अभी अभी आज का अखबार उठाया तो बच्चों पर निगरानी रखने की कोई बात पहले पेज पर देख कर मैंने उस तरफ़ कुछ खास तवज्जोह नहीं दी..शायद परसों ही की बात है कि कहीं पर एक विज्ञापन दिखा था कि आप जब घर पर नहीं भी हैं तो फलां फलां गैजेट्स के ज़रिये बच्चों पर नज़र रख सकते हैं...बड़ा अजीब लगा था, मानो बच्चे न हो गये, गैंगस्टर हो गये।
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नहीं, ऐसा कुछ नहीं था...और जहां तक स्कूलों के बरामदों में कैमरे लगाने की बात है ...वह तो पुरानी बात हो गई...१४-१५ साल पहले मैं अपने स्कूल गया....अमृतसर का डीएवी स्कूल....मैंने बरामदों में इतना सन्नाटा पसरा देखा...फिर कैमरे देखा...सब समझ में आ गया....उस दिन यही लगा कि इन्हीं बरामदों में हम लोग कितनी मस्ती किया करते थे...लेकिन उस दिन मजेदार बात यह हुई कि हमारे प्रिंसीपल साहब ने (जो १९७५ में हमें इंगलिश पढ़ाया करते थे) मुझे इतने वर्षों बाद भी मेरे नाम से पुकारा जब मैंने उन्हें चरण-स्पर्श किया। उस दिन मेरी भी रूह गद गद हो गई थी। मैंने हैरानगी प्रगट की तो उन्होंने कहा ...कमरे में मौजूद दूसरे लोगों के सामने....."तुम जैसे स्टूडेंट्स को हम कैसे भूल सकते हैं!"
हां, तो वापिस सीबीएसआई वाली बात पर लौटते हैं जिस के मुताबिक अब बच्चों पर रोज़ाना निगरानी का यह आलम होगा कि मास्साब रोज़ाना बच्चों की गतिविधियों को ऑनलाइन डालते रहेंगे और मम्मी पापा यह रोजनामचा रोज़ाना देखते रहा करेंगे।
आप को यह पढ़ कर कैसा लगा?...चलिए, मुझे तो जो लगा सो लगा, उस से फ़र्क भी क्या पड़ना है...लेिकन मुझे अचानक गुज़रा हुआ ज़माना याद आ गया...जब मां-बाप केवल बच्चे के दाखिले के लिए ही जाया करते थे....लेकिन पहले लोगबाग भरोसेलायक थे...अपनापन था, प्यार, अखलाक था...अब तो बस हम लोग सोशल-मीडिया के अलावा कुछ जानते ही नहीं, कईं बार ऐसा ही लगता है। मुझे याद है कि जब मैंने पांचवी कक्षा में उस स्कूल में दाखिला लेना था, तो मेरे पिता जी के दफ्तर के एक साथी का बेटा उसी स्कूल में टीचर था, मुझे उसी के साथ एक दिन उसी के साईकिल पर दाखिले के लिए रवाना कर दिया गया...उन्होंने ही टेस्ट दिलवाया और लो जी हो गया दाखिला।
बच्चों पर नज़र रखना तो दूर ...मां-बाप स्कूल जाया ही नहीं करते थे...और जिन के मां-बाप बार बार टीचरों के पास आया करते थे..इस बात को ठीक नहीं समझा जाता था...ऐसा मैं समझता था....हां, एक दो छात्रों की जिन की अकसर पिटाई हुआ करती थी तो उन के मां-बाप कभी कभी दिख जाया करते थे...उलाहना ले कर आते हुए....और मुझे अपने मास्टर साहब की छठी कक्षा की वह बात भी नहीं भूलेगी जब एक ऐसे ही मौके पर उन्होंने मेरी तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि पिटाई तो इस की भी हो जाती है, इस के घर से तो कभी कोई नहीं आया....और मैंने घर आते ही जब यह बात सब के साथ शेयर कर दी। मजाक में वह भी कहने लगे ...हम भी जाया करेंगे।
लेिकन कभी स्कूल के दिनों में घर से कोई भी नहीं गया....बस, एक बार याद है मुझे बहुत से इनाम-वाम मिलने थे तो मेरी माता जी अपनी एक सखी के साथ ज़रूर आई थीं, मुझे बहुत अच्छा लगा था. और वह आज तक उस दिन को याद कर खुश हो जाती हैं...they rightly say... "We remember moments, not days!"
हां, एक काम की बात तो बतानी भूल ही गया....अगर इतनी ही आज़ादी थी तो बच्चों पर नज़र कैसे रखी जाती थी...उस का भी उन दिनों एक जुगाड़ था स्कूल वालों के पास...तैमाही (या तिमाही?), अर्द्धवार्षिक एवं नौमाही परीक्षा के बाद (तब हम लोग ऐसे ही परीक्षाओं को नाम दिया करते थे) ...एक पोस्टकार्ड पर उस बच्चे के द्वारा प्राप्त किए गये अंकों का पूरा विवरण डाक से भेजा जाता था....मेरे और मेरे जैसे दो तीन पढ़ाकू टाइप के छात्रों की ड्यूटी इस काम में लगा करती थी...एक लिखता था, दूसरा वेरीफाई करता था...फिर डाक पेटी में डाल दिये जाते थे...सुना है दो चार फेल होने वाले बच्चे उन ख़तों को अपने मां-बाप तक न पहुंचने का कुछ भी जुगाड़ कर ही लिया करते थे....लेकिन वह भी काम इतना आसान नहीं होता था, क्योंकि उस पोस्टकार्ड को अपने पेरेन्ट्स के हस्ताक्षर के साथ वापिस अपने मास्साब को लौटाना भी ज़रूरी होता था...
तो, दोस्तो, यह था उस दौर में निगरानी का चलन......मुझे ऐसे लगता है कि इस से कुछ तो बेहतर आत्मविश्वास पैदा हो जाता था, परिस्थितियों से जूझने की एक skill develop अपने आप ही हो जाया करती थी, कैसे भी कितनी भी, और भी बहुत से फायदे तो थे.......लेकिन मानना पड़ेगा कि मासूमियत बरकरार थी, पढ़ाई-लिखाई और रेडियो और खेल-कूद तक ही दुनिया सिमटी हुई थी।
मुझे हमेशा लगता है कि विभिन्न कारणों की वजह से हम लोग बच्चों को आज की तारीख में खुल के जी भी नहीं लेने देते...हर बात पे निगरानी ...और इतनी निगरानी के बावजूद क्या हो रहा है, किसी से कुछ छुपा नहीं है। काश, हम इन्हें भी कुछ अलग सोचने का एक छोटा सा मौका तो दे पाएं।
मैं बस यही सोचता हूं कि बच्चों को निगरानी के साथ साथ थोड़ी आज़ादी भी तो चाहिए....उन्हें भी सपने देखने दीजिए....निदा फाज़ली साहब की यही बात मैंने अपनी नोटबुक में नोट की हुई है....
वैसे भी इस ज्ञान की परिभाषा भी बदलती जा रही है.... जैसा कि निदा फाज़ली साहब ने यह भी कहा है कि ....
मैं जब भी अपने स्कूल के दिनों को याद करता हूं तो इस गीत का ध्यान आ ही जाता है...
ब्लॉगर भाई प्रविण जी, बिल्कुल सही कहा आपने। हमें बच्चों से उनका बचपना नहीं छिनना चाहिए...
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