बुधवार, 13 मार्च 2024

पावडर वाले दुध दी मलाई मार गई....

आज से पचास बरस पहले जब रोटी, कपड़ा और मकान फिल्म आई तो उस का यह गीत ...महंगाई मार गई जो प्रेमनाथ पर फिल्माया गया था, हमें बहुत पसंद था, रेडियो पर बजता था, गली मोहल्ले में जब कोई जश्न या ब्याह-शादी होती तो बड़े बडे़ स्पीकरों पर बहुत से गीत बजते थे ..उनमें से यह भी बहुत बजता था...उस में एक लाइन यह भी है ..पावडर वाले दुध दी मलाई मार गई....

हमें उन दिनों पता ही नहीं था कि यह पावडर वाला दुध होता क्या है, उस के दो चार बरसों बाद जब हमारी बड़ी बहन अपनी बेटी को दूध की बोतल में पावडर घोल कर पिलाया करती थी ..लोक्टोजेन शायद ...मैंने पहली बार उस दूध वाले पावडर के दर्शन किए थे ...१५ बरस की उम्र में ....बस, मुझे यही लगता था कि यही पावडर वाला दूध है जिसे मेैं बडे़ चाव से खाता रहता था जितने दिन भी वह हमारे पास होतीं...उन्होंने कभी टोका नहीं, रोका नहीं ....अभी भी याद करता हूं तो हंसती हैं....




आज से ५०-६० बरस पहले की दूध की बात करें तो ज़ाहिर सी बात है कि मलाई का ज़िक्र होना लाज़िम है ....मुझे आज लिखने का यह ख्याल इस वक्त इसलिए आया कि मैंने अभी चाय बनाने के लिेए जैसे ही दूध का पतीला फ्रिज में से निकाला उसमें जिस मलाई के दर्शन हुए, उसे देख कर मैं डर गया...यह कोई सनसनी फैलाने वाली बात नहीं है, हो सकता है कि आज कल पैकेट का दूध इतना बढ़िया क्वालिटी का आने लगा हो कि उस एक किलो में मलाई के ऐसे अंबार लग जाते होंगे ...मुझे इस का कुछ इल्म नहीं है, बस लिख रहा हूं ....क्योंकि मैं इस तरह की मोटी मलाई के बारे में पिछले लगभग २५-३० बरसों से सोच रहा हूं ....लोगों से बात भी करता हूं लेकिन इस का राज़ नहीं जान पा रहा ......लेकिन दूध एवं दूध से बनी सभी चीज़ें मैंने कई सालों से बंद कर रखी हैं ...दूध को तो पिए शायद १० साल ही हो गए होंगे ...(यह कोई मशविरा नहीं है किसी को, ध्यान दें, यह केवल एक आपबीती है अपनी ही डॉयरी में लिखने के लिए)....चाय मुझे हरी, पीली, हर्बल, फर्बल कभी भाई नहीं, झूठी तारीफ़ होती नहीं, आखिर करें भी क्यों, लेकिन जो हिंदोस्तान की साधारण चाय है उसमें थोड़ा बहुत दूध तो जाएगा ही न ...बस, दूध से मेरा उतना ही वास्ता है....दही या रायते के दो चम्मच कईं बार किसी सब्जी के साथ मजबूरी वश लेने पड़ते  हैं.....दिली इच्छा होती है कि दूध से बनी कोई मिठाई, या देसी घी से तैयार कुछ भी न खाऊं....कोई थमा देता है तो परेशान हो जाता हूं ...क्या करूं इस का ....मजबूरी वश चख लेता हूं...लेकिन किसी पार्टी वार्टी में मूंग  के दाल के हलवे, गाजर के हलवे पर जैसे टूट पड़ता हूं ....फिर अपराध बोध से परेशान होता हूं ...इसलिए मुझे कहीं भी आना जाना भी पसंद नहीं हैं, क्योंकि उस वक्त मैं अपने खान-पान पर कंट्रोल नहीं कर पाता ...

हां, तो बात चल रही थी मलाई की .....अभी लिखते लिखते सोच रहा हूं कि इतनी मोटी मोटी मलाई का रोना रोने मैं इसलिए बैठ गया कि हम ने ५०-५५ बरस पहले मलाई को उस के सही रूप में देखा हुआ है ....बिल्कुल पतली सी मीठी मीठी मलाई को परत हुआ करती थी दूध पर ...जिसे हम लोग शक्कर के साथ खा जाते, या टोस्ट पर लगा कर खा जाते ...और वह मलाई खाने के लिए भी एक दो दिन इंतज़ार करना पड़ता था ...क्योंकि उस मीठी मलाई पर हाथ साफ करने वाले हम ही तो न थे, भाई बहन भी थे.....😂 

अब कोई इस पोस्ट को पढ़ने वाला यह कहे कि भाई मैंने मलाई का सही रूप देखा नहीं होगा....मलाई अगर तुम्हारे यहां पतली होती थी तो ज़रूर तुम लोग जहां से दूध लाते थे उन की भैंसे कमज़ोर होंगी.....इस तर्क के आगे मैं कुछ न कहूंगा...केवल नतमस्तक हो सकता हूं क्योंकि मैें तो सिर्फ और सिर्फ आंखों देखी ब्यां कर रहा हूं...

दूध लेने उन दिनों हम लोग डोलू ले कर जाते थे ...कभी पैदल कभी साईकिल पर ..साईकिल पर जाते वक्त थोड़ा ध्यान रखना पड़ता था क्योंकि साईकिल पर डोलू टांगने से वह छलक जाता था अकसर और एक हाथ में डोलू पकड़े पकड़े साईकिल चलाना कईं बार थोड़ा मुश्किल भी होता था...एक तो अचानक ब्रेक वेक लगाने का चक्कर और दूसरा छोटी छोटी कोमल उंगलियां थक जाती थीं यार 😎....

जैसे ही हम घर में दूध पहुंचाते, मां को डोलू पकड़ाते ...तो मां का कवांटिटी एवं क्वालिटी चैक शुरु हो जाता ....मां कहती कि ये लोग नहीं सुधरेंगे ...आज भी इतनी झाग डाल दी....मां कहती कि उस को कहा करो कि दूध मापने से पहले झाग तो मार लिया करे....हम सुन लेते लेकिन दूध वाले को कुछ नहीं कहते ...क्या करें हम ऐसे ही थे बचपन से ही .....चुपचाप, सहने वाले ...

अच्छा जी दूध चढ़ गया अंगीठी पर ....और कुछ ही वक्त के बाद उस की मलाई का जायजा लिया जाता ....अगर तो मलाई मोटी होती (नहीं, बि्लकुल ऐसी नहीं जैसी आप इस फोटो में देख रहे हैं.....) सब ठीक, अगर मलाई हुई पतली तो फिर मां को लगता आज फिर डेयरी वाले ने पानी ठेला लगता है ....पहले ग्राहकों की आंख चुरा के यह काम पूरे ज़ोरों पर था ...हर रोज़ डेयरी वालों के पास दो चार ग्राहकों की यही शिकायत सुनने को मिलती कि दूध पर मलाई ही नहीं आ रही .....लोग यह तो कह नहीं पाते कि दूध पतला है, या कुछ और लफड़ा है, लेकिन इतना तो कह ही देते ....एक दो दिन डेयरी वाला सुधरा रहता और मलाई मोटी आने लगती (उतनी तो कभी नहीं जो आप ऊपर फोटो में देख रहे हैं....😁...तीसरे दिन से फिर वही पतली मलाई....पतला दूध ....फिर एक वक्त वह भी आया कि लोगों ने यह तो मान लिया कि दूध में पानी तो मिलाते ही हैं ये लोग, लेकिन पानी तो कम से कम साफ मिलाया करें....) 

मलाई वलाई भी जो उन दिनों मां के प्यारे हाथों से खा ली, खा ली.....उस के बाद तो मलाई की तरफ़ कभी देखने की इच्छा नहीं हुई....इतनी इतनी मोटी मलाईयां.....क्या होगा इन में, क्या न होगा.....डर लगता है ..लखनऊ में रहते थे तो वहां पर मक्खन खूब बिकता है दुकानों पर, खोमचों पर .....देख कर डर ही लगता रहा हमेशा कि यार, क्या बेच रहे होंगे ये मक्खन के नाम पर.....किस दूध से तैयार होता होगा यह मलाई-मक्खन ...एक आध ट्राई करने के लिए खा भी लिया होगा...

आज से ५०-६० बरस पहले जो हम लोग दूध अपने सामने गाय-भैंस से दुहलवा कर लाते थे उस मलाई की तो बात ही क्या थी, जब कभी उस का मक्खन, घी तैयार होता तो जैसे सारा घर महक जाता एक बहुत अच्छी खूशबू .......और अब जब कभी इस तरह की मोटी मलाई से मक्खन और घी तैयार होता है तो पूरे घर में बास फैल जाती है ...लेकिन फिर भी हम लोग वह घी खाते हैं ....मैं भी ले लेता हूं ...जिस तरह से शहर की एक दो १००-१५० साल पुरानी मशहूर दुकानों से खरीदी हुई मिठाई भी खा लेता हूं ....अपनी मूर्खतावश यह सोच कर कि इन का देशी घी तो ठीक ही होगा........लेकिन, नहीं, अब बहुत कम हो गया है ...अब तो एक दो दुकाने हैं ....जहां पर लड्डू और दूसरी मिठाईयों में देसी घी इस्तेमाल नहीं होता, वहीं से कभी कुछ खरीद लेते हैं ....क्या करें, ये लड्डू, इमरती की आदतें कहां छूटती हैं....

मलाई से याद आया ....जैसे आज महिलाएं नेटफ्लिक और विमेन-लिब की बातें करती हैं ....उन दिनों ऐसा कुछ न था, एक साथ बैठ कर स्वैटर बुनना, गपशप करना, अखबार-मैगज़ीन पढ़ना और उस में से स्वैटर के नए नमूने ढूंढना.....और अपने घर में आने वाले दूध की गुणवत्ता की बातें करना ....यही कुछ था हमारी माताओं और बड़ी बहनों की ज़िंदगी में ....और दूध की गुणवत्ता का एक ही पैमाना....मलाई की मोटाई .....😎😂 और उस से तैयार होने वाले देशी घी की मात्रा....

मज़े तो तब मक्खन के भी थे.....बॉसी रोटी के ऊपर लगा कर ऊपर से गुड़ की शक्कर उस पर उंडेल कर मज़ा आ जाता था....और आलू के परांठे पर, दाल में वह मक्खन डालते ही तुरंत महक छोड़ कर गायब हो जाता था ...लेकिन एक बात तो फिर भी है कि उन दिनों भी गाय भैंस को पसमाने के लिए (उसे दूध देने के लिए तैयार करने के लिए) अक्सर बछड़े को उस का स्तनपान करने के लिए छोड़ना कम तो हो गया ...और लोग उसे पसमाने की बजाए उसे ऑक्सीटोसिन का टीका ठोंकने लगे थे....अजीब तो लगता था, लेकिन हमें कुछ समझ नहीं थी, लेकिन जब मां के साथ होते तो मां भी और कुछ लोग और भी टोक ही देते उस टीका लगाने वाले को कि यह मत किया करो........लेकिन उन का अपना तर्क था कि यह ...और वह .....। खैर, उस टीके पर अपना कंट्रोल नहीं था, बहुत अरसा बाद हमें पता चला पढ़ाई लिखाई करने के बाद कि इस ऑक्सीटोसिन के इंजेक्शन का मतलब क्या है, क्या नुकसान हैं....एक ही सूई से सभी गाय -भैंसो को टीका लगाते रहते थे ....और टीका लगाना तो गलत लफ्ज है, वे तो सिरिंज को दूध से ला कर जैसे गाय भैंस को टीका ठोक देते थे ....मोटी सी स्टील की सूई ....मुझे तो कईं बार डर भी लगता कि कहीं सूईं टूट गई तो ...वैसे भी जानवर को उस टीके की ठुकाई से कितना दर्द होता होगा....हम सोच सकते हैं ...

आज की मलाईदार बातें यही खत्म ....मुझे तैयार हो कर काम पर निकलना है ...देर हो जाएगी...लिखने का क्या है, बातें याद आती जाएंगी और लिखते चले जाएंगे. वैसे यह बात तो पक्की है कि हमारे वक्त की मलाईयां हमें लुभाती थीं, अब डराती हैं....वैसे अगर कहीं शुद्ध भी मिल जाए तो डाकटर लोग ही डरा देंगे ....इस पोस्ट को बंद करते ख्याल आया कि जब भी मक्खन मलाई की बातें करते हैं तो वह माखनचोर, यशोदा का नंदलाला का याद न आए, ऐसा कैसे हो सकता है....तो फिर इसे सुनिए.....यशोदा का नंद लाला    और इसे भी ज़रूर सुनिए ... बडा़ नटखट है ...

(Disclaimer- Obviously, these are my personal views in my blog, may be some problem with the brand that we use....may be! --- everyone is free to explore his own truth and act as per his/her doctor's advice while making decisions about their diet) 

शनिवार, 2 मार्च 2024

पनीर के बारे में हम पहले ही से थे फ़िक्रमंद

इसी फ़िक्र के चलते ही हम ने पिछले 20-25 बरसों से बाज़ार से कभी पनीर खरीदा नहीं ....2002 के आसपास की बात है हम लोग जहां रहते थे वहां दूध-दही की नदियां बहा करती थीं किस्सों में ....इसलिए हम भी वहां पहुंचते पनीर, और मिठाईयों (विशेषकर बर्फी, छैना ...) पर टूट पड़े ...फिर नकली दूध, नकली और मिलावटी पनीर, नकली दूध से बनी मिठाईयों की खबरों ने ऐसा हिला कर रख दिया कि यह सब खाना बहुत कम हो गया....और पनीर तो बाज़ार से खरीदना बंद ही हो गया...लेकिन सोचने वाली बात है कि घर में जो पनीर बनेगा वह भी दूध तो उसी से बनेगा जो बाज़ार में मिल रहा है ....अब घर में कभी एक दो अच्छी ब्रांडेड कंपनियों के पनीर के पैकेट दिख जाते हैं...(सोचने वाली बात यह है कि जिस फूड-चेन के प्रोडक्ट्स में एनॉलॉग पनीर की बात पिछले दिनों हम लोगों ने पढ़ी-देखीं, वे भी तो अच्छी ही हैं....बुरा कुछ भी तो नहीं यहां 😂

बातें ऐसी सिर दुखाने वाली हैं सच में ....लेकिन अपने अनुभव लिख देने चाहिए, शायद किसी को कोई रास्ता दिखे या हमारे रास्ते में जो गलतियां हैं कोई हमें उस के बारे में ही बता दे, लेकिन अगर लिखेंगे नहीं तो बात कैसे बनेगी....बचपन से पनीर बहुत पसंद रहा है, इस के पकोड़े, इस की भुर्जी और आलू-मनीर और मटर पनीर की सब्जी जिस के लिए पहले पनीर को अच्छे से फ्रॉई किया जाता था पहले....ज़िंदगी की उस अवस्था में किसी फ़ुर्सत होती है यह देखने की जो वह खा रहा है, वह क्या है ....बस स्वाद ही सर्वोपरि होता है ....लेकिन जैसे ही कुछ 20-25 बरसों से इस नकली और मिलावटी पनीर की खबरें पढ़ीं तो बस बाहर से पनीर खरीदना लगभग बंद ही हो गया....

हां, लिखते लिखते याद आ रहा है यह कोई 20 साल पहले की बात है ...वही दूध-दही की नदियों वाले इलाकों की ....जब अखबारों में यह आने लगा कि पनीर बनाने के लिए जो दूध फाड़ते हैं डेयरी वाले उसमें किसी एसिड का इस्तेमाल किया जाता है ....मुझे याद है कि मां की टिप्पणी यह होती थी कि अब अगर वे दूध के फाड़ने के लिए नींबू का इस्तेमाल करने लगें तो हो चुका उन का धंधा......लेकिन फिर भी ये सब पढ़ कर बाहर के पनीर से बेरुखी सी हो गई ....यहां तक कि किसी भी ब्याह-शादी-पार्टी में पनीर खाना बंद दिया...

बाहर से पनीर खरीदना ही नहींं, कहीं भी बाहर ---किसी पार्टी में, किसी शादी-ब्याह में, बड़े से बड़े रेस्ट्रां में खाते वक्त भी पनीर कभी चखते तक नहीं, कभी उस पीली दाल के साथ मजबूरी वश एक दो चम्मच शाही पनीर की ग्रेवी लेनी पड़ जाती है ....यही कारण है मुझे कहीं भी खाने वाने के लिए बाहर जाना पसंद नहीं है ...दारू पीनी नहीं, नॉन-वेज भी नहीं, पनीर भी नहीं, कोई मिल्क प्रोडक्ट भी नहीं तो फिर बाहर खाने जाना ही क्यों है.....(हां, जो बात आप के मन में आ रही है वह मैं भी सोचता हूं कि फिर जी ही क्यों रहे हैं ...😎...यह जीना भी कोई जीना है लल्लू)....दाल-रोटी में तो न तो दाल अपने स्वाद की मिलती है और रोटियां भी कच्ची पक्की ....बाहर कभी खाना मेरे लिए किसी सज़ा भुगतने जैसा है ....वही जाता हूं जहां जाने से बचा नहीं जा सकता....😎....खाने पीने के बारे में और भी बता दूं कि शायद दस साल तो कम से कम हो गए होंगे दूध नहीं पीता हूं, दही भी एक दो चम्मच मजबूरी में कभी लेने पड़ते हैं ....लेकिन यह जो मैं ब्लॉग में लिख रहा हूं यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, इस को फॉलो मत करिए, पढ़ने वाले अपनी सेहत के खुद जिम्मेदार हैं ....मेरी लिखी हुई बातों के भरोसे मत रहिए....लेखकों का काम कईं बार इशारे इशारे में अपनी बात कहनी होती है .....अपनी सेहत, अपने खान-पान के सभी फैसले खुद और अपने चिकित्सक की सलाह के मुताबिक करिए.....जहां तक मेरी बात है, मैं भी वही करता हूं जो मुझे मुनासिब जान पड़ता है, सदियों से चली आ रही खाने-पीने की धारणाओं के बहाव के विरूद्ध चलना मुश्किल होता है ....लेकिन हर इंसान के फ़ैसले अपने होते हैं ....होने भी चाहिए...क्योंकि सही गलत के लिए वह खुद जिम्मेदार होता है ...

कुछ दिन पहले उस बड़ी सी फूड-चेन में अनॉलॉग पनीर के बारे में चिंता हुई ....मैं तो वहां से एक बर्गर के अलावा कभी कुछ खाता नहीं था (वह भी साल में एक दो बार) .....लेकिन जिस तरह से आज के जवान पनीर के दीवाने हैं, बड़े ब्रांड के पनीर वाले बडे़ पकवानों के दीवाने हैं, यह चिंता का विषय़ तो है ही ...

यही साहसी पत्रकारिता है ...मुंबई वासी क्यों टाइम्स ऑफ इंडिया के दीवाने हैं, यह तो इसे पढ़ने वाले ही जानते हैं ...किसी भी तस्वीर के सभी रूख दिखाने में अव्वल है टॉइम्स, इस का पाठक कभी भी ठगा हुआ सा महसूस नहीं करता ...(टाइम्स आफ इंडिया की रिपोर्ट ...दिनांक 1 मार्च 2024) 

 इस विषय़ पर मेरा कुछ लिखने का मन तो नहीं था, क्या हर वक्त अपनी ही हांकते रहें, लेकिन जब से उस फूड-चेन की इस तरह की खबरें पढ़ी थीं, मन में बड़ी उथल-पुथल सी मची हुई है.....आज सुबह जल्दी उठ गया....पहले तो सत्यजीत रे की कहानी Fritz पढ़ी, नेट पर नहीं, किताब में .....मुझे उन को पढ़ना अच्छा लगता है, फिर सामने कल की अखबार पर नज़र पड़ गई ....कल पढ़ी तो थी, कैसे छूट गया इस रिपोर्ट को पढ़ना.....हैरानी भी हुई ...इसे आराम से पढ़ा और फिऱ अपनी बात लिखने बैठ गया.....😂

मिलावट वैसे तो हमारे बचपन के दिनों से ही खाने-पीने की चीज़ों मे शुरू हो चुकी थी .....लेकिन इस का पता हमें रोटी-कपड़ा-मकान के इस गीत से ही चला था ....पावडर वाले दूध की मलाई मार गई ....(यह फिल्म छठी सातवीं जमात के दिनों में अमृतसर में देखी थी)  फिर भी लगता है मिलावट आटे मे नमक के बराबर रही होगी उस दौर में ....अब तो दाल में कंकड़ ही कंकड़ हैं....ऐसे लगता है, हर चीज़ खाते वक्त सोच विचार करना पड़ता है ....

रविवार, 11 फ़रवरी 2024

६० साल पुराना एफिडेविट - दारु परमिट के लिए

 


दो दिन पहले मुझे अपने हाथ से एक ६० साल पुराने एफिडेविट को छूने का और अच्छे से पढ़ने का मौका मिला...तब से मैं बहुत हैरान हुआ....

यह एफिडेविट पचास नए पैसे के स्टांप पेपर पर लिखा हुआ था- जी हां, हाथ से लिखा हुआ था...जिस पर १ रूपए की कोर्ट फीस की टिकट भी लगी हुई थी....और इस शपथ-पत्र में लिखा यह था ..... 

मैं .......(नाम) , उम्र लगभग ५५ साल, (पूरा पता) बम्बई का रहने वाला हूं - do hereby state on solemn affirmation as under - 

१. मेरी पैदाइश बंबई की है ...तारीख लिखी थी ...और मैं तभी से बंबई का नागरिक हूं।  

२. मुझे लिकर-परमिट की ज़रूरत है, डाक्टरी प्रमाण पत्र (नाम एवं इलाके सहित) दिनांक .......(१९६४) के अनुसार मेरी सेहत ठीक नहीं है। 

Whatever is stated above is true to my knowledge and belief. 

 

                प्रार्थी के हस्ताक्षर  

 

किसी वकील ने भी उस की शिनाख्त करते हुए हस्ताक्षर किए हैं। 

और उस पर बंबई के रजिस्ट्रार और प्रेज़ीडेंसी मैजिस्ट्रेट के भी हस्ताक्षर हैं। 

 

यह सारा एफिडेविट इंगलिश में हाथ से फाउंटेन पेन या होल्डर से लिखा हुआ है, केवल प्रार्थी के हस्ताक्षर ही हिंदी में हैं। 

यह १९६४ का है, पूरे ६० साल पुराना एफिडेविट ....मैं अपनी हैरानी को बहुत से लोगों के साथ बांट चुका हूं कि दारू पीने के लिए भी ऐसा परमिट लगता था ...

उत्सुकतावश मैंने फिर गूगल सर्च किया ....यह लिख कर के महाराष्ट्र लिकर परमिट १९६४ शपथ-पत्र, एफिडेविट ....इंगलिश में लिख कर सर्च किया....बहुत से रिजल्ट आए लेकिन ऐसा एफिडेविट कहीं दिखा नहीं ....परमिट तो होते ही होंगे ....उस दौर को परमिट राज भी कहते थे ....हर जगह परमिट, कोटा बंधा हुआ होता था ...राशन की दुकान में मिट्टी के तेल, शक्कर, आटे, चावल का और सीमेंट की दुकान में सिमेंट का, शायद कोयले का भी ...कोयले का तो मुझे अच्छे से पता नहीं ...लेकिन कोयले की दलाली करने वालों - 😎(दुकानदारों) को तो परमिट लगता ही था, मुझे किसी पुराने कोयले के डिपो का एक लड़का एक बार बता रहा था....

हम लोग बचपन में देखा करते थे, और बाद में भी कि कईं जगह पर किसी दारु की दुकान के साथ थोड़ी-बहुत जगह का जुगाड़ कर के उसके अंदर बैंच लगे होते, बाहर एक टॉट का टुकड़ा लटका होता और उस के बाहर बोर्ड लगा होता ....देसी दारु का मंज़ूरशुदा अहाता .....पंजाब ही में नहीं, हरियाणा में भी देखा ....ड्राई राज्यों को छोड़ कर सभी जगह होते ही होंगे ....अब देसी के साथ अंग्रेज़ी भी लिखा होता है ....

आज कल वैसे भी शराब की बिक्री को एक तरुह से बढ़ावा दिया जा रहा है ....गाड़ी कमाई हो रही है, एक्साईज़ टैक्स ही होता है न, इस की बिक्री से खूब कमाई होती है ...अब दारु ठेकों पर ही नहीं, दूसरी दुकानों या मॉल-वॉल में भी मिलने लगी है ....

लिखते वक्त भी उस ६० साल पुराने एक एफिडेविट का ख्याल आ रहा है कि इतने से काम के लिए भी लोग कैसे कानून का पालन करते थे ...और सरकारों को भी दारू की बिक्री से हासिल होने वाले टैक्स की ज़्यादा परवाह न थी....अब तो एक तथाकथित दारु घोटाले ने नेताओं की नींद उड़ा रखी है, कुछ तो नप चुके हैं कब के ....कुछ पर कार्रवाई की प्रक्रिया चल रही है ...

खैर, क्या वह पुराना दौर ही लाईसैंस, परमिट का था....आप को याद ही होगा िक पहले घर में रेडियो सुनने के लिए भी लाईसेंस बनता था डाकखाने में और रेडियो की क्वालिटी के मुताबिक (इंडियन है, या इंपोर्टेड या कितने बैंड का है, बैटरी वाला है या बिजली से चलता है) उस की लाईसेंस फीस तय होती थी.....मैंने एक बार उस लाईसैंस की फोटो भी साझा की थी, फिर कभी कर देंगे....१५ रूपये साल के लगते थे बढ़िया रेडियो को घर में रखने के लिए, और मैं जिस दौर की बात कर रहा हूं ....१९७० के आस पास की, उन दिनों मैंने भी डाकखाने में रेडियो के लिए ३-४ या पांच रूपए की लाईसैंस फीस भरी हुई है  ........

सही बात है हमने दूरी तो काफी तय की है ....बड़े चेलेंज रहे हैं हमारे लोगों के सामने, खैर, वे तो हैं अभी भी, रहेंगे भी....बस, उन की टाईप बदल गई है....और जब कभी देसी दारु की बात चलती है या खुद ही याद आते हैं वे देसी दारु के अहाते, आम के अचार या उस के मसाले के ही साथ, तली हुई नमकीन दाल, या फिर सादे नमक को ही दारु के साथ थोड़ा चाट लेने वाले मंज़र याद आते हैं, अखबारों में देसी दारु से अचानक बीसियों लोगों का अपनी जान खो देना और अपनी आंखें खो देना याद आता है .....तो उसी वक्त एक अहाते में ही फिल्माया गया यह सुपर-डुपर ...सुपर-सुपर -डुपर गीत भी याद आए बिना नहीं रहता ...

अपने घर में दारु पीने के लिए भी परमिट की ज़रुरत वाली बात तो कभी भूलने वाली नहीं मुझे.....