मंगलवार, 13 अगस्त 2024

ए.सी फर्स्ट क्लास की स्टोरी बढ़िया थी, कैप्शन नहीं....

 टाइम्स ऑफ इंडिया का नियमित पाठक हूं …कईं कईं दिन बीच में वक्त नहीं मिलता या थकावट की वजह से दो चार पन्ने ही पलट पाता हूं …अच्छे से पढ़ नहीं पाता और नींद घेर लेती है, लेकिन मन में मलाल रह जाता है…मेरे लिए पिछले 32-33 वर्षों से इसने एक टीचर और दोस्त जैसा काम किया है …बहुत कुछ सीखा है इन पन्नों से ….जब मुंबई के बाहर भी रहे तो पढ़ते टाइम्स ही थे, लेकिन वह वाली टाइम्स मुंबई वाली टाइम्स से बहुत फीकी होती थी ….लेकिन हम अपनी आदत से मजबूर थे…

और हां, कईं बार कुछ लेखों की इंगलिश इतनी कठिन होती है इसमें भी हमें बस इतना तो पता चल जाता है कि यह किस के बारे में है, बस इस के आगे कुछ हाथ-पैर उस स्टोरी की समझ नहीं आता…


लेकिन परसों संडे टाइम्स ऑफ इंडिया में एक स्टोरी छपी थी ….No ruffing it! How AC First class became the ‘kutton ka dabba’. जो लोग तो इस अखबार को रोज़ पढ़ते हैं उन्होंने तो इसे पढ़ भी लिया होगा…मैंने भी उसी दिन पढ़ लिया था, लेकिन मुझे इस का कैप्शन बहुत अजीब सा लगा था …


हमारे घर की शान....यह लगभग सभी कुर्सियों और सोफों  की सीटों को ऐसा कर चुकी हैं ...लेकिन इस लाडली को सब कुछ करने की इजाज़त है, ...चलिए, यह तो घर की बात है ...लेकिन सफर के दौरान पेट्स के पेरेन्टस रेलवे 
 की प्रापर्टी को कैसे किसी तरह के नुकसान से बचाते होंगे, इस वक्त यह सोच रहा हूं... 

इस में क्या लिखा है, वह तो आप पढ़ ही लेंगे ….अभी मैंने देखा जब ऊपर लिंक शेयर किया तो पता चला कि लेख पढ़ने के लिेए सब्सक्राईब करना पड़ता है, मुझे इस सब के बारे में ज़्यादा पता नहीं रहता क्योंकि मैं तो किताबें हो अखबारें ..सब की हार्ड कापी ही पढ़ना पसंद करता हूं …वैसे मैं नीचे इस स्टोरी की एक फोटो भी लगा दूंगा जिस पर क्लिक कर के आप इसे अच्छे से पढ़ सकते हैं कि कैसे फर्स्ट क्लास ए.सी को कुत्तों के डब्बे के नाम से जाना जाने लगा ….


स्टोरी मैंने पूरी पढ़ ली, कैप्शन भी देखा……लेकिन मुझे यह बात बिल्कुल भी हज़्म हुई नहीं कि इस डब्बे को अब कुत्तों का डब्बा कहा जाता है ….मैं इतने विश्वास और भरोसे के साथ इसलिए कह रहा हूं कि ट्रेनें,स्टेशन, प्लेटफार्म, रेलवे के परिसर भी मेरे लिए दूसरे घर जैसे ही हैं…एक दिन किसी भी कारणवश इन ट्रेनों, स्टेशनों पर दुनिया का मेला न देखूं तो बड़ी बेचैनी सी हो जाती है ….ऐसे लगता है कुछ छूट सा गया है, जैसे खाना हज़्म नहीं होगा….और हमारा बेटा तो हम से भी दो गज़ आगे …1990 के दशक में रात के वक्त जब तक हम उसे बंबई सेंट्रल के प्लेटफार्म नं 5 पर दस मिनट रात के वक्त घुमा कर नहीं लाते थे, उसे नींद ही नहीं आती थी….और मेरा तो रेलों से रिश्ता तब से है जब से होश संभाला है ….अमृतसर में डीएवी स्कूल से जब पांचवी-छठी-सातवीं कक्षा में पैदल घर आते थे, तो जानबूझ कर मालगोदाम वाला रास्ता पकड़ते थे ….बड़ा कारण तो था कि उस रास्ते में छाया होती थी, और जब कोई माल गाड़ी पर सामान चढ़ या उतर रहा होता तो हम दो चार मिनट उस को देखते रहते, हमें बड़ा मज़ा आता था इस माल ढुलाई को देख कर ….और उस रास्ते से कैसे जल्दी से घर आ जाता था, पता ही नहीं चलता था….हां, कभी कभी खाकी कपड़े पहने हुए कोई पुलिस सा दिखने वाला उस रास्ते से जाने से टोक भी देता था, लेकिन उस उम्र में कौन परवाह करता है इन सब चीज़ों की …


हां, टाइम्स में छपी इस स्टोरी के कैप्शन को देख कर बहुत अजीब सा लगा …क्योंकि ए.सी फर्स्ट क्लास में सफर करना तो जैसे रेल के मुलाज़िमों के लिए एक हसीं सपने जैसा है। हम भी पिछले 20-22 साल से इसी डब्बे में सफर करते हैं, जब भी मौका मिलता है ….जहां तक मुझे याद है इस डब्बे में सफर करने के लिए रेल अधिकारियों को पात्रता तक पहुंचने में 13 वर्ष तो लग ही जाते हैं…


और इस डब्बे के साथ बहुत बढ़िया सी यादें हैं…राजधानी का और दूसरी गाडियों का ए.सी फर्स्ट क्लास अलग सा होता है, सुविधाओं एवं साज सज्जा के हिसाब से …ऐसा मुझे लगता है। 


मुझे अच्छे से याद है जब मैंने पहली बार वर्ष 2003 या 2004 के आसपास इस डब्बे में यात्रा की थी तो बहुत अच्छा लगा था…शायद नए नए कैमरे वाले फोन आए थे….मेरे पास भी कोई नोकिया वोकिया था जिसे खरीदने के लिए हमारा सारा खानदान फिरोज़पुर छावनी की एक मोबाइल की दुकान में गया था ….अभी भी उसे किसी सोविनियर की तरह रखा हुआ है …दस-बारह हज़ार के करीब आया था उन दिनों …हां, उस कैमरे से फोटो खिंचवाना याद है एसी फर्स्ट क्लास के डब्बे में बैठ कर ….हर चीज़ बेहतरीन ….परदे, स्टॉफ, खाना परोसने का तरीका…..


उन दिनों में –आज से बीस साल पहले….एक तो एसी फर्स्ट क्लास के केबिन में एक वॉश-बेसिन भी हुआ करता था ….हाथ धोने के लिए बाहर जाने की भी ज़रूरत न होती थी, वैसे तो वह बेसिन ढका सा रहता था, लेकिन  इस्तेमाल के वक्त उस कवर को थोड़ा ऊपर करना होता था, और हम हाथ धो लेते थे ….उन दिनों यह बहुत बात लगती थी, राजसी ठाठ-बाठ जैसी….


और, खाना परोसने से पहले उस डब्बे का स्टॉफ नीचे की दोनों सीटों के आगे दो दो खाने के छोटे छोटे लकड़ी के टेबल खोल देता था (वे फोल्डेबल होते थे), और फिर वह सूप से शुरू करता, कैसरोल में खाना आता था। 


एसी फर्स्ट क्लास में लिनिन भी कुछ अलग ही रहता था ….एक दम चकाचक सफेद चादरें और बढ़िया तकिये ….और जब आप अपनी सीट से काल-बेल बजाते थे तो वह आ कर आप का बिस्तर भी बना देता था…..


अब तो इस एसी फर्स्ट क्लास के डिब्बे में ऐसे भी इंडिकेटर लगे रहते हैं कि कौन सा वॉश-रूम, कौन सा वेस्टर्न कमोड (WC) खाली है और किस में कोई गया हुआ है…..और कईं बार तो बाहर एसी फर्स्ट के पैसेज में सीसीटीवी भी लगा देखा है ….


और एक बात तो लिखनी भूल ही गया….यह उन दिनों की बात है जब मैने इस कोच में नया नया सफर करना शुरू किया ….तो एक बात देख कर हैरान था कि उसमें एक वॉश-रूम गुसलखाने का काम भी करता था …उस में आप सिर्फ नहा सकते थे …शॉवर लगा हुआ था…यह भी एक अलग तरह का टशन था उन दिनों ….नहाया हूंगा मैं भी उसमें एक दो बार …फिर शौक पूरा हो गया….


अब आप देखिए कि मेरे जैसे लोगों के पास जब इस एसी फर्स्ट क्लास से जुड़ी इतनी हसीं यादें हैं तो अचानक आप किसी दिन अखबार में पढ़ें कि अब यह कुत्तों का डब्बा बन गया है, तो कैसा लगेगा….अजीब लगा मुझे भी …पढ़ लीजिए आप भी इस स्टोरी को ….स्टोरी में बताया गया है कि एक युवती जो अपने कुत्ते के साथ एक डब्बे को तलाश कर रही थी, जब उसने कुली से पूछा कि एसी फर्स्ट क्लास कहां है तो कुली ने जवाब दिया ….आप कुत्तों वाले डब्बे के बारे में पूछ रही हैं न ….


अपने पालतू, कुत्ते, बिल्लियां लोग गाड़ी में लेकर जाते हैं, पता है…लेेकिन इस एसी फर्स्ट के डिब्बे को कुत्ते वाला डिब्बा कहा जाने लगा है, यह मुझे इस स्टोरी से ही पता चला…..और मैं इस से इत्तेफाक नहीं रखता बिल्कुल कि इस डब्बे को अब इस नाम से बुलाया जाता है …और मुझे तो कुली के द्वारा इस डब्बे को कुत्तों वाले डब्बे के नाम से पुकारना भी अजीब ही लगा ….मैंने तो किसी को आज तक यह कहते नहीं सुना ….और वैसे भी बंबई के तो कुली भी इतने पॉलिशड हैं कि ……


खैर, मुझे भी याद है कि 2017 में जब मां बहुत बीमार थी तो मेरे बेटे ने बिल्ली को बंबई से लखनऊ अपनी दादी को मिलाने लाना था ….हमें तो इस के बारे में कुछ पता नहीं थी, उसने पूछा था हमसे ….लेकिन फिर उसने खुद ही दो टिकटें खरीदीं, एसी फर्स्ट क्लास की पुष्पक एक्सप्रेस की ….और बंबई से लखनऊ बिल्ली के साथ आया ….कुपे में आया था, पूरी तैयारी के साथ बिल्ली की बास्केट के साथ, उस का लिटर और उस की लिटर वाली ट्रे और स्कूप भी लेकर आया था पूरे कायदे से …..मां वैसे तो उस की बिल्ली की बहुत दीवानी थी….मां कहती थीं उसे जैसे तेरी बिल्ली सयानी है, अपने लिए कोई बहू भी ऐसी ही ढूंढना ….और मां खिलखिला कर हंसने लगती थी …लेकिन उस बार जब बिल्ली खुद चल कर मां के पास लखनऊ पहुंची थी तो मां को अपनी सुध-बुध ही न थी, वह तो दर्द से बेहाल पड़ी रहती थीं, और बिल्ली मां के पलंग के ऊपर उन के पैरों के पास बैठी रहती थीं ….बस, दो चार दिन में मां का दुनियावी सफ़र पूरा हो गया……क्या कहें!!


हां, मुझे यहां यह भी लिखना है जो उस टाइम्स की स्टोरी में नहीं लिखा कहीं भी …पालतू जानवर जिस के होते हैं उन को वे बहुत प्यारे होते हैं, बेशक। और रेलवे की बात करें तो यह विभाग बहुत लिबरल है, बहुत बड़े दिल वाला है …हम और आप देखते ही हैं रोज़, और आप इस स्टोरी में भी पढ़ ही लेंगे ….लेकिन एक बात बचपन में किसी किताब में पढ़ी थी कि जहां मेरी नाक शुरू होती है, तुम्हारी आज़ादी वहां खत्म हो जाती है….


मैंने भी देखा है, अंधेरी, बोरिवली स्टेशन पर कुछ लोगों को अपने शेर जैसे कुत्तों के साथ खड़े हो कर ट्रेन का इंतज़ार करते हुए …कभी कभी तो किसी ने उन के मुंह पर एक बास्कट (एक छोटा सा शिकंजा) भी नहीं बांधा होता …और वे इतनी भीड़ भाड़ देख कर उछल कूद भी करने लगते हैं…पालतू जानवरों के मालिकों (नहीं यह शब्द गलत है, स्टोरी में पेरेन्ट्स कहा गया है) …तो हां, पालतू जानवरों के माता-पिता को इन सब बातों का भी अच्छे से ख्याल रखना चाहिए….


और हां, जैसे इस स्टोरी में कहा गया है कि लोग इस लिए भी अपने पालतू ट्रेन के एसी फर्स्ट क्लास के कोच में लेकर जाते हैं क्योंकि वे उन्हें बीच बीच में जब कोई स्टेशन आता है तो प्लेटफार्म पर घुमाने ले जाते हैं…..सोचने वाली बात यह भी है कि क्या भीड़-भाड़ वाले प्लेटफार्मों पर इन को घुमाए बिना काम नहीं चल सकता, क्या है न जनता जनार्दन आम तौर पर डरती है इन भारी भरकम या किसी भी तरह के जानवरों से ………वह अलग बात है कि जनता जनार्दन की सहनशीलता अद्भुत है….जिस के समक्ष मैं सदैव नतमस्तक हूं….


पेट्स की बात हुई तो तेरी मेहरबानियां फिल्म का यह गीत कैसे याद न आता.....




PS.... Times of India Headlines have been quite popular. After assassination attempt on Donald Trump, there was a front page headline-- Donald Trumps Death.  I too was a bit scared to read it for a moment....कि कल खबरों में कह रहे थे कि बंदा ठीक है ..फिर जब मेेेरे दिमाग की बत्ती जली तो समझ में आया कि यह एक बेहतरीन कैप्शन है...जिसे करोड़ों अरबों लोगों ने सराहा ....मैंने भी इस से बढ़िया कैप्शन शायद ही पहले कभी देखा हो .....अगले दो तीन दिनों तक अखबार में इस के बारे में आता रहा ...Power of Apostrophe! जिन बच्चों को अंग्रेज़ी के व्याकरण सीखने में दिक्कत हो उन को इस तरह के कैप्शन सिखा सकते हैं हर चिन्ह के बारे में .....

अभी जब विग्नेश की खबर भी टाइ्म्स में छपी पहले पेज पर तो कैप्शन था.... 100gms crush Billion Hopes...
Amazing expression, 4-words say it all and with so much power and conviction! 

शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

खाओ पियो ऐश करो मितरो .....

Dr Praveen Chopra


पिछली बार जब अमृतसर में था तो वहां पर केसर के ढाबे पर मेरे लंच की थाली -😎

मैंने सोचा बहुत हो गईं गाने-बजाने की पोस्टें, कुछ खाने पीने की बात भी की जाए….अच्छा लगता है गाने पीने की बातें करते हुए, पुराने दिनों के खान-पान के तौर तरीके याद कर के …


आज पुराने दौर के खाने पीने की बातें कैसे याद आ गईं, सुनाता हूं पूरी बात …

आज एक स्टोर में गए…बहुत चलता है, बहुत पुराना भी है, खाने-पीने की सभी चीज़ें वहां मिलती हैं…मेरे काम के तो आटे के बिस्कुट और सैंकडो़ं तरह की ओर चीज़ें जो मुझे अब पसंद नहीं हैं ज़्यादा….मिठाईयां-विठाईयां बहुत खा लीं, अब अपराध-बोध घेर लेता है दो टुकड़े मिल्क-केक के खा कर भी ….


हां, तो उस स्टोर में हम कुछ सामान खरीद रहे थे तो एक युवक को मैंने देखा कि वह एक बर्नी और हाथ में कुछ डिस्पोज़ेबल चम्मच लेकर इधर उधऱ घूम रहा था …अचानक मेरी नज़र उस की तरफ़ गई तो वह किसी महिला को एक चम्मच उस बर्नी में से निकाल कर दे रहा था ….मैंने सोचा आचार होगा…


आप को भी याद होगा पहले जब हम लोग कभी मेलों वेलों मेंं जाते थे तो एक स्टॉल जहां पर दुनिया भर के खट्टे-मीठे चूरण और चटपटी गोलियां बिक रही होतीं तो वो बुला बुला कर कोई हाजमा दुरुस्त करने वाला चूरण चटवा के या दो चार चूरण की हींग वाली गोली का प्रसाद देकर ही मानते ….एक बार किसी का चूरण चाट लिया तो कोई भी बंदा कोई भी छोटा-मोटा पैकेट-डिब्बी तो लेकर ही जाएगा। 


मां राजमां कहते हैं हम बचपन से, फिर लोगों को दाल मक्खनी कहते सुना...और अब कोयला दाल मक्खनी...लिखते लिखते याद आ गई एक बात ...कुछ अरसा पहले एक फंक्शन के सिलसिले में एक केटरर आया हुआ था ...बार बार कहे जा रहा था ..दाल मखानी...मैं यही सोच रहा था जिसे सही नाम ही नहीं लेना आता, वह क्या खिलाएगा....

आज जब उस युवक को देखा तो मुझे लगा कि यह भी कोई चटपटा आचार चटवा रहा है ….मैंने कुछ सुना भी ऐसा ..लेेकिन मेरे पूछने पर उसने बताया कि यह दाल मक्खनी है जो कोयले पर पकी हुई है….झट से उसने चम्मच पर थोड़ी सी लाग लगा कर (जैसे रबड़ी खिला रहा हो) मेरी तरफ कर दी…..मैंने मना भी किया ….लेकिन उसने कहा कि आप देखिए तो चख कर …ठीक है, चख ली…अच्छी है मैंने कहा ….


फिर उसने उस की तारीफ़ का पुराण सुनाना शुरु किया। बताने लगा कि इसे कोयले पर पकाने में 12 घंटे लगते हैं….मैं भी कौन सा शरारती कम हूं….मैंने पूछा कि इसे कोयले पर पकाते कहां हो। 


मालाड़ में हमारा गोदाम है, वहीं पर पकाते हैं….


बंबई जैसे महानगर में कोयले पर किसी चीज़ को पकाना एक बहुत बड़ी बात है, इस से उस की वेल्यू बढ़ जाती है…कईं बार किसी रेस्टरां में जाएं तो कोयले पर पकी या फ्राई हुई कोई चीज़ लाते हैं तो सारे कमरे में धुआं धुआं सा हो  जाता है, वह भी एक स्टेट्स सिंबल भी है….मुझे ऐसा लगता है …लोग उस धुएं की तरफ़ देखने लगते हैं….शायद सिज़लर्स कहते हैं इन चीज़ों को ….तुक्का ही लगा रहा हूं, शायद कभी खाया नहीं और न ही खाने की कोई तमन्ना ही है। 




हां, कोयले पर बनी हुई दाल मकखी क्या, लगभग हर दाल, साग सब्जी हम लोगों ने अंगीठी या चुल्हे पर पकी हुई खाई है ….इसलिए मां के हाथ की उन चीज़ों ने हम लोगों (हम लोगों का मतलब मेरी उम्र के लोग) के नखरे का लेवल बड़ा ऊपर सेट किया हुआ है …हम अभी भी हर खाने पीने वाली चीज़ की तुलना मां की रसोई से ही करते हैं….है न मज़ेदार बात…..इतनी मेहनत से पहले अंगीठी को जलाना, और वह भी 3-4 डिग्री तापमान वाली कड़ाके की ठंड में भी ….कोई नागा नहीं, कोई छुट्टी नहीं…..फिर उस पर दाल को मिट्टी की हांड़ी (पंजाबी में उसे कुन्नी कहते हैं) में चढ़ाना और साथ में तंदूर तपा देना ….क्या क्या याद करें, यादें पीछा ही नहीं छोड़ती …पता नहीं कब कैसे घेर लेती हैं अचानक ….जैसे आज उस दाल मक्खनी का मर्तबान (बर्नी) देखी आधा किलो दाल 570 रुपए में और एक किलो वाली दाल मक्खनी की बर्नी 970 रूपए की…..वैसे मां के खाने का स्वाद तो शायद पीढ़ियों तक आगे चलता है यूं ही ...क्योंकि मां जब तक रहीं वह अपनी मां (हमारी नानी) के बनाए लज़ीज़ राजमा, आलू-बैंगन, बैंगन का भुर्ता और भरवें करेले याद करती रहीं ...और हां, एक कदम कड़क तंदूरी रोटियां भी ...वह मैं कैसे भूल गया...नानी को भी अकसर देखते हम पसीने से तरबतर परात भर भर कर शिखर दोपहरी में रोटियां लगाती रहतीं, और हम उन को आलू-बड़ी की सब्जी, राजमां के साथ खाते न थकते ..... पेट भरने पर भी कमबख्त नीयत भरने का नाम ही न लेती....



बंबई के हिसाब से रेट कोई ज़्यादा नहीं हैं, वैसे भी किसी भी रेस्टरां में पांच-छः सौ रुपए से कम कहां कोई डिश मिलती है….सो रेट तो बिल्कुल सैट है, और स्टोर की मार्केटिंग भी एक दम टनाटन ….जिस युवक ने यह बर्नी उठाई हुई है उस की सारे दिन की ड्यूटी यही है ग्राहकों को चटनी की तरह इस दाल को चटवाना….जैसे चंदू की चाची चंदू के चाचा को चांदनी रात में चांदी के चम्मच से चटनी चटवाया करती थी ….


वैसे जो मेरा तजुर्बा है …वह यही है कि दाल मक्खनी बंबई में एक तो दादर (सेंट्रल साइड) में प्रीतम के ढाबे में ….और एक बांदरा में पाली हिल नाका (पाली नाका) पर पापा पॉचो ढाबे में बहुत लज़ीज़ मिलती है ….दाल मक्खनी ही नहीं, पंजाबी खाना सभी तरह का …बहुत ही बढ़िया मिलता है …और खिलाते भी पापा पॉचो ढाबे में तो एक बहुत पुरानी थालियों और कटोरियों में हैं ….पंजाबी में हम उस धातु को ‘कैं’ कहते हैं …हिंदी इंगलिश में पता नहीं….


एक बात का अहसास होता है कि ज़िंदगी भर घर में, बाहर कुछ भी खा लो लेकिन मां के हाथ की सब्जी और रोटियां दुनिया क्या, सारी कायनात का सब से बढ़िया खाना होता है…


और हां, एक बात और …उस स्टोर में एक भिंड़ी भी बिक रही थी, लिखा था वेक्यूम फ्राईड थी…दो सौ रूपए की सौ ग्राम ….यानि सिर्फ 2000 रुपए किलो ….

लीजिए, सौ ग्राम भिंडी भी लीजिए....210 रुपए में केवल ...चटपटी भिंड़ी ..जो लड़का बार बार चखने के लिए कह रहा था, उस के कहने पर खा ली, और जब भिंड़ी के किनारे पर ठूंठ बच गया तो मैंने पूछा कि इस का क्या करना है, फैंक दें,...उसने झट से समझा दिया ....इसे तो खा जाइए,इसी में तो सारे विटामिन हैं.....मैंने सोचा अब अगले गुरुवार वाले दिन विटामिनों के ऊपर तुम्हारा लेक्चर रखवाते हैं....साथ में यह पैेकेट भी ले आना, इनकी मार्केटिंग भी कर चले जाना....


मैंने कुछ ऐसे खाने पीने के वीडियो चेैनल सब्सक्राईब कर रखे हैं जहां पर मुझे आए दिन अमृतसर से और पंजाब से बहुत बढ़िया बढ़िया खाने पीने की चीज़ें बनती दिखती हैं, उन के ज़ायका पहुंचता है मेरे पास …….लेेकिन मुझे लगता है कि पंजाब में या पंजाबियों की और अब कहें तो सारे हिदोस्तान की खाने पीने की आदतें बहुत बिगड़ी हुई हैं…तेल, मसाले, मैदा, घी, मक्खन …ज़्यादा नमक, ज़्यादा चीनी …इसलिए मैं इन सब चीज़ों के अंधाधुंध इस्तेमाल की कभी किसी को सलाह नहीं देता …कभी कभी ठीक है ….क्योंकि मैं भी कोशिश करता हूं कि मैं सेहतमंद खाना ही खाऊं…..मेरा टॉरगेट है दिन भर में जो खाता हूं उस का दो तिहाई तो कच्चा ही खाऊं…..लेकिन अभी भी शायद 30 फीसदी तक ही पहुंचा हूं….और वैसे भी कच्चा खाना (रॉ-फूड) कम ही खाया जाता है …बहुत कम …बहुत जल्दी तृप्ति हो जाती है ….यह लिखने का मेरा मकसद यह है कि हमें एक दूसरे से कुछ न कुछ प्रेरणा लेनी चाहिए….



अगर किसी को यह प्लेट देख कर कोई प्रेरणा मिलेगी तो अच्छा ही है …दिन में एक बार तो कोशिश रहती है कि एक मील तो ऐसा ही हो ….बहुत बार मन बेईमान हो जाता है …लेकिन फिर भी कच्चा खा ही लेता हूं कुछ न कुछ …जंक फूड लगगभ न के बराबर लेता हूं …बीकानेरी भुजिया थोड़ा बहुत खा लेता हूं …यह ध्यान में रहता है कि क्यों खा रहा हूं, कुछ पौष्टिकता तो है नहीं, फ़िज़ूल में कैलरी जमा करने का जुगाड़ है…कईं महीनों से चाय में चीनी कम बिल्कुल और मिठाईयों से भी दूर ही रहता हूं जब तक घर में दिख न जाएं….

पंजाबियों का सीधा सादा फंडा खाने पीने के मामले में ...



वैसे एक फोटो मेरे पास और भी है, हिंदोस्तान में मेरे सब से फेवरेट ढाबे ..अमृतसर के केसर के ढाबे की मेरे लंच की थाली की ….मैंने इस से बेहतर खाना कहीं नहीं खाया अभी तक ….यह अमृतसर का केसर का ढाबा सौ साल से ज़्यादा पुराना है, और वहां कितना भी खा लो, कितनी भी फिरनी चटम कर लो, सब कुछ हज्म होना ही है ….और ऊपर से, उस के बाद भी हाल बाज़ार वाले ज्ञानी की मिट्ठी लस्सी के लिए जगह हमेशा बन ही जाती है ….


अभी मैंने व्लर्ड-काउंट से देखा तो पाया कि इस पोस्ट में 1250 शब्द लिख दिए….बात ऐसी भी नहीं थी कि इतना लंबा लिखा गया ….जब कि अगर मैं थोड़ा सा भी दिमाग लगा देता तो चुपचाप उसी पुराने दौर का यह गीत लगा कर फ़ारिग हो सकता था ….दाल रोटी खाओ..प्रभु के गुण गाओ….1973 में आई फिल्म ज्वार भाटा फिल्म का सुपर-डुपर गीत ...लक्ष्मी प्यारे के संगीत का जादू ...,सारी ज़िंदगी का फ़लसफ़ा पांच मिनट में पल्ले पड़ जाए किसी के भी .....इसे सुन कर ....




बुधवार, 7 अगस्त 2024

किशोर कुमार की आवाज़ का जादू भी ऐसा कि एक बार चला तो ......चल सो चल!!






बीते रविवार के दिन महान गायक किशोर कुमार का जन्म दिन था …षणमुखानंद हाल में शाम के वक्त प्रोग्राम था…उस प्रोग्राम में शामिल होने का मौका मिला…बारिश खूब हो रही थी लेकिन बंबई वालों को कब बरसात कुछ करने के लिए रोक पाती है ….पूरा हाल जिस में दो बॉलकनी भी हैं, खचाखच भरा हुआ था…हाउस-फुल। 




किशोर कुमार के गीतों का दीवाना हूं मैं …लेकिन मुझे बार बार यह एहसास होता है कि मैं किशोर के गाए उन गीतों का ही दीवाना हूं जो ऐसे वक्त में आए जब मेरी आयु 5-6 वर्ष की थी ….यानि 1968 के आस पास के गीत …और फिर उस के बाद तो उन के गीतों की लिस्ट क्या बताएं जो हमें रट चुके थे ..बाद में जब तोहफा-वोहफा वाले गीत आए, वे मुझे तब भी पसंद न थे, अभी भी नहीं हैं…


म्यूज़िक कंसर्ट में चले तो गए…..पिछले 10 साल से हर साल ऐसा कुछ सबब बन जाता है कि किशोर के जन्मदिन के दिन कहीं न कहीं प्रोग्राम में शामिल होने का मौका मिल जाता है। लखनऊ में थे तो चारबाग रेलवे स्टेशन के ठीक सामने रविंद्रालय सभागृह में अकसर यह प्रोग्राम होता था .. सब से पहले मैंने कोई म्यूज़िक कंसर्ट भी शायद वहीं देखा था….शायद 200 रुपए की टिकट थी…2015 के आस पास की बात है….जब तक लखनऊ में रहे जाते रहे वहां ….हाल तो चाहे पुराना था लेकिन लखनऊ का टेलेंट तो आप लोग जानते ही हैं, शानदार प्रोग्राम होता था…


मुंबई में भी देखते रहे इस तरह के किशोर कुमार के प्रोग्राम ….इस बार भी पता चला तो चले गए। 

इस में किशोर के बडे़ बेटे अमित कुमार, छोटे बेटे सुमित (लीना चंदावरकर के बेटे), अमित कुमार की पत्नी रीमा गांगुली और दोनों बेटियां भी शामिल थीं….दोनों बेटियों ने भी पहली बार स्टेज पर किशोर कुमार के गाए गीत पेश किए। सुमित ने भी गीत गाया…..और हां, अमित कुमार की बीवी रीमा गांगुली ने भी पहली बार स्टेज पर एक-दो गीत गाए…


इस सारे परिवार को गाते देख कर - अमित कुमार की बीवी, भाई और बेटियों को देख कर मुझे बिल्कुल ऐसे लग रहा था ….मुझे क्या, शायद औरों को भी …जैसे इंडियन ऑयडल के किसी शो में बैठे हुए हैं…समझ रहे हैं न आप…..अच्छा है, अगर समझ रहे हैं तो….


और अमित कुमार ने जितने गीत पेश किए वे भी किशोर कुमार के थे लेकिन मेरे इस संसार में प्रकट होने से पहले वाले ….कोई शक नहीं, वे भी सुपर हिट गीत रहे होंगे अपने दौर के, अमित ने किशोर कुमार की एक्टिंग, डॉयरेक्शन के भी कसीदे पढ़े लेकिन मुझे इस सब में कोई रुचि नहीं थी, क्योंकि कारण मैंने ऊपर लिख दिया है कि मुझे मेरी उम्र जब 5-6 साल की थी, उस के बाद के गीत ही भाते हैं….वैसे देखा जाए तो यह मेरी खुद की प्राब्लम है, किशोर कुमार की नहीं…..जैसे अपना ब्लॉग होता है वैसे ही अपनी पसंद नापसंद। 


और हां, वैसे भी किशोर कुमार के गीतों को फीमेल आवाज़ में सुनना मुझे नहीं भाता….हम ठहरे किशोर कुमार के ऐसे फैन कि फुटपाथ से किशोर कुमार के सुपरहिट गीतों की 5-10 रुपए वाली किताबें खरीद कर आराम से उस के पन्ने उलट-पलट करते रहते थे, उन को पढ़ते रहते थे ….मैं यहां यह लिखने की बेवकूफी नहीं करूंगा कि उन को गुनगुनाते रहते थे …क्योंकि ऐसा करना भी कहां अपने बश में था…ज़्यादा से ज़्यादा जब रेडियो पर गीत बजते थे तो उस किताब को खोल कर बैठ जाते थे …कभी कभी….


लेकिन लखनऊ में रहते हुए किशोर के गीतों की एक किताब ने उर्दू सीखने में मेरी बहुत मदद की ….2018-19 के आसपास की बात है, उर्दू सीखने के लिेेए पूरी मेहनत तो कर रहा था लेकिन मेरे मोटे दिमाग में बात बैठ ही नहीं रही थी ….ऐसे में अचानक पुराने लखनऊ के नक्खास इलाके में मुझे एक छोटी सी किताब मिल गई..किशोर कुमार के गीतों की …बस, किशोर कुमार की फोटो देख कर उसे खरीद लिया …उर्दू की किताब को। 


बस, फिर क्या था, जैसे तैसे किताब से फिल्म का नाम और उस गीत की पहली लाइन या शुरुआती अल्फ़ाज़ तो पढ़ ही लेता औखा-सौखा हो के …बस फिर क्या था, यू-ट्यूब पर वह गीत लगा कर किताब हाथ में पकड़ लेता ….बहुत जल्दी मुझे उर्दू के हर्फ़ समझ आने लगे और फिर गाड़ी चल निकली और इस गाड़ी को चलाने में लखनऊ के महान उर्दू उस्ताद मो क़मर खान साहब का बहुत योगदान…बहुत क्या, पूरे का पूरे श्रेय उन को ही देता हूं जिस तरह से उन्होंने हमें उर्दू लिखना-पढ़ना सिखा दिया…गंगा-जमुनी तहज़ीब से रु-ब-रु करवाया उस महान शख्शियत ने ….


लखनऊ से वापिस किशोर कुमार के जन्मदिन के प्रोग्राम में शामिल होते हैं….मुंबई में...


उस प्रोग्राम में सुदेश भोंसले और एक सिंगर प्रियंका मोइत्रा और आलोक भी थे ….आज इन तीनों का जादू चल रहा था ….यह जो प्रियंका मोइत्रा हैं यह पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं, दुनिया भर में प्रोग्राम करती हैं…(कुछ दिन पहले कल्याणजी आनंद जी के प्रोग्राम में भी इन्होंने बहुत से गीत पेश किए थे …आनंद जी बहुत प्रशंसा कर रहे थे) …


किशोर कुमार के बारे में जो बातें बताई जा रही थीं वे काफी तो हमने वाट्सएप यूनिवर्सिटी के सिलेबस में कवर की हुई थीं। मोहित शास्त्री म्यूज़िक कंडक्ट कर रहे थे और प्रोग्राम के कंपियरिंग रेडियो सिटी के आर जे गौरव के हाथ में थी–.गौरव ने भी प्रोग्राम के दौरान यह सिद्ध कर दिया कि कैसे पब्लिक की नब्ज़ पर इन की पकड़ होती है …पब्लिक भी अब सीधी सादी भोली भाली नहीं रही कि कुछ भी चल जाएगा….वह वोकल हो चुकी है कि वह वाला या वह वाली सिंगर फिर से नहीं चाहिए और वह वाला या वह वाली सिंगर फिर से लाइए….और इस काम को गौरव ने बड़े अच्छे से, बड़ी शालीनता से संभाला…खैर, वह तो मुंबई का कल्चर ही है …ऑडिऐंस बहुत अच्छे से बिहेव करती है ….जब तक उस की नाक में दम ही न कर दिया जाए….वह अपनी जगह ठीक भी है, इतनी इतनी महंगी टिकटें ले कर बैठे होते हैं लोग….उस दिन भी विंडो पर 1500 रुपए से कम की टिकट ही नहीं थी, बाकी सब बिक चुकी थीं….


जो गीत वहां पेश किए गए, उन में से ये मेरी पसंद के थे …वैसे तो मेरी लिस्ट बहुत लंबी है …और इन गीतों से भी कहीं ज़्यादा शानदार गीत किशोर कुमार के ही गाए हुए जो मुझे लखनऊ में खूब सुनने को मिले ….वैसे तो यू-ट्यूब पर भी भरमार है इऩ गीतों की ….


दीवाना ले के आया है …दिल का नज़राना …

ओ मेरे दिल के चैन….

जीवन के हर मोड पर मिल जाएंगे हम सफर…

इक मैं और एक तूं….

कोई रोको न दीवाने को …

ज़िंदगी प्यार का गीत है ….

जब दर्द नहीं था सीने में ….(फिल्म अनुरोध) 

आप के कमरे में कोई रहता है ….

रफ्ता रफ्ता देखो आंख मेरी लड़ी है….

आप की आंखों में महके हुए से राज़ हैं….

हम तुम से मिले…फिर जुदा हो गए (रॉकी) 

टूटा जो दिल किसी का ..हैरत की बात क्या …


प्रोग्राम के दौरान मैं यही सोचता रहा कि किसी इंसान की मेहनत, मशक्कत और किस्मत का जादू होता है जो चल जाता है …और सालों साल लोगों के दिलोदिमाग पर छाया रहता है यह जादू …जैसे किशोर का जादू था ….इन पुराने गायकों ने घोर तपस्या की, जैसे सिद्धी हासिल कर ली हो अपने फन में …लेेकिन आगे की पीढ़ी वैसा जादू कर पाए, यह कोई कह नहीं सकता…वैसे मैं जब वापिस लौट रहा था तो मैंने मोबाइल में चेक किया तो मुझे पता चला कि किशोर कुमार के बेटे अमित ने भी बहुत काम किया है …सुना है अमित ने बहुत समय पहले फिल्मों के लिए गाना छोड दिया था …छोड़ दिया खुद ही या किसी दूसरे कारणों से छूट गया …वह मुद्दा नहीं है, लेकिन बंदे ने काम अपने समय में काफी किया है….और लिस्ट देख रहा था तो मालूम हुआ की जो गीत इन्होंने गाए उन में से भी कुछ मेरे बहुत पसंदीदा गीत है ….लेकिन क्या करे कोई, पब्लिक की यादाश्त भी तो बहुत कमज़ोर है ….


लेकिन किशोर कुमार के गाया यह गीत तो कुछ और ही ब्यां कर रहा है …



और इस तरह के गीत भी किशोर के गाए हुए और आनंद बक्शी की कलम से निकले हुए .....ऐसा इक इंसान चुनो जिसने पाप न किया हो, जो पापी न हो ...सीधी सादे तरीके से जिंदगी की असलियत ब्यां कर दी ..इस तरह के गीतों का हमारे ऊपर भी ऐसा जादू हुआ बचपन से सुन सुन कर कि हमें कभी कोई बुरा दिखता ही नहीं.....किसी में कोई बुराई नहीं दिखती..अच्छाईयां ही नज़र आती हैं... 



इस प्रोग्राम के सिलसिले में नहीं ....लेकिन एक बात है कि किसी भी बड़े फ़नकार का जो जादू होता है ...वह अपना अनूठा जादू होता है ...हर किसी का अपना मुकद्दर होता है, इसलिए ज़िद्द विद्द से कुछ होता नहीं. नामचीन डाक्टर,एक्टर,गायक, लेखक, टीचर , क्रिकेटर का बेटा या बेटी भी वैसे ही निकलें, ऐसा कहां होता देखा है हम लोगों ने ....अनेकों उदाहरण हैं हमारे सामने ...इसलिए ज़िद्द छोड़ देनी चाहिेए लोगों को ...और चुपचाप राज कपूर की इस बात को पल्ले बांध लेना चाहिए....