अच्छा, पढ़ लिया है ...तो फिर बाज़ार जा कर उस आई-ड्रॉप्स को खरीदने से पहले इसे भी थोड़ा देख लीजिए....
चलिए...एक पंजाबी कहावत से शुरु करते हैं....पाइए जग-भाउंदा, खाईए मन-भाउंदा ....यह कहावत हम लोग बचपन से सुनते आ रहे हैं....मतलब इस का यही है कि अपना पहरावा तो वैसा हो जो दुनिया को अच्छा लगे, और अपना खान-पान ऐसा हो जिसे खा कर मन खुश हो। मुझे हमेशा ही से इस कहावत से बड़ी चिढ़ रही है, क्यों भाई खाना अपनी पसंद का खाना है तो अपनी पसंद का पहनने में क्या दिक्कत है....इसलिए मैंने कभी इस बात को नहीं माना....हमेशा वही पहना है जिसे पहन कर मुझे खुशी होती है..दुनिया का क्या है...बस, मुझे चश्मा पहनने से दिक्कत है क्योंकि मुझे पसीना बहुत आता है तो चश्मा धुंधला हो जाता है बार बार ...खैर, इस उम्र में कंटैक्ट लेंस क्या डालें, हां, अच्छे से प्रोग्रेसिव लैंस लगवा लेता हूं...लेकिन चश्मा पहनने से बहुत खीझ जाता हूं ...
कल जैसे ही अखबार को हाथ में लिया तो पहले पन्ने पर ही खबर देख कर खुशी तो हुई एक बार कि कुछ ऐसी आई-ड्रॉप्स को सरकारी मंजूरी मिल गई है जिन्हें अगर आप अपनी आंख में डाल लेंगे तो नज़दीक के चश्मे की ज़रूरत महसूस न होगी....अच्छी भी लगी खबर, लेकिन थोडे़ समय के लिए ही ...क्योंकि इस तरह की खबरें पता नहीं क्यों आसानी से पचती नहीं ....क्योंकि वैसे भी हम एकतरफ़ा दावे ही तो सुन रहे होते हैं....
वही बात हुई ..दिन चढ़ते हमारे अस्पताल के चिकित्सकों का जो वाट्सएप ग्रुप है उसमें किसी ने इसी खबर को टैग कर के यह लिखा कि इस के बारे में नेत्र-रोग विशेषज्ञों का क्या कहना है....
ग्रुप में से ही एक सुप्रशिक्षित नेत्र रोग विशेषज्ञ ने जवाब दिया....भारत के ड्रग कंट्रोलर द्वारा पाईलोकॉरपिन नामक दवाई को मंजूरी तो दी है. लेकिन नेत्र रोग विशेषज्ञों की राय यही है कि चश्मा पहनना ही ठीक है। वैसे भी आंखों में डालने वाली दवाई नज़दीक की नज़र को ठीक करने के लिए कोई स्थायी समाधान नहीं है, इस तरह की दवाई रोज़ाना अगर आंखों में डाल रहे हैं और वह दवाई जिस के कुछ दुष्प्रभाव भी हैं, इसलिए सोच-समझ के ही कोई फैसला करने की सलाह दी। और एक बार जब ड्राप्स डाले जाते हैं तो उन का असर 4-5 घंटे तक ही रहता है, यानि दिन में तीन तीन बार आंखों में इन को डालना पड़ेगा...
समझदार को इशारा ही काफ़ी होता .... और जब कोई विशेषज्ञ इस तरह के विषय पर अपनी राय देता है तो वह अनमोल होती है....
शाम होते होते एक अन्य बहुत अनुभवी एवं सुशिक्षित नेत्र रोग विशेषज्ञ ने ग्रुप में यह जानकारी शेयर की ऑल-इ़ंडिया ऑपथोमोलॉजी सोसाइटी के प्रधान ने इस मुद्दे पर एक विशेषज्ञ एक्सपर्ट ग्रुप बनाया है जो इस विषय पर विचार-विमर्श करेगा और अपने सुझाव देगा ....और यह भी लिखा था ...
यह एक्सपर्ट ग्रुप इस बात का भी अध्ययन करेगा कि कि जिस तरह से इस की मार्केटिंग की जा रही है (या होगी) उस में मरीज़ों की सुरक्षा कैसी होगी, अगर बिना किसी नुस्खे के लोग खुद ही कैमिस्ट से खरीद कर इस का अंधाधुंध इस्तेमाल करने लगेंगे।
और भी कुछ बातें यह एक्सपर्ट ग्रुप तय करेगा जिस में एकदम वैज्ञानिक ज्ञान पर आधारित कुछ दिशा निर्देश दिए जाएंगे ...इस तरह की डॉप्स (के इस तरह के इस्तेमाल) से होने वाले दुष्परिणामों के बारे में और जिन लोगों को इस तरह के ड्रॉप्स बिल्कुल ही इस्तेमाल नही ंकरने हैं, उन के बारे में भी जानकारी दी जाएगी (absolute contraindications).
और हां, यह एक्सपर्ट ग्रुप इस बात की भी सिफारिश करेगा कि नेत्र रोग विशेषज्ञों की यह सोसायटी अपने सदस्यों और जनता जनार्दन की इस मामले में जागरुकता बढ़ाने के लिए क्या कदम उठाए।
तो, कहने की बात यह है कि रात होते होते यह बात तो समझ में आ चुकी थी कि बेटा, इतना मत उछल, तुझे चश्मा पहनना ही है....यह जो तू ख्वाब देख रहा था कि रोज़ाना यह ड्राप्स डाल कर ऊपर से रे-बैन के गागल्स लगा लिया करेगा ...और वह भी दूर के नंबर के साथ, अभी अपनी इस प्लॉनिंग को ठंडे बस्ते में डाल के रख...जैसे एक्सपर्ट लोग बताएंगे, वैसे ही करना होगा ...और करना भी वही चाहिए....आंखों का मामला है, आंखें हैं तो जहां है, किसी भी तरह की छोटी से छोटी बेवकूफी सारी ज़िंदगी के लिए भारी पड़ सकती है....यह किसी सयाने की झाड़-फूंक से रोग दूर करने वाली बात नहीं है, अगर बिना किसी नेत्र रोग विशेषज्ञ की सलाह के कुछ भी आंखों में डाल दिया जाता है तो उस के ऐसे-वैसे नतीजे के लिए भी तैयार रहना होगा...
अभी भी वाट्सएप पर एक तीन पन्ने का पीडीएफ घूम रहा है जिस में ड्रग कंट्रोलर के नाम कोई चिट्ठी लिखी है .....उसमें यही लिखा है कि अगर यह दवाई लोग अपने आप खरीद कर अंधाधुंथ इस्तेमाल करने लगेंगे तो इस से आंख के परदा भी फट सकता है ...(रेटिनल डिटेचमेंट) ..उस पत्र में यह भी लिखा गया है कि किन कारणों से भारतीय लोगों में इस तरह की दवाई आंखों में अपनी मर्ज़ी से इस्तेमाल करने में क्या क्या नुकसान हो सकते हैं, इस के साथ साथ उन्होंने यह भी अनुरोध किया है कि इस दवाई पर कुछ समय तक रोक लगा दी जाए....और एम्स जैसे शीर्ष संस्थानों के विशेषज्ञों, नेत्र रोग विशेषज्ञों की प्रोफैशनल बॉडी (सोसाएटी), रेटिना (आंख के पर्दे) और काले मोतिये के विशेषज्ञों से राय मशविरा कर के ही इस के आम इस्तेमाल की मंजूरी दी जाए....
और एक बात यह भी है कि इस पत्र में कोई भी बात ऐसे ही हवा में नहीं की गई है...अच्छे से पहले तो उन्होंने सारी अखबारों की इस न्यूज़-स्टोरी के लिंक दिए हैं और फिर जो अपनी बात कही है उस के समर्थन में मेडीकल लिटरेचर के रेफरेंस भी दिए हैं.....कुछ कुछ बातें बहुत टैक्नीकल भी हैं, लेकिन उस से आप को इतना मतलब भी नहीं है, मुद्दे की बात यही है कि अभी इस तरह की ़्ड्राप्स को खुद ही खरीद कर अपने आप मत डालने न लग जाइए, जैसा मैंने भी कल सुबह एक बार तो मंसूबा बना लिया था ....बस, आप को यही करना है...बाकी, विशेषज्ञ करेंगे जो भी करना होगा, आप की आंखों की हिफ़ाज़त के लिए ....विशेषज्ञ करेंगे, सरकारी व्यवस्था सब देखेगी, पड़ताल करेगी ...ऐसी उम्मीद हम कर सकते हैं।
इस विषय पर आज ही लिखना ज़रूरी इसलिए था कि जैसे हम लोग तुरंत खाना या दूसरी चीज़ें आर्डर कर देते हैं, कईं बार दवाईयां भी ...पांच दस मिनट में हमारे द्वार पर पहुंच जाती हैं, इतनी बात करने का मकसद यही है ताकि जल्दबाजी में अपने आप आर्डर न करें, अपने नेत्र रोग विशेषज्ञ से मिलें, जैसा वह कहें, वैसा ही करें.....बड़ी मेहनत करते हैं ये विशेषज्ञ इतनी इतनी बारीक पढ़ाई करने के लिए....
अखबार में छपी हर ख़बर को थोड़े से नमक के साथ लेने की आदत डालें.....
पंजाबी की एक और मशहूर कहावत ....आंखें गईं जहान गया, दंद गए स्वाद गया...(इतनी पंजाबी तो आप समझते ही होंगे ..पंजाबी गीत समझ लेते हैं और उन की धुन पर नाच भी लेते हैं अगर ...) 😎 Stay safe, stay healthy...take care ....
पोस्ट का लिफाफा बंद करते वक्त मैंने जब आंखों पर फिल्मी नगमों के बारे में सोचा तो दर्जनों दिख गए...मैंने सोचा एक फिल्म भी तो थी..'अखियों के झरोखों से' ....उसी फिल्म का एक गीत सुनते हैं....हम भी बॉलीवुड के गोल्डन दौर के साक्षी रहे हैं....बहुत किस्मत वाला मानते हैं खुद को इस मामले में ....😎
कोप भवन....पता नहीं कितने बरसों बाद यह शब्द मुझे कल अचानक याद आ गया ….मैं इसे मां के मुंह से सुना करता था…और वह भी जब हमारे बच्चे छोटे थे तब….बच्चे बड़े हो गए …और मां भी न रहीं तो यह शब्द फिर से कहने वाला कोई था नहीं।
मां कब कहती थीं इस लफ़्ज़ को …..जब बच्चे छोटे थे, इतने भी छोटे नहीं …उन के स्कूल-कॉलेज के दिनों की बातें हैं….जब कभी आपस में भिड़ जाते, तो फिर जो उस दिन का विक्टम कार्ड जिस के पास होता, वह मां के कमरे में जा कर उस के डबल-बेड पर पड़ी एक एक्स्ट्रा रज़ाई में जा कर दुबक जाता ….और वैसे भी जब कोई किसी दूसरे कारण की वजह से भी गुस्से में होता तो भी यही रास्ता अपनाया जाता ….और मां खुल कर हंसते हंसते उन को मनाते हुए ठेठ पंजाबी में कह देतीं…वे तुसीं इस कमरे नूं कोप भवन समझया होया ए, जेहड़ा गुस्से चा हुंदै, ओही एत्थे आ के पै जांदै….(तुम लोगों ने इस कमरे को कोप भवन तो नहीं समझा हुआ, जो भी गुस्से में होता है, परेशान होता है, इस की शरण में आ जाता है ….)
मैं नहीं कहता .....किताबों में लिखा है यारो....
खैर, मां की सीख से और वक्त के मलहम से कुछ ही घंटों में वह बात आई-गई हो जाती और भूख सताने लगती तो कोप भवन से बाहर निकल कर, सुलह-सफाई हो जाती। कईं बार अगर कोप-भवन में प्रवेश रात के वक्त किया जाता तो फिर सुबह उठने पर ही वहां से बाहर आया जाता …
चूंकि मां को सभी तरह के धार्मिक पढ़ने में रूचि थी, विशेषकर रामायण में तो बहुत ज़्यादा, इसलिए वह हमें उस युग के कोप-भवन के बारे में अकसर बताया करती थीं…लेकिन मैंने तो फिर भी यह पोस्ट लिखने से पहले गूगल से पूछ ही लिया …कोप भवन सर्च कर के ….उसने भी मां की बात को तसदीक कर दिया….तो यह तो हुआ कोप भवन…..
अब इस पोस्ट के शीर्षक में जो दूसरा शब्द आया है ….रेज रूम…उस के बारे में भी बात करनी है …दरअसल मैं टाइम्स ऑफ इंडिया तो रोज़ ज़रूर देखता ही हूं …उसे पढ़ना ज़रूरी इसलिए भी है क्योंकि हम लोग टीवी देखते नहीं ….न ही कोई टाटा-स्काई वाई है …न ही चाहते हैं…एक लेड-स्क्रीन है, जिस पर कभी कभी नेटफ्लिक्स या अमेज़न का कोई शो देख लेते हैं …हां, अखबार पढ़ने का मतलब है बीस-तीस मिनट में जितनी पढ़ी जाए या सफर के दौरान जितनी देख लूं, उतनी ही ….न तो कभी ड्यूटी पर उसे खोलने की फ़ुर्सत मिली और न ही बाद में शाम में कभी ….सुबह देखते वक्त जो खबर लंबी होती है और बाद में पढ़ने लायक होती है तो उस को मार्क कर लेता हूं, लेकिन अकसर नहीं पढ़ पाता ….इसलिए कभी कभी अगले दिन उस की कतरन ले लेता हूं…अपने मन की शांति के लिए रख ज़रूर लेता हूं लेकिन पढ़ कभी नहीं पाता ….जब इस तरह की कतरनें इक्ट्ठा हो जाती हैं तो वे भी रद्दी की टोकरी में जा पहुंचती हैं…
फोटो साभार .टाइम्स ऑफ इंडिया
फोटो साभार .टाइम्स ऑफ इंडिया
खैर, पिछले हफ्ते मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया में एक खबर पढ़ी जिस में रेज-रूम के बारे में बताया गया था …मुझे बहुत ज़्यादा हैरानी हुई …उस स्टोरी को भी मार्क तो किया था, लेकिन बाद में वह अखबार ही न मिली। कल जब मिड-डे में भी रेज-रूम के बारे में कुछ पढ़ा तो फिर से वह फीचर याद आ गया….गूगल से मिल भी गया …बताते हैं उस में ऐसा क्या लिक्खा है कि मैं उसे सात-आठ दिनों के बाद भी भूल नहीं पाया…
चलिए, पहले तनाव की, गुस्से की, तनाव से जूझने की थोड़ी बात करें ….सब से पहले तो मुझे इस तरह के मामले में सभी तरह के उपदेश न तो किसी को देने और न ही लेने पसंद हैं…नापसंद तो एक बात हो गई, मुझे नफ़रत है….इसी चक्कर में मैंने सत्संग में जाना बंद कर दिया था ….मुझे उन दिनों भी यही लगता था कि यह जो बंदा या बंदी ऊपर सिंहासन पर बैठ कर इतना भारी भरकम ज्ञान पेल रहा है, यह तो सब हमारे ग्रंथों में लिखा ही है…और यह बंदा तो हमारे जैसा ही है, हमारी जैसी ही इस की कमज़ोरियां हैं, यह सिंहासन इस को इस के वंशजों से मिला, आगे यह अगली पीढ़ी को थमा देगा, फाईव-स्टार ज़िंदगी जी रहा है …बस, ऐसे करते करते इन सत्संगों-वंगों से मन उचाट सा हो गया….यार, सारा ज्ञान हम सब जानते हैं, लेकिन उस पर चलते नहीं …..
और हां, ये जो अखबारों में या सोशल मीडिया पर आए दिन लेख दिखते हैं न ..बहुत से तो डाक्टरों के लिखे हुए भी …..कि तनाव को, गुस्से को कैसे कंट्रोल करें…..ये सब भी मुझे इतने उपयोगी लगते नहीं क्योंकि मैं देखता हूं कि इन को लिखने वाले खुद तो इन सब से उभर नहीं पाए…इसीलिए वही बात लगती है ..पर उपदेश कुशल बहुतेरे ….। और वैसे भी जिस तन लागे, वो तन जाने ….किसी के लिेेेए नसीहत की घुट्टियां देना हम बहुत अच्छे से जानते हैं लेकिन खुद हम अपने आप को इन सब से ऊपर समझते हैं…..ऐसा कुछ है नहीं…
मैं ऐसा मानता हूं कि नसीहत-वसीहत से कुछ होता नहीं …गुस्सा आना, तनाव में रहना …ये सब जीवनशैली, किसी व्यक्ति की मनोवृत्ति, उस के खानपान, उस के दोस्तों की टोली…..इन सब से जुड़ी है, कितना भी ज्ञान ठेल देंगे, कुछ होने वाला नहीं ….हम लोग भी तो बीसियों साल से यह सब पढ़ते आए हैं, हम ने कौन सा तीर मार लिए….
हां, तीर तो नहीं मार लिए, लेकिन गुस्सा से भिड़ने का अपना एक ढंग सीख लिया है ….पहले मुझे यही लग रहा था कि इस पोस्ट का शीर्षक ही यही लिखूं ..गुस्सा आए तो क्या करें…पी जाएं, निकाल लें या कोई पागलपंथी कर जाएं…..लेकिन फिर कोप-भवन का ख्याल आया तो वही लिख दिया….
गुस्से आने पर हर किसी का अपना अपना कोपिंग-मेकेनिज़्म है, कोई नुस्खा हो नहीं सकता, ….अच्छी बात है जब तक किसी दूसरे को या खुद को कोई नुकसान नहीं पहुंचता, सब ठीक है….और हां, जब गुस्सा आता है तो हम बडे़ बड़े ज्ञानियों-ध्यानियों की बोझिल बातों को क्या करें जब हम इतना तो कर नहीं सकते कि तुरंत गहरा सांस लेना ही शुरू कर दें ….कहते हैं कि यह बहुत अच्छा तरीका है, उस गुस्से वाली घड़ी को टालने का ……लेकिन इतना भी कब किसी को याद रहता है, उस वक्त तो भूत सवार हुआ होता है ….कि तुमने मुझे ऐसा कहा तो कहा कैसे, तेरी यह मज़ाल, देखता हूं………बिल्कुल पागलपन जैसी अवस्था …वैसे भी कहते हैं कि गुस्से में आवेश में बंदा पागल जैसा हो ही जाता है ……..और ज्ञानी लोग तो यह भी लिख कर जा चुके हैं कि गुस्से में तो किसी चिट्ठी का जवाब भी मत लिखो…..तो फिर किसी दूसरे के साथ उलझने का तो सवाल ही कहां पैदा होता है ….
हर बंदे ने इस गुस्से रूपी इस सिरफिरेपन से बाहर निकलने का अपना कोई तरीका रखा होता है….मेरा क्या है? तो सुनिए….जो भी इंसान मेरा दिल दुखाता है मैं उसे मन ही मन इतनी इतनी भयंकर गालियां दे देता हूं कि सच में थोड़ी बहुत राहत तो मिल ही जाती है….लेकिन अगर फिर भी लगे कि अभी भी कुछ रह गया है तो अपने दो पहिया वाहन में अकेले कहीं आते जाते वक्त वही गालियां रिपीट कर देता हूं ….लेकिन अब दिल में नहीं, हेल्मेट लगाया होता है तो आसानी से उनका उच्चारण कर लेता हूं …अच्छी राहत मिल जाती है ….लेकिन कईं बार ऐसा भी होता है कि कोई इंसान आप से इतनी ज़्यादा बदतमीज़ी से पेश आता है कि आप वहां तो कुछ कर नहीं पाते ….(करना भी नहीं चाहिए, युवा लोग मेरी यह सीख ज़रूर गांठ बांध लें..) लेकिन फिर मैं पहली फुर्सत में कागज़ और पैन लेकर बैठ जाता हूं …उस घटना के बारे में लिखता हूं ….और जितना भी गालियों का भंडार मेरे पास है और वह भी ठेठ पंजाबी गालियों का (आप ने भी देखा होगा गालियों की भी भाषा होती है, सभी का अनूठा ज़ायका होता है …अवधी में अलग, मैथिली में अलग, पंजाबी मे अलग…..) और भावावेश में अगर मैं दो चार और भी नईं इजाद कर लेता हूं तो उसे भी लिख देता हूं ….देखते ही देखते दो तीन पन्ने भर जाते हैं …बस उस वक्त मेरे पास अच्छा काग़ज़ और बाल-प्वाईंट पैन या जैल पैन होना चाहिए …..(फाउंटेन पेन से लिखता हूं वैस तो हमेशा, लेकिन वह शांति से, इत्मीनान से लिखने के साधन हैं, गुस्से में काम नहीं करते) …क्योंकि दिलो-दिमाग से जो निकल रहा है, उसे तुरंत काग़ज़ पर छापना ज़रूरी होता है….वरना अगले ही पल वह गुम हो जाता है ….
चलिए, दो चार पन्ने लिख लिया, गुब्बार निकल गया….फिर उन पन्नों को दो तीन बार पढ़ता हूं, मज़ा आता है, हंसी भी आती है ….मन एक दम हल्का महसूस होने लगता है ….अब उन पन्नों का क्या करें, मैं अपने बेटों की तरह इतना निडर भी नहीं कि उन पन्नों को ऐसे ही कहीं रख दूं….अब उन पन्नों के सुरक्षित डिस्पोज़ल का मुद्दा मेरे सामने होता है….तो वह कोई मुश्किल काम नहीं होता, उन पन्नों के छोटे छोटे चीथड़े कर के फल्श में बहा देता हूं और कईं बार तो कंटैंट ऐसा होता है कि उन पन्नों को आग लगा देता दूं ……..क्योंकि इन पन्नों पर ऐसा कुछ लिखा होता है कि अगर जिस बंदे के लिए मैंने वह लिखा होता है, अगर उस तक पहुंच जाएं वह काग़ज़ तो वह या तो मेरे नाम की सुपारी ही ले ले या खुद को ही कोई नुकसान पहुंच ले ……मैं इन दोनों में से कुछ नहीं चाहता, क्योंकि वह मेरा मक़सद नहीं होता, मेरा मक़सद तो मन की शांति वापिस लाना होता है, उथल-पुथल शांत करना होता है और शांति का क्या है, वह इतना करने पर अमूमन वापिस लौट ही जाती है …
एक बात और भी तो है, हमारे पूर्व-संस्कार होते हैं, पूर्वाग्रह भी होते ही हैं, कईं बार वे इस तरह से लिख कर गुस्सा निकालने के आड़े आते हैं तो हम अपना सब से अचूक हथियार इस्तेमाल कर लेते हैं…..गुस्सा पीने की, निकालने की, कोई दूसरी पागलपंथी की ज़रूरत नहीं पड़ती, मैं 15-20 मिनट के लिए शांति से बैठ जाता हूं ….मेडीटेशन हो जाती है ….सब से अचूक, सब से कारगर, सब से बढ़िया, सब से प्यारा, सब से खूबसूरत तरीका तो गुस्से से, तनाव से निकलने का यही है …और यही मेरा अनुभव है, ज़िंदगी में यही सीखा है………लेकिन यह किसी के लिए न सीख है, न ही उपदेश है, क्योंकि जैसे मुझे नसीहत से चिढ़ है, ऐसे बहुत से लोगों को होती है, हर किसी को अपने कोपिंग-मेकेनिज़्म का खुद अविष्कार करने का हक है…..और यह ज़रूरी भी है ….
ठीक है, हक है ….लेकिन फिर भी मुझे यह जो टाइ्म्स ऑफ इंडिया में जो न्यूज़-स्टोरी दिखी कि लोग आज कल अपना गुस्सा निकालने के लिए रेज-रूम में चले जाते हैं ….जहां वे आधा घंटा रहते हैं…वहां चीज़े तोड़ते-फोड़ते हैं, कांच का सामान, टीवी आदि हथोड़े से तोड़ते हैं ….500 रूपए से 2500 रुपए तक का खर्च एक सैशन के लिए करना पड़ता है ….हल्के हो कर घर लौट जाते हैं…लेकिन खबर में भी लिखा था कि मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह एक टेम्परेरी सा तरीका है गुस्सा निकालने का …ज़ाहिर सी बात है …वैसे इस तरह के जो बिजनेस चलाते हैं, वह लिखते हैं कि महीने में दो तीन बार से ज़्यादा लोग जो उन के पास इस तरह की तोड़-फोड़ से राहत ढूंढने आते हैं, तो उन के लिए वे किसी मनोवैज्ञानिक से परामर्श भी मुहैया करवा देते हैं…चलिए, अच्छा करते हैं अगर वे सच में यह सब कर के इन परेशान लोगों की मदद करते हैं….अच्छी बात है….
तोड़-फोड़ से बात याद आई ….जब बच्चे छोटे होते हैं, उन में एनर्जी ज़्यादा होती है और वे इसे ऐसे ही खुराफात करने में लगाए रहते हैं तो कुछ बीस साल पहले हमें भी कहीं से यह ज्ञान मिला की घर में एक पंचिंग बैग टांग दिया जाए…..और बच्चों को उस के साथ मुक्केबाजी करने को कहना चाहिए…हम भी फिरोजपुर छावनी के किसी बाज़ार से ले आए एक फौजी झोला टाइप …जो लंबा सा रहता है मिलेट्री कलर में …अब उसमें भरें क्या, हमने अपनी बुद्धि के मुताबिक उसमें रेत भर के टांग दिया उसे सूली पर …..और बच्चे लगे उसे मुक्के मारने, लेकिन यह क्या, पता नही यार क्या था, रेत ज्यादा भर दी, या बच्चों के हाथ नाजुक थे, उन के हाथ तो चोटिल होने लगे ….फिर वे हाथों में बॉक्सिंग ग्लव्स पहन कर यह करतब करने लगे ….लेकिन ज़्यादा दिन यह सिलसिला चला नहीं, हम ने उसे उतार कर उस मुसीबत से छुटकारा पा लिया ….. आगे की बात तो मैं पहले ही बता चुका हूं …मां के कमरे को इन लोगों ने कोप-भवन बना कर रख दिया…
हां, तो यह जो आज कल रेज-रूम की बात चल रही है, कोई बड़ी बात नहीं, यह आने वाले दिनों में आम बात हो जाएगी….आज से 20-25 साल पहले जब मैंने लिखना शुरु किया तो बड़े शहरों में कुछ जगहों पर हु्क्का-पार्लर खुलने की बात बहुत अजीब लगती थी …लेकिन देखते ही हुक्का-पार्लर छोटे बड़े शहरों में आम से हो गए …एक फैशन ही बन गया।फिर भी मुझे लगता है कि हम लोगों की संस्कृति इतनी समृद्ध है, पीढ़ी-दर-पीढीं हमारे संस्कार इतने बढ़िया हैं, कि हमें इस तरह के रेज-रूम्स की ज़रूरत नहीं पड़नी चाहिए….वहां तक बात पहुंचनी ही नहीं चाहिए….मेरे विचार उस न्यूज़ स्टोरी से बहुत उद्वेलित हुए….
और हां, एक बात तो मैं कहनी भूल ही गया ….वह मैं पूरे विश्वास के साथ एक नसीहत के तौर पर भी लिख सकता हूं कि गुस्से पर काबू पाने के लिए एक ब्लॉग ही लिखना शुरु कर दीजिए…..बहुत कारगर है यह भी ….अब आप ही देखिए, जितना भड़ास मैंने खुद 2000 से ज़्यादा अल्फ़ाज़ का खामखां का एक किस्सा लिख कर निकाल ली, वह मौका मुझे और कौन सा प्लेटफार्म देता ……वैसे,जब मैंने 2007 में ब्लॉग लिखना शुरु किया था तो उस वक्त किसी का एक ब्लाग ही होता था …भड़ास…….और वह बहुत पापुलर ब्लॉग होता था….
बस, पोस्ट बंद करते करते यही इत्लिजा है कि खुश रहिए, स्वस्थ रहिए, मस्त रहिए, ठीक है, गु्स्से का भी बंदोबस्त करते रहिए अपने हिसाब से, अपने विवेक के अनुसार…लेकिन कुछ भी हो, खुद को किसी भी तरह से नुकसान पहुंचा कर, सी-लिंंक से या अटल सेतू से छलांग लगा कर अपनी ज़िंदगी की खूबसूरत सी कहानी को ही खत्म कर देना, यह तो कोई बात न हुई….दुनिया तो शुरु से ऐसी ही है और ऐसी ही रहेगी…..सारी धरा से कांटे बिनने की की बजाए पुख्ता, मजबूत तलवों वाले जूते पहनें जाएं तो क्या बढ़िया नहीं है ….
वैसे अगर आप उस रेज-रूम वाली न्यूज-स्टोरी देखना चाहिए तो खुशी से देखिए, यह रहा उस का लिंक(ऊपर जो फोटो लगी हैं, उसी स्टोरी में से ही ली गई हैं) ..Rage Rooms Find Takers Among Urban Indians …. और नीचे मैं कल के मिड-डे में प्रकाशित हुई स्टोरी की भी दो फोटो लगा रहा हूं….
स्त्रियों को अपनी शेल्फ-डिफेंस के लिए तो जो भी ज़रूरी हो करना ही चाहिए
मिड-डे , मुंबई 01.9.2024
अब वक्त है मूड को ठीक करने का ….तो सुनिए, यह सुंदर गीत …एक गुड़िया गुस्से में है, और उस की मां उसे कितने प्यार से मना रही है …बेहद सुंदर गीत, मजरूर सुल्तानपुरी के बोल, लता जी की मधुर, लाजवाब, कोयल जैसी आवाज़, 1964 की फिल्म, मेरे प्रकट होने से भी दो साल पहले …अकसर रेडियो पर बजा करता था ….दिल को छू लेने वाला मेरा पसंदीदा गीत ....
और एक बात ....सब से हाथ जोड़ कर एक विनती है कि मेरे से वैसे ही पेश आइए जैसे मैं आप से शालीनता से पेश आता हूं ....मैं किसी से उलझता नहीं हूं, पीछे हट जाता हूं....लेकिन जब कभी तकलीफ ज़्यादा होती है तो फिर मेरा काम भी बढ़ जाता है....अलग बैठ कर, लिख कर अपनी भड़ास निकालने का ...(जैसा मैंने ऊपर लिखा है)....अब यह कोई राज़ नहीं रहा, आप जान चुके हैं....😎😂
कल शाम लोकल ट्रेन में कुछ दोस्त एक गंभीर चर्चा कर रहे थे ….सारा ज्ञान किताबों, अखबारों में ही नहीं होता, कईं बार इस तरह की जगहों पर भी अच्छा ज्ञान बंट रहा होता है …ध्यान से सुन ज़रूर लेना चाहिए, चाहे उस का इस्तेमाल करें या न करें, लेकिन दूसरों का पीओवी सुनने में क्या जाता है….
कल जो ज्ञानामृत की वर्षा हो रही थी वह इसी बात पर थी कि वे लोग चर्चा कर रहे थे कि जब वे किसी बैंक-डाकखाने में जाते हैं तो आधार, पैन एक हाथ में, डिजी-लॉकर में भी, दूसरे हाथ में मोबाइल थामे बंदा किसी बाबू के सामने साक्षात खड़ा है लेकिन वह यह सब देख कर भी झेरॉक्स कापी ही लाने की ज़िद्द करता है …यही बात हो रही थी कि बाबू के सामने बैठा (अधिकतर खड़ा हुआ, झुका हुआ…) बंदा उस वक्त इतना असहाय महसूस करता है कि क्या कहें।
अब उसे बाहर जाकर झेरॉक्स की कोई दुकान ढूंढनी पड़ेगी…फिर वापिस लौट कर बाबू के सामने खड़ा होना पड़ेगा…
इस चर्चा में भाग लेने वाला एक बंदा तो यह कह रहा था कि इसी चक्कर के चलते अब उसे तो बैंक जाने में ही कंटाला आने लगा है, कोई भी छोटा मोटा काम करना हो, मोबाइल नंबर बदलना हो या पता, और भी कोई भी काम हो, उसी वक्त पैन-आधार की कापी मांग लेते हैं….किसी भी तरह का तर्क-वितर्क किसी काम का नहीं कि हमारा तो के.व्हाई-सी हो चुका है ….चाहे कितनी बार भी हो चुका हो, अगर बाबू ने कह दिया तो आप को उस की कापी लेकर आनी ही होगी…
आप तर्क करते अपना वक्त खोटी करते रहिए कि यह तो हम इतनी बार पहले भी दे चुके हैं…कुछ नहीं होने वाला ….
उस टोली में से एक ने कहा कि यार, एक बात बहुत मज़ेदार यह है कि अनपढ़, कम पढ़े-लिखे बंदों को इस से कोई उलझन नहीं होती, वे घर से जब चलते हैं तो ज़िंदगी भर के इक्ट्ठे किए हुए ज़रूरी सरकारी दस्तावेज़ और पहचान-पत्र और साथ में उन की कापियां और दो चार अपनी फोटो भी लेकर चलते हैं….बाबू को जो भी चाहिए होती है, उसे खुद उन की पन्नी से फरोल कर निकाल लेता है ….और झट से काम हो जाता है….दरअसल बार बार हम देखते हैं कि हर जगह इंगलिश झाडऩे से काम नहीं हो जाता, कईं बार इस से और भी पेचीदगी बढ़ जाती है, मामला खामखां बढ़ सा जाता है….इस मामले में अनपढ़ बंदे के फंडे बहुत सैट हैं….ठीक है भाई वह स्कूल जा कर न पढ़ा सका, लेकिन दुनिया के स्कूल में उसने पढ़े-लिखों से भी ज़्यादा पढ़ा होता है …इसलिए वह बेकार इन छोटे मोटे कामों के लिए किसी बाबू से उलझता नहीं देखा होगा आपने भी …आम इंसान इतनी ठोकरें, तिरस्कार, शोषण, उपेक्षा का शिकार होते होते एक दम रवां हो चुका होता है …खुरदरे किनारे एक दम घिस चुके होते हैं ….वैसे भी सयाने कहते ही हैं…..अकल बादाम खाने से नहीं, ठोकरें खाने से आती है…
यही व्यवहारिक बातें करते करते वे कुछ गंभीर बातें करने लगे कि देख यार, आधार-पैन बंदे की जेब में है, और किसी किसी ने तो मोबाइल में डिजी-लॉकर में रखा होता है…और बंदा सामने साक्षात खड़ा है तो यह साबित करना कि वह वही है जो उस के कार्ड कह रहे हैं या कोई जालसाज़ है, यह तय करना तो उस बाबू का, उस दफ्तर का काम हुआ, है कि नहीं….
वैसे बात तो वे पते की कर रहे थे ….मुझे भी याद आया कि कुछ दिन पहले जब मैं सेंट्रल बैंक में गया तो मुझे भी एक छोटे से काम के लिए ई-के.व्हॉय.सी करने के लिए कहा गया, मैंने अपना आधार नंबर बताया, उस महिला ने किसी मशीन पर मुझे अंगूठा रखने को कहा और बस, हो गया….उन को तसल्ली हो गई कि यह तो फलां फलां डॉक्टर ही निकला…हुलिए से लग तो नहीं रहा था।
मैंने भी उस चर्चा में यह बात बताई तो वह कहने लगे कि नहीं करते इस तरह से वे ई-के-व्हाय सी. का सत्यापन…..आप ने एक बार ऐसा करवा लिया होगा …बात थी उन की भी सही, एक बार ही शायद ऐसा हुआ था, वरना तो जगह जगह पैन-आधार दे दे कर मैं भी तो थक सा गया हूं ….और तो और श्मसान घाट में किसी की लाश भी तब तक ठिकाने नहीं लग पाती जब तक उस का आधार कार्ड पेश न किया जाए….मुझे नहीं पता कि किसी शव का अंगूठा भी किसी मशीन पर लगा कर उस की पहचान साबित की जा सकती है कि नहीं, लेेकिन दूसरी सभी जगहों पर तो ऐसा ही होना चाहिए कि आप अपना आधार नंबर बताइए, आपके सामने एक मशीन रखी हो, आप उस पर अपना अंगूठा रखें और तुरंत फैसला सुना दिया जाए कि यह बंदा असली है या नकली…क्या वही है जिस का आधार इस के हाथ में है …
खैर......
इतने में वह टोली तो प्रभादेवी स्टेशन पर उतर गई …मेरा स्टेशन तो अभी दूर था, मैं उन की बातों के जंगल में गुज़रे दिनों की यादें ढूंढने लगा…सब से पहले तो मुझे यही ख्याल आया कि जब टैक्नोलॉजी नहीं थी तो 50-55 वर्ष पहले लोग कैसे अपने सर्टिफिकेट या मार्क-शीट की कापी जमा करते थे ….मैं इस बात का एकदम चश्मदीद गवाह हूं कि कोई भी मार्क-शीट में जो भी लिखा है उसे एक कागज़ पर उन पुराने दौर के टाइप-राइटर की मदद से टाइप करवाया जाता, हुबहु….जहां शिक्षा बोर्ड की सील होती, वहां पर यह लिख दिया जाता ….सील….
और शिक्षा बोर्ड के सचिव के हस्ताक्षर की जगह इंगलिश में sd/- लिख दिया जाता और उस के बाद किसी राजपत्रित अधिकारी से उसे सत्यापित करवाया जाता …..अब एक आम इँसान के लिए किसी राजपत्रित अधिकारी को ढूंढना भी कोई आसान काम न था, इस काम के लिए भी चपरासी लोग अपनी चाय-पानी का जुगाड़ कर लिया करते थे उस ज़माने में …..
लिखते वक्त कईं बार याद आने लगती हैं, हां, अफसर के पास कहां इतना टाइम की मूल मार्क शीट या किसी सर्टिफिकेट का उस टाइप्ड पेपर से मिलान करने की सिर-खपाई करता फिरे, उस के लिए उस का अधीक्षक या सचिव आदि जब टाइप्ड पेपर पर उस की मोहर के नीचे अपने अर्ध-हस्ताक्षर के नाम पर छोटी सी चिड़िया बिठा देता तभी चपरासी जब उस कागज़ को अंदर लेकर जाता और अधिकारी तुरंत उस पर हस्ताक्षर कर के उसे एक विश्वसनीय दस्तावेज़ की शक्ल दे देता ….(अपने किसी रिश्तेदार की कापी कोई अधिकारी इस तरह से सत्यापित नहीं करता था…)
मुझे इस वक्त 50 साल पहले का एक किस्सा सुना याद आ रहा है, सच है बिल्कुल जब रेल के एक अधिकारी ने खुद ही अपने बेटे की मार्क-शीट में नंबर बढ़ा कर उस की टाइप्ड कापी को सत्यापित कर दिया था…तो जब वह धांधली सामने आई तो वह अफसर धर लिया गया था ….बहुत सख्त कार्यवाई हुई थी, शायद नौकरी भी जाती रही थी …
फिर देखते ही देखते …फोटोकापी मशीन का हमारी ज़िदगी में प्रवेश हुआ ….1980 में मेरा पीएमटी का रिजल्ट आया….मुझे आवेदन भिजवाने के लिए उस पीएमटी के रिजल्ट-कार्ड की एक कापी चाहिए थी, किसी ने बता दिया कि अमृतसर में पुतलीघर में फोटोस्टैट मशीन लगी है एक दुकान में ….मैं वहां चला गया, उसने कहा कि दो रूपए लगेंगे …मैं कहा - ठीक है. फिर वह अंदर दुकान में गया….मेरे ख्याल में जिस मशीन पर उसने वह फोटोस्टेट करना था, उसने उस बड़े से कमरे की आधी जगह घेर रखी थी, मुझे याद है वह किसी स्टूल पर चढ़ा था, उस के हाथ में एक बड़ी सी प्लेट थी जिसे वह हिला रहा था….पूरी प्रोसेस थी …पूरी आवाज़ थी, लेकिन इस सारी प्रोसेस में मुझे यही डर लगता रहा कि यार, मैंने पता नहीं यह पंगा लेकर ठीक भी किया है या नहीं, ऐसा न हो कि मेरा पीएमटी का कार्ड ही कहीं फट वट जाए इतनी भारी भरकम मशीन में कुचल कर …..खैर, जब वह सही सलामत मुझे वापिस मिला, फोटोकापी के साथ तो मैंने सब से पहले अपना रैंक चेक किया …..ठीक था….266 रैंक था मेरा …(कुल 11000 छात्रों ने पीएमटी दिया था 1980 में…)....मेरी तो भई जान में जान आई….
उस के बाद तो फोटो स्टैट आम सी बात हो गई …हम लोग सब कुछ फोटोस्टैट करवाने लगे ….नोट्स तक फोटोस्टेट होने लगे ..पहले के ज़माने में छात्र लिख कर किसी के नोट्स कापी कर लेते थे ….लेेकिन जैसे जैसे फोटोस्टेट नोट्स मिलने लगे, बस, वो भी बंद ही रहते, अगर लिख कर नोट्स लिखने की फुर्सत खत्म हुई तो उन फोटोस्टेट नोट्स को पढ़ने की इच्छा भी खत्म हो गई …जो भी चीज़ आसानी से मिल जाती है, हम कहां उस की कद्र करते हैं….
हां, तो उस दौर के बाद फोटोस्टैट कापी को फिर किसी अधिकारी से सत्यापित करवाना पड़ता था ….लोगों को इस की वजह से बड़ी तकलीफ़ भी होती थी ….उसमें अपनी परेशानियां थीं, फोटोस्टैट है तो ठीक ही होगी, इसी चक्कर में अफसरों ने बिना देखे हस्ताक्षर करने शुरू किए ….और फिर वही फर्जीवाडे ….मार्क शीट में, डिग्री में, जाति प्रमाण-पत्र में भी ….धोखाधड़ी सामने आने लगी …
2014 में मुझे वह मोदी सरकार का वह फैसला ऐतिहासिक लगता है जब यह फैसला किया गया कि अब किसी को किसी राजपत्रित अधिकारी से अपने दस्तावेज़ सत्यापित करवाने की कोई बाध्यता नहीं होगी, आप खुद अगर अपने सर्टिफिकेट को स्वयं सत्यापित करते हैं तो भी आप का आवेदन मान्य होगा….मेरे विचार में ऐसा नियम बन चुका है …..ऐसा इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि कईं कईं जगह पर कोई किसी को कह देता है कि इसे कहीं से सत्यापित करवा के लाइए…वैसे ऐसे मामले कम ही दिखते हैं ….लेकिन मुझे इस की पक्की जानकारी है नहीं….लिखते लिखते ऐसा कुछ याद आ रहा है कि मन की बात में भी यह बात बताई गई थी आज से शायद दस बरस पहले …
काश, अब दस बरस बाद एक बार फिर कभी ऐसी भी घोषणा हो जाए कि अगर किसी नागरिक के पास आधार नंबर है, आधार कार्ड है तो यही पर्याप्त है, जिस भी दफ्तर में वह जाता है, यह उन की जिम्मेदारी होगी कि वे मशीन पर उस का अंगूठा लगवा कर उस कार्ड के दुरुस्त होने के बारे में आश्वस्त हो लें…..उसे फोटोकापी लाने के लिए, जमा करने के लिए नहीं कहा जाएगा….
हमारी भी ख़्वाहिशें कितनी हैं ………लेेकिन छोटी छोटी हैं …..चलिए, इस ख़्वाहिश के पूरी होने की प्रतीक्षा करें ….
बातें सच्चे-झूठे की हो रही हैं, जालसाज़ी, असली-नकली की हो और हमें 50 साल पुराना यह गीत याद न आए, ऐसा कैसे हो सकता है ....😎