शनिवार, 27 मार्च 2021

आखिर दिल और दिमाग़ की जंग हुई ख़त्म - हमने भी लगवा ही लिया कोरोना वैक्सीन !

कोरोना-फोरोना के बारे में तो बात कर ही लेंगे ...सच में पक गये हैं इस से बचते-बचाते ... पहले टीके के बारे में कुछ ऐसे ही बिना सिर-पैर की बातें साझा करी जाएं। क्या ख़्याल है? बचपन की याद करता हूं तो याद आता है शिवलाल नाम का शख़्स जो कि घर के नज़दीक वाले सरकारी अस्पताल में ड्रेसर था ...यह आज से 54-55 बरस पहले की यादें हैं ...मैं उस वक्त यही चार साल का रहा हूंगा ..लेकिन मुझे याद है बिल्कुल अच्छे से कि कैसे शिवलाल ही टीका लगवाने घर आते थे ...उन के पास साईकिल थी ...और साथ में एक स्टील की डिब्बी होती थी जिसमें उन्होंने कांच की सिरिंज और स्टील की कमबख़्त बड़ी बड़ी सूईंयां रखी होती थीं ...उन का हमारी कॉलोनी में बहुत मान सम्मान था क्योंकि वे पट्टी भी बिना दर्द के बिना ज़ख़्म की पपड़ी को बेरहमी से खींचे बिना एकदम बढ़िया करते थे, टांके भी टनाटन लगाते थे और टीका भी एकदम बिना दर्द के लगाया करते थे, पता ही नहीं चलता था...दो या तीन रूपए उन की फ़ीस थी घर आकर टीका लगाने की ...शायद चार रूपये। जहां तक मुझे याद है कि इसमें टीके की कीमत भी शामिल हुआ करती थी। (यह जो शिवपाल मैं बार बार लिख रहा हूं ..इससे मुझे लालजी मिश्र के उपन्यास राग दरबारी का ख़्याल रह रह कर आ रहा है...शायद उसमें भी एक किरदार का नाम था शिवपाल या जगह का नाम था ..शिवपालगंज ...कुछ तो था, चेक करूंगा आज...😁बिना वजह दिमाग़ पर लोड डालने की आदत नहीं छूट रही मेरी भी!!)

बचपन के उस दौर में मुझे याद है कि खेलते खेलते मेरे घुटने में कुछ लोहे का चुभ गया ..खून बहने लगा ...मेरे पिता जी मुझे साईकिल पर बैठा कर पास के अस्पताल में ले गए ...वहां पर शिवलाल जी ने उस घाव में टांके लगाए और शायद टीका लगवाने के लिए मेरे पिता जी ने उन्हें घर आने को कहा। हमारे घर पहुंचने के थोड़े ही वक्त के बाद वे आए और टीका लगा गए। पूरी कॉलोनी में उन की धाक थी ---होती भी क्यों न, वे अपने काम मेंं माहिर जो थे। 

लेकिन उन के टीका लगाने की प्रक्रिया पर तो मैं रोशनी डाली ही नहीं....जी हां, जनाब, वे घर पहुंचते ही अपनी वह स्टील वाली डिब्बी से इंजेक्शन और सिरिंज निकाल कर मेरे पिता जी को देते कि इन्हें उबाल कर लाइए...मां उसी वक्त स्टोव जलाकर फ्राई-पैन में उन को उबालने का प्रबंध करने लगती और वे पिता जी के साथ बातों में मशगूल हो जाते ...और मेरी यह सोच कर जान निकली रहती कि पता नहीं सूईं कितना दर्द करेगी...अस्पताल में तो हम लोग टीके के नाम पर बिदक कर जैसे तैसे मां को बहला-फुसला कर बिना टीके के ही घर लौट आते हैं लेकिन अब तो ये घर पर ही आ गये हैं ...सामान भी उबल रहा है, अब तो बच्चे ख़ैर नहीं। 

टीका लगाने का सामान कितने वक्त तक उबलेगा, इस के लिए कोई ख़ास दिशा-निर्देश नहीं दिए जाते थे ... जहां तक मुझे याद है पानी के उबलते ही सामान को विषाणुमुक्त मान लिया जाता था। लो जी, सामान उबल गया है ... और मां ने फ्राई-पैन को अच्छे से धो कर उस में चाय के लिए पानी चढ़ा दिया है ...शिव लाल जी सिरिंज के आगे स्टील की सूईं लगा कर अपना फ़न का मुज़ाहिरा करने के लालायित हैं और चारपाई पर पड़े पड़े हमारी जान निकल रही है ...ख़ैर, वह मनहूस घड़ी भी आ गई जिस का हमें सब से ज़्यादा खौफ़ हुआ करता था ...लेकिन यह क्या, कूल्हे पर टीका लग भी गया और पता भी नहीं चला। 

शिवलाल जी के सामान समेटने तक चाय तैयार हो चुकी होती ... पिता जी और शिवलाल बाबू चाय-बिस्कुट पर बातें करने लगते और हमारी कब आंख लग जाती कुछ पता नहीं। अच्छा, एक बात और भी यहां लिख दूं कि हमने हमेशा देखा कि पिता जी पूरे सम्मान के साथ उन की फीस उन्हें दिया करते ...मुझे लगता है यह उन के स्वभाव में शामिल था ... पिंगलवाडे से कोई दान भी लेने आया है तो उस से बड़ी इज़्ज़त से पेश आते ...और छठी जमात में हमारे ट्यूशन वाले मास्टर साब को फ़ीस के 25 रूपए भी हर महीने (1974 की बातें हैं) एक छोटे से लिफ़ाफे में डाल कर ही भिजवाते ...ज़ाहिर है हमने उन की इन बातों से भी बहुत कुछ सीखा। अब सोचता हूं तो हैरानी भी होती है कि आज से लगभग 50 साल पहले मास्टर को ट्यूशन फ़ीस भी इतने सलीके से भिजवाना....मास्टर साब को भी अच्छा लगता, वे इन्वेलप को खोले बिना अपने कोट की जेब के हवाले कर देते। 

चलिए यह शिष्टाचार की, ख़ुलूस की बातें तो अपनी जगह पर हैं  लेकिन यह तो गुस्ताख़ी ही हुई कि ऊपर कोरोना वैक्सीन का नाम लिख कर मैं अभी तक उस के आसपास तक नहीं पहुंच पाया हूं, इधर उधर की गप्पें छोड़े जा रहा हूं। लेकिन करें क्या, यह सब भी कब से अपनी इस वेब-डॉयरी में लिखना चाह रहा था, आज मौक़ा मिला है तो कर लेता हूं यह भी काम।  

और बातें जो टीके की याद आती हैं ...सरकारी अस्पताल में टीके वाला कमरा हमें बड़ा डरावना लगता था ...उधर से गुज़रते ही देखते थे सफेद वर्दी पहने हुए उस कमरे में तैनात बड़े बड़े स्टील के डिब्बे में दर्जनों सिरिंजों-सूईंयों को उबालते हुए अपने शिकार का इंतज़ार करते दिख जाते। लेकिन हमारी तो टीके के नाम से जान निकलती थी। मां का हाथ पकड़ कर ही अस्पताल जाते और रास्ते में बार बार जब मां से एक ही बात पूछते रहते - बीजी, टीका तो नहीं लगेगा न....यह सुन सुन कर वह बेचारी कितनी परेशान हो जाती होंगी और हम मां के जवाब से राहत महसूस कर लेते ....आखिर बच्चे के लिए उस की मां दुनिया की सब से बड़ी डाक्टर जो होती है। 

वहां जाकर डाक्टर को दिखाते ... अगर वह टीका नहीं लिखता तो सच में जान में जान आ जाती...उस के कमरे से बाहर निकलने से लेकर घर आने तक सारा रास्ता मन ही मन इतनी ख़ुशी महसूस करते कि ऐसे लगता जैसे चल नहीं रहे, उड़ रहे हैं। और अगर टीका लगवाने का नुस्खा वह थमा देता तो फिर हम पहले तो देखते कि टीका लगा कौन रहा है....अगर ऐसा कोई दिख जाता जिस का बिना दर्द टीका लगाने के लिए अच्छा नाम है, तब तो टीका लगवा लेते ....वरना, मां को बहला-फुसला कर कुछ भी कह कर बिना टीका लगवाए घर वापिस लौट ही आते। 

लोग मुझ से पूछते हैं कि लिखने का क्या फंडा है, मेरा फ़क्त इतना ही कहना है कि कापी-कलम लेकर बैठ जाओ बस, बाकी काम आप का नहीं है ...पता नहीं कहां कहां से बातें उमड़ने लगती हैं ...बरसों से अंदर दबी पड़ीं ...और ख़ुद अपने आप को लिखवा के ही दम लेती हैं...जैसे मुझे अभी ख़्याल आ गया कि हमारे बचपन के दिनों में पैनेसिलिन का टीका बड़ा कारगर समझा जाता था ..जिसे लग जाता था, समझा जाता था वह तो भला-चंगा हो ही जाएगी....शायद एक दिन के अंतराल पर लगता था और उस को लगाने से पहले उस की सेंसेटिव टैस्टिंग की जाती थी बाजू पर - सेंसेटिव लफ़्ज़ हमें मालूम न था, हमें तो इतना पता था कि पहले इस का टेस्ट किया जाएगा क्योंकि अगर वह किसी को रिएक्शन कर जाता था तो वह आंख झपकते ही सीधा स्वर्गसिधार जाता था ...इसलिए उस टीके का बड़ा खौफ़ होता था ..कईं केस ऐसे हमने देखे थे ...26 जनवरी1975 को मेरे 28 साल के मामा को भी  (अभी उन की शादी हुए दो साल ही हुए थे, कुछ महीनों की एक प्यारी सी बेटी थीं प्रीति...) यह टीका ही रिएक्ट कर गया था ...वे मिनटों में ही चल बसे....अंबाला में रहते थे, पाला पड़ रहा था, पौष के दिन, ठंडी लग गई थी, खांसी-बल्गम जम गई, डाक्टर साब आए...यही पैनेसिलिन का टीका लगाते ही सारे कुनबे को रोता बिलखता छोड़ कूच कर गए। उस दिन ननिहाल की तो दुनिया ही उजड़ गई थी।

वक्त का पहिया रुकता थोड़े न है ....क़िस्मत में ऐसा लिखा था कि हम डेंटिस्ट बन गए...टीके के नाम से डरने वाले दिन में आठ-दस टीके मुंह के अंदर लगाने लगे ...लेकिन मेरी मां मेरे इस काम से बड़ी इंप्रेस थीं....वह अकसर मुझे कहतीं कि तेरा काम कितना मुश्किल है, मुंह के अंदर टीका लगाना ...और यह कहते कहते ही वह सिहर जातीं। हम भी प्यार से उन्हें कह देते ...बीजी, हमें इस की आदत हो जाती है, अच्छे से पहले ट्रेनिंग देते हैं, फिर ही टीका पकड़ने देते हैं....। लेकिन फिर भी उन्हें मुंह में टीका लगाने की बात सुनना ही बहुत जोखिम का काम लगता। इसी वजह से मोबाइल आने पर भी उन्होंने हमें ड्यूटी के वक्त कभी भी अस्पताल में फोन नहीं किया - वे अकसर कहतीं कि फोन से ध्यान बंट जाता है, क्या पता उस वक्त आप लोग टीका लगा रहे हों या मरीज़ का कुछ और काम कर रहे हों। क्योंकि मुझे एक बार ऐसा ही झटका लग चुका है आज से 13-14 साल पहले ....

तो हुआ यूं कि 13-14 साल पहले मैं एक दिन किसी मरीज़ के तालू पर सुन्न करने का टीका लगा रहा था, उस की अकल की जाड़ निकालने के लिए...उस युवा की उम्र यही 25 बरस के करीब रही होगी ..स्पोर्टसमैन था...चेहरे की मांसपेशियां सख़्त थीं...अभी मैं टीका लगा ही रहा था कि उसने सिर को हिला दिया...उस पर इस्तेमाल की गई सूईं मेरी उंगली में खुभ गई...मैंने डबल-ग्लवज़ पहने हुए थे ..लेकिन नीडल-प्रिक तो हो ही गई। 

उंगली धो ली ...मिसिज़ को फोन किया ...तब तक वह मरीज़ जा चुका था ... मिसिज़ ने कहा देख लो उस की एचआईव्ही जांच करवा लो। मुझे भी लगा कि एक फार्मेलिटि के तौर पर करवा ही लेते हैं....उसे उस के दफ्तर से बुला लिया....जांच करवाई तो उस का एचआईव्ही टैस्ट पाज़िटिव आया ...उस के बाद मेरी भी जांच हुई ....निगेटिव थी ...मेरी दवाईयां उसी दिन से शुरू हो गईं...कुछ दवाईयां स्थानीय मार्कीट में नहीं थीं, उन्हें ट्रेन से दिल्ली से मंगवाया...रात 12 बजे हम लोग स्टेशन से जा कर वे दवाईयां लेकर आए...दवाईयां खाना जारी रहा। लेकिन मेरा स्टेट्स क्या है, इस का पता 6 सप्ताह बाद ही चलना था। वे 6 हफ्ते मैंने कैसे बिताए मेरे लिए ब्यां करना नामुमकिन है ...घर में बड़ा डिप्रेसिंग सा माहौल हो गया....जान निकली रही ...क्योंकि सूईं तो खुभी थी ...लेकिन विशफुल थिंकिंग यही रही उन दिनों कि वह युवा तो बिल्कुल हट्टा कट्टा था, मैंने दो दो ग्लवज़ पहने थे ...शायद कम वायरल लोड की वजह से बच ही जाऊं...ख़ैर जो भी हुआ ...सब की दुआ लगी या डाक्टर की दवा ....45 दिन के बाद मेरी टेस्ट रिपोर्ट निगेटिव आई --- जान में जान आई ...लेकिन उन दो तीन महीनों में जो दवाईयां लेनी पड़ी उन की वजह से भी और एचआईव्ही की जांच अगल छः महीने तक चलती रही ....ईश्वर का शुक्र है कि सब कुछ सामान्य रहा ....उस दौरान मुझे यह अहसास हुआ कि ये जो हम मेडीकल व्यवसाय के प्रोफेशनल जोखिमों की बात करते हैं, वे कितने खौफ़नाक हैं, कैसे एक सूईं के चुभने से आप की जान ही निकल जाती है जब तक कि आप की सभी रिपोर्ट सामान्य न निकलें ...ज़िंदगी के उन महीनों में मैंने बड़ा डिस्प्रेसिंग महसूस किया ...पहले 45 दिन तो हाल ज़्यादा ही बुरा था...हर वक्त मेरा लेटे रहने का ही मन करता ....यही लगता कि काश, कोई मशीन हो जिस से ये 45 दिन झट से बीत जाएं और मैं अपनी टेस्टिग करवा पाऊं...मेरा बड़ा बेटा जो उन दिनों 12 वीं कक्षा में था, वह भी उदास सा मेरे साथ ही पलंग पर लेटा रहता ....उन दिनों को याद करता हूं तो सच में एक बुरा सपने जैसे महसूस होता है ....मां भी उदास रहतीं और बार बार धाड़स बंधाती ...कुछ नहीं होगा...तुम फ़िक्र मत कर .....और बीवी की भी सोच तो बड़ी सकारात्मक और प्रैक्टीकल है ही ...वे कहतीं कि चिंता मत करो, जो भी होगा, देखा जाएगा।

अब यह लिखते लिखते मेरा मन भर गया है ....इसलिए कोरोना-फोरोना की वैक्सीन के बारे में लिखने की अब गुंजाइश नहीं है ...बाद में देखता हूं....अभी तो कोई मनपसंद गीत सुनना पडे़गा मूड को तरोताज़ा करने के लिए...

इस ठिकाने तक पहुंचने का क़िस्सा बाद में ब्यां करता हूं ...जल्द ही! 


और ज़िंदगी यूं ही आगे चलती रहती है....