सेहत विभाग की टीमों का ध्यान करें तो मुझे अपनी २०-२५ वर्ष की उम्र वाले दिन याद आ जाते हैं.....तब, जून की गर्मी में गन्ने का रस पीने की इच्छा हुआ करती थी तो पता चलता था कि सेहत विभाग की टीमें छापे मार रही हैं, इसलिए गन्ने का रस बेचने वाले कुछ दिनों के लिए छुप कर बैठ गये हैं।
और उस के बाद इतने साल हो गये, त्यौहारों के सीजन में ....दीवाली, दशहरा, बैसाखी....हर दिन इस देश में एक उत्सव है... अखबारों में निकलने लगता है कि सिविल सर्जन की टीम ने फलां मिठाई की दुकान में छापा मारा, इतने बोरे खोए (मावा) के, इतने क्विंटल रसगुल्ले, बर्फी.... वहां से उठवा कर नष्ट करवा दी ....कईं बार वहां से सैंपल उठाने की बात भी हुई.....बस, उस के बाद फिर कभी खबर दिख गई तो ठीक, न दिखी तो ठीक कि उन मिलावटी सामान बेचने वाले दुकानदारों का आखिर हुआ तो हुआ क्या...
सभी सरकारें इतने इतने अभियान भी चलाती हैं ..अखबारों में, टीवी-रेडियो में भी......लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या इस से हम लोगों की खाने पीने की आदतें सुधर गईं, हम ने कभी दूध एवं दूध से बनने वाले खाद्य पदार्थों को लेने से पहले कभी सोचा भी कि यार, इतना सारा दूध आखिर आ कहां से जाता है, हर तरफ़ पनीर की भरमार, हर तरफ़ मावे की हर तरह की मिठाईयां....
चलिए, बात आगे बढ़ाते हैं......मुझे लगता है कि सरकार जितना कर रही है, कर ही रही है, सिविल सर्जन के दस्ते भी कर ही रहे हैं.......लेकिन फिर भी मेरा यह मानना है कि बाहर से कुछ भी खरीद कर खाने के प्रति हमारी अपनी जिम्मेदारी कहीं ज़्यादा है......और इस में जहां तक मैं समझ पाया हूं शिक्षा और आर्थिक अवस्था की बहुत बड़ी भूमिका है।
आखिर हम कैसे सोच भी लें कि सरकारी दस्ते हर जगह हर खाने पीने के खोमचे तक पहुंच जाएंगे .....इस देश में यह एकदम असंभव सा प्रतीत होता है। हर गली, हर नुक्कड़, हर मोहल्ले, हर तिराहे-चौराहे पर दर्जनों खोमचे वाले मिल जाएंगे जो हमें कुछ भी खिला-पिला दें......
दो दिन पहले मैं अपने घर के पास एक सब्जी मंडी में गया....वहां मैं अकसर देखता हूं कि ये समोसे-वोसे वाले तो रेहड़ीयों पर अपना सामान बेच रहे होते हैं.....अच्छा एक बात का ध्यान आया कि ये चीनी की चासनी में भीगे समोसे तो मैंने यहां लखनऊ में ही देखे हैं......कोई बात नहीं, हर जगह की अपनी खाने पीने की आदते हैं......।
हां, तो आज मैंने देखा कि एक रेहड़ी वाला इस तरह के बन-मक्खन बेच रहा था... दस रूपये का एक पीस दे रहा था.....जो बच्चे अपने मां-बाप के साथ आए हुए थे, वे मचल रहे थे, और इन बन-मक्खनों की खूब बिक्री हो रही थी। ठीक है, उस ने कांच से कवर तो किया हुआ था......लेिकन जिस तरह का रंग आप देख रहे हैं, और जिस तरह का मक्खन मैंने वहां देखा.....जिसे वह एक्स्ट्रा भी लगा कर देख रहा था.....देख कर सिर घूम रहा था। कुछ माताएं अपने दोनों बच्चों को दिखा कर सब से बड़े बन-मक्खन के लिए आग्रह करतीं तो उन्हें वह नाराज़ नहीं करता.......हां, हा, पता है मुझे, कह कर औरों से बड़ा बन थमा देता।
आप देख सकते हैं कि कैसे दस रूपये में इतना बड़ा बन और मक्खन बेचा जा सकता है........कम से कम यह मक्खन तो हो नहीं सकता। दुःख होता है ये सब कुछ बिकता देख कर।
पता ही नहीं कि इन तरह के मिलावटी खाद्य पदार्थों में किस किस चीज़ की मिलावट हो रही है, कौन बताएगा। बेचने वाला अपनी जगह ठीक है, वह तो कमीशन पर काम कर रहा है, उसे एक पीस में एक रूपया मिलता है... क्या करे, उसने भी बच्चों का पेट भरना है, अच्छा खरीदने वाले क्या करें, उन्हें भी कम पैसे में यह सब कुछ चाहिए.....इसीलिए मैं बहुत बार कहता हूं कि इस देश का सारी समस्याओं का समाधान इतना आसान भी नहीं है, बेहद जटिल हैं.... अब इसी बात को लें कि अगर लोग समझ जाएं कि कुछ भी हो, हम ऐसे खाद्य पदार्थ नहीं खरीदेंगे ...तो ये अपने आप ही बिकने बंद हो जाएंगे...अपने पास ही ये खोमचे वाले फल-फ्रूट, चना-कुरमुरा आदि बेचने लगेंगे। ....शायद मैं बहुत सोचता हूं इसलिए ऐसा सोच रहा हूं।
अभी थोड़ी दूर ही गया तो यह पेठे वाला मिल गया........आप देखिए कि किस तरह से खुले में यह सब बिक रहा है......वैसे तो मैं अकसर इस तरह से बिकते हुए पेठे पर खूब मक्खियां भिनभिनाते देखता हूं लेकिन आज कुछ कम ही दिखीं......लेकिन फिर भी इस तरह के पेठे में क्या है, कहां पे यह तैयार हुआ, इस की हैंडलिंग कैसे हुई......जब जनता यह सब सोचने लगेगी तो नहीं खरीदेगी यह सब।
एक बात अकसर सत्संग आदि में सुनाई जाती है कि सारे संसार पर कालीन या चटाई तो बिछाई नहीं जा सकती, इसलिए समझदारी इसी में है कि हम कांटों से बचने के लिए अपने एक जूता ही पहन लें...... काश, ऐसा हो जाए।
लेकिन यार, जैसे राशन की दुकान या सब्जी मंडी में जा कर मुझे किसी न किसी दाल का नाम जानने को तो मिलता है, और नईं नईं सब्जियां भी देखने को मिलती हैं ...जिन्हें मैंने अभी तक चखा भी नहीं.... शायद इसलिए कि ये सब पंजाब-हरियाणा में बिकती देखी नहीं....या मुझे कभी इन की तरफ़ देखने की फुर्सत ही न थी.....पता नहीं......दो दिन पहले पता चला कि यह जो सुंदर सी तरकारी (सब्जी) आप इस तस्वीर में देख रहे हैं......यह है कंटीला परवल.....क्या आपने इसे कभी खाया है। दरअसल जो सब्जियां हम लोगों ने बचपन में नहीं खाई होतीं, वे हम लोग अकसर बड़े होकर भी नहीं खा पाते....जैसे कि मैं करेले से दूर भागता हूं........इसलिए मैं बच्चों के अभिभावकों को कहता रहता हूं कि इन्हें हर सब्जी, हर दाल खाने की आदते डालिए.......वरना बड़े होकर भी ये जंक-फूड़ को ही सुपर-फूड समझते रहेंगे।
और उस के बाद इतने साल हो गये, त्यौहारों के सीजन में ....दीवाली, दशहरा, बैसाखी....हर दिन इस देश में एक उत्सव है... अखबारों में निकलने लगता है कि सिविल सर्जन की टीम ने फलां मिठाई की दुकान में छापा मारा, इतने बोरे खोए (मावा) के, इतने क्विंटल रसगुल्ले, बर्फी.... वहां से उठवा कर नष्ट करवा दी ....कईं बार वहां से सैंपल उठाने की बात भी हुई.....बस, उस के बाद फिर कभी खबर दिख गई तो ठीक, न दिखी तो ठीक कि उन मिलावटी सामान बेचने वाले दुकानदारों का आखिर हुआ तो हुआ क्या...
सभी सरकारें इतने इतने अभियान भी चलाती हैं ..अखबारों में, टीवी-रेडियो में भी......लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या इस से हम लोगों की खाने पीने की आदतें सुधर गईं, हम ने कभी दूध एवं दूध से बनने वाले खाद्य पदार्थों को लेने से पहले कभी सोचा भी कि यार, इतना सारा दूध आखिर आ कहां से जाता है, हर तरफ़ पनीर की भरमार, हर तरफ़ मावे की हर तरह की मिठाईयां....
चलिए, बात आगे बढ़ाते हैं......मुझे लगता है कि सरकार जितना कर रही है, कर ही रही है, सिविल सर्जन के दस्ते भी कर ही रहे हैं.......लेकिन फिर भी मेरा यह मानना है कि बाहर से कुछ भी खरीद कर खाने के प्रति हमारी अपनी जिम्मेदारी कहीं ज़्यादा है......और इस में जहां तक मैं समझ पाया हूं शिक्षा और आर्थिक अवस्था की बहुत बड़ी भूमिका है।
आखिर हम कैसे सोच भी लें कि सरकारी दस्ते हर जगह हर खाने पीने के खोमचे तक पहुंच जाएंगे .....इस देश में यह एकदम असंभव सा प्रतीत होता है। हर गली, हर नुक्कड़, हर मोहल्ले, हर तिराहे-चौराहे पर दर्जनों खोमचे वाले मिल जाएंगे जो हमें कुछ भी खिला-पिला दें......
दस रूपये में बिक रहा जंबो बन-मक्खन.. |
हां, तो आज मैंने देखा कि एक रेहड़ी वाला इस तरह के बन-मक्खन बेच रहा था... दस रूपये का एक पीस दे रहा था.....जो बच्चे अपने मां-बाप के साथ आए हुए थे, वे मचल रहे थे, और इन बन-मक्खनों की खूब बिक्री हो रही थी। ठीक है, उस ने कांच से कवर तो किया हुआ था......लेिकन जिस तरह का रंग आप देख रहे हैं, और जिस तरह का मक्खन मैंने वहां देखा.....जिसे वह एक्स्ट्रा भी लगा कर देख रहा था.....देख कर सिर घूम रहा था। कुछ माताएं अपने दोनों बच्चों को दिखा कर सब से बड़े बन-मक्खन के लिए आग्रह करतीं तो उन्हें वह नाराज़ नहीं करता.......हां, हा, पता है मुझे, कह कर औरों से बड़ा बन थमा देता।
आप देख सकते हैं कि कैसे दस रूपये में इतना बड़ा बन और मक्खन बेचा जा सकता है........कम से कम यह मक्खन तो हो नहीं सकता। दुःख होता है ये सब कुछ बिकता देख कर।
बन-मक्खन का क्लोज़-अप.. |
यह पेठे की मिठाई भी आजकल खूब बिकती है.. |
एक बात अकसर सत्संग आदि में सुनाई जाती है कि सारे संसार पर कालीन या चटाई तो बिछाई नहीं जा सकती, इसलिए समझदारी इसी में है कि हम कांटों से बचने के लिए अपने एक जूता ही पहन लें...... काश, ऐसा हो जाए।
कंटीला परवल... सब्जी है यह भी एक... |