शनिवार, 2 जनवरी 2021

किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से ....

कितना खूबसूरत फ़रमाया जनाब गुलज़ार साब ने ...किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से....लेकिन आज उन को उठा कर पढ़ने की फ़ुर्सत कम हो गई दिखती है।

किताबों-रसालों की बातें याद आती हैं तो बचपन के दिनों में किराये पर लाकर जो कॉमिक्स और पत्रिकाएं पढ़ी हैं वही शायद पूरी शिद्दत से पढ़ी गई हैं ...वरना अपनी खरीदी हुई या कहीं से उपहार स्वरूप मिली किताबों की हम लोग अब कहां परवाह करते हैं... कहीं किसी रैक पर पड़ी धूल चाटती रहती है...अब जो है सो है ... आज का युवा सोचता है कि जो कुछ है नेट पर है, किंडल पर है, ई-बुक्स हैं, पीडीएफ है.....सब कुछ वहां पड़ा है। लेकिन मुझे लगता है ..यह मेरे जैसे लोगों का व्यक्तिगत मत हो सकता है कि इन सब के होते हुए भी किसी भी किताब की हार्ड-कापी हाथों में लेकर पढ़ना और नेट पर किसी पत्रिका को पढ़ना बिल्कुल वैसे ही दो अलग प्लेटफार्म हैं जैसे कि बचपन में हम लोग सिनेमाघर में जा कर फिल्म देखते थे और आज ओटीटी प्लेटफ़ार्म ...नेटफ्लिक्स, अमेज़ान आदि पर जो फिल्म देखते हैं ...मैं अपने बारे में कह सकता हूं कि मेरे लिए यह ज़मीन आसमां का फ़र्क है ....अब इसमें क्या ज़मीन  और क्या आसमां, आप समझ गए होंगे। 

सोचने वाली बात यह है कि जब हम खुद की खरीदी हुई अपनी पसंद की किताबें ही नहीं पढ़ते तो दूसरों से उपहार में मिली किताबें कहां पढ़ेंगे ... मेरे पास अपनी एक छोटी सी किताबों की लाइब्रेरी है... हर किताब मेरे पसंद की ...हिंदी, इंगलिश, पंजाबी और उर्दू ज़ुबान की किताबें हैं ...एक एक किताब अपनी खरीदी हुईं...पिछले सात-आठ साल से सोच रहा हूं कि इन में दो किताबें मुझे जल्दी से जल्दी पढ़नी हैं...फणीश्वरनाथ रेणु की महान् कृति मैला आंचल जिस पर फिल्म भी बन चुकी है ...और श्रीलाल शुक्ल की बहुचर्चित किताब राग दरबारी.... लेकिन मेरे से यह नहीं हो पाया....हर बार दस-बीस पन्ने पढ़ता हूं, फिर कोई दूसरा काम निकल आता है। 

 

 मैं कईं बार बैठा यही सोचता हूं कि जो पत्रिकाएं बचपन से लेकर 28-30 साल की उम्र तक किराये पर लेकर पढ़ी जाती थीं, उन्हें पढ़ना का एक अपना अलग ही मज़ा हुआ करता था। छुटपन से ही हम ने देखा कि हमारे घर अखबार के इलावा इलस्ट्रेटिड वीकली, धर्मयुग आता था .. और कभी भी सरिता भी । और चंदामामा और नंदन मैं साईकिल पर जा कर लेकर आता था ...इसके अलावा लोटपोट, मायापुरी और फिल्मी कलियां किराये पर ही लाकर पढ़ते थे ...फिर जब कॉलेज जाने लगे तो फिल्म-फेयर और स्टॉर-डस्ट भी किराए पर मिलने लगीं .. शायद एक रूपये रोज़ का किराया होता था ...आगे चल कर स्टार-डस्ट का दैनिक किराया दो रूपये हो गया था ...और जिस लोटपोट की मैं बात कर रहा हूं वे तो हम लोग तीन चार इक्ट्ठा ही ले आते थे ...25 पैसे प्रति लोटपोट के हिसाब से उसे सुबह लाईं 4 लोटपोट का एक रूपया देना होता था अगर उन्हें आप शाम तक लौटा दें ...वरना अगले दिन लौटाने पर दो रूपये देने होते थे .. लेकिन यह एक और दो रूपये का अंतर भी तो हम लोगों को राई और पहाड़ का अंतर दिखता था ....दिखता ही नहीं था, हमारी छोटी छोटी जेब को पता भी चलता था ...इसलिए घर पर लाते ही इन्हें पढ़ने को प्राथमिकता दी जाती थी। 

जैसे जैसे लोगों की जेबें बड़ी होती गईं ....इस तरह का साहित्य पढ़ने, पढ़ाने की बातें फ़िज़ूल समझी जाने लगीं ... रसाले छपने भी कम होते गए ....पहले एक परिवार जब सफर के लिए गाड़ी में चढ़ता था तो उस के पास एक ट्रंक, होलडाल, सुराही के साथ साथ बड़े-छोेटों के लिए दो-तीन रसाले भी ज़रूर हुआ करते थे जिन्हें प्लेटफार्म ही से खरीदा जाता था...

अकसर मैंने यह नोटिस किया है कि साहित्य पढ़ने-पढ़ाने को इतनी अहमियत नहीं दी जाती ....लेकिन हमारी आंखें खोलने के लिए, हमारे बौद्धिक विकास के लिए और दिलो-दिमाग का पैराशूट खोलने के लिए साहित्य बेहद ज़रूरी है ... दुःख की बात है कि स्कूल में भी लोग साहित्य को अच्छे से नहीं पढ़ते ....बस पी.सी.एम और पी.सी.बी में स्कोर करने के चक्कर में ऐसा फंसते हैं कि कभी भी किताबों की तरफ़ रुझान पैदा हो ही नहीं पाता...

मुझे जितना भी वक्त मिलता है कुछ न कुछ पढ़ने का कोशिश तो ज़रूर करता हूं ...मेरे विचार में हम सब को अपने पास एक किताब ज़रूर रखनी चाहिए ...कहीं भी जाएं ...जहां भी दस-बीस मिनट का वक्त खाली मिले कुछ न कुछ पढ़ना चाहिए...मुझे तो मेरी पढ़ने की आदत से बहुत फायदा हुआ है ...और रोज़ाना अखबार पढ़ने से मैंने जितना सीखा है उतना तो स्कूल-कॉलेज में भी नहीं सीखा...मैं हर किसी को कहता हूं कि पढ़ने की आदत डालिए ....हम कभी भी इतने तुर्रम खां नहीं बनेंगे कि हम कहें कि हम सब कुछ जानते हैं...हमें और कुछ जानने की क्या ज़रूरत .... किताबें हमारा सच्चा साथी हैं....इस से हम लोग सफर में, या कहीं और भी बेवजह की बे-सिर पैर की गॉसिप से भी बच जाएंगे ...जिस की वजह से सर ही भारी होता है ...और कुछ नहीं .... यह जो गॉसिप है इस से किसी का आज तक भला हुआ नहीं ...न तो आप किसी का कुछ बिगाड़ सकते हैं और न ही कोई दूसरा आप का बाल भी बांका कर सकता है ...किताबों की दुनिया को खंगालिए..। 

एक बात बतानी तो भूल ही गया ... मैं अकसर आते जाते कबाड़ी की दुकान पर बहुत सी अंग्रेज़ी की किताबें - नावल इत्यादि पड़े देखता हूं ..कुछ महीने पहले मैंने खुशवंत सिंह की लिखी एक किताब और उन के आटोग्रॉफ के साथ किसी को गिफ्ट की हुई रददी में पड़ी देखी ....मुझे बड़ा दुःख हुआ...और एक बार किसी नामचीन डाक्टर द्वारा लिखी गई एक किताब एक मुख्य-मंत्री और उस की पत्नी के नाम भेंट की हुई ...डाक्टर के हस्ताक्षर के साथ, मैंने रद्दी में पड़ी देखी ...उस दिन भी बहुत अफसोस हुआ ...यह सब इस बात का आइना है कि हम लोग किताबों की कितनी क़द्र करते हैं !

एक बात तो बतानी भूल ही गया ... मैंने कुछ अरसा पहले 50-60 पुरानी एक इलस्ट्रेटेड वीकली और धर्मयुग की एक प्रति को डेढ़ हज़ार रूपये में खरीदा ... ये अब कहीं मिलती नहीं लेकिन मुझे ये किसी भी कीमत पर ज़रूरी चाहिए थीं....और मेरे पास कुछ दुर्लभ किताबों में से एक 160 साल पुरानी डिक्शनरी भी है....जिसे भी भारी कीमत पर खरीदा गया ....बस इस तरह का खर्च करते वक्त मैं यह सोच लेता हूं कि मैंने चार-पांच पिज़्जा खा लिए (जो कि मैं कभी नहीं खाता..) ...इस से इस तरह की फ़िज़ूलखर्ची का झटका थोड़ा सा कम लगता है ... इन दुर्लभ किताबों में क्या है, क्या दबा पड़ा है, ये क्या संजोए पड़ी हैंं, इस के बारे में फिर किसी दिन बात करेंगे...

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

हम सब के चेहरों से जल्दी ही मॉस्क हट जाएं....काश!

मेरी तरफ़ से मेडीकल व्यवस्था से जुड़े हर एक शख़्स के लिए आज नववर्ष की शुभ बेला पर एक ही दुआ है- ईश्वर हम सब के चेहरों से जल्दी ही मॉस्क हटा दे .... शायद नए वर्ष का यह सब से बेशकीमती तोहफ़ा होगा..

आज कल नए वर्ष की शुभकामनाएं भिजवाना बड़ा सस्ता सा काम हो गया है ...हमारे ज़माने में नहीं हुआ करता था ...उन दिनों अगर आप को किसी को नये साल की ग्रीटिंग्ज़ भिजवानी हैं तो आप को दो चार पांच दस रूपये खर्च कर के उसे नए साल का ग्रीटिंग कार्ड भिजवाना पड़ता था....बहरहाल, यह तो एक पर्सनल सा मुद्दा हुआ। मुझे याद है कुछ लोग इस काम के लिए दर्जनों कार्ड थोक-रेट पर खरीद लिया करते थे...लेकिन हम लोगों ने ऐसा कभी भी ऐसा नहीं किया- एक तो इन बेकार चीज़ों के लिए इतने पैसे ही नहीं होते थे और दूसरा, इन सब चोंचलों की निरर्थकता बचपन से ही समझ आने लगी थी। 

मुझे तब भी ये सब कार्ड-वार्ड भिजवाना बड़ा नीरस सा काम लगता था (याद नहीं अभी तक दो-चार कार्ड भी किसी को भिजवाएं हों ...और आज भी सोशल मीडिया पर एक क्लिक से 256 लोगों को बधाई संदेश भिजवाने में मैं तो बड़ा गुरेज करता हूं...ग्रीटिंग कार्ड के ज़माने में भी जब हम किसी को हाथ से लिख कर ख़त भिजवाते थे या दूसरों से ऐसे हस्तलिखित संदेश पाते थे,  उसकी तो बात ही अलग हुआ करती थी..अब सोशल मीडिया के सस्ते दौर में कौन हिसाब रखता फिरे कि किस को शुभकामनाएं भेजी, किस को मिलीं और किस ने वापिस हमें तुरंत लौटाईं भी या नहीं। मुझे इन सब पचड़ों से बेहद चिढ़ है।😁

हम लोगों ने जैसा बचपन से देखा-सुना, आज भी वैसा ही करते हैं...सुबह उठ कर समूची कायनात के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर लेते हैं...और नए साल में भी किसी को भी फोन या मैसेज करने से कहीं बेहतर मुझे यही लगता है कि दुनिया के हर शख़्स, हर परिंदे और हरेक पेड़ के लिए यह वर्ष नई उम्मीद एवं नई उमंग, खुशियां ले कर आए...परिंदे गुलेल से, जानवर कसाई से और हरे-भरे पेड़ पढ़े-लिखे लोगों की कुल्हाड़ी से बचे रहें...मेरी यही अरदास है। और सब को रहने के लिए एक ढंग की जगह मिले, खाना-पीना ठीक से खाएं, स्वस्थ रहें और इतने खुश रहें सभी कि चिंताएं उन के पास फटक न पाएं....

यह सब लिखते लिखते मुझे एक फिल्मी गीत याद आ गया....कहने को तो यह फिल्मी गीत है, लेकिन मैं इसे एक भजन मानता हूं...यह मेरे दिल के बहुत करीब है...क्योंकि ये जिन मुद्दों की बात उठा रहा है वे सब मेरे दिल के बेहद करीब हैं....इसलिए मैं अपने आप को ज़मीन पर टिकाए रखने के लिए अकसर सुनता रहता हूं और जब भी इसे सुनता हूं तो भावुक हो जाता हूं...मुझे पूरी उम्मीद है कि आप ने भी इस के लिरिक्स की एक एक पंक्ति की तरफ़ ध्यान तो दिया ही होगा...गीतकार की अद्भुत रचना। एक बार तो मुझे यह भी ख्याल आया था कि इस अरदास भरे गीत के बोल लिख कर फ्रेम करवा कर अपने आसपास टांग लेने चाहिए.. ताकि ये सब बातें याद रहें कि दुनिया में अभी भी हर किसी को बराबरी, घर, दो जून की रोटी, सामाजिक न्याय मयस्सर नहीं है और इस के लिए निरंतर काम करने की ज़रूरत है जब तक कि लाइन में खड़े आखिरी इंसान तक उस का हिस्सा सम्मान के साथ न पहुंच जाए!

आज नए वर्ष बेला पर मैं भी यही अरदास कर रहा हूं ....

 

 ओह! मैं भी नए वर्ष की पहली सुबह ही कहां से किधर जा  निकला....बात तो सीधी सादी शुभकामनाएं देने की थी ...मेडीकल व्यवस्था से जुड़े हरेक वर्कर के लिए मैं आज यह दुआ करता हूं कि हरेक के चेहरों से मॉस्क हट जाएं...बहुत मुश्किल होता है सारा दिन एन-95 चढ़ा कर अपना काम करना, मरीज़ों से बोलना-बतियाना ....कुछ घंटों के बाद ही हालत खराब होने लगती है ...सर भारी हो जाता है और तबीयत नासाज़ - और पी पी ई किट डाल कर जो लोग पूरा दिन ड्यूटी कर रहे हैं उन को भी अब इस सब से मुक्ति मिले ....जल्दी से कोरोना का नाश हो और हम सब एक बार फिर से खुली फ़िज़ाओं में खुशनुमा हवाओं का लुत्फ़ उठा पाएं...और इस के साथ ही जन साधारण को भी इन नकाबों से मुक्ति मिले ...छोटे छोटे बच्चों को भी मॉस्क लगा कर बाहर निकालने की मजबूरी देखता हूं तो मन दुःखी होता है। एक ज़माना था जब मेडीकल स्टॉफ के अलावा अगर कोई दूसरा इंसान फेसमास्क लगाए दिख जाता था तो हम समझ जाया करते थे कि यह शख़्स किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त है, इस की इम्यूनिटि डॉउन है ... कोई बड़ा लफड़ा है इस के साथ। लेकिन अब तो फेस-मॉस्क सब के लिए सरदर्दी बन चुकी है ...लेकिन जब तक कोरोना का संकट इसे लगाए रखना और ठीक से लगाए रखना हमारी सब की मजबूरी है ...

एक तो मेरे जैसे दो कौड़ी के लेखक जो लगभग सभी हिंदी फिल्में कईं कईं बार देख चुके हैं , उन के गीत आत्मसात कर चुके हैं...उन को लिखते वक्त हर सिचुएशन पर फिल्माए गीत जैसे बीच बीच में आकर कहते हैं कि हमें भी तो इतना पसंद करते हो ..बार बार सुनते हो, हमारे बारे में भी कहो ..ठीक है बाबा, ठीक है .....कहे देता हूं ...तो जनाब यह गीत है हमारे बचपन में आई फिल्म सच्चा झूठा का ....फिल्म मुझे बहुत पसंद थी और यह गीत भी .... यह भी उन सब नकाबों की बात कर रहा है जो हम सब ने ओढ़ रखे हैं....इस गीत में एक जगह यह कहा गया है ..."सब ने अपने चेहरों के आगे झूट के परदे हैं डाले ....!" लीजिए, आप भी सुनिए हमारे बचपन के दौर के मेरे इस बेहद पसंदीदा गीत को ....😀