इसी फ़िक्र के चलते ही हम ने पिछले 20-25 बरसों से बाज़ार से कभी पनीर खरीदा नहीं ....2002 के आसपास की बात है हम लोग जहां रहते थे वहां दूध-दही की नदियां बहा करती थीं किस्सों में ....इसलिए हम भी वहां पहुंचते पनीर, और मिठाईयों (विशेषकर बर्फी, छैना ...) पर टूट पड़े ...फिर नकली दूध, नकली और मिलावटी पनीर, नकली दूध से बनी मिठाईयों की खबरों ने ऐसा हिला कर रख दिया कि यह सब खाना बहुत कम हो गया....और पनीर तो बाज़ार से खरीदना बंद ही हो गया...लेकिन सोचने वाली बात है कि घर में जो पनीर बनेगा वह भी दूध तो उसी से बनेगा जो बाज़ार में मिल रहा है ....अब घर में कभी एक दो अच्छी ब्रांडेड कंपनियों के पनीर के पैकेट दिख जाते हैं...(सोचने वाली बात यह है कि जिस फूड-चेन के प्रोडक्ट्स में एनॉलॉग पनीर की बात पिछले दिनों हम लोगों ने पढ़ी-देखीं, वे भी तो अच्छी ही हैं....बुरा कुछ भी तो नहीं यहां 😂
बातें ऐसी सिर दुखाने वाली हैं सच में ....लेकिन अपने अनुभव लिख देने चाहिए, शायद किसी को कोई रास्ता दिखे या हमारे रास्ते में जो गलतियां हैं कोई हमें उस के बारे में ही बता दे, लेकिन अगर लिखेंगे नहीं तो बात कैसे बनेगी....बचपन से पनीर बहुत पसंद रहा है, इस के पकोड़े, इस की भुर्जी और आलू-मनीर और मटर पनीर की सब्जी जिस के लिए पहले पनीर को अच्छे से फ्रॉई किया जाता था पहले....ज़िंदगी की उस अवस्था में किसी फ़ुर्सत होती है यह देखने की जो वह खा रहा है, वह क्या है ....बस स्वाद ही सर्वोपरि होता है ....लेकिन जैसे ही कुछ 20-25 बरसों से इस नकली और मिलावटी पनीर की खबरें पढ़ीं तो बस बाहर से पनीर खरीदना लगभग बंद ही हो गया....
हां, लिखते लिखते याद आ रहा है यह कोई 20 साल पहले की बात है ...वही दूध-दही की नदियों वाले इलाकों की ....जब अखबारों में यह आने लगा कि पनीर बनाने के लिए जो दूध फाड़ते हैं डेयरी वाले उसमें किसी एसिड का इस्तेमाल किया जाता है ....मुझे याद है कि मां की टिप्पणी यह होती थी कि अब अगर वे दूध के फाड़ने के लिए नींबू का इस्तेमाल करने लगें तो हो चुका उन का धंधा......लेकिन फिर भी ये सब पढ़ कर बाहर के पनीर से बेरुखी सी हो गई ....यहां तक कि किसी भी ब्याह-शादी-पार्टी में पनीर खाना बंद दिया...
बाहर से पनीर खरीदना ही नहींं, कहीं भी बाहर ---किसी पार्टी में, किसी शादी-ब्याह में, बड़े से बड़े रेस्ट्रां में खाते वक्त भी पनीर कभी चखते तक नहीं, कभी उस पीली दाल के साथ मजबूरी वश एक दो चम्मच शाही पनीर की ग्रेवी लेनी पड़ जाती है ....यही कारण है मुझे कहीं भी खाने वाने के लिए बाहर जाना पसंद नहीं है ...दारू पीनी नहीं, नॉन-वेज भी नहीं, पनीर भी नहीं, कोई मिल्क प्रोडक्ट भी नहीं तो फिर बाहर खाने जाना ही क्यों है.....(हां, जो बात आप के मन में आ रही है वह मैं भी सोचता हूं कि फिर जी ही क्यों रहे हैं ...😎...यह जीना भी कोई जीना है लल्लू)....दाल-रोटी में तो न तो दाल अपने स्वाद की मिलती है और रोटियां भी कच्ची पक्की ....बाहर कभी खाना मेरे लिए किसी सज़ा भुगतने जैसा है ....वही जाता हूं जहां जाने से बचा नहीं जा सकता....😎....खाने पीने के बारे में और भी बता दूं कि शायद दस साल तो कम से कम हो गए होंगे दूध नहीं पीता हूं, दही भी एक दो चम्मच मजबूरी में कभी लेने पड़ते हैं ....लेकिन यह जो मैं ब्लॉग में लिख रहा हूं यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, इस को फॉलो मत करिए, पढ़ने वाले अपनी सेहत के खुद जिम्मेदार हैं ....मेरी लिखी हुई बातों के भरोसे मत रहिए....लेखकों का काम कईं बार इशारे इशारे में अपनी बात कहनी होती है .....अपनी सेहत, अपने खान-पान के सभी फैसले खुद और अपने चिकित्सक की सलाह के मुताबिक करिए.....जहां तक मेरी बात है, मैं भी वही करता हूं जो मुझे मुनासिब जान पड़ता है, सदियों से चली आ रही खाने-पीने की धारणाओं के बहाव के विरूद्ध चलना मुश्किल होता है ....लेकिन हर इंसान के फ़ैसले अपने होते हैं ....होने भी चाहिए...क्योंकि सही गलत के लिए वह खुद जिम्मेदार होता है ...
कुछ दिन पहले उस बड़ी सी फूड-चेन में अनॉलॉग पनीर के बारे में चिंता हुई ....मैं तो वहां से एक बर्गर के अलावा कभी कुछ खाता नहीं था (वह भी साल में एक दो बार) .....लेकिन जिस तरह से आज के जवान पनीर के दीवाने हैं, बड़े ब्रांड के पनीर वाले बडे़ पकवानों के दीवाने हैं, यह चिंता का विषय़ तो है ही ...
इस विषय़ पर मेरा कुछ लिखने का मन तो नहीं था, क्या हर वक्त अपनी ही हांकते रहें, लेकिन जब से उस फूड-चेन की इस तरह की खबरें पढ़ी थीं, मन में बड़ी उथल-पुथल सी मची हुई है.....आज सुबह जल्दी उठ गया....पहले तो सत्यजीत रे की कहानी Fritz पढ़ी, नेट पर नहीं, किताब में .....मुझे उन को पढ़ना अच्छा लगता है, फिर सामने कल की अखबार पर नज़र पड़ गई ....कल पढ़ी तो थी, कैसे छूट गया इस रिपोर्ट को पढ़ना.....हैरानी भी हुई ...इसे आराम से पढ़ा और फिऱ अपनी बात लिखने बैठ गया.....😂
मिलावट वैसे तो हमारे बचपन के दिनों से ही खाने-पीने की चीज़ों मे शुरू हो चुकी थी .....लेकिन इस का पता हमें रोटी-कपड़ा-मकान के इस गीत से ही चला था ....पावडर वाले दूध की मलाई मार गई ....(यह फिल्म छठी सातवीं जमात के दिनों में अमृतसर में देखी थी) फिर भी लगता है मिलावट आटे मे नमक के बराबर रही होगी उस दौर में ....अब तो दाल में कंकड़ ही कंकड़ हैं....ऐसे लगता है, हर चीज़ खाते वक्त सोच विचार करना पड़ता है ....