अभी मैं सोने लगा था..फोन चैक किया.. एक व्हाट्सएप ग्रुप पर एक ऑडियो मैसेज सुना....मन को इतना छू गया कि सोने का कार्यक्रम थोड़े समय के लिए स्थगित कर दिया।
मैं उन पंक्तियों को इस पोस्ट के जरिए आप तक पहुंचाने वाला हूं...मुझे नहीं पता ये किस ने लिखी हैं, लेकिन उस अनजान रूह को बार बार प्रणाम्.....विचारों की सुंदरता के लिए।
"यह पेड़ ये पत्ते ये शाखें भी परेशान हो जाएं,
अगर परिंदे भी हिंदु और मुस्लमान हो जाएं,
सूखे मेवे भी यह देख कर हैरान हो गए,
ना जाने कब नारियल हिंदु और खजूर मुसलमान हो गये।
ना मस्जिद को जानते हैं ना शिवालों को जानते हैं,
जो भूखे पेट होते हैं वो सिर्फ़ निवालों को जानते हैं।
मेरा यही अंदाज़ जमाने को खलता है,
कि मेरा चिराग हवा के खिलाफ़ क्यों जलता है।
मैं अमन पसंद हूं मेरे शहर से दंगा दूर रहने दो,
लाल और हरे में मत बांटो, मेरी छत पर सिर्फ़ तिरंगा ही रहने दो।"
--- एक अनजान फरिश्ता
कुछ वर्ष पहले अपने ब्लॉगर बंधु मोदगिल जी से एक ब्लॉगर मिलन के दौरान ये पंक्तियां भी सुनी थीं, बहुत अच्छी लगी थीं......
मस्जिद की मीनारें बोलीं मंदिर के कंगूरों से
हो सके तो देश बचा लो इन मजहब के लंगूरों से।।