सही बात है ...कुछ भी चीज़ या इंसान हमें पसंद होता है या नापसंद होता है ...अकसर हम इस का कोई कारण भी नहीं बता पाते। मैं अकसर एक बंदे को याद कर के बहुत हंसता हूं ...मैं जहां काम करता हूं ..वहां काम करते मुझे कुछ महीने ही हुए हैं ..लेकिन एक इंसान मुझे एक ही बार ही मिला ...उस के बात करने का ढंग, उस का रंग-ढंग और उस के हाव-भाव कुछ इस तरह के थे कि अब वह मुझे कहीं भी बरामदे में दिख जाता है तो मेरी कोशिश होती है कि हम एक दूसरे से न ही भिड़ें ...क्योंकि उसे देखते ही मेरे ब्लड-प्रेशर में 20 प्वाईंट का उछाल तो ज़रूर आ जाता होगा...
मैं जब भी उस शख्स के बारे में किसी से भी बात करता हूं तो हम लोग बहुत हंसते हैं....खूब हंसी आती है ...और जिस भी जगह पर नौकरी के सिलसिले में रहे वहां एक-दो बंदे तो ऐसे मिल ही जाते हैं ....
गहराई से सोचता हूं तो समझने की कोशिश करता हूं कि ऐसा क्या होता है कुछ बंदों में कि कुछ के साथ बिना बात के भी बतियाने की इच्छा होती है और कुछ से हमेशा कन्ना कतराने की इच्छा होती है। लेकिन कुछ समझ में नहीं आता ..कोई तर्क भी इस में मदद नहीं करती दिखी ...बस, बहुत सी दूसरी चीज़ों की तरह कुछ लोग हमें पसंद आते हैं, कुछ को हम पसंद नहीं आते, कुछ हमें नापसंद होते हैं ...मुझे लगता है यह मानस की प्रवृत्ति ही होती होगी...
खैर, मुझे आज यह विचार इसलिए आया कि मैं आज जिस शहर में हूं वहां की अखबार देख रहा था ...हिंदी की अखबार ...लेकिन सारे पन्ने उलटने के बाद मुझे वह अखबार भी पसंद नहीं आई...अब यह बताना मुश्किल होगा अगर कोई मेरे से पूछे कि हां, भई, तुम्हें क्या बुरा लगा उस अखबार में .....पता नहीं यार, यह मेरे लिए कहना मुश्किल है, लेकिन मुझे वह अखबार अगली बार पढ़ने लायक लगी नहीं, और मैं उसे अगली बार कभी पढूंगा भी नहीं ...
अखबार से ख्याल आ रहा कि जैसे ही हमें पांचवी-छठी में अखबार का पता चला, हमने देखा हमारे घर में दो अखबार आते थे, चंडीगढ़ से छपने वाला इंगलिश का पेपर दा ट्रिब्यून और जलंधर से छपने वाला वीर प्रताप जो हिंदी का पेपर था ...मेरे पिता जी को हिंदी न आती थी, वह ट्रिब्यून पढ़ते थे और मेरे बड़े भाई-बहन का अंग्रेज़ी का शब्द-ज्ञान टेस्ट करते थे पेपर को पढ़ते हुए और मेरी मां हिंदी का अखबार घर के काम काज से फ़ारिग होने के बाद दोपहर में बांचा करती थी ...उस के बाद पड़ोस की कपूर आंटी और मां अपने अखबार एक्सचेंज कर लेतीं ...इस तरह वे दो अखबारें पढ़ लिया करती थीं...
अखबारों के बारे में मेरे स्ंस्मरण हैं जिन्हें सहेजने के लिए कईं लेख भी कम पड़ेंगे ...किस तरह से इंगलिश का हिंदु अखबार पढ़ने के लिए ...पूरे महीने के हिंदु अखबार किसी दूसरे शहर से मंगवाया करता था क्योंकि जिस शहर में रहता था वहां वह अखबार नहीं आता था... लेकिन आज तक इंगलिश के जिस अखबार से मैं सब से ज़्यादा मुतासिर हुआ हूं ...वह है टाइम्स ऑफ इंडिया ...और खास कर के इस का बंबई एडिशन ...खबरें आती हैं टीवी पर, रेडियो पर ...और ऑनलाइन भी लेेकिन मुझे टाइम्स ऑफ इंडिया के पन्ने उलटना ही अच्छा लगता है ...वही बात है अपनी अपनी पसंद नापसंद की ..
टाइम्स ऑफ इंडिया की एक काफी-टेबल टाइप बुक ..जो शायद इन्होंने अखबार के 100 साल पूरा होने पर निकाली होगी ...वाह, क्या किताब है वह...किसी एंटीक शाप से हासिल हुई थी ...चार हज़ार मांग रहा था ..तीन हज़ार में खरीद ली थी ...क्योंकि मुझे तो वह खरीदनी ही थी ...उस का एक एक पन्ना फ्रेम करवाने की इच्छा होती है.. टाइम्स ऑफ इंडिया का सारा इतिहास-भूगोल उस में लिखा हुआ है ..कुछ किताबें आप को रोमांचित करती हैं, यह किताब वैसी ही है ...कभी इस के बारे में कोई पोस्ट लिखूंगा..
हर चीज़ के बारे में हमारी पसंद नापसंद मुख्तलिफ़ होती है, होनी भी चाहिए..फिल्में हों, फिल्मी गीत हों....ज़ुबान हो, ड्रेस हो ....कलम हो ..पेन हो ...कुछ भी हो ...सब को अपनी अपनी पसंद मुबारक ... इसीलिए इस दुनिया की विविधता भी बरकरार है ...