखा है इसलिए लिख रहा हूं)....
मैं अकसर देखता हूं कि आज के युवा डाक्टर चप्पलों में ही अस्पताल आने लगे हैं, होता क्या है इस हालात में मरीज़ के मन में डाक्टर की काबिलियत के प्रति संदेह पैदा हो जाता है, कुछ बातें केवल हमें मरीज़ के भरोसे के लिए करनी होती हैं, सच में मरीज़ के मन में इन सब छोटी छोटी बातों का बहुत प्रभाव पड़ता है, वह डाक्टर की बात भी तभी मानता है जब उसे उस पर भरोसा सा हो जाता है .....और कुछ बातें ऐसी भी होती हैं जो हमें इसलिए ध्यान में रखनी होती हैं क्योंकि उन से हमें अच्छा लगता है।
दोस्तो, हर प्रोफैशन के पहनावे के कुछ नियम-कायदे हैं, जो अगर हम नहीं भी फॉलो करते तो कोई हमें नौकरी से बाहर नहीं कर देगा...खास कर सरकारी में....अगर शूज़ अच्छे से पॉलिश नहीं हैं, सफेद डाक्टरी कोट नहीं भी पहना तो हमें कईं बार लगता है कि क्या फर्क पड़ता है, लेकिन मरीज़ के मन को बहुत फर्क पड़ता है......अगर दाढ़ी नहीं बनाई किसी दिन तो दोस्तो हमें अपने आप से बात करने की ही इच्छा नहीं होती तो दूसरे से हम क्या वार्तालाप करेंगें।
दोस्तो, यह सब मेरी आपबीती है ...यह कोई किताबी बातें नहीं हैं.....यह सब मैं एक मरीज़ एवं एक डाक्टर के रूप में अनुभव कर चुका हूं। दोस्तो, मुझे याद है अगर कभी बहुत ज़्यादा कड़ाके की ठंड होनी तो मैंने नहाने की बजाए ड्राई-क्लीन हो कर चले जाना, पैरों में अच्छे शूज़ की अलावा भी सब कुछ पहन कर देख चुका हूं, दाढ़ी न बना कर जाने का हश्र भी देख चुका हूं... सर्दी के दिनों में सिर पर मंकी कैप को फोल्ड कर के भी ओपीडी में बैठ चुका हूं...
लेकिन आज जब आत्मावलोकन करता हूं तो यही पाता हूं कि हमें अस्पताल में हर काम विश्वास को जीतने के लिए करना होता है.....ऐसा तो बिल्कुल नहीं है कि सरकारी अस्पताल में बैठे हैं तो क्या पड़ना इस सब झंझट में......नहीं, हमें अपने प्रोफैशन के अनुसार तो दिखना और फील करना ही चाहिए......इस में कोई दो राय नहीं .... यकीनन मरीज़ का भरोसा जीतने के लिए भी यह सब बहुत ज़रूरी होता है....यार, मरीज़ को लगे तो सही कि यह ठीक ठाक लगता है, यह मुझे भी ठीक कर देगा।
जब हम लोग कालेज में डाक्टरी पढ़ते हैं और जब नये नये डिग्री पाते हैं तो इन सब चीज़ों के प्रति बेहद सजग होते हैं......लेकिन पता नहीं कईं बार धीरे धीरे क्यों ये सब चीज़ें हम थोड़ी सी ध्यान में रखना बंद कर देते हैं......अब आप देखिए कि एक डाक्टर अपने कमरे में बैठा हुआ है, उस की कमीज़ के ऊपर के दो बटने खुले हुए हैं....और उस की मोटी सी सोने की चेन दिख रही है, अब आप भी बताइए कि मरीज़ को क्यों नहीं लगेगा कि कहीं वह पहाड़गंज के किसी प्रापर्टी डीलर के पास तो नहीं आ गया!
एक बात का और ध्यान आ गया.......बिल्कुल सच...दोस्तो, बार बार यह लिखना कि मैं झूठ बिल्कुल नहीं कहता इस ब्लॉग पर, ठीक नहीं लगता....हां, एक डाक्टर को किसी जमाने में जानता हूं जो हर अंगुली में सोने की अंगुठी भिन्न भिन्न पत्थरों और मोतियों से जड़ी हुईं पहने रहता था...और उस के कमरे और कमरे के बाहर बीसियों देवी देवताओं की तस्वीरें टंगी रहती थीं....मुझे यह सब बहुत अजीब लगता था.......अच्छा, एक बात और.....धंधे उस के पूरे के पूरे गोरख ही थे.........ऐसे में क्या नहीं लगता कि हम लोग चीटिंग कर रहे हैं और वह भी मरीज़ से...
क्या ज़रूरत है मरीज़ के सामने ईश्वर से डरने का नाटक करने की .......अगर ईश्वर हम लोगों के मन में बसा हुआ है तो हमारे सामने बैठा हर बंदा ही स्वयं ईश्वर है.....और यह सत्य भी है... फिर बेवजह की नौटंकी करने की ज़रूरत नहीं पड़ती .... किसी भी धर्म-जाति-वर्ण के मरीज़ के सामने डाक्टर की धार्मिक एवं आध्यात्मिक प्रेफरेंसेज़ प्रगट ही क्यों हों, इस की ज़रूरत ही क्या है। हम धार्मिक आस्थाएं कुछ भी हों, इस से मरीज़ को क्या फर्क पड़ता है!
दोस्तो, ये सब बातें शायद आप को बेतुकी लगें लेकिन मेरे लिए यह एक रिमाइंडर था कि मुझे कल से ही इन सब बातों को पूरा पूरा ध्यान रखना होगा, मरीज़ के भरोसे के लिए तो है ही , अपना मन भी अच्छा रहता है, किसी से ढंग से बात करने की इच्छा ही तभी होती है.....आपने नोिटस किया कि मैंने कहीं भी अपने आप को मरीज़ से श्रेष्ठ फील करने की बात नहीं की......और यह भी बहुत ज़रूरी है.....बिल्कुल उस की सतह पर आकर बात करने से बात में अलग ही तासीर पैदा होती है....यह इस खाकसार का तजुर्बा उसे लिखने के लिए उकसा रहा है।