गुरुवार, 11 सितंबर 2014

ह्यूमन वेस्ट टपकाने वाला पुल...

आप को याद होगा मैंने लखनऊ के एक रेलवे पुल के बारे में लिखा था ....अगर आपने उस पोस्ट को देखा होगा....रेलवे पुल के नीचे से गुज़रते वक्त क्या आपने कभी यह सोचा?

कल शाम को फिर वही नज़ारा......मुझे इसी पुल के नीचे से गुज़रना था.....लेकिन अचानक लोगों को काफ़ी संख्या में खड़े होते देख कर एक बार तो अचानक लगा कि ज़रूर कोई न कोई ट्रैफिक पुलिस का अभियान चल रहा होगा, ट्रैफिक वाले दो-तीन दिन से बड़े मुस्तैद से दिख रहे थे। 


लेकिन फिर अचानक उस स्कूल के लौंडे की बात याद आ गई जो मैंने पिछली पोस्ट में आपसे शेयर की थी कि चलती गाड़ी से पुल के नीचे चल रहे लोगों पर ह्यूमन वेस्ट (शौच, मल, थूक और गुटखा-पानमसाला की पीक).. गिरने का अंदेशा रहता है। 

पिछली बार जैसा कि मैंने बताया था कि रूकने वाले सभी स्कूटर-मोटरसाईकिल चलाने वाले ही होते हैं... मैं भी स्कूटर पर था..

जैसा कि आप इस कल की तस्वीर में देख सकते हैं कि गाड़ी पुल के ऊपर से गुज़र रही थी ...एक बार तो मुझे लगा कि कुछ नहीं होता, ऐसे ही बेकार में रूके रहो, आगे बढ़ने की इच्छा हुई तो......लेकिन तुरंत अकल ने कमीज़ पहन कर यह समझाया कि तू यह सोच, अगर उस स्कूली लौंडे की बात का तुझे आज ही प्रमाण मिल गया तो क्या करेगा, तू जा पायेगा बाज़ार जहां भी तू जा रहा है...... बाज़ार तो क्या, मल, शौच कमीज़ पर ढो कर बच्चे तेरा घर तक भी पहुंचना मुश्किल हो जायेगा। 

इसलिए बाकी लोगों की तरह मैंने भी स्कूटर को रोकने में ही समझदारी समझी और अपने मोबाईल के कैमरे से यह तस्वीर खींच ली जिस में गाड़ी पुल के ऊपर से गुज़र रही है और नीचे लोग अपने कपड़े बचाने के लिए खड़े हैं......गाड़ी के गुज़र जाने की प्रतीक्षा में। 

आज अभी हिंदुस्तान अखबार देखी है तो पता चला कि लखनऊ में दो ओव्हर-ब्रिज बनने वाले हैं.........ध्यान यही आया कि वह तो ठीक है, लेकिन क्या इस तरह के पुल का कुछ हो सकता है......सोचने वाली बात यह है कि यह नीचे सड़क पर चलने वालों की कितनी सिरदर्दी है। हर बार रूको....जब भी गाड़ी गुज़र रही हो, वरना मैला, शोच और थूक पीप से अपना दिन खराब करने का रिस्क मोल लो। 

हां, यार, एक बात और........लखनऊ में यही पुल एक ऐसा पुल नहीं है.......वैसे तो मैं लखनऊ को ज्‍यादा जानता नहीं हूं, लेकिन इस तरह के पुल मैंने लखनऊ के आलमबाग एरिया में भी देखे.....शायद मवैया एरिया के आसपास।

इस से पहले मेरा कभी इस और ध्यान ही नहीं गया है..........कभी आप भी लखनऊ आईए तो इन से सावधान रहिएगा, फिर न कहिएगा कि किसी ने सचेत नहीं किया था........वैसे तो यह झंझट केवल दो पहिया वाहनों पर और पैदल चलने वाले के लिए ही है। 

पता नहीं इस समय सड़क की बातें करते करते यह आशा फिल्म का यह गीत कहां से ध्यान में आ गया.....शायद १९८० में देखी थी यह फिल्म......गीत भी बड़ा पापुलर हुआ था....लीजिए सुनिए ......यह भी सड़क की ही बात कर रहा है...... लेकिन बातें यह सारी की सारी सही कह रहा है.....ये हंसते हैं लेकिन दिल में....यह गाते हैं लेकिन महफिल मे...........हम जीते हैं ये पलते हैं........


मां तुझे सलाम....

मेरी मां पिछले तीन चार दिनों से अपनी बुक-शेल्फ को ठीक करने में व्यस्त दिख रही थीं।

उन्होंने कल सभी किताबों की एक सूची तैयार की होगी।

अभी अभी बताने लगीं कि वह दो लिस्टें बनाना चाहती थीं और इसलिए दो कागज़ के पन्नों के बीच एक कार्बन भी रखा था लेकिन नीचे वाले पन्ने पर कुछ भी लिखा नहीं आया।

जैसा कि मेरे जैसे लोग ओव्हर-कॉन्फिडैंट और ओव्हर क्लेवर भी समझते हैं अपने आप को.......मुझे यही लगा कि उन्होंने दो पन्नों के बीच कार्बन को गलत तरीके से रख दिया होगा, और मैंने उन से भी यही कहा।

वैसे यह गलती मैं भी कईं बार करता हूं और लिखने से पहले पेन को ऐसे ही घिसा कर चेक भी कर लिया करता हूं कि नीचे वाले कागज़ पर भी छप रहा है कि नहीं। बॉय-चांस उन के हाथ में वे दो पन्ने और कागज़ थे, मैंने उन से लिए और अपने नाखून से ऊपर वाले पन्ने पर कुछ लिखना चाहा......नीचे वाले पन्ने पर नहीं आया तो मुझे लगा कि हां, यह कार्बन ही उल्टा पड़ा था।

मैंने फुर्ती से कार्बन पल्टा, नाखून से ऊपरी पन्ने पर कुरेदना चाहा तो भी नीचे वाले पन्ने पर कुछ नहीं आया।
इतने में मेरी मां कहती हैं कि कार्बन तो जैसे मैंने रखा था वैसे ही रखेंगे तो ही ठीक आएगा.........मैं भी यही समझा। लेकिन मां ने आगे बताया कि हां, मुझे लगता है कि लिखना ज़ोर से जाना चाहिए था। मैं भी उन की बात से सहमत हो गया... लेकिन मुझे एक बात और भी लगी कि जिस कागज़ के पन्ने पर वे लिस्ट तैयार कर रही थीं वह कुछ था भी मोटे किस्म का, इसलिए भी नीचे वाले कागज पर प्रिंट नहीं आया होगा।

बहरहाल, यह अभी अभी का किस्सा सिर्फ़ हम सब को याद दिलाने के लिए कि सारी माताएं कितनी सीधी होती हैं, बिल्कुल बच्चों जैसे होती हैं।

मेरी मां के बारे में चंद बातें....... मैं पचास की उम्र पार कर गया हूं लेकिन आज तक उन्होंने कभी भी मेरे ऊपर हाथ नहीं उठाया, यार, हाथ उठाना तो दूर कभी मुझे झिड़का तक नहीं... शायद यही कारण है कि मैं भी अपने बच्चों के साथ कुछ वैसा ही हूं। लेकिन मैं ऐसा नहीं कह सकता हूं कि मैंने अपने बच्चों पर हाथ नहीं उठाया-- दो एक बार तो मैंने कभी उन की चंपी की ही थी.......लेकिन वे शायद भूल चुके हैं या भूलने का नाटक करते हैं जब कहते हैं कि पापा ने हमें कभी नहीं मारा।

वैसे मेरे पिता जी ने मुझे एक बार थप्पड़ मारा था.....बस केवल एक बार, मैं बार बार उन के सिगरेट के पैकेट को कुर्सी से नीचे गिरा रहा था ...मुझे अच्छे से याद है, पांच-छः वर्ष का रहा होऊंगा।

अच्छा, मां की एक और तारीफ़........मुझे नहीं याद कि स्कूल, कॉलेज और बेरोज़गारी के चंद महीनों के दौरान मैंने अपनी मां से कुछ रूपयों की फरमाईश की हो और उस ने अपनी अलमारी के किसी कोने में पड़े वे पैसे मुझे खुशी खुशी न दिए हों। मेरे पिता जी ने भी मेरी किसी भी फरमाईश को नहीं टाला, कभी भी नहीं। कभी यह भी याद नहीं कि मैं मां के साथ बाज़ार गया होऊं और किसी भी चीज़ के मेरा मन मचल गया हो और मां ने वह तुरंत न दिलाई हो......चाहे वह गन्ने का रस, आईसक्रीम या कोई खिलौना, कुछ भी।

एक बात और, कभी भी कुछ भी कहा वह बात हमेशा मान ली......कभी भी कोई किंतु-परंतु नहीं। अगर कहीं जाने के लिए कह दो, तो ठीक.......कहीं न जाने का बहाना मैं बना दूं तो भी वे बिल्कुल राज़ी। हर बात में हां में हां मिलाने वाली मां...........शायद इस देश की सारी माताएं मेरी मां जैसी ही होती होंगी।

और एक बार, कभी नहीं याद कि कुछ खाने की इच्छा ज़ाहिर की हो, और इस मां ने रात में उठ कर भी वह न बनाया हो। स्कूल जाने से पहले दही-परांठे का नाश्ता उन अंगीठी के दिनों में भी, स्कूल के लिए लंच में परांठे और सब्जी, चार-पांच बजे घर आ कर गर्मागर्म खाना.. ये सब काम हर दिन करना उन की दिनचर्या में शामिल रहा और सब से बड़ी बात हंस हंस कर........अब क्या क्या लिखूं यार।

हर एक की बात में आ जाना........उस दिन मेरा छोटा बेटा अपनी दादी से बात कर रहा था......बीजी, हुन केले दर्जन विच दस ही मिलदे ने। और मुझे यह जान कर इतनी हैरानी हुई कि वे इस बात से हैरान तो हुई लेकिन उन्होंने उस की बात मान ली.........बाद में उसने बता दिया कि वह मजाक कर रहा था। मुझे खोसला का घोंसला फिल्म का वह संवाद बहुत अच्छा लगता है कि बच्चों की बातों में आने की कोई उम्र नहीं होती।

यार, ऐसे तो लिखता ही जाऊंगा....... फिर कभी...........लेकिन एक बात का विचार आ रहा है कि हम अपने मां-बाप से जिस तरह का बर्ताव पाते हैं.......वही शायद हम फिर अपनी ज़िंदगी में अपने संपर्क में आने वाले लोगों में बांटते चले जाते हैं... क्या मैं ठीक कह रहा हूं?

वैसे मेरी मां अपना एक ब्लॉग भी लिखती हैं.......आप यहां इसे देख सकते हैं.....क्या कहूं, क्या न कहूं?

पेशे-खिदमत है सभी मांओं की महानता को समर्पित पंजाब का यह सुपर-टुपर गीत..........उस गायकी की बादशाह कुलदीप मानक की आवाज़ में.........मां हुंदी ए मां ओ करमा वालेयो..........


शनिवार, 6 सितंबर 2014

काश! टेढ़े मेढ़े दांत सही करवाना सब के बस में होता..

आज सुबह मूड बड़ा खराब हुआ जब एक १२ वर्ष का लड़का अपनी मां के साथ आया..उस के टेढ़े मेढ़े दांत थे ..बाहर की तरफ़ निकले हुए.. वे लोग उसे सीधा करवाने आये थे।


चूंकि मैं वैसे भी इस तरह के इलाज का विशेषज्ञ नहीं हूं और न ही जिस सरकारी अस्पताल में मैं काम करता हूं वह इस तरह की इलाज उपलब्ध ही करवाता है।

मैंने उसे एक सरकारी डैंटल कालेज में जाने को तो कह दिया.....लेकिन मुझे यह कहते हुए बिल्कुल एक फार्मेलिटी सी ही लगती है। बहुत ही कम बार मैं देखता हूं कि लोग वहां इस काम के लिए जा पाते हैं......और शायद कईं सालों में कोई एक मरीज दिख जाता है जिसे सरकारी डैंटल कालेज में भेजा हो और जिस के बेतरतीब दांतों का इलाज वहां से पूरा हो गया है। ऐसा नहीं है कि वे लोग ये सब करते नहीं हैं, लेकिन जिन मरीज़ों को इस तरह का इलाज चाहिए होता है उन की संख्या ही इतनी बड़ी है कि उन की भी अपनी सीमाएं हैं।

यह बातें सब मैं अपने अनुभव के आधार पर लिख रहा हूं। टेढ़े मेढ़े दांतों वाले बच्चे देख कर मन बेहद दुःखी होता है....इसलिए कि मैं जानता हूं कि इन में से अधिकतर इस का कुछ भी इलाज नहीं करवा पाएंगे। मूड बड़ा खराब होता है। अच्छे भले ज़हीन बच्चे होते हैं लेकिन इन बेतरतीब दांतों की वजह से बस हर जगह पीछे पीछे रहने लगते हैं, बेचारे खुल कर हंसना तो दूर, किसी से बात भी करने में झिझकने लगते हैं।

हां, तो मैं उस १२ वर्ष की उम्र वाले लड़के की बात कर रहा था। मैंने ऐसे ही पूछा कि इन दांतों की वजह से कोई समस्या, तो उस की मां ने कहा कि इसे स्कूल में बच्चे चिढ़ाने लगे हैं।

उस की मां का इतना कहना ही था कि उस बच्चे की आंखों में आंसू भर आए... और एक दम लाल सुर्ख हो गईं। मुझे यह देख कर बहुत ही बुरा लगा कि यार, इस बच्चे को दूसरे बच्चों ने कितना परेशान किया होगा कि मेरे सामने अपनी तकलीफ़ बताने से पहले ही इस के सब्र का बांध टूट गया। मैंने उसे धाधस बंधाया कि यार, देखो, ये जो स्कूल में परेशान करने वाले लड़के होते हैं ना, इन की बातों पर ध्यान नहीं देते, यह तुम्हारी पढ़ाई खराब करने के लिए यह सब करते हैं, यह सुन कर उस ने तुरंत रोना बंद कर दिया।

इस देश में हर तरफ़ व्यापक विषमता है......कोई मां-बाप तो बच्चे के एक एक दांत के ऊपर हज़ारों खर्च कर देते हैं लेकिन अधिकांश लोगों की इतनी पहुंच नहीं होती, पैसा सीमित रहता है, जिस की वजह से इस तरह का बेहद ज़रूरी इलाज चाहते हुए भी वे करवा नहीं पाते।

सरकारी अस्पतालों में कहीं भी...... सरकारी डैंटल कालेजों में भी इस तरह का इलाज........टेढ़े मेढ़े दांतों पर तार लगाने का या ब्रेसेज़ लगाने का काम पूरी तरह से या फिर ढंग से होते मैंने देखा नहीं है......इतनी चक्कर पे चक्कर कि मरीज़ में या उस के मजबूर मां-बाप में एक्स्ट्रा-आर्डिनरी सब्र ही हो तो ही मैंने इस इलाज को पूरा होते देखा है। इस तरह की इलाज ही नहीं, ये दांतों के इंप्लांट, ये फिक्स दांत आदि भी कहां सरकारी अस्पतालों में लग पाते हैं.........

किरण बेदी की एक किताब का यकायक ध्यान आ गया.....कसूरवान कौन?.......मुझे भी नहीं पता कि कसूरवार कौन......मरीज़ों की इतनी बड़ी संख्या.. सरकारी अस्पतालों के दंत विभाग ...यहां तक कि सरकारी डैंटल कालेज भी ...आखिर क्या करें, उन की भी अपनी सीमाएं हैं--- स्टॉफ की, बजट की...समय की..........वे भी कितने मरीज़ों को इस तरह का इलाज मुहैया करवा सकते हैं।

मैंने बहुत बार अब्ज़र्व किया है कि इस तरह के टेढ़े-मेढ़े दांतों से परेशान लड़के-लड़कियां डिप्रेस से दिखते हैं.....बुझे बुझे से......प्राईव्हेट में इस का खर्च १५-२० हज़ार तो बैठ ही जाता है। अब मैंने इन मां-बाप को इस बात के लिए मोटीवेट करना शुरू कर दिया है कि आप लोग बच्चों की कोचिंग, ट्यूशन आदि पर भी हज़ारों रूपये बहा देते हो, इसलिए आप किसी क्वालीफाइड आरथोडोंटिस्ट (जो दंत चिकित्सक टेढ़े मेढ़े दांत को सही करने का विशेषज्ञ होता है).... से मिल कर ही इस का करवा लें, अगर ऐसा करवा पाना आप के सामर्थ्य में है।

तो मैं फिर किस मर्ज की दवा हूं........मैं अपने पास आने वाले हर बच्चे का इलाज इस तरह से करता हूं कि मेरी कोशिश यही रहती है कि वह किसी तरह से इस तरह के महंगे इलाज से बच जाए......पैसे के साथ साथ समय की भी बचत.... और अगर कभी बाद में उसे इस तरह के इलाज की ज़रूरत भी पड़े तो वह साधारण से इलाज से ही ठीक हो जाए। मेरी शुरू से ही यह मानसिकता रही है.......... पूरी कोशिश करता हूं.......जो मेरे कंट्रोल में है पूरा करता हूं......इसे Preventive Orthodontics कहते हैं।

वापिस उसी बच्चे पर आता हूं........मैं उस की मां को यह सब समझा ही रहा था कि उस बच्चे की आंखे फिर से भर आईं....मुझे फिर बुरा लगा..... फिर मुझे कहना ही पड़ा...यार, तुम इन बच्चों की बातों पर ध्यान ही न दिया करो....सब से ज़्यादा ज़रूरी तो पढ़ना ही है.... मै पूछा .. तुम ने कल प्रधानमंत्री मोदी का भाषण सुना.....झट से चुप गया और कहने लगा, हां......मैंने कहा ...अच्छा लगा?.. उसने कहा ... हां....मैंने कहा कि तुम देखो कि अगर एक चाय बेचने वाला इंसान इतनी कठिनाईयों को झेल कर देश के प्रधानमंत्री के पद तक पहुंच गया तो तुम क्या नहीं कर सकते, जिन लोगों ने आगे बढ़ना होता है, वे किसी की बातों पर ध्यान नहीं देते...........मुझे सख्ती से यह भी कहना पड़ा.......कुत्ते तो भौंकते ही रहते हैं, शेर चुपचाप मस्ती से आगे निकल जाता है........यार, मुझे पता नहीं यह कहावत ठीक भी थी कि नहीं, लेकिन अगर उस बालक का मूड उस बात से सही हो गया तो ठीक ही होगी।

मैंने उसे एक सरकारी डैंटल कालेज में भेज तो दिया है........कि एक बार चैक तो करवाओ, फिर देखते हैं कि इस के लिए क्या बेस्ट किया जा सकता है। 

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

जब मैंने अपने टीचर का जेब-खर्च शुरू किया...

आज है अध्यापक दिवस, गुरू उत्सव, टीचर दिवस ..कुछ भी कह लें।

मैंने आज देखा कि सोशल मीडिया पर लोगों ने अपने अपने टीचरों के बारे में लिखा।

मैं भी अपने सभी टीचरों के बारे में लिखना चाहता हूं लेकिन यही डर लगता है कि कहीं किसी का नाम छूट न जाए। अगर एक भी नाम छूट गया तो बहुत नाइंसाफी हो जाएगी।

उस्ताद की लिस्ट ही इतनी लंबी होती है..सब से पहले शुरूआत अपनी मां सब से पहली गुरू...पिता जी अपने गुरू....फिर हर ऐसा आदमी या औरत जो अभी तक ज़िंदगी में मिले और जिन से कुछ न कुछ सीखा।

मैं ऐसा मानता हूं कि हर आदमी या औरत जिस से भी मैं मिलता हूं .....इन में से कोई भी ऐसा नहीं है जिससे मैंने कुछ न कुछ सीखा न हो। हर व्यक्ति विलक्षण है... हर व्यक्ति के पास कुछ ऐसे अनुभव हैं जिस से हम लाभान्वित हो सकते हैं।

फिर भी अपने प्राइमरी टीचर -- पांचवी कक्षा के टीचर का नाम लेने की भी बहुत इच्छा हो रही है... लेकिन लिखूंगा नहीं....कारण आप दो मिनट में समझ जाएंगे, वे मुझे १९७३-७४ में पांचवी एवं छठी कक्षा में पढ़ाते थे। अच्छे से अपने विषयों को पढ़ने में रूचि उन की वजह से ही हुई।
This photograph is from the 1973 Magazine of DAV Multipurpose Higher Secondary School, Amritsar.
पांचवी कक्षा में जब मेरी छात्रवृत्ति आई तो बहुत अच्छा लगा. 10रूपये महीना तीन साल के लिए .....यह तस्वीर तब की है......यह सब उन मास्टर साहब की मेहनत का परिणाम था। रविवार के दिन भी वे हमें बुलाते मुझे अच्छे से याद है......सरकंडे की कलम तैयार करते हमारे लिए..... फिर हिंदी में सुंदर लिखने के गुर सिखाते....गणित-बीज गणित सब कुछ अच्छे से समझ आ जाता था।

मुझे याद है जब मैं छठी कक्षा में था तो मुझे बीजगणित में थोड़ी मुश्किल आने लगी....कुछ िदन मैंने देखा....एक दिन घर आकर रोने लगा.....मेरे पिता जी ने मेरे मास्टर जी को एक चिट्ठी लिखी थी उर्दू में......और उस दिन से मैं उन मास्टर साहब के पास कुछ महीने के लिए गणित की ट्यूशन रखी....महीने के अंत में मेरे पिता जी उन की ट्यूशन फीस एक लिफाफे में बंद कर के मेरे हाथ भेज दिया करते थे....पच्चीस रूपये महीना।

यह किसी टीचर को उस की फीस भेजने का सलाका भी मैंने उस १२ वर्ष की आयु में अपने पिता जी से ही सीखा....इस मायने में भी वे मेरे गुरू हुए.....अपने बच्चों के टीचरों को फीस खुले में कभी नहीं भेजे.....हमेशा बच्चे लिफाफा ही लेकर जाते रहे।

मैं अपने उस मास्टर जी से उन के अंत तक टच में रहा.....लगभग १५ वर्ष की बात है...... एक बार मैं उन्हें मिला उन के घर जाकर....किसी लेखक शिविर में गया हुआ था.....ढूंढते ढांढते पहुंच गया था उन के घर.. एक बहुत पुराना कंबल लपेटे हुए थे.... और यादाश्त खो चुके थे.....

एक बात लिखनी बड़ी घटिया लग रही है..... बहुत ही घटिया और ओछी सी लग रही है.....लेकिन केवल इसलिए लिख रहा हूं कि अपने टीचरों का हमें हमेशा सम्मान करते रहना चाहिए। वह बात यह है कि वे एक संयुक्त परिवार में रहते थे और मुझे उस दिन उन की स्थिति ऐसी लगी कि उन को भी जेबखर्च मिलना चाहिए।

मैं बड़ी विनम्रता पूर्वक उन्हें हर महीने ५०० रूपये मनीआर्डर करने शुरू कर दिए...... वे उस फार्म पर दस्तखत करने के भी लायक नहीं थे शायद, हमारे मास्टर साहब की श्रीमति जी के उस पर हस्ताक्षर हुआ करते थे। ओ ..हो...मुझे कितना अफसोस हुआ था पता है ...कुछ ही महीने बीतने पर फोन आया था कि मास्टर साहब नहीं रहे।

फिर एक घटिया और ओछी बात अपने बारे में कहता हूं. माफ़ करिएगा......लेकिन फिर भी इसलिए लिख रहा हूं कि पता नहीं कोई इस से प्रेरणा ले ले ........उन के स्वर्गवास के बाद मैंने उन की धर्मपत्नी को भी हर माह ५०० रूपये का मनीआर्डर करना जारी रखा..........लेकिन बेहद अफसोस जनक बात यही कि यह भी सिलसिला कुछ ही महीने चल पाया क्योंकि वे भी कुछ ही महीनों में चल बसीं। मुझे बहुत दुःख हुआ था उस दिन।

मास्टर साहब, से जुड़ी यादें........रौबीला व्यक्तित्व, मजाल कि क्लसा में कोई चूं भी कर जाए...... दोपहर के खाने के वक्त एक छात्र की ड्यूटी लगती कि जाओ बाहर दुकान से २५ पैसे का दही लेकर आओ (१९७३ के दिन) .....अपने खाने के डिब्बे में एक डिब्बा वह घर से दही के लिए खाली ही लाते थे...अच्छा लगता था उन के साथ स्कूल में दिन बिताना।

सब कुछ कल की ही बातें लगती हैं......... फिर स्कूल छोड़ने के बाद भी उन से मेल जोल बरकरार रहा... वह कभी कभी मेरे पिता जी से मिलने आ जाया करते थे.........और मैं बरसों तक उन से वैसे ही डरता था...एक तरह का सम्मान जिस का हम मान-सम्मान करते हैं.. उस से थोड़ा डर कर ही रहते हैं.........बस भाग कर बाज़ार से बिस्कुट, बरफी या समोसा लाना जब वे हमारे यहां आते थे तो अच्छा लगता था, बहुत अच्छा।

थैंक यू.........मास्टर जी।


और हां, एक उस्ताद को कैसे भूल गया.......यह है मेरा बड़ा बेटा......जिस ने मुझे इस लायक बनाया कि मैं यह सब आज नेट पर हिंदी में लिखने लायक हो पाया.......उस को उस की पढ़ाई के दिनों में मैंने बड़ा बोर किया...विशाल, यह कैसे करते हैं, वह कैसे करते हैं, यह बता यार, वह कैसे होगा........खीझ जाता था कईं बार....ईश्वर उसे दीर्घायु दे, स्वस्थ एवं खुश रखे और वह डिजिटल व्लर्ड में आप का मनोरंजन करता रहे। आमीन।

उस के इस योगदान के बारे में मैंने छः वर्ष पहले उस का धन्यवाद किया तो था.......मुझे नेट पर हिंदी में लिखना किस ने सिखाया......
थैंक विशाल, once again, मेरा उस्ताद बनने के िलए.....अपनी पढ़ाई की कीमत चुका कर भी मेरे प्रश्नों के उत्तर ढूंढते रहने के लिए.... तुम हमेशा मेरे उस्ताद ही रहोगे.......थैंक गॉड, उस दिन मैं तुम्हारी बात मान कर अपनी मूंछों पर कालिख पोतने से बचा लिया... when you told me 2-3 years ago......"dad, why all this? It doesn't suit you, must learn to age gracefully." Quite right!!


गुरुवार, 4 सितंबर 2014

पोर्नोग्राफी -- हां या ना?

दो दिन पहले सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने इस तरह के प्रश्न डालने शुरू किए.. संदर्भ यही था कि केंद्र सरकार विचार कर रही है कि सभी पोर्नोग्राफी (अश्लील साइटों) को बंद कर दिया जाए। आप का क्या ख्याल है, हां या ना.....मेरे विचार में हां, बिल्कुल सही निर्णय है, अगर यह हो जाए तो शायद बहुत कुछ बच जाए।

मैं यह ऐसा किसी नैतिक पुलिस के हवलदार की तरह नहीं कह रहा हूं....मुझे पता है लोग हर तरह की आज़ादी चाहते हैं......वे पोर्नोग्राफी देखें या नहीं, यह उन का शायद व्यक्तिगत मामला है....पता नहीं कितनी सच्चाई है इस बात में...लेकिन अगर इन पोर्नोग्राफी वेबसाइट्स की वजह से समाज में तरह तरह के सैक्स अपराध होने लगें और सरकार इस तरह का कोई कदम उठाती भी है तो मेरे विचार में बिल्कुल सही है।

केवल हमारा मन ही जानता है कि हम ने क्या कभी कुछ अश्लील देखा कि नहीं, यह देखने से हमें कैसा अनुभव हुआ... केवल यह हमारा मन ही जानता है। किस उम्र में हम ने पहली बार कुछ इस तरह का अश्लील देखा, यह भी हमारे मन ही में कैद रहता है.....लेकिन वह सब कुछ देखने का विपरीत असर ही हुआ।

मैं कुछ अनुभव बांटने लगा हूं......केवल यह बताने के लिए कि पोर्नोग्राफी हम लोगों के ज़माने में भी थी, केवल स्वरूप बदला है ...शायद इस चक्कर में पड़ने की उम्र और भी कम हो गई है.....मोबाईल से कुछ भी देख सकते हैं आज बच्चे, नेट है....सब कुछ बस एक क्लिक की दूरी पर उपलब्ध है।

मुझे अच्छे से याद है कि मैं आठवीं या नवीं कक्षा में रहा होऊंगा...1975-76 के दिन.....मुझे कहीं से एक नावल पड़ा हुआ मिल गया.. शायद मेरे से ८ साल बड़े भाई का ... हिंदी का नावल था... उस में एक दो पेज़ मुझे बड़े उत्तेजक लगते थे....मैं उन्हीं पन्नों को अपनी किताब में रख कर बार बार पढ़ता था. अच्छा लगता था, यह सिलसिला कुछ दिन तक चला। फिर पता नहीं कब यह सिलसिला अपने आप बंद हो गया।

हां, उन दिनों स्कूलों में कुछ बच्चे मस्तराम के छोटे छोटे नावल लाते थे....... ऐसा नहीं कि यह एक आम सी बात थी.....बस, कभी पता चल जाता था कि आज फलां फलां छात्र मस्त राम लाया है......अजीब सा लगता था यह सब। शायद एक आध बार कोई एक कहानी पढ़ भी ली हो... शायद नहीं यार, पढ़ी ही थी....उस उल्लू के पट्ठे की भाषा पढ़ कर उत्तेजना कम और हंसी कहीं ज़्यादा आती थी।

लेकिन सब से अहम् बात जो मैं आप से शेयर करना चाहता हूं कि नवीं कक्षा में एक लड़का अश्लील तस्वीरों वाली किताब भी कभी कभी लाया करता था और आधी छुट्टी के समय और दो पीरियड के बीच टीचर के आने से पहले वह छुप छुप के दूसरे छात्रों को भी वे तस्वीरें दिखाया करता था। शायद यह काम उस ने सारे वर्ष में दो-चार बार किया होगा।

बड़ा अजीब लगता था वह सब देखना........... अजीब कहूं या यह कहूं कि अच्छा लगता था.......लेकिन जो भी हो उस से पढ़ाई में खलल तो पड़ता ही था......उन तस्वीरों को देखने के बाद फिर उस दिन पढ़ाई में मन नहीं लगता था... सच बता रहा हूं।

बस, मैं रेखांकित इसी बात को करना चाहता हूं कि पोर्नोग्राफी तो पहले भी थी, हां, अब यह सब बहुत आसान हो गया लेकिन १९७५-७६ के आस पास यह सब कुछ चल रहा था .. उस के पहले का ब्यौरा किसी और को देना होगा।

देखो यार, जो भी हो, मैं तो पोर्नोग्राफी के बारे में इतना जानता हूं कि जैसी इनपुट होगी वैसी ही आउटपुट होगी.....जैसे विचार अंदर डाले जाएंगे वैसी ही प्रतिक्रिया बाहर आयेगी..........यह तो एक स्वाभाविक सी ही बात है, है कि नहीं? ...  

मेरे विचार में पोर्नोग्राफी देखने वाले की ज़िंदगी में भूचाल सा आ जाता है......वह जो देखता है, उसे वैसे ही करना चाहता है....अब यह अमेरिका तो है नहीं...इसलिए उसे हर समय शिकार की तलाश रहती है। वरना, आपने कभी ये शब्द सुने थे.....गैंग-रेप, सामूहिक बलात्कार, अप्राकृतिक यौनाचार.......बच्चों का शोषण...आए दिन इन्हीं खबरों से अखबारें भरी पड़ी होती हैं। अगर पोर्नोग्राफी खत्म हो जाएगी, दिमाग में इस तरह के फितूर का कीड़ा घुसेगा ही नहीं तो शायद समाज में शांति बनी रहे। आमीन।

यह भी देखिए......
अप्राकृतिक यौन संबंधों का तूफ़ान...

इतना कुछ पढ़ने के बाद, चलिए अब यह सुंदर गीत सुनते हैं....हम को मन की शक्ति देना.....दूसरों की जय से पहले खुद की जय कहें.......

बरसों बाद किया प्राणायाम्...

कल और परसों मैंने बरसों बाद प्राणायाम् किया। इसे मैंने सिद्ध समाधि योग के कार्यक्रमों एवं रिट्रिज़ (retreats) के दौरान अच्छे से सीखा था...लगभग २० वर्ष पहले...मुंबई में रहता था तब.. कईं वर्ष तक उसे नियमित करता रहा...और बार बार सिद्ध समाधि योग के प्रोग्राम भी अटैंड किया करता था। अच्छा लगता था, बहुत हल्का लगता था।

ध्यान (meditation) भी वहीं से सीखा... सब दीक्षा वहीं से हासिल हुई.....कृपा हुई गुरू ऋषि प्रभाकर जी की.. वे इस के संस्थापक थे।

इस पोस्ट के ज़रिये मैं कोई भाषण देने की इच्छा नहीं रखता। बस केवल अपने अनुभव आपसे शेयर करना चाहता हूं .. जो सीखा .. उसे आप के समक्ष रखना चाहता हूं।

प्राणायाम् आप कृपया कभी भी किताब पढ़ कर या टीवी में देख कर न करें......आप इसे सिखाने वाले किसी गुरू का पता करें.....हर काम सीखने के लिए उस्ताद चाहिए होता है, उसी प्रकार इस सूक्ष्म ज्ञाण के लिए भी एक विशेषज्ञ चाहिए होता है..... गलत मुद्राएं विपरीत असर भी कर सकती हैं। यह एक बेहद वैज्ञानिक प्रक्रिया है दोस्तो।

मेरा अपना अनुभव प्राणायाम् का बेहद सुखद रहा। पता नहीं मैंने बीच में क्यों इसे करना छोड़ दिया....बस आलस की पुरानी बीमारी....लेकिन अभी भी जब भी इस का अभ्यास करता हूं तो बहुत ही हल्का महसूस होने लगता है....।

जैसा कि आपने भी सुना ही होगा कि प्राणायाम् में आखिर ऐसा भी क्या है कि आधे घंटे के प्राणायाम् अभ्यास के बाद इतनी स्फूर्ति और नवशक्ति का आभास होने लगता है....तुरंत ..बिल्कुल उसी समय....।

इस का कारण है कि सामान्य हालात में हम लोगों की सांस लेने की प्रक्रिया हमारे बाकी कामों की तरह बड़ी शैलो (सतही) होती है...हम ज़्यादा अंदर तक सांस नहीं भर पाते....जिस की वजह से ऑक्सीजन की सप्लाई भी पूरी मात्रा में हमारे फेफड़ों तक नहीं पहुंचती.... और ज़ाहिर सी बात है कि अगर वहां नहीं पहुंचती तो फिर शरीर के विभिन्न अंगों तक भी यह पर्याप्त मात्रा में पहुंच नहीं पाती......नतीजा हम सब के सामने... थके मांदे रहना, उमंग का ह्रास, बुझा बुझा सा दिन........लेकिन प्राणायाम् करते ही नवस्फूर्ति का संचार होने लगता है।

एक ज़माना था .. कईं वर्ष तक मैं सुबह और शाम दोनों समय प्राणायाम् अभ्यास किया करता था और दोनों समय ध्यान करना भी मेरे दैनिक जीवन का हिस्सा हुआ करता था.......लेकिन सब कुछ जानते हुए भी ..इन सब के महत्व को जानते हुए भी पता नहीं क्यों यह सब कईं वर्ष तक छूटा सा रहा.........अब फिर से करने लगा हूं तो अच्छा लगता है.....मन भी इस से एकदम शांत रहता है।

तनाव को दूर भगाने का इस से बढ़िया कारगर उपाय हो ही नहीं सकता, मैं इस की गारंटी ले सकता हूं.

स्वस्थ लोग तो करें ही, जो भी किसी पुरानी जीवनशैली से संबंधित बीमारी जैसे की मधुमेह और उच्च रक्तचाप जैसे रोग हैं, माईग्रेन हैं......जो लोग अवसाद या डिप्रेशन आदि के शिकार हैं, वे भी इस जीवनशैली को एक बार अपना कर तो देखें। जीवन में बहार आ जाएगी।

हां, एक बात अकसर मैं सब के साथ साझा करता रहता हूं कि जब हम लोग नियमित प्राणायाम्-ध्यान करते हैं तो हम अपने खाने के बारे में भी ज़्यादा सजग रहने लगते हैं......अपने विचारों को भी देखने लगते हैं......इस के बहुत ही फायदे हैं.....क्या क्या गिनाऊं........हमारे सारे तन और मन को एक दम फिट करने का अचूक फार्मूला है......कोई पढ़ी पढ़ाई बात नहीं है, अापबीती ब्यां कर रहा हूं।

तीस पैंतीस मिनट प्राणायाम् में लगते हैं....बस.........और इतने फायदे। आप भी आजमा कर देखिए।

फ्रिज में पानी किन बोतलों में रखें?

अपने अनुभव के आधार पर अपने पुराने लिखे को बदलते भी रहना चाहिए। इतनी इतनी बड़ी किताबों के संशोधित संस्करण निकलते रहते हैं. इसलिए ब्लॉगिंग में भी किसी बात पर टस से मस हुए बिना अड़े रहना ठीक नहीं लगता।

इसलिए दो साल पुरानी बात को थोड़ा बदल रहा हूं, अपने दो वर्ष के अनुभव के आधार पर।

मुझे किचन में रखी प्लास्टिक की बोतलें देख कर बहुत अजीब सा लगता है... देख कर ही सिर भारी होने लगता है.... वैसे तो जो प्लास्टिक की बोतलें बाज़ार में पानी डाल कर फ्रिज़ में रखने के लिए बिकती हैं, वे तो दो एक ही हैं, उन का भी कोई भरोसा नहीं है.....क्या प्लास्टिक इस्तेमाल करते होंगे, किस ग्रेड का इस्तेमाल होता होगा इन्हें बनाने में.......कहां कहां कोई मगजमारी कर सकता है?

वैसे किचन में कईं बार पुरानी मिनरल वाटर की बोतलें, पुरानी कोल्ड-ड्रिंक्स की प्लास्टिक की बोतलें दिख जाती हैं जिन के बारे में बस इतना कहना चाहता हूं कि ये बोतलें केवल और केवल सिंगल इस्तेमाल के लिए होती हैं...... और यह भी विकसित देशों में तैयार इन बोतलें के बारे में कहा जाता है। इसलिए आप भली भांति सोच विचार कर सकते हैं कि क्या हम लोग इस तरह की बोतलों में पानी स्टोर कर के ठीक करते हैं ?

इसी प्लास्टिक की समस्या की वजह से ही मैंने दो वर्ष पहले एक पोस्ट लिखी थी......अभी ढूंढी तो मिल गई......प्लास्टिक की वॉटर बोतल फ्रिज में रखते समय सोचें ज़रूर.... इस में मैंने एक तरह से फ्रिज में कांच की बोतलों में पानी भर कर रखने की सिफारिश की थी। यह दो वर्ष पुरानी बात थी जब मैंने प्लास्टिक की बोतलों के बारे में कुछ भयानक बातें पढ़ी थीं।

लेिकन अनुभव के आधार पर इन दो वर्षों में जो सीखा वह आप से शेयर करना चाहता हूं......कांच की इन भारी भरकम बोतलों में पानी भर कर रखना बड़ा मुश्किल सा काम है......इन्हें बार बार उठाना --इधर उधर करना ही भारी भरकम सा काम है।

एक बात और भी तो है कि इन भारी भरकम कांच की बोतलों में पानी भरना भी थोड़ा सा मुश्किल काम है......थोड़ा बहुत वेस्ट हो जाता है इन्हें भरने के चक्कर में........इन्हीं दो कारणों की वजह से हम ने भी अब इन में पानी स्टोर करना बंद कर दिया है।


इसलिए यह विचार आते ही कल रात मैंने जब फ्रिज से पानी उठाने के लिए इसे खोला तो ये स्टील और तांबे की बोतलें एक लाइन में लगी देख कर अच्छा लगा, सोचा आप से भी यह तस्वीर शेयर करता हूं......वैसे भी तांबे में पानी स्टोर करने के कुछ लाभ भी तो बताते ही हैं आयुर्वेदिक विशेषज्ञ.....इस तरह की स्टील और तांबे की बोतलों को साफ़ करना भी आसान है........लेकिन मेरी श्रीमति कहती हैं कि तांबे की बोतलों की यदा कदा चमकाने में खासी मशक्कत करनी पड़ती है।

बहरहाल, हम लोगों की पुरानी आदतें कहां इतनी आसानी से जाती हैं....... कांच की बोतलों में पानी रखने की जगह पर यह कांच का जग ज़रूर फ्रिज में पड़ा रहता है।

पानी की बातें करते करते गंगा मैया का ध्यान आ गया....... कल सुप्रीम कोर्ट ने भी गंगा की सफाई करने हेतु तैयार एक्शन-प्लॉन को देखने के बाद सरकार से पूछा है कि क्या गंगा इस सदी में साफ़ हो पाएगी?

Are plastic bottles a health hazard?

गंगा मैया को समर्पित यह सुंदर गीत........या भजन...कितने वर्षों से इसे बड़े बड़े लाउड स्पीकरों पर सुनते आ रहे हैं...



मंगलवार, 2 सितंबर 2014

मेरे पसंदीदा और नापसंदीदा विषय़...

अतीत के झरोखों से आज इस विषय पर कुछ कहने की इच्छा हो रही है....

स्कूल से शुरू करता हूं.. स्कूल के दिनों में जो विषय मुझे सब से बेकार और उबाऊ लगता था ..वह हिस्ट्री-ज्योग्राफी था। मुझे याद है कि मैंने किताबें तो उस की कईं इक्ट्ठी कर रखी थीं लेकिन कभी भी इंटरस्ट आया ही नहीं। मास्टर लोगों के ऊपर भी बड़ा निर्भर करता है ना। स्कूल की छुट्टी होने से पहले वाला पीरियड उसी का था लेकिन वर्दी की वजह से पीटता रहता था वह हम लोगों को --बारी बारी से।

इस विषय में इतना कमज़ोर रहा था कि अभी तक भी हिस्ट्री-ज्योग्राफी का ज्ञान बस यहां तक सीमित है कि हिंदोस्तान से आगे समुद्र हैं ..एक अमेरिका है, एक इंगलैंड ...यूरोप का भी नाम सुना है। बिल्कुल ज़ीरो हूं हिस्ट्री-ज्योग्राफी में। हिस्ट्री पढ़ने की कभी इच्छा नहीं हुई..सिवाए उस पेटू बादशाह के जो बहुत सा खाना खाया करता था....शायद मुहम्मद तुगलक .. और एक महमूद गजनवी के बारे में पढ़ने में रूचि थी जिसने हमारे देश में बड़ी लूटपाट मचाई। बाकी कोई तारीखें याद नहीं हुईं .. नफ़रत थी..... पलासी, पानीपत की पहली, दूसरी, तीसरी लड़ाई.....यार लड़ लो न एक ही बार में, क्यों बार बार लफड़े कर के छात्रों को परेशान करते हो।

दसवीं की परीक्षा के बाद मुझे रिज़ल्ट आने तक इसी बात की चिंता थी कि वैसे तो बाकी विषयों में मेरे ८०-९०प्रतिशत तो आएंगे ही .. लेकिन हिस्ट्री-ज्योग्राफी में फेल हो जाऊंगा.....बड़ी बदनामी हो जायेगी, यही बात परेशान करती रहती थी। लेकिन शुक्र हो उस अनजान टीचर का जिस ने पता नहीं किस शुभ घड़ी में पेपर जांचे होंगे और पता नहीं उस में उसे कौन सी गप्प पसंद आ गई होगी कि १५० में से ९६ अंक आ गए.......पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की मेरिट में आने की इतनी खुशी न थी जितनी हिस्ट्री-ज्योग्राफी में पास होने की थी।

हां, कालेज चलते हैं........मेरा कालेज में सब से पसंदीदा सब्जैक्ट था .......बॉटनी.....वनस्पति विज्ञान। बहुत अच्छा लगता था दसवीं के बाद अगले दो साल उस विषय को पढ़ना....पेढ़-पोधों, पत्तियों को जानना अच्छा लगता था.....बहुत ही अच्छा.....इतनी अच्छे से अमृतसर के डीएवी कालेज के कंवल सर पढ़ाया करते थे कि कब पीरियड खल्लास हो जाता था पता ही नहीं चलता था। मैं सोचता था अगर डाक्टरी वाक्टरी में नहीं भी गया तो चुपचाप बीएससी और फिर बॉटनी में एमएससी और उस के बाद पीएचडी करूंगा। आज भी मुझे पेढ़-पौधों- पत्तियों से बेहद लगाव है.. जुड़ाव है........इस कद्र यह जुड़ाव है कि मेरे विचार में सारी कायनात में दो तरह के लोग हैं.......वनस्पति प्रेमी और वनस्पति को प्रेम न करने वाले।

हां, यार, एक बात याद आ गई.....मैंने ३५-३६ साल पुरानी अपनी बॉटनी की एक कापी भी संभाल कर रखी हुई है.... अभी इस ढूंढ कर एक चित्र यहां टिकाता हूं।

अब चलिए मैडीकल कालेज के अनॉटमी विभाग की तरफ़.........मुझे ज़रा भी समझ नहीं आता था. लगता था कि कहां फंस गये। सब कुछ सिर के ऊपर से निकल  जाता था। न तो कुछ थ्यूरी और न ही प्रैक्टीकल में पल्ले पड़ता था..... पता नहीं उस विभाग में ही कुछ तो था......सब कुछ डरावना डरावना सा.....सारी बूथियां खौफ़नाक....जैसे शोक मनाने आई हों।

कुछ न समझ पाने के चक्कर में मैं उस में पहली बार फेल हो गया....मैं पहली बार फेल हुआ था.......फिर क्या था, कुछ रट्टे वट्टे लगाये, दो तीन महीने, कुछ भी समझ नहीं आया फिर से.......बस जैसे तैसे पास हो गया सप्लीमैंटरी परीक्षा में......बस उस के बाद सब विषयों में रूचि बनती चली गई........और तीसरे वर्ष में आते आते टेम्पो इतना बन गया कि यूनिवर्सिटी में टॉप घोषित कर दिया गया....बस फिर तो ...उस रास्ते पर चल निकला।

इस पोस्ट की प्रेरणा मुझे मेरे एक मित्र डा कुलदीप बेदी की एक फेसबुक पोस्ट देख कर मिली जिस में उन्होंने एक खोपड़ी की तस्वीर टिकाई थी.....उस पर मैंने जो टिप्पणी दी वह भी आप के साथ शेयर कर रहा हूं.......

"मैं तो देखते ही डर गया.....अनॉटमी की वह खौफ़नाक सप्ली याद आ गई।।।
थैंक गॉड, जैसे तैसे पास हो गये.....
मेरे जैसा बंदा और लेटरल टैरीगॉयड की डाईसैक्शन.....मैं भी एग्जामीनर को इस तरह से ओरिजन और इन्सर्शन दिखाने लगा जैसे वह पहली बार देख रहा है किसी नईं डिस्
कवरी को.....उस दिन बड़ा बुरा लगा था.....डियर बेदी।
प्रैक्टीकल का ही तो बस थोड़ा अासरा था, थियूरी तो पहले ही गोल थी। और ऊपर से मैं ग्रेज़ एनाटमी की पोथी ऐसे रोज़ खोल के बैठ जाता था......... और दो मिनट में नींद आ जाया करती थी।"