अभी अभी बीबीन्यूज़ पढ़ रहा था तो एक खबर की तरफ़ विशेष ध्यान चला गया कि कैलीफोर्निया में एक टीबी के मरीज़ ने अपना नौ महीने का दवाईयां का कोर्स पूरा नहीं किया ..और बिना बताए कहीं चला गया तो उस के गिरफ्तारी के वारंट इश्यू हो गये हैं क्योंकि प्रशासन जानता है कि इस मरीज़ के दूसरे लोगों को टीबी का मर्ज होने का खतरा है।
इस खबर का लिंक यहां लगा रहा हूं.. इस पर क्लिक कर के इसे देख सकते हैं..... California manhunt for tuberculosis -positive patient
मैं भी पिछले ३० वर्षों से सरकारी अस्पतालों में ही काम कर रहा हूं और इसलिए जो भी सरकारी अस्पतालों में टीबी और छाती रोग विशेषज्ञ पूरी कर्त्त्व्यपरायणता से अपना काम करते हैं उन के लिए मेरे मन में एक विशेष सम्मान है। और इस के साथ ही साथ जिन चिकित्सकों का व्यवहार भी इन मरीज़ों के साथ अच्छा होता है उन के आगे तो नतमस्तक होने की इच्छा होती है।
ये विशेषज्ञ ही नहीं, बल्कि लैब में जो टैक्नीशियन इन मरीज़ों की थूक की जांच कर के सही सही रिपोर्ट देते हैं मैं उन के फन की भी बहुत तारीफ़ करता हूं।
यह रोग इतने व्यापक स्तर पर भारत में फैला हुआ है कि सरकारी अस्पताल के टीबी के सरकारी डाक्टर का व्यवहार भी मेरे विचार में यह तय करता है कि मरीज़ उन की बात को कितनी गंभीरता से लेगा या दवाई खायेगा भी कि नहीं।
इस बीमारी के इलाज में इतना गड़बड़ घोटाला है कि हम सब आए दिन अखबारों में पढ़ते हैं कि टीबी की नकली दवाईयों की खेप पकड़ी गई। मुझे लगता है कि जो भी आदमी टीबी की ऩकली दवाईयों की कमाई खा रहा है उस से तो पशु भी बेहतर हैं।
हम चाहे जितना मरजी ढोल पीट लें कि हम डाक्टरों की कार्यक्षमता की ऐसी जांच करेंगे, वैसी जांच करेंगे.......साहब, ये दिल के मामले हैं, दिल से करने वाले काम हैं, कोई भी ऐसा मापदंड ऐसा बन ही नहीं पाएगा कि किस डाक्टर ने कितनी अच्छी तरह से कितनी कुशलता से अपने काम को अंजाम दिया या फिर किस टैक्नीशियन ने कितने थूक के सैम्पल कितने अच्छे से चैक किए और उस में से इतने कम पॉज़िटिव ही क्यों आए।
थूक की जांच का पॉज़िटिव या निगेटिव आना ही बहुत बार यह तय करता है कि बंदे को टीबी की दवाईयां दी जाएंगी या नहीं, सोच कर मन कांप उठता है कि जिस टीबी के रोगी का थूक का टैस्ट निगेटिव आ गया और उसे दवाईयां शुरु न की गईं।
ऐसे ही बहुत बार देखने सुनने में आता है कि किसी बंदे को टीबी थी ही नहीं और उस ने छः -नौ महीने दवाईयां भी खा लीं, फिर पता चला कि इस कोर्स की तो उसे ज़रूरत नहीं थी।
मैं गलतियां नहीं गिना रहा हूं....मुझे स्वयं पता नहीं मेरे में कितनी खामियां हैं, मैंने तो गिनती ही करनी छोड़ दी है, लेकिन टीबी के मरीज़ की ज़रा बात करते करते थोड़ा भावुक सा हो गया हूं........जिस तरह से टीबी की बीमारी इस देश में प्रचलित है, ऐसे में टीबी रोग विशेषज्ञों एवं लैब टैक्नीशियन (जो थूक की जांच करते हैं) को अति उत्तम श्रेणी का प्रशिक्षण समय समय पर दिया जाना चाहिए।
पाठकों को लगता होगा कि थूक की जांच बहुत आसान सा काम है, थूक की जांच ही तो करनी है, जी नहीं, यह एक बहुत कठिन काम है, इस में गलती की कोई गुंजाइश नहीं होती, कईं बार यही रिपोर्ट ही यह तय करेगी कि मरीज़ को दवा का कोर्स दिया जायेगा या नहीं.
ऐसा नहीं है कि अन्य साधन नहीं हैं --- हैं तो ..छाती का एक्स रे है, रक्त की अन्य प्रकार की जांच है, और नये नये प्रकार के टैस्ट भी आने लगे हैं--एलाईज़ा जैसे, जिस से बड़ी सटीकता से टीबी का पता चल जाता है। अभी ध्यान आ गया जब वी मैट के दारा सिहं के वह संवाद का जिस में वह करीना और शाहिद को देख कर बड़े चुटीले अंदाज़ में कहता है कि एक नज़र से ही पता चल जाता है कि लड़के और लड़की के बीच चल क्या रहा है। जी हां, ये विशेषज्ञ भी अपने मरीज़ों की बीमारी पहचानने में भी ऐसी ही नज़र रखते हैं।
लेकिन वही बात है, कहां लोग इतने साधन-संपन्न हैं कि वे इतने इतने महंगे टैस्ट करवाते फिरें, नहीं करवा पाते, ईश्वर का शुक्र है कि एक छाती का एक्स-रे और कुछ मामूली सी रक्त जांच से ही अनुभवी विशेषज्ञ निदान कर लेते हैं और दवाई शुरू कर देते हैं।
१०-१२ वर्ष पहले की बात है कि मैं फिरोज़पुर में जहां बाल कटवाने जाता था, वहां एक लड़का एक दिन कहने लगा कि उस की मां को टीबी है, बड़ी कमज़ोर हो गई है... प्राइव्हेट से इलाज करवा रहे हैं, कुछ फ़र्क ही नहीं पड़ रहा, सरकारी अस्पताल में जाते डर लगता है कि वहां कोई ठीक से बात सुने कि नहीं।
अब मुझे इतने वर्षों के बाद यह लगने लगा कि सरकारी अस्पतालों में बहुत अच्छा टेलेंट भी है, हर किसी को एक ही लेबल लगा देना ठीक नहीं है। इस में भी कोई संदेह नहीं रहा कि कुछ के अपने स्वार्थी मनसूबे रहते होंगे, और डाक्टरी पेशे में और वह भी सरकारी अस्पताल में सरकारी कुर्सी पर बैठ कर अपना कोई भी स्वार्थी मनसूबा रखना ...मैं इस श्रेणी को भी बेहद बेवकूफ़ मानता हूं........ मरीज़ आ रहा है आप के पास आप का नाम सुन कर, शायद उस के पास उतने साधन भी नहीं हैं, आप इतने माहिर बने बैठे हैं इसी तरह के सैंकड़ों-हज़ारों मरीज़ों को देख देख कर.......फिर इस में इतना इतराने की क्या बात है, क्यों इन मरीज़ों को हम दूसरे चक्करों में डालें..........अपना सारा ज्ञान जो संजो कर रखा है वह कब काम आयेगा.....
अच्छा तो बात उस हेयर-कटर की हो रही थी, वैसे तो मेरे जाने की ज़रूरत थी ही नहीं, क्योंकि फिरोज़पुर के सिविल अस्पताल में जो टीबी के विशेषज्ञ थे उन का बहुत ही नाम था.....काबिलियत के हिसाब से भी व्यवहार के नज़िरये से भी......फिर भी मैं पहली बात जा कर उस की मां और उस का परिचय करवा के आ गया, बाद में वे लगातार जा कर दवाई वहां से जा कर लेते रहे, खाने पीने के बारे में मैं भी उस का मार्गदर्शन करता रहा, कुछ ही महीने में उस की मां एकदम फिट हो गईं, वह बहुत खुश था.....लेकिन उस ने कोर्स पूरा किया।
प्राइव्हेट में बैठे कुछ नीम हकीम के हत्थे अगर कोई इस तरह का मरीज़ चढ़ गया तो वे उसे ठीक होने ही नहीं देते, या शायद उन का ज्ञान ही उतना होता होगा, लेकिन इतने भी बेवकूफ़ न होते होंगे कि भोली -भाली जनता को सरकारी टीबी अस्पताल में ही न रेफर कर पाएं.......ये नीम-हकीम टाइप के डाक्टर तो बस थोड़ी थोड़ी दवा देते रहते हैं, कभी कोई आधा अधूरा टीका लगा दिया.......मरीज़ ठीक हो या ना हो, इस से मतलब नहीं, बस उन की दुकानदारी चमकती रहनी चाहिए।
इस देश में तो ऐसे ऐसे केस देखें हैं कि मरीज़ महीनों महीनों खांसता रहता है, उस की खांसी से ही पता चल रहा है कि सब कुछ ठीक नहीं है, लेकिन जब वह गंभीर अवस्था में किसी बड़े अस्पताल में पहुंच जाता है, और वहां मौत से चंद दिन पहले ही पता चल पाता है कि उस का तो स्पूटम-पॉज़िटिव (लार में टीबी के कण) था। बेहद अफ़सोसजनक परिस्थिति !!
इस खबर का लिंक यहां लगा रहा हूं.. इस पर क्लिक कर के इसे देख सकते हैं..... California manhunt for tuberculosis -positive patient
मैं भी पिछले ३० वर्षों से सरकारी अस्पतालों में ही काम कर रहा हूं और इसलिए जो भी सरकारी अस्पतालों में टीबी और छाती रोग विशेषज्ञ पूरी कर्त्त्व्यपरायणता से अपना काम करते हैं उन के लिए मेरे मन में एक विशेष सम्मान है। और इस के साथ ही साथ जिन चिकित्सकों का व्यवहार भी इन मरीज़ों के साथ अच्छा होता है उन के आगे तो नतमस्तक होने की इच्छा होती है।
ये विशेषज्ञ ही नहीं, बल्कि लैब में जो टैक्नीशियन इन मरीज़ों की थूक की जांच कर के सही सही रिपोर्ट देते हैं मैं उन के फन की भी बहुत तारीफ़ करता हूं।
यह रोग इतने व्यापक स्तर पर भारत में फैला हुआ है कि सरकारी अस्पताल के टीबी के सरकारी डाक्टर का व्यवहार भी मेरे विचार में यह तय करता है कि मरीज़ उन की बात को कितनी गंभीरता से लेगा या दवाई खायेगा भी कि नहीं।
इस बीमारी के इलाज में इतना गड़बड़ घोटाला है कि हम सब आए दिन अखबारों में पढ़ते हैं कि टीबी की नकली दवाईयों की खेप पकड़ी गई। मुझे लगता है कि जो भी आदमी टीबी की ऩकली दवाईयों की कमाई खा रहा है उस से तो पशु भी बेहतर हैं।
हम चाहे जितना मरजी ढोल पीट लें कि हम डाक्टरों की कार्यक्षमता की ऐसी जांच करेंगे, वैसी जांच करेंगे.......साहब, ये दिल के मामले हैं, दिल से करने वाले काम हैं, कोई भी ऐसा मापदंड ऐसा बन ही नहीं पाएगा कि किस डाक्टर ने कितनी अच्छी तरह से कितनी कुशलता से अपने काम को अंजाम दिया या फिर किस टैक्नीशियन ने कितने थूक के सैम्पल कितने अच्छे से चैक किए और उस में से इतने कम पॉज़िटिव ही क्यों आए।
थूक की जांच का पॉज़िटिव या निगेटिव आना ही बहुत बार यह तय करता है कि बंदे को टीबी की दवाईयां दी जाएंगी या नहीं, सोच कर मन कांप उठता है कि जिस टीबी के रोगी का थूक का टैस्ट निगेटिव आ गया और उसे दवाईयां शुरु न की गईं।
ऐसे ही बहुत बार देखने सुनने में आता है कि किसी बंदे को टीबी थी ही नहीं और उस ने छः -नौ महीने दवाईयां भी खा लीं, फिर पता चला कि इस कोर्स की तो उसे ज़रूरत नहीं थी।
मैं गलतियां नहीं गिना रहा हूं....मुझे स्वयं पता नहीं मेरे में कितनी खामियां हैं, मैंने तो गिनती ही करनी छोड़ दी है, लेकिन टीबी के मरीज़ की ज़रा बात करते करते थोड़ा भावुक सा हो गया हूं........जिस तरह से टीबी की बीमारी इस देश में प्रचलित है, ऐसे में टीबी रोग विशेषज्ञों एवं लैब टैक्नीशियन (जो थूक की जांच करते हैं) को अति उत्तम श्रेणी का प्रशिक्षण समय समय पर दिया जाना चाहिए।
पाठकों को लगता होगा कि थूक की जांच बहुत आसान सा काम है, थूक की जांच ही तो करनी है, जी नहीं, यह एक बहुत कठिन काम है, इस में गलती की कोई गुंजाइश नहीं होती, कईं बार यही रिपोर्ट ही यह तय करेगी कि मरीज़ को दवा का कोर्स दिया जायेगा या नहीं.
ऐसा नहीं है कि अन्य साधन नहीं हैं --- हैं तो ..छाती का एक्स रे है, रक्त की अन्य प्रकार की जांच है, और नये नये प्रकार के टैस्ट भी आने लगे हैं--एलाईज़ा जैसे, जिस से बड़ी सटीकता से टीबी का पता चल जाता है। अभी ध्यान आ गया जब वी मैट के दारा सिहं के वह संवाद का जिस में वह करीना और शाहिद को देख कर बड़े चुटीले अंदाज़ में कहता है कि एक नज़र से ही पता चल जाता है कि लड़के और लड़की के बीच चल क्या रहा है। जी हां, ये विशेषज्ञ भी अपने मरीज़ों की बीमारी पहचानने में भी ऐसी ही नज़र रखते हैं।
लेकिन वही बात है, कहां लोग इतने साधन-संपन्न हैं कि वे इतने इतने महंगे टैस्ट करवाते फिरें, नहीं करवा पाते, ईश्वर का शुक्र है कि एक छाती का एक्स-रे और कुछ मामूली सी रक्त जांच से ही अनुभवी विशेषज्ञ निदान कर लेते हैं और दवाई शुरू कर देते हैं।
१०-१२ वर्ष पहले की बात है कि मैं फिरोज़पुर में जहां बाल कटवाने जाता था, वहां एक लड़का एक दिन कहने लगा कि उस की मां को टीबी है, बड़ी कमज़ोर हो गई है... प्राइव्हेट से इलाज करवा रहे हैं, कुछ फ़र्क ही नहीं पड़ रहा, सरकारी अस्पताल में जाते डर लगता है कि वहां कोई ठीक से बात सुने कि नहीं।
अब मुझे इतने वर्षों के बाद यह लगने लगा कि सरकारी अस्पतालों में बहुत अच्छा टेलेंट भी है, हर किसी को एक ही लेबल लगा देना ठीक नहीं है। इस में भी कोई संदेह नहीं रहा कि कुछ के अपने स्वार्थी मनसूबे रहते होंगे, और डाक्टरी पेशे में और वह भी सरकारी अस्पताल में सरकारी कुर्सी पर बैठ कर अपना कोई भी स्वार्थी मनसूबा रखना ...मैं इस श्रेणी को भी बेहद बेवकूफ़ मानता हूं........ मरीज़ आ रहा है आप के पास आप का नाम सुन कर, शायद उस के पास उतने साधन भी नहीं हैं, आप इतने माहिर बने बैठे हैं इसी तरह के सैंकड़ों-हज़ारों मरीज़ों को देख देख कर.......फिर इस में इतना इतराने की क्या बात है, क्यों इन मरीज़ों को हम दूसरे चक्करों में डालें..........अपना सारा ज्ञान जो संजो कर रखा है वह कब काम आयेगा.....
अच्छा तो बात उस हेयर-कटर की हो रही थी, वैसे तो मेरे जाने की ज़रूरत थी ही नहीं, क्योंकि फिरोज़पुर के सिविल अस्पताल में जो टीबी के विशेषज्ञ थे उन का बहुत ही नाम था.....काबिलियत के हिसाब से भी व्यवहार के नज़िरये से भी......फिर भी मैं पहली बात जा कर उस की मां और उस का परिचय करवा के आ गया, बाद में वे लगातार जा कर दवाई वहां से जा कर लेते रहे, खाने पीने के बारे में मैं भी उस का मार्गदर्शन करता रहा, कुछ ही महीने में उस की मां एकदम फिट हो गईं, वह बहुत खुश था.....लेकिन उस ने कोर्स पूरा किया।
प्राइव्हेट में बैठे कुछ नीम हकीम के हत्थे अगर कोई इस तरह का मरीज़ चढ़ गया तो वे उसे ठीक होने ही नहीं देते, या शायद उन का ज्ञान ही उतना होता होगा, लेकिन इतने भी बेवकूफ़ न होते होंगे कि भोली -भाली जनता को सरकारी टीबी अस्पताल में ही न रेफर कर पाएं.......ये नीम-हकीम टाइप के डाक्टर तो बस थोड़ी थोड़ी दवा देते रहते हैं, कभी कोई आधा अधूरा टीका लगा दिया.......मरीज़ ठीक हो या ना हो, इस से मतलब नहीं, बस उन की दुकानदारी चमकती रहनी चाहिए।
इस देश में तो ऐसे ऐसे केस देखें हैं कि मरीज़ महीनों महीनों खांसता रहता है, उस की खांसी से ही पता चल रहा है कि सब कुछ ठीक नहीं है, लेकिन जब वह गंभीर अवस्था में किसी बड़े अस्पताल में पहुंच जाता है, और वहां मौत से चंद दिन पहले ही पता चल पाता है कि उस का तो स्पूटम-पॉज़िटिव (लार में टीबी के कण) था। बेहद अफ़सोसजनक परिस्थिति !!