जी हां, यह बिल्कुल सही है कि शरीर ठीक होना ही तंदरूस्ती नहीं है....शरीर ठीक रहना किसी बंदे की तंदरूस्ती का एक बड़ा भाग तो है लेकिन एक मात्र मापदंड नहीं है..
जब हम लोग कालेज में पढ़ रहे होते हैं हम यही समझते हैं कि अगर किसी बंदे के सभी टेस्ट ठीक हैं, उसे यूरिन-स्टूल की कोई दिक्कत नहीं है, चल फिर रहा है ...तो वह ठीक है..
लेिकन नहीं, यह सब सही होते हुए भी क्यों हमें कुछ लोग बीमार दिखते हैं..
फिर जब आगे की पढ़ाई करने लगते हैं तो थोड़ा थोड़ा पता लगने लगता है कि सेहत की परिभाषा है ..विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे पारिभाषित ही इसी तरह से किया है कि सेहत एक ऐसी अवस्था है जिस में आदमी का शरीर, मन तो ठीक हो ही साथ ही साथ उस की सामाजिक, आध्यात्मिक, और भावनात्मक सेहत भी ठीक हो ...तभी उसे सेहतमंद लेबल कर सकते हैं।
रटने के लिए उस दौरान ठीक है यह परिभाषा....ऐसा नहीं है कि इस परिभाषा में कोई खोट है, बिल्कुल खरी है, लेकिन हम लोग अपनी ही अपरिपक्वता की वजह से इस की रूह तक पहुंच नहीं पाते। मुझे याद है जब मैं एमडीएस कर रहा था ..२५ वर्ष की उम्र थी ...मैंने पहली बार होलिस्टिक हेल्थ शब्द का नाम सुना था...एक सेमीनार रखा था हमारे एचओडी ने। होलिस्टिक हैल्थ भी वही बात है ...यह सेहत को टोटेलेटी में देखती है।
आप को भी लग रहा होगा कि तू तो इतना ज्ञान कभी झाड़ता ही नहीं है तो आज फिर यह किस चक्कर में!
आज मेरी अोपीडी में जो आखिरी मरीज़ थी वह ८० वर्ष की थी...ब्लड-प्रेशर और मधुमेह से परेशान....मैंने तकलीफ पूछी तो एक दांत में दर्द का नाम लेकर ज़ोर ज़ोर से बच्चों की तरह रोने लग गई...जिस तरह से वह रोने लगी उसे देख कर मेरा भी मन दुःखी हुआ...यह तो अब समझ आने लगी है कि कौन सा रोना शरीर में किसी दर्द की वजह से है और कौन सा दुःखी मन की वजह से है।
इस महिला का रोना दांत के दर्द से कहीं ज़्यादा मन के दुःखी होने की वजह से था...दांत इस महिला का उखाड़ने वाला था, लेकिन बी.पी २०० के भी ऊपर थी, इसलिए आज नहीं निकाला जा सकता था....कहने लगीं कि मेरा ब्लड-प्रेशर तो ठीक ही नहीं होगा, क्या मैं ऐसे ही मर जाऊंगी....मैंने इन्हें ढाढस बंधाया कि ऐसा कुछ नहीं है.....मैंने सिर पर हाथ रख कर कहा ...आप का बी.पी एक दो दिन में कंट्रोल हो जाएगा और सब ठीक होगा, चिंता मत करिए...डाक्टर के कहे अनुसार आप दवाई लिया करें और सब से ज़्यादा ज़रूरी है कि खुश रहा करिए। बस इतनी सी बात सुन कर ही मुझे लगा उन्हें बड़ा इत्मीनान हुआ...राहत महसूस हुई।
मैंने उस बेचारी को नसीहत की घुट्टी तो पिला दी खुश रहने की .......वैसे भी देखा जाए तो खुश कौन नहीं रहना चाहता लेकिन अकसर बहुत से लोग अपनी आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक परिस्थितियों की वजह से खुश रह नहीं पाते....खुश क्या रहना है, डिप्रेशन में ही चले जाते हैं..इस उम्र में ये सब परिस्थितियां बहुत से बुज़ुर्गों को घेर ही लेती हैं......आर्थिक निर्भरता किसी के ऊपर बहुत कष्टदायक है...जैसा आज का समाज है.....हर किसी ने कईं कईं मुखौटे पहन रखे हैं....सामाजिक स्तर पर देखें तो बुज़ुर्गों की बेहद अवहेलना और तिरस्कार हो रहा है और पारिवारिक वातावरण की तो बात ही क्या करें!
मुझे अच्छे से याद है लगभग पांच वर्ष पहले मेरे पास एक बुज़ुर्ग दंपति आए थे...बुजुर्ग को को अच्छी खासी पेन्शन मिलती थी...बड़े ही हंसमुख और मेहनती किस्म के दोनों लोग थे....लड़का भी सरकारी नौकरी में था...लेिकन उसे नशे का लत थी ...और पेन्शन मिलते ही इन से पेन्शन छीन लिया करता था...मना करने पर अपने बाप की पिटाई कर दिया करता था...जब वह दंपति मेरे से यह बात कर रहे थे तो उन के आंसू थम नहीं रहे थे....चार पांच साल का पौता भी उन के साथ था...कह रहे थे कि जब यह हमारे कमरे में आता है तो उसे भी पीट देता है उस का बाप। बहुत मन खराब हुआ था।
मुझे अच्छे से याद है लगभग पांच वर्ष पहले मेरे पास एक बुज़ुर्ग दंपति आए थे...बुजुर्ग को को अच्छी खासी पेन्शन मिलती थी...बड़े ही हंसमुख और मेहनती किस्म के दोनों लोग थे....लड़का भी सरकारी नौकरी में था...लेिकन उसे नशे का लत थी ...और पेन्शन मिलते ही इन से पेन्शन छीन लिया करता था...मना करने पर अपने बाप की पिटाई कर दिया करता था...जब वह दंपति मेरे से यह बात कर रहे थे तो उन के आंसू थम नहीं रहे थे....चार पांच साल का पौता भी उन के साथ था...कह रहे थे कि जब यह हमारे कमरे में आता है तो उसे भी पीट देता है उस का बाप। बहुत मन खराब हुआ था।
इस बात का यहां जिक्र इसलिए किया कि ऐसे बुज़ुर्गों में दवाईयां क्या कर लेंगी.......क्या इन का ब्लड-प्रेशर दवाईयों से काबू हो जाएगा?......लेकिन कुछ लोगों का अपना कुछ भी कह लें support system होता है ...जैसा कि यह दंपति बड़े आध्यात्मिक किस्म के थे ...रोज़ाना नित-नेम करना और गुरूद्वारे जाना उन की दिनचर्या थी....इसलिए वे उस दिन मन से दुःखी होते हुए भी शारीरिक स्तर पर ठीक ही थे। जाते जाते कह गये...मैं उम्र से नहीं हारा, डाक्टर साब, अपनी औलाद के हाथों हार गया।
आज एक दूसरे ७९ वर्ष के बुज़ुर्ग मिले ..यह रोज़ाना योगाभ्यास करते हैं और लोगों को भी सिखाते हैं...खूब साईकिल चलाते हैं...सभी आसन वासन कर लेते हैं बिना किसी परेशानी के ...लेकिन इन की बस समस्या यही है कि इन्हें पैदल चलने में दिक्कत होती है ...एक आधा किलोमीटर चलने पर घुटने में दर्द उठ जाता है। जब तक मेरे से ये लोग दो मिनट अपने मन की बात न कह जाएं ...इन्हें तसल्ली नहीं होती....अब मैं हड्डियों के बारे में क्या जानता हूं!..कहने लगे कि मैं दिल्ली हो आया हूं ..वहां पर मुझे घुटनों के प्रत्यारोपण (total knee replacement) के लिए कहा गया है लेकिन अगर मैंने वह आप्रेशन करवा लिया तो मैं तो योगाभ्यास से भी महरूम हो जाऊंगा.......क्योंकि उन नकली घुटनों की वजह से मुझे पालथी तक मारने की भी मनाही रहेगी। आगे कहने लगे कि इतना मुझे पता है कि अगर मैंने यह आप्रेशन करवा लिया तो मैं ठीक से चल तो पाऊं ...शायद....लेिकन नियमित योगाभ्यास से दूर रहने की वजह से मैं दूसरी कईं बीमारियों की चपेट में आ जाऊंगा।
इन बुज़ुर्ग की मैंने बात इसलिए शेयर की ताकि इन का जीवन के प्रति सकारात्मक रवैया आप से शेयर कर सकूं.....छोटी मोटी तकलीफ़ की कोई परवाह नहीं ...चल रहा है ना काम....कोई शिकायत नहीं ....गाड़ी चल रही है...योगाभ्यास नियमित चल रहा है.....अब सोचने वाली बात यही है कि छोटी मोटी शारीरिक, मानसिक एवं पारिवारिक परेशानियां इन को बिना छुए इन के पास से हो कर निकल जाएंगी.......यह मेरा विश्वास है। ऐसे लोगों के पॉज़िटिव रवैये के आगे मैं नतमस्तक हो जाता हूं।
वही बात है कौन नहीं चाहता वह ज़िंदगी में पाज़िटिव नज़िरया अपनाए लेकिन यह एक दिन...एक साल, एक दशक की बात नहीं होती.....शुरू से लेकर आदमी जिस परिवेश में रहा है ...उस का असर तो उस के शख्शियत पर होना तय ही है .....कुछ लोग हैं जो कमल की तरह रह पाते हैं ...कुछ होते हैं जो उसी रंग में रंग जाते हैं।
मेरा अनुभव यही बताता है कि हर बुज़ुर्ग बात करने के लिए किसी को तलाश रहा है......बहुत सी शारीरिक तकलीफ़ों का उन्हें पता है अंजाम क्या है, लेिकन फिर भी वे बस एक तसल्ली की तलाश में मारे मारे फिरते हैं....सर्विस के दौरान कुछ जगहों पर ऐसे भी लोग मिल गये जो अकसर कुछ बुज़ुर्गों के बारे में यह टिप्पणी करते भी गुरेज नहीं किया करते थे ......क्या यार, वह तो साइकिक है! (किसी पागल सिरफिरे को साइकिक कहना एक संभ्रांत तरीका है) ...लेकिन इसी चक्कर में वे साथी अपनी ही असलियत ब्यां कर जाते। क्या पता यार हम लोगों के साथ क्या होना है, बात बिल्कुल थोड़ी सी संवेदना की है, पांच मिनट ध्यान से किसी को सुनने से ...उस के सिर पर, कंधे पर थोड़ा हाथ रखने से हमारी कौन सी जान निकल रही है!...अगर इस से उस के चेहरे पर एक छोटी सी मुस्कान भी बिखर जाती है तो हमें कितनी बड़ी कीमत मिल गई।
वह गीत ही तो न बस सुनते जाएं.......प्यार बांटते चलो....प्यार बांटते चलो.......कभी प्रेक्टीकल भी करें तो पता चलेगा कि इस में कितना आनंद है। ओ हो....अब प्रवचनबाजी को पूर्ण विराम लगा रहा हूं..
बहरहाल, बातें कुछ ज़्यादा ही पकाऊ हो गईं आज.....विषय से मेल खाता एक गीत ज़रूर बजा रहा हूं...