सोमवार, 5 जनवरी 2015

गुर्दे के बाद अब लगा आंखों की चोरी का नंबर


कल खबर पढ़ी पेपर में कि एक श्रद्धालु की किसी ने दोनों आंखें अयोध्या में निकाल लीं....बड़ा अजीब सा लगा यह सुन कर कि आंखें कैसे कोई निकाल सकता है, लिखा तो था कि किसी ने पहले आंखें सुन्न कर दीं...

लेकिन आज के पेपर में इस बात की पुष्टि हो ही गई।

झारखण्ड में गिरिडीह जिले के निवासी कृष्णदेव वर्मा के साथ अयोध्या में की गई दरिंदगी में नया खुलासा हुआ है। झारखण्ड के चिकित्सकों ने जांच के बाद अपनी रिपोर्ट में बताया है कि कृष्णदेव का आपरेशन करके दोनों आंखें निकाली गई हैं।

विशेषज्ञों ने कहा है कि श्रद्धालु की दोनों ' आई बॉल' किसी एक्सपर्ट हैंड की ओर से ही निकाले जाने की पुष्टि की है।

डॉक्टरों की रिपोर्ट 

झारखण्ड और फैजाबाद के चिकित्सकों की ताजा रिपोर्ट से अब यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि झारखण्ड के गिरिडीह से अयोध्या में रामलला का दर्शन करने आए वर्मा को अयोध्या रेलवे स्टेशन पर बेहोश करने के बाद किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया, जहां किसी प्रशिक्षित नेत्र सर्जन ने उसकी आंखें निकाल लीं। इस निष्कर्ष पर इसलिए पहुंचा जा सकता है क्योंकि आई बॉल गायब होने के बावजूद आंखों के आसपास का हिस्सा क्षतिग्रस्त नहीं हुआ है।

ऐसी खबर पढ़-सुन कर आदमी कांप जाता है, है कि नहीं?...अभी गुर्दों की चोरी के मामलों की आग ठंड़ी नहीं पड़ी है कि अब आंखों की चोरी का नंबर लग गया।

पहले लोग कहा करते थे कि ज़्यादा धन लेकर नहीं बाहर जाना चाहिए, लूटपाट का डर था, सोने के गहने लूटे जाने लगे, महंगे मोबाइल छीने जाने लगे, एटीएम कार्ड छीन कर उस का सीक्रेट पिन पता करना.....सब कुछ चल रहा है, लेकिन किसी की आंखें ही निकाल लेना--- इतनी ज़्यादा क्रूरता और निर्दयता।

जो भी हो, आर्थिक मदद और मुआवजा ....एक लाख दस हज़ार का .....एक तरह का मजाक ही तो है। बिल्कुल जंगल राज जैसी ही स्थिति हो गई, किसी को भी पकड़ कर शरीर का कोई अंग ही निकाल लो।

इस तरह के अपराधियों को तुरंत पकड़ कर कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए..........ऐसा लिखते हुए भी यही ध्यान आ रहा है कि अब कुछ भी हो जाए, उस बंदे की आंखें तो वापिस आने से रही ......  आखिर उस मजलूम का कसूर क्या!!




गीतकार नीरज का जन्मदिन - एक रिपोर्ट



हेल्प यू ट्रस्ट के निमंत्रण पर कल शाम एक अद्भुत गीतकार गोपाल दास नीरज के जन्मदिवस समारोह में भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पिछले वर्ष भी इन के जन्मदिवस पर एक समारोह में शिरकत करने का मौका मिला था.....मुझे याद है पिछले साल समारोह में मौजूद उत्तराखंड के उस समय के गवर्नर कुरैशी साहब किस तरह से इन के गीतों पर झूम रहे थे और उन की फरमाईश पर कलाकारों ने वह गीत भी पेश किया था......शोखियों में घोला जाए... फूलों का शबाब।



इस तरह के महान् गीतकार के दर्शन ही कर लेना अपने आप में एक बहुत बड़ा सौभाग्य है। कल समारोह में शायर अनवर जलालपुरी साहब ने कितना सही कहा ...इस फनकार के लिए.....

विरले होते हैं जिन का यश विश्व गाता है, 
नीरज जी जैसा गीतकार तो बस सदियों में आता है। 

उन्होंने नीरज जी की शान में यह भी फरमाया......
नीरज को पढ़ के आदमी बनता अदीब है...
नीरज को जिसने देखा बड़ा खुशनसीब है।।


इस कार्यक्रम में नीरज जी द्वारा लिखे फिल्मी गीत प्रस्तुत करने के लिए बंबई से कलाकार आए हुए थे। एक से बढ़ कर एक गीत प्रस्तुत किये गये। 

प्रोग्राम के दौरान मैं व्हाट्सएप पर अपने कालेज के दिनों के पुराने मित्रों के साथ संदेशों का आदान-प्रदान कर रहा था....एक ने कहा कि यार, वह मेरा नाम जोकर का वह गीत ... ऐ भाई ज़रा देख के चलो....आगे ही नहीं पीछे भी ...लेकिन ऐन वक्त पर मेरा मोबाइल मुझे धोखा दे गया......उस में हर तरह कबाड़ भरा होने की वजह से मैं रिकार्डिंग न कर सका......काफी कुछ डिलीट तो किया, लेकिन फिर भी रिकार्डिंग संभव न हो पाई।


बहरहाल, मैंने सोचा कि जो भी गीत सुन रहा हूं इन की एक प्लेलिस्ट बना कर आप तक ज़रूर पहुंचाऊंगा......वही काम किया आज सुबह उठ कर.......समय तो काफी लगा, लेकिन अच्छा लगा.......आशा है आप इस प्लेलिस्ट का ज़रूर आनंद लेंगे..


दोस्तो, यह गीतकार वह है जिस के गीत मेरे जैसे लोग प्राइमरी कक्षा से सुन रहे हैं......जी हां, दूसरी-तीसरी कक्षा से जब भी रेडियो पर या फिर किसी शादी-ब्याह के मौके पर इस तरह के गीत बजा करते थे तो सब कुछ छोड़-छाड़ कर इस की धुन में ही रमने का मन किया करता था.....वैसे तो छःसात आठ  साल की उम्र ही थी उस समय......लेकिन कुछ सुनना अच्छा लगता था, आपको साफ़ साफ़ बता दिया है....यह भी उसी दौर का गीत है जो बेहद पसंदीदा था...शर्माली ओ मेरी शर्मीली...


ईश्वर नीरज जी को उम्रदराज करे......९१ वर्ष के हैं, अभी भी इन की वाणी में युवाओं जैसा ही जोश है.....पिछले वर्ष भी वे व्हील-चीयर पर ही आए थे...इस वर्ष भी ....सहारे के िबना वे चल नहीं पाते...उम्र का तकाजा है, लेकिन जब बोलते हैं तो सब मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। 

सोच रहा हूं जब हम लोग बचपन में ऐसे गीतों को सुनते हैं तो क्या जानते हैं कि किस ने लिखा, किस ने कंपोज़ किया, किस पर फिल्माया गया ...वगैरह वगैरह....लेकिन इतने वर्षों बाद जब इन महान् शख्शियतों को देखने का अवसर मिलता है तो बहुत खुशी होता है। 

आप को हिंदी विकिपीडिया पर नीरज जी का यह पन्ना भी बहुत पसंद आएगा....
पिछले वर्ष भी वे अपने जन्मदिवस पर वे कुछ इस तरह से बोले थे...



जाते जाते लड्डू से मुंह तो मीठा करते जाइए....


प्रोग्राम के अंत में जब नीरज जी का वह गीत पेश किया गया......ताकत वतन की हम से है.....तो सभागार में मौजूद सभी संगीत-प्रेमियों ने खड़े हो कर इस का आनंद लिया.....

ताकत वतन की हम से है........


शनिवार, 3 जनवरी 2015

मौत का सर्वोत्तम ढंग-- कैंसर?

मुझे भी आप की ही तरह यह हैडिंग बहुत ही अटपटा लगा था ... लेकिन जब मैंने कल टाइम्स ऑफ इंडिया में एक छोटी सी रिपोर्ट को देखा तो पता चला कि एक विश्व विख्यात मेडीकल जर्नल का संपादक कहना क्या चाह रहा है।

विश्व के सर्वश्रेष्ठ मैडीकल जर्नल के भूतपूर्व संपादक रिचर्ड स्मिथ ने यह कह कर मैडीकल जगत में तहलका मचा दिया है कि मरने का सब से बढ़िया तरीका कैंसर रोग है। 

रिचर्ड स्मिथ का कहना है कि कैंसर के मरीज़ों को अत्यंत-महत्वाकांक्षी कैंसर रोग विशेषज्ञों के महंगे इलाज से दूर रहना चाहिए.. अरबों रूपये कैंसर के इलाज पर बहाने से बचना चाहिए .. फिर भी कैंसर से मौत तो भयानक रूप से हो ही जाती है। 
संपादक रिचर्ड स्मिथ का कहना है कि कैंसर से होने वाली मौत बेस्ट है। मरने वाला अलविदा कह सकता है, अपनी ज़िंदगी के बीते लम्हों को याद कर सकता है, आखिरी संदेश छोड़ सकता है, शायद विशेष जगहों पर आखिर बार जा भी सकता है, मनपसंदीदा संगीत का लुत्फ़ उठा सकता है, पसंद की कविताएं पढ़ सकता है, और अपनी आस्था के अनुसार अपने ईश्वर, अल्ला, गॉड से मिलने की तैयारी भी कर सकता है। वह आगे कहता है कि उस के विचार में यह प्यार, मोर्फीन और विस्की के संग संभव है, लेकिन वे फिर से सावधान करते हैं कि अति-महत्वाकांक्षी कैंसर रोग विशेषज्ञों से दूर रहना चाहिए। रिचर्ड ने यह भी लिखा है कि अधिकतर लोग अचानक मौत की इच्छा रखते हैं लेकिन इस तरह की मौत सगे-संबंधियों पर भारी सािबत होती है। 

 यह तो हो गई जी मैडीकल संपादक की बात। 

अब थोड़ी मैं भी बात कर लूं इस विषय पर .....जब मैं आज से बीस-पच्चीस वर्ष पहले हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन पढ़ रहा था और एक हमारा विषय होता था .. हेल्थ इकोनोमिक्स.... उस में हेल्थ-बेनिफिट रेशो और क्वालिटी ऑफ लाइफ ईर्ज़ एडेड ... Cost-benefit ratio and Quality of life years added (QLYA) जैसी परिभाषाएं पढ़ कर लगता है कि हम ने तो बहुत कुछ सीख लिया। 

लेकिन दोस्तो लाइफ में ऐसा होता नहीं......संपादक ने तो ऊपर इतनी आसानी से कह दिया.....लेकिन हर समाज में अनेकों सामाजिक एवं भावनात्मक पहलू भी तो कैंसर जैसी बीमारी के साथ जुड़े हुए हैं......हर आदमी चाहता है कि वह बढ़िया से बढिया इलाज करवाए......और वह करता भी है, कर्जा लेता है, जमीन बेचता है, गिरवी रखता है .....कुछ भी। 

मेरे विचार में संपादक द्वारा लिखी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पैसे की घोर बरबादी हो जाती है कईं बार.......मैं ऐसा इसलिए लिख रहा हूं कि कॉरपोरेट कल्चर वाले अस्पतालों में मरीज़ या उस के तीमारदार के साथ खुल कर बात तो करते नहीं, डाक्टर और मरीज के बीच इतनी गहरी खाई होती है कि उसे लांघा ही नहीं जा सकता....इस के बारे में ये बड़े बड़े महंगे अस्पताल जो भी कहें, सच्चाई तो सच्चाई है ही। 

एक बार मेरे पास मुंह के एडवांस कैंसर से ग्रस्त एक ८० साल के ऊपर की बुज़ुर्ग महिला आई थीं....उन्होंने मेरे से अकेले में कुछ बातें की.....जिन्हें मैंने किसी से शेयर नहीं किया... ये उन्होंने मुझ पर भरोसा कर के कहीं.....लेकिन मैं  बीमारी के पारिवारिक, सामाजिक पहलु समझने की कोशिश कर रहा था.....अपने बेटे के साथ आईं....मैंने उन्हें रेफर कर दिया ... हमारा अस्पताल मरीज़ों द्वारा खर्च किए जाने वाली रकम की प्रतिपूर्ति (रिएम्बर्समैंट) करता है.....मुझे याद है कि जाते समय वे जब मेरे से ये प्रश्न कर रही थीं कि डाक्टर साहब, यह ज़्यादा फैला तो नहीं अभी?...प्रश्न कर के वे मेरे जवाब से कहीं ज़्यादा मेरी आंखों में आंखें डाल कर मेरा झूठ पकड़ने की कोशिश करती दिखीं...... मुझे याद है मैंने उन के कंधे पर हाथ रख कर इतना ही कहा था.....आप इतनी हिम्मत वाली हैं, ईश्वर सब ठीक करेगा, आप को विशेषज्ञ को दिखाना तो होगा ही .........वैसे बड़ी एक्टिव बुज़ुर्ग महिला थीं, लेकिन उस के बाद वापिस लौट कर नहीं आईं........पता नहीं वह उस विशेषज्ञ के पास गईं भी कि नहीं। 

कल की टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित इस रिपोर्ट का हैडिंग लगा तो मुझे भी काफी अटपटा ही था......लेकिन पढ़ने पर पता चला कि कुछ कुछ बातें तो ठीक ही कह गया.....फिर भी, दोस्तो, कोई भी मरीज तीमारदार कहां इस तरह की फिजूल बातों में पड़ता है, हर कोई जानता है ...........जब तक सांस, तब तक आस............आप का क्या ख्याल है?



कौन सी पेस्ट बढ़िया रहेगी?

ज़ाहिर है जो आदमी जिस चीज़ का व्यापारी होगा, उस से उसी के बारे में पूछा जाएगा।

अभी मैं कुछ और लिखने लगा था कि सोचा कि पहले ई-मेल ही देख लूं....एक मित्र ने पूछा था कि क्या फ्लोराइड युक्त पेस्ट ही इस्तेमाल करना चाहिए...और वह फलां फलां पेस्ट इस्तेमाल करता है, क्या वह ठीक है।

बाद में थोड़ी चर्चा भी करूंगा लेकिन इस के लिए ये लिंक यहां लगा रहा हूं....
टुथपेस्ट का कोरा सच 
टुथपेस्ट का कोरा सच- भाग २

जी हां, फ्लारोइड युक्त पेस्ट ही करनी चाहिए....चाहे आप जिस एरिया में रहते हैं वहां पर पानी में फ्लोराइड की मात्रा ज़्यादा है, तो भी फ्लोराइड वाली पेस्ट का ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए, इस के कारणों का खुलासा ऊपर दिए गये लिंक्स पर किया गया है।

दूसरी बार, मैं अपने मरीज़ों को बड़ा साफ़ साफ़ कहता हूं कि अच्छे ब्रांड की पेस्ट ही यूज़ किया करें.....क्योंकि ये कंपनियां इतनी बड़ी होती हैं कि गुणवत्ता के साथ कोई समझौता नहीं करतीं।

यहां-वहां-इधर-उधर तैयार होने वाली पेस्टों एवं मंजनों से क्या मेरी कोई नाराज़गी है?..... बिल्कुल है, क्योंकि जब मेरे पास मरीज़ आ के बैठता ही है तो मैं दो-तीन पेस्टों एवं मंजनों का नाम लेकर पूछता हूं कि क्या आप फलां फलां मंजन-पेस्ट  कर रहे हैं तो ज़्यादातर केसों में जवाब हां ही में मिलता है, कुछ होते हैं जो कहते हैं कि दांत घिसने के बाद इसे छोड़ दिया था।

यह जो जगह जगह देशी मंजन-पेस्ट आदि बिकते हैं, ये हिंदोस्तानियों के बहुत चहेते हैं.....इन में बाबा-वाबा, नीम-हकीमों के स्पेशल पेस्ट -मंजन भी शामिल हैं....वैसे कुछ बाबा लोगों के अन्य उत्पाद अच्छे हैं, बहुत ही अच्छे हैं, लेिकन मैं इन के तैयार किये गये पेस्टों एवं मंजनों का मैं विरोध करता हूं।

घोर विरोधी इस तरह के पेस्ट मंजनों का इसलिए हूं क्योंिक मैं रोज़ाना ऐसे मरीज़ देखता हूं जो इस तरह के देसी पेस्टों-मंजनों से दांस साफ़ कर के अपने दांत पूरी तरह से खराब करवा चुके होते हैं।

अपने मरीज़ों के सामने तो मैं ऐसे तीन चार पेस्टों मंजनों के नाम गिनवा कर पूछता हूं ...और मुझे जवाब हां ही में मिलता है.......लेकिन मेरी मजबूरी है कि मैं यहां इन का नाम नहीं लिख सकता, फिजूल की कंट्रोवर्सी जन्म ले सकती है, ब्लॉग पर लिखने से टके की कमाई तो होती नहीं, ऊपर से इन पचड़ों में क्यों पड़ें !!........समझने वाले को इशारा ही काफ़ी होता है।

आखिर ऐसा भी क्या है, इस तरह की देसी पेस्टों-मंजनों में कि ये इतनी बड़ी खलनायक हैं........सब से बड़ी बात यह है कि ये बेहद खुरदरे होते हैं, कुछेक में तो लाल-मिट्टी (गेरू-मिट्टी) पड़ी होती है जिस से आप का माली गमले की पुताई करता है.... और शोध ने तो यह भी बता दिया कि माशा-अल्ला कुछ तो इस में तंबाकू भी घुसा देते हैं......अब इस सब के चक्कर में दांत तबाह हो जाते हैं।

लोग समझते हैं कि वे मंजन-पेस्ट का ही इस्तेमाल नहीं कर रहे, इस से तो उन का पायरिया ठीक हो गया, दांत का दर्द गायब हो गया, मुंह की बदबू गायब हो गई........नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते ये देशी मंजन-वंजन......केवल और केवल ये आप के लक्षणों को दबाने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। डंके की चोट पर मैं यह कहता हूं, दांतों और मसूड़ों की तकलीफ़ के लिए तो दंत-चिकित्सक के पास जाना ही होगा।

हां, मुझे अभी ध्यान आया कि इन खुरदरे देसी मंजनों एवं पेस्टों की विनाश-लीला का भी वर्णन तो मैंने अपने लेखों में खूब किया है......प्रूफ के साथ.....इस ब्लाग के दाईं तरफ़ जो सर्च आप्शन है, वहां पर मैंने बस इतना ही लिखा ....खुरदरे मंजन ......इसी ब्लॉग के जो पन्ने सर्च रिज़ल्टस में आए, उस में से एक का लिंक यह रहा....खुरदरे मंजनों की बरबादी ..आप अवश्य देखिएगा.....केवल आश्वस्त होने के लिए कि पेस्ट तो किसी टाप ब्रांड की ही इस्तेमाल करनी चाहिए।

पता है रफी साहब इस गीत में क्या कह रहे हैं, बता रहे हैं कि सफेद चमकीले दांत हंसे बिना रह नहीं सकते, लोग बिना वजह शक करने लगते हैं......हमारे समय का यह सुपर-डुपर गीत......आगे फरमाते हैं .........इन मोतीयों को पर्दे में रखा करो क्योंकि तुम्हारी हंसी पर लोगों ने नज़रें रखी हुई हैं ..........हा हा हा हा .....रोमांस की इन्तहा....





शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

डाक्टरों को तो भांग पर काम कर लेने दो...




मेरी मां बताती हैं कि उन के जमाने में जब छोटे छोटे शिशु रोते थे और गृहिणियों को घर के काम काज निपटाने होते थे तो बच्चों को सुलाने के लिए उन्हें थोड़ी सी अफीम चटा दी जाती थी, और बच्चा बहुत लंबे समय तक सोता रहता था...लेिकन कईं बार जब इस की खुराक थोड़ी सी भी ज़्यादा हो जाती थी तो बेचारे बच्चे सदा के लिए ही सोये रह जाते थे। वैसे भी इस तरह के बच्चे आगे चल कर मंदबुद्धि तो हो ही जाते थे।

इसे क्या कहेंगे ... अज्ञानता, अनपढ़ता या कुछ और..... जो भी हो, लेकिन इस का मतलब यही है कि अफीम तब भी कितनी आसानी से मिल जाती होगी, अब भी इसे इस्तेमाल करने वाले इस का जुगाड़ कैसे भी कर ही लेते हैं।

कौन सा नशा है जिस का जुगाड़ नशा करने वाले नहीं कर पाते..... भांग पीने वाले सरेआम पीते हैं, भांग के पकोड़े कुछ त्योहारों के दौरान बिकते हैं, भांग पी और पिलाई जाती है। वैसे भी हम बचपन से देखते आ रहे हैं कि भांग के पौधे से भांग के पत्ते तोड़ कर नशा करने वाले इन्हें दोनों हाथों में रगड़ कर अपना कुछ जुगाड़ तो कर ही लेते हैं।

कहने का मतलब कि गलत काम करने के लिए भांग जैसी प्रतिबंधित चीज़ भी मिल जाती है लेकिन चिंता की बात यह है कि डाक्टर लोगों को कैंसर के मरीज़ों पर इस्तेमाल करने के लिए तो दूर, मैडीकल रिसर्च के लिए भी भांग नहीं मिल पाती।

बंगलोर के कुछ कैंसर रोग विशेषज्ञों ने अब इस मुद्दे को उठाया है कि चिकित्सकों को भांग के पौधे के चिकित्सीय गुणों की पड़ताल तो कर लेने दो।

कैंसर रोग विशेषज्ञों की मांग बिल्कुल मुनासिब है.....जब अमेरिका में वहां के डाक्टर कैंसर के रोगियों के इलाज के लिए भांग के पौधे से मिलने वाले दवाईयां मरीज़ों को लिख रहे हैं, तो भारत में इस तरह के मरीज़ क्यों इस इलाज से वंचित रहें!!

दरअसल भांग में कुछ इस तरह के अंश रहते हैं (derivatives) जो कैंसर के ट्यूमर तक रक्त की सप्लाई पहुंचाने में रुकावट पैदा करते हैं।

कैंसर कोशिकाएं एक तरह से भूखी कोशिकाएं होती हैं, जब उन तक रक्त की सप्लाई नहीं पहुंच पाती , तो ये कोशिकाएं ग्लूकोज़ की कमी की वजह से सूखने लगती हैं।  कैंसर के रोगियों के इलाज में दी जाने वाली कीमोथेरिपी की वजह से मतली और उल्टी आती है... भांग में मौजूद कुछ तत्व इस को भी कंट्रोल करने में अहम् भूमिका निभाते हैं।

कैंसर विशेषज्ञ बिल्कुल सही फरमा रहे हैं कि उन्हें भांग के पौधे के मेडीकल इस्तेमाल के लिए रिसर्च करने के लिए भांग के पौधे तो उपलब्ध करवाए जाएं......बिल्कुल सही कह रहे हैं... पहले भी कितनी बार यह आवाज़ उठ चुकी है कि भांग के मेडीकल इस्तेमाल को मंजूरी मिल जानी चाहिए।

अमेरिका में तो भांग से कुछ दवाईयां तैयार कर के उन्हें एलज़िमर्ज़, ग्लोकोमा (काला मोतिया) और मल्टीपल स्क्लिरोसिस के रोगियों को दिया जाता है।

और डाक्टर लोग तो वैसे ही कह रहे हैं कि वे गांजे के मौज-मस्ती वाले इस्तेमाल के तो बिल्कुल विरूद्ध हैं, लेकिन उन्हें कम से कम इस के मैडीकल इस्तेमाल को तो परख लेने दो।

सीधी बात है, दोस्तो, हम कुछ भी क्लेम कर लें, भांग का इस्तेमाल तो नशा करने वाले कर ही रहे हैं......अगर डाक्टर उसी पौधे को बीमार लोगों के इलाज करने के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं तो इस में ऐसी भी क्या रूकावट है......मेरे विचार में भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय को इस तरफ़ तुंरत ध्यान देना चाहिए और अगर कुछ मतभेद है भी तो चिकित्सकों के साथ बैठ कर उन को सुलटा लेना चाहिए.......कम से कम मरीज़ों को तो राहत मिले!!

इस तरह का पॉज़िटिव निर्णय करने में सरकार को बिल्कुल देरी नहीं करनी चाहिए........यह क्या यार, कैंसर रोग विशेषज्ञों को रिसर्च करने के लिए भांग के पौधे उपलब्ध नहीं हो रहे और जहां मैं रहता हूं ...पास के बाज़ार में दो दुकाने हैं.....जिन के बाहर बोर्ड लगा है ........भांग की सरकारी दुकान.......उन दुकानों के सामने से गुजरता हूं तो मेरे मन में बहुत से प्रश्न उछलने लगते हैं ... दो मिनट बाद शांत हो जाते हैं.........आज सोचा था कि इन में से किसी दुकान पर जा कर पता करूंगा कि आखिर यह सीन है क्या!!.........लेकिन आज शाम से ही लखनऊ में बस बारिश ही हुए जा रही है, फिर किसी दिन जाऊंगा और आप से डिटेल शेयर करूंगा........अगर आप में से किसी को इन सरकारी भांग की दुकानों का रहस्य पता हो तो नीचे कमैंट में लिखिएगा।

एक तो हिंदोस्तान को इन हिंदी फिल्मी गीतों ने सच में बिगाड़ रखा है.....मौका कोई भी हो, हर सिचुएशन के लिए एक सुपरहिट गीत तैयार है जैसा कि इस पोस्ट के लिए यह वाला गीत........भांग पीते मौज मनाते लोग.....

Idea  .... Lift cannabis ban for med research, say oncologists (Times of India, Jan. 2' 2015)



ईश्वर प्राप्ति की खोज में बन बैठे नपुंसक!

अमृतबेला है.....ईश्वर प्राप्ति के बारे में अपना ज्ञान झाड़ने से पहले इन्हें देख लें कि संयासी-संयासिन के बीच क्या चल रहा है.....सुबह की यह डोज़ भी तो ज़रूरी है..........Please bear with me!



लेकिन यह क्या पागलपंथी है, भाई...ईश्वर प्राप्ति के लिए अंडकोष ही उखड़वा दिए। सुना तो था कि ईश्वर को पाने के लिए लोग घोर-तपस्या किया करते थे..लेकिन यह मामला किसी के अंडकोष के निकलवाने तक ही पहुंच जाएगा...इस की तो कल्पना मात्र से ही शरीर कांप उठता है।

पिछले हफ्ते मैंने अखबार में पढ़ा कि हरियाणा के एक डेरे में अनुयायियों को नपुंसक बनाने के मामले की जांच सीबीआई करेगी. यही नहीं, पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट जांच की मॉनिटरिंग भी करेगा।

फतेहाबाद निवासी हंसराज चौहान ने २०१२ में याचिका दायर की थी जिस में कहा गया था कि डेरे में ४०० से ज्यादा अनुयायियों को नपुंसक बना दिया गया।

इससे पहले प्रदेश सरकार ने अनुयायियों के अपनी मर्जी से नपुंसक बनने संबंधी रिपोर्ट सौंपी थी। कोर्ट ने कड़ा रूख दिखाते हुए कहा था कि यदि कोई सिर कटवाने के लिे डेरे में आएगा तो क्या डेरे वाले सिर काटकर भी उसे सही बताएंगे। यदि कोई अपनी इच्छा से नपुंसक बना है तो भी इसे मानवीय नहीं माना जा सकता।

हंसराज चौहान ने याचिका में कहा कि उसे और अन्य अनुयायियों को ईश्वर से मिलाने के नाम पर नपुंसक बना दिया गया। हंसराज ने अन्य लोगों के नाम भी दिए।

ऐसी खबर देख कर आदमी कांप जाता है कि नहीं?....वैसे यहां यह बताना ज़रूरी होगा कि नपुंसक बनाने का मतलब यह कि इन पुरूषों के अंडकोष निकाल दिया जाना।

दोस्तो, ये अंडकोष केवल प्रजनन में ही सहायता नहीं करते, शरीर को स्वस्थ रखने के लिए भी इन अंडकोषों से निकलने वाला टेस्टोस्टि्रोन नामक हॉरमोन चाहिए होता है। खबर ही इतनी दहला देने वाली है...

जस्टिस कन्नन ने कहा -- ना तो कोई डाक्टर और ना ही कोई आध्यात्मिक गुरू किसी आदमी से उस के अंडकोष निकालने की रजामंदी ले सकते हैं। एक चिकित्सक भी ऐसे किसी व्यक्ति के ऐसी दलील का साथ नहीं दे सकता जो यह कहे कि वह ईश्वर तक पहुंचना चाहता था या ईश्वर को देखना चाहता था। 

ऐसी खबरें मन को कचोटती हैं ...जांच रिपोर्ट तो आ ही जाएगी........लेिकन यह तो ध्यान में है कि जहां धुआं होगा वहां कुछ तो होगा दोस्तो।

CBI to register FIR

हर बंदे का सुबह सुबह का रूटीन अलग होता है....कुछ योग, कुछ प्राणायाम्, कुछ भ्रमण कर के अपने को चार्ज करते हैं.... मुझे भी तब चुस्ती-फुर्ती नहीं आती जब तक ६०-७० के दशक के चार-पांच सुपरहिट गाने यू-ट्यूब पर न देख लूं।

आज का संदेश यही है कि बाबाओं से बच कर रहिए........पता नहीं ये लोग सिर पर हाथ फेरते फेरते कहां तक जा पहुंचें!!
ईश्वर प्राप्ति का बाबा बुल्ले शाह का एक अचूक फार्मूला तो है ही......
बुल्लेया रब दा की पाना...
ओधरों पुटना ते एधर लाना.. 
अगर यह भी मुश्किल लगे तो संत कबीर जी की ही मान लें.....
पोथी पढ़ कर जग मुआ पंडित भया न कोए
ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होए। 

फकीरा, तू तो बस चला चल.......

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

रक्त रोग विशेषज्ञ ने लिखी एनीमिया पर किताब

परसों यहां लखनऊ में यूपी हिंदी संस्थान का ३८वां स्थापना दिवस समारोह था। इस अवसर पर एक हास्य कवि सम्मेलन का आयोजन था। मुझे भी उस कार्यक्रम में शिरकत करने का अवसर मिला। हास्य-व्यंग्य की महान् हस्तियां वहां मौजूद थीं।

डा त्रिपाठी की किताब ..एनीमिया- कुछ रोचक जानकारियां का विमोचन 
हास्य-कवि सम्मेलन शुरू होने से पहले उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक का विमोचन भी हुआ... इस किताब का नाम है.. एनीमिया- कुछ रोचक जानकारियां।

इस किताब के लेखक हैं डा ए के त्रिपाठी जो किंग जार्ज मैडीकल यूनिवर्सिटी लखनऊ में क्लीनिकल हिमैटोलॉजी विभाग में प्रोफैसर एवं विभागाध्यक्ष हैं। इन्हें चिकित्सा व विशेषकर रक्त रोग विज्ञान के क्षेत्र में ३० वर्ष से अधिक का अनुभव है।

मुझे डाक्टरों द्वारा लिखी किताबों में विशेष रूचि रहती है....मैं इस तरह की किताबों को यहां वहां हर जगह ढूंढता रहता हूं। यह तलाश पिछले २५ वर्षों से जारी है...जानकारी हासिल करने के साथ साथ मुझे यह भी उत्सुकता होती है कि देखें तो सही कि अनुभवी चिकित्सकों का अंदाज़े-ब्या कैसा है, क्या आमजन इस लेखन से लाभ उठा पाएगा!

पुस्तक का आवरण 
मैं जब हिंदी की बात करूं तो मुझे बहुत बार निराशा ही हुई......कुछ किताबें मैडीकल विज्ञान से जुड़ी हाथ लगीं तो ऐसे लगा कि कोई पुरातन ग्रंथ पढ़ रहे हों, इतनी भारी भरकम भाषा, कौन समझे इन ग्रंथों को........मान िलया साहब आप को बहुत ज्ञान है लेकिन पढ़ने वाले तक अपनी बात बिल्कुल सरल भाषा में ही पहुंचनी चाहिए, वरना वह दो पन्ने पलट कर तकिये के नीचे किताब को सरका कर सो जाता है। आखिर करे भी तो क्या करे! स्वयं मेरे साथ ऐसा बहुत बार हुआ है.

दूसरी तकलीफ अकसर यह होती है कि कुछ प्रकाशक मैडीकल विज्ञान की किताबें ऐसे लोगों से लिखवा लेते हैं जिन का चिकित्सा विज्ञान को कोई अनुभव होता ही नहीं, इस तरह की किताबों को समझना तो दूर पढ़ना ही मुश्किल लगता है। पहले पन्ने से ही पता चल जाता है कि आगे क्या गुल खिलने वाले हैं।

इसलिए अगर कोई इस तरह की िकताब जिस का कल विमोचन हुआ.... हाथ में लगती है तो बहुत अच्छा लगता है।
दोस्तो, मैं तो एक बात समझता हूं एक मैडीकल कालेज के प्रोफैसर साहब और उन का ३० वर्ष का अनुभव और अगर उन्होंने ५० पन्नों की कोई किताब लिखी है तो मैं यह मानता हूं कि इस तरह के महान् डाक्टर अपने जीवन भर कर अनुभव उन ५० पन्नों में भर देते हैं ... और वह भी इतने बढ़िया ढंग से कि आप उसे बिल्कुल आसानी से पचा लेते हैं।

अगर आप को याद होगा ..अगर आपने मेरी एक पोस्ट देखी होगी......डा आनंद की बच्चों की देखभाल संबंधी गाइड--- मैं इस किताब से और इस के लेखक से बहुत ही ज़्यादा प्रभावित रहा हूं....उन की किताब का भी हम लोगों ने भरपूर प्रयोग किया....ऐसा लगता ही ना था कि किसी किताब को पढ़ रहे हैं, लगता था कि डाक्टर साहब दिल खोल बातचीत के जरिये अपने अनुभव बांट रहे हैं। उस किताब के बारे में मैंने लिखा था कि अब उस का हिंदी संस्करण भी आ गया है।

परसों जब डा त्रिपाठी की एनीमिया पर लिखी इस किताब के बारे में पता चला तो बाहर आते ही वहां लगे स्टाल से मैंने यह पुस्तक खरीदी और अगले ही दिन इसे पढ़ लिया। इस पुस्तक के विमोचन के बाद डा त्रिपाठी ने अपनी लेखिकीय यात्रा के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि देश में ५०-७० प्रतिशत लोग एनीमिया से ग्रस्त हैं...और अधिकांश लोगों को यह पता ही नहीं कि वे इस बीमारी से ग्रस्त हैं... क्योंिक किसी को इस के बारे में मालूम है कि नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि यह कितना गंभीर है। यह कहानीनुमा अंदाज़ में लिखा गया है, और सारी जानकारियां अाधुनिक वैज्ञानिक शोध के परिणामों के आधार पर दर्ज की गई हैं।


हां, तो दोस्तो मैं इस किताब से इतना प्रभावित हुआ कि शुरू शुरू में मैंने सोचा कि इस में मौजूद उपलब्ध महत्वपूर्ण जानकारियां एक दो लेखों के जरिये आप तक पहुंचाऊंगा.......लेकिन यह मेरे लिए संभव नहीं था......कारण?...क्योंकि इस प्रोफैसर ने इतनी अच्छी तरह से यह किताब लिखी है कि मैं समझता हूं कि इस का एक एक शब्द हर किसी के लिए केवल पढ़ने लायक ही नहीं, हमेशा याद रखने के िलए भी है--- हर आयुवर्ग में एनीमिया पाया जाता है, उस के क्या कारण हैं, क्या रोकथाम है, उपचार का सही तरीका क्या हाल है, इस किताब में सब कुछ परफैक्ट तरीके से कवर किया है।

मैंने एक तरीका ढूंढा है, अगर आप के मन में किसी तरह के भी एनीमिया के बारे में प्रश्न हैं तो इस लेख के नीचे कमैंट के रूप में लिखिएगा, मैं इसी किताब में दी गई जानकारियों के आधार पर आप तक उस का जवाब पहुंचाने की कोशिश करूंगा। वैसे भी जो अंश मुझे बेहद महत्वपूर्ण लगेंगे (वैसे तो सभी ५० पन्ने ही एक से बढ़ कर एक हैं)... आप तक किसी लेख के माध्यम से पहुंचाने की चेष्टा करूंगा।

डाक्टर साहब की किताब के बारे में एक मेहमान ने यह भी कहा.....
जिन हाथों में नश्तर की उम्मीद थी,
वो कलम भी बखूबी चला लेते हैं।।

एक बात, इस किताब की केवल ५०० कापियां छपी हैं, ज़ाहिर है ये तो यूं ही खप जाएंगी........लेिकन मेरा सुझाव है कि इस तरह की किताब की तो हज़ारों कापियां छपनी चाहिए और इस का दाम १०-२० रूपये रखा जाना चाहिए....वैसे तो हिंदी संस्थान इस तरह की जनोपयोगी किताबों का पुनःमुद्रण करता ही रहता है, फिर भी.......यह देखना होगा कि यह किताब किस तरह से घर घर तक पहुंचे। इस तरह की किताबें कोई आम किताबें नहीं होतीं... ये दिल से लिखी कालजयी कृतियां हैं...जिन को लिखने के लिए लेखक के मन में समुची मानवता के प्रति अगाध प्रेम की भावना का होना लाजमी है......वरना कौन इतना बड़ा चिकित्सक अपने चिकित्सा फील्ड को इतने सुलभ संप्रेषणीय ढंग से डिमिस्टीफाई करना चाहेगा!! इस किताब के लेखक डा ए के त्रिपाठी को बहुत बहुत साधुवाद।

और एक सुझाव यह है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की किताबों की तरह इस तरह की किताबों पर कापीराइट ही नहीं होना चाहिए, ये तो सारी मानवता के लिए तोहफ़े के समान है। ऐसा होना चाहिए कि इस के कंटेंट का कोई किसी भी रूप में प्रचार प्रसार तो करे लेकिन मूल लेखक को पूरा क्रेडिट देते हुए... ऐसी किताबें विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवादित की जानी चाहिएं।

डा साहब अपने भाषण में बता रहे थे कि भविष्य में भी उन की बहुत कुछ लिखने की योजनाएं हैं......इस के लिए डा त्रिपाठी को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

हां, अभी मैंने इस किताब को पढ़ना शुरू ही किया था कि शकुंतला की तरह मुझे भी एक नईं बात पता चली......आप भी सुनिए... इसी किताब से........
शकुन्तला बोली-- डाक्टर साहब, माफ कीजिएगा, मैं आपका कीमती समय ले रही हूं... लेकिन ऐसा भी क्या है जिससे गुड़ में अधिक आयरन पाया जाता है। डाक्टर साहब बोले... गन्ने के रस को लोहे की बड़ी-बड़ी कड़ाहियों में धीमी आंच में घंटों उबाला जाता है। इस प्रक्रिया से लोहे के बर्तन की दीवारों से लौह तत्व रस में मिल जाता है। अतः गुड़ और भी आयरन युक्त हो जाता है। गुड़ के सेवन बढ़ावा देना चाहिए। आज के बच्चे गुड़ को शायद जानते ही नहीं हैं।                                        (इसी किताब से)  
एक बात तो है कि डाक्टर साहब की किताब के विमोचन से तो पता चला कि इसे पढ़ कर रक्त रोगों के रोकथाम एवं सही उपचार का सही जुगाड़ तो ही जाएगा, लेिकन एक बात माननी पड़ेगी कि उस कार्यक्रम में मौजूद सैंकड़ों श्रोताओं का सौ-दो सौ ग्राम खून तो बिना हींग-फिटकड़ी लगाए सभी हास्य कविओं ने ठहाकों से लोट पोट कर के बढ़ा दिया....समाज में हर आदमी के फन की बहुत ज़रूरत है....हर इंसान के फन को सलाम!!

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ओह माई गॉड---खून के बारे में इतनी सीरियस सी बातें करने के बाद अभी अभी खून के रिश्ते का यह गीत ध्यान में आ गया... सुनिएगा? अभी क्या देखा है, अब देखोगे......वैसे मन पसंद गीत-संगीत सुनने से भी खून बढ़ता है, यह तो आप अच्छे से जानते ही हैं......हा हा हा हा ...यह मेरा नुस्खा है!







गीत गाओ...खुशी मनाओ.. खुशामदीद 2015

आज नये साल की शुरूआत है.....हंसने, गाने, भंगड़े डालने की बातें करते हैं दोस्तो।

दोस्तो, मुझे आज सुबह १०-१२ साल पहले का हंसराज हंस का एक गीत याद आ रहा था, सीडी का जमाना था, बार बार अपने डेस्कटॉप कंप्यूटर में डाल डाल कर यह गीत सुनना अच्छा लगता था क्योंकि इस के लिरिक्स और ट्यून बहुत अच्छी लगती थी......असीं दोवें रूठ बैठे तां मनाऊ कौन वे....



उन्हीं दिनों की बात है मैं एक बार एक बार फिरोजपुर से दिल्ली जनता एक्सप्रेस में यात्रा कर रहा था...दोस्तो,  एक आठ-दस का लड़का भटिंडा से चढ़ा और उस ने यही गीत गाना शुरू किया....साज़ के नाम पर उस के हाथ में दो छोटी छोटी ठीकरीयां (टूटे हुए मटके के टुकड़े) थीं लेकिन दोस्तो, जैसा उस लड़के ने समय बांध कर रख दिया....आज भी याद है।

लगभग दो वर्ष पहले मेरे बेटे ने एक वीडियो का लिंक भेजा था....सुदेश कुमारी पंजाबी सिंगर का....जितनी सहजता से वह गीत गा रही थी, काबिले तारीफ़ है.....देखने से ही लगता है कि वह अपने काम को खूब एंज्वाय कर रही है... वाह जी वाह....



कल शाम को एक मित्र ने एक बुज़ुर्ग का गीत जब एन ईवनिंग इन पैरिस का गीत भेजा तो सुन कर तबीयत हरी हो गई।


और सन्नी सन्नी फनी की तो क्या तारीफ़ करें, आप स्वयं देख लें........खुश हो कर इस नानी का तो माथा चूम लेने की इच्छा होती है!!



और जाते जाते इन बुज़ुर्गों का उत्साह भी देखना मत भूलियेगा, वरना बुरा मान जाएंगे.....



दोस्तो, आप ने इतना कुछ देखा.......आपने नोटिस किया कि ये लोग कितनी मौज में अपना काम कर रहे हैं।

मुझे याद है एक बार एक सत्संग में मैंने सुना था कि जब डांस करो, जब गीत गाओ तो यह सब ऐसे करो जैसे अपनी रूह के लिए कर रहे हो, ऐसे सोचो कि तुम्हें कोई भी देख नहीं रहा और तुम तो अपनी रूह को खुश करने के लिए ही बस यह कर रहे हो........फिर देखिए कितना मज़ा आता है.......

दोस्तो, ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा..........आप को कौन रोक रहा है?.....यह कौन परवाह करता है कि नाचना आता है कि नहीं, गीत के सुर लग रहे हैं कि नहीं, ये अनाड़ी लोगों की बातें हैं........बस, जब झूमने को, गाने को दिल करे तो खुल कर जी लिया करें............इसी शुभकामनाएं के साथ कि ईश्वर आप के हालात इस नये वर्ष में ऐसे बना दे कि आप सदैव मुस्कुराते रहें, स्वस्थ रहें और अपने आसपास भी खुशीयों का इत्र छिड़कते रहें............

दोस्तो, उल्लास, मौज मस्ती को ब्यां करने वाले सैंकड़ों लम्हें हमारी सब की यादों में कैद हैं, है कि नहीं?.....तो यार आप को अपना दिल खोल कर कुछ करने के लिए कौन मना कर रहा है!!........Please don't hold back! Open up!!

दिल खोल कर अपनी खुशी का इज़हार कर पाना भी ईश्वर का एक वरदान है.....आप सेहतमंद हैं, आप की रूह राजी है, आप के मन में विश्व-बंधुत्व की सुंदर भावनाएं हैं....तब कहीं जाकर दोस्तो यह खुशी फूटती है...वैसे फार्मूला इतना सीरियस भी नहीं है जितना मैंने लिख दिया है,  बस आप शुरू हो जाओ।

जाते जाते मेरी पसंद का भी एक गीत सुन लें...मुझे यह बहुत पसंद है......मैंने कुछ दिन पहले इसे बरसों बाद सुना था अपने रेडियो पर........कैसे जीते हैं भला... आ बता दें यह तुझे कैसे जिया जाता है......

बंदर को मिली किस ऑफ लाइफ (जीवनदायी चुंबन)

दैनिक भास्कर के २७ दिसंबर २०१४ के अंक में मैनेजमेंट फंडा कॉलम में एन.रघुरामन का एक लेख दिखा...
रघुरामन लिखते हैं.....
"24दिसंबर की रात में अपने एक दोस्त के साथ आधी रात को होने वाली क्रिसमस प्रार्थना में जाने वाला था। तभी लैपटॉप पर सर्फिंग करते मेरी नज़र न्यूज़ एजेंसी के एक वीडियो पर पड़ी, जिसे देखकर मुझे बेहद खुशी हुई। यह वीडियो रविवार को शूट हुआ था। क्रिसमस के कुछ दिन पहले। 
क्रिसमस यानी बांटने और गिफ्ट देनेवाला त्योहार। इसमें दिखाया गया था कि कानपुर रेलवे स्टेशन पर कुछ लोग एक बंदर को देख रहे हैं। यह बंदर एक दूसरे बंदर को बचाने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा रहा है। दूसरे बंदर को हाइटेंशन लाइन छूने से करंट लगा है और वह रेलवे ट्रैक पर बेहोश पड़ा है। 
आखिल में बंदर उसे ट्रैक पर से उठाकर दो ट्रैकों के बीच में ले आता है। फिर उसकी छाती को जोर से दबाता है, मुंह से मुंह में हवा देने की कोशिश करता है, पास ही लगे नल से पानी लाता है और उसे पिलाता है। कोई नहीं जानता था कि करंट लगने पर फर्स्ट एड देने का यही सही तरीका है। 
यात्रियों को भीड़ प्लेटफॉर्म प कौतूहल से बंदर की फर्स्ट एड देते देखती रही। उसका वीडियो बनाती रही, फोटो खींचती रही। यही नहीं बंदर को बताती भी रही कि क्या करना है, जैसे बंदर उनकी भाषा समझ रहा हो।  
कुछ ही मिनटों में वह बंदर, पूरी तरह से धूल-मिट्टी में सना हुआ, अपनी आंखें खोलता है और उठ खड़ा होता है। दूसरा बंदर और वहां जमा बाकी बंदर उसे थोड़ी दूर ले जाते हैं। आखिर स्लाइड में दिखाया गया है कि वे दोनों बंदर खुश हैं।  
यह वीडियो देखने के बाद मैं अपनी क्रिसमस प्रार्थना के लिए निकल गया। मेरा दोस्त गरीबों को कंबल बांटना चाहता था जो उसने शाम को ही मार्केट से खरीद रखे थे। उस रात कंबल बांटने में सबसे बड़ी समस्या कंबल देना नहीं बल्कि सही व्यक्ति की पहचान करना था। जब हम जरूरतमंदों को ढूंढ रहे थे और कंबल बांट रहे थे, तभी हमसे कंबल ले कर एक व्यक्ति न उस पर लगा प्लास्टिक कवर हटाया और कंबल को धूल में पटकने लगा।  
उसके इस व्यवहार से हैरान होकर मैंने उसे ऐसी बेवकूफ़ी करने से मना किया। मैं उसके हाथ से कंबल लेने के लिए बढ़ा भी। लेकिन उसने हाथ जोड़कर मुझसे कहा -- सर, ये कंबल मुझसे मत लीजिए क्योंकि बहुत ठंड है। और अगर मैं इसे गंदा नहीं करूंगा तो यहां बहुत गुंडे हैं जो हमसे ये कंबल ले जाएंगे। और उसी दुकान पर बेच देंगे जहां से आप ये खरीदकर लाए हैं। हमन जो सुना उस पर विश्वास ही नहीं हुआ। 
हम भौचक्के थे और कुछ भी कहने की स्थिति नहीं थी। समझ नहीं आ रहा था क्या करें। अचानक वो बंदर वाला वीडियो याद आया। मुझे लगा जैसे हम मानव जानवरों से भी बदतर हैं। हम पूरी रात सड़क किनारे खड़े चायवाले से चाय लेकर पीते रहे, ये सुनिश्चित करने के लिए कि कोई कंबल छीनकर न ले जाए। कम से कम उस रात तो नहीं। अगली सुबह मैंने उन लोगों के चेहरे पर बड़ी सी मुस्कुराहट देखी, जो कड़कड़ाती ठंड में आराम से सो पाए थे।"
वापिस उस सुपर-डाक्टर बंदर के महान् कारनामे पर लौटते हैं जिस ने किस ऑफ लाइफ दे कर अपने साथी की जान बचा कर ही दम लिया.....जी हां, किसी बेहोश की जान बचाते वक्त उसे जो मुंह से मुंह में हवा देने की कोशिश की जाती है, उसे किस ऑफ लाइफ ही कहा जाता है. लेकिन उस ने तो किस ऑफ लाइफ के अलावा भी बहुत कुछ किया...मैंने अभी अभी यू-ट्यूब पर सर्च कर के इस वीडियो को देखा ....यकीन हो गया कि बंदर ही मानव का बाप है।