सुबह सुबह उठ कर कुछ भी करने का मन नहीं है तो सोचा कि चलिए इस डॉयरी में ही कुछ लिख देते हैं....फिर दूसरों को भी पढ़वाएंगे...एक साथ बैठे लोग कुछ नहीं कहते चाहे...लेकिन दिन में जो भी एक दो लोग यह डॉयरी पढ़ कर मुझे कुछ कहते हैं बस वही मुझे अगली पोस्ट लिखने के लिए उकसाता रहता है ...और कहने वालों की इमानदारी मैं उन के अल्फ़ाज़ से कहीं ज़्यादा उन की आंखों में पढ़ लेता हूं...
मैं कईं कईं हफ्तों तक, शायद कभी कभी महीनों तक भी ..सुबह उठ कर टहलने टालता रहता हूं... बहाने सुनिएगा?..अगर तो मैं जल्दी जाग जाता हूं तो लगता है कि अभी तो इतनी जल्दी है, रास्ते में कुत्ते ही न पड़ जाएं (एक बार ऐसा हो चुका है..बाल बाल बचा था...) , अगर थोड़ा देर हो जाए तो सोचता हूं कि अब कौन जाए, तैयार हो कर ड्यूटी पर चलते हैं, क्यों बेकार की किट-किट...60 साल की उम्र होने पर अकसर कोई टोकता नहीं है, लेकिन फिर भी अपने आप ही लेटलतीफी की वजह से नज़रों में थोड़ा बहुत तो गिर ही जाता है ...कहां से गिर जाता है?- कहीं से नहीं अपनी नज़रों से यार, और कहां से गिरना है...😂
अच्छा, एक बात और भी है कि यहां बंबई में सुबह होती भी बहुत देर से है ..यह भी एक बहाना ही तो हुआ..क्या मेरे एक बंदे के लिए सूरज अपना टाईम-टेबल बदल दे ... साईकिल चलाना हो तो मुझे यही आलस रहता है कि कोई उसे अब पार्किंग से जाकर उठाए, इतने महीनों से तो चलाया नही, पता नहीं हवा है भी कि नहीं...
बस, ऐसे ही बहाने करता रहता हूं अपने आप से ..और मुझे प्रातःकाल ही भ्रमण अच्छा लगता है, देर शाम या रात में टहलना तो मुझे कार्बनमोनोआक्साईड फांकने जैसा लगता है ...और उस वक्त जो लोग जॉगिंग कर रहे होते हैं, रुक कर उन्हें बिन मांगी नसीहत देने की इच्छा भी होती है कि यार, क्या आप को इतने ट्रैफिक में जॉगिंग करने के ख़तरे पता हैं ..लेकिन फिर अपने आप को यहां मुंबई में तो रोक ही देता हूं ...बिन मांगी नसीहत देने के लिए...लखनऊ में तो मैंने दो तीन युवकों को एक बार ऐसी नसीहत की घुट्टी पिला भी दी थी .. हा हा हा हा ...
अच्छा, एक बात और है...जिस दिन सुबह जल्दी उठ जाऊं तो फिर शाम तक थकावट सी होने लगती है...इस का समाधान तो मेरी श्रीमति जी ने कर दिया कुछ अरसा पहले...उन्होंने मुझे यह ज्ञान दिया कि देखिए, अगर सुबह जल्दी उठ ही जाते हैं तो कोई बात नहीं, लेटे रहिए बिस्तर पर, लेकिन मोबाइल को मत छुए...कुछ ही वक्त में फिर से नींद आ जाएगी....अब मैं इसी ज्ञान का इस्तेमाल कर के एक-दो घंटे की नींद और ले लेता हूं...
अच्छा, एक उलझन और भी है मुझे ...जिन लोगों से मेरा ऑफिशियल नाता है उन के साथ मैं बस ड्यूटी तक ही नाता रखना चाहता हूं ..और ऐसा करता भी हूं ...इस के पीछे भी कुछ किस्से हैं, कभी मूड में रहूंगा तो वह भी सुना दूंगा...मैं बिल्कुल स्विच आन-ऑफ की फिलासफी में विश्वास करता हूं ...इस का हिसाब आप इस तरह से लगा सकते हैं कि मैं अपनी ड्यूटी ऑफ होते ही सब से पहले तो अपनी शर्ट जो मैंने पेंट के अंदर टक-अन की होती है, उसे बाहर निकाल कर आज़ादी महसूस करता हूं ..और शाम के वक्त भी जिस भी कॉलोनी में रहता हूं वहां पर सैर वैर नहीं करता ..क्योंकि वही चेहरे बार बार कौन देखे...घोर बोरियत होती है ...और अगर दिख जाएँ तो वही डर्टी-पॉलिटिक्स (मुझे नफ़रत है इस तरह की गॉसिपिंग से) ...क्या लेना देना यार, अपनी अपनी बंसी बजाओ..मस्त रहो...। इसीलिए भी मैं सुबह सवेरे किसी अलग जगह पर जाने की फिराक में रहता हूं ....
कल भी मैं जब सुबह 6.30 बजे उठा तो बाहर अंधेरा ही था...सोचा कि ऐसे तो नहीं होगा...यह अंधेरा तो ऐसे ही रहेगा...भाई तू अपने मन में उजियारा कर ..मैं तुरंत बांद्रा में बैंड-स्टैंड वाली रोड पर चला गया...यह सेंट एंड्रयूज़ चर्च से शुरू होती है ..और आगे बांद्रा फोर्ट पर जा कर खत्म होती है ...
जैसे ही मैं पोमरेड पर चढ़ा मैंने देखा कुछ लोग इस मंज़र की तस्वीर खींच रहे थे ..मेरा पहला रिएक्शन यही था कि सूरज चढ़ भी गया क्या, लेकिन फिर लगा कि सूरज पश्चिम में तो डूबता है, यह तो चंद्रमा जी ही होंगे ...फिर दूसरा विचार आया कि सुबह 6.45 पर भी चंद्रमा जी दिख रहे हैं...पता नहीं, इसी पशोपेश में पास ही जा रहे एक उम्रदराज शख्स से यह पूछने में मुझे कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं हुई कि यह तो मून ही होगा...उसने ने जैसे ही मुंडी हिलाई ...मैं तो वहां से सरपट आगे निकल गया...फ़िजिक्स मेरी बहुत कमज़ोर ही थी ...मुझे सच में ये सब सबजेक्ट बेहद नीरस लगते थे ...लेकिन अब नौकरी के लिए कुछ तो पढ़ना ही था ..
जब हम घर में चादर ताने सो रहे होते हैं तो लगता है कि सारी दुनिया घरों ही में दुबकी पड़ी है ..लेकिन बाहर निकलते ही पता चलता है कि लोग बाहर निकल चुके हैं ..अपनी सेहत का ख्याल रखते हैं ..मेरे जैसे नहीं है, सब कूछ जानते हुए भी आलस की लोई ओड़े रखते हैं....दिन में खूब चल लेता हूं ...चलता ही हूं जब तक घुटने दुखने नहीं लगते, फिर वापिस लौट आता हूं ...लेकिन सुबह के कुदरते नज़ारों का लुत्फ़ उठाने की तो बात ही कुछ और है...
15 मिनट चलते चलते मैं यहां तक पहुंच गया ..बांद्रा फोर्ट के गेट के अंदर ...अंदर जाने पर यह खंडहर भी दिखते हैं यह सी-रॉक होटल के खंडहर हैं ...7 मई 1975 में . आज से 47 साल पहले मैं मेरे चाचा की बेटी की शादी में यहीं पर था, और इसी दीवार से बार बार इस समंदर की लहरों को देख कर खुश हो रहा था ...उस शादी में राजकपूर, उन की बीवी और राजेन्द्र कुमार भी आए थे...मेरे चाचा की अच्छी दोस्ती थी फिल्मी हस्तियों से ...राजकपूर, यश चोपड़ा इन सब से ...हां, तो उस दिन राजकपूर शादी में हाथ लगाने नहीं आए थे ...दो घंटे वहीं बैठे रहे ...हम उन्हें दूर से देख कर खुश हो रहे थे ...और हम बच्चे पूरे होटल में ऐसे घूमने निकले जैसे हम ने उसे खरीद ही लिया हो...हाटेल की ग्राउँड फ्लोर पर एक कमरे को खोला तो वह टेबल-टैनिस वाला कमरा था..वहां पर ऋषि कपूर सफेद निक्कर और टी-शर्ट पहने खेल रहे थे ..अभी हम उन्हें निहार ही रहे थे कि किसी ने हमें उस कमरे से बाहर कर दिया... हा हा हा हा ..
वैसे तो सारा दिन हम लोगों के चेहरे पर बारह बजे रहते हैं ...मुझे नहीं पता कि हम किस लिए ऐसा करते हैं...अपने इन्हीं चेहरों की वजह से दूसरों का भी दिन खराब कर देते हैं ...लेकिन सुबह कुदरत की गोद में हम लोगों के चेहरे कैसे खिल उठते हैं...यह शेल्फी लेने पर ही पता चलता हूैं...
बंदा अपने आप से यह पूछने पर मजबूर हो जाता है कि यार, तू वही बोरिंग सा बंदा ही है ...इस में तो तू बडा़ ज़िंदादिल किस्म का लग रहा है ...
और हां, एक बात और ....सी-रॉक जहां पहले था ...उस के सामने बैंड-स्टैंड पर टाटा-लैंडएंड पांच सितारा होटल है ..मैं कौन सा कभी अंदर गया हूं ...बाहर से ही देखा है ...लेकिन उस बांद्रा फोर्ट में ज़रूर कईं बार जा चुका हूं ..और आप सब को भी वहां ज़रूर जाने की सलाह देता हूं ..आप को वहां बड़ा मज़ा आएगा..वहां से सी-लिंक दिखता है, वह एक अलग बात है ..लेकिन पिछले उस किले का इतिहास जानने के लिए आप को इस किले की तरफ़ ज़रूर जाना चाहिए..यह सुबह 6 से शाम 6 बजे खुला रहता है, कोई टिकट नहीं है, और गाडी़ पार्किंग ढूंढने की भी कोई सिरदर्दी नहीं, इस के बाहर पर्याप्त जगह है .. आप को वहां जाकर अच्छा लगेगा ...बार बार जाने को मन मचलेगा..
मुझे यह बांद्रा फोर्ट बहुत रहस्यमयी लगता है ...इतने राज़ अपने आप में समेटे हुए...कल तो मैं अंदर नहीं गया..लेकिन बहुत बार जा चुका हूं...सुबह सुबह इस एरिया की एम्बिएैंस ही अनूठी होती है ...लोग वहां पर सुबह सुबह स्पैशल फोटो शूट या कुछ डांस कालेज के युवक-युवतियां प्रोफैशन स्तर के शूट करवाने आते हैं ..
क्या यह मंज़र देख कर भी आप की वहां आने की तमन्ना नहीं हो रही?
बांद्रा फोर्ट के पास पार्किंग की कोई कमी नहीं है ...
बांद्रा फोर्ट के गेट के बाहर ही है यह टाटा-लैंड्स एंड फाइव-स्टार होटल ...
बांद्रा फोर्ट का गेट ...फिर से याद दिलवा रहा हूं सुबह 6 से शाम 6 बजे तक
महानगरों में पौधों का रख-रखाव भी इतना आसां नहीं है जितना हम समझते हैं, इसलिए पेड़-पौधों से मोहब्बत करिए..
मेरा तो 7.30 के करीब लौटने का वक्त हो गया...सोचा कि मन्नत पर ही एक नज़र मार लें ...(यह लोहे के गेट वाला) ..उधर शाहरूख तो नहीं दिखा ..लेकिन ज़िंदगी की एक सीख लिखी हुई दिख गई ...
उस सीख को आप भी पढ़िए....क्या पता आप पर भी कुछ असर हो जाए...सब को इस सबक को निरंतर याद रखना बहुत ज़रूरी है .. Don't save your loving speeches For your friends till they are old Donटt write them on their tombstone Speak them rather now instead....
दूसरी भी एक बढि़या सी सीख दूसरी तरफ़ लिखी मिल गई ...
जो लोग नेक काम कर जाते हैं ..वे हमेशा लोगों को याद रहते हैं ...
मैंने आप को भी यह रिमाइंड करवाया ...
काश! मैं ऑर्ट ऐप्रिशिएशन की कुछ तो तहज़ीब सीख पाता ..इतने इतने महान शिल्पकार हुए हैं और हमें इन के बारे में पता ही नहीं कुछ ...
आते वक्त जिस जगह से मैंने चंदामामा फोटो खींची थी, वहीं से पूर्व दिशा से सूरज महाराज जी प्रकट होते दिख गए..चलिए, दिल की सुकूं तो मिला कि सुबह वाले चंदा मामा ही थे, सूरज कभी पछम से थोड़े न उगता है, मुहावरों के सिवाए...धत् तेरे की ..तेरे अनाड़ीपन की
दो साल पहले अमेरिका में यह मंज़र देखा कि कारों के पीछे साईकिल टांगे हुए थे ..अब यहां भी यह मंज़र दिख जाते हैं...ये लोग कहीं जाकर साईकिल चलाएंगे या चला कर आए होंगे...चलिए, कुछ भी है, घर से निकले तो हैं सुबह सुबह ...यही बात सब से अच्छी है ...
कहते हैं न सुबह की सैर करो तो दिन अच्छा बीतता है ...मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ..कल की विशेष बात यह रही कि एक वयोवृद्ध दंपति जो अपने दांतों की मुरम्मत मेरे से ही करवाते हैं...बहुत ज़्यादा बुज़ुर्ग हैं...पता नहीं बात करते हैं तो आंखें उन की हमेशा भरी सी क्यों लगती हैं मुझे ...कल मेरे लिए एक पेन लेकर आए...मेरे लिए सब से बेहतरीन तोहफा है ...मैं किसी से भी कुछ भी तोहफे वोहफे लेने के सख्त खिलाफ हूं ..मिठाई तक नहीं लेता...वही बहाने ...कि हम लोग खाते ही नहीं है, (खाते तो ऐसे हैं कि आप हैरान रह जाएँ अगर देख लें तो😂😂) आप का बहुत बहुत शुक्रिया...बच्चों को खिलाइए.। मैं ऐसे लोगों को हमेशा यही कहता हूं कि इस से मेरी आदतें बिगड़ जाएंगी ....मैं कहीं न कहीं मन में दूसरे लोगों से भी इन सब चीज़ों की अपेक्षा करने लगूंगा ...फिर तो मैं बेकार हो जाऊंगा...इसलिए मैं नहीं लेता कुछ भी किसी सी ....और एक बात, यह बात कि हम खुद नहीं खाते, आगे खिला देते हैं...यह भी बेकार की बात है ...आगे खिलाएं या पीछे खिलाएं ...इस से मैसेज गलत जाता है ...जिस का नमक आप एक बार खा लेते हैं कहीं न कहीं उस के लिए सॉफ्ट-कार्नर बन ही जाता है ..वह भी कुछ तो अपना हक समझने लगेगा..चाहे लाइन-तोड़ कर आप के पास पहुंचना ही इस हक में शामिल हो........मुझे इन सब टुच्ची हरकतों से हमेशा से घोर नफरत है...हर वह काम जिस की वजह से आप को हमें किसी की नज़र मेंं नज़र मिलाने से थोडी़ सी भी हिचकिचाहट हो, बेकार है वह काम....
प्यार अनमोल है ... अगली बार उन का नुस्खा इसी कलम से लिखूंगा...
लेकिन, हां, इस बुजुर्ग दंपति की बात ही कुछ और है...उन का प्यार उन की आंखों में झलकता है ...क्या करें, आदमी के सारे कायदे घुटने टेक देते हैं प्यार के आगे ...वैसे तो मेरे पास एक से बढ़ कर एक कम से एक हज़ार फाउंटेन पैनों की एक बहुत अच्छी कलेक्शन है, मुझे शौक है कईं सालों से ....लेेकिन उन का यह पैन मेरे लिए बेशकीमती है ...मैं थोडा़ सा झिझका लेते हुए...लेकिन उन के हाव-भाव देख कर मेरे उसूलों ने वहीं पर अपने घुटने टेक दिए....यह रहा वह बेशकीमती तोहफ़ा....