शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

हर सुबह का मूड अलग होता है..

और यह मूड हमारे मूड पर तो निर्भर करता ही है ...हमारे आस पास के नज़ारे पर भी निर्भर करता है।

मैंने आज के भ्रमण के लिए जो डगर चुनी आप देखिए वह कितनी सूनी है....इस तरह के सूने रास्ते कितने बेजान से लगते हैं।
इस तस्वीर में मैं नहीं हूं...

अभी मैं थोड़ा ही चला था कि मुझे सूर्य देवता के सुंदर दर्शन हो गये.....मन गदगद हो गया। आप देखिए यह तस्वीर कितनी सुंदर लग रही है।

वैसे यह लखनऊ का एक बहुत ही महत्वपूर्ण एिरया है ...इस सड़क पर रमाबाई अम्बेडकर रैली स्थल है। यहां पर जब मायावती की रैली होती है तो भारी संख्या में लोग देश के अलग अलग हिस्सों से जुटते हैं। हां, ध्यान आया शायद इस लोकसभा के चुनाव अभियान के दौरान राजनाथ सिंह की भी एक भव्य रैली इसी रैली स्थल पर हुई थी।




इस रैली स्थल पर मैंने सुना है कि यू पी सरकार की पुलिस का डेरा है...आज भी देखा तो इन के ही बैरेक अंदर दिखे।
वापिस आते हैं सूने रास्ते की तरफ...मैं जब भी इस रोड की तरफ़ निकलता हूं तो यही सोचता हूं कि इस रोड पर इतने कम लोग क्यों आते हैं भ्रमण के लिए।

फिर मैं सोचता हूं कि इस रोड के इतने निर्जीव से लगने का कारण यही है कि इस सारी रोड पर शायद ही कोई घना छायादार पेड़ हो। आप स्वयं देखिए...जो पेड़ लगे हैं ...वे किस तरह के हैं ....यह मैंने लखनऊ में बहुत सी जगहों पर देखा है...जितने भी स्मारक आदि पिछले कुछ सालों में बने हैं, उन के बाहर इस तरह के कांटेदार पेड़ ही लगे हैं....पता नहीं यह किस आफीसर की पसंद होगी....इस तरह के बिना छाया वाले कंटीले पेड़ ....वह कहावत कुछ कुछ सटीक लग रही है...

बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर
पंक्षी को छाया नही, फल लागे अति दूर।।



वैसे इस सूनी सड़क का फायदा ले रहे थे एक बेटी-बाप दिखने वाले दो बाशिंदे....वह आदमी अपनी बेटी को एक्टिवा चलानी सिखा रहा था...इस में कोई शक नहीं कि ऐसी सड़क तो ड्राईविंग सीखने वालों के लिए किसी वरदान से कम नहीं।

और यह क्या, तीन लड़के इतनी मस्ती में नीचे बैठ के क्या कर रहे हैं.........ओ हो...ये तो यहीं पर जंगल का आनंद ले रहे हैं.....बहुत ही बातें काश्मीर से कन्याकुमारी को जोड़ती हैं........एक बात यह भी है ...खुले में शौच....एक नज़र मेरी उन की तरफ गई और उधर विद्या बालन का वह डॉयलाग मेरे एफएम पर बज रहा था...जहां शौच वहां शौचालय.

बहरहाल, अब तक मेरी वापिसी यात्रा शुरु हो चुकी थी......मैंने देखा कि मैं तो कंटीले पेड़ों से गिले शिकवे करता रहा लेकिन ये बच्चे तो अपनी दादीनुमा मां या मांनुमा दादी के साथ साथ चलते चलते मस्ती में मस्त थे। इन से हम बड़ों को सीख लेनी चाहिए। और जहां तक दादीनुमा मां की बात है ...यह बड़ी त्रासदी है कि छोटी छोटी उम्र में भी महिलाएं इस तरह से ढल जाती हैं ...सेहत गिर जाती है कि एक ही नज़र में यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल लगता है कि ये साथ चल रहे बच्चों की मां है या दादी नानी।


वापिस लौटते लौटते मुझे दिख गया उस कहावत ..अपनी गली में तो कुत्ता भी शेर होता है...को चरितार्थ करता यह नज़ारा। शायद किसी दूसरे एरिये का कुत्ता आ पहुंचा इस जगह ...इस झुंड ने घेर रखा है इसे। वह भी कौन सा कम है, हार नहीं मान उस ने भी...मुझे बहुत बुरा लगता है जब ये कुत्ते किसी अकेले कुत्ते पर हावी होने की कोशिश करते हैं या फिर उस आदमी या औरत पर ही कमबख्त भौंकतें हैं जो सड़क से रद्दी कागज, प्लास्टिक की थैलियां, बोतलें आदि इक्ट्ठी करने के बाद दस रूपये का जुगाड़ कर पाते होंगे....आज कर के कुत्तों का रवैया भी भेदभाव वाला है।

आगे आया तो अन्ना हज़ारे की तस्वीर देख कर अन्ना हज़ारे के शिखर के दिन याद आ गये और किरण बेदी की भी याद आ गई ...एक कहावत और इस्तेमाल कर लें.....हर दिन होत ना एक समाना।


थोड़ा सा आगे आते ही देखा कि इन इन्द्री को बड़ा करने वाले ने और पतले वीर्य को गाड़ा करने वाले स्पैशलिस्ट महोदय ने भी अपनी खानदानी दुकानदारी का तंबू गाड़ रखा है.


और आज का भ्रमण खत्म होते होते हनुमान महाराज जी के दर्शन हो गये..

कैसा लगा आज के भ्रमण का मेरा वर्णऩ, लिखिएगा। 

पान मसाला...न जीने दे और न ही मरने दे

बहुत से लोगों के मन में यह बात होगी कि पान मसाला गुटखे खाते तो बहुत से लोग हैं...हर कोई थोड़े ही न मुंह के कैंसर से मर जाता है। इस का जवाब यही है कि किसे यह बीमारी घेर लेगी किसे छोड़ देगी...यह कोई नहीं कह सकता...अब अगर इस समझ के साथ कि देखते हैं हमें कुछ असर होता है कि नहीं...इस तरह के शौक पाल लिए हैं तो कोई क्या करे।

इस का मुंह इस से ज़्यादा नहीं खुल पाता...मुंह के पीछे का हिस्सा बिल्कुल चमड़े जैसा हो चुका है

यह २५ साल के अविवाहित युवक की फोटो है...मुंह में एक घाव था ..इसलिए मेरे पास कल आया था....मुंह चैक करने पर पाया कि इस का मुंह बहुत कम खुलता है...केवल इस की एक अंगुली ही मुंह में जा पाती है. मुंह का निरीक्षण करने पर पाया कि इसे मुंह के कैंसर की पूर्वावस्था है ...जिसे ओरल-सबम्यूकसफाईब्रोसिस कहते हैं....पूरे लक्षण इस में दिखे।

इस ने तंबाकू का कभी सेवन नहीं किया....१४ साल की उम्र में उसे पान मसाले की लत लग गई... दो साल खूब पानमसाला खाया...१६ वर्ष की आयु तक पहुंचते पहुंचते मुंह पूरा खुलना बंद हो गया।

यह लड़का डर गया और इसने पानमसाला कुछ महीनों के लिए छोड़ दिया। कुछ ही महीनों में कह रहा है कि मुंह फिर ठीक हो गया...और इसलिए फिर से पानमसाला चबाना शुरू कर दिया। (यह इस का कहना है कि मुंह ठीक हो गया..मुझे नहीं लगता कि मुंह पूरी तरह से ठीक हो गया होगा).

अब जब दूसरी बार पानमसाले की लत गई तो इस ने फिर से चार पांच साल खूब खाया ...और फिर इस के मुंह का बुरा हाल हो गया...मुंह में घाव हो गये, खाया पिया उस घाव में लगने लगा....आफत हो गई...किसी डाक्टर के पास गया...उसने कहा कि इस लत को छोड़ दे नहीं तो तू कुछ भी खाने के काबिल नहीं रहेगा....और तेरे गले में सुराख कर के पाइप डालनी पड़ेगी। यह बात सुन कर यह डर गया...इस ने पिछले चार पांच साल से तौबा कर रखी है ..कह रहा है कभी पानमसाला को नहीं खाया तब से।

लेिकन आप यह देखिए कि यह कमबख्त पानमसाला छोड़े चार पांच साल हो गये हैं लेकिन इस बीमारी ने इस का पीछा नहीं छूटा। कह तो रहा था कि उसे आराम है ...मुंह में अब घाव वाव नहीं है, खाया पिया भी आराम से बिना मुंह के मांस के अंदर जलन पैदा हुए ले पाता हूं...लेिकन डाक्टर निगाह से बीमारी जस की तस ही है...

इलाज इसने इस बीमारी का करवाया नहीं.... मैंने पूछा कि परिवारीजनों का पता है कि तुम यह खाते हो...कहने लगा है कि पता है तभी तो मेरे साथ आते नहीं है, कहते हैं कि हम क्या डाक्टर को जवाब दें कि तू क्या खाता रहा है!

पानमसाला गुटखा तंबाकू की वजह से मुंह के कैंसर एवं उन की पूर्वावस्था के केस देख कर मन बहुत दुःखी होता है। क्या करें.....अब मानता है कि गलती हो गई।

मुझे पता है कि इस बीमारी का इलाज करवाना हर एक के बस की बात नहीं है...लेिकन आप अनुमान लगाईए इस की परेशानी का ....खाना ठीक से खा नहीं पाता... केला तक खाने में पहले उसे हाथ में लेकर छोटे छोटे टुकड़े करता है फिर खाता है...आप को भी ऐसा नहीं लगता कि इस युवक की परेशानी की कल्पना मात्र से ही किसी का भी सिर दुःखने लग जाए।

यह इस युवक की स्टोरी नहीं है ..इस के भाई को भी यही समस्या है.......और इस के भाई की ही नहीं, मेरे पास आए दिन इस तरह के युवक आते रहते हैं..

इलाज इन तकलीफ़ का बहुत पेचीदा है....हम लोग इन्हें ओरल सर्जन के पास रेफर कर देते हैं....लेकिन मैंने आज तक एक भी मरीज वापिस आता नहीं देखा ... जिस ने मुझे दिखाया हो कि उसका मुंह खुल गया पूरा......उस के मुंह की जकड़न ठीक हो गई.....अब वे इलाज के लिए जाते नहीं हैं...या फिर दूसरे तरह के इलाज के चक्कर में पड़ जाते हैं कि मुंह में यह जैल लगा लेंगे ..वह लगा लेंगे ..ठीक हो जाएगा.....कुछ ठीक नहीं होता इस तरह के टोटकों से.....जब तक किसी ओरल सर्जरी के विशेषज्ञ इस का पूरा इलाज नहीं करते तब तक यह अवस्था ठीक नहीं होती।

और वैसे तो इलाज करवाने के बाद भी जकड़न फिर से कुछ केसों में हो जाती है।

और जैसा कि इस अवस्था का नाम ही है..मुंह के कैंसर की पूर्वावस्था....इस के कैंसर में तदबील होने की संभावना तो रहती ही है। और मुंह के कैंसर के मरीज़ कितने समय तक जिंदा रहते हैं , आप जानते ही होंगे!

सब से पहला कदम तो यही है इस के इलाज का कि पानमसाले को छोड़ दिया जाए...मैं तो अकसर अपने मरीज़ों को कहता हूं कि अगर इसे नहीं छोड़ सकते तो फिर इलाज भी मत करवाओ....ज़ाहिर सी बात है कि वे मान जाते हैं इस लत को छोड़ने के लिए....और अगर ढंग से इस का इलाज करवाया जाए तो कुछ फर्क तो पड़ता ही है......वैसे भी डाक्टरों की निगरानी में ऐसा मरीज रहता है तो मुहं की परिस्थिति का पता चलता रहता है...और इसे इन चीज़ों से दूर रहने की प्रेरणा भी निरंतर मिलती है।

दोस्तो बहुत लेख लिख गए इस विषय पर पिछले दस वर्षों में ...सच बताऊं तो अब इस विषय पर कुछ भी लिखने की इच्छा सी नहीं होती......सब चूXXपंती सी लगने लगी है कि हम लोग प्रतिदिन बकवास करते रहते हैं....सुनने को कोई राज़ी नहीं है, बस लिख कर अपने आप को तसल्ली दे लेते हैं।

बाकी बात शत प्रतिशत सच है कि ये सब जानलेवा शौक हैं.....कौन बच जाएगा, कौन लुट जाएगा....शायद कुछ लोग इस खेल को खेलना पसंद करते हैं।

मैं हैरान हूं कि इस तरह के खतरनाक पदार्थ बिकते ही क्यों हैं...हां, एक बात बताना भूल गया कि यह युवक ने कहा कि उसने एक बार ठीक होने पर जब फिर से पानमसाला खाना शुरू किया.....तो इसी भरोसे पर किया कि जब तक खा रहा हूं तो मुंह ना खुलने की परेशानी है, जब इसे खाना छोड़ दूंगा तो फिर से मुंह खुलने लगेगा......लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ....मुंह की बीमारी स्थायी ही हो गई।

हां, इस के मुंह में जो घाव है वह एक अकल की जाड़ के टेढ़े आने की वजह से है ...उस की दवाई दे दी है......दो तीन दिन बाद देखेंगे कि आगे क्या करना है।

इस उम्र के लड़कों में इस तरह की बीमारियां खुद की मोल ली हुईं देख कर मन बेहद दुःखी होता है...बेहद दुःखी..ब्यां करना मुश्किल है, शादी अभी इस की हुई नहीं, नौकरी लगी नहीं, खाने पीने के मौज मस्ती के दिन और मुंह का यह हाल!

अगर किसी २५ वर्ष के युवक की आपबीती पढ़ कर भी इस पोस्ट को पढ़ने वाले किसी भी बंदे का पानमसाले को हमेशा के लिए त्याग देने का मन न हो तो कोई उस को क्या कहे!

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

आज योगगुरू रामदेव की बात करते हैं...

कल मेरी मां रात को अपने हाथों पर नींबू घिस रही थीं...अचानक उन का ध्यान आसाराम की तरफ़ चला गया (क्योंकि इस तरह के टोटके वह खूब बांटते थे) और कहने लगीं कि समय समय की बात होती है...एक ज़माना था हज़ारों लाखों की संख्या में लोग उस के आने पर जुट जाया करते थे ..लेिकन फिर अचानक कैसे बिल्कुल पत्ता ही कट जाता है और कहने लगीं कि सुख के सब साथी...दुःख में ना कोई। सब कैसे किनारा कर लेते हैं। सोचता तो मैं भी हूं आसाराम के बारे में और उस के लाडले के बारे में ...लेकिन अब सोचने के लिए कुछ रह नहीं गया.

लेकिन अभी रामदेव के बारे में मैं कईं बार बहुत कुछ सोचता हूं। मैं अकसर सोचता हूं कि यह बंदा किस शिखर पर था और कहां से कहां ....। ठीक है, कल हरियाणा सरकार ने रामदेव को कैबिनेट मंत्री का दर्जा दे दिया...पहले हरियाणा शासन ने इन्हें ब्रॉंड अम्बेसेडर बना दिया..लेकिन अगर कपिल सिब्बल और चिदंबरम के साथ वह वाली मीटिंग न होती ..जिस में रामदेव कुछ पर्चा लिख कर दे आए थे...और एक वह रात जिस में रामलीला मैदान से रामदेव उठ कर रात को भाग लिए....उस दिन के बाद तो बस....। मुझे पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि कपिल सिब्बल और चिदंबरम अगर बाबा रामदेव की जन्मपत्री में ना होते तो आज बाबा कम के कम भारत के केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री तो बने ही होते। लेकिन आज बाबा की वे पांच सौ और हज़ार रूपये को बंद करवाने वाली बातें भी नहीं सुन रहीं!

रामदेव के योग शिविरों के बारे में यह सुन कर मेरे को बहुत अजीब लगता था कि आगे आगे वही लोग बैठते हैं जो हज़ारों के टिकट खरीदा करते थे ...पता नहीं अब भी यह सिलसिला चालू होगा लेकिन कुछ साल पहले तक तो मैं सुना ही करता था। योग विद्या जैसे अनमोल ज्ञान को हम पैसे से जोड़ कर देखें ...इस की कल्पना भी कैसे की जा सकती है? ...मुझे तब भी यह बात अजीब लगती थी...लेिकन जो था वह था ...क्या कर सकते थे! एक ध्यान यह भी आता है कि बिना पैसे के इस तरह के आयोजन किए भी कैसे जा सकते हैं !

फिर पतंजलि की दुकानें खुल गईं...अच्छा लगता था वहां जाकर आंवला कैंडी, शैंपू, साबुन, शक्कर, दलिया, आटा, मुलैठी, चूर्ण-वूरन ...पता नहीं क्या क्या ...खरीदना...लेकिन फिर कुछ समय बाद वहां जा कर एक किरयाना स्टोर जाने की फील आने लगी। 

यहां लखनऊ भी इन की दुकानों पर
जाते हैं तो देखते हैं लोग तरह तरह के मसाले, साबुन, धनिया पावडर वहीं से  ले रहे होते हैं....कईं बार तो अब मन में यही विचार आता है कि अब तो ये किराना की दुकानें लगने लगी हैं। और यह तस्वीर कल एक व्हाट्सएप ग्रुप तो मिली तो यही लगा कि पतंजलि में इतनी वैरायटी देख कर लोगों की अपेक्षाएं भी किस कद्र बढ़ती जा रही हैं। 

 जो भी है, बाबा रामदेव ने लोगों को सुबह पांच बजे उठने की आदत डाल दी ...और योगाभ्यास करवा दिया....मुझे अच्छे से याद है िक आज से १४-१५ बरस पहले जब इन के कैंप टीवी पर दिखाए जाते थे ..तो इन के पेट को अंदर-बाहर करते देख कर मेरा तीन-चार साल का बेटा भी बिल्कुल वैसा ही करने लगा था। हम लोग पूरा परिवार पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार भी दो बार हो कर आ चुके हैं...बहुत अच्छा अनुभव रहा था वहां जाने का। 

रामदेव वैसे एक कुशल बिजनेसमेन भी हैं....अब ऐसा लगता है ...और ऐसे करने में कोई बुराई भी नहीं...कम से कम उस ने उन चीज़ों से जनता को रू-ब-रू तो करवा दिया जिन्हें हम ने देखा तक नहीं था....आंवला कैंडी खाते खाते बच्चों ने आंवले का स्वाद तो चखा, जौं का दलिया मेरे जैसों को भा गया.....शायद और कहीं तो इसे बिकता नहीं देखा.....और मुलैठी क्वाथ (मुलैठी छोटे छोटे टुकड़ों में कटी हुई)...जिसे मेरे जैसे लोग बचपन ही से गले खराब होने की अवस्था में चूस लेते हैं...इस तरह के बहुत से उत्पादन हैं जिन के लिए रामदेव निःसंदेह साधुवाद के पात्र हैं। 

कुछ कुछ बातें थोड़ा कचोटती हैं.....पक्के बिजनैसमेन जैसी बातें कईं बार ठीक नहीं लगती....मैं कईं बार देखा कि कुछ लोग आंवला कैंड़ी के दस-बारह रूपये के पाउच की मांग करते हैं...पहले ये लोग वे पाउच बेचा करते थे...अब वे बड़ा डिब्बा ही बेचते हैं...जो काफी महंगा होता है...हर व्यक्ति की अपनी जेब की क्षमता है। 

परसों भी जब मैं जौ का दलिया खरीद रहा था तो दो युवक आए....उन्होंने केशकांति शैंपू के एक-दो रूपये के पाउच के बारे में पूछा...यही कालेज में पढ़ रहे होंगे... जवाब मिला कि अब नहीं पाउच मिलते। यह बात मुझे ठीक नहीं लगी....पतंजलि औषधालय को मार्कीट के गुर अभी सीखने की ज़रूरत है ... किस तरह से अन्य शैंपू बाज़ार में एक एक दो दो रूपये मे बिकते हैं ...फिर इन्हें क्या दिक्कत है। और नहीं तो अमूल कंपनी से ही सीख ले ली जाए.....वह तो बहुत बड़ा ब्रांड है.....लेकिन मैंने कुछ महीने पहले देखा कि उन्होंने भी पांच पांच रूपये के दूध के पैकेट भी तैयार कर रखे हैं....कम से कम यार कोई पांच रूपये खर्च कर ढंग की चाय तो पी ही सकता है ! ज़ाहिर सी बात है इस तरह का कोई भी काम कोई कंपनी बिना मुनाफे के नहीं करती, लेकिन इतनी संवेदना और इस तरह के सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करना ही बड़ी बात है। 

अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की देखादेखी हम सब को भी मन की बात कहने की लत लगती जा रही है....जैसे कि आज मेरे को मन हुआ रामदेव की बात करने का। 

एक बात मैं जाते जाते कहना चाहता हूं कि पतंजलि की पेस्ट और मंजन इस्तेमाल करने की मैं कभी किसी को सलाह नहीं दूंगा....कुछ साल पहले मैं चुप रहता था जब कोई इस के इस्तेमाल की बात किया करता था... लेिकन फिर धीरे धीरे जैसे ही मैंने इस पेस्ट मंजन की वजह से लोगों के दांतों को घिसते देखा तो मैंने मना करना शुरू कर दिया। 

अब मैंने कोई सिस्टेमेटिक रिसर्च तो की नहीं ...कि मेरे से पतंजलि वाले ही पूछ लें कि तेरे पास क्या प्रूफ़ है....वैसे कोई डाक्यूमेंटेड प्रूफ तो है नहीं ...लेकिन हर चीज़ के वह हो भी नहीं सकता....सुबह से शाम अगर मंजन-पेस्ट-ब्रुश की ही बातें कर रहे हैं और मुंह के अंदर ही झांक रहे हैं तो हमारी बात में यार कुछ तो दम होगा......बस उसी दम पर यह बात कह रहा हूं.....I don't have any conflict of interest....हां, मेरी मां की एक उदाहरण है, उन्होंने चार पांच साल पहले इसी मंजन-पेस्ट को शुरू किया...पहले उन के दांत एक दम सही थे...लेकिन इस चक्कर में उनके आगे के दांत ऐसे घिसे की अपने आप टूट ही गए....यहां पर वह बात बिल्कुल लागू नहीं होती कि घर का जोगी जोगड़ा....अगर मैंने अपनी मां को कहा होता कि ये मंजन पेस्ट मत इ्स्तेमाल करें तो वह मेरी बात मान लेतीं.....सच तो यह है कि मुझे भी तब नहीं पता था कि इनके मंजन पेस्ट इतने खुरदरे हैं...लेकिन उस के बाद मैं अपने मरीज़ों को बराबर इस तरह के खुरदरे मंजनों के बारे में सचेत करने लगा......ये पतंजलि के मंजन-पेस्ट की ही बात नहीं है....बहुत सी अन्य प्रसिद्ध कंपनियों के मंजन पेस्ट भी दांतों का घिसा देते हैं। मेन मुद्दा है इन पेस्ट मंजनों में गेरू मिट्टी मिली होती है ...अब गेरू के दांतों पर घिसा जाएगा तो क्या परिणाम निकलेगा, क्या यह बताने की ज़रूरत है!

एक बात और भी है ..जिस देश में आज की तारीख में कोई एमपी यह कह सकता है कि तंबाकू से कैंसर नहीं होता है...अगर कोई कल को इस पोस्ट के जवाब में उठ कर यह कहे कि नहीं, इस तरह के मंजनों से दांत नहीं घिसते....तो भाई मेरी उस से भी कोई तकरार नहीं है, मैं हाथ जोड़ कर यही कहूंगा कि जो मेरे अनुभव थे...वे मैंने दर्ज कर दिए हैं, आप की जो इच्छा हो इस्तेमाल करिए, कौन मना कर रहा है!

जब मैंने किसी मरीज़ को इस तरह के पेस्ट मंजन से दूर रहने की हिदायत देनी होती है ... तो मैं बात को ऐसे शुरू करता हूं ...बाबा रामदेव बहुत अच्छा इंसान है, उन की सभी दवाईयां आदि बहुत बढ़िया हैं लेकिन बस आप पतंजलि के पेस्ट और मंजन को इस्तेमाल न करें।  आप उन के कहे अनुसार जीवनयापन करिए...खाना पीना रामदेव के कहे अनुसार खाएं, योगाभ्यास करें, प्राणायाम् करें और प्रसन्नचित रहिए। 

बाबा रामदेव, बालकृष्ण और आंवला कैंड़ी पर छः सात साल पहले अपने मन के भाव मैंने इस ब्लॉग पर सहेजे थे....अब उस समय मेरा क्या ओपिनियन था...आप स्वयं पढ़ लीजिए....नीचे लिंक दे रहा हूं.....किसी भी पुराने लेख में मैं कभी भी कोई बदलाव नहीं करता.....

अब बात आती है ...रिकार्ड लगाने की ..कौन सा लगाऊं इस तरह की पोस्ट के बाद.... अपुन के दिमाग के मेमोरी कार्ड में बस हिंदी फिल्मी के मुखड़े भरे पड़े हैं....आप एक शब्द बोलें...पानी, संयासी, बचपन, बुढापा, प्यार, मोहब्बत....अगले सैकेंड में गीत पेश होगा.......

अब इस समय मुझे लग रहा है कि यह गीत ठीक रहेगा.....राम चंद्र कह गये सिया से...फिल्म गोपी....बचपन में कईं बार देखी हुई एक अच्छी साफ-सुथरी फिल्म..


सोमवार, 13 अप्रैल 2015

जिस का कोई नहीं उस का तो खुदा है यारो..



अभी खाना खाते हुए मिसिज़ एक बात शेयर कर रही थीं...कातर एक अमीर देश है...वहां एक हाटेल में एक दिन एक आदमी ने खाना खा लिया लेकिन वेटर जब बिल लेकर पहुंचा तो उस के पास देने के लिए कुछ भी नहीं था।

वेटर ने बात काउंटर पर जाकर मालिक को बताई। दो भाई मालिक थे...खुदा के बंदे होंगे.....उन्होंने सोचा कि बात है तो सोचने लायक कि आदमी को भूख है लेकिन पैसे देने के लिए नहीं हैं तो वह आखिर क्या करे!

उन्हें उस दिन कुछ ऐसी प्रेरणा मिली कि उन्होंने उस दिन से यह निर्णय लिया कि उन के हाटेल में ऐसे लोग भी आ सकते हैं जिन्हें भूख लगी है लेकिन पैसे नहीं हैं। पहले तो उन्होंने सोचा कि हम लोग इस तरह के नेक काम के लिए वेजिटेरियन मेन्यू रखेंगे ..लेकिन खुदा ने पता नहीं फिर उन्हें क्या प्रेरणा दी कि उन्हें लगा कि यह ठीक नहीं है, उन्हें फ्री में खाने वालों के लिए भी अपना मेन्यू पूरा खुला रखा...वे भी कुछ भी मंगवा सकते थे।

मुझे यह सब सुन कर बहुत अच्छा लगा। बाद में क्या हुआ कि कुछ सामाजिक संस्थाओं ने इस हाटेल को दान भिजवाना शुरू कर दिया...और यह भला काम चल रहा है। दूसरे देशों से आए ऐसे लोग जिन के पास खाने का कोई जुगाड़ नहीं होता, कोई काम धंधा नहीं है...ऐसे लोग भी वहां आ कर अपना पेट भर लेते हैं। इन हाटेल मालिकों के ज़ज्बे को सलाम्। अब तो वह यह काम करने वाले हैं कि खाने के पैकेट बना कर बाहर फ्रिज में ही रख दिया करेंगे ताकि किसी ज़रूरतमंद को मांगने की भी ज़हमत न उठानी पड़े। वाह...वाह ...वाह!!

किसी दूर देश की एक बार मैं बात पढ़ रहा था..सुस्पेन्डेड कॉफी की ....वहां एक रवायत है कि जो कोई भी किसी रेस्टरां ने कॉफी पी कर जा रहा है ...उस का मन चाहे तो एक दो कॉफी के पैसे छोड़ जाता है और रेस्टरां के मालिक को कह जाता...."keep two suspended coffees".....और वह दुकानदार अपने पास ठीक से लिख लेता कि कितनी सुस्पेंडेड कॉफी अभी उस के पास जमा हैं। अब कुछ समय बाद कोई थका मांदा, बेरोज़गार, बीमार या कोई बुज़ुर्ग आता ...दुकानदार से पूछता ...."Is there any suspended coffe?" ... उस पूछने वाले को उसी सम्मान और खुलूस से वहां बिठाया जाता और कॉफी पिलाई जाती है.....कैसी लगी आप को यह सुस्पेन्डेड कॉफी वाली बात!....यह प्रथा वहां पर अभी भी चल रही है। जब मैंने यह बात पहली बार सुनी तो मेरी आंखें भर आई थीं....न देने वाले का पता, न लेने वाले का पता...कोई बड़ा न हो पाया, किसी को किसी के सामने छोटा न होना पड़ा........वाह भई वाह।

हम अपने आस पास भी कितनी उदाहरणें देखते हैं जहां पर ज़रूरतमंदों को खिलाने का काम सेवाभाव से किया जाता है...वैसे देखा भी जाए तो इस से बढ़ कर क्या सेवा हो सकती है! हम अकसर सुनते हैं कि अस्पतालों में लोग मरीज के रिश्तेदारों के लिए निःशुल्क खाना पहुंचाते हैं।

कुछ दिन पहले ही मैं नेट पर ही देख रहा था ... बंबई के टाटा अस्पताल के सामने भी एक ऐसी ही सुविधा है...उस बंदे को भी ऐसे ही एक दिन प्रेरणा मिली कि मरीज़ के तीमारदार उस का इलाज करवाएं कि खाना ढूंढते फिरें। उस लेख में लिखा था कि अब उस दुकान में खिचड़ी भोज आदि खाना सैंकड़ों ज़रूरतमंदों के लिए बनता है और यह सेवा निःशुल्क है।



उदाहरणें मिल जाती हैं....लखनऊ में ही मैं देखता हूं नाका हिंडोला पर ...कुछ हाटेल हैं जहां पर मटन-बिरयानी आदि खूब बिकती है....और उन के सामने बीसियों ज़रूरतमंद एक लाइन में बैठ कर किसी दाता की बाट जोहते दिख जाते हैं...मुझे यह सब देख कर बहुत सुकून मिलता है..

अमृतसर में देखा करते थे बचपन से लंगर की ऐसी सुंदर प्रथा...हज़ारों लोग खा रहे हैं...फिर भी भंडारे भरपूर हैं..हर एक का तहेदिल से स्वागत है ...खुशी खुशी सेवादार लोग वहां पर सेवा करते रहते हैं निरंतर.....सच बताऊं उस लंगर बिल्डिंग में घुसते ही इन सेवादारों की सेवा और गुरू की कृपा को महसूस करते हुए झनझनाहट होने लगती है...(पंजाबी च कहंदे ने लू-कंडे खड़ जाने!!)

मेरी भी कईं बार इच्छा होती है कि इस तरह की किसी संस्था का हिस्सा बन कर तन-मन-धन से भरपूर सेवा की जाए...जिस में पाखंडबाजी ..ड्रामेबाजी बिल्कुल न हो कि हम खिलाने वाले हैं तुम खाने वाले हो......किस ने खिलाया किस ने खाया ...यह भी कोई हिसाब रखने की बात है!.....ऊपर कातर के रेस्टरां की बात सुन रहा था तो मुझे लगा कि ऐसे हाटेल में तो वेटर लगना भी सबब का काम होगा! मेरी मिसिज़ ने बताया है कि आज की टाइम्स ऑफ इंडिया में यह लेख आया है। मैं ठीक तरह से पढ़ता नहीं हूं ना अखबार...मेरी एक यह भी समस्या है।

जाते जाते एक घटिया सी सस्ती बात ......लिखनी पड़ रही है क्योंकि हम अकसर एक दूसरे से ही सीखते हैं.... वैसे तो िलखते हुए भी बड़े छोटेपन का अहसास हो रहा है ... पिछले कईं वर्षों से हम और कुछ नहीं कर सके लेकिन पूरे परिवार ने एक संकल्प लिया हुआ है कि किसी भी जगह कुछ खाते हुए या किसी खाने की दुकान में या कहीं भी--
ट्रेन में, बस में....कहीं भी ...अगर कोई कुछ खाने को मांगेगा तो उसे वही खिलाया जाएगा जो हम खा रहे हैं...देखो यार, मैं तो इस का लगभग शत-प्रतिशत पालन कर रहा हूं....मुझ से किसी की भूख नहीं देखी जाती...मैं फिर उस चक्कर में नहीं पड़ सकता हूं कि क्या ठीक है, क्या गलत है,  कुछ लोग कहते हैं कि अगर इन को इस तरह से लोग देते रहेंगे तो ये निकम्मे हो जाएंगे...मैं तो हमेशा यही सोचता हूं कि पढ़े लिखे ....ऊंची पदवियों वाले लोगों के पेट करोड़ों रूपये के घोटाले कर भी नहीं भरते तो हमारे बीस-पचास से इन भूखे लोगों का क्या हो जाएगा..

 काश! हम अपने से कम नसीब वालों पर रहम करना सीख जाएं..और ऐसी किसी संस्था की तलाश मेरी भी जल्द खत्म हो.....जहां पर इसी तरह के काम होते हों...परदे के पीछे रह कर! क्या आप ऐसी किसी संस्था को जानते हैं?...तो लिख दो यार टिप्पणी में।





शरीर ठीक होना ही तंदरूस्ती नहीं है!

जी हां, यह बिल्कुल सही है कि शरीर ठीक होना ही तंदरूस्ती नहीं है....शरीर ठीक रहना किसी बंदे की तंदरूस्ती का एक बड़ा भाग तो है लेकिन एक मात्र मापदंड नहीं है..

जब हम लोग कालेज में पढ़ रहे होते हैं हम यही समझते हैं कि अगर किसी बंदे के सभी टेस्ट ठीक हैं, उसे यूरिन-स्टूल की कोई दिक्कत नहीं है, चल फिर रहा है ...तो वह ठीक है..

लेिकन नहीं, यह सब सही होते हुए भी क्यों हमें कुछ लोग बीमार दिखते हैं..

फिर जब आगे की पढ़ाई करने लगते हैं तो थोड़ा थोड़ा पता लगने लगता है कि सेहत की परिभाषा है ..विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे पारिभाषित ही इसी तरह से किया है कि सेहत एक ऐसी अवस्था है जिस में आदमी का शरीर, मन तो ठीक हो ही साथ ही साथ उस की सामाजिक, आध्यात्मिक, और भावनात्मक सेहत भी ठीक हो ...तभी उसे सेहतमंद लेबल कर सकते हैं।

रटने के लिए उस दौरान ठीक है यह परिभाषा....ऐसा नहीं है कि इस परिभाषा में कोई खोट है, बिल्कुल खरी है, लेकिन हम लोग अपनी ही अपरिपक्वता की वजह से इस की रूह तक पहुंच नहीं पाते। मुझे याद है जब मैं एमडीएस कर रहा था ..२५ वर्ष की उम्र थी ...मैंने पहली बार होलिस्टिक हेल्थ शब्द का नाम सुना था...एक सेमीनार रखा था हमारे एचओडी ने। होलिस्टिक हैल्थ भी वही बात है ...यह सेहत को टोटेलेटी में देखती है।

आप को भी लग रहा होगा कि तू तो इतना ज्ञान कभी झाड़ता ही नहीं है तो आज फिर यह किस चक्कर में!

आज मेरी अोपीडी में जो आखिरी मरीज़ थी वह ८० वर्ष की थी...ब्लड-प्रेशर और मधुमेह से परेशान....मैंने तकलीफ पूछी तो एक दांत में दर्द का नाम लेकर ज़ोर ज़ोर से बच्चों की तरह रोने लग गई...जिस तरह से वह रोने लगी उसे देख कर मेरा भी मन दुःखी हुआ...यह तो अब समझ आने लगी है कि कौन सा रोना शरीर में किसी दर्द की वजह से है और कौन सा दुःखी मन की वजह से है।

इस महिला का रोना दांत के दर्द से कहीं ज़्यादा मन के दुःखी होने की वजह से था...दांत इस महिला का उखाड़ने वाला था, लेकिन बी.पी २०० के भी ऊपर थी, इसलिए आज नहीं निकाला जा सकता था....कहने लगीं कि मेरा ब्लड-प्रेशर तो ठीक ही नहीं होगा, क्या मैं ऐसे ही मर जाऊंगी....मैंने इन्हें ढाढस बंधाया कि ऐसा कुछ नहीं है.....मैंने सिर पर हाथ रख कर कहा ...आप का बी.पी एक दो दिन में कंट्रोल हो जाएगा और सब ठीक होगा, चिंता मत करिए...डाक्टर के कहे अनुसार आप दवाई लिया करें और सब से ज़्यादा ज़रूरी है कि खुश रहा करिए। बस इतनी सी  बात सुन कर ही मुझे लगा उन्हें बड़ा इत्मीनान हुआ...राहत महसूस हुई।

मैंने उस बेचारी को नसीहत की घुट्टी तो पिला दी खुश रहने की .......वैसे भी देखा जाए तो खुश कौन नहीं रहना चाहता लेकिन अकसर बहुत से लोग अपनी आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक परिस्थितियों की वजह से खुश रह नहीं पाते....खुश क्या रहना है, डिप्रेशन में ही चले जाते हैं..इस उम्र में ये सब परिस्थितियां बहुत से बुज़ुर्गों को घेर ही लेती हैं......आर्थिक निर्भरता किसी के ऊपर बहुत कष्टदायक है...जैसा आज का समाज है.....हर किसी ने कईं कईं मुखौटे पहन रखे हैं....सामाजिक स्तर पर देखें तो बुज़ुर्गों की बेहद अवहेलना और तिरस्कार हो रहा है और पारिवारिक वातावरण की तो बात ही क्या करें!

मुझे अच्छे से याद है लगभग पांच वर्ष पहले मेरे पास एक बुज़ुर्ग दंपति आए थे...बुजुर्ग को  को अच्छी खासी पेन्शन मिलती थी...बड़े ही हंसमुख और मेहनती किस्म के दोनों लोग थे....लड़का भी सरकारी नौकरी में था...लेिकन उसे नशे का लत थी ...और पेन्शन मिलते ही इन से पेन्शन छीन लिया करता था...मना करने पर अपने बाप की पिटाई कर दिया करता था...जब वह दंपति मेरे से यह बात कर रहे थे तो उन के आंसू थम नहीं रहे थे....चार पांच साल का पौता भी उन के साथ था...कह रहे थे कि जब यह हमारे कमरे में आता है तो उसे भी पीट देता है उस का बाप। बहुत मन खराब हुआ था।

इस बात का यहां जिक्र इसलिए किया कि ऐसे बुज़ुर्गों में दवाईयां क्या कर लेंगी.......क्या इन का ब्लड-प्रेशर दवाईयों से काबू हो जाएगा?......लेकिन कुछ लोगों का अपना कुछ भी कह लें support system होता है ...जैसा कि यह दंपति बड़े आध्यात्मिक किस्म के थे ...रोज़ाना नित-नेम करना और गुरूद्वारे जाना उन की दिनचर्या थी....इसलिए वे उस दिन मन से दुःखी होते हुए भी शारीरिक स्तर पर ठीक ही थे। जाते जाते कह गये...मैं उम्र से नहीं हारा, डाक्टर साब, अपनी औलाद के हाथों हार गया।

आज एक दूसरे ७९ वर्ष के बुज़ुर्ग मिले ..यह रोज़ाना योगाभ्यास करते हैं और लोगों को भी सिखाते हैं...खूब साईकिल चलाते हैं...सभी आसन वासन कर लेते हैं बिना किसी परेशानी के ...लेकिन इन की बस समस्या यही है कि इन्हें पैदल चलने में दिक्कत होती है ...एक आधा किलोमीटर चलने पर घुटने में दर्द उठ जाता है। जब तक मेरे से ये लोग दो मिनट अपने मन की बात न कह जाएं ...इन्हें तसल्ली नहीं होती....अब मैं हड्डियों के बारे में क्या जानता हूं!..कहने लगे कि मैं दिल्ली हो आया हूं ..वहां पर मुझे घुटनों के प्रत्यारोपण  (total knee replacement) के लिए कहा गया है लेकिन अगर मैंने वह आप्रेशन करवा लिया तो मैं तो योगाभ्यास से भी महरूम हो जाऊंगा.......क्योंकि उन नकली घुटनों की वजह से मुझे पालथी तक मारने की भी मनाही रहेगी। आगे कहने लगे कि इतना मुझे पता है कि अगर मैंने यह आप्रेशन करवा  लिया तो मैं ठीक से चल तो पाऊं ...शायद....लेिकन नियमित योगाभ्यास से दूर रहने की वजह से मैं दूसरी कईं बीमारियों की चपेट में आ जाऊंगा।

इन बुज़ुर्ग की मैंने बात इसलिए शेयर की ताकि इन का जीवन के प्रति सकारात्मक रवैया आप से शेयर कर सकूं.....छोटी मोटी तकलीफ़ की कोई परवाह नहीं ...चल रहा है ना काम....कोई शिकायत नहीं ....गाड़ी चल रही है...योगाभ्यास नियमित चल रहा है.....अब सोचने वाली बात यही है कि छोटी मोटी शारीरिक, मानसिक एवं पारिवारिक परेशानियां इन को बिना छुए इन के पास से हो कर निकल जाएंगी.......यह मेरा विश्वास है। ऐसे लोगों के पॉज़िटिव रवैये के आगे मैं नतमस्तक हो जाता हूं।

वही बात है कौन नहीं चाहता वह ज़िंदगी में पाज़िटिव नज़िरया अपनाए लेकिन यह एक दिन...एक साल, एक दशक की बात नहीं होती.....शुरू से लेकर आदमी जिस परिवेश में रहा है ...उस का असर तो उस के शख्शियत पर होना तय ही है .....कुछ लोग हैं जो कमल की तरह रह पाते हैं ...कुछ होते हैं जो उसी रंग में रंग जाते हैं।

मेरा अनुभव यही बताता है कि हर बुज़ुर्ग बात करने के लिए किसी को तलाश रहा है......बहुत सी शारीरिक तकलीफ़ों का उन्हें पता है अंजाम क्या है, लेिकन फिर भी वे बस एक तसल्ली की तलाश में मारे मारे फिरते हैं....सर्विस के दौरान कुछ जगहों पर ऐसे भी लोग मिल गये जो अकसर कुछ बुज़ुर्गों के बारे में यह टिप्पणी करते भी गुरेज नहीं किया करते थे ......क्या यार, वह तो साइकिक है! (किसी पागल सिरफिरे को साइकिक कहना एक संभ्रांत तरीका है) ...लेकिन इसी चक्कर में वे साथी अपनी ही असलियत ब्यां कर जाते। क्या पता यार हम लोगों के साथ क्या होना है, बात बिल्कुल थोड़ी सी संवेदना की है, पांच मिनट ध्यान से किसी को सुनने से ...उस के सिर पर, कंधे पर थोड़ा हाथ रखने से हमारी कौन सी जान निकल रही है!...अगर इस से उस के चेहरे पर एक छोटी सी मुस्कान भी बिखर जाती है तो हमें कितनी बड़ी कीमत मिल गई।

वह गीत ही तो न बस सुनते जाएं.......प्यार बांटते चलो....प्यार बांटते चलो.......कभी प्रेक्टीकल भी करें तो पता चलेगा कि इस में कितना आनंद है। ओ हो....अब प्रवचनबाजी को पूर्ण विराम लगा रहा हूं..

बहरहाल, बातें कुछ ज़्यादा ही पकाऊ हो गईं आज.....विषय से मेल खाता एक गीत ज़रूर बजा रहा हूं...

आज का प्रातः काल भ्रमण कैसा रहा ?

कुछ खास नहीं...आज सुबह उठा तो ऐसे लग रहा था जैसे गले में थोड़ी ऐंठन सी है ...थोड़ा पेपर देखा..और सोचा कि आज अपनी कॉलोनी में ही टहल लिया जाए।

टहलते टहलते अपने पुराने दोस्त को फोन मिलाया...दस मिनट खूब हंसी मजाक की बातें हुई और पता नहीं कहां गई गले की ऐंठन और कहां गया भारीपन...समस्या सारी हम लोगों के अकेलेपन की है। और कोई समस्या नहीं है अधिकतर....बहुत कम लोग होते हैं जिन से हम दिल खोल कर बतिया सकते हैं।

हां, जैसा कि मैंने कल भी लिखा था कि हर सुबह कुछ नया लेकर आती है ....उसी तर्ज़ पर आज भी मुझे कुछ फूल पत्ते ऐसे ही दिखे जिन्हें मैंने पहले कभी नहीं देखा था....नाम जानने का तो सवाल ही नहीं....ज़रूरत भी क्या है।

हां, एक बात तो कहनी भूल ही गया कि मुझे एक बहुत बुज़ुर्ग अंकल जी भी दिखे ...उन्हें देख कर मुझे बहुत खुशी होती है..उन की प्रातः एवं सांयकालीन भ्रमण की नियमितता से मैं बहुत प्रभावित हूं...उन का परिचारक उन्हें घुमाने लाता है ..लेकिन पहले साथ में डंडी भी लेते थे तो चल पाते थे....अब वे डंडी का इस्तेमाल नहीं करते....अच्छा लगता है इस तरह के प्रबल आत्मशक्ति वाले लोगों को देखना।




यह जो आप गुलाबी रंग का फूल देख रहे हैं..इसे मुझे छू कर देखना पड़ा ...बिल्कुल मखमली.....इस की फोटो ही कितनी मनमोहक लग रही है!


हां, मुझे जहां तक ध्यान है मैंने शू-फ्लावर पहले कभी सफेद रंग का देखा होगा कभी... अाज यह दिखा तो इस की फोटो खींच ली। लेकिन इसे झूमते हुए कैमरे में कैद करना मुश्किल लग रहा है, इसलिए फोटो के लिए इसे पकड़ना पड़ा।

एक बात और ...हमारे आस पास कुछ घर हैं जहां पर गृहिणियों को पेड़-पौधों-फूलों से बेइंतहा मोहब्बत है ......हाथ कंगन को आरसी क्या, ये नीचे दी गईं दोनों तस्वीरें इसी प्रेम को दर्शा रही हैं...



पेड़ पौधे ही नहीं, प्राणियों के लिए भी इन का स्नेह-वात्सल्स इस तस्वीर से दिख जाता है।

और एक तस्वीर इन सुंदर बीजों की.......मैंने इन्हें ज़मीन से उठाया और मिसिज़ से पूछा कि अगर ये जमीन पर गिरे होते हैं तो ये बिल्कुल सीधे-सपाट होते हैं..लेकिन पेड़ पर लगे हुए ये टेढ़े-मेढ़े लग रहे हैं। श्रीमति ने समझाया कि यह इन बीजों के विकास की अवस्था होगी....अगर ये अपरिपक्व अवस्था में नीचे अपने आप गिरते हैं तो सीधे ही रहेंगे..लेिकन पेड़ के साथ जुड़े रहते रहते जब ये मोच्योर होते हैं तो इन का बाहर का छिलका इस तरह से बदलता है कि उस के अंदर का बीज बाहर निकल पाए......अचानक मुझे Seed Dispersal by Dehiscence वाला बॉटनी का टॉपिक याद आ गया।

कईं बार हमारे बिना किसी प्रयत्न किए हुए ही अपने राज़ सहज ही खोल दिया करती है.......लेकिन पहले हम कुदरत की इस अनुपम छटा को निहारने की फुर्सत निकालें तभी तो..

आज के बेईमान मौसम को देख कर कश्मीर की याद आ रही है.....तो चलिए आज उधर ही हो आते हैं..वैसे मैं आज तक वहां गया नहीं...मेरी मां जम्मू कश्मीर के मीरपुर की रहने वाली हैं जो एरिया अब पाकिस्तान के कब्जे में है...वे अकसर अपनी बचपन की यादें इस घाटी की हम से साझा करती रहती हैं..

रविवार, 12 अप्रैल 2015

हर सुबह कुछ नया लेकर आती है..

कुछ अरसा पहले हमारे यहां एक पोस्टर लगा हुआ था...Welcome every day with open arms!
Every new day comes with a bunch of opportunities and hopes!


बात है तो बिल्कुल सच....मैंने हमेशा यही नोटिस किया है कि मैं जब भी प्रातःकाल के भ्रमण के लिए जाता हूं तो हर बार कोई ऐसा प्राकृतिक नज़ारा देखता हूं ..कोई नया पौधा, कोई अनूठा फल, अचंभित कर देने वाला कोई पत्ता, कोई नया फूल ......कुछ भी नया ज़रूर दिख जाता है जिस का मैं नाम तो नहीं जानता, एक बात है लेकिन मैंने उसे पहले कभी देखा भी नहीं होता। और एक खास बात, हर सुबह का मूड बिल्कुल नया होता है।


आज भी जब मैं घर के पास एक बाग में घूमने गया तो वहां का नज़ारा बिल्कुल अलग था। उद्यान के बाहर ही गीता का ज्ञान बंट रहा था...सुंदर सी आवाज़ में एक सीडी के द्वारा गीता के श्लोकों के साथ साथ उन के अर्थ भी बताए जा रहे थे...अच्छा लगा...वे लोग गीता बेच भी रहे थे।

और इस बाग के बिल्कुल गेट के पास ही कुछ पुरूष-महिलाएं योगाभ्यास कर रहे थे....उन की तस्वीर खींचना उचित नहीं समझा।

इस बाग का नाम है ...स्मृति उपवन.......इस बाग के अंदर जाते ही लगता है जैसे आप किसी छोटे मोटे जंगल में आ गये हैं....ऐसा नहीं है कि सुनसान है...बहुत से लोग आते हैं प्रातःकाल के भ्रमण के लिए.......लेकिन अकसर देखता हूं आते जाते कि शायद दोपहर के समय इस का इस्तेमाल बदल जाता है....अंदर से निकलते हुए जोड़ों के हाव-भाव बहुत कुछ ब्यां कर जाते हैं।

आज मेरे मोबाइल की बैटरी ने दस मिनट बाद ही जवाब दे दिया...वरना मैंने बहुत सी तस्वीरें लेनी थीं।


इस के एक कोने में माली का आवास है... आज वहां ताला लगा हुआ था ... और अकसर आते जाते देखते हैं कि वह यहां रहते हुए पूरे फार्म-हाउस का आनंद लेता है... आज उस तरफ सन्नाटा था तो ये दो तस्वीरें लेने की गुस्ताखी कर ली...देखिए, वह कैसी साधारण ज़िंदगी जी रहा है...सिलवट्टा ...मिट्टी का चूल्हा...


आगे चल रहे थे तो मैंने बेटे को बाग की सब से फेवरिट जगह के बारे में बताया.....इस का कारण यह है कि मैं जिस भी मौसम में गया हूं ...वहां पर हमेशा इतनी ही हरियाली और और इतने ही बड़े बड़े पत्ते बिखरे देखता हूं....पता नहीं मुझे इस स्पॉट से क्यों इतना लगाव है....वहां से हटने की इच्छा ही नहीं होती......वहां खड़े होकर यही लगता है कि कहीं उत्तरांखंड की वादियों में पहुंच गये हैं.

अच्छा एक बात और है इस बाग की.....यहां पर जगह जगह सीमेंट के लगभग १०x१० फीट के लगभग --इस से भी बड़े सीमेंट के प्लेटफार्म बने हुए हैं.....वहां पर सभी आयुवर्ग के लोग बैठ कर योगाभ्यास करते हैं।

इस बाग में बहुत से लोहे के बैंच जगह जगह रखे हुए हैं...जहां पर लोग थोड़ा सुस्ता भी लेते हैं।

मेडीटेशन के लिए भी इस बाग में कुछ छतरीनुमा स्थान बनाए गये हैं....ताकि लोग एकांत में अपने आप के साथ कुछ लम्हें बिता पाएं।

एक कार्नर में बच्चों के झूले लगे हैं...और भी कुछ सी-सा टाइप के खेल....वे वहां मस्त रहते हैं।

एक महिला को अकसर मैं फूल ही तोड़ते देखता हूं ..एक पन्नी में इक्ट्ठा करती रहती है....सोचता हूं कि इसे किसी दिन कह ही दूं कि यह मत किया करे, लेकिन रूक जाता हूं।

आज इस बाग का राउंड लगाते लगाते कुछ चीज़े नई दिखीं ...मुझे नहीं पता ये क्या हैं, मैंने इन्हें उठा लिया........और प्रकृति की रहस्यमयी परतों का एक बार फिर से ध्यान आ गया....आप भी देखिए ये तस्वीरें...और पहचानिए ये फूल-फलियां हैं क्या! फली तो मैंने पहले भी देखी है लेिकन नहीं जानता कि यह है क्या। लेकिन हर बात को समझने को कह कौन रहा है!... बस ये सब निहारने से रूह खुश हो गई....



जाते जाते एक गीत हो जाए......मैं अकसर पुराने गीत शेयर करता हूं....लेकिन आज कर यश चोपड़ा की फिल्म दम लगा के हईशा के इस गीत ने हर तरफ़ धूम मचा रखी है.....लिरिक्स, म्यूजिक, फिल्मांकन.......मैं बेटा को कह रहा था कि इस ने १९९० में रिलीज़ हुई आशिकी की यादें तरोताज़ा कर दीं ..

"क्या मैं अभी भी सैक्स कर सकता हूं?"

क्या मैं अभी भी सैक्स कर सकता हूं?...यह प्रश्न मुझे एक बुज़ु्र्ग ने पिछले महीने पूछा था...मैं अचानक इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था।

मुझे अच्छे से याद है मैं उस ७०-७१ वर्ष के बुज़ुर्ग के दांतों का निरीक्षण करने के बाद जैसे ही वॉश-बेसिन की तरफ़ बढ़ा, उसने यह प्रश्न दाग दिया। थोड़ी सी बैक-ग्राउंड इस प्रश्न की बताना चाहूंगा...दरअसल इस बुज़ुर्ग के सामने ही एक ८०-८२ वर्ष का दूसरा बुज़ुर्ग आया था...वह बातें कर रहा था...बिल्कुल तंदरूस्त था वह..बातों बातों में जब इस ७० वर्ष के बुज़ुर्ग को उस की उम्र के बारे में और उन की सेहत के बारे में पता चला तो इन के झट से कह दिया.....यह लंबी उम्र की बात मेरी समझ में तो कभी आई नहीं। सब काम कर लिए. ..धर्म-शास्त्र पढ़ लिए, कर्म भी कर लिए...दुनियावी कामों से निवृत्त भी हो लिए...इस के बाद जीने का आखिर है क्या मकसद?...मैं तो चुप रहा ...लेकिन वह गांव वाला ८२ वर्षीय बुज़ुर्ग हंसने लगा.....इतनी गूढ़ ज्ञान की बात उस के पल्ले नहीं पड़ रही थी शायद। लेिकन इसे समझने की कोई खास ज़रूरत भी नहीं थी। 

मैंने इन से पूछा कि क्या आप दुनियादारी के सभी कामों से फारिग हो गए?..कहने लगे..हां, जो भी पैसा जमा था, लड़के लड़कियों में बांट दिया है..पैंशन इतनी आती है कि वह भी पूरी नहीं खाई जाती। 

इतनी बातें हुई थीं कि उस गांव वाले ८२ वर्षीय बुज़ुर्ग ने सोचा होगा िक इन की बातें कुछ ज़्यादा हाई -लेवल की हैं, वह तो अपना काम करवा कर चले गये। 

लेकिन इस ७० साल के बुज़ुर्ग को लगा कि चलो, अभी मौका है, यह प्रश्न ही दाग देते हैं। 

शायद उन्हें उन का जवाब कचोट रहा होगा कि मैंने दुनियादारी की सारी बातों से फारिग होने की बात कबूल तो ली है, अब इस सैक्स वाली बात को भी साफ कर ही लूं।

अब मैं सैक्स स्पैशलिस्ट तो हूं नहीं, और उन से बीस बरस छोटा भी हूं...उस का क्या जवाब देता ...एक पल के लिए तो मैं चुप हो गया। फिर मुझे अचानक वह वाली कहावत याद आ गई ..घोड़ा और मर्द कभी बूढ़े नहीं होते ....ऐसा ही कहते हैं ना कुछ ...अगर खुराक सही हो......यही है ना!

उन्होंने मुझ से पूछा था कि शास्त्रों के अनुसार तो मुझे सैक्स वैक्स से मुक्त हो जाना चाहिए। मैंने उसी क्षण उन्हें कहा ... ऐसा कुछ नहीं है, आप जो सहज भाव से किए जा रहे हैं करते रहिए.......किसी तरह का अपराधबोध मत पालिए। 
मुझे लगा उन्हें तसल्ली सी हो गई। 

फिर तुरंत कहने लगे कि डाक्टर साहब,  मैंने अपनी बीवी से अलग बरामदे में भी एक साल तक सोने का अभ्यास किया....इन्होंने उसे यहां तक कहा कि ६० की उम्र के बाद शास्त्र यह सब काम करने के लिए मना भी करते हैं, वह भी बीवी को नागवार गुजरा, बीवी कहने लगी यह ठीक थोड़ा लगता है, अगर हम दोनों में से किसी को कोई एमरजेंसी हो जाए तो पता कैसे लगेगा! 

अपनी मजबूरी ब्यां करते वह आगे कहने लगे कि इसी चक्कर में मैंने फिर से बीवी के साथ एक कमरे में ही सोना शुरू किया और जब मैं बीवी के साथ होता हूं तो कुछ शरारत.....तब बीवी कहती है..चुपचाप लेटे रहो, इन चक्करों में मत पड़ो। सुनाते सुनाते परेशान सा दिखाई दिया यह बंदा....बताने लगे कि बीवी बड़ी पूजा पाठ वाली धार्मिक प्रवृत्ति की है।  

मेरे बिना पूछे ही बताने लगे कि छःमहीने एक साल में ...फिर कहने लगे कि यही दो चार छः महीने में जब मेरा कंट्रोल नहीं होता तो सहवास हो जाता है। और कहने लगे कि इसे भी मैं संगति का असर ही कहूंगा ...जब मेरी संगति या खानपान ऐसा वैसा होता है, तभी यह कुछ होता है। मैं चुप था......उन्हें शायद इस बात का जवाब चाहिए था कि क्या यह सब गलत है या ठीक।

मैंने उन से एक भी बात पूछनी उचित नहीं समझी ...जितना उन्होंने मेरे से शेयर किया ..उसी के आधार पर उन से यही कहा कि आप बिल्कुल सहज हो कर रहिए....ऐसा कहीं नहीं लिखा ...कि यह गलत है यह ठीक है...शास्त्रों के चक्कर में पड़िएगा तो उलझ जाएंगे.....आप और आप की पत्नी सहज भाव से जो कर रहे हैं या कर पा रहे हैं, करना चाहते हैं, बिना किसी अपराधबोध में फंसे करते रहिए..

दोस्तो, इन बुज़ुर्ग की आपबीती यहां ब्यां करने का मकसद इस बात को रेखांकित करना था कि किसी भी उम्र में देश में लोगों में सैक्स के प्रति अजीबोगरीब भ्रांतियां व्याप्त हैं, किशोरो की अपनी समस्याएं (नाइट-फाल), युवाओं की अपनी (शीघ्र स्खलन आदि)..और एक बडे़-बुज़ुर्ग की भी आपने सुन लीं। हर आयुवर्ग के ज़हन में कितने ही सवाल बिना जवाब के सुलगते रहते हैं.......लेिकन ये अधिकतर काल्पनिक समस्याएं होती हैं, ठीक है, कईं बार परीक्षण करवा लेने से मन को तसल्ली मिल जाती है....लेकिन इस तरह की काल्पनिक समस्याएं अधिकतर नीम-हकीम जन साधारण के मन में बैठा कर ही दम लेते हैं और फिर कईं वर्षों तक उन का आर्थिक शोषण करते रहते हैं.

दूसरी बात यह है कि हर आदमी अपने प्रश्न पूछना चाहता है लेकिन उसे गोपनीयता भी चाहिए......जैसे ही उसे कोई भी मौका मिलता है वह मन से बोझ उतारना चाहता है। जैसा कि इस ७० वर्षीय बुज़ुर्ग के साथ हो रहा था ... मैं इस विषय का विशेषज्ञ भी नहीं हूं लेकिन उसे लगा होगा कि चलो एक जायजा तो ले लिया जाए। 

सरकारी अस्पतालों की बात और है...लेकिन कुछ कारपोरेट अस्पतालों में वातावरण बिल्कुल अलग सा ही है ......अगर ये इस तरह की बातें वहां जाकर करते तो पहले तो इन्हें पोटेन्सी टेस्ट के चक्कर में डाल दिया जाता, फिर और भी तरह तरह के टेस्ट ...बड़ी बात नहीं कि इन की श्रीमति जी को चैक-अप के लिए कह दिया जाता। 

नेट पर सारी जानकारी पड़ी तो है लेकिन हर बंदा कहां यह सब ढूंढ पाता है। वैसे एक ९० वर्ष के सैक्स एक्सपर्ट का लिंक मैं यहां दे रहा हूं......चलिए, मिलते हैं आज एक ९० वर्षीय सैक्सपर्ट से...डा महेन्द्र वत्स..

एक बार मुझे ध्यान है ऐसे ही मैंने कुछ लिखा था कि हार्ट अटैक के मरीज़ कितने समय बाद संभोग कर सकते हैं.....दोस्तो, मुझे बिल्कुल नहीं पता कि मैंने उस में क्या लिखा था.....हां, मेन आइडिया तो ध्यान में रहता ही है...लेकिन उस के कंटेंट मुझे बिल्कुल भी याद नहीं है.......मैं अपने लेख लिखने के बाद कभी इन्हें पढ़ना नहीं चाहता, बिल्कुल उसी हलवाई की तरह जो अपनी बनाई मिठाई स्वयं नहीं खाता। वैसे शुद्धता की जहां तक बात है, मैं हलवाई के बारे में तो कुछ नहीं कह सकता, लेकिन इस ब्लॉग के एक एक लेख में मैंने केवल और केवल प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक सत्यों पर आधारित जानकारियां ही शेयर की हैं। ...हार्ट अटैक के बाद संभोग से इतने खौफ़ज़दा क्यों?

इस पोस्ट से संबंधित बात तो नहीं है लेकिन फिर भी ध्यान आ गया.......हम लोग फिरोजपुर में पोस्टेड थे...१२-१३ वर्ष पहले की बात है...हमारे अस्पताल में एक एनेसथेटिस्ट आया (जो डाक्टर आप्रेशन के दौरान मरीज को बेहोश करते हैं)...अब उस डाक्टर को सामान्य मरीज़ भी ओपीडी में लिखने होते थे....उन दिनों वियाग्रा नईं नईं चली थी, उस ने पता नहीं किसी यूनियन के दबाव में या कैसे एक मरीज़ को वे गोलियां लिख दीं.....अब जो दवाई हमारे अस्पताल में नहीं होती, मरीज़ को बाज़ार से खरीद कर दिलाई जाती है.....पहले चिकित्सा अधीक्षक की अनुमति ली जाती है......उस ने उसे बुला कर कहा कि यार, तू सैक्स-स्पेशलिस्ट कब से बन गया? ...कुछ लोग बड़ी जल्दी बुरा मान लेते हैं......वह कुछ दिनों के बाद सर्विस छोड़ कर दिल्ली चला गया। 

इस समय यह गीत ध्यान में आ रहा है....

पेड़ हैं तो हम हैं...

जिस तरह से एक नारा है कि जल है तो हम हैं, ठीक उसी तरह से पेड़ हैं तो हम हैं। दो तीन दिन से पेड़ों के बारे में अपने भाव कलमबंद करने की फिराक में था..मुझे पेड़ों के बारे में लिखना बेहद पसंद है...बस लगता है पेड़ों की महिमा का वर्णन करता ही जाऊं..जब से ये कैमरे में फोन आया और डिजिटल कैमरा आया...मैंने लाखों नहीं तो हज़ारों पेड़ों की तस्वीरें ले रखी हैं....जहां पर भी मैं पेड़ देखता हूं मुझे लगता है कि इस की तस्वीर खींच लूं।

इंटर में मैं बॉटनी (वनस्पति विज्ञान) में बहुत अच्छा था...कहते हैं ना किसी विषय को दिल से पढ़ना...बस, मैं बॉटनी को दिल ही से पढ़ता था....आगे भी चल कर उसे ही पढ़ता तो शायद डेंटिस्ट्री पढ़ने से भी ज़्यादा मज़ा आता। डीएवी कालेज अमृतसर में बीएससी मैडीकल  में दाखिला भी ले लिया था....लेकिन तभी डेंटल कालेज से बुलावा आ गया कि आओ, हम तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं, हमारा क्या था....बस हम उधर हो लिए।

लेिकन जो भी हो मेरा प्रकृति प्रेम हमेशा कायम रहा..जितना बड़ा पेड़ देखता हूं मुझे उतना ही अपने बौनेपन का अहसास होता है..इस से ज़मीन पर टिके रहने में मदद मिलती है।

मैं अकसर सोचता हूं कि पेड़ों की हम सब को जोड़ कर रखने में बहुत बड़ी भूमिका है। हम गांव की ही बात करें तो जहां कहीं भी बड़े-बुज़ुर्ग पेड़ हम देखते हैं, उन के इर्द-गिर्द रौनक और खूब धूमधमाका देखने को मिलता है....कितना सुदर नज़ारा लगता है, वहां से हटने की इच्छा ही नहीं होती। नीचे बीसियों लोग बैठ कर गपशप में मशगूल रहते हैं, पास की कोई पानी के दो चार मटके रख देता है, पास ही कोई खाने पीने की चीज़ ला कर बेचने लगता है, किसी का रेडियो बजता है, किसी को अखबार दस लोगों में बंट जाती है..वाह!!


कल शाम मैं लखनऊ के अमीनाबाद एरिया में जा रहा था...यहां बिना किसी कारण के घूमना मुझे बहुत पसंद है। कल शाम अमीनाबाद जाते हुए मुझे यह पेड़ दिख गया....आप देखिए इस एक पेड़ से यह जगह कितनी जीवंत हो गई दिखती है...बीसियों लोग पनाह लेते हैं , कुछ के धंधे चल निकलते हैं......इतने भयंकर प्रदूषण की वजह से जलते-सड़ते वातावरण में इतनी घनी छाया वाला पेड़ एक तरह के उस एरिया का विशालकाय फेफड़ा दिखाई जान पड़ता है।

हम लोग जब पांचवी-छठी-सातवीं कक्षा में स्कूल से घर वापिस लौटते तो हमें उसी एरिया का इंतज़ार रहता जिस में घने छायादार पेड़ लगे होते थे....उन के नीचे पहुंचते ही ठंडक का एहसास एक देवीय अनुकंपा लगती। पास ही में एक प्याऊ भी हुआ करता। वहां पर हम ज़रूर रूका करते।


अमीनाबाद पहुंच कर भी इतने भीड़े भड़क्के वाली जगह में भी आप को अगर इस तरह का पेड़ दिख जाए जैसा कि आप इस तस्वीर में देख रहे हैं तो आदमी बाकी सब कुछ भूल जाता है। देखिए, किस तरह से एक पेड़ ने उस एरिया में जैसे जान फूंक दी हो...उस पेड़ के नीचे सभी धर्मों के, सभी समुदायों के लोग मिल जुल कर अपने अपने काम धंधे चलाते हैं... यह कहने में कोई अतिशयोक्ति न होगी कि पेड़ हमें अलग अलग तोहफों के साथ साथ जोड़ कर भी रखते हैं....Peaceful co-existence!...लखनऊ जब तक देखा नहीं था इस के बारे में यही सुना करते थे कि यहां विभिन्न धर्मों के लोग आपस में टकराव की स्थिति में रहते हैं.....अब समझ आने लगा है कि यह सब बिल्कुल बकवास है, सब राजनीतिक रोटियां सेंकने की बातें हैं, फिरकापस्ती का ज़हर घोलने का सरफिरा जुनून है केवल.......सब लोग हर जगह प्रेम-प्यार से रहते हैं....यहां पर मैं दर्जनों लेखकों को सुन चुका हैं......वे बार बार लखनऊ की जिस गंगा-जमुनी तहजीब की बात दोहराते हैं, वह मैं भी समझने लगा हूं।

हां, तो पेड़ों की बात हो रही थी...बिना पेड़ों के किसी एरिया में कितनी मुर्दानगी छाई रहती है, हम अकसर अनुभव करते हैं......घरों में भी देखते हैं...जिन घरों में सब कुछ सी सीमेंट और महंगा संगेमरमर लगा होता है लेकिन हरियाली बिल्कुल नहीं रहती, वहां भी हर दम मातम का गमगीन माहोल ही दिखा करता है... लेकिन छोटे से कच्चे घरों में भी अगर एक दो पेड़ लगे हैं तो इन की भव्य सुदंरता निहारते ही बनती है।

पेड़ हमें खुश रखते हैं...बेशक ....मेरे जो मरीज मेरी बात सुनने की परवाह करते हैं मैं उन्हें हमेशा प्रकृति के साये में रहने की प्रेरणा दिया करता हूं... कल एक महिला आई...बड़ी ज़हीन थी...६०-६५ की होगी...कोई बात हुई तो कहने लगी कि मेरे को डिप्रेशन है ना, इसलिए फलां फलां दवाईयां खा रही हूं.....मैंने कहा कि ठीक है दवाईयां ले रहे हैं, लेकिन इस के साथ साथ डिप्रेशन दूर भगाने का अचूक फार्मूला सुबह की सैर और पेड़ों के साथ समय बिताने की भी आदत डालें....

 हमारी सोसायटी में टहलना अच्छा लगता है..

मुझे लगता है कि अब यही विराम लूं......कल सुबह टहलते हुए अपनी सोसायटी में सैर करते भी दीवार के साथ लगे पेड़ों की तस्वीरें लीं तो आप से शेयर करने की इच्छा हुई...चार पांच तरह के मनमोहक रंगों के बोगेनविलिया की बेलें देख कर मन झूम उठा........उधर से मेरे एफएम पर वह हमारे दिनों वाला वह सुपरहिट गीत बज रहा था... हाल क्या है दिलों का ना पूछो सनम.....इतनी हरियाली और मनमोहक नज़ारे देखते हुए अपना हाल भी एक दम टनाटन है।

अभी विराम लेता हूं ...टहलने निकल रहा हूं......कुछ ही समय में तेज़ धूप निकल आती है...



शनिवार, 4 अप्रैल 2015

अब एम.पी लोगों को लेनी चाहिए डाक्टरों की क्लास

एक जमाना था जब लालू प्रसाद यादव मैनेजमेंट के टॉप संस्थानों में जा कर रेलवे के कायाकल्प का राज़ खोला करते थे...

मुझे पिछले तीन चार रोज़ से लग रहा है कि अब लोकसभा के कुछ विद्वान सदस्यों को आल इंडिया इंस्टीच्यूट या अन्य मैडीकल कालेजों में जा कर तंबाकू के प्रभावों को खारिज करने वाले लैक्चर देने चाहिए...किस तरह से पहले एक ने कहा कि तंबाकू से कैंसर नहीं होता ...आज पता लगा कि एक और सदस्य ने भी यही कुछ कहा है।

आज पता चला कि यह जो संसदीय कमेटी बनी थी संसद सदस्यों की उन में ऐसे सदस्य भी हैं जिन का अपना करोड़ों रूपये का बीड़ी का धंधा है। उन्हें बीड़ी के वर्करों से भी बहुत सहानुभूति है कि वे लोग बेरोज़गार हो जाएंगे। लेकिन जिस तरह से तिल तिल वे वर्कर ..जिन में बहुत से बच्चे और महिलाएं भी होती हैं... रोज़ मरते हैं, उन की बात कौन उठाएगा। ज़ाहिर है उन की कोई आवाज़ नहीं होती...अगर होती भी है तो इतनी दबी कुचली और शोषित कि  वह उठ ही नहीं पाती।

मुझे हैरानगी यही है आज की अखबार पढ़ कर कि सरकारी नौकरों पर तो तरह तरह के अंकुश होते हैं कि कहीं से भी कंफ्लिक्ट ऑफ इंट्रेस्ट में लिप्त न पाए जाएं......लेकिन ऐसा लोकसभा का सदस्य जिस का अपना बीड़ी का करोड़ों का धंधा हो वह कैसे ऐसी किसी कमेटी में आया जिसने यह निर्णय लिया कि सिगरेट आदि के पैकेटों पर चेतावनी के साइज को बढ़ाने के फैसले को स्थगित कर दिया जाए।

अभी अभी मैंने फेसबुक खोला तो एक पोस्ट दिखी कि एक संसद सदस्य ने यह भी कह दिया कि चीनी (शक्कर) से भी मधुमेह होता है तो फिर उस पर भी प्रतिबंध क्यों नहीं लगा दिया जाता। इस खबर का लिंक यह रहा... चीनी से डायबिटिज होता है तो क्या उस पर रोक है!

अब आप मुझे बताएं कि गुस्से में अपने ही बाल नोंचने के सिवाए इस तरह की बात का कोई क्या जवाब दे!

आज ही के पेपर में यह भी पढ़ा कि संसद सदस्य का यह भी कहना है कि बीड़ी जो है वह तो सिगरेट से कम हानिकारक है। लेकिन सच्चाई यह है कि यह एक बहुत बड़ी भ्रांति है ..बीड़ी सिगरेट दोनों ही नुकसानदायक तो हैं ही... बीड़ी सिगरेट से कम नुकसान तो किसी भी हालत में नहीं, उस से ज़्यादा भले ही हो। ये मेरे निजी विचार नहीं है, वैज्ञानिक सत्य पर आधारित बातें हैं ये।

अपने घर में ही देखा...बड़े बुज़ुर्गों को सिगरेट पीते पीते जब तकलीफ़ होने लगीं ..तो बीड़ी पीने लगे .कि इस का नुकसान कम है....अब हम कह ही सकते थे..कहते रहे.......लेकिन इसी कहने-सुनने के सिलसिले में अधिकतर तो इस संसार से कूच ही कर चुके हैं....मेरे पापा ने भी बहुत साल सिगरेट पीने के बाद बीड़ी शुरू कर दी थी..लेकिन मरते दम तक छोड़ी नहीं।

वैसे मुझे लगता है कि यार यह भी कोई मुद्दा है जिस पर मैं लिखने बैठ जाता हूं.....सारा संसार जानता है कि तंबाकू जान लेवा शौक है, यह बीमारियों का घर है, इससे कैंसर होता है, यह घर परिवार उजाड़ देता है...तिल तिल मार देता है.....मैं तो तंबाकू द्वारा मुंह के अंदर होने वाली विनाशलीला का साक्ष्य हूं...

ऐसा कैसे हो सकता है कि दो चार एम.पी घोषणा कर दें कि तंबाकू से कैंसर नहीं होता, बीड़ी इतनी खराब नहीं है जितना सिगरेट......और चेतावनी के साइज को बढ़ाने के निर्णय को स्थगित कर दिया जाए...

म समझते हैं कि इस से और कुछ नहीं होगा.....बस वह जो सिगरेट बीड़ी के पैकेटों पर चेतावनी के साइज को बढ़ाने का मुद्दा है वह ऐसा एक बार कोल्ड-स्टोर में पड़ेगा कि शायद ही फिर कभी बाहर निकल पाए..... अगर आपने इस मुद्दे को नजदीक से मीडिया में फॉलो किया हो तो आप को याद होना चाहिए कि इस तरह की डरावनी चेतावनियां तंबाकू-गुटखे-सिगरेट-बीडी के पैकेटों पर छपवाने का कानून बनाते बनाते सरकार की सांसे फूल गई थीं.....यह कोर्ट यह कचहरी ..केस पे केस ..सुप्रीम कोर्ट में कोर्ट ..फिर आखिर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद ही यह सब छपना शुरू हुआ....लेकिन अब संसदीय कमेटी की सिफारिश के बाद तो लगता है कि जैसे यू-टर्न लिया जाना लगभग तय ही है.

मेरे जैसों का क्या है, हमारी सुनता कौन है, हमारा काम ही है भौंकते रहना, भौंक कर थक जाएंगे तो चुप हो जाएंगे.....लेकिन एक बात है कि मैं तंबाकू विरोधी अभियान में और भी तन-मन-धन से सतत जुड़ा रहूंगा....यह मेरा अपने आप से वायदा रहा।

मुझे कईं बार लगता है कि इस तरह के फिल्मी गीतों ने भी तंबाकू की लत को बहुत बढ़ावा दिया होगा.....खाई के पान बनारस वाला......या फिर पान खाए सैयां हमारो.... दोस्तो, ये गीत सुनने तक ही ठीक हैं...

AIIMS Doctors Trash Tobacco Report



ट्रायल रूम में कैमरा...फैबइंडिया की करतूत

कल नेट पर तो शाम को आ गया था कि स्मृति इरानी ने ट्रायल रूम में खुफिया कैमरा पकड़ा है लेकिन उस की पूरी जानकारी अभी हिन्दुस्तान पेपर के पहले पन्ने पर छपी पहली खबर से हासिल हुई कि स्मृति वहां कपड़े खरीदने गई थी। तभी उस की नज़र ट्रायल रूम के बाहर लगे खुफिया कैमरे पर पड़ी और उस ने इस का विरोध किया।

इस तरह की खबरें आती रहती हैं ..लेकिन इस तरह के काम करने वालों के मन में खौफ़ नाम की चीज़ नहीं है, ऐसा लगता है।

अगले पन्नों पर कुछ सावधानियां बरतने को कहा गया था... बड़ी रोचक सी लगीं, इसलिए यहां शेयर करने आ गया।

खुफिया कैमरों से बचें

इन खास जगहों पर छिपाए जाते हैं खुफिया कैमरे..
ट्रायल रूम की छत या दीवार में
होटल के कमरे में रखे फूलदान में
फोटो फ्रेम में, पंखे में
टॉयलेट या बाथरूम के शॉवर में

जब भी किसी ट्रायल रूम में जाएं तो सब से पहले ऊपर के कोनों और शीशों को चेक करें।

मोबाइल की फ्लेश लाइट जलाएं और उसे शीशे की तरफ करें। यदि लाइट प्रतिबिंबित होकर वापस लौट रही है तो निश्चिंत रहें। लेकिन लाइट शीशे के पार जा रही है तो सावधान हो जाएं वहां कैमरा हो सकता है। 

मोबाइल फोन के जरिए कीजिए जांच 

ट्रॉयल रूम में घुसने से पहले अपने मोबाइल से कॉल करें। जांचें सिग्नल हैं या नहीं। ट्रायल रूम में घुसने के बाद फिर से कॉल करे। यदि कॉल नहीं लग पा रहा है तो सतर्क हो जाएं। वहां छिपा कैमरा हो सकता है। कारण, कैमरा में लगा फाइबर ऑप्टिकल केबल मोबाइल के सिग्नल को बाधित करता है, जिससे कॉल नहीं हो पाती।

ट्रायल रूम में जाने के बाद वहां की सभी लाइट बंद कर दें। देखें कहीं लाल या हरी रंग की बत्ती तो नहीं जल रही। यदि दिख रही है तो वह किसे छिपे हुए कैमरे की हो सकती है।

शीशे के पीछे छिपा कैमरा जांचने के लिए शीशे की उंगली रखें

अगर शीशे पर रखी गई उंगली और शीशे में दिख रही उंगली के बीच जगह रहती है तो डरने की जरूरत नहीं। लेकिन अगर शीशे पर रखी गई उंगली के बीच में जगह नहीं रहती है तो और वे जुड़ी रहती हैं तो मतलब शीशे के पीछे कुछ है। वह खुफिया कैमरा हो सकता है या कोई अनजान शख्स भी। रहती है तो मतलब शीशे के पीछे कुछ है। वह खुफिया कैमरा हो सकता है या कोई अनजान शख्स भी।

यह ऊपर लिखी बातें पढ़ कर आप को कैसा लगा?.....मुझे तो बहुत अजीब लगा... स्मृति इरानी अलर्ट हैं...उसने यह सब ढूंढ निकाला... हिंदोस्तान की आम गृहिणियां कहां इस तरह की चीज़ें जानती-पहचानती हैं।

और ऊपर जो सुझाव लिखें...वे भी समझने के लिए इंटर में कम से कम साईंस का होना ज़रूरी लगता है ...ऐसा मुझे लगा। मुझे खुद कईं बातें समझ नहीं आईं....

लेिकन एक बात तो है कि अगर फैबइंडिया जैसे शोरूम में यह सब हो रहा था तो बहुत अफसोसजनक बात है...मैंने भी पिछले दो सालों में इन के बंबई और लखनऊ शोरूमों से कुछ कमीज़ें खरीदी हैं..रेट इन के काफी ज़यादा होते हैं.....कहते तो यही हैं कि इन का फायदा उन कपड़ों को तैयार करने वालों तक पहुंचता है.........लेकिन इन के शोरूमों की शानो-शौकत ..ए.सी की ठंडक और सामान्य एंबिऐंस देख कर मुझे कुछ हाई-प्रोफाइल महिलाओं की समाज सेवा की याद आ जाती हैं। अगर ये लोग गोवा जैसी हाई-प्रोफाइल जगह में अपने करिंदों पर नज़र नहीं रख पाते तो इस की साख पर तो आंच पहुंचनी तय ही है।

अगर कोई यह सोच रहा हो कि इस तरह के खुफिया कैमरे औरतों के लिए ही इस्तेमाल किये जाते होेंगे........उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि गोवा जैसी जगहों पर सभी तरह की रूचि वाले रोग घूमने आते हैं......पुरूष, बच्चे, छोटे शिशु ...उन्हें कुछ भी चलता है।

एक बात का ध्यान आया...दो साल पहले हमारे एक डाक्टर को अकेले में बंद कमरे में अंदर से सिटकनी लगा कर भीड़ पीट कर चली गई.. उसकी एक यूनियन नेता से कुछ कहा-सुनी हो गई थी...बाद में लोग उसे यही सलाह दे रहे थे कि तू भी यार थोड़ी तो भड़ास निकाल लेता..दो चार को तो हाथ जमा ही देता......ऐसे ही इस तरह की खुफिया कैमरों की हरकतें दिख जाने पर पुलिस के आने से पहले थोड़ी सी (बिल्कुल ह्लकी-फुल्की) भड़ास निकालने के बारे में आप क्या कहते हैं?...इन सिरफिरे, विक्षिप्त मानसिकता वाले लुच्चों की ऐसी की तैसी......कैमरे लगाने का इतना ही शौक है तो कमबख्तों अपने ही घर में लगाओ...

सुबह सुबह मुझे इतनी जासूसी की बातें सुन कर दो जासूस फिल्म का ध्यान आ गया तो मैंने यह गीत सुन लिया...बेटा का आज एग्ज़ाम है....इस गीत की आवाज़ सुन कर वह भी पढ़ाई छोड़ कर मेरे साथ बैठ गया...पहली बार इस गीत को सुन रहा था....राजकपूर को इस अंदाज़ में देख कर वाह-वाह करते हुए ठहाके लगा रहा है.....मैं उसे कह रहा हूं..पढ़ ले यार, पढ़ ले......जे ई ई का पेपर है, मज़ाक नहीं....फिर मैंने कहा कि अच्छा १० मिनट मेडीटेट कर लो.....दो मिनट के बाद ही उठ गया ..कहने लगा है कि पापा, इस से तो मेरा सिर और दुखने लग गया है..

चलिए आप तो इसे सुनिए...

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

क्या सच में तंबाकू खाने से कैंसर नहीं होता?

पिछले आठ दस दिनों में मेरे पास दो ऐसे लोग आए जिन्हें तंबाकू वाकू चबाने की लत थी...ऐसे तो बहुत से लोग आते हैं...अब मुंह में ही झांकने का काम है तो यह सब तो सब से पहले दिखता ही है...लेकिन इन दोनों की बिल्कुल छोटी छोटी बच्चियां थीं... लगभग चार साल के करीब।

एक तो आया था अपने बीवी के इलाज के लिए और दूसरा आया था अपनी बेटी के इलाज के लिए... पता नहीं कैसे उन बच्चियों से बात छिड़ी कि वे अचानक कहने लगीं......अंकल, पापा तंबाकू बहुत खाते हैं, छोड़ते नहीं। और दोस्तो, जितनी उस बच्ची की आवाज़ में मजबूरी छुपी थी, वह मेरे लिए ब्यां करना आसान नहीं है।

और जो दूसरी बच्ची दो तीन पहले आई ..उसने तो इतना भी कहा कि हम जैसे ही देखते हैं, हम छीन कर फैंक देते हैं... तो मैंने उस बच्ची को कहा..तुम, बहुत अच्छा करती हो ...ऐसे ही किया करो। तो झट से उस की मां बोली...और इस से बाद यह बहुत झगड़ा करते हैं।

मैंने इन दोनों पुरूषों को अच्छे से समझाया...एक के तो जेब में तंबाकू का पाउच था. मैंने कहा कि देखते हो कि यह कैसी तस्वीर है ...फिर भी कैसे हिम्मत कर लेते हो......खैर वह तो उसे तुरंत मेरे डस्टबिन में फैंक कर गया....और दूसरे दिन जो दूसरा आदमी आया था, उसने भी उसी दिन तौबा कर ली थी...जब मैंने उस के मुंह के अंदर के हिस्से को आइना के सामने खड़े हो कर उसे दिखाया।

समय तो लगता है ...किसी को तंबाकू छुड़वाने के लिए प्रेरित करना है ना तो लगभग १०-१५ मिनट लग जाते हैं मुझे ...मैं इस काम को िबल्कुल एक मिशन की तरह लेता हूं....मुझे यही होता है कि दांत की फिलिंग एक हफ्ता बाद भी हो जाएगी तो पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा.....दांतों की पालिश नहीं भी होगी तो कोई बात नहीं.....आज तो मौका है, अगर यह वापिस न आया तो यह भी गया...मुंह के कैंसर से बच भी गया तो अनेकों तरह की अन्य शारीरिक एवं मानसिक तकलीफ़ों में फंसा रहेगा.....इस से तंबाकू छुड़वाना मेरी प्रायर्टी है.....वैसे यह मेरी ड्यूटी के किसी लक्ष्य में नहीं है कि मैंने हर तंबाकू-गुटखा इस्तेमाल करने से इतना समय बिता कर उसे इस लत को लात मारने पर मजबूर करना ही है...लेकिन मैं इसे अपनी ड्यूटी का सब से अहम् हिस्सा मानता हूं..और जितना हो सकता है यह काम पूरे दिल से करता हूं और हमेशा यह सुनिश्चित करता हूं कि मैं ऐसे व्यक्ति से बात अकेले में करूं।

बहुत लंबा अरसा हो गये यह तंबाकू छुड़वाने का काम करते हुए.....इतने ही साल हो गये मुंह के कैंसर के मरीज़ों को तिल तिल मरते देखते हुए...इलाज के लिए परेशान हो जाते हैं...इतना लंबा खिंचने वाला जिस पर इतना खर्च आ जाता है...


अब बात करते हैं परसों दिखी एक फेसबुक पोस्ट की...पाबला जी की पोस्ट थी....मुझे तो इस का हैडिंग पढ़ कर ही इतनी परेशानी हुई... लिखा था कि तंबाकू खाने से कैंसर नहीं होता। पाबला जी बड़े वरिष्ठ हिंदी के लेखक हैं...उन्होंने एक तरह से इस व्यक्तव्य पर कटाक्ष ही किया था...

तंबाकू खाने से कैंसर होने के सारे सर्वे और शोध विदेशों में किये गये थे! इसलिए हटा ही देनी चाहिए तंबाकू उत्पादों के पैकेट पर छपने वाली चेतावनी!
आज तक यह साबित नहीं हो पाया है कि चेतावनी देख कर किसी ने तम्बाखू खाना पीना बंद कर दिया.
फिर ये खाना पीना तो सारे भारत की संस्कृति में भी है   (एक फेसबुक पोस्ट से) 

मुझे उत्सुकता हुई तो मैं उस लिंक को खोला......तो सारा माजरा समझ में आया... एक वेबसाइट ने एक संसद सदस्य का ब्यान छापा था कि तंबाकू खाने से कैंसर नहीं होता. तंबाकू खाने से कैंसर नहीं होता, सारे सर्वे और शोध विदेशी हैं.

उसी समय लगा कि दाल में कुछ काला तो है ही ... अब यह चेतावनियां हटेंगी या कहीं न कहीं से इन पर स्टे ले लिया जायेगा और फिर पता नहीं ...लेिकन एक बात से मैं बिल्कुल सहमत हूं कि मुझे नहीं लगता कि इन चेतावनियों को देख कर कोई डरता होगा......मुझे तो आज तक कोई नहीं मिला जिसने कहा हो कि तंबाकू-गुटखे के पाउच पर छपी चेतावनी से वह इतना डर गया कि उसने पाउच को वहीं के वहीं फैंक दिया और मुंह में रखा तंबाकू थूक दिया। लेकिन इस का यह मतलब भी नहीं कि शासन उन पर वैधानिक चेतावनी छापने की बाध्यता ही समाप्त कर देगा।

लेकिन कल जब टाइम्स आफ इंडिया देखी तो लगा कि धीरे धीरे Cigarettes and Other Tobacco Products Act 2008 की धार को कुंद करने की कोशिश जारी हैं...संसदीय कमेटी इस मामले में काम कर रही है ..तब तक सरकार ने यह निर्णय लिया है कि सिगरेट तंबाकू के पैकेटों पर वैधानिक चेतावनी का साइज फिलहाल नहीं बढ़ाया जाएगा... Govt defers increase in warning signs on cigarette packs.

लेकिन सारे विश्व में प्रसिद्ध है कि भारतीय मीडिया अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को भी बखूबी निभाना जानता है ...और इस का प्रमाण आज की टाइम्स आफ इंडिया खोलते ही सामने दिख गया....
Sunita Tomar, face of anti-tobacco drive, loses fight with cancer. 

सुनीता तोमर की मौत की खबर थी... पहले पन्ने पर.....सुनीता तोमर के नाम से वाकिफ नहीं हैं? ..कोई बात नहीं, टीवी पर दिखाये जाने वाले एक विज्ञापन में एक कम आयु की महिला मुंह के कैंसर से ग्रस्त ..जो तंबाकू की लत का शिकार थी ...वह कल अपने चल बसी..अगर अभी भी याद नहीं आया तो यह वीडियो देखें, याद आ जायेगा...



जैसे सुनामी के आसार पहले से नज़र आ जाते हैं.. मुझे लगता है कि आने वाले समय में तंबाकू विरोधी लॉबी कमज़ोर पड़ जाएगी.....लेिकन अब लोगों को स्वयं भी जागना पड़ेगा......अपनी मनपसंद पार्टी, अपने मनपसंद नेता चुनने का माद्दा रखते हैं तो फिर आखिर तंबाकू को हमेशा के लिए छोड़ने का निर्णय क्यों नहीं ले पाते!....बात सोचने वाली है।

गुमराह करने वाले लोग तो हर जगह हैं.....सेहत के लिए अच्छी खराब चीज़ें हर तरफ़ बिखरी पड़ी हैं.....चुनाव हमने करना है ..और वही बात को कांटें बिखरे पड़े हैं इस धरा पर.....अब सारी धरा पर तो चटाई नहीं बिछाई जा सकती .. क्योंकि न स्वयं ही अच्छे से जूते पहन कर कांटों से बच लिया जाए।

वैसे मुझे इस बात की चिंता नहीं है कि चेतावनी हटने से लोग और भी बिंदास हो कर इसे खाने-चबाने लगेंगे, लेकिन अगर कुछ भी लोग .. विशेषकर युवा पीढ़ी के इन चेतावनियों को देख कर इन से दूरी बनाए रखते हैं तो चेतावनियां छपना अच्छी बात ही है।

मैंने जो भी ऊपर कहा है उस के प्रमाण के रूप में मेरे तीन ब्लॉग्स पर सैंकड़े लोगों की आप बीतीयां दर्ज हैं (हरेक की पहचान गुप्त है...आज मुझे भी नहीं पता कि कौन सा मरीज क्या शेयर कर गया था जिसे मैंने अपने ब्लॉग में सहेज लिया था ताकि दूसरे पढ़ने वाले प्रेरणा ले सकें) ...किस तरह से तंबाकू, गुटखे, पानमसाले ने उनकी ज़िंदगी में ऊधम मचा दिया... इसी मीडिया डाक्टर ब्लॉग में, सेहतनामा ब्लॉग में और शायद आप को ताजुब्ब होगा कि मैं इंगलिश भी लिख लेता हूं... यह ब्लॉग है ..Healthy Scribbles... लेकिन अपनी च्वाईस के कारण ही हिंदी में ही लिखना पसंद करता हूं...तंबाकू की विनाश-लीला के ऊपर किताब छपाने के लिए कईं लोग कह रहे हैं ..वे कहते हैं किताब का मोल २५०-३०० रखना होगा......मैं कह रहा हूं ५० रूपये से ज़्यादा नहीं होना चाहिए...हो सके तो फुटपाथ पर बिकने दीजिए..मुझे कुछ नहीं चाहिए, जिन लोगों को इस किताब की ज़रूरत है उन के हाथ में पहुंचे तो।

I stand by the authenticity of each post of these blogs!

इतनी लंबी खिंच गई यह पोस्ट ......आप को भी नींद आ रही होगी.......लेकिन चलते चलते मैंने व्हाट्सएप पर आई दो फोटो आपसे शेयर करने हैं.....बहुत अच्छी लगीं..




और जाते जाते सुनीता तोमर की याद में ......उस को श्रद्धांजलि के रूप में ..

सी बी आई टीम पर दबंगों का हमला

जहां कहीं भी बिजली चोरी रोकने के लिए बिजली विभाग के लोग जाते हैं, लोग उन पर टूट पड़ते हैं अकसर...डाक्टरों को ड्यूटी पर पिटते देखा, पढ़ा और सुना, उमस भरी गर्मी की रातों में बिजली गुल होने पर पावर हाउस स्टॉफ पर जनता का गुस्सा देखा, किसी दुर्घटना के समय पुलिस पर बरसते पत्थर देखे, परचा लीक होने पर छात्रों द्वारा बसें-रेलगाड़ियां फूंक दी जाती है, बलात्कारियों के लिंग भी जनता ने काटे और उन्हें मौत के घाट भी उतारे जाने की खबरें आप के अपने ही देश में आने लगी हैं........क्या क्या िगनाते चलें, दोस्तो, लिस्ट बहुत लंबी है।

लेकिन .........

लेकिन क्या? 

लेकिन किसी दफ्तर में छापा मारने गई सीबीआई टीम पर वहां के दफ्तर के लोग ही धावा बोल दें, यह शायद हमने पहले कभी नहीं सुना होगा, इसलिए मैंने सोचा कि इतिहास की सुविधा के लिए इसे अपने ब्लॉग पर मैं भी दर्ज कर दूं।

खबरिया चैनल बहुत तेज़ हैं..आपने देख सुन पढ़ ही लिया होगा कि किस तरह से लखनऊ के आयकर विभाग में जब सीबीआई टीम ने एक अफसर को दो लाख रूपये की रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ा तो दफ्तर के लगभग ६० लोग उग्र हो गये....एक तरह से उन पर उन्होंने हमला बोल दिया।

सीबीआई की टीम में ऐसा नहीं था कि कोई एक ही आदमी था..नौ लोग थे वे...लेिकन कल अखबार में आया था कि उस समय तो उन्हें लगा कि वे बच नहीं पाएंगे।

सोचने वाली बात यह है कि आखिर ६० लोग इतने उग्र क्यों हो गए?....यह प्रश्न ही इतना बचकाना है ...और हर आदमी इस का जवाब जानता ही होगा। लेकिन मैं यहीं बस करूं.......मुझे तो अभी उसी विभाग से अपना ४० हज़ार का रिफंड लेना है.....हमारे दफ्तर के बाबू की गलती से दो साल पहले ज़्यादा आयकर काट लिया गया था, बीसियों चक्कर मारने के बाद भी ...अपने दफ्तर में और आयकर विभाग में .......अभी भी कुछ पता नहीं कि कब वह रकम वापिस मिलेगी। लेकिन बाबू तो ठहरा बाबू..........उसे कोई कैसे कुछ कहने की हिम्मत कर सकता है!

बहरहाल ३०-४० मिनट के बाद पुलिस आ गई...तब तक उन्होंने अपने आप को कमरे में बंद रखा, लेिकन उस दौरान भी उग्र भीड़ ने आग बुझाने वाले उपकरणों की मदद से दरवाजा तोड़ने की भरसक कोशिश की... और उस उपकरण पर लगी पाइप को दरवाजे के नीचे से कमरे में घुसा कर कार्बनडाईआक्साईड गैस छोड़ दी.. किसी तरह से सीबीआई टीम ने खिड़कियां-विड़कियां खोल कर अपनी जान बचाई।

बहरहाल उस दो लाख की रिश्वत लेने वाले को तो वे साथ ले कर ही गये... और आज के पेपर में खबर है कि उसे जेल भेज दिया गया है।

यहां तो दो लाख की रिश्वत की बात है .. लेकिन जोधपुर में उसी दिन १५ लाख की रिश्वत लेते किसी आयकर विभाग के अधिकारी को भी पकड़ा गया।

मैं कल अपनी श्रीमति जी से कह रहा था कि हम लोग पिछले २५ वर्षों से सर्विस कर रहे हैं... दोनों सर्विस में हैं...अपनी पसंद का एक अच्छा सा फ्लैट किसी बड़े शहर में लेने के लिए मनसूबे ही बनाते रहते हैं......मैजिक ब्रिक्स या ९९ एकर्ज़ पर कीमत देख कर चुपचाप उधर से नज़रे हटा लेते हैं। हम यही सोच रहे थे कि इन लोगों के लिए करोड़ों के बंगले खरीदने बाएं हाथ का खेल है!

मैं अकसर कुछ लोगों के इस तरह से महलनुमा आलीशान मकान और इन की दस बारह लाख की कीमत वाली गाड़ियां देखता हूं...लोगों में सब कुछ आ जाता है.. रिटायर कर्मचारी भी आ जाते हैं..अधिकारी भी आ जाते हैं...तो मैं सोच में पड़ जाता हूं कि इमानदारी की कमाई से इतना कैसे संभव हो सकता है...आदमी बस ठीक ठाक सा एक आशियाना ही बना सकता है, लेकिन इस तरह की बिल्डिंग्स जो कि भव्य इमारतें दिखती हैं बाहर ही से......इन की कल्पना ही नहीं की जा सकती।

लेिकन सुकून तो दोस्तो ईमानदारी में ही है......हमारी दिक्कत यह है कि हम लोग इतिहास से भी सबक नहीं लेते....अफसोस की बात यह है कि इतना पढ़े-िलखे और ऊंचे रूतबे वाले लोग भी इस में धंसे होते हैं...यूपी के ही रूरल हेल्थ मिशन के करोड़ों के घोटाले में लिप्त लोगों के साथ क्या हो रहा है.......जानें जा रही हैं. एक के बाद एक ...इस रहस्य से पर्दा नहीं हटेगा।

और व्यापम् घोटाले में भी यही कुछ हो रहा है.....इतने इतने भव्य भवन खड़े किये हुए किस काम के।

लिखते लिखते यही लग रहा है कि शायद कोई पाठक यही समझ ले कि यार, तेरे लिए अंगूर खट्टे हैं, कहीं इसलिए तो तू भड़ास नहीं निकाल रहा। नहीं, दोस्तो, हम लोगों के जीवन में बेहिसाब संतुष्टि है.......यह हमें विरासत में मिली है....हम ने बिल्कुल सीमित संसाधनों के रहते ..कभी भी अपने मां-बाप को किसी तरह की हाय-तौबा मचाते नहीं देखा... कभी भी नहीं, किसी का हक छीनते नहीं देखते, किसी से कठोरता से बात करने नहीं देखा, किसी से उलझते नहीं देखा, किसी का दिल दुःखाते नहीं देखा..........और क्या होता है, यही तो है ज़िंदगी।

एक बात और ...जिन्होंने भी भव्य भवन खड़े किये..होंगे यार इन में से अधिकतर पैदाइशी रईस होंगे ...हुआ करें....ईश्वर उन को और भवन दे....लेकिन जो लोग सर्विस में रहते हुए या बाद में करोड़ों की कीमत वाले भव्य भवन बांध लेते हैं...तो किसी भी देखने वाले को लगता है कि यह सब नौकरी से तो संभव है नहीं, और परिवार की आमदनी के कुछ अन्य स्रोत भी इतने पुख्ता हैं नहीं........वे शायद देखने वाले के चेहरे के भाव पढ़ लेते हैं और बिना पूछे ही यह ज़रूर कह देते हैं.........हम ने अपनी सारी पुश्तैनी ज़मीनें बेच दीं, गांव में बहुत जमीन पड़ी थी.....या किसी रिश्तेदार को ही मार देते हैं कि वह दे गया है.......लेिकन सुनने वाले को भी जानबूझ कर बेवकूफ बना रहने में ही आनंद आने लगता है।

जो भी हो, दोस्तो, ज़िंदगी प्यार का गीत है ........अभी अभी याद आया.... बेहद सुंदर गीत....
 "जिसका जितना हो आंचल यहां पर..
उसको सौगात उतनी मिलेगी। 
फूल जीवन में 'गर न खिलें तो..
कांटों से निभाना पड़ेगा। 
है अगर दूर मंज़िल तो क्या,
रास्ता भी है मुश्किल तो क्या,
रात तारों भरी न मिले तो..
दिल का दीपक जलाना पड़ेगा।"

बुधवार, 1 अप्रैल 2015

पेपर में नकल तो मैंने भी की थी...

कुछ दिन पहले मेरे बेटा जब परीक्षा देकर आया तो उसे एक अंक के एक प्रश्न के गलत होने का बड़ा अफसोस हो रहा था..प्रश्न था...कि विटामिन बी १२ की कमी से कौन सा रोग होता है?..मल्टीपल च्वाईस वाला प्रश्न था..इस का सही उत्तर है परनिशियस एनीमिया....बेटा किसी अन्य विक्लप को चुन आया था।

जब मैंने उसे इस के बारे में परेशान होते देखा तो सहज ही मेरे मुंह से निकल गया...राघव, आस पास से पूछ लेते यार। वह उस एक अंक का गम तो तुरंत भूल गया और मेरे मुंह की तरफ़ देख कर बोला...क्या कह रहे हो पापा?....और वह ठहाके लगाने लगा। आगे कहने लगा कि पापा, फ्लाईंग स्कवेड पकड़ ले तो कईं साल तक पीछा नहीं छूटता।

कहने लगा कि पापा, यह काम बड़ा रिस्की है। मैंने भी उसे एक सुझाव दे दिया कि फाईनल परीक्षा का कोई भी पेपर देकर जब लौटते हैं तो उसे चुपचाप किसी अलमारी में छिपा देना चाहिए....जो लिख दिया, वह बदला नहीं जायेगा, ऐसे में क्यों मूड खराब किया जाए। 

उस के बाद मैंने उस से अपने जमाने की नकल की बातें शेयर कीं...सुन कर हंसता रहा....उसे बड़ी हैरानगी होती है कि मैं भी किसी जमाने में नकल किया करता था। 

वही बातें आप से भी आज शेयर करता हूं। 

१९७४ के दिन ...छठी कक्षा में पढ़ते हुए स्कूल की छःमाही परीक्षाएं...अमृतसर का डीएवी स्कूल...पढ़ाई की कोई दिक्कत थी ही नहीं....उस दिन परीक्षा लिखते लिखते मेरी आगे और पीछे वाली सीट वाले लड़कों का आपस में थोड़ा वार्तालाप हुआ...और एक छोटी सी पर्ची मेरे बेंच के पास उन से गिर गई...सामने से अध्यापक आया ..उस ने कुछ न देखा...बिना कुछ पूछे मुझे एक इतने ज़ोर का चांटा मारा कि मेरा सिर घूम गया...मेरे से कुछ पूछा नहीं...इंगलिश का पेपर था..मैं ९५-९६ नंबर का तो कर चुका था...मेरे से पेपर छीन लिया...बिना किसी कसूर के ...और मैं सहमा सा घर आ पहुंचा। 

हम लोग स्कूल की सभी बातें घर में शेयर किया करते थे...मुझे इतना शॉक पहुंचा कि मुझे बुखार हो गया....वह मास्टर जिस ने मेरे को चांटा जड़ा था...मुझे पता था कि अमृतसर के पुतलीघर एरिया में उन का अपना एक स्कूल है और घर भी उस के अंदर ही है। 

दोस्तो, वह ही ऐसा दिन था जब मैंने अपने घर में एक मास्टर के प्रति थोड़ा आक्रोश देखा...वरना दोस्तो हम लोगों को अपने टीचरों को सदैव आदर सत्कार करने के बेहतरीन संस्कार मिले...हम आज भी उन्हें निभा रहे हैं...और बच्चे भी अपने टीचरों के प्रति हमेशा कृतज्ञ रहते हैं....होता है, शुरू शुरू में ...जब प्राइमरी कक्षा होती है तो बच्चे आ कर कहते थे ...पापा, वह टीचर ऐसा, वह ऐसा......हम लोग उन्हें तुरंत प्यार से समझा दिया करते कि देखो भाई, घर में मां बाप दो बच्चों को नहीं संभाल पाते, नहीं संभाल पाते ना!..... और उन्होंने तो ६०-६० बच्चों को संभालना भी है और उन्हें सिखाना भी है ...और साथ में हम उन्हें हमेशा सेंसेटाइज़ किया करते कि पता नहीं बेटा, किसी की क्या व्यक्तिगत समस्याएं हैं, किसी दिन कैसे मूड है...इसलिए कुछ भी हो, हम लोगों की जगह ,बेटा, मास्टरों के चरणों में ही है। 

हां, उस चांटा मारने वाले मास्टर की बात हो रही थी....उसी दिन मेरा मूड बहुत ज़्यादा खराब था ..मैं अपने पापा के साईकिल पर बैठ कर उन मास्टर साहब के घर पहुंच गया... उन के यहां हम ने चाय पानी पिया ...मुझे बिल्कुल अच्छे से याद है मेरे पापा ने वहां कुछ खास कहा ही नहीं, बिल्कुल अच्छे से याद है, तकरार की तो कोई बात ही नहीं, मुझे वहां जाकर ऐसे लगा जैसे मेरे तसल्ली के लिए ही पापा मुझे यहां लाए हों...और एक बात, ताज़ी ताज़ी सुबह ही तो बात थी, मास्टर जी को भी सब याद था और शायद गल्ती का एहसास था....मुझे इस बात का इत्मीनान था कि मेरा पेपर रद्द नहीं होगा.... पूरे सम्मान के साथ मैंने बस इतना कहा था कि मास्टर जी, मैं सारा पेपर फिर से दोबारा कर सकता हूं..मुझे सारा आता था। खैर, वह बात तो आई-गई हो गई ...

सातवीं आठवीं कक्षा में था तो नकल की पर्चीयां चलने लगी थीं.... या तो किसी कुंजी के पेज ही फाड़ कर लड़के साथ लेकर जाने लगे थे ...या फिर हाथ से लिख कर पर्चीयां तैयार के ले जाते ... मुझे यह बड़ा अजीब सा लगता था क्योंकि पढ़ाई में कभी कोई दिक्कत ही नहीं थी, सब कुछ अच्छे से आता था, याद होता था, रोज़ का रोज़ पढ़ना अपनी आदत में शुमार था...बिल्कुल कोई दिक्कत नहीं। 

लेकिन वह कहावत है ना कि खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता है ... मुझे हिस्ट्री-ज्योग्राफी से बेहद नफरत थी ... आज भी है.. इस का भी श्रेय मैं अपने बोरिंग मास्टर को देता हूं जो कभी इस विषय में रूचि उत्पन्न ही नहीं कर पाया ...उसे पीटने में ही लगता था ज़्यादा मजा आता था...मैंने भी दो तीन बार उस से पिटाई खाई.... 

इसलिए औरों की देखा देखी मुझे भी एक बार चाह हुई कि मैं भी नकल की मदद ले लूं... मुझे यही लगता था कि हिस्ट्री-ज्योग्राफी के हैडिंग ही मेरे को पता हों तो मैं आगे क्या लिखना है, संभाल लूंगा.... इतना कान्फिडेंस तो था .. यह भी सुन लिया था कि इस पेपर को तो चेक करने वाले गिट्ठां माप माप के चैक करते हैं (गिट्ठ पंजाबी का शब्द है, मतलब है जब हाथ के पंजे को फैलाते हैं तो उसे एक गिट्ठ कहा जाता है) ...

हां जी मैंने भी एक बार किताब के कुछ पन्ने फाड़े और उन्हें यूरिनल के ऊपर लगी टंकी के पीछे छुपा दिया कि बीच में मौका लगते ही आऊंगा तो पढ़ लूंगा।

याद है उस दिन मैं बीच में बाहर आया भी ... लेकिन मुझे उस फ्लश की लोहे की टंकी के पीछे से वे पर्चे निकाल कर पढ़ने की कल्पना से ही इतना डर लगा कि मैं वह काम कर ही न सका.......मुझे लगा कि अभी मुझे कोई पकड़ लेगा। 
फिर कभी कभी मैं ये हैडिंग रूमाल के किसी कोने में लिख कर भी चला जाता... ऐसे ही लगता कि कभी दो चार अंकों का फायदा हो जाएगा..लेकिन उस रूमाल के चक्कर में ..उस मुसीबत को तीन घंटे अपने पास रखे रखने की मजबूरी के चलते मैं अपने बाकी के प्रश्नों की तरफ़ भी अच्छे से ध्यान न दे पाता....डर बहुत बुरी चीज है। विज्ञापन में सुनना ही ठीक लगता है ....डर के आगे जीत है। 

हां, पर्चीयों की डिस्पोजल की बात करें तो बच्चे उस दौरान भी शातिर कम नहीं थे.....कागज की छोटी छोटी पर्चियां खा लिया करते थे ..फ्लाईंग स्कवेड के आने पर। 

अपनी तो बस यही छुटपुट छटांक भर रूमाल पर लिखे हैडिंग के रूप में ही कभी कभी दो चार नंबर की नकल हो जाती.....लेकिन उस चक्कर में अपने ९६ नंबर के पेपर की वाट लग जाती ..इसलिए दो एक साल में वह भी बंद कर दिया....रूमाल पर भी घर में छुप कर लिखना.....अगर कोई घर ही में पकड़ लेता तो रूमाल ही छीन लेता.....बस, पिटाई विटाई तो क्या होनी थी, दोस्तो,  घर में हमारी पिटाई एक बार भी हुई नहीं....कसम वाली बात है.....हमें कभी किसी ने घर में झिड़की तक दी... 

हां, एक बात अपने एक कज़िन के बारे में शेयर करनी है.. वह मेरी नानी के पास रहता था, पढ़ने में ज़्यादा ध्यान नहीं लगाता था, लाड़ला था, कईं बार तो पेपर से एक दिन पहले किसी विषय की कुंजी लाता.......मुझे अच्छे से याद है नानी उस के बारे में बताते हुए कितना हंसा करती थी ...दोस्तो, १९७० के जमाने में आप को याद होगा जब लड़कियां स्लेक्स पहना करती थीं...लड़के नाईलोन की निक्करें पहना करते थे ..इलास्टिक वाली .. तो यह कज़िन पप्पू क्या किया करता था ..कि अपनी बड़ी मेहनत से अपनी जांघ पर नकल का मैटिरियल लिख लिया करता और  वह स्ट्रेचएबल निक्कर तो उस लिखे को कवर कर ही लिया करती थी। 

मेरी नानी उसे प्यार से झिड़की देते अकसर कहा करती कि जितनी मेहनत तू यह सब करने में करता है, उतने समय में पढ़ ही लिया कर पप्पू.......लेकिन पप्पू कहां सुनने वाला था, कर गया ऐसे ही बीए......लेिकन वही बात है कि बी ए किया एम ए किया.......लगता है सब कुछ ऐवें किया..

यह नकल पुरान तो खूब लंबा खिंच रहा है, लगता है बाकी की बातें फिर कभी ...... अपने अंदर कैद सारे राज़ एक ही दिन थोड़े ही खोल दूंगा!

वैसे पढ़ाई में मैं बहुत अच्छा था...इसके प्रूफ के रूप में मैंने वह १९७३-७४ की पांचवी कक्षा की अमृतसर जिले की योग्यता छात्रवृत्ति की डीएवी स्कूल के मैगजीन में छपी वह तस्वीर ऊपर पेस्ट कर दी है... तीन साल तक हर महीन १० रूपये की छात्रवृति में जो आनंद था वह तो दोस्तो आज सैलरी का चेक मिलने पर भी नहीं होता.....बॉय गॉड, आय स्वेयर। इस छात्रवृति के िलए हमारे मास्टर साहब हमारी बड़ी तैयारी करवाया करते थे। 

बी ए एम की बात हुई तो उन्हीं दिनों का यह गीत याद आ गया..सारी बातें आज ही की लग रही हैं...