आज शाम लगभग साढ़े सात बजे जब टीवी के चैनल बदल बदल कर देख रहा था तो अचानक डीडी भारती पर एक प्रोग्राम चल रहा था –कल्याणी ....यह प्रोग्राम इस चैनल पर हर रविवार साढ़े सात से आठ बजे आता है। दूरदर्शन के अन्य चैनलों की तरह इस चैनल का यह प्रोग्राम भी बिल्कुल जमीन से जुड़ा हुआ...बिल्कुल भी फुकरापंथी नहीं..यह प्रोग्राम थी जिस में किशोर-किशोरीयों के शरीर में होने वाले बदलावों की जानकारी दी जा रही थी ...किशोर, किशोरीयां, अध्यापक एवं अभिभावक आमंत्रित विशेषज्ञ से प्रश्न कर रहे थे।
पंद्रह बीस मिनट पर स्क्रीन पर एक कैप्शन सा जो आ जाता है उस से पता चला कि आठ बजे रामचंद पाकिस्तानी फिल्म इसी चैनल पर आयेगी। रामचंद पाकिस्तानी फिल्म मुझे बहुत पसंद है।
मुझे अभी ध्यान आ रहा था कि अखबार में मुझे कौन सी खबर देख कर सब से ज़्यादा खुशी होती है ...कोई अनुमान ? …. जब इंडिया कोई मैच जीतता है ? जब एशियन गेम्स में गोल्ड मैडल टैली बहुत बढ़ जाती है?......आप का कोई भी अनुमान ठिकाने पर नहीं लगेगा .....क्योंकि मुझे सब से ज़्यादा खुशी तब होती है जब पाकिस्तान या हिंदोस्तान द्वारा जेलों में भरे एक दूसरे के देश के कैदी छोड़े जाते हैं। Those are my happiest moments !
यह रामचंद पाकिस्तानी भी एक लगभग 10 साल के बच्चे एवं उस के परिवार की कहानी है ... यह बच्चा पाकिस्तान में एक बार्डर गांव में रहता है ... एक दिन अपनी मां से सुबह सुबह इस बात से खफ़ा हो जाता है कि वह उस के बापू को भी चाय का प्याला भर कर देती है लेकिन उसे आधा ही क्यों। बस, घर से चलता चलता अचानक बार्डर क्रॉस कर जाता है ..पकड़ा जाता है ..बापू ढूंढने जाता है उसे भी पकड़ लिया जाता है .... बस मुसीबतें शुरू।
उस की मां की भूमिका नंदिता दास ने की है ...इसलिए उस किरदार में भी उस महान नायिका ने जान फूंक दी है। उसे देख कर तो कभी भी लगा ही नहीं कि वह अभिनय कर रही है ...किरदार में इतना गुम हो जाती हैं वह।
चाहे इधर की जेलों में हों या उधर की जेलों में जो लोग यहां वहां सड़ रहे होते हैं ....वे सब रिश्तों के ताने-बाने से बुने होते हैं ...उन के लिये और उन के अपनों के लिये एक एक दिन कैसे बीतता है, इसे तो हम लोग ब्यां ही कैसे कर सकते हैं, बस केवल नंदिता दास या उस के पति या बेटे रामचंद के बुरे हालातों से थोड़ा समझ ही सकते हैं।
वैसे तो मैंने यह फिल्म एक डेढ़ साल पहले देखी थी लेकिन ऐसी फिल्म को फिर से देखने का मैं अवसर खोना नहीं चाहता था। इस डी डी भारती चैनल पर इन विज्ञापनों की भी सिरदर्दी नहीं होती....।
जो लोग तीस तीस वर्षों के बाद यहां से वहां के लिये या वहां से यहां के लिये छोड़े जाते हैं उन के मन में क्या चल रहा होता है, इस की हम कैसे कल्पना कर सकते हैं ? अकसर हम लोग यही सुनते हैं कि इन में अधिकांश लोग निर्दोष होते हैं –मछुआरे, या किसी बार्डर गांव के रहने वाले लोग .....और मुझे यह भी लगता है कि जो शातिर किस्म के खिलाड़ी होते हैं, उपद्रवी होते हैं.... वे तो इन में बहुत कम होते होंगे..............कुछ ऐसा होना चाहिये कि दोनों देशों में व्यवस्था ऐसी हो कि ऐसे केसों को कुछ दिनों में निपटा के लोगों को उन के घरों की तरफ़ रवाना किया जाए .................आप भी यह फिल्म देखिये, आप भी यही बात कहने लगेंगे।