मंगलवार, 25 मार्च 2008

मुंह के ये छाले..........भाग..I


मुझे अभी बैठे बैठे ध्यान आ रहा है कि पूरे पच्चीस वर्ष हो गये हैं मुंह के छाले के मरीज़ों को देखते हुये। लगता है कि अब समय आ ही गया है कि मैं इस विषय पर एक सीरिज़ लिख ही डालूं....अपने सारे अनुभव इक्ट्ठे कर के एक ही जगह डाल दूं.....बिल्कुल सीधी सादी भाषा में जिस में कोई इंगलिश में टैक्नीकल शब्दों का प्रयोग ना किया गया हो और अगर किया भी गया हो तो उन्हें पुरी तरह से समझाया जाये।


मेरे इस विचार का कारण यही है कि इस तरह के मुंह के छाले के इतने मरीज़ मेरे पास आते हैं और वे इतने भयभीत होते हैं कि मैं बता नहीं सकता । शायद यहां-वहां सुनते रहते हैं ना कि 15दिन के अंदर अगर मुंह के अंदर कोई घाव है, छाला है तो वह कैंसर हो सकता है। लेकिन अकसर जब उन को पता चलता है कि उन के केस में ऐसी चिंता करने की कोई बात ही नहीं है तो उन्हें बेहद सुकून मिलता है।


एक बात मैं यहां पर रेखांकित करना चाहता हूं कि जैसे हम कहते हैं ना कि चेहरा हमारे मन का आइना है , ठीक उसी प्रकार ही हमारा मुंह ( oral cavity)..हमारे शारीरिक स्वास्थ्य का प्रतिबिंब है ...कहने का भाव यही है कि हमारा स्वास्थ्य हमारे मुंह में प्रतिबिंबित होता है। तो, ठीक है मैं तैयार हूं अपना सारा अनुभव आप के साथ बांटने के लिये..............मैं यही प्रयत्न करूंगा कि इस सीरिज़ के दौरान किसी भी पहलू को अनछूया न रखूं।


इस पोस्ट के माध्यम से तो मैं आप सब से यही पूछना चाह रहा हूं कि आप को मेरा यह ख्याल कैसा लगा है.....बेहतर होगा अगर आप अपने विचारों से मेरे को अवगत करवायेंगे। अगर कुछ भी विशेष इस सीरिज़ में आप चाहते हैं कि कवर किया जाये तो आप मुझे इस विषय पर भविष्य में लिखी जाने वाली मेरी विभिन्न पोस्टों पर कह सकते हैं या मुझे कृपया ई-मेल कर सकते हैं.........मैं बिना आप का नाम लिये हुये आप के द्वारा उठाये गये प्रश्नों का उत्तर देने का पूरा प्रयास करूंगा।


वैसे अगर आप लिखेंगे तो मुझे बहुत खुशी होगी, प्रोत्साहन मिलेगा.....और मुझे इस विषय पर लिखने के लिये एक दिशा मिलेगी। वैसे बात ऐसी भी है कि अगर आप न भी लिखेंगे तो भी मैं अपने अनुभव इस सीरिज़ में शत-प्रतिशत इमानदारी से बांटता जाऊंगा क्योंकि मेरा काम ही यही है।

चाहे इस समय मेरे पास कोई खास अजैंडा नहीं है, लेकिन देखते हैं कि जब पिछले पच्चीस सालों के अनुभवों के सागर में गोते लगाने शुरू करूंगा तो क्या क्या निकलेगा...................और हां, मैं जहां भी ज़रूरत होगी विभिन्न प्रकार के मुंह के घावों की तस्वीरें भी आप को दिखाता रहूंगा। यह सब इसलिये करना चाहता हूं कि लोगों में इस स्थिति के बारे में बहुत से भ्रम तो हैं ही, भय-खौफ़ भी है और परेशानी तो है ही...और इसी चक्कर में वे कईं तरह की छालों पर लगाने वाली दवाईयां अपने आप ही खरीद कर लगानी शुरू कर देते हैं जो सर्वथा अनुचित है ।


बाकी बातें अगली पोस्ट में करेंगे।

मुंह के ये छाले..........भाग..I



मुझे अभी बैठे बैठे ध्यान आ रहा है कि पूरे पच्चीस वर्ष हो गये हैं मुंह के छाले के मरीज़ों को देखते हुये। लगता है कि अब समय आ ही गया है कि मैं इस विषय पर एक सीरिज़ लिख ही डालूं....अपने सारे अनुभव इक्ट्ठे कर के एक ही जगह डाल दूं.....बिल्कुल सीधी सादी भाषा में जिस में कोई इंगलिश में टैक्नीकल शब्दों का प्रयोग ना किया गया हो और अगर किया भी गया हो तो उन्हें पुरी तरह से समझाया जाये।


मेरे इस विचार का कारण यही है कि इस तरह के मुंह के छाले के इतने मरीज़ मेरे पास आते हैं और वे इतने भयभीत होते हैं कि मैं बता नहीं सकता । शायद यहां-वहां सुनते रहते हैं ना कि 15दिन के अंदर अगर मुंह के अंदर कोई घाव है, छाला है तो वह कैंसर हो सकता है। लेकिन अकसर जब उन को पता चलता है कि उन के केस में ऐसी चिंता करने की कोई बात ही नहीं है तो उन्हें बेहद सुकून मिलता है।


एक बात मैं यहां पर रेखांकित करना चाहता हूं कि जैसे हम कहते हैं ना कि चेहरा हमारे मन का आइना है , ठीक उसी प्रकार ही हमारा मुंह ( oral cavity)..हमारे शारीरिक स्वास्थ्य का प्रतिबिंब है ...कहने का भाव यही है कि हमारा स्वास्थ्य हमारे मुंह में प्रतिबिंबित होता है। तो, ठीक है मैं तैयार हूं अपना सारा अनुभव आप के साथ बांटने के लिये..............मैं यही प्रयत्न करूंगा कि इस सीरिज़ के दौरान किसी भी पहलू को अनछूया न रखूं।


इस पोस्ट के माध्यम से तो मैं आप सब से यही पूछना चाह रहा हूं कि आप को मेरा यह ख्याल कैसा लगा है.....बेहतर होगा अगर आप अपने विचारों से मेरे को अवगत करवायेंगे। अगर कुछ भी विशेष इस सीरिज़ में आप चाहते हैं कि कवर किया जाये तो आप मुझे इस विषय पर भविष्य में लिखी जाने वाली मेरी विभिन्न पोस्टों पर कह सकते हैं या मुझे कृपया ई-मेल कर सकते हैं.........मैं बिना आप का नाम लिये हुये आप के द्वारा उठाये गये प्रश्नों का उत्तर देने का पूरा प्रयास करूंगा।


वैसे अगर आप लिखेंगे तो मुझे बहुत खुशी होगी, प्रोत्साहन मिलेगा.....और मुझे इस विषय पर लिखने के लिये एक दिशा मिलेगी। वैसे बात ऐसी भी है कि अगर आप न भी लिखेंगे तो भी मैं अपने अनुभव इस सीरिज़ में शत-प्रतिशत इमानदारी से बांटता जाऊंगा क्योंकि मेरा काम ही यही है।

चाहे इस समय मेरे पास कोई खास अजैंडा नहीं है, लेकिन देखते हैं कि जब पिछले पच्चीस सालों के अनुभवों के सागर में गोते लगाने शुरू करूंगा तो क्या क्या निकलेगा...................और हां, मैं जहां भी ज़रूरत होगी विभिन्न प्रकार के मुंह के घावों की तस्वीरें भी आप को दिखाता रहूंगा। यह सब इसलिये करना चाहता हूं कि लोगों में इस स्थिति के बारे में बहुत से भ्रम तो हैं ही, भय-खौफ़ भी है और परेशानी तो है ही...और इसी चक्कर में वे कईं तरह की छालों पर लगाने वाली दवाईयां अपने आप ही खरीद कर लगानी शुरू कर देते हैं जो सर्वथा अनुचित है ।


बाकी बातें अगली पोस्ट में करेंगे।

7 comments:

Gyandutt Pandey said...

मेरी पत्नीजी होली मिलन में जो मिठाइयां चख कर आयी हैं, उससे मुँह में छाले पड़ गये हैं। अब वे मुँह में हल्दी लगा कर बैठी हैं।

PD said...

ज्ञान जी का कमेंट बहुत बढिया है..:)

वैसे मेरा अपना एक अनुभव है, जब मैं बहुत ज्यादा सिगरेट पीने लग गया था शायद दिन में 20 से भी ज्यादा तब मेरे मुंह में अक्सर छाले हो जाया करते थे..
आपका पोस्ट पढकर ध्यान आया.. आपने कल जब मुझे फोन किया था तब मैं मिटिंग में था और घर लौटते-लौटते रात 11 से ज्यादा बज गये थे और आज सुबह जल्दी जाना पर गया था सो फोन नहीं कर पाया, उसके लिये क्षमा चाहता हूं.. मैं अभी आपसे बात करता हूं..

Mired Mirage said...

अगली पोस्ट की प्रतीक्षा में !
घुघूती बासूती

दिनेशराय द्विवेदी said...

डॉक्टर साहब। आप ने मौके की बात की है। सिरीज आरंभ करने के पहले ही मरीज हाजिर हैं। रीता भाभी तो हैं ही। मेरे 22 वर्षीय पुत्र को छाले हर दूसरे माह हो जाते हैं। वह इन्दौर में पढ़ रहा है। भोजन भी सादा ही होता है, न अधिक तैलीय और न ही अधिक मसालेदार। हमारा कन्सेप्ट यह है कि कब्ज ही छालों का मुख्य कारण है। उसे कब्ज रहती भी है। इस कारण से उसे लगातार कब्ज दूर करने का कुछ न कुछ उपाय करते रहना पड़ता है। अभी होली पर दोनों भाई-बहन घर पर थे तो पुत्री की दांत की तकलीफ के कारण डेन्टिस्ट के यहाँ जाना पड़ा बेटा भी साथ था। उस के भी दाँत व मसूड़े कल और आज साफ करवाए गए हैं। मगर छालों पर असर कम ही नजर आ रहा है। डेण्टिस्ट ने कुछ दवाइयां छालों के लिए और कब्ज दूर करने की भी दी हैं। मगर उसे मोशन भी आज रात होने पर हुआ है। उसे वापस इन्दौर जाना था मगर वह रुक गया है एक-दो दिनों में तो उसे जाना ही होगा। उस के छालों का कोई स्थाई इलाज चाहिए। आप की इस श्रंखला को गौर से पढूँगा।

अनूप शुक्ल said...

सही विचार है। आप इलाज बताना शुरू करें। मरीज आते जायेंगे।

राज भाटिय़ा said...

चोपडा जी,मुझे लगता हे अब तो टिपण्णी देने के लिये भी पक्ति मे आना पडे गा,मुझे भी कभी कभी एक आधा सफ़ेद सा दाना होटो के अन्दर की तरफ़ हो जाता हे पहले तो एक दवाई लगा लेता था अब फ़िट्करी से एक दो बार कुल्ला कर लेता हु, फ़िर ठीक, मेने ध्यान दिया हे मे जब भी बिना धुली कच्ची सब्जई, फ़ल काता हु तभी यह फ़ुनंशी होती हे.

आशीष said...

अजी डॉक्‍टर साहब आप तो जारी रखें लोग आते जाएंगे

रविवार, 23 मार्च 2008

दूध-दही की नदियां............लेकिन कहां हैं ये ?

जैसे ही गर्मी थोड़ी बढ़ने लगेगी हमारे दूध वाले (जिस घर से जाकर हम ताज़ा दूध लाते हैं)...कहने लग जाते हैं कि पशुओं ने दूध सुखा दिया है, इसलिये अब कुछ महीनों तक आधा किलो या एक किलो दूध कम ही मिलेगा। यह आज की बात नहीं है, बचपन से ही देख रहा हूं। चलिये, सब से पहले अपने दूध लाने वाले दिनों की ही यादें थोड़ी ताज़ी कर लें।

सब से पहले तो हम लोगों को कभी भी उन दूध वालों के दूध पर कभी भरोसा हुया ही नहीं कि जो घर-घर साईकिल पर या मोटर-साईकिल पर दूध पहुंचाने जाते हैं। हो सकता है कि आप के विचार इस के बारे में बिलकुल अलग हों ,लेकिन मेरे विचार तो भई इस मामले में बहुत रिजीड़ से हैं .....शायद बचपन से ही किसी ने किसी परिवार के सदस्य को ही इस दूध को ढोते देख-देख कर ऐसी धारणा बन चुकी है। और बचपन के दिन याद हैं कि छठी-सातवीं कक्षा में जैसे ही साईकिल चलाना आया, तो दूध लाने के बहाने साईकिल पर घूम कर आने में बहुत मज़ा आता था। लेकिन छोटी छोटी अंगुलियां कभी कभी दूध के उस एल्यूमीनियम के या पीतल के भारी से ढोल को उठा कर थोड़ा थोड़ा दर्द भी करना शुरू कर देती थीं, लेकिन तब इस तरह की छोटी-मोटी बातों की भला किसे परवाह थी। खैर, बहुत मौके आये कि काफी लोगों ने जब ऑफर किया कि डाक्टर साहब, दूध आप के यहां घर ही पहुंच दिया करेंगे ना......लेकिन कभी भी मन माना नहीं ................हर बार यही लगा कि यार, इसे क्या इंटरैस्ट हो सकता है कि यह शत-प्रतिशत खालिस दूध ही मेरे यहां पहुंचायेगा। जब लोग आप की आंखों के सामने सब तरह की हेराफेरी कर रहे हैं तो ऐसे में इतनी ज़्यादा ईमानदारी की उपेक्षा करना भी कहां मुनासिब है।

खैर, जहां जहां से भी दूध लिया...........इतने विविध अनुभव रहे कि इस पर एक अच्छा खासा छोटा मोटा नावल लिख सकता हूं लेकिन अब किस किस बात पर ग्रंथ रचूं.........ब्रीफ़ में ही थोड़ा सा बतला रहा हूं कि कभी यह कहा जाता कि आज तो आप दूध दोहने के टाइम से पहले ही आ गये ...इसलिये जानबूझ कर आधा घंटा खड़ा रखा जाता....और अगले दिन जब लेट पहुंचा जाता तो पहले से ही निकला दूध यह कह कर थमा दिया जाता कि आज तो आप लेट हो गये, हमारे बछड़े को भूख लगी थी इसलिये हमें पहले ही निकालना पड़ा। अब पता नहीं असलियत क्या थी....बछड़े की भूख या कुछ और !!.....और भी बहुत सी बातें तो याद आ रही हैं लेकिन उन के चक्कर में पड़ गया तो केंद्र बिंदु से ही कहीं न हट जाऊं।

खैर, एक तरफ तो यह बात है कि गर्मी आते ही दूध की कमी की दुहाई दी जाने लगती है, लेकिन कईं वर्षों से मेरे मन में कुछ विचार रोज़ाना कईं कईं बार दस्तक देने के बाद ...हार कर, थक टूट कर लौट जाते हैं.................ऐसे ही कुछ विचारों से आप का तारूफ़ करवाना चाह रहा हूं.......

- बाज़ारों में इतना दूध हर समय कैसे बिकता रहता है ?
- इतनी शादियों, पार्टियों में इतना दूध लगता है , यह कहां से आता है?
- इतना ज़्यादा पनीर बाज़ार में बिकता है, इतनी बर्फी बिकती है, इतना मावा बिकता है, इतनी दही बिकती है ..........सोच कर सिर दुःखता है कि यह सब कहां से आता है?
- कुछ शहरों में जगह जगह सिक्का डालने पर मशीन से दूध बाहर आ जाने का भी प्रावधान है, यह दूध कैसा दूध हैर ?
- बम्बई में जहां हम रहते थे ....बम्बई सैंट्रल एरिया .....में, तो पास ही में एक बहुत बड़ी दूध की दुकान थी जिस में एक दूध का टैंकर बहुत बड़ी पाइप से दुकान के अंदर रखी एक बहुत बड़ी स्टील की टैंकी को भरने रोज़ाना आता था. यह क्या है ?...........क्या यह शुद्ध दूध है ?
- मिलावटी दूध की मीडिया में इतनी बात होती है लेकिन फिर भी डेयरी विशेषज्ञ लोगों को केवल इतना ही क्यों नहीं बता देते कि देखो, इस सिम्पल टैस्ट से आप यह पता लगा सकते हैं कि आप के यहां आने वाला दूध असली है या मिलावटी है......इस में कितना पानी मिला हुया है........ओहो, मैं भी पता नहीं किस सतयुग की बातें उधेड़ने लग जाता हूं.....अब कहां यह मुद्दा रहा है कि दूध में पानी कितना मिला हुया है और न ही अब यह मुद्दा ही रहा है कि जिस पानी से मिलावट की गई है ....वह स्वच्छ है भी या नहीं ......यह सब गुज़रे ज़माने की घिसी-पिसी बातें हैं.....अब तो बस यही फिक्र सताती है कि इस में यूरिया तो नहीं है, साबुन तो नहीं है.................लेकिन यह चिंता भी कभी कभी ही सताती है क्योंकि ज़्यादा समय तो हमें वो सास-बहू वाले सीरियल्स की , पाकिस्तान के नये प्रधानमंत्री के नामांकन की, या किसी विवाहित फिल्मी हीरो के अपनी को छोड़ कर किसी दूसरी अनमैरिड के साथ इश्क लड़ाने की चिंता सताती रहती है...............हमारा अजैंडा भी तो अच्छा खासा बदल गया है।

- ये जो बाज़ार में तरह तरह के पैकेटों में भी दूध बिकता है उस की भी शुद्धता की आखिर क्या गारंटी है ?....उन की मिलावट के बारे में भी आये दिन सुनते ही रहते हैं ।
- मैंने स्वयं अपनी आंखों से कुछ अरसा पहले देखा कि एक सवारी गाड़ी में सुबह के समय कुछ लड़के लोग अपनी अपनी दूध की कैनीयों में बाथरूम से पानी निकाल निकाल कर उस में उंडेल रहे थे। ये वही लोग हैं जिन के बारे में हम जैसे शहरी लोग यही सोच कर खुशफहमी पालते रहते हैं कि यार, हमारा दूध तो गांव से आता है। लेकिन मेरी उन नौजवानों को रोकने की हिम्मत थी नहीं.......और न ही कभी मैं यह हिमाकत करूंगा..............क्योंकि मैं भी खबरों में पढ़ता रहता हूं कि आज कल चलती गाड़ी में से किसी को फैंकने की वारदातें हो रही हैं।

आज तो इस पोस्ट के माध्यम से मैंने एक अच्छे मास्टर की तरह आप के मन में तरह तरह के प्रश्न डालने का काम किया है क्योंकि मैं समझता हूं कि एक अच्छा मास्टर अपने शागिर्दों के मन में विषय के प्रति उत्सुकता जगाने का काम ज़्यादा करता है.....सो, मैंने भी एक तुच्छ सा प्रयास किया है ।

यानि कि सब गोलमाल है भई सब गोलमाल है.................ईमानदारी से बतला दूं तो मुझे तो इस चक्रव्यूह से निकलने का कोई समाधान दिख नहीं रहा ।इसीलिये आप के सामने यह मुद्दा रख रहा हूं। कुछ दिन पहले मैं एक आर्थोपैडिक सर्जन का इंटरव्यू कर रहा था...जब दूध के कैल्शियम के सर्वोत्तम स्रोत होने की बात चली तो मैंने यह कहा कि बाज़ारों में तो इतना मिलावटी, सिंथैटिक किस्म का दूध बिक रहा है तो ऐसे में आम बंदे को आप का क्या संदेश है...................उस ने तपाक से उत्तर दिया कि मेरी तो लोगों को यही सलाह है कि दूध अच्छी क्वालिटी का ही खरीदा करें,...चाहे उस के लिये उन्हें कुछ ज़्यादा ही खर्च करना पड़े।

मैं उस का यह जवाब सोच कर यही मंगल-कामना करने लगा कि काश ! यह सब कुछ इतना आसान भी होता !!

वैसे जाते जाते एक विचार तो यह भी आ रहा है कि शहरों में अब गायें दिखती ही कहां हैं................नहीं ,नहीं , दिखती तो हैं ....जो तिरस्कृत कर दी जाती हैं और वे जगह जगह पर पालीथिनों के अंबारों पर तब तक मुंह मारती रहती हैं जब तक उन की जान ही नहीं निकल जाती या फिर बंबई के फुटपाथों पर भी अकसर एक गाय दिख जाती है जिस के पास बैठी औरत का पेट यह गाय पालती है......वह राहगीरों को एक-दो रूपये में चारे की एक दो शाखायें देती हैं जिसे वह उसी की गाय को खिला कर अपने पापों की गठड़ी को थोड़ा हल्का करने की खुश-फहमी पालते हुये आगे दलाल-स्ट्रीट की तरफ़......नहीं तो कमाठीपुरे जाने वाली पतली गली पकड़ लेता है।

और रही देश में दूध दही की नदियां बहने वाली बातें, वे तो शायद मनोज कुमार की किसी पुरानी फिल्म में दिखे तो दिखे........................वैसे, छोड़ो आप भी किन चक्करों में पड़ना चाह रहे हो, यह गीत सुनो और इत्मीनान से इंतज़ार करो अपने दूधवाले का , वह भी आता ही होगा !!

दूध-दही की नदियां............लेकिन कहां हैं ये ?


जैसे ही गर्मी थोड़ी बढ़ने लगेगी हमारे दूध वाले (जिस घर से जाकर हम ताज़ा दूध लाते हैं)...कहने लग जाते हैं कि पशुओं ने दूध सुखा दिया है, इसलिये अब कुछ महीनों तक आधा किलो या एक किलो दूध कम ही मिलेगा। यह आज की बात नहीं है, बचपन से ही देख रहा हूं। चलिये, सब से पहले अपने दूध लाने वाले दिनों की ही यादें थोड़ी ताज़ी कर लें।

सब से पहले तो हम लोगों को कभी भी उन दूध वालों के दूध पर कभी भरोसा हुया ही नहीं कि जो घर-घर साईकिल पर या मोटर-साईकिल पर दूध पहुंचाने जाते हैं। हो सकता है कि आप के विचार इस के बारे में बिलकुल अलग हों ,लेकिन मेरे विचार तो भई इस मामले में बहुत रिजीड़ से हैं .....शायद बचपन से ही किसी ने किसी परिवार के सदस्य को ही इस दूध को ढोते देख-देख कर ऐसी धारणा बन चुकी है। और बचपन के दिन याद हैं कि छठी-सातवीं कक्षा में जैसे ही साईकिल चलाना आया, तो दूध लाने के बहाने साईकिल पर घूम कर आने में बहुत मज़ा आता था। लेकिन छोटी छोटी अंगुलियां कभी कभी दूध के उस एल्यूमीनियम के या पीतल के भारी से ढोल को उठा कर थोड़ा थोड़ा दर्द भी करना शुरू कर देती थीं, लेकिन तब इस तरह की छोटी-मोटी बातों की भला किसे परवाह थी। खैर, बहुत मौके आये कि काफी लोगों ने जब ऑफर किया कि डाक्टर साहब, दूध आप के यहां घर ही पहुंच दिया करेंगे ना......लेकिन कभी भी मन माना नहीं ................हर बार यही लगा कि यार, इसे क्या इंटरैस्ट हो सकता है कि यह शत-प्रतिशत खालिस दूध ही मेरे यहां पहुंचायेगा। जब लोग आप की आंखों के सामने सब तरह की हेराफेरी कर रहे हैं तो ऐसे में इतनी ज़्यादा ईमानदारी की उपेक्षा करना भी कहां मुनासिब है।

खैर, जहां जहां से भी दूध लिया...........इतने विविध अनुभव रहे कि इस पर एक अच्छा खासा छोटा मोटा नावल लिख सकता हूं लेकिन अब किस किस बात पर ग्रंथ रचूं.........ब्रीफ़ में ही थोड़ा सा बतला रहा हूं कि कभी यह कहा जाता कि आज तो आप दूध दोहने के टाइम से पहले ही आ गये ...इसलिये जानबूझ कर आधा घंटा खड़ा रखा जाता....और अगले दिन जब लेट पहुंचा जाता तो पहले से ही निकला दूध यह कह कर थमा दिया जाता कि आज तो आप लेट हो गये, हमारे बछड़े को भूख लगी थी इसलिये हमें पहले ही निकालना पड़ा। अब पता नहीं असलियत क्या थी....बछड़े की भूख या कुछ और !!.....और भी बहुत सी बातें तो याद आ रही हैं लेकिन उन के चक्कर में पड़ गया तो केंद्र बिंदु से ही कहीं न हट जाऊं।

खैर, एक तरफ तो यह बात है कि गर्मी आते ही दूध की कमी की दुहाई दी जाने लगती है, लेकिन कईं वर्षों से मेरे मन में कुछ विचार रोज़ाना कईं कईं बार दस्तक देने के बाद ...हार कर, थक टूट कर लौट जाते हैं.................ऐसे ही कुछ विचारों से आप का तारूफ़ करवाना चाह रहा हूं.......

- बाज़ारों में इतना दूध हर समय कैसे बिकता रहता है ?
- इतनी शादियों, पार्टियों में इतना दूध लगता है , यह कहां से आता है?
- इतना ज़्यादा पनीर बाज़ार में बिकता है, इतनी बर्फी बिकती है, इतना मावा बिकता है, इतनी दही बिकती है ..........सोच कर सिर दुःखता है कि यह सब कहां से आता है?
- कुछ शहरों में जगह जगह सिक्का डालने पर मशीन से दूध बाहर आ जाने का भी प्रावधान है, यह दूध कैसा दूध हैर ?
- बम्बई में जहां हम रहते थे ....बम्बई सैंट्रल एरिया .....में, तो पास ही में एक बहुत बड़ी दूध की दुकान थी जिस में एक दूध का टैंकर बहुत बड़ी पाइप से दुकान के अंदर रखी एक बहुत बड़ी स्टील की टैंकी को भरने रोज़ाना आता था. यह क्या है ?...........क्या यह शुद्ध दूध है ?
- मिलावटी दूध की मीडिया में इतनी बात होती है लेकिन फिर भी डेयरी विशेषज्ञ लोगों को केवल इतना ही क्यों नहीं बता देते कि देखो, इस सिम्पल टैस्ट से आप यह पता लगा सकते हैं कि आप के यहां आने वाला दूध असली है या मिलावटी है......इस में कितना पानी मिला हुया है........ओहो, मैं भी पता नहीं किस सतयुग की बातें उधेड़ने लग जाता हूं.....अब कहां यह मुद्दा रहा है कि दूध में पानी कितना मिला हुया है और न ही अब यह मुद्दा ही रहा है कि जिस पानी से मिलावट की गई है ....वह स्वच्छ है भी या नहीं ......यह सब गुज़रे ज़माने की घिसी-पिसी बातें हैं.....अब तो बस यही फिक्र सताती है कि इस में यूरिया तो नहीं है, साबुन तो नहीं है.................लेकिन यह चिंता भी कभी कभी ही सताती है क्योंकि ज़्यादा समय तो हमें वो सास-बहू वाले सीरियल्स की , पाकिस्तान के नये प्रधानमंत्री के नामांकन की, या किसी विवाहित फिल्मी हीरो के अपनी को छोड़ कर किसी दूसरी अनमैरिड के साथ इश्क लड़ाने की चिंता सताती रहती है...............हमारा अजैंडा भी तो अच्छा खासा बदल गया है।

- ये जो बाज़ार में तरह तरह के पैकेटों में भी दूध बिकता है उस की भी शुद्धता की आखिर क्या गारंटी है ?....उन की मिलावट के बारे में भी आये दिन सुनते ही रहते हैं ।
- मैंने स्वयं अपनी आंखों से कुछ अरसा पहले देखा कि एक सवारी गाड़ी में सुबह के समय कुछ लड़के लोग अपनी अपनी दूध की कैनीयों में बाथरूम से पानी निकाल निकाल कर उस में उंडेल रहे थे। ये वही लोग हैं जिन के बारे में हम जैसे शहरी लोग यही सोच कर खुशफहमी पालते रहते हैं कि यार, हमारा दूध तो गांव से आता है। लेकिन मेरी उन नौजवानों को रोकने की हिम्मत थी नहीं.......और न ही कभी मैं यह हिमाकत करूंगा..............क्योंकि मैं भी खबरों में पढ़ता रहता हूं कि आज कल चलती गाड़ी में से किसी को फैंकने की वारदातें हो रही हैं।

आज तो इस पोस्ट के माध्यम से मैंने एक अच्छे मास्टर की तरह आप के मन में तरह तरह के प्रश्न डालने का काम किया है क्योंकि मैं समझता हूं कि एक अच्छा मास्टर अपने शागिर्दों के मन में विषय के प्रति उत्सुकता जगाने का काम ज़्यादा करता है.....सो, मैंने भी एक तुच्छ सा प्रयास किया है ।

यानि कि सब गोलमाल है भई सब गोलमाल है.................ईमानदारी से बतला दूं तो मुझे तो इस चक्रव्यूह से निकलने का कोई समाधान दिख नहीं रहा ।इसीलिये आप के सामने यह मुद्दा रख रहा हूं। कुछ दिन पहले मैं एक आर्थोपैडिक सर्जन का इंटरव्यू कर रहा था...जब दूध के कैल्शियम के सर्वोत्तम स्रोत होने की बात चली तो मैंने यह कहा कि बाज़ारों में तो इतना मिलावटी, सिंथैटिक किस्म का दूध बिक रहा है तो ऐसे में आम बंदे को आप का क्या संदेश है...................उस ने तपाक से उत्तर दिया कि मेरी तो लोगों को यही सलाह है कि दूध अच्छी क्वालिटी का ही खरीदा करें,...चाहे उस के लिये उन्हें कुछ ज़्यादा ही खर्च करना पड़े।

मैं उस का यह जवाब सोच कर यही मंगल-कामना करने लगा कि काश ! यह सब कुछ इतना आसान भी होता !!

वैसे जाते जाते एक विचार तो यह भी आ रहा है कि शहरों में अब गायें दिखती ही कहां हैं................नहीं ,नहीं , दिखती तो हैं ....जो तिरस्कृत कर दी जाती हैं और वे जगह जगह पर पालीथिनों के अंबारों पर तब तक मुंह मारती रहती हैं जब तक उन की जान ही नहीं निकल जाती या फिर बंबई के फुटपाथों पर भी अकसर एक गाय दिख जाती है जिस के पास बैठी औरत का पेट यह गाय पालती है......वह राहगीरों को एक-दो रूपये में चारे की एक दो शाखायें देती हैं जिसे वह उसी की गाय को खिला कर अपने पापों की गठड़ी को थोड़ा हल्का करने की खुश-फहमी पालते हुये आगे दलाल-स्ट्रीट की तरफ़......नहीं तो कमाठीपुरे जाने वाली पतली गली पकड़ लेता है।

और रही देश में दूध दही की नदियां बहने वाली बातें, वे तो शायद मनोज कुमार की किसी पुरानी फिल्म में दिखे तो दिखे........................वैसे, छोड़ो आप भी किन चक्करों में पड़ना चाह रहे हो, यह गीत सुनो और इत्मीनान से इंतज़ार करो अपने दूधवाले का , वह भी आता ही होगा !!


5 comments:

Gyandutt Pandey said...
दूध के बारे में जमाने से मेरा विचार था कि स्किम्ड मिल्क का पाउडर ले कर दूध बनाया जाये - वसा तो जरूरी है नहीं। अथवा सोयाबीन का दूध घर में बनाया जाये। पर हम किचन के प्रबन्धक हैँ नहीं। सो हमारी चल नहीं पाई!
आपने वाजिब चिंता व्यक्त की है।
राज भाटिय़ा said...
चोपडा जी एक राय आप भी एक बकरी खरीद लो ,फ़िर जब चाहो तभी ताजा दुध, याकिन ना आये तो मुंशी प्रेमचन्द जी की कहानी* कोई दुख न हो तो बकरी खरीद लो *पढे सच दुध बिना मिलावट के ओर ताजा मिलेगा.
SUNIL DOGRA जालि‍म said...
दूध तो बच्चे पीते हैं..
Neeraj Rohilla said...
हम तो कक्षा ५ तक यही समझते थे कि हिन्दुस्तान में दूध दही की नदियाँ बहती हैं और दूध बेचने वाले वहीं से डिब्बे भर कर लाते हैं । जब माताजी ने इस मिथक को तोडा था तब असलियत पता चली थी ।
mamta said...
प्रवीन जी पर इस समस्या का हल क्या है क्यूंकि हर कोई अपने घर मे गाय-बकरी तो नही पाल सकता है ना।

इसे बीस लाख लोग देख-सुन चुके हैं !!

बाहर कहीं पार्क में टहलने की बजाए अभी अभी यू-टयूब पर ही चहलकदमी करते हुये मुझे मेरा एक पसंदीदा गीत मिल गया...लेकिन यह केवल मेरी ही पसंद न थी, यू-टयूब के आंकड़ों से पता चला कि इसे अब तक लगभग बीस लाख लोग देख चुके हैं। मुझे यह गीत इसलिये पसंद है कि मैं इसे जितनी बार भी देखता हूं हर बार यही सोचता हूं कि इतना जबरदस्त डांस भी कोई कर सकता है। और मैं हर बार ऐश्वर्या राय से इतना प्रभावित होता हूं कि यही सोचता हूं कि राय जैसे आर्टिस्ट लोग अगर अपने काम को इतनी लगन से , शिद्दत से, इतनी तन्मयता से, इतने दिल से कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं अपने काम के प्रति यही भावना रख सकते। यह गीत अब थोड़ा पुराना होने लगा है लेकिन जब भी टीवी पर, रेडियो पर बजता है तो मैं सब काम छोड़-छाड़ कर इसे निहारने लगता हूं ........और एक तरफ़ है मेरी कलम से लिखे लेख...जिन्हें आठ घंटे बाद ही मेरे खुद की पढ़ने की इच्छा नहीं होती। तो हमें भी कुछ अद्भुत लेखन के लिये इस गीत के जैसे मास्टर-पीस प्रेरित करते हैं कि नहीं ?........आप को क्या लगता है। वैसे एक बात बता दूं कि मेरे हर पसंदीदा गीत के पीछे कुछ ऐसे ही राज़ छुपे होते हैं जिन्हें कभी कभार मैं आप के साथ बेझिझक बांटता रहूंगा ताकि आप भी मेरी तरह इन से प्रेरित हो सकें। ठीक है, अभी तो इसे सुनिये...............

शनिवार, 22 मार्च 2008

आज विश्व जल दिवस है..............अ..च्..छा..........तो ?

इस दिन अखबारों में इस के बारे में खूब चिल्ला-चिल्ली होती है। वैसे मैंने भी हिंदी के एक अखबार में इस से संबंधित एक विज्ञापन देख कर सुबह सुबह ही एक रस्म-अदायगी कर छोड़ी थी। लेकिन अब लेटे लेटे कुछ विचार आ रहे हैं जिन्हें अपनी स्लेट पर बेफिक्र हो कर लिख रहा हूं।

विचार आ रहा है कि तरह तरह के बहुत कुछ दावे हम लोग विभिन्न फोरमों पर सुनते रहते हैं कि पानी के क्षेत्र में हम लोग कुछ समय पहले कहां थे और अब देखो कहां के कहां आ गये हैं। सोच रहा हूं कि सचमुच ही कहां से कहां आ गये हैं.....विचार आया कि बचपन से शुरू कर के देख तो लूं कि आखिर हम ने इस दिशा में आखिर कितने परचम लहरा दिये हैं.....

स्कूल में पानी ...... सोच रहा हूं हम लोगों को कहां स्कूल में पानी ले कर जाने की ज़रूरत पड़ती थी !...बस, स्कूल में लगे हैंड-पंप से पानी भी पी लिया करते थे और एक दूसरे के ऊपर थोड़ा बहुत छिड़क कर रोज़ाना होली का आनंद भी लूट लिया करते थे ...जब फिर बड़े स्कूल में गये तो एक बहुत बड़ी पानी की टैंकी से अपनी ज़रूरत पूरी कर लिया करते थे जिस के नीचे 10-12 टूटियां लगी रहती थीं। और अब देखो, हमारे बच्चों को भारी भरकम बस्ते (हम तो भई इन्हें बस्ते ही कहते थे !) के साथ ही साथ इस पानी की बोतल का बोझ उठाने की भी चिंता सताये रहती है। और गर्मी के दिनों में तो अकसर यह बोतल भी कम पड़ जाती है। तो, अपने मन से पूछ रहा हूं कि क्या इस को विकास मान लूं कि छोटे बच्चों को अपनी सेहत के लिये पानी भी उठा कर ले जाने को विवश होना पड़ रहा है। लेकिन बच्चे भी क्या करें और इन के मां-बाप भी क्या करें.......हम ने तो प्राकृतिक संसाधनों का शोषण ही इतना कर दिया है कि क्या कहूं !

हाटेल में पानी .......जब भी बचपन में हम कभी होटल वगैरह या शादी-पार्टी (कहो तो उंगलियों के पोरों पर गिन कर रख दूं !!)..में जाते थे तो पानी पीने से पहले किसी तरह का सोचना थोड़े ही पड़ता था। लेकिन अब जब होटल में जाते हैं तो अकसर पानी की बोतल घर से उठा कर ले जाते हैं। और जब यह बोतल नहीं होती और छोटे बेटे की पानी पीने की इच्छा होती है तो वह झिझकते हुये पूछता है कि पापा, यह वाला पानी पी लूं..............तो हमें भी उतनी ही झिझक के साथ कहना ही पड़ता है कि बेटा, देखना एक-दो घूंट ही पीना, बस अब घर चल ही रहे हैं। तो क्या बच्चों को इस तरह से पानी पीने से भी जब डराया जा रहा है , ऐसे में इसे विकास मान लूं !

विवाह-शादियों का नज़ारा तो देखिये....बारातियों की सेवा के लिये अब तो प्लास्टिक के गिलास भी आते हैं....चाहे पहले बार चखी ( फ्री-फंड में !).....महंगी अंग्रेज़ी शराब के नशे में धुत अस्त-व्यस्त सी गुलाबी पगड़ी डाल कर झूमता हुया, तंदूरी चिकन की एक टंगड़ी को अपने गुटखे से रंगे हुये दांतों से छीलते हुये दुल्हे का मौसा उस पानी के गिलास का एक ही घूंट भरेगा , लेकिन सुबह तो इस तरह के सैंकड़ों प्लास्टिक के गिलास उस बैंकेट हाल के साथ लगते नाले को ब्लाक नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे.................समझ में नहीं आ रहा कि पानी परोसने के इस नये अंदाज़ को क्या विकास मान लूं !

वो दस रूपये वाली पानी की बोतल खरीदने को विकास मान लूं ?...........ट्रेन में दूध के लिये बिलखता किसी का नन्हा मुन्ना बच्चा रो-रो कर जब हार जाता है लेकिन उसे दूध नसीब नहीं होता, तो वह आखिर हार कर अपनी बिल्कुल कमज़ोर सी मां की सूखी छाती पर जब टूट पड़ता है और पास ही में मेरे जैसा कोई बाबू जैंटलमैन उस दस रूपये की पानी की बोतल को ज़रूरत न होने पर भी इसलिये बड़े ठाठ से पी रहा होता है कि यार, स्टेशन आ रहा है और इसे पिये बिना कैसे फैक दूं...... तो क्या इसे विकास मान लूं......................नहीं, नहीं , धिक्कार है ऐसी पानी की बोतल पर जिस पर खर्च किये पैसे से एक बच्चे का पेट भर सकता था।
वैसे तो जब देश में पेय-जल की समस्या पर हो रहे सैमीनारों के दौरान स्टेज पर इस तरह के पानी की दर्जनों बोतलें नज़र आने पर जो विचार मेरे मन को उद्वेलित करते हैं उन का मैं यहां पर जिक्र नहीं करना चाहूंगा..........फिर कभी देखूंगा....अभी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूँ।
पीछे कितना आ रहा था कि इन पानी की बोतलों में यह है ,वो है, कीटनाशकों के अवशेष हैं.....लेकिन क्या इन की बिक्री में कोई कमी दिख रही है, मुझे तो नहीं लगता। यही तो वास्तविक विकास है , और क्या !!

पानी शुद्धिकरण ...एक अच्छा-खासा उद्योग.................बचपन में नानी के यहां जाते थे तो हैंड-पंप का मीठा पानी पी कर मजा करते थे। थोड़े बड़े हुये तो देखा कि मां पानी की टूटी के ऊपर मल-मल के कपड़े की एक लीर बांध देती है ताकि मिट्टी रूक जाये और सांप वगैरह न आ जाये........थोड़े और बड़े हुये तो देखा कि एक फिल्टर सा पानी को स्टोर करने के लिये इस्तेमाल किया जाने लगा है......कुछ समय बाद शायद उस में लगी कैंडल्स के साथ भी प्राबलम होने लगी तो एक छोटा सा फिल्टर पानी की टूटी पर लगाने वाला ही 100-150 रूपये का चल निकला। बचपन में तो पानी के शुद्धिकरण के बारे में कभी सुना ही न था...बस एक बार याद है कि बड़े भाई को दस्त लगे थे तो, हमारे सामने रह रहे एक झोला-छाप नकली डाक्टर (तब पता नहीं था कि कौन असली और कौन नकली होता है, हमारा बचपन गांव जैसे माहौल में ही बीता है !)…..ने एक टीका लगा कर यह निर्देश दे दिया था कि पप्पू (मेरा बड़ा भाई ) को दो-तीन दिन पानी उबाल कर ही देना होगा।

वैसे सोचता हूं कि कितना आसान है मरीज़ों को इस तरह की सलाह दे देना कि पानी उबाल कर पी लेना.....लेकिन क्या यह इतना प्रैक्टीकल आइडिया है?......चूंकि मैं अपनी ही स्लेट पर लिख रहा हूं और ठीक-गलत की किसी तरह की परवाह किये बिना सब कुछ लिख रहा हूं कि मुझे कभी भी यह आइडिया प्रैक्टीकल लगा ही नहीं। हां, जब तक घर में कोई बीमार है तो समझ में आता है कि घर की गृहिणी यह एक्स्ट्रा काम खुशी खुशी कर लेगी...........लेकिन जिस तरह के ज़्यादातर लोगों के हालात हैं , परिस्थितयां हैं , ऐसे में मुझे इस तरह की किसी को सलाह हमेशा के लिये दे देना भी एक धकौंसलेबाजी ज़्यादा लगती है। लेकिन जो लोग यह पानी उबाल कर पीने की अपनी आदत निभा पा रहे हैं , वे बधाई के पात्र हैं............और उन्हें हमेशा यह आदत कायम रखनी चाहिये क्योंकि पानी को उबाल कर पीना बहुत फायदेमंद है।

वैसे तो मुझे इन क्लोरीन की गोलियों की भी एक आपबीती याद है। हमारे शहर में 1995 में बाढ़ आ गई.....मैं और मेरी मां हम जब एक-डेढ़ महीने बाद वापिस अपने घर पहुंचे तो वहां पर यह बात की बहुत चर्चा थी कि पानी में क्लोरीन की गोलियां डाल कर पीना होगा ताकि कीटाणुरहित जल का ही सेवन किया जाये। लेकिन सारा शहर छान लेने पर भी जब वे नहीं मिलीं तो हम ने उस मटमैले पानी को उबाल कर ही कितने दिनों तक इस्तेमाल किया ।
लेकिन अब मैं अपने मरीज़ों को इतना ज़रूर कहता हूं कि आप में से जो लोग भी अफोर्ड कर सकते हैं वे कोई भी इलैक्ट्रोनिक संयंत्र रसोई-घर में ज़रूर लगवा लें...क्योंकि यह अब किसी तरह की भौतिक सम्पन्नता का प्रतीक रह कर एक ज़रूरत ही बन चुका है। चूंकि ये अभी भी आम आदमी की पहुंच से बाहर हैं.....लगभग पांच हज़ार की मशीन और लगभग एक हज़ार रूपये की सालाना एएमसी.......इसलिये जब रतन टाटा ने नैनो कार के दर्शन करवाये तो उन्होंने आम आदमी के लिये एक जल-शुद्धिकरण यंत्र बाज़ार में उतारने की बात कही तो मुझे बहुत अच्छा लगा। मुझे नैनो से भी ज़्यादा खुशी इस यंत्र की होगी..।

अब छोड़े इन बातों को इधर ही, इन बातों को खींचने की तो कोई लिमिट है ही नहीं, जितना खींचेंगे खिंचती चली जायेंगी। तो , मैंने भी अपने अंदाज़ में विश्व जल दिवस मना लिया है। मैंने आज सुबह सुबह घऱ में कल ही लाये गये नये मटके से पानी ग्रहण कर लिया है। मेरी प्यास तो उस लंबी सी डंडी वाले स्टील के बर्तन से मटके से निकला पानी ही बिना मुंह लगाये पी कर ही बुझती है। एक साल में लगभग 8-9 महीने जब तक कि मटके के ठंडे पानी से दांत में सिहरन नहीं उठने लग जाती , तब तक तो मैं तो भई इसी तरह से ही पानी पीने का आदि हूं। हां, वो बात अलग है कि मटके में पानी उस इलैक्ट्रोनिक संयंत्र द्वारा शुद्ध किया ही डाला जाता है। सोचता हूं कि इस जालिम मटके के पानी की महक में भी क्या गज़ब की बात है कि बंदे को मिट्टी की सौंधी सौंधी खुशबू भी साथ में हर बार उस की माटी की याद दिलाती है जिससे उस के शरीर की प्यास ही नहीं रूह की प्यास भी मिटती दिखती है। अब मुझे लगता है कि फिलासफी झाड़ने पर उतरने लगा हूं..............इसलिये पोस्ट को तुरंत पब्लिश करने में ही समझदारी है।

आज विश्व जल दिवस है..............अ..च्..छा..........तो ?


इस दिन अखबारों में इस के बारे में खूब चिल्ला-चिल्ली होती है। वैसे मैंने भी हिंदी के एक अखबार में इस से संबंधित एक विज्ञापन देख कर सुबह सुबह ही एक रस्म-अदायगी कर छोड़ी थी। लेकिन अब लेटे लेटे कुछ विचार आ रहे हैं जिन्हें अपनी स्लेट पर बेफिक्र हो कर लिख रहा हूं।

विचार आ रहा है कि तरह तरह के बहुत कुछ दावे हम लोग विभिन्न फोरमों पर सुनते रहते हैं कि पानी के क्षेत्र में हम लोग कुछ समय पहले कहां थे और अब देखो कहां के कहां आ गये हैं। सोच रहा हूं कि सचमुच ही कहां से कहां आ गये हैं.....विचार आया कि बचपन से शुरू कर के देख तो लूं कि आखिर हम ने इस दिशा में आखिर कितने परचम लहरा दिये हैं.....

स्कूल में पानी ...... सोच रहा हूं हम लोगों को कहां स्कूल में पानी ले कर जाने की ज़रूरत पड़ती थी !...बस, स्कूल में लगे हैंड-पंप से पानी भी पी लिया करते थे और एक दूसरे के ऊपर थोड़ा बहुत छिड़क कर रोज़ाना होली का आनंद भी लूट लिया करते थे ...जब फिर बड़े स्कूल में गये तो एक बहुत बड़ी पानी की टैंकी से अपनी ज़रूरत पूरी कर लिया करते थे जिस के नीचे 10-12 टूटियां लगी रहती थीं। और अब देखो, हमारे बच्चों को भारी भरकम बस्ते (हम तो भई इन्हें बस्ते ही कहते थे !) के साथ ही साथ इस पानी की बोतल का बोझ उठाने की भी चिंता सताये रहती है। और गर्मी के दिनों में तो अकसर यह बोतल भी कम पड़ जाती है। तो, अपने मन से पूछ रहा हूं कि क्या इस को विकास मान लूं कि छोटे बच्चों को अपनी सेहत के लिये पानी भी उठा कर ले जाने को विवश होना पड़ रहा है। लेकिन बच्चे भी क्या करें और इन के मां-बाप भी क्या करें.......हम ने तो प्राकृतिक संसाधनों का शोषण ही इतना कर दिया है कि क्या कहूं !

हाटेल में पानी .......जब भी बचपन में हम कभी होटल वगैरह या शादी-पार्टी (कहो तो उंगलियों के पोरों पर गिन कर रख दूं !!)..में जाते थे तो पानी पीने से पहले किसी तरह का सोचना थोड़े ही पड़ता था। लेकिन अब जब होटल में जाते हैं तो अकसर पानी की बोतल घर से उठा कर ले जाते हैं। और जब यह बोतल नहीं होती और छोटे बेटे की पानी पीने की इच्छा होती है तो वह झिझकते हुये पूछता है कि पापा, यह वाला पानी पी लूं..............तो हमें भी उतनी ही झिझक के साथ कहना ही पड़ता है कि बेटा, देखना एक-दो घूंट ही पीना, बस अब घर चल ही रहे हैं। तो क्या बच्चों को इस तरह से पानी पीने से भी जब डराया जा रहा है , ऐसे में इसे विकास मान लूं !

विवाह-शादियों का नज़ारा तो देखिये....बारातियों की सेवा के लिये अब तो प्लास्टिक के गिलास भी आते हैं....चाहे पहले बार चखी ( फ्री-फंड में !).....महंगी अंग्रेज़ी शराब के नशे में धुत अस्त-व्यस्त सी गुलाबी पगड़ी डाल कर झूमता हुया, तंदूरी चिकन की एक टंगड़ी को अपने गुटखे से रंगे हुये दांतों से छीलते हुये दुल्हे का मौसा उस पानी के गिलास का एक ही घूंट भरेगा , लेकिन सुबह तो इस तरह के सैंकड़ों प्लास्टिक के गिलास उस बैंकेट हाल के साथ लगते नाले को ब्लाक नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे.................समझ में नहीं आ रहा कि पानी परोसने के इस नये अंदाज़ को क्या विकास मान लूं !

वो दस रूपये वाली पानी की बोतल खरीदने को विकास मान लूं ?...........ट्रेन में दूध के लिये बिलखता किसी का नन्हा मुन्ना बच्चा रो-रो कर जब हार जाता है लेकिन उसे दूध नसीब नहीं होता, तो वह आखिर हार कर अपनी बिल्कुल कमज़ोर सी मां की सूखी छाती पर जब टूट पड़ता है और पास ही में मेरे जैसा कोई बाबू जैंटलमैन उस दस रूपये की पानी की बोतल को ज़रूरत न होने पर भी इसलिये बड़े ठाठ से पी रहा होता है कि यार, स्टेशन आ रहा है और इसे पिये बिना कैसे फैक दूं...... तो क्या इसे विकास मान लूं......................नहीं, नहीं , धिक्कार है ऐसी पानी की बोतल पर जिस पर खर्च किये पैसे से एक बच्चे का पेट भर सकता था।
वैसे तो जब देश में पेय-जल की समस्या पर हो रहे सैमीनारों के दौरान स्टेज पर इस तरह के पानी की दर्जनों बोतलें नज़र आने पर जो विचार मेरे मन को उद्वेलित करते हैं उन का मैं यहां पर जिक्र नहीं करना चाहूंगा..........फिर कभी देखूंगा....अभी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूँ।
पीछे कितना आ रहा था कि इन पानी की बोतलों में यह है ,वो है, कीटनाशकों के अवशेष हैं.....लेकिन क्या इन की बिक्री में कोई कमी दिख रही है, मुझे तो नहीं लगता। यही तो वास्तविक विकास है , और क्या !!

पानी शुद्धिकरण ...एक अच्छा-खासा उद्योग.................बचपन में नानी के यहां जाते थे तो हैंड-पंप का मीठा पानी पी कर मजा करते थे। थोड़े बड़े हुये तो देखा कि मां पानी की टूटी के ऊपर मल-मल के कपड़े की एक लीर बांध देती है ताकि मिट्टी रूक जाये और सांप वगैरह न आ जाये........थोड़े और बड़े हुये तो देखा कि एक फिल्टर सा पानी को स्टोर करने के लिये इस्तेमाल किया जाने लगा है......कुछ समय बाद शायद उस में लगी कैंडल्स के साथ भी प्राबलम होने लगी तो एक छोटा सा फिल्टर पानी की टूटी पर लगाने वाला ही 100-150 रूपये का चल निकला। बचपन में तो पानी के शुद्धिकरण के बारे में कभी सुना ही न था...बस एक बार याद है कि बड़े भाई को दस्त लगे थे तो, हमारे सामने रह रहे एक झोला-छाप नकली डाक्टर (तब पता नहीं था कि कौन असली और कौन नकली होता है, हमारा बचपन गांव जैसे माहौल में ही बीता है !)…..ने एक टीका लगा कर यह निर्देश दे दिया था कि पप्पू (मेरा बड़ा भाई ) को दो-तीन दिन पानी उबाल कर ही देना होगा।

वैसे सोचता हूं कि कितना आसान है मरीज़ों को इस तरह की सलाह दे देना कि पानी उबाल कर पी लेना.....लेकिन क्या यह इतना प्रैक्टीकल आइडिया है?......चूंकि मैं अपनी ही स्लेट पर लिख रहा हूं और ठीक-गलत की किसी तरह की परवाह किये बिना सब कुछ लिख रहा हूं कि मुझे कभी भी यह आइडिया प्रैक्टीकल लगा ही नहीं। हां, जब तक घर में कोई बीमार है तो समझ में आता है कि घर की गृहिणी यह एक्स्ट्रा काम खुशी खुशी कर लेगी...........लेकिन जिस तरह के ज़्यादातर लोगों के हालात हैं , परिस्थितयां हैं , ऐसे में मुझे इस तरह की किसी को सलाह हमेशा के लिये दे देना भी एक धकौंसलेबाजी ज़्यादा लगती है। लेकिन जो लोग यह पानी उबाल कर पीने की अपनी आदत निभा पा रहे हैं , वे बधाई के पात्र हैं............और उन्हें हमेशा यह आदत कायम रखनी चाहिये क्योंकि पानी को उबाल कर पीना बहुत फायदेमंद है।

वैसे तो मुझे इन क्लोरीन की गोलियों की भी एक आपबीती याद है। हमारे शहर में 1995 में बाढ़ आ गई.....मैं और मेरी मां हम जब एक-डेढ़ महीने बाद वापिस अपने घर पहुंचे तो वहां पर यह बात की बहुत चर्चा थी कि पानी में क्लोरीन की गोलियां डाल कर पीना होगा ताकि कीटाणुरहित जल का ही सेवन किया जाये। लेकिन सारा शहर छान लेने पर भी जब वे नहीं मिलीं तो हम ने उस मटमैले पानी को उबाल कर ही कितने दिनों तक इस्तेमाल किया ।
लेकिन अब मैं अपने मरीज़ों को इतना ज़रूर कहता हूं कि आप में से जो लोग भी अफोर्ड कर सकते हैं वे कोई भी इलैक्ट्रोनिक संयंत्र रसोई-घर में ज़रूर लगवा लें...क्योंकि यह अब किसी तरह की भौतिक सम्पन्नता का प्रतीक रह कर एक ज़रूरत ही बन चुका है। चूंकि ये अभी भी आम आदमी की पहुंच से बाहर हैं.....लगभग पांच हज़ार की मशीन और लगभग एक हज़ार रूपये की सालाना एएमसी.......इसलिये जब रतन टाटा ने नैनो कार के दर्शन करवाये तो उन्होंने आम आदमी के लिये एक जल-शुद्धिकरण यंत्र बाज़ार में उतारने की बात कही तो मुझे बहुत अच्छा लगा। मुझे नैनो से भी ज़्यादा खुशी इस यंत्र की होगी..।

अब छोड़े इन बातों को इधर ही, इन बातों को खींचने की तो कोई लिमिट है ही नहीं, जितना खींचेंगे खिंचती चली जायेंगी। तो , मैंने भी अपने अंदाज़ में विश्व जल दिवस मना लिया है। मैंने आज सुबह सुबह घऱ में कल ही लाये गये नये मटके से पानी ग्रहण कर लिया है। मेरी प्यास तो उस लंबी सी डंडी वाले स्टील के बर्तन से मटके से निकला पानी ही बिना मुंह लगाये पी कर ही बुझती है। एक साल में लगभग 8-9 महीने जब तक कि मटके के ठंडे पानी से दांत में सिहरन नहीं उठने लग जाती , तब तक तो मैं तो भई इसी तरह से ही पानी पीने का आदि हूं। हां, वो बात अलग है कि मटके में पानी उस इलैक्ट्रोनिक संयंत्र द्वारा शुद्ध किया ही डाला जाता है। सोचता हूं कि इस जालिम मटके के पानी की महक में भी क्या गज़ब की बात है कि बंदे को मिट्टी की सौंधी सौंधी खुशबू भी साथ में हर बार उस की माटी की याद दिलाती है जिससे उस के शरीर की प्यास ही नहीं रूह की प्यास भी मिटती दिखती है। अब मुझे लगता है कि फिलासफी झाड़ने पर उतरने लगा हूं..............इसलिये पोस्ट को तुरंत पब्लिश करने में ही समझदारी है।

7 comments:

sunita (shanoo) said...

होली आपको बहुत-बहुत मुबारक हो...

दिनेशराय द्विवेदी said...

डॉक्टर साहब। आप की आदतें और सोच इस पोस्ट में बिलकुल मेरी जैसी हैं। आप की इस पोस्ट से पूरी सहमति है।
होली पर हार्दिक शुभ कामनाएं!

परमजीत बाली said...

आप को होली की बहुत-बहुत बधाई।

Gyandutt Pandey said...

हमारे एक सीनियर अफसर थे। रेलवे बोर्ड के सदस्य। उनके लिये बोतल बन्द पानी ले जाना मना था। वे फिल्टर या अक्वागार्ड के पानी का प्रयोग करते थे। किसी भी स्टेशन पर वाटर फिल्टरेशन प्लाण्ट का पूरी गम्भीरता से निरीक्षण करते थे। क्लोरीनेशन और उसकी आवृति पर पूरा जोर देते थे।
मेरे विचार से उनके जैसी सोच की जरूरत है वाटर मैनेजमेण्ट मेँ।

PD said...

होली की सुभकामनाऐं..

Sanjeet Tripathi said...

होली मुबारक डॉ साहेब!!

Vikas said...

अच्छा लेख है.पानी का भी बाज़ारीकरण हो गया है.कभी सोचा नही था की पानी खरीदना होगा और खरीदना भी हुआ तो चार बोतलों मे से चुनना होगा की कौन सा ज़्यादा अच्छा पानी है.