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शुक्रवार, 13 मार्च 2009

बच्चों में पहली पक्की जाड़ क्यों इतनी जल्दी खराब हो जाती है ?

हम लोगों को अपने कालेज के दिनों से ही इस बारे में बहुत सचेत किया जाता था कि बच्चों की पहली पक्की जाड़ ( First permanent molar) को टूटने से कैसे भी बचा लिया करें। अकसर अपनी ओपीडी में बहुत से बच्चे दांतों की तरह तरह की बीमारी से ग्रस्त देखता हूं। लेकिन मुझे सब से ज़्यादा दुःख तब होता है जब मैं किसी ऐसे बच्चे को देखता हूं जिस की पहली पक्की जाड़े इतनी खराब हो चुकी होती हैं कि उन का उखाड़ने के इलावा कुछ नहीं हो सकता।

इस तस्वीर में भी आप देख रहे हैं कि इस 15 साल के बच्चे के बाकी सारे दांत तो लगभग दुरूस्त ही हैं लेकिन इस की नीचे वाली पहली पक्की जाड़ पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुकी है जिस का निकलवाने के इलावा कुछ भी नहीं हो सकता। आप इस फोटो में यह भी देख रहे हैं कि इस की बाईं जाड़ में भी दंत-क्षय (dental caries) की शुरूआत हो चुकी है।

क्यों हो जाते हैं बच्चे के स्थायी दांत इतनी जल्दी खराब इस का कारण यह है कि बच्चों में ये स्थायी पहली पक्की जाड़ें ( First permament molar –total four in number, one in each oral quadrant) जिन की संख्या कुल चार ---ऊपर एवं नीचे के जबड़े के दोनों तरफ़ एक एक जाड़ होती है—यह जाड़ बच्चों में मुंह में लगभग छः साल की उम्र में आ जाती हैं।

क्योंकि इस छः साल की अवस्था तक बच्चे के मुंह में ज़्यादातर दांत एवं जाड़ें दूध (अस्थायी) की होती हैं --- इसलिये अकसर बच्चों की तो छोड़िये अभिभावक भी इस जाड़ को इतनी गंभीरता से लेते नहीं हैं ----वास्तव में उन्हें यह पता ही नहीं होता कि बच्चे के मुंह में पहली पक्की जाड़ आ चुकी है।

तो ऐसे में अकसर बच्चे के मुंह में यह जाड़ दूसरे अन्य दंत-क्षय़ दांतों के साथ पड़ी रहती है --- और जिन कारणों से दूध के दांत बच्चे के खराब हुये वही कारण अभी भी बच्चे के लिये मौजूद तो हैं ही –इसलिये अकसर बहुत बार इस पक्की जाड़ को भी दंत-क्षय लग जाता है जिसे आम भाषा में कह देते हैं कि दांत में कीड़ा लग गया है। वैसे तो मां-बाप को इस पक्की जाड़ के मुंह में आने के बारे में पता ही नहीं होता इसलिये जब बच्चे के मुंह में काले दाग-धब्बे से देखते हैं या बच्चा इस जाड़ में कैविटी ( सुराख) होने के कारण खाना फंसने की बात करता है तो इस तरफ़ इतना ध्यान नहीं दिया ----और यही सोच लिया जाता है कि अभी तो तेरे दूध के दांत हैं, ये तो गिरने ही हैं, और इस के बाद पक्के दांत जब आयेंगे तो दांतों का पूरा ध्यान रखा करो, वरना आने वाले पक्के दांत भी ऐसे ही हो जायेंगे। बस, ऐसा कह कर छुट्टी कर ली जाती है।

एक बहुत ही विशेष बात ध्यान देने योग्य है कि दंत-क्षय एक बार जिस दांत या जाड़ में हो जाता है वह तब तक उस दांत में आगे बढ़ता ही जाता है जब तक या तो किसी दंत-चिकित्सक के पास जा कर उचित इलाज नहीं करवा लिया जाता ---वरना इस दंत-क्षय की विनाश लीला उस दांत या जाड़ की नस तक पहुंच कर उस को पूरी तरह से नष्ट कर देती है। अब इस अवस्था में या तो उस पक्की जाड़ का लंबा-चौड़ा रूट कनाल ट्रीटमैंट का इलाज किया जाये जो कि अधिकांश अभिभावक विभिन्न कारणों की वजह से करवा ही नहीं पाते ------और कुछ ही समय में इस दंत-क्षय की वजह से उस पहली पक्की जाड़ का हाल कुछ ऐसा हो जाता है जैसा कि आप इस बच्चे की मुंह की फोटो में देख रहे हैं ---यह बच्चा मेरे पास कल आया था ----इसे निकालने के इलावा कोई रास्ता रह ही नहीं जाता।
अगर आप ध्यान से इस तस्वीर की दूसरी तरफ़ भी देखें तो आप नोटिस करेंगे कि दूसरी तरफ़ की पहली जाड़ में भी दंत-क्षय जैसा कुछ लग चुका है ---इसलिये उस का भी उचित होना चाहिये ताकि वह पहली जाड़ भी दूसरी तरफ़ वाली पहली जाड़ की तरह अज्ञानता की बलि न चढ़ जाये।

वैसे , बच्चों को दांत दंत-क्षय से मुक्त रखने के लिये इतना करना होगा कि किसी भी अच्छी कंपनी की फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट से रोज़ाना दो बार –सुबह एवं रात को सोने से पहले – दांत तो साफ़ करने ही होते हैं और जुबान साफ़ करने वाली पत्ती से ( tongue-cleaner)नित-प्रतिदिन जिव्हा को साफ़ किया जाना बहुत ही , अत्यंत ज़रूरी है । और एक बार और भी बहुत ही अहम् यह है कि हर छः महीने के बाद सभी बच्चों का किसी प्रशिक्षित दंत-चिकिस्तक द्वारा निरीक्षण किया जाना नितांत आवश्यक है।

दंत चिकिस्तक को नियमित दांत चैक करवाने से ही पता चल सकता है कि कौन से दांतों में थोड़ी बहुत खराब शुरू हो रही है ----और फिर तुरंत उस का जब इलाज कर दिया जाता है तो सब कुछ ठीक ठाक चलता रहता है -----वरना अगर आठ-दस की उम्र में ही पक्के दांत एवं जाड़े ( permanent teeth) उखड़नी शुरू हो जायेंगी तो बच्चा तो थोड़ा बहुत सारी उम्र के लिये दांतों के हिसाब से अपंग ही हो गया ना ----- ध्यान रहे कि हमारे मुंह में मौजूद एक एक मोती अनमोल है लेकिन यह पक्की पक्की जाड़ तो कोहेनूर से भी ज़्यादा कीमती है क्योंकि हमारे मुंह की बनावट में, मुंह में इस के द्वारा किये जाने वाले काम हैं ही इतने ज़्यादा महत्त्वपूर्ण कि अन्य दांतों के साथ साथ इस की भी पूरी संभाल की जानी चाहिये।

एक बात का ध्यान और आ रहा है कि बच्चों के दांत एवं जाड़ें आप जब देखें तो इस तरह का अनुमान स्वयं न ही लगायें कि यह तो दूध की लगती है या यह पक्की लगती है ----अभिभावकों द्वारा लगाये ये अनुमान अकसर गलत ही होते हैं ----इसे केवल एक प्रशिक्षित दंत-चिकिस्तक ही बता सकता है कि कौन से दांत गिरने हैं और कौन से पक्के वाले हैं----इसलिये उस की शरण में चले जाने में ही बेहतरी है, आप के बच्चे की भलाई है।

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

क्या च्यूईंग चबाना ठीक है ?

जब कभी फिल्म समारोहों में बहुत नामी गिरामी सितारों ( आप के और मेरे ही बनाये हुये) को या फिर क्रिकेट आदि के मैचों के बाद जब खिलाड़ियों को तरह तरह के सम्मान से नवाज़ा जा रहा होता है तो इन सितारों, खिलाड़ियों को कईं बार च्यूईंग-गम चबाते हुये देख कर आप के मन में क्या ख्याल पैदा होते हैं ? --मुझे तो यह बहुत भद्दा लगता है, मुझे लगता है कि बंदा कह रहा है कि मुझे किसी की भी कोई परवाह नहीं है , मैं हरेक को अपने जूते की नोक पर रखता हूं । कईं बार तो जो इस तरह के प्रोग्राम कंपीयर कर रहा होता है वह भी यह सब चबा कर अपने माडर्न होने का ढोंग करता दिखता है। जब कोई मुंह में पान चबाते हुये या पान मसाला खाते हुये हम से मुखातिब होता है तो हम आग बबूला हो जाते हैं लेकिन हमारे ही ये चहेते कलाकार अथवा खिलाड़ी जब सैटेलाइट टीवी के ज़रिये करोड़ों लोगों से मुखातिब हो रहे होते हैं तो हम क्यों नहीं इन्हें कहते कि जाओ, पहले इस च्यूईंग-गम को थूक के आओ, फिर हम तुम्हें सुनेंगे -----चलो, जल्दी से पहले कुल्ला कर के आओ, शाबाश, अच्छे बच्चे की तरह ---और आगे से भी इस का ध्यान रखना ------वरना ...............इस गाने की तरफ़ ध्यान कर लेना !!

मुझे तो इन समारोहों में इन चांद-सितारों को देख कर अपने स्कूल के दिनों के दो सहपाठियों का ध्यान आ जाता है ---गुलशन और राकेश ----ये कमबख्त हमारी क्लास में टैरर थे ---च्यूईंग को चबाते तो रहते ही थे और बाद में दूसरों की बैंच पर चिपका देते थे जिस से वहां पर बैठने वाले की पैंट खराब हो जाया करती थी, कईं बार तो किसी सहपाठी के बालों पर ही चिपका दिया करते थे ---कईं बार तो इस की वजह से थोड़े बाल ही काटने पड़ जाया करते थे !

चलिये , अब ज़रा यह देख लेते हैं कि च्यूईंग-गम का हमारी सेहत पर क्या प्रभाव होता है !!

सोमवार, 19 जनवरी 2009

हिल रहे दांत मरीज़ों की नींद उड़ा देते हैं

बहुत दिनों से विचार था कि हिलते हुये दांतों के बारे में थोड़ी चर्चा की जाये। यह एक बहुत ही आम समस्या है जिस के लिये मरीज़ दंत-चिकित्सक के पास चले आते हैं। मुझे लग रहा है कि हिलते हुये दांतों के कारणों व उपचार के ऊपर थोड़ी रोशनी डालने की आवश्यकता है।

चलिये, बच्चे के जन्म से भी पहले गर्भवती मां के दांतों से शुरू किया जाये---बहुत सी गर्भवती महिलाओं मसूड़ों से रक्त आने की शिकायत करती हैं- इस का नाम ही है प्रैगनेन्सी जिंजीवाइटिस ( अर्थात् गर्भावस्था में होने वाली मसूड़ों की सूजन) – इस दौरान भी कुछ महिलायें यह शिकायत करती हैं कि उन के दांत हिल से रहे हैं---इस का सीधा सरल समाधान होता है कि दंत-चिकित्सक से इस का उपचार करवा लिया जाये जिस से लगभग शत-प्रतिशत केसों में राहत मिल जाती है।

चलिये, बबलू का जन्म हो---लेकिन यह क्या, उस के मुंह में तो जन्म के समय से ही दो छोटे छोटे दांत मौजूद हैं ----जो हिल तो रहे हैं –लेकिन सारा कुनबा मुंह फुलाये बैठा है कि हो ना हो कोई तो अनर्थ होने ही वाला है –यह तो घोर अपशगुन है । लेकिन मेरी भी तो सुनिये---- कोई अपशगुन-वगुन नहीं है, होता है कभी कभी ऐसा होता है लेकिन इन हिलते हुये छोटे छोटे दांतों ( neo-natal /natal teeth) को तुरंत दंत-चिकित्सक के पास ले जाकर निकलवा देना चाहिये ---इस का कारण यह है कि इन दांतों की वजह से बच्चा स्तनपान कर नहीं पाता ऊपर से मां की छाती पर इन की वजह से जख्म हो जाते हैं। एक बार और यह भी है कि बच्चा चाहे कुछ ही दिनों का ही हो, इस प्रकार के दांतों को निकालना बहुत ही ज़्यादा आसान होता है क्योंकि इन दांतों की जड़े बेहद कमज़ोर होती हैं और ये लगभग मसूड़े के ऊपर ही पड़े होते हैं जिन्हें बिना कोई इंजैक्शन लगा कर , केवल एक दवाई लगा कर या थोड़ा सा सुन्न करने वाली दवाई का स्प्रे करने के पश्चात् डैंटिस्ट निकाल बाहर करता है।

बबलू बड़ा हो गया --- थोड़ी थोड़ी मस्ती करने लगा --- 2-3 साल का हो गया – बस कभी कभी गिर जाता है और अपने होंठ कटवा लेता है और कईं बार आगे के दूध वाले दांत थोड़ा थोड़ा हिलना शुरू हो जाते हैं ----लेकिन धैर्य रखिये ऐसे केसों में भी कुछ खास करने की ज़रूरत नहीं होती। बस, बर्फ लगा कर उस का रक्त रोकिये--- और थोड़ा बहुत हिलते हुये दांतों की चिंता न करिये ---यह जो मां प्रकृति है ना यह भी इन नन्हे-मुन्नों के आगे घुटने टेक ही देती है – और मैंने अपनी प्रैक्टिस में देखा है कि इन बच्चों में कुछ खास करने की ज़रूरत नहीं होती --- और दंत-चिकित्सक से मिल कर एक दो दिन बस दर्द-निवारक ड्राप्स वगैरह लगाने से सारा मामला रफ़ा-दफ़ा हो जाता है ---शुरू शुरू में मुझे भी इस की बहुत हैरानी हुआ करती थी। बस करना इतना होता है कि बच्चे को उन दांतों को इस्तेमाल करने के लिये रोकना होता है।

बबलू और भी बडा हो गया ---लगा साईकल चलाने, गली-क्रिकेट खेलने और ऐसे ही एक दिन गिर गया ---अगले दांत पर ज़ोर आया जिस मे दर्द भी शुरू हो गया और वह थोड़ा थोड़ा हिलना भी शुरू कर दिया। इस के लिये ज़रूरत है एक-आधा दिन देख लें, कोई दर्द-निवारक दवाई वगैरा दे दें ---और उस के बाद उसे दंत-चिकित्सक के पास लेकर जाना बहुत ज़रूरी होता है क्योंकि वह इस का एक्स-रे करने के पश्चात् चोट की उग्रता का अनुमान लगाते हैं और यथोचित उपचार कर देते हैं ----बताने वाली बात यह है कि इस तरह का हिलता हुआ दांत भी उचित उपचार के बाद बिल्कुल ठीक हो जाता है ----हिलना जुलना बिल्कुल बंद, एक दम फिट !! अकसर मां-बाप बहुत घबराये से होते हैं लेकिन जब उन्हें सब कुछ समझा दिया जाता है तो वे भी आश्वस्त हो जाते हैं। बस बच्चे को यह समझाने की बहुत ज़रूरत होती है कि वह कम से कम दो-तीन हफ्ते दांत को बार बार पकड़ कर शीशे के सामने खड़े होकर यह चैक करने की कोशिश ना करे कि दांत कितना जाम हुआ है और कितना अभी हिल रहा है --------प्रकृति को उस का काम करने का समय तो देना ही होगा।

बबलू बड़ा हो गया ---- और अब बना गया बब्बन उस्ताद ---- लेकिन अब उसे दांत सफा करने की फुर्सत नहीं ---- कभी कभार कोई मंजन घिस दिया तो घिस दिया, वरना छुट्टी ---दंत चिकित्सक के पास नियमित चैक-अप करवा कर आने का कोई ख्याल ही नहीं। ऊपर से बब्बन ने गुटखे और तंबाकू वाली चुनौतिया को जेब में रखना शुरू कर दिया। ऐसे में क्या हुआ कि बब्बन के 25-30 साल के होते होते मसूडों से रक्त आने लगा ----चूंकि मसूड़ों से खून ब्रुश करने से या दातुन करने से आता था, इसलिये पड़ोस के पनवाड़ी बनारसी चाचा की सलाह उस के काम आ गई ----बब्बन, चल छोड़ इन ब्रुश दातुन का चक्कर, तू तो बस मेरी मान तू तो नमक-तेल शुरू कर दे ---तेरी चाची का भी पायरिया इसी से ठीक हुआ था –बस , उस दिन से बब्बन ने दांतों की थोड़ी बहुत सफाई जो वह पहले कर लिया करता था ,वह भी बंद कर दी -----बस अगले दो-चार-पांच साल ऐसे ही चलता रहा ---किसी साइकिल वाले से, किसी बस में मंजन व अंजन बेचने वाले से कोई भी पावडर लेकर लगा लिया ---- चंद दिनों के लिये रोग दब गया लेकिन यह मसूड़ों से आने वाला खून तो थमने का नाम ही नहीं ले रहा है और अब तो दांत भी हिलने लगे हैं , इसलिये बब्बन ने सोचा कि चलते हैं ---किसी चिकित्सक के पास।

सिविल हस्पताल के चिकित्सक ने चैक-अप किया ---बता दिया कि भई तुम्हारा पायरिया रोग तो नीचे हड़डी तक फैल चुका है, इस का तो पूरा इलाज होगा ---मसूड़ों की सर्जरी होगी और या तो फलां फलां मसूड़ों के स्पैशलिस्ट के पास चले जाओ वरना पास ही के कस्बे के डैंटल कालेज में जा कर अपना पूरा इलाज करवा लो, तभी दांत बच सकते हैं।

गुस्से से लाल बब्बन डाक्टर को कोसता हास्पीटल से बाहर आकर यही सोच रहा कि लगता है कि इस डाक्टर का दिमाग फिर गया है ---अब इत्ती से तकलीफ़ के लिये मैं भला आप्रेशन करवाऊंगा ----- हा, हा, हा......इतने में उस की नज़र सामने के फुटपाथ पर बैठे एक फुटपाथ छाप दंदान-साज़ पर पड़ती है ----बब्बन ने सोचा कि अभी बस को आने में तो थोड़ा टाइम है चलो इस के साथ थोड़ा टाइम-पास कर लिया जाये। उस समय वह किसी दूसरे शिकार का दांत उखाड़ रहा था और जब नहीं उखड़ा तो कल आने के लिये कह दिया। अब बारी बब्बन की थी ----उस ने इतना ही कहा था कि मेरे तीन चार ऊपर के और तीन चार नीचे के दांत हिल रहे हैं ---बस , फिर तो वह उस फर्जी फुटपाथ छाप चिकित्सक की बातों में ऐसा उलझा कि उस ने कुल 15 रूपये में अपना इलाज करवा ही लिया। इलाज के तौर पर उस ने एक बहुत ही नुकसानदायक पदार्थ उस के हिलते हुये दांतों के आगे-पीछे चेप दिया और बब्बन खुशी खुशी घर की तरफ़ चल पड़ा।

रास्ते में दूसरे बस-यात्रियों से भी उस फुटपाथ वाले बंदे के गुण गाता रहा और उस सिविल हास्पीटल वाले डाक्टर की ऐसी की तैसी करता रहा । कुछ समय तक वह रहा खुश ----उसे लगा वह ठीक हो गया है लेकिन तीन-चार महीनों में ही उस का मुंह सूज गया और बहुत ज़्य़ादा इंफैक्शन हो गई।

इंफैक्शन इतनी ज़्यादा हो गई कि उसे एक क्वालीफाइड दंत चिकित्सक के पास जाना ही पड़ा ---उस ने एक्स-रे किया तो पता चला कि हिलते दांतों के इतने बेरहम इलाज की वजह से आस पास के चार-दांत भी पूरी तरह से नष्ट हो गये हैं, वे भी पूरी तरह से हिलने लग गये हैं --- और आस पास के मसूड़ों में भयंकर सूजन आई हुई है। ऐसे में उसे अगले चार पांच दिनों में अपने छः दांत उखड़वाने पड़े ।

अपने बाकी के दांतों का भी उचित उपचार करवाने की जगह उस ने फिर किसी नीम हकीम डैंटिस्ट की बातों में आकर एक तार सी लगवा ली कि इस से बाकी के दांत रूक जायेंगे --- लेकिन कुछ महीनों बाद फिर वही सिलसिला –साथ वाले अच्छे भले दांत भी हिल गये ---- धीरे धीरे कुछ महीनों में उस को छः दांत और उखड़वाने पड़े ----अब तक जितने दांत बच रहे थे उन की भी हालत पतली ही थी ---इसलिये बब्बन उस्ताद ने फैसला किया कि अब इन का क्या काम -----तो चालीस-ब्यालीस के आसपास उस ने सारे दांत निकलवा दिये ----और कुछ साल तक नकली दांत लगवाने की सलाह ही बनाता रहा जिस की वजह से उस के जबड़े की हड्डी ( जिस पर नकली दांत टिकते हैं) काफी घिस गई -----एंड रिजल्ट यह निकला कि जब अपनी बेटी की शादी से पहले उस ने नकली दांतों का सैट लगवा तो लिया लेकिन वह कभी भी सैट ही नहीं हो पाया ---- बब्बन आज भी बिना दांतों के ही रोटी खाता है --- और यही वजह है कि वह ठीक से कुछ खा नहीं पाता –और पचास की उम्र में ही उस की सेहत इतनी ढल गई है कि वह पैंसठ का लगता है ।

यह बबलू-बब्बन की कहानी नहीं -----रोज़ाना ऐसे केस देखता हूं ---सिक्वैंस लगभग यही रहता है । मेरी अगर कोई बात माने तो दांतों को स्वस्थ रखने के लिये ये गुटखे-वुटखे,पान मसाले सदा के लिये थूक देने होंगे, सुबह तो ब्रुश करना ही है , रात को सोने से पहले भी ब्रुश करने की आदत डालनी होगी, जुबान रोज़ाना टंग-क्लीनर से साफ़ करनी होगी और अपने दंत-चिकित्सक से छः महीने के बाद जा कर नियमित दांतों का चैक-अप करवाना भी निहायत ज़रूरी है।

यह बात लगता है कि किसी पत्थर पर खुदवा दूं कि मेरे विचार मे 99प्रतिशत देशवासियों के बस में है ही नहीं कि वे अपने एडवांस पायरिया का इलाज करवा सकें ---एडवांस से भाव है कि दांत हिल रहे हैं,मसूडों से पीप आ रही है, दांतों से मसूड़ें अलग हो चुके हैं -----बस दांत निकलवाने की ही इंतज़ार में समय बीत रहा है । ऐसा मैं इसलिये कह रहा हूं कि इस तरह के पायरिया का इलाज पहले तो हर जगह होता ही नहीं है ---- दूसरा यह काफी महंगा इलाज है ---बार बार जाना होता है ---बेचारा अपनी दाल-रोटी में पिसा इस देश का एक आम आदमी सुबह से लेकर शाम तक बीसियों तरह की और चिंतायें करे या अपने दांत ठीक करवाता फिरे ---- शायद उस की जेब इस की इज़ाजत भी नहीं देती ---वरना आम तौर पर इतने एडवांस पायरिया को जड़ से खत्म करने वाले पैरियोडोंटिस्ट ( periodontist) स्पैशलिस्ट भी या तो बडे शहरों में ही मिलते हैं या डैंटल कालेजों में दिखते हैं। हां, अगर कोई खुशकिस्मत मरीज़ इस तरह के पायरिये का पूरा इलाज करवा भी लेता है तो इस के लिये उसे बाद में भी अपने दांतों की साफ़ –सफाई का खास ध्यान रखना होगा। वरना यह बीमारी वापिस अपना सिर निकाल लेती है ---इसलिये हम लोग कहते हैं कि पायरिया की तकलीफ़ को जितना जल्दी हो सके ठीक करवा लेना चाहिये, वरना बहुत देर हो जाती है और ज्यादातर मामलों में ऊपर लिखे विभिन्न कारणों की वजह से दांत निकलवाने के अलावा कोई चारा बचता नहीं है।

तो आप दंत चिकित्सक से अपने नियमित चैक-अप के लिये कब मिल रहे हैं। वैसे कभी कभी दांतों से संबंधित बीमारियों के उपचार के लिये मेरा याहू आंसर्ज़ का यह पन्ना भी देख लिया करें।

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

दांत में लवंग-तेल (clove oil) लगाने से मुंह में होने वाले घाव ?

सुनने में तो यह बहुत छोटी सी ही बात लगती है लेकिन अकसर दंत चिकित्सकों के पास ऐसे मरीज़ आते ही रहते हैं जो आकर बतलाते हैं कि दुखते दांत की कैविटी के अंदर लवंग-तेल ( clove oil) लगाने से सारे मुंह में छाले हो गये।

जब ये डैंटिस्ट के पास आते हैं तो अकसर दांत के दर्द से ज्यादा मुंह में मौजूद घावों से ज़्यादा परेशान होते हैं। और उन घावों का ट्रीटमैंट भी साथ साथ करना पड़ता है।

इस का कारण ? – अधिकांश लोगों का दुखते दांत में लवंग-तेल लगाने का तरीका यह है कि छोटा सा रूई का टुकड़ा लिया और उसे लवंग तेल में भिगो कर तुरंत दांत की कैविटि में ठूंस दिया ---यही सारी गड़बड़ हो जाती है---यह लवंग-तेल एक कैमिकल ही है और इस तरह से इस्तेमाल करने से यह आस-पास के मसूड़ों, मुंह के अंदर की चमड़ी (oral mucous membrane) पर लीक कर जाता है और इन जगहों पर दर्दनाक घाव पैदा कर देता है।

तो, हमारे लिये यह बहुत ज़रूरी है कि हम सब लोग अच्छी तरह से लवंग तेल के इस्तेमाल को सीख लें----बात बिल्कुल छोटी सी है ---जिस रूईं को आपने लवंग-तेल में भिगो लिया है, उसे मुंह में लगाने से पहले किसी दूसरे सूखे हुये रूईं के टुकड़े पर दो-तीन बार टच करें, डैब करें ----ताकि लवंग तेल वाली रूईँ में मौजूद ज़्यादा लवंग-तेल सूखी हुई रूईं द्वारा सोख लिया जाये और यह लवंग तेल से भीगी हुई रूईं भी आप को देखने में सूखी सी ही लगने लगेगी। इसे आप अपनी कैविटि में लगा सकते हैं ----आप को तुरंत दर्द में राहत मिलेगा और आसपास की किसी जगह पर घाव भी नहीं होंगे।

यह तो हो गई लवंग-तेल की बात ---एक दूसरी बात भी करनी ज़रूरी है ---एसप्रिन बर्न--- अर्थात् एसप्रिन की गोली से मुंह का जलना और घाव हो जाना। होता यूं है कि कुछ लोग अज्ञानता-वश दांत के दर्द के लिये एसप्रिन की टीकिया पीस कर दुखते दांत की जगह पर मल लेते हैं ---मल क्या लेते हैं, आफत ही मोल ले लेते हैं ----एसप्रिन को टैबलेट भी एक कैमिकल ही है ---एसीटाइलसैलीस्लिक एसिड ( acetylsalicylic acid) ---और अगर इसे खाने की बजाये मुंह में पीस कर रगड़ लिया जाता है तो परिणाम आपने सुन ही लिये हैं ----यह मुंह को जला देती है !!

कुछ लोग दांत के दर्द से निजात पाने के लिये उस जगह पर तंबाकू, नसवार ( creamy snuff) रगड़ लेते हैं ----इस से तो बस नशा ही होता है लेकिन कुछ ही समय बाद लोग इस नशे के इतने आदि हो जाते हैं कि इस व्यसन का चस्का उन्हें लग जाता है। दांत के दर्द से राहत की रैसिपी तो यह तंबाकू कतई है नहीं , लेकिन मुंह के कैंसर को तो खुला न्यौता है ही है। एक बात ध्यान आई कि बहुत से मंजन और पेस्ट बाज़ार में इस तरह के हैं जिन में तंबाकू पीस कर मिला हुआ है ---इस से बच कर रहियेगा------ यह केवल आग है जो सब कुछ जला देगी !!

जो लोग तंबाकू के इस्तेमाल के आदि हो जाते हैं उन में से ऐसे लोगों का प्रतिशत भी अच्छा खासा ज़्यादा है जिन्होंने की तंबाकू से पहले मुलाकात ही दांत के दर्द के बहाने हुई ----किसी दोस्त अथवा सगे-संबंधी के कहने पर दांतों अथवा मसूड़ों की तकलीफ़ के लिये एक बार इस तंबाकू का इस्तेमाल क्या शुरू किया कि बस फिर इस लत को लात मार ही न पाये और बहुत से लोग मुंह के कैंसर की आफत को मोल ले बैठे !!

रोज़ाना मरीज़ अपने अनुभव बतलाते हैं ----कुछ लोगों से पता चला कि वे दांत के दर्द के लिये उस के ऊपर नेल-पालिश लगा लेते हैं । यह काम भी करना ठीक नहीं है। कुछ कहते हैं कि वे झाड़-फूंक करवा लेते हैं ----यह बात भी गले से नीचे ही नहीं उतरती।

बात जो भी है – दांत का दर्द परेशानी और जहां तक हो सके इस से बचा जाये और उस का एक उपाय है कि हर छः महीने बाद अपने क्वालीफाईड डैंटिस्ट से अपने दांतों का चैक-अप ज़रूर करवा लिया करें।

बुधवार, 12 नवंबर 2008

आज टुथब्रुश के बारे में बात करें !!

यह टापिक मैंने आज इसलिये चुना है क्योंकि आज मेरे पास एक लगभग 18-20 वर्ष की युवती आई मुंह की किसी तकलीफ़ के कारण ----अभी मैं उस को एक्ज़ामिन कर ही रहा था तो उस का पिता बीच में ही बोल पड़ा---इन को मैंने बहुत बार मना किया है कि घर में एक दूसरे का ब्रुश न इस्तेमाल किया करो। मेरा माथा ठनका---क्योंकि ऐसी बात मैं कैरियर में पहली बार सुन रहा था।

इस से पहले कईं साल पहले मुझे मेरे ही एक मरीज़ ने बताया था कि उस के घर के सारे सदस्य एक ही ब्रुश का इस्तेमाल करते हैं---उस बात से भी मुझे शॉक लगा था।

यह जो आज युवती से बात पता चली कि वे घर में एक दूसरे का टुथब्रुश इस्तेमाल करने से हिचकते नहीं हैं- जो भी जल्दी जल्दी में हाथ लगता है, उसी से ही दांत मांज लेते हैं। वह युवती बतला रही थी कि यह सब कॉलेज जाने की जल्दबाजी में होता है और इस के लिये वह सारा दोष अपने भाई के सिर पर मढ़ रही थी।

खैर, इन दोनों केसों के बारे में आप को बतलाना ज़रूरी समझा इसलिये बतला दिया। लेकिन यह जो बात युवती ने बताई, क्या आप को नहीं लगता कि यह बात तो हमारे घर में भी कभी कभार हो चुकी है---जब हमें किसी बच्चे से पता चलता है कि आज तो उस ने बड़े भैया का ब्रुश इस्तेमाल कर लिया।

अच्छा तो क्या करें ? ---इस तरह के बिहेवियर के लिये कौन दोषी है? ---मुझे लगता है कि इस के लिये सब से ज़्यादा दोषी है ---लोगों की इस के बारे में अज्ञानता कि टुथब्रुश के ऊपर जो कीटाणु होते हैं वे एक दूसरे का ब्रुश इस्तेमाल करने से एक से दूसरे में ट्रांसफर हो जाते हैं-----ठीक है, बहुत से लोग अभी भी टुथब्रुश को शू-ब्रुश जैसे ही इस्तेमाल करते हैं लेकिन इस से टुथब्रुश शू-ब्रुश तो नहीं बन गया !!

अच्छा आप एक बात की तरफ़ ध्यान दें----अधिकांश लोगों के पास छोटे छोटे से गुसलखाने ( नाम ही कितना हिंदोस्तानी और ग्रैंड लगता है--- नाम सुनते ही नहाने की इच्छा एक बार फिर से हो जाये) होते हैं ---पांच-सात मैंबर तो हर घर में होते ही हैं ---अब एक प्लास्टिक के किसी डिब्बे जैसे जुगाड़ में सात ब्रुश पड़े हुये हैं और जो तीन-चार ज़्यादा ही हैल्थ-कांशियस टाइप के बशिंदे हैं उन की जुबान साफ़ करने वाली पत्तियां भी उसी में पड़ी हुई हैं तो भला कभी कभार गलती लगनी क्या बहुत बड़ी बात है ? --- हमारे ज़माने में तो किसी रिश्तेदार के यहां जाने पर या किसी ब्याह-शादी में जाने पर अपना( ( ब्रुश, अपनी शेविंग किट भी मेजबान के गुसलखाने में ही टिका दी जाती थी। हां, तो मैं बार बार गुसलखाना इसलिये लिख रहा हूं कि पहले गुसलखाने ही हुआ करते थे और इन्हें बुलाया भी इसी नाम से ही जाता था और अच्छा भी यही नाम लगता था ----शायद नाम में कुछ इस तरह की बात है कि लगता है कि जैसे किसी बादशाह के नहाने का स्थान है...गुसल..खाना !! लेकिन होता तो अकसर यह बिलकुल बुनियादी किस्म का एक जुगाड़ ही था---एक टब, एक लोहे की प्राचीन बाल्टी और एक एल्यूमीनियम का बिना हैंडल वाली डिब्बा----और साथ में एक बहुत हवादार खिड़की ----हां, तो खिड़की में एक सरसों के तेल की शीशी ज़रूर पड़ी रहती थी और फर्श पर एक टूटी हुई एतिहासिक साबुनदानी में एक देसी साबुन की और एक अंग्रेज़ी साबुन की चाकी भी ज़रूर हुआ करती थी ( पंजाबी में साबुन की टिकिया को चाकी कहते हैं) -----लेकिन पता नहीं कब ये गुसलखाने बाथ-रूम में बदल गये ----हर बशिंदे के कमरे के साथ ही सटक गये.....साथ ही क्या, उस के अंदर ही सटक गये और साथ में ले आये ---तरह के शैंपू की शीशियां, पाउच, पीठ साफ करने वाला जुगाड़, एडी साफ करने वाला कुछ खास जुगाड़ और ......सारी, मैं अपने टापिक से भटक गया था।

हां, तो बात हो रही थी कि आज कल के छोटे-छोटे बाथरूमों की ---एक दूसरे का ब्रुश इस्तेमाल करने की इस तरह की गल्तियां यदा कदा होनी स्वाभाविक ही हैं । डैंटिस्ट हूं ----इसलिये इस विषय पर बहुत सोच विचार के इसी निष्कर्ष पर ही पुहंचा हूं कि इस से बचने का केवल एक ही उपाय है कि हम लोग अपने टुथब्रुश को और अपनी जीभी (जुबान साफ़ करने वाली पत्ती ) को एक बिल्कुल छोटे से गिलास में अलग से ही रखें। और जहां तक कोशिश हो, अगर बाथ-रूम छोटा है तो इस गिलास को उधर न ही छोड़े। इस के पीछे की एक वजह मैं अभी थोड़े समय में आप को सुनाऊंगा।

अतिथि देवो भवः -----मेहमान भगवान का रूप होता है लेकिन अगर यही भगवान आप से टावल, कंघी, या रेज़र की मांग कर बैठता है तो इतनी कोफ्त आती है कि क्या करें, पायजामे का जिक्र जानबूझ कर नहीं किया क्योंकि आज कल मेजबान से इसे मांगने का पता नहीं इतना रिवाज रहा नहीं है। एक बिलकुल सच्चा किस्सा सुना रहा हूं कि एक बंदे के यहां कईं बार मेहमान आ कर टुथब्रुश की मांग कर बैठते थे ----उस ने एक युक्ति लगाई ---उस ने एक टुथब्रुश खरीद लिया और उस के कवर को भी संभाल कर रख लिया ---जो भी मेहमान आये वह वही ब्रुश उस के आगे कर देता था ----मेहमान खुश हो जाता था --- और इस महानुभाव ने उस ब्रुश का नाम ही पंचायती ब्रुश डाल दिया । किस्सा तो यह बिल्कुल सच्चा है लेकिन मैं विभिन्न कारणों की वजह से इस की बेहद निंदा करता हूं।

हां, तो बात हो रही थी अपने टुथब्रुश एवं रेज़र आदि को अलग से ही रखने की। एक और किस्सा सुनाता हूं ---10-12 साल पुरानी बात है –एक लेडी ऑफीसर के कमरे में जाने का मौका मिला---वह अपने बंगला-चपरासी को फटकार लगा रही थी कि उस ने ही उस के मिस्टर की शेविंग किट यूज़ की है----पता नहीं उन का क्या फैसला हुआ लेकिन पता नहीं मेरे सबकोंशियस में एक बात ज़रूर बैठ गई और पता नहीं कब मैंने अपने टुथब्रुश और शेविंग किट को बाथरूम से बाहर किसी सेफ़ सी जगह रखना शुरू कर दिया---मेरे विचार में इस तरह इन को अलग रखने के कुछ फायदे तो हैं ही ----बाथरूम में किसी को गलती लगने का कोई स्कोप ही नहीं, और आप को किसी पर शक करने की कोई ज़रूरत ही नहीं कि उस ने कहीं आप की किट विट इस्तेमाल न कर ली हो, बात तो चाहे छोटी सी लगती है लेकिन इस से सुकून बहुत ज़्यादा मिलता है।

मेरे पास कईं मरीज़ आते हैं जब मैं उन से पूछता है कि आप लोग अपने अपने टंग-क्लीनर का कैसे ख्याल रखते हो----तो मुझे इस का कुछ संतोषजनक जवाब मिलता नहीं। कुछ लोग कह तो देते हैं कि हम लोग ब्रुश और टंग-क्लीनर को बांध कर ऱखते हैं लेकिन मुझे यकीन है कि यह कोई प्रैक्टीकल हल नहीं है। तो, मेरे विचार में तो एक छोटे से गिलास में अपनी यह एसैसरीज़ अलग ही रखने की आदत डाल लेनी चाहिये।

बस, दो बातें टुथब्रुश के बारे में कर के पोस्ट खत्म करता हूं । एक तो यह कि एक दूसरे का ब्रुश इस्तेमाल करने से कुछ तरह की इंफैक्शनज़ ट्रांसमिट होने का डर बना रहता है। विकसित देशों में तो इस बात की बहुत चर्चा है कि ब्रुश करने से पहले फलां सोल्यूशन में और फलां लिक्विड में भिगो लिया जाये---कीटाणुरहित किया जाये ----चूंकि ये चौंचलेबाजीयां हम लोगों ने ही आज तक नहीं कीं, इसलिये किसी को भी इन की सिफारिश भी नहीं की -----अपने यहां तो ब्रुश करने के लिये साफ पानी मिल जाये उसे ही एक वरदान समझ लेना काफ़ी है---- इसलिये ब्रुश को एंटीसैप्टिक से वॉश करने वाली बात हमारे लिये तो एक शोशा ही है -----शोशा इसलिये कह रहा हूं कि वैज्ञानिक होते हुये भी हम लोगों के लिये प्रैक्टीकल बिलकुल नहीं है।

जाते जाते नन्हे-मुन्नों के लिये जो ब्रुश इस्तेमाल किया जा रहा है उस के बारे में एक बात कर के की-पैड से अगुंलियां उठाता हूं । बात यह है कि जिस बेबी ब्रुश से मातायें अपने नन्हे-मुन्नों के दांत साफ करती हैं....वह झट से उन्हें छीन लेता है और हफ्ते दस दिन में ही चबा चबा कर उस ब्रुश का हाल बेहाल कर देता है ---उस का हल यही है कि आप दो ब्रुश रखें----एक से तो उस के दांत साफ कर के सुरक्षित रख दें और जब वह उसे छीनने की कोशिश करे तो उसे दूसरे वाला ब्रुश पकड़ा दें---जिस से साथ वह दो-मिनट खेल कर वापिस लौटा देगा-------वह भी खुश और आप भी !!

सोच रहा हूं कि आज सुबह उस युवती की बात ने भी मुझे क्या क्या लिखने के लिये उकसा दिया ----यकीनन हमारे मरीज़ ही हमें कुछ लिखने के लिये, अपने पुराने से पुराने अनुभव बांटने के लिये उकसाते हैं।

शनिवार, 8 नवंबर 2008

बहुत ही ज़्यादा आम है मसूड़ों से खून आना

मसूड़ों से खून निकलना एक बहुत ही आम समस्या है और कोई जो भी मरीज़ इस समस्या से परेशान होता है उस की उम्र जितनी कम होती है मेरा प्रायरटी उसे एक-दम फिट करने की उतनी ही ज़्यादा बढ़ जाती है क्योंकि मसूड़ों की सूजन की जितनी प्रारंभिक अवस्था में रोक दिया जाये उतना ही बढ़िया होता है।

वैसे तो मसूड़ों से खून आने के बीसियों कारण हैं लेकिन सब से अहम् एवं सब से महत्वपूर्ण कारण है –दांतों एवं मसूड़ों पर गंदगी जमा होने की वजह से मसूड़ों पर सूजन आ जाना जिस की वजह से मरीज़ के मसूड़ों से थोड़ा सा टच करने पर ही खून आने लगता है।

अकसर ऐसे मरीज़ आ कर कहते हैं कि जैसे ही वे ब्रुश करते हैं मसूड़ों से खून आने लगता है। कईं बार तो लोग इसी चक्कर में ब्रुश करना ही छोड़ देते हैं और अंगुली से दांत साफ़ करने की कोशिश में अपने रोग को और बढ़ावा देते रहते हैं।

यह जो मैंने शुरू शुरू में लिखा कि जितनी मरीज़ की उम्र कम होती है मेरी उसे ठीक करने की उतनी ही ज़्यादा प्राथमिकता होती है। ऐसा इसलिये है क्योंकि प्रारंभिक अवस्था में यह मसूड़ों की सूजन पूरी तरह से रिवर्सिबल होती है अर्थात् इलाज करने से यह पूरी तरह से ठीक हो जाती है और अगर ब्रुश को ठीक ढंग से करना शुरू कर दिया जाये तो भविष्य में भी यह दोबारा होती नहीं ,लेकिन डैंटिस्ट के पास हर छःमहीने में एक बार तो चैक-अप करवा ही लेना चाहिये।

बच्चे इस समस्या के साथ कि उन्हें मसूड़ों से खून आता है काफी कम मेरे पास अभी तक आये हैं –कभी कभार कुछ दिनों के बाद एक –दो बच्चे आ ही जाते हैं और ये बच्चे अकसर 13-14 साल के ही होते हैं।

अगली उम्र है – कालेज के छात्र-छात्रायें----ये 19-20 की अवस्था है , बच्चे अपनी शकल-सूरत की तरफ़ कुछ ज़्यादा ही कांशियस से हो जाते हैं ( वैसे मैं भी कहां भूला ही अपने इन दिनों को जब बीसियों बार आइना देखा करता था और उतनी ही बार बालों में हाथ फेर कर .....!! ) ---और मसूड़ों से खून आये या नहीं , अगर उन्हें गंदगी सी जमा दिखती है, जिसे टारटर कहते हैं, तो वो डैंटिस्ट के पास क्लीनिंग के लिये आ ही जाते हैं.------उन के दांतों की स्केलिंग एवं पालिशिंग कर दी जाती है और ब्रुश करने का सही ढंग उन्हें सिखा दिया जाता है ताकि वे भविष्य में ऐसी किसी परेशानी से बचे रह सकें।

अगली स्टेज है अकसर शादी से पहले आने वालों की ---अर्थात् उन की समस्या है कि एक तो उन के मसूड़ों से खून आता है और दूसरा मुंह से बदबू आती है । इन सब का ट्रीटमैंट करना भी एक अच्छी खासी प्रायरटी ही होती है।

अगली स्टेज है शादी के बाद आने वालों की ----कुछ नवविवाहित जोड़े जब डैंटिस्ट के पास जाते हैं तो अधिकांश की एक ही समस्या होती है कि मुंह से बदबू आती है ----चैक अप करने के बाद वही समस्या निकलती है कि मसूड़ों की सूजन और दांतों एवं मसूड़ों पर जमा गंदगी। एक –दो सीटिंग्ज़ में ही पूरा इलाज हो जाता है और आगे के लिये इस तरह की प्राबल्म न हो, इस के संकेत भी दे दिये जाते हैं।

अगली बात करते हैं ---गर्भावस्था की ---इस स्टेज में बहुत ही महिलाओं को मसूड़ों से खून आने लगता है लेकिन वे समझती हैं कि सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा , इसलिये वे डैंटिस्ट के पास जाती नहीं हैं और बिना वजह अपने दांतों एवं मसूड़ों की तकलीफ़ को बढ़ावा दे डालती हैं।

बस ऐसे ही बहुत से लोग अकसर बिना किसी इलाज के चलते रहते हैं----इलाज कुछ नहीं, ऊपर से गुटखा, पान, तंबाकू-खैनी अपना कहर बरपाती रहती है ----वे लोग खुशनसीब होते हैं जो कि मसूड़ों की बीमारी को प्रारंभिक अवस्था में ही पकड़ लेते हैं क्योंकि अकसर मैंने देखा है कि जो लोग डैंटिस्ट के पास चालीस-पैंतालीस या यूं कह लूं कि चालीस के आस-पास की उम्र में जाते हैं उन में यह रोग बढ़ चुका होता है ----मसूड़ों की सूजन अंदर जबड़े की हड्डी तक पहुंच ही चुकी होती है, मसूड़ों से पीप आने लगती है, दांत हिलने लगते हैं , दांत अपनी जगह से हिल जाते हैं, चबाने में दिक्कत आने लगती है, ठंडा-गर्म बहुत ज़्यादा लगने लगता है ----अकसर इस अवस्था में इलाज बहुत लंबा चलता है---मसूड़ों की सर्जरी भी करनी पड़ती है।

और इतना लंबा ट्रीटमैंट मैंने देखा है या तो 99 प्रतिशत (इच्छा तो हो रही है कि 99.9 प्रतिशत ही लिखूं)—अफोर्ड ही नहीं कर पाते –कारण कुछ भी हो- वे इस इलाज के लिये तैयार ही नहीं हो पाते और दूसरा कारण यह है कि इस इलाज के जो खास स्पैशलिस्ट होते हैं उन की संख्या भी बहुत कम है। वैसे तो सामान्य डैंटिस्ट भी इस तरह का इलाज करने में सक्षम होते हैं लेकिन पता नहीं मैंने देखा है कि मरीज़ ही तैयार नहीं होते ----बस, दांतों एवं मसूड़ों पर जमी हुई गंदगी को साफ कर दिया जाता है और शायद इस से मरीज़ के दांतों की उम्र थोड़ी बढ़ जाती होगी ----लेकिन जब तक इस तरह के पायरिया के मरीज़ों की नीचे से मसूड़ों के अंदर से पूरी तरह क्लीनिंग नहीं होती है, पूरा इलाज हो नहीं पाता ।

बस, बहुत से लोगों में यूं ही चलता रहता है, धीरे धीरे दांतों का उखड़वाने के लिये नंबर लगता है- एक के बाद एक ---और बाद में नकली डैंचर लगवा लिया जाता है।

यह पोस्ट लिखने का केवल एक ही उद्देश्य है कि हमें मसूड़ों से खून निकलने को कभी भी लाइटली नहीं लेना चाहिये और तुरंत इस का इलाज करवा लेना चाहिये ।और यकीन मानिये, दांतों की स्केलिंग से दांत न ही कमज़ोर पड़ते हैं, न ही हिलते हैं और न और कोई और नुकसान ही होता है-----केवल इस से फायदे ही फायदे होते हैं। इसलिये अभी भी समय है कि हम इन पुरातन भ्रांतियों से ऊपर उठ कर समय रहते अपना उचित इलाज करवा लिया करें ।

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

क्या हाई-ब्लड-प्रैशर, शूगर एवं हार्ट-पेशेन्ट्स का दांत उखड़वाने का डर मुनासिब है ?--भाग दो.

इस से पहली कड़ी में बातें हुईं थी हाई-ब्लड एवं शूगर के मरीज़ों के दांत उखड़वाने के डर के बारे में। आज देखते हैं कि हार्ट पेशेन्ट्स क्यों डरते हैं दांत उखड़वाने से ---क्या इस में कोई जोखिम इन्वाल्व है ?

सब से पहले तो यह बताना चाह रहा हूं कि हार्ट के पेशेन्ट्स अलग अलग तरह के होते हैं अर्थात् हार्ट की तकलीफ़ों की अलग अलग किस्में होती हैं और इन में डैंटिस्ट अलग अलग तरह की सावधानियां बरतते हैं।

सब से पहले तो हार्ट-पेशेन्ट्स को दिये जाने वाले टीके की बात करते हैं--- दांत उखड़वाने से पहले दिल के मरीज़ों को जो लिग्नोकेन( lignocaine) लोकल-अनसथैटिक का टीका दिया जाता है ---सुन्न करने के लिये—वह प्लेन टीका होता है –जिस में एडरिनेलीन( Adrenaline) नहीं होती। एडरिनेलीन रक्त की नाड़ियों में संकुचन पैदा करती है, और मरीज़ में पैल्पीटेशन( palpitations) पैदा कर सकती है इसलिये हार्ट पेशेन्ट्स में ऐसे इंजैक्शन को इस्तेमाल किया जाता है जिस में यह नहीं होती।

दूसरी बात यह है कि कुछ हार्ट पेशेन्ट्स रक्त को पतले रखने के लिये एस्पिरिन की टेबलेट लगातार ले रहे होते हैं--- ये सब बातें या तो मरीज़ हमें स्वयं ही बतला देते हैं वरना हमें खुद पूछनी होती हैं। अब ऐसे मरीज़ों को यह बहुत डर लगता है कि खून पतले करने वाली एस्पिरिन की वजह से दांत उखड़वाने के बाद तो उन का रक्त तो जमेगा ही नहीं।

अकसर ये लोग एस्पिरिन की आधी गोली ही ले रहे होते हैं ----तो मरीज़ का ब्लीडिंग टाइम एवं क्लाटिंग टाइम ( bleeding time and clotting time) --- अर्थात् मरीज़ का रक्त एक नीडल से प्रिक करने के बाद कितने समय में बंद होता है और फिर कितने समय में उस जगह पर ब्लड-क्लाट ( blood-clot) बन जाता है ---इस के लिये एक बहुत ही साधारण सा ब्लड-टैस्ट है जिसे करवा लिया जाता है। और मेरा अनुभव यह रहा है कि ऐसे मरीज़ों में लगभग हमेशा( पता नहीं मैंने लगभग क्यों लिखा है, क्योंकि मैंने तो हमेशा ही इसे लिमट्स में ही देखा है) ....ही इसे लिमट्स में ही पाया है।

वैसे कुछ इस तरह की सिफारिशें भी हैं कि सर्जरी से पहले मरीज़ की एस्पिरिन कुछ दो-चार दिनों के लिये बंद कर दी जाये। लेकिन वह मेजर-सर्जरी की बात होगी –मैंने दांत उखाड़ने के लिये कभी भी इस की ज़रूरत नहीं समझी क्योंकि एस्पिरिन लेने वाले मरीज़ों में भी मैंने दांत उखड़वाने के बाद रक्त बंद होने या उस का क्लॉट बनने में कोई विघ्न पड़ता देखा नहीं है। जो मरीज़ मुझे स्वयं ही इस के बारे में पूछता है कि क्या उसे एस्पिरिन दो-तीन दिन के बंद करनी होगी या वह कहता है कि उस के फिजिशियन ने उसे ऐसा करने को कहा है तो मैं उसे ज़रूर इसे कुछ दिनों के लिये बंद करने की सलाह दे देता हूं----ताकि वह संतुष्ट रहे ---लेकिन जहां तक मैंने देखा है ऐसे मरीज़ों में भी कोई तकलीफ़ होती मुझे तो दिखी नहीं।

कुछ क्ल्यूज़ (clues) हम लोग एस्पिरिन लेने वाले मरीज़ों से ऐसे भी ले लेते हैं कि अगर कहीं कोई कट-वट लग जाता है या शेव करते वक्त मुंह पर कट लग जाता है तो क्या रक्त नार्मल तरीके से आसानी से बंद हो जाता है ---इस का जवाब हमेशा ही हां में मिलता है।

लेकिन एक हार्ट प्राब्लम होती है जिस में मरीज़ रक्त पतला रखने के लिये ओरल-एंटीकोएगुलेंट्स (oral anticoagulants) ले रहा होता है जैसे कि टेबलेट एटिट्रोम (Tablet Acitrom) --- जो मरीज़ ये टेबलेट ले रहे होते हैं उन में बहुत ही एहतियात की ज़रूरत होती है—वैसे तो जो मरीज़ ये टेबलेट ले रहे होते हैं वे स्वयं ही बता देते हैं कि रक्त पतला करने के लिये वे इसे अपने फिजिशियन की सलाह से ले रहे हैं लेकिन कुछ केसों में मैंने देखा है कि कईं बार कुछ कम पढ़े-लिखे लोगों को इस का पता ही नहीं होता और वे किसी डैंटिस्ट के पास पहुंच जाते हैं। और डैंटिस्ट को इस दवाई का पता केवल तब ही चल सकता है अगर वह मरीज़ की फिजिशियन वाली प्रैसक्रिपशन देखता है। इसलिये हार्ट पेशेन्ट्स के साथ थोड़ी पेशेन्स की ज़रूरत रहती है---जल्दबाजी की गुंजाइश नहीं होती। और कुछ नहीं तो अगर मरीज़ को हम कह दें कि जो दवाईयां आप अपनी हार्ट-प्राब्लम के लिये ले रहे हैं उन्हें एक बार मुझे दिखा दें। ऐसा करने से भी पता चल जाता है कि मरीज़ का क्या क्या चल रहा है।

हां, तो अगर हार्ट पेशेन्ट टेबलेट एसीट्रोम ले रहा है और दांत उखड़वाने के लिये हमारे पास आया है तो उस का एक विशेष तरह का टैस्ट करवाया जाता है ---प्रोथ्रोंबिन टैस्ट – prothrombin time एवं आईएनआर ( INR – International normalized ratio) – और इस टैस्ट के लिये अथवा टैस्ट के बाद मरीज़ को उस के फिजिशियन अथवा कार्डियोलॉजिस्ट के पास रेफर करना ही होता है ---उस की स्वीकृति के लिये कि क्या इस मरीज़ को डैंटल एक्सट्रेक्शन के लिये लिया जा सकता है---और फिर आगे सारा काम उस की सलाह से ही चलता है।

ओरल –एंटीकोएग्यूलैंट्स ले रहे मरीज़ों का यह टैस्ट तो वैसे भी फिजिशियन समय समय पर करवाते रहते हैं –यह देखने के लिये सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है ---उन्हें यह भी आगाह किया होता है कि अगर आप के पेशाब में आप को रक्त दिखे या मसूड़ों से अपने आप ही रक्त बहने लगे तो तुरंत फिजिशियन से मिलें----वह फिर इन दवाईयों की डोज़ को एडजस्ट करता है। वैसे तो टेबलेट एसीट्रोम जैसी दवाईयां ले रहे मरीज़ों के लिये सलाह यही होती है कि उन्हें अपना दांत किसी बहुत अनुभवी डैंटिस्ट के पास जा कर ही उखड़वाना चाहिये ---- इस से भी बेहतर यह होगा कि किसी टीचिंग हास्पीटल में जाकर ही यह काम करवाया जाये ---वहां पर सारे स्पैशलिस्ट मौजूद होते हैं और सारी बातों का वे बखूबी ध्यान कर लेते हैं।

तो हम ने यह देखा कि डैंटिस्ट के पास जा कर अपनी सारी मैडीकल हिस्ट्री बताने वाली बात कितनी ज़रूरी है। एक और हार्ट की तकलीफ़ होती है ----रयूमैटिक हार्ट डिसीज़ ( Rheumatic heart disease ---इसे आम तौर पर मैडीकल भाषा में शॉट में RHD) भी कह दिया जाता है ----इस के साथ वैलवुलर हार्ट डिसीज़ होती है ---( valvular heart disease) अर्थात् मरीज़ के हार्ट के वाल्वज़ में कुछ तकलीफ़ होती है ---ऐसे मरीज़ों में भी दांत निकलवाने से पहले एक ऐंटीबायोटिक हमें कुछ समय पहले देना होता है --- ताकि एक खतरनाक सी तकलीफ़ –सब-एक्यूट बैकटीरियल एंडोकार्डाईटिस – Sub-acute bacterial endocarditis—SABE से मरीज़ का बचाव हो सके।

वैसे तो बातें ये सब बहुत बड़ी बड़ी लगती हैं----शायद थोड़ा खौफ़ भी पैदा करती होंगी ---लेकिन मेरी बात सुनिये की यह सब जितना कंप्लीकेट्ड लिखने में लगता है , उतना वास्तव में है नहीं। बस, बात केवल इतनी सी है कि बिल्कुल मस्ती से अपने डैंटिस्ट के पास जायें----इस से उसे भी अपना काम करने में बहुत आसानी होती है---मैं कईं बार मरीज़ों को कहता हूं कि डरे हुये मरीज़ का काम करते हुये तो हाथ ही नहीं चलता, वो बात अलग है कि यह सब कहां मरीज़ के भी हाथ में होता है। इसलिये हमें अगर कभी कभार लगता है कि मरीज़ बहुत ही टेंशन करने वाली प्रवृत्ति वाला है तो हमें उसे कभी-कभार बहुत रेयरली कोई टैबलेट भी देनी होती है। लेकिन जैसा कि मैं अकसर बार बार कहता रहता हूं कि मरीज़ का अपने डैंटिस्ट पर विश्वास और डैंटिस्ट द्वारा कहे गये चंद प्यार एवं सहानुभूति भरे शब्द किसी जादू से कम काम नहीं करते ----शायद इन्हें(विभिन्न कारणों की वजह से) काफी बार ट्राई ही नहीं किया जाता और टेबलेट पर ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा किया जाता है।

चंद शब्द उन मरीज़ों के बारे में जिन को हाल ही में हार्ट-अटैक हुआ हो ---ऐसे मरीज़ों में सामान्यतयः डेढ़-महीने तक दांत उखाड़ा नहीं जाता, लेकिन वह दूसरी तरह का नॉन-इनवेज़िव डैंटल ट्रीटमैंट करवा सकते हैं ---दांतों की तकलीफ़ के लिये दवाईयों से ही काम चला सकते हैं ---वैसे आम तौर पर देखा गया है कि हार्ट-अटैक के डेढ़-दो महीने बीत जाने से पहले वो डैंटिस्ट के पास दांत उखड़वाने आते भी नहीं हैं----- मेरे पास भी अभी तक शायद दो-चार केस ही ऐसे आये होंगे जिन का टाइम-पास हमें खाने वाली दवाईयां या दांतों एवं मसूड़ों पर लगाने वाली दवाईयां देकर ही किया था।

लगता है कि अब बस करूं ---बहुत ही महत्वपूर्ण तो सारी बातें लगता है हो ही गई हैं इस विषय के बारे में , कोई और बाद में याद आई तो फिर कर लेंगे। हां, अगर आप का कोई प्रश्न हो तो आप का प्रश्न पूछने हेतु स्वागत है।
।।शुभकामनायें।।

गुरुवार, 6 नवंबर 2008

क्या हाई- ब्लड-प्रैशर, शूगर और हार्ट पेशेंट्स का दांत उखड़वाने का डर मुनासिब है ?....भाग 1

आज सुबह सुबह मेरा पहला -दूसरा मरीज़ ही वह था जिस के मुंह के ऊपर सूजन आई हुई थी –दांत की सड़न की वजह से – और मेरे कुछ भी पूछने से पहले ही उस ने कहना शुरू कर दिया कि कल बस गलती से उड़द की दाल खा ली और यह बखेड़ा खड़ा हो गया है। मैंने उसे समझाया कि ऐसा कुछ नहीं है, आप कुछ भी खायें --- इस का उड़द-वड़द से कोई संबंध नहीं है।

वैसे अब मैं लिखते लिखते सोच रहा हूं कि हमें हमारे कालेजों में ये सब बातें पढ़ाई नहीं गईं, इसलिये हम तुरंत ही इन सब बातों को सिरे से नकार देते हैं, लेकिन कहीं इस में क्या कोई सच्चाई है, यह जानने की मेरी भी बहुत उत्सुकता है ---लेकिन मेरा अनुभव तो यही कहता है कि ऐसा कोई संबंध है नहीं।

ऐसी बहुत सी बातें हैं जो कि लोगों के मन में घर कर गई हैं और जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के मन में लगता है ट्रांसफर होती रहती हैं। ऐसी ही है एक जबरदस्त भ्रांति जिस ने लाखों लोगों को उलझा कर रखा हुआ है ---वह यह है कि बहुत से लोग यही समझते हैं कि हाई ब्लड-प्रैशर वाले मरीज का या हार्ट के मरीज़ के लिये दांत उखड़वाना बेहद जोखिम वाला काम है-----लोग सोच सकते हैं कि ऐसा करने से कुछ भी हो सकता है, हो सकता है कि रक्त के बंद न होने से बंदे की जान ही ना चली जाये, बहुत से लोग ऐसा सोचते हैं और बिना वजह अपने इलाज को स्थगित करते रहते हैं।

और जहां तक शूगर के मरीजों की बात है, क्या कहूं----- किसी सड़े-गले दांत को उखड़वाने की बात करते ही, कह देते हैं कि मुझे तो शूगर है, मैं कैसे दांत उखवड़ा सकता हूं। फिर कहते हैं कि अगर मैंने दांत उखड़वा लिया तो मेरा तो जख्म ही नहीं भरेगा। लेकिन मुझे कईं बार लगता है कि इस तरह की भ्रांतियां फैलाने में नीम-हकीम, झोला-छाप डैंटिस्टों का बहुत बड़ा रोल है ----बस कुछ भी कह कर मरीज़ को इतना डरा देते हैं कि वह दांत उखड़वाने के नाम से ही कांपने लगता है।

मुझे प्रोफैशन में 25 साल हो गये हैं, साल में लगभग दो हज़ार के करीब दांत उखाड़ने का स्कोर है, तो अनुमान है कि चालीस पचास हज़ार दांत तो अब तक उखाड़ ही चुका हूं। और इस पचास हज़ार के स्कोर में सब तरह की बीमारियों से जूझ रहे लोग शामिल रहे हैं----हाई ब्लड प्रैशर, शूगर, कैंसर, हार्ट प्राब्लम, और भी सब तरह की शारीरिक बीमारियां ----यह सब लिखना इस लिये ज़रूरी लग रहा है कि पाठकों को मेरी बात पर विश्वास करने में आसानी हो---उन्हें यह ना लगे कि मैं कोई किताबी बात कर रहा हूं। इसलिये इसे लिखने को आप कृपया अन्यथा न लें। तो, मेरा क्या अनुभव रहा ----मेरा अनुभव यह है कि मरीज़ से अच्छे से बात करना और सारी बात को बहुत ही प्रेम से समझाना इस कायनात की सब से बड़ी दवा है।

मैंने आज तक ऐसा शूगर का एक मरीज़ भी ऐसा नहीं देखा जिस ने दांत उखड़वाया हो और जिस का जख्म भरा हो-----यकीन कर लो, दोस्तो, बिलकुल सच लिख रहा हूं। वास्तव में इस में मेरा रती भर भी बड़प्पन नहीं है, कुदरत ही अपने आप में इतनी ग्रेट है कि थोड़ी सी सावधानियों के साथ सब कुछ अपने आप दुरुस्त कर देती है----ऐसे ही तो नहीं ना उसे हम लोग इसे मदर नेचर कहते फिरते।

थोड़ी बातें शूगर के मरीज़ के बारे में और करनी होगीं--- निसंदेह किसी भी शूगर के मरीज़ को अपना कोई भी सड़ा-गला दांत जिस में पस पड़ी है या किसी अन्य कारण की वजह से डैंटिस्ट ने जिसे उखड़वाने की सलाह दी हुई है, उसे उखड़वा कर छुट्टी करनी चाहिये।

अगर शूगर कंट्रोल में है तो ठीक है , वरना कईं कईं दिन तक शूगर के कंट्रोल होने की प्रतीक्षा करना कि जब शूगर बिलकुल नार्मल हो जायेगी तो देखेंगे ----तब तक ऐंटिबायोटिक दवाईयां और पेन-किल्लर्ज़ लेते रहने से क्या फायदा ---उन के अपने ढ़ेरों साईड-इफैक्ट्स हैं। इसलिये मैंने तो कभी शूगर के मरीज़ों को पोस्ट-पोन शूगर की वजह से नहीं किया -----कुछ केसों में दो-तीन दिन पहले ऐंटीबायोटिक दवाईयां शुरू करनी होती हैं,( बहुत कम केसों में) ---और मरीज़ को कहा जाता है कि आप अपने रूटीन के हिसाब से सुबह नाश्ता करें, उस के बाद अपनी शूगर की दवाई या इंजैक्शन ले कर डैंटल क्लिनिक में जायें-----वह सुबह वाला टाइम इन मरीज़ों के लिये बहुत श्रेष्ट होता है। न ही मरीज़ को कुछ पता चलता है और न ही डाक्टर को..........everything happens so smoothly and thereafter healing of the wound is also so uneventful. बस, मुंह में मौजूद जख्म को साफ-सुथरा रखने के लिये बहुत साधारण सी सावधानियां उसे बता दी जाती हैं। इसलिये मैंने तो कभी भी किसी भी शूगर के मरीज़ को यह आभास होने ही नहीं दिया कि शूगर का रोग कोई ऐसा हौआ है जिस में दांत उखाड़ने का मतलब है कि मुसीबतें मोल लेना------दरअसल देखा जाये तो ऐसा है भी कुछ नहीं। लेकिन शूगर के मरीज़ का दांत उखाड़ने से पहले उस की ब्लड-रिपोर्ट और अन्य टैस्ट और उस की जनरल हैल्थ जरूर देख ज़रूर लेता हूं - जो मुझे लगभग हमेशा ही हरी झंडी दिखाती है। Thank God !!

अब आते हैं ----हाई ब्लड-प्रैशर की तरफ़ ----सब से बड़ा डर लोगों को लगता है कि दांत उखवाड़ने के बाद खून बंद नहीं होगा। इस के बारे में यह ध्यान रखिये कि वैसे तो अकसर मरीज़ों को अपने ब्लड-प्रैशर के बारे में पता ही होता है लेकिन अगर किसी को पता नहीं है तो उस का चैक करवा लिया जाता है और अगर हाई-ब्लड-प्रैशर एसटैबलिश्ड हो जाता है तो फिजिशियन की सलाह अनुसार उस का ब्लड-प्रैशर कंट्रोल होने पर दांत बिना किसी परेशानी के निकाल दिया जाता है और यह पूरी तरह से सुरक्षित प्रोसिज़र है। कंट्रोल का मतलब दांत उखड़वाने के लिये तो यहां यहीं लें कि हो सकता है ब्लड-प्रैशर नार्मल रेंज से थोड़ा ज़्यादा ही हो, लेकिन मैंने तो अपनी प्रैक्टिस में इन मरीजों को भी बिलकुल बिना किसी तकलीफ़ के दांत उखड़वाने के बाद बिलकुल ठीक होते देखा है।

यहां मुझे हाई-ब्लड-प्रैशर के दो-तीन मरीज़ों के साथ दांत उखाड़ते समय अपने अनुभव याद आ रहे हैं----लेकिन उन्हें अगली पोस्ट में डालता हूं क्योंकि यह पोस्ट 1000शब्दों को पार कर चुकी है। और हार्ट के मरीज़ों की बात अगली पोस्ट में ही करेंगे।

बहुत बहुत शुभकामनायें। मैडीकल साईंस कईं बार अनसरटन भी हो सकती है --इसलिये आशीर्वाद दें कि ऐसे ही बिना किसी तरह की कंप्लीकेशन के मरीज़ो की सेवा में लगा रहूं और उन के विश्वास पर हमेशा खरा उतरता रहूं।

रविवार, 2 नवंबर 2008

क्या ब्रेसेज़ से बचा जा सकता है ?


इस प्रश्न का जवाब ढूंढने से पहले कुछ बातें करते हैं। तो, सब से पहले तो जब मैं किसी 18-20 साल के युवक अथवा युवती को देखता हूं जिसके दांत टेढ़े-मेढ़े होते हैं तो मुझे बहुत दुःख होता है क्योंकि बहुत बार तो उन के दांत देखने से ही पता चल जाता है कि उन के लंबे समय तक इन ब्रेसेज़ के चक्कर में पड़ना पड़ेगा, बार-बार आर्थोडोंटिस्ट के क्लीनिक के चक्कर काटने पड़ेगे।

डैंटिस्ट्री के प्रोफैशन में पच्चीस साल बिताने के बावजूद भी कभी मैं इन ब्रेसिस के इलाज से बहुत ज़्यादा इम्प्रैस नहीं हो पाया। क्या यह इलाज कारगर नहीं है ?—नहीं, नहीं , ऐसी कोई बात नहीं है, बस केवल इतनी सी बात है कि यह काफी महंगा इलाज है। इस में इस्तेमाल होने वाले मैटीरियल्ज़ काफी महंगे हैं, इस का इलाज आर्थोडोंटिस्ट विशेषज्ञ द्वारा ही हो पाता है – इन सब कारणों की वजह से यह काफी महंगा इलाज है और मरीज़ को लंबे समय तक डाक्टर के पास नियमित रूप से जाना पड़ता है। इसलिये मैंने जो कुछ खास इम्प्रैस न होने वाली बात कही है उस का कारण भी केवल यही है कि यह इलाज आम आदमी की पहुंच के बहुत ज़्यादा बाहर है और यह केवल मेरी व्यक्तिगत परसैप्शन है।

वैसे तो कुछ झोला-छाप डाक्टर भी दांत सीधे करने का पूरा ढोल पीटते रहते हैं लेकिन मैं अपने मरीज़ों को बार बार आगाह करता रहता हूं कि या तो आप टेढ़े-मेढ़े दांतों के लिये कुछ भी इलाज करवाओ नहीं ----अगर किसी विशेषज्ञ से इलाज करवाना अफोर्ड कर सकते हैं तो ही करिये- वरना, ये नीम-हकीम पता नहीं कौन कौन से गलत तरीके अपना कर दांतों को थोड़ा सरका तो देते हैं लेकिन दांतों की सेहत की पूरी धज्जियां उड़ाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते। दो-चार हज़ार रूपया भी ये मरीज़ों को बातें में उलझा कर ले लेते हैं----अब मरीज़ क्या जाने कौन सच्चा है कौन झूठा !!

आज कल टेढ़े-मेढ़े दांतों की समस्या बहुत आम हो गई है। लेकिन आम तौर पर मां बाप बच्चों को बहुत लेट ले कर आते हैं। इस का कारण यह है कि हमारे यहां पर दंत-चिकित्सक के पास नियमित तौर पर छः महीने के बाद जाकर चैक-अप करवाने का कंसैप्ट ही नहीं है।

कल मेरे पास एक 23 वर्ष की युवती आई जिस की दो महीने में शादी थी –शकल-सूरत अच्छी भली थी लेकिन उस की प्राब्लम थी कि जब वह हंसती है तो साइड के दो दांत बहुत भद्दे से दिखते हैं। लेकिन इस तरह की तकलीफ़ को बिना ब्रेसिस के ठीक किया ही नहीं जा सकता। इस उम्र की युवतियां एवं युवक तो इन टेढ़े-मेढ़े दांतों से बहुत परेशान होते हैं। वे कईं तरह के कंपलैक्स के शिकार हो जाते हैं—अंदर ही अंदर कुढ़ते रहते हैं। हंसना तो लगभग भूल ही जाते हैं---बस सब जगह पीछे ही पीछे रहते हैं।

और मुझे यह लिखने में कोई संकोच नहीं है कि अधिकांश लोग इस देश में इतनी महंगी ट्रीटमैंट अफोर्ड भी नहीं कर सकते--- 15-20 हज़ार रूपये एक आम परिवार के लिये दांतों को सीधा करवाने के लिये खर्च करने काफी होते हैं। वैसे तो ब्रेसेस के इलावा तारें लगवा कर ( removable orthodontic appliance) भी काफी कम खर्च में भी टेढ़े-मेढ़े दांतों को ठीक करवाया जा सकता है लेकिन मैं तो इन्हें एक कमज़ोर सी सैकेंड- ऑप्शन ही मानता हूं। वैसे भी बिलकुल साधारण से केसों को ही इन रिमूवेबल-एपलाईऐंसिस के ज़रिये ठीक किया जा सकता है।

तो अब थोड़ी सी बातें हो जायें कि इन ब्रेसिस से आखिर बचा कैसे जाये। तो, मेरी पहली सिफारिश है कि हर छः महीने के बाद किसी दंत-चिकित्सक से दांतों का चैक-अप ज़रूर ही करवाया जाये –इस के इलावा कोई रास्ता है ही नहीं है। इस का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि नियमित चैक-अप करवाने से दांत टेढ़े-मेढ़े होंगे नहीं और ब्रेसिस लगवाने की ज़रूरत बिलकुल पड़ेगी नहीं। हो सकता है कि आप ब्रेसिस लगवाने से बच जायें लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि अगर आप डाक्टर के पास जा कर नियमित बच्चों के दांतों की जांच करवाते रहे हैं तो शायद ब्रेसिस लगें लेकिन बहुत कम समय के लिये क्योंकि दांतों के टेढ़े-पन वाला केस बिलुकल सिंपल है, कोई कंपलीकेशन है ही नहीं।

तो चलिये इन टेढ़े-मेढ़ेपन से बचाव की कुछ बातें करते हैं----इलाज की बातें तो होती ही रहती हैं----सारा नैट भरा पड़ा है----लेकिन बचाव की बातें ही लोगों की समझ में आनी बंद हो गई हैं।

सब से पहले तो यह ज़रूरी है कि जब शिशु एक साल का हो जाये तो उसे डैंटिस्ट के पास ले कर जाना बहुत ज़रूरी है ---उस समय वह उस के मुंह के अंदरूनी हिस्सों के विकास का आकलन करेगा और उस के मां-बाप को उस के दूध के दांतों की केयर के बारे में बतायेगा।

जब आप बच्चे को हर छःमहीने के बाद डैंटिस्ट के पास लेकर जायेंगे तो कुछ विचित्र सी आदतें( oral parafunctional habits) जैसे कि अंगूठा चूसना, जुबान से बार बार अपने ऊपरी दांतों को धकेलना, दांतों से होंठ अथवा गाल काटते रहना इत्यादि ---ये सब आदतें दांतों को टेढ़ा-मेढा करने का काम करती हैं और जैसे ही डैंटिस्ट इन्हें नोटिस करता है वह इन आदतों से मुक्ति दिलाने में पूरी मदद करता है।

इसी तरह से अगर किसी बच्चे में मुंह से सांस लेने की आदत है ( mouth-breathers) तो भी इस आदत का निवारण किया जाता है क्योंकि इस आदत की वजह से ऊपर वाले आगे के दांत बाहर की तरफ़ आने लगते हैं।
अब अगर आप ने नोटिस किया है कि बच्चे के कुछ दूध वाले दांत तो गिरे नहीं हैं लेकिन उन के पास ही गलत जगह पर पक्के दांत निकलने लगे हैं। ऐसे में अगर आप बच्चे को डैंटिस्ट के पास ले जाकर दूध वाले दांत उखड़वायेंगे नहीं तो पक्के दांत किसी दूसरी जगह पर ही अपनी जगह बनानी शुरू कर देते हैं-----और अगर इन परिस्थितियों में दूध के दांत अथवा दांतों को सही समय पर निकलवा दें तो कुछ ही महीनों में पक्के दांत बिलकुल बिना कुछ किये हुये ही अपनी सही जगह ले लेते हैं----ऐसे बहुत से केस हमारे पास आते हैं जिन में थोड़ा सा कुछ करने से ही दांतों के टेढ़े-पन से बचा जा सकता है।

अगर बच्चा नियमित डैंसिस्ट के पास जाता है तो अगर कहीं दंत-क्षय नज़र आयेगा तो उस का इलाज तुरंत करवा लिया जाता है ताकि ऐसी नौबत ही न आये कि दूध के दांत को समय से पहले निकालने की ज़रूरत ही पड़े। यह इसलिये ज़रूरी है कि दूध के दांतों के गिरने का और नये पक्के दांत मुंह में आने का एक निश्चित टाईम-टेबल प्रकृति ने बनाया हुआ है और अगर इस के साथ कोई पंगा हो जाता है तो बहुत बार दांतों के टेढ़े-मेढ़ेपन से बचा नहीं जा सकता।

एक बात और भी है कि कुछ मां-बाप के मन में अभी भी यह बात घर की हुई है कि जब तक दूध के पूरे दांत गिर नहीं जायें तब तक किसी डैंटिस्ट के पास जाकर टेढ़े-मेढ़े दांतों के बारे में बात करने का भी कोई फायदा नहीं है। यह बिलकुल गलत धारणा है----बस आप तो नियमित रूप से हर छःमहीने बाद बच्चों को डैंटिस्ट के पास जा कर चैक करवाते रहें ----अगर कुछ करने की ज़रूरत होगी तो साथ साथ होता रहेगा।

और कईं बार डैंटिस्ट को मरीज़ का एक एक्सरे OPG -orthopantogram- भी करवाना होता है जिसमें उस के सभी दांत -जितने मुंह में हैं और जितने भी नीचे हड्डी के अंदर विकसित हो रहे हैं, उन सब का पता चल जाता है और फिर उस के अनुसार डैंटिस्ट अपना निर्णय करता है। ऐसे ही एक एक्स-रे की आप तसवीर यहां देख रहे हैं।

जो मैंने डैंटिस्ट्री की प्रैक्टिस में देखा है वह यही है कि अगर आप दांत की तकलीफ़ों से बच सकें तो ठीक है ---वरना, मुझे नहीं लगता कि दांतों की तकलीफ़ों का पूरा इलाज करवाना इस देश की एक फीसदी ( जी हां, 1% only)--- जनता के भी बस की बात है । ठीक है, शायद आप समझ रहे होंगे कि पैसे का चक्कर है----दांतों का इलाज करवाना अच्छा-खासा महंगा है लेकिन इस के इलावा भी क्वालीफाइड डैंटिस्ट भी तो कहां मिलते हैं---ज़्यादातर शहरों में ही मिलते हैं और जहां तक विशेषज्ञ डैंटिस्टों की बात है अर्थात् जिन्होंने किसी स्पैशलटी में एमडीएस की रखी होती है ---ये तो अकसर बड़े शहरों में अथवा डैंटल कालेजों में ही दिखते हैं। और जहां तक डैंटल कालेजों की बात है----इन टेढ़े-मेढ़े दांतों को सीधा करवाने के लिये ब्रेसिस लगवाने के लिये उन के चार्जेज़ भी हज़ारों में हैं...जिन्हें आम आदमी अफोर्ड कर ही नहीं सकता ---वो मैं बता रहा था कि इस इलाज में इस्तेमाल होने वाला सामान ही इतना महंगा है।

तो केवल रास्ता एक ही है कि बचाव में ही बचाव है और दंत-चिकित्सक के पास जाकर नियमित तौर पर हर छःमहीने के बाद जा कर जांच करवाते रहिये ताकि काफी हद तक तकलीफ़ों से बचा जा सके ---हां, कुछ तकलीफ़े हमें कईं बार अनुवांशिक तौर पर मिलती हैं जैसे कि अगर मां के दांत बहुत बाहर की तरफ़ हैं , पिता के जबड़े की हड्डी कुछ आगे की तरफ है तो भी अगर समय रहते मां-बाप को इन बातों के बारे में सचेत कर दिया जाये तो बेहतर होता है।
वैसे आप को मेरी ओपन-ऑफर है कि आप अपनी कोई भी डैंटल परेशानी मेरे को ई-मेल कर सकते हैं ---आप को तुरंत जवाब देने का मेरा वायदा है। वैसे याहू आंसर्ज़ के मेरे इस पन्ने को भी आप कभी-कभार खंगाल सकते हैं।

बुधवार, 6 अगस्त 2008

डाक्टर के मन में क्या क्या चल रहा होता है ?

मैं सर्विस कर रहा हूं ...रोज़ाना 35-40 मरीज़ दांतों के एवं मुंह की तकलीफ़ों के देखता हूं। हर मरीज को देखते हुये कुछ न कुछ मन में चल रहा होता है जिसे आज पहली बार ओपनली शेयर करने की इच्छा सी हो रही है। एक बार आज विचार आया कि चलो यह सब कुछ पोस्ट में ही डाल देता हूं...शायद आप को भी मुझ जैसे डाक्टरों के मन में झांकने का एक मौका मिल जाये।

चलिये शुरू से ही शुरू करता हूं ....दोस्तो, अभी मुझे दंत-चिकित्सक बने हुये कुछ अरसा ही हुआ था तो मुझे दांतों के ट्रीटमैंट का खोखलापन समझ में आने लगा था ( मेरा कहने का मतलब यही है कि दांतों की बीमारियों से बचाव तो इलाज से कईं गुणा कारगर है। .....इस की डिटेलड चर्चा फिर कभी करूंगा।) पहले तो यह बताना चाहता हूं कि कुछ हालात ऐसे थे, बनते गये कि मैं शुरू से ही सरकारी नौकरी में ही रहा हूं। बहुत बार मित्रों की तरफ़ से प्रैशर था कि क्या यार, तुम भी, अपना बढ़िया सा क्लीनिक खोलो और फिर देखो। लेकिन मैंने भी इस बारे में किसी की न सुनी.....क्योंकि मुझे सामाजिक विसंगतियां अपने फील्ड में भी दिखने लगीं। ज़ाहिर है इस के बारे में मैं क्या कर सकता था, इसलिये बस एक मूक दर्शक की भांति देखता रहा ...सब कुछ सुनता रहा।

यही देखा करता था कि नाना प्रकार के कारणों की वजह से अधिकांश लोगों के लिये तो यार दांत के दर्द से निजात पाने का केवल एक ही उपाय था कि चलो, दांत निकलवा कर छुट्टी करो। लेकिन दूसरी तरफ़ कुछ लोग एक दांत सड़ जाने पर उस पर हज़ारों ( जी हां, हज़ारों !!) रूपये खर्च कर के भी उसे बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। लेकिन मेरी नज़र में इस तरह के लोगों की गिनती बेहद कम रही...मेरा पूरा विश्वास है कि आज भी इस तरह के लोगों की गिनती आटे में नमक के ही बराबर है.....इस के बहुत से कारण हैं जिस का उल्लेख किसी दूसरी पोस्ट में करूंगा।

बहुत बार देखा कि हम सरकारी हस्पताल में काम करने वाले डैंटिस्टों की तो पीठ शाम को दोहरी हुई होती है और हमें अपने कुछ प्राइवेट प्रैक्टीशनर बंधु शाम को भी बड़े फ्रैश दिखते हें( हां, बहुत से दोस्त ऐसे भी हैं जो हम से कईं गुणा ज़्यादा मेहनत करते हैं )......अकसर सुनते हैं कि बाहर प्राइवेट प्रैक्टिस में तो ढंग के तीन-चार मरीज़ ही आ जायें तो समझो उस दिन का कोटा पूरा हो गया।

जब हम लोग हाउस-जाब कर रहे थे तो हमारे साथ काम करने वाली कुछ लड़कियां अकसर यह कमैंट बहुत मारा करती थीं कि आज तो इतने गंदे-गंदे मरीज़ आये कि बता नहीं सकती । गंदे से उनका मतलब होता था जिन के मुंह की हाइजिन बेहद खस्ता हालत में होती थी और मुंह से बदबू बहुत आया करती थी। मुझे पर्सनली यह सब सुन कर बेहद बुरा लगता था.....लेकिन मैंने खुले तौर पर उन के सामने कभी भी अपनी आपत्ति दर्ज नहीं की। मैं यही सोचा करता था कि यार, सरकारी कालेज में 550रूपये की सालाना फीस लेकर अगर सरकार ने हम लोगों को किसी काबिल किया है और वह भी इन "गंदे-गंदे" मरीज़ों के दिये हुये टैक्स से जमा हुये पैसे को खर्च कर के .....तो क्या हम अब इन का दामन कैसे छोड़ दें........अब जैसे भी हैं, हमें ही तो इन्हें ठीक-ठाक करना है, हमें डाक्टर बनाने में इन का भी पूरा योगदान है और अब जब हम लोगों की तरफ़ ये बहुत उम्मीद से देख रहे हैं तो हम इन्हें कहें कि हम तो भई किसी एनआरआई लड़की से शादी करवा के बाहर जा रहे हैं। मैंने ग्रेजुएशन 25 साल पहले किया था .....तब यह रिवाज बहुत था। मेरे भी बहुत से बैच-मेट्स इसी तरह से उन्हीं दिनों बाहर निकल गये थे। ( ऑफर तो मुझे भी थे और वह भी हाउस-जाब करते ही, लेकिन कभी मन ने हामी नहीं भरी ) ।

बात कहां से कहां निकल गई......हां, तो मैं कहता हूं कि जब भी मैं किसी भी मरीज को देखता हूं तो झट से पता तो लग ही जाता है कि इस की तकलीफ़ का प्रोगनोसिस ( इस का रिजल्ट क्या निकलने वाला है ) क्या है !

आप मेरी दांतों की बीमारियों से संबंधित पोस्टों को कभी फुर्सत में देखेंगे तो पायेंगे कि मैं अपने आप ही मरीज़ों द्वारा दांतों पर ठंडा-गर्म लगने के लिये बाज़ार से खरीद कर इस्तेमाल करने का घोर विरोधी हूं।

लेकिन पता नहीं पच्चीस साल बाद आज मेरे मन में यह विचार आया है कि यार, तुम ने तो कह दिया कि यह गलत है , वह गलत है......लेकिन कभी इन मरीज़ों की भी तो सोच कि अगर ये इस तरह की दवाई-युक्त पेस्टें भी न खरीदें तो ये आखिर करें क्या, ये करें तो क्या करें ??

मैंने अपने मन से कईं प्रश्न पूछ डाले......
क्या तेरे को लगता है कि यह अपने मसूड़ों का पूरा इलाज जिस में हज़ारों रूपये खर्च होंगे, एक मसूड़ों का विशेषज्ञ डाक्टर चाहिये.....कम से कम 10-15 बार उस विशेषज्ञ के चक्कर काटने के लिये क्या यह मरीज़ तैयार है ?
क्या इस मरीज़ की इस तरह की हैसियत है कि यह इस तरह का इलाज करवा सके ?
क्या यह तुम्हारे कहने मात्र से ही तंबाकू, गुटखा, पान-मसाला छोड़ देगा ?
...........
............
ये डाट्स मैंने इस लिये डाल के छुट्टी की है कि यह चर्चा अपने आप में बहुत लंबी चल निकलेगी क्यों कि मुझे इन सभी बातों का जवाब न ही में मिलता है।

और बात सही भी है कि जब तक मरीज़ अकसर ( बहुत ही ज़्यादा बार ) हम तक पहुंचता है उस के दांत एवं मसूड़े बहुत ही बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुके होते हैं......और हम चाह कर भी बहुत बार विभिन्न कारणों की वजह से उन्हें बचा पाने के लिये कुछ कर नहीं पाते हैं।

समस्या यह भी तो है ना कि हमारे यहां लोगों में बीमारी से बचने का कोई बढ़िया ढंग तो है नहीं....बस दांत दुखा तो दवा ले ली और बार बार दुखा तो उखड़वा दिया । तंबाकू, पान, गुटखा खूब खाया जा रहा है। इतनी विकट समस्या है कि मैं ही जानता हूं कि जब कोई भी मरीज सामने होता है तो हमें उस की हालत पर कितनी करूणा आ रही होती है क्योंकि हमें पता है कि कुछ भी हो, अब इस के दांत कुछ ही समय के मेहमान हैं.........लेकिन मरीज़ समझते हैं कि उन्हें तो कोई तकलीफ़ नहीं है, बस मसूड़ों से खून-पीप निकलती थी...लेकिन जब से ब्रुश करना छोड़ा है, वह भी बंद है.......बहुत से मरीज़ों की सोच यही है।

लेकिन फिर भी इन मरीज़ों में भी हमारी कोशिश यही होती है कि किसी भी तरह से अगर ये हमारी बातें मान लें तो इन के दांतों की आयु बढ़ सकती है , पायरिया रोग को फैलना किसी तरह से बंद हो जाये, मुंह से आने वाली बदबू जिस की यह बार-बार शिकायत करता रहता है, उस का किसी तरह से निवारण हो जाए।

एक बात ध्यान में आ रही है कि मैं Yahoo! Answers पर लोगों के दांतो के रोगों से संबंधित प्रश्नों का जवाब देता हूं और मुझे लगता है कि दांतों की समस्या निश्चित रूप से ही बहुत विकट है। अपने यहां तो लोग अकसर विभिन्न कारणों की वजह से क्वालीफाइड डैंटिस्ट के पास न जाकर, ऐसे ही किसी भी झोला-छाप के हत्थे चढ़ जाते हैं, लेकिन विकसित देशों में लोगों की परेशानियां कुछ अलग ढंग की हैं.....वे अपने डैंटिस्ट से बात करते इस कद्र डरते हैं कि जैसे वह कुछ हौवा हो.....पता नहीं उधर का सिस्टम ही कुछ ऐसा होगा। अगर मेरी बात का यकीन न हो तो मेरे से पूछे गये सवाल और मेरे द्वारा दिये गये जवाब इस लिंक पर जा कर पढ़ लीजियेगा। यहां पर क्लिक करें।

और हां, बात इतनी लंबी हो गई है कि अब विराम लेता हूं......लेकिन डाक्टर के मन में क्या क्या चल रहा होता है.....इस की अगली कड़ी शीघ्र ही लेकर आप के सामने हाज़िर होता हूं।

तब तक इतना ही कहना चाहूंगा कि दांतों की पूरा देखभाल किया करो, दोस्तो, रात को सोने से पहले भी ब्रुश कर लिया करो और रोज़ाना जुबान को टंग-कलीनर से ज़रूर साफ कर लिया करो. और डैंटिस्ट के पास हर छःमहीने में जाकर अपने दांतों का चैक-अप ज़रूर करवा लिया करो, दोस्तो...........because they say
......a stitch in time saves nine !!
Please take care !!

शुक्रवार, 6 जून 2008

जब दांतों में खाना फंसने से आप परेशान होने लगें...


दांतों में खाना फंसना एक बहुत ही आम समस्या है। लेकिन इस विषय पर कुछ विशेष बातें करने से पहले चलिये यह तो समझ लें कि प्रकृति ने हमारे दांतों, जिह्वा, गालों की संरचना एवं कार्य-प्रणाली ऐसी बनाई है कि दांतों के बीच सामान्यतः कुछ भी खाद्य पदार्थ फंस ही नहीं सकता। जिह्वा एवं गालों के लगातार दांतों पर होने वाले घर्षण से हमारे दांतों की सफाई होती रहती है। अगर कभी-कभार कुछ फंस भी जाता है तो वह कुल्ला करने मात्र से ही निकल जाता है। लेकिन अगर किसी व्यक्ति के किसी विशेष दांत अथवा दांतों में ही खाना फंस रहा है तो समझ लीजिये की कहीं न कहीं तो गड़बड़ है जिस के लिये आप को दंत-चिकित्सक से अवश्य परामर्श करना होगा।

आम तौर पर देखा गया है कि बहुत से लोग ऐसे ही टुथ-पिक या दिया-सिलाई की तीली से फंसे हुये पदार्थों को कुरेदते रहते हैं। यह तो भई समस्या का समाधान कदापि नहीं है। इस से तो कोमल मसूड़े बार बार आहत होते रहते हैं। इसलिये टुथ-पिक के इस्तेमाल की तो हम लोग कभी भी सलाह नहीं देते हैं.....इसे नोट किया जाए। कुछ लोग अपने आप ही इस समस्या से समाधान हेतु इंटर-डैंटल ब्रुश ( अर्थात् दो दांतों के बीच में इस्तेमाल किया जाने वाला ब्रुश) को यूज़ करना शुरू कर देते हैं । लेकिन एक बात विशेष तौर पर काबिले-गौर है कि दांतों में खाद्य-पदार्थों के फंसने की समस्या का अपने ही तरीके से समाधान ढूंढने का सीधा-सीधा मतलब है ......दंत-रोगों को बढ़ावा देना।

अब ज़रा हम दांतों में खाना फंसने के आम कारणों पर एक नज़र डालेंगे....

दंत-छिद्र ( दांतों में कैविटीज़)

मसूड़ों की सूजन ( पायरिया रोग)

मसूड़ों की सर्जरी के बाद

दंत-छिद्रों और पायरिया का समुचित उपचार होने के पश्चात् इस समस्या का समाधान संभव है। जहां तक मसूड़ों की सर्जरी के बाद दांतों में फंसने की बात है, यह आम तौर पर कुछ ही सप्ताह में ठीक हो जाता है क्योंकि थोड़े दिनों में मसूड़े एवं उस के साथ लगे उत्तक अपनी सही जगह ले लेते हैं।

कईं बार ऐसे मरीज़ मिलते हैं जिन के दांतों में स्वाभाविक तौर पर ही काफी जगह होती है और उन में कभी कभार थोड़ा खाना अटकता तो है....लेकिन केवल कुल्ला करने मात्र से ही सब फंसा हुया निकल जायेगा।

ध्यान में रखने लायक कुछ विशेष बातें.....

कुछ ऐसे लोग अकसर दिखते हैं जो एक छ्ल्ले-नुमा आकार में छोटे-छोटे तीन औज़ार हमेशा अपने पास ही रखते हैं...एक दांत खोदने के लिये, दूसरा कान खोदने के लिए और तीसरा नाखून कुरेदने के लिये। ऐसे शौकिया औज़ारों के परिणाम अकसर खतरनाक ही होते हैं।

कईं बार जब कोई मरीज़ दंत-चिकित्सक के पास जा कर किसी दांत में कुछ फंसने ( उदाहरण के तौर पर कोई रेशेदार सब्जी जैसे पालक, साग, बंद-गोभी, मेथी इत्यादि) मात्र से ही दंत-चिकित्सक को यह संकेत मिल जाता है कि इस दांत में या अमुक दो दांतों के बीच कुछ गड़बड़ है। चाहे मरीज को अपने दांत देखने में सब कुछ ठीक ठाक ही लगे, लेकिन उपर्युक्त दंत-चिकित्सा औजारों से उस स्थान पर दंत-छिद्र अथवा मसूड़ों की तकलीफ़ की पुष्टि की जाती है। आवश्यकतानुसार दांतों का एक्स-रे परीक्षण भी कर लिया जाता है।

जहां कहीं भी मुंह में दांतों के बीच या कहीं भी खाना फंसेगा, स्वाभाविक है कि यह वहां पर सड़ने के बाद बदबू तो पैदा करेगा ही और साथ ही साथ आस-पास के दांतों के दंत-क्षय (दांतों की सड़न) से ग्रस्त होने की संभावना भी बढ़ जाती है।

इसलिये दांतों में खाना फंसने का इलाज स्वयं करने की बजाए दंत-चिकित्सक से समय पर परामर्श लेने में ही बेहतरी है।

बुधवार, 4 जून 2008

बच्चों के दांतों को क्यों लेते हैं इतना लाइटली !!

मुझे रोज़ाना अपनी ओपीडी में बैठे बैठे यह प्रश्न बहुत परेशान करता है.......कि आखिर लोग बच्चों के दांतों को इतना लाइटली क्यों लेते हैं। वास्तविकता यह है कि ये दूध के दांत भी कम से कम पक्के दांतों के जितना ही महत्व तो रखते ही हैं....शायद उन से भी ज़्यादा, क्योंकि यह बिल्कुल ठीक कहा जाता है कि ये दूध के दांत तो पक्के दांतों की नींव हैं।

लेकिन मां-बाप यही समझ लेते हैं कि इन दूध के दांतों का क्या है, इन्होंने तो गिरना ही है और पक्के दांतों ने तो आना ही है। इसलिये बच्चों को डैंटिस्ट के पास ले जाने का काहे का झंझट लेना। लेकिन यह बहुत बड़ी गलतफहमी है।

और यह धारणा बच्चे के बिल्कुल छोटे होते ही शुरू हो जाती है। बच्चे के मुंह में दूध की बोतल लगी रहती है और वह सो जाता है जिस की वजह से उस के बहुत से दांतों में कीड़ा लग जाता है......( क्या यह वास्तव में कोई कीड़ा ही होता है , इस की चर्चा किसी दूसरी पोस्ट में करूंगा।) लेकिन फिर भी मां-बाप डैंटिस्ट के पास जाने से बचते रहते हैं।

जब बच्चों के दांत इतने ज़्यादा सड-गल जाते हैं कि वह दर्द की वजह से रात-रात भर मां-बाप को जागरण करने पर मजबूर करता है तो मां-बाप को मजबूरी में डैंटिस्ट के पास जाना ही पड़ता है। लेकिन अकसर बहुत से केसों में मैं रोज़ाना देखता हूं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.....दांत के नीचे फोड़ा( एबसैस) सा बना होता है......और बहुत बार तो इन दूध के दांतों को निकालना ही पड़ता है। अब शायद कईं लोग यह समझ रहे होंगे कि दूध के दांत ही तो हैं....इन्हें तो वैसे भी निकलना ही था....अब अगर डैंटिस्ट को इन्हें निकालना ही पड़ा तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा।
इस का जवाब देने की कोशिश कर रहा हूं ....ठीक है दूध के दांत गिरने हैं....लेकिन मुंह में मौजूद दूध के बीस दांतों के गिरने का अपना एक निश्चित समय है। वह समय कौन सा है ?........वह समय वह है जब उस के नीचे बन रहा पक्का दांत इतना तैयार हो जाता है कि उस के ऊपर आने के प्रैशर से दूध के दांत की जड़ धीरे धीरे घुलनी ( resorption of deciduous teeth) शुरू हो जाती है कि वह दूध का दांत धीरे धीरे इतना हिलना शुरू हो जाता है कि आम तौर पर बच्चा स्वयं ही उसे हिला हिला कर निकाल देता है.....( और हमारी और आप की तरह किसी मिट्टी वगैरा में फैंकने का टोटका कर लेता है !!!)...

यह तो हुया दूध के दांत के दांत का नार्मल गिरना......क्योंकि इस के गिरते ही कुछ दिनों में नीचे से आ रहा पर्मानैंट दांत इस की जगह ले लेता है और सब कुछ नार्मल हो जाता है। यह संतुलन कुदरत ने बेहद नाज़ुक सा बनाया हुया है....लेकिन यह संतुलन बिगड़ता है तब जब हमें बच्चों के दूध के दांतों को उन के नार्मल गिरने के समय से पहले ही निकलवाना पड़ जाता है...जैसा कि आज कल खूब हो रहा है क्योंकि बच्चे किसी के भी कहने में हैं नहीं....एक-एक, दो-दो हैं...इसलिये इन की पूरी दादागिरी है जनाब.......मॉम-डैड को टाइम है नहीं , बस जंक-फूड से, महंगी महंगी आइस-क्रीम से , विदेशी चाकलेटों के माध्यम से ही इन के सामान्य स्वास्थ्य के साथ साथ दांतों की सेहत का भी मलिया मेट किया जा रहा है। और फिर डैंटिस्टों के क्लीनिकों के चक्कर पे चक्कर................

पच्चीस साल डैंटल प्रैक्टिस करते करते यही निष्कर्ष निकाला है इलाज से परहेज भला कहावत दंत-चिकित्सा विज्ञान में बहुत ही अच्छी तरह फिट होती है। क्योंकि ट्रीटमैंट माडल तो बाहर के अमीर मुल्क ही नहीं निभा पाये तो हम लोगों की क्या बिसात है । सरकारी हस्पतालों के डैंटिस्टों के पास वर्क-लोड इतना ज़्यादा है कि क्या कहूं.......सारा दिन अपने काम में गड़े रहने के बावजूद भी ......डैंटिस्ट के मन को ही पता है कि वह मरीज़ों के इलाज के पैरामीटर पर कहां स्टैंड कर रहा है। इस का जवाब केवल उस सरकारी डैंटिस्ट की अंतर-आत्मा ही दे सकती है। दूसरी तरफ देखिये तो प्राइवेट डैंटिस्ट का खर्च आम आदमी नहीं उठा सकता ....प्रोफैशन में पूरे पच्चीस साल पिलने के बाद अगर ऐसी स्टेटमैंट दे रहा हूं तो यह पूरी तरह ठोस ही है........प्राइवेट डैंटिस्ट के पास जाना आम आदमी के बस की बात है नहीं.......एक तरह से देखा जाये तो वह भी क्या करे......उस ने भी इतने साल बिताये हैं पढ़ाई में, डैंटल चिकिस्ता के लिये इस्तेमाल होने वाली दवाईयां इतना महंगी हो गई हैं, प्राइवेट क्लीनिकों के खर्च इतने हो गये हैं, ए.सी -वे.सी के बिना अब बहुत मुश्किल होती है..................इतने ज़्यादा फैक्टर्ज़ हैं कि क्या क्या लिखूं। कहना बस इतना ही चाह रहा हूं कि डैंटल ट्रीटमैंट महंगी है और इस के बहुत से कारण हैं।

अच्छा तो मैं बात कर रहा था बच्चों के दूध के दांत समय से पहले जब निकलवाने पड़ जाते हैं तो अकसर गड़बड़ होने के चांस बहुत बढ़ जाते हैं ....क्यों ? ....वह इसलिये कि इन दूध के दांतों ने एक तरह से पक्के दांतों की जगह घेर कर रखी होती है और जब ये ही समय से पहले निकल जाते हैं तो कईं बार इन पक्के दांतों को अपनी निश्चित जगह पर जगह न मिलने के कारण कहीं इधर-उधर निकलना पड़ता है...और कईं बार तो ये जगह के अभाव के कारण मुंह में निकल ही नहीं पाते और जबड़े की हड्डी में ही दबे रह जाते हैं। और बहुत बहुत टेढ़े-मेढ़े होने की वजह से फिर इन के ऊपर तारें /ब्रेसेज़ लगवाने की तैयारियां शुरू हो जाती हैं जिन में काफी पैसा भी खर्च होता है और समय भी बहुत लगता है।

तो, सलाह यही है कि छोटे बच्चों को एक साल की उम्र में डैंटिस्ट के पास पहली बार ले कर जाना बेहद लाजमी है। उस के बाद हर छःमहीने बाद हरेक बच्चे का डैंटिस्ट के द्वारा देखा जाना बहुत बहुत ज़रूरी है क्योंकि हम सब ने बहुत अच्छी तरह से पढ़ रखा है ना कि a stitch in time saves nine......तो फिर यहां भी यह बात बिल्कुल फिट बैठती है।

इसी तरह की बच्चों के दांतों की बातें मैं अपनी कुछ अगली पोस्टों में करूंगा और साथ में एक्स-रे के माध्यम से अपनी बात स्पष्ट करता रहूंगा। तो, दांतों और मसूड़ों के परफैक्ट स्वास्थय का सुपरहिट फार्मूला तो यहां लिख ही दूं........रोज़ाना दो-बार ब्रुश करें.....रात को सोन से पहले ब्रुश करना सुबह वाले ब्रुश से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है और इस के साथ ही साथ सुबह सवेरे रोज़ाना जुबान साफ करने वाली पत्ती ( टंग-क्लीनर ) से जीभ रोज़ साफ करनी भी निहायत ज़रूरी है।

बाकी बातें फिर करते हैं, आज पहली बात अपनी पोस्ट आन-लाइन लिख रहा हूं, इसलिये डर भी रहा हूं कि कहीं कोई गलत कुंजी न दब जाये और यह गायब ही ना जाये.......ऐसा एक-दो बार पहले हो चुका है। इसलिये अब मैं तुरंत पब्लिश का बटन दबाने में ही बेहतरी समझ रहा हूं।