“यू”?…….यह कहते हुए जज साहब ने मेरी तरफ़ सवालिया नज़रों से देखा…
मैं एक दम हक्का-बक्का…
मुझे क्या पड़ी थी यहां इस वक्त इन की गुफ्तगू में खामखां टांग फ़साने की…
“सर, मैं पंकज शर्मा….” झिझकते-सिमटते हुए बडी़ मुश्किल से मेरी आवाज़ निकली…
अभी भी जज साहब की मेरे बारे में जिज्ञासा शांत न हुई थी कि यह बंदा है कोन जो मेरे चैंबर में मेरे सामने कुर्सी पर बैठा हुआ है …
शायद उन के चेहरे के भाव पढ़ते हुए जज साहब का स्टॉफ कुछ ज़्यादा ही सक्रिय हो गया….उन में से किसी ने मेरा मोबाइल नंबर भी पूछा …और जल्दी जल्दी से नोट कर लिया….
इतने में उन काली वर्दी धारी पांच छः लोगों में से किसी ने अपनी समझदारी दिखाई…”पता भी ले लो ….”
जिसने मेरा फोन नंबर लिखा था मैंने उसे अपना पता भी लिखवा दिया …
यह सारा घटना क्रम बस कुछ लम्हों में मुकम्मल हो गया….
“यू कैन लीव” ….इतने में जज साहब ने मेरी तरफ सरसरी नज़र डालते हुए फरमान जारी किया और मैं उसी वक्त उन के चेंबर से निकल कर बाहर कंपाउंड में आ गया….
दरअसल जब मैं जज साहब के सामने उन के चेंबर में बैठा था तो उन की और उन के स्टॉफ की किसी अहम् मु्द्दे पर गुफ्तगू चल रही थी ….
इतने में जज साहब ने कहा …अभी तो मैंने फलां फलां मुद्दों की स्टडी भी करनी है …मुझे जल्दी पढ़ना है उन के बारे में …
बस, उन दो मुद्दों के नाम सुनने की देर थी कि मैंने भी यह कहते हुए अपनी समझदारी दिखा दी …..जी हां, वह यूसीसी वाला तो …..(मुद्दों के नाम मुझे ठीक से याद नहीं आ रहे इस वक्त ….जहां तक मुझे याद है एक तो कोई यूसीसी था …और दूसरा याद नहीं) ….
अभी मेरी बात, बात भी क्या यार, मेरी आवाज़ मुंह ही में थी कि जज साहब की नज़रें मेरी तरफ़ घूम गई ….और मेरा नाम पता लिख लिया गया और चेंबर से बाहर होने का संकेत दे दिया गया….
हां, मैं उस विशाल से कोर्ट परिसर से बाहर आते वक्त (मुझे नहीं पता वह कौन सी कोर्ट थी, लेकिन कोई बड़ी कोर्ट ही लग रही थी, ईमारत और आंगन की भव्यता से…..)यही सोच रहा था कि बैठे बैठे एक नया पंगा पड़ गया….
फिर मैं सोचने लगा कि एक बात तो अच्छी है कि जज साहब के चेले-चपाटों को मेरे कार्य-स्थळ का पता पूछने का ख्याल नहीं आया…..और अगर यहां से दस-बीस शब्दों की कोई चिट्ठी या कोई अप्रसन्नता भी ये मेरे दफ्तर में भेज देते तो मुझे तो वहां पर उल्टा लटका देते ….फिसड्डी से फिसड्डी बाबू लोगों की सब से उत्तम कार्यदक्षता इसी तरह के मौकों पर ही तो प्रदर्शित होती है ….( व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित और यह मेरा पक्का विश्वास भी है) …
फिर अगले ही पल मुझे ख्याल आया कि यार, तू इस बात को इतना भी लाइटली न ले, तेरा पता और मोबाइल नंबर उस स्टॉफ के पास है, उस ने भी जज साहब को अपनी ऐफिसिएंसी का परिचय तो देना है, फोन मेरा उस के पास है, कर लेगा पता मेरे दफ्तर का कहीं से भी …..
उस के बाद ख्याल आया कि कोर्ट-कचहरी के स्टॉफ वैसे ही इतने अस्त व्यस्त होते हैं कि एक पेपर के किनारे लिखा मेरा नाम और पता यह कहां संभाल कर रखेगा….जज साहब ने मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया और मैंने हुक्म मान लिया….बस, बात आई गई हो गई….बात रफा दफा हो गई …
केस-क्लोज़्ड…..
इतने में मैं कोर्ट के गेट के पास आ पहुंचा ….लेकिन मुझे वहां पहुंच अचानक एक ठोकर सी महसूस हुई ….
अरे नहीं यार, कोई ठोकर वोकर नहीं थी, जैसे ही मैंने करवट बदलनी चाही मेरी दुखते हुए घुटनों की वजह से मेरी नींद खुल गई……..और थैंक-गॉड एक परेशान सा करने वाला सपना भी उस के साथ टूट गया….
उठ कर मैं रसोई घर में पानी पीने जा रहा था तो यही सोच रहा था कि मैं अपनी बात ठीक ठाक रख लेता हूं, शायद मुखर भी समझता हूं अपने आप को …….लेकिन फिर भी एक जगह मेरी आवाज़ अभी पूरी बाहर भी न निकली थी कि मुझे बाहर का रस्ता दिखा दिया गया…और तो और, अभी एक दो शब्द मुख से झड़े ही थे कि मेरी तो भई जैसे घिग्घी बंध गई …और वह भी सपने में ……
बिस्तर पर वापिस लेटते वक्त मैं यही सोच रहा था कि यहां तो आवाज़ अभी मुंह से निकली नहीं थी …गनीमत थी ………सच में जो लोग किसी मुद्दे पर आवाज़ निकालते ही नहीं, उठाते हैं, जनमानस की आवाज़ बनते हैं ………..वे किस मिट्टी के बने रहते होंगे…..।
यही सोचते सोचते मैं फिर से नींद की आगोश में कब चला गया…मुझे पता नहीं।