शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

तुम बेसहारा हो तो ...

कल बाद दोपहर मैं अंबाला छावनी में एक टी-स्टाल पर चाय की चुस्कियां ले रहा था .... उसी स्टाल पर किसी मोबाइल पर यह सुंदर सा गीत भी बज रहा था, बहुत दिनों बाद सुन रहा था, अच्छा लग रहा था। मुझे नहीं पता था यह उस महान कलाकार नुसरत फतेह अली खान के महान् भतीजे राहत अली खान ने गाया है ...... गुमसुम गुमसुम प्यार दा मौसम....अज न दर्द जगावीं.......


अभी मैं उस टी स्टाल से बाहर निकला ही था कि मैंने देखा कि एक बहुत ही बुज़ुर्ग महिला अपने बेटे का हाथ थाम कर पास की ही एक ऊन की दुकान के बाहर खड़ी थी..... महिला इतनी वृद्ध थीं कि शायद अकेले चल पाने में असमर्थ थी, बिना किसी सहारे के ............और यह देख कर और भी महसूस हुआ कि उस का बेटा भी मानसिक रूप से चैलेंजड था, लग नहीं रहा था कि वह अकेला कोई खरीददारी कर सकता होगा। उन दोनों को देख कर ऐसा लग रहा था कि शरीर उस के बेटे का चल रहा था और दिमाग उस मां का चल रहा था।

वैसे भी हम लोग कितनी बात देखते हैं कि दो बुज़ुर्ग एक दूसरे का हाथ थाम कर सड़क क्रास कर रहे होते हैं, बाज़ार में खरीददारी कर रहे होते हैं.....मैं उन बुज़ुर्गों की बात कर रहा हूं जिन के लिये अपनी बढ़ती उम्र की वजह से बाहर निकलना इतना दूभर हो जाता है कि उन्हें किसी दूसरे पर निर्भर होना पड़ता है....वे एक दूसरे का सहारे बनते दिखते हैं।

अकसर ऐसे मंजर देख कर मुझे उस महान् अभिनेता अशोक कुमार का मेरा बेहद पसंदीदा गीत याद आ जाता है, आप भी सुन लें, लंबे अरसे से सुना नहीं होगा।


बाज़ार में घूमते हुये बहुत से मंज़र हमारी ढोंगी सामाजिक व्यवस्था की पोल खोलते दिख जाते हैं, है कि नहीं ?