गुरुवार, 27 जनवरी 2022

बड़े शहरों की हदों तक ही है आज भी यह आपाधापी

सच में पता नहीं यह रेस कहां जा कर खत्म होगी, खत्म होगी भी कि नहीं ...बड़े शहरों में, मैट्रो सिटीज़ में दौड़ अंधाधुंध है ... लेकिन एक बात का मुझे आज ख्याल आ रहा था कि किसी भी शहर में आप जाइए....एक तो होता है शहर का नया रूप ...जो मुझे बेहद नीरस, अजीब सा लगता है ...हर तरफ़ मॉल, बड़े बड़े टावर, मल्टीप्लेक्स, बडे़ बड़े स्टोर....मुझे ये सब फूटी आंख नहीं सुहाते ...लेकिन मैं जैसे ही उस शहर के पुराने इलाकों की तरफ़ निकल जाता हूं तो मुझे एक इत्मीनान सा होता है ...

शहरों के पुराने इलाके हों या शहर के बाहरी इलाके...लगता है सब कुछ अभी भी ठहरा हुआ है ...अब विकास की परिभाषा हरेक की अलग है...हम कौन होते हैं किसी के लिए विकास की परिभाषा तय करने वाले ...हमारे एक ब्लॉगर मित्र हैं ...अनूप शुक्ल जी ...ऑर्डिनेंस फैक्टरी में महाप्रबंधक हैं...बहुत अच्छा लिखते हैं...मैं उन्हें 15 साल से पढ़ रहा हूं ...कुछ दिन पहले उन्होंने लिखा कि किसी भी शहर को जानने के लिए उस से दोस्ती करने के लिए उस के रास्तों को पैदल नापना बहुत अच्छी बात है, और अगर यातायात के किसी साधन का इस्तेमाल कर रहे हैं तो जितना धीमा वह साधन हो, उतना ही अच्छा. मुझे उन की यह बात बहुत अच्छी लगी ....क्योंकि हम ख़ुद भी इसी बात की हिमायत करता हूं ..

यह दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे ... बहुत खूब!👍

खम्मन-सेव ...वाह..वाह, मज़ा आ गया!


शहरों के पुराने इलाके में अभी भी ज़िंदगी दिखती है ...लोगों के पास एक दूसरे के साथ बैठने का वक्त है ...आते जाते देखते हैं कि आंगने में, यह दहलीज़ पर ही घर के दो तीन लोग बातचीत में मशगूल हैं ...कहीं पर तो अड़ोस पड़ोस के दो-तीन बुज़ुर्ग किसी झूले पर बैठे गप्पे हांके दिखते हैं...सुकून उन सब के चेहरों पर लिखा क्या, खुदा होता है ...यह हमें अच्छे से पढ़ना आता है ...पुरानी चारपाईयों पर आज भी पापड़ सूखने के लिए बिछे हुए दिखाई देते हैं ...अब हम कहां कहां की तस्वीरें खींचे...उस में पिटने का भी तो डर होता है ...उम्र देख कर अगर कोई गिरेबान न भी पकड़ेगा तो जलील तो कर ही देगा कि क्यों ये सब तस्वीरें ले रहे हो...





बच्चों के पास भी आपस में खेलने का वक्त है ...वे जैसे खुली फ़िज़ा में कुदरत के सान्निध्य में ज़िंदगी के सबक पढ़ रहे होते हैं ...शहर के पुराने इलाकों में गाय-भैंस भी दिख जाती हैं, उपले बनते भी दिखते हैं और उन को सुखाने में लगी महिलाएं भी ...उपलों के दाम आजकल हैं ..100 रूपये में 100 उपले...मुझे याद है जब बचपन में हमारी मां रोज़ तंदूर पर रोटियां लगाती थीं तो एक बोरी में भर कर कोई साईकिल पर ये उपले देकर जाता था ....2 या तीन रूपये की एक बोरी। और उस पर भी नाटक यह होता था अकसर कि उपले सूखे ही होने चाहिए...😂



क्या यार, तू भी न, जब देखो शहर ही में पड़ा रहता है..आए दिन सिरदर्द से बेज़ार, निकल वहां से अब तू भी..हो गया अब, और क्या चाहिए तुझे.... साईकिल उठा और भारत भ्रमण पर निकल जा (अपने आप से गुफ्तगू)😂

सभी शहरों के पुराने रूप मुझे तो एक जैसे ही लगते हैं....सुकून से भरे, फु़र्सत से लबरेज़, इत्मीनान, सब्र की बख्श हासिल किए हुए ...छोटी छोटी दुकानदारीयां जिन्हें देख कर मुझे बिना वजह डर सा लगता है कि इस दुकानदारी से क्या पा लेते होंगे ...बिल्कुल खामखां - बिल्कुल जैसे अंबानी-अडानी को मुझे नौकरी करते देख कर डर लगने लगे कि कैसे करता होगा यह गुज़ारा नौकरी कर के ...!!

 फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत के बावजूद एसटीडी बूट पर चूना लगाने की कोई परवाह नहीं ...

कुछ इस तरह के रिमांइडर मैं अपनी हस्तलिपि में लिख कर सहेज लेता हूं...😎