आज से पचास बरस पहले जब रोटी, कपड़ा और मकान फिल्म आई तो उस का यह गीत ...महंगाई मार गई जो प्रेमनाथ पर फिल्माया गया था, हमें बहुत पसंद था, रेडियो पर बजता था, गली मोहल्ले में जब कोई जश्न या ब्याह-शादी होती तो बड़े बडे़ स्पीकरों पर बहुत से गीत बजते थे ..उनमें से यह भी बहुत बजता था...उस में एक लाइन यह भी है ..पावडर वाले दुध दी मलाई मार गई....
हमें उन दिनों पता ही नहीं था कि यह पावडर वाला दुध होता क्या है, उस के दो चार बरसों बाद जब हमारी बड़ी बहन अपनी बेटी को दूध की बोतल में पावडर घोल कर पिलाया करती थी ..लोक्टोजेन शायद ...मैंने पहली बार उस दूध वाले पावडर के दर्शन किए थे ...१५ बरस की उम्र में ....बस, मुझे यही लगता था कि यही पावडर वाला दूध है जिसे मेैं बडे़ चाव से खाता रहता था जितने दिन भी वह हमारे पास होतीं...उन्होंने कभी टोका नहीं, रोका नहीं ....अभी भी याद करता हूं तो हंसती हैं....
आज से ५०-६० बरस पहले की दूध की बात करें तो ज़ाहिर सी बात है कि मलाई का ज़िक्र होना लाज़िम है ....मुझे आज लिखने का यह ख्याल इस वक्त इसलिए आया कि मैंने अभी चाय बनाने के लिेए जैसे ही दूध का पतीला फ्रिज में से निकाला उसमें जिस मलाई के दर्शन हुए, उसे देख कर मैं डर गया...यह कोई सनसनी फैलाने वाली बात नहीं है, हो सकता है कि आज कल पैकेट का दूध इतना बढ़िया क्वालिटी का आने लगा हो कि उस एक किलो में मलाई के ऐसे अंबार लग जाते होंगे ...मुझे इस का कुछ इल्म नहीं है, बस लिख रहा हूं ....क्योंकि मैं इस तरह की मोटी मलाई के बारे में पिछले लगभग २५-३० बरसों से सोच रहा हूं ....लोगों से बात भी करता हूं लेकिन इस का राज़ नहीं जान पा रहा ......लेकिन दूध एवं दूध से बनी सभी चीज़ें मैंने कई सालों से बंद कर रखी हैं ...दूध को तो पिए शायद १० साल ही हो गए होंगे ...(यह कोई मशविरा नहीं है किसी को, ध्यान दें, यह केवल एक आपबीती है अपनी ही डॉयरी में लिखने के लिए)....चाय मुझे हरी, पीली, हर्बल, फर्बल कभी भाई नहीं, झूठी तारीफ़ होती नहीं, आखिर करें भी क्यों, लेकिन जो हिंदोस्तान की साधारण चाय है उसमें थोड़ा बहुत दूध तो जाएगा ही न ...बस, दूध से मेरा उतना ही वास्ता है....दही या रायते के दो चम्मच कईं बार किसी सब्जी के साथ मजबूरी वश लेने पड़ते हैं.....दिली इच्छा होती है कि दूध से बनी कोई मिठाई, या देसी घी से तैयार कुछ भी न खाऊं....कोई थमा देता है तो परेशान हो जाता हूं ...क्या करूं इस का ....मजबूरी वश चख लेता हूं...लेकिन किसी पार्टी वार्टी में मूंग के दाल के हलवे, गाजर के हलवे पर जैसे टूट पड़ता हूं ....फिर अपराध बोध से परेशान होता हूं ...इसलिए मुझे कहीं भी आना जाना भी पसंद नहीं हैं, क्योंकि उस वक्त मैं अपने खान-पान पर कंट्रोल नहीं कर पाता ...
हां, तो बात चल रही थी मलाई की .....अभी लिखते लिखते सोच रहा हूं कि इतनी मोटी मोटी मलाई का रोना रोने मैं इसलिए बैठ गया कि हम ने ५०-५५ बरस पहले मलाई को उस के सही रूप में देखा हुआ है ....बिल्कुल पतली सी मीठी मीठी मलाई को परत हुआ करती थी दूध पर ...जिसे हम लोग शक्कर के साथ खा जाते, या टोस्ट पर लगा कर खा जाते ...और वह मलाई खाने के लिए भी एक दो दिन इंतज़ार करना पड़ता था ...क्योंकि उस मीठी मलाई पर हाथ साफ करने वाले हम ही तो न थे, भाई बहन भी थे.....😂
अब कोई इस पोस्ट को पढ़ने वाला यह कहे कि भाई मैंने मलाई का सही रूप देखा नहीं होगा....मलाई अगर तुम्हारे यहां पतली होती थी तो ज़रूर तुम लोग जहां से दूध लाते थे उन की भैंसे कमज़ोर होंगी.....इस तर्क के आगे मैं कुछ न कहूंगा...केवल नतमस्तक हो सकता हूं क्योंकि मैें तो सिर्फ और सिर्फ आंखों देखी ब्यां कर रहा हूं...
दूध लेने उन दिनों हम लोग डोलू ले कर जाते थे ...कभी पैदल कभी साईकिल पर ..साईकिल पर जाते वक्त थोड़ा ध्यान रखना पड़ता था क्योंकि साईकिल पर डोलू टांगने से वह छलक जाता था अकसर और एक हाथ में डोलू पकड़े पकड़े साईकिल चलाना कईं बार थोड़ा मुश्किल भी होता था...एक तो अचानक ब्रेक वेक लगाने का चक्कर और दूसरा छोटी छोटी कोमल उंगलियां थक जाती थीं यार 😎....
जैसे ही हम घर में दूध पहुंचाते, मां को डोलू पकड़ाते ...तो मां का कवांटिटी एवं क्वालिटी चैक शुरु हो जाता ....मां कहती कि ये लोग नहीं सुधरेंगे ...आज भी इतनी झाग डाल दी....मां कहती कि उस को कहा करो कि दूध मापने से पहले झाग तो मार लिया करे....हम सुन लेते लेकिन दूध वाले को कुछ नहीं कहते ...क्या करें हम ऐसे ही थे बचपन से ही .....चुपचाप, सहने वाले ...
अच्छा जी दूध चढ़ गया अंगीठी पर ....और कुछ ही वक्त के बाद उस की मलाई का जायजा लिया जाता ....अगर तो मलाई मोटी होती (नहीं, बि्लकुल ऐसी नहीं जैसी आप इस फोटो में देख रहे हैं.....) सब ठीक, अगर मलाई हुई पतली तो फिर मां को लगता आज फिर डेयरी वाले ने पानी ठेला लगता है ....पहले ग्राहकों की आंख चुरा के यह काम पूरे ज़ोरों पर था ...हर रोज़ डेयरी वालों के पास दो चार ग्राहकों की यही शिकायत सुनने को मिलती कि दूध पर मलाई ही नहीं आ रही .....लोग यह तो कह नहीं पाते कि दूध पतला है, या कुछ और लफड़ा है, लेकिन इतना तो कह ही देते ....एक दो दिन डेयरी वाला सुधरा रहता और मलाई मोटी आने लगती (उतनी तो कभी नहीं जो आप ऊपर फोटो में देख रहे हैं....😁...तीसरे दिन से फिर वही पतली मलाई....पतला दूध ....फिर एक वक्त वह भी आया कि लोगों ने यह तो मान लिया कि दूध में पानी तो मिलाते ही हैं ये लोग, लेकिन पानी तो कम से कम साफ मिलाया करें....)
मलाई वलाई भी जो उन दिनों मां के प्यारे हाथों से खा ली, खा ली.....उस के बाद तो मलाई की तरफ़ कभी देखने की इच्छा नहीं हुई....इतनी इतनी मोटी मलाईयां.....क्या होगा इन में, क्या न होगा.....डर लगता है ..लखनऊ में रहते थे तो वहां पर मक्खन खूब बिकता है दुकानों पर, खोमचों पर .....देख कर डर ही लगता रहा हमेशा कि यार, क्या बेच रहे होंगे ये मक्खन के नाम पर.....किस दूध से तैयार होता होगा यह मलाई-मक्खन ...एक आध ट्राई करने के लिए खा भी लिया होगा...
आज से ५०-६० बरस पहले जो हम लोग दूध अपने सामने गाय-भैंस से दुहलवा कर लाते थे उस मलाई की तो बात ही क्या थी, जब कभी उस का मक्खन, घी तैयार होता तो जैसे सारा घर महक जाता एक बहुत अच्छी खूशबू .......और अब जब कभी इस तरह की मोटी मलाई से मक्खन और घी तैयार होता है तो पूरे घर में बास फैल जाती है ...लेकिन फिर भी हम लोग वह घी खाते हैं ....मैं भी ले लेता हूं ...जिस तरह से शहर की एक दो १००-१५० साल पुरानी मशहूर दुकानों से खरीदी हुई मिठाई भी खा लेता हूं ....अपनी मूर्खतावश यह सोच कर कि इन का देशी घी तो ठीक ही होगा........लेकिन, नहीं, अब बहुत कम हो गया है ...अब तो एक दो दुकाने हैं ....जहां पर लड्डू और दूसरी मिठाईयों में देसी घी इस्तेमाल नहीं होता, वहीं से कभी कुछ खरीद लेते हैं ....क्या करें, ये लड्डू, इमरती की आदतें कहां छूटती हैं....
मलाई से याद आया ....जैसे आज महिलाएं नेटफ्लिक और विमेन-लिब की बातें करती हैं ....उन दिनों ऐसा कुछ न था, एक साथ बैठ कर स्वैटर बुनना, गपशप करना, अखबार-मैगज़ीन पढ़ना और उस में से स्वैटर के नए नमूने ढूंढना.....और अपने घर में आने वाले दूध की गुणवत्ता की बातें करना ....यही कुछ था हमारी माताओं और बड़ी बहनों की ज़िंदगी में ....और दूध की गुणवत्ता का एक ही पैमाना....मलाई की मोटाई .....😎😂 और उस से तैयार होने वाले देशी घी की मात्रा....
मज़े तो तब मक्खन के भी थे.....बॉसी रोटी के ऊपर लगा कर ऊपर से गुड़ की शक्कर उस पर उंडेल कर मज़ा आ जाता था....और आलू के परांठे पर, दाल में वह मक्खन डालते ही तुरंत महक छोड़ कर गायब हो जाता था ...लेकिन एक बात तो फिर भी है कि उन दिनों भी गाय भैंस को पसमाने के लिए (उसे दूध देने के लिए तैयार करने के लिए) अक्सर बछड़े को उस का स्तनपान करने के लिए छोड़ना कम तो हो गया ...और लोग उसे पसमाने की बजाए उसे ऑक्सीटोसिन का टीका ठोंकने लगे थे....अजीब तो लगता था, लेकिन हमें कुछ समझ नहीं थी, लेकिन जब मां के साथ होते तो मां भी और कुछ लोग और भी टोक ही देते उस टीका लगाने वाले को कि यह मत किया करो........लेकिन उन का अपना तर्क था कि यह ...और वह .....। खैर, उस टीके पर अपना कंट्रोल नहीं था, बहुत अरसा बाद हमें पता चला पढ़ाई लिखाई करने के बाद कि इस ऑक्सीटोसिन के इंजेक्शन का मतलब क्या है, क्या नुकसान हैं....एक ही सूई से सभी गाय -भैंसो को टीका लगाते रहते थे ....और टीका लगाना तो गलत लफ्ज है, वे तो सिरिंज को दूध से ला कर जैसे गाय भैंस को टीका ठोक देते थे ....मोटी सी स्टील की सूई ....मुझे तो कईं बार डर भी लगता कि कहीं सूईं टूट गई तो ...वैसे भी जानवर को उस टीके की ठुकाई से कितना दर्द होता होगा....हम सोच सकते हैं ...
आज की मलाईदार बातें यही खत्म ....मुझे तैयार हो कर काम पर निकलना है ...देर हो जाएगी...लिखने का क्या है, बातें याद आती जाएंगी और लिखते चले जाएंगे. वैसे यह बात तो पक्की है कि हमारे वक्त की मलाईयां हमें लुभाती थीं, अब डराती हैं....वैसे अगर कहीं शुद्ध भी मिल जाए तो डाकटर लोग ही डरा देंगे ....इस पोस्ट को बंद करते ख्याल आया कि जब भी मक्खन मलाई की बातें करते हैं तो वह माखनचोर, यशोदा का नंदलाला का याद न आए, ऐसा कैसे हो सकता है....तो फिर इसे सुनिए.....यशोदा का नंद लाला और इसे भी ज़रूर सुनिए ... बडा़ नटखट है ...
(Disclaimer- Obviously, these are my personal views in my blog, may be some problem with the brand that we use....may be! --- everyone is free to explore his own truth and act as per his/her doctor's advice while making decisions about their diet)