15.9.23
आज शाम मैं पैदल स्टेशन की तरफ़ जा रहा था तो मेरी निगाह अचानक मेरे आगे चल रहे एक शख्स पर पडी जिसने स्टोव उठा रखा था....मुझे याद नहीं इस तरह से स्टोव को हाथ में उठाए मैंने आखिरी बार कब देखा था...वह भी स्कूल और कभी कालेज के दिनों में ही ...मैंने झट से इस मंज़र की एक-दो तस्वीरें खींच लीं....क्योंकि एक दो पिछले साल एक एंटीक शॉप में ही देखा था इस तरह का स्टोव...बाकी तो यह सब अब कहां दिखता है...
इंसान भी कितना जिज्ञासु जीव है ...फोटो खींच लेने के बाद मुझे यह चाह होने लगी कि किसी तरह इस शख्स से दो बातें भी हो जाएं...बस फिर क्या था, मैं दो चार कदम तेज़ चला और उस के पास पहुंच कर मुस्कुराते हुए कहने लगा कि आज मुद्दतों के बाद इस स्टोव के दर्शन हुए ....मेरी बात सुन कर वह भी हंसने लगा ...बस, फिर बात चल निकली।
उस ने बताया कि यह स्टोव उस के पड़ोस में अकेले रहने वाली एक बुढ़िया काकी का है ....उन का पति सरकारी नौकरी करता था, रिटायर होने के बाद अब वह परलोक सिधार चुके हैं, महिला को पेंशन आती है, आराम से बैठ कर खाती है...फ्लैट अपना है उस काकी का ...दो बेड-रूम वाला ....एक लड़की है जिस की शादी हो चुकी है और वह इंगलैड में रहती है। काकी कहीं आती जाती नहीं, और अगर कहीं जाना भी हुआ तो टैक्सी में ही जाती है, मैं उस की मदद के लिए साथ चला जाता हूं।
वह अपने आप ही कहने लगा कि घर का सामान, सब्जी-फल सब वह ही लाता है..दस बीस रूपये दे देती है ..चाय पिला देती है ...वह कहने लगा कि वैसे तो मदद करने के एवज़ में किसी से कुछ लेना नहीं चाहिए...मैंने कहा, ऐसी क्या बात है, वह खुशी से ही तो देती है तु्म्हें अपना समझ कर। हां. हां --वह कहने लगा कि यह तो है और अगर कभी उस की चाय न पियो तो नाराज़ हो जाती है, गुस्सा करती है कि तुम मेरी चाय भी नहीं पीते। कहने लगा कि आधार कार्ड दिखा रही थी मुझे कुछ दिन पहले 1931 का जन्म है उस काकी है।
1.10.23
मैंने अभी देखा मैंने इस पोस्ट को लिखना तो दो सप्ताह पहले शुरू किया था ...लेकिन याद है कि अचानक लिखते लिखते नींद आ गई...सो गया...और फिर कभी इसे पूरा करने की इच्छा ही न हुई।
अब देखता हूं लिखते लिखते क्या बातें उस दिन की याद हैं ..बची खुची। लिखना ज़रुरी है ...कुछ भी जो मन में आए लिखते रहा करें...कुछ भी ...बरसों बाद यही साहित्य कहा जाएगा..। हां, मैंने पूछा कि कहां से इस स्टोव को मुरम्मत करवा लाए। उसने जगह का नाम बताया ....और यह भी बताया कि मुरम्मत पर 50 रूपए खर्च हुए हैं...
चलते चलते मुझे ख्याल आया कि मिट्टी का तेल (घासलेट, केरोसीन) तो आज कल मिलता नहीं है....उसने बताया कि सब मिलता है ..लेकिन अब सफेद रंग में मिलता है और 100 रुपए लिटर मिलता है। वह उस काकी के लिए खरीद के लाता है। रास्ता अभी पड़ा था...और मैंने उस से यह भी पूछ ही लिया कि जैसे एक स्टोव खराब हो गया तो जब तक वह ठीक नहीं हो जाता तब तक उस वृद्धा का खाने-पकाने का काम कैसे चलता है। उसने बताया कि काकी बहुत होशियार है, उसने दो स्टोव रखे हुए हैं, चकाचक हालात में हैं दोनों...एक खराब हुआ तो दूसरे स्टोव से उस का काम चल जाता है।
मैंने उस से कहा कि आज के ज़माने में भी स्टोव का इस्तेमाल करना ...कुछ हैरान सा करता है। कुकिंग गैस का कनेक्शन क्यों नहीं ले लेतीं वह ...यह सुन कर उसने बताया कि ले सकती हैं, ज़रूर ले सकती हैं लेकिन उसे गैस के चूल्हे से आग लग जाने का डर लगता है ....
मुझे उस की यह बात सुन कर यह ख्याल आया कि यह जलने-जलाने का सिलसिला तो स्टोव के दिनों में भी होता रहा ....मुझे याद है हम छोटे छोटे थे, मां जब स्टोव को जलाने के लिए संघर्ष कर रही होती बार बार पिन मार मार कर और अगर हम साथ ही बैठे होते तो हमें झट से परे कर देती कि दूर रहो, यह अचानक कईं बार धधक पड़ता है ....हम दूर हो जाते ..वह लगी रहती।
मुझे याद है वर्ष 1972 दिसंबर के आखरी हफ्ते में हमारे यहां अमृतसर में कुकिंग गैस आई थी, कुल खर्च दो सौ रुपए से कम आया था ...सिलेंडर उन दिनों 21 रूपये का होता था.(इस की रसीद बरसों पहले मुझे मेरे पिता जी की लोहे की संदूकची में पड़ी मिली थीं जिस में वह ज़रूरी कागज़ रखते थे) ....दूसरा सिलेंडर उन दिनों नहीं मिलता तो, कईं कईं दिन बुकिंग करवाने के बाद इंतज़ार करना होता था, वेटिंग लिस्ट हुआ करती थी, काला बाज़ारी ज़रूर होती होगी, सुनते थे ...लेकिन अपने पास ये सब साधन नहीं थे, इसलिए इत्मीनान से मां अपनी पुरानी अंगीठी और स्टोव का रुख कर लेती।
जहां तक मेरी यादाश्त मेरा साथ दे रही है ....गैस सिलेंडर खत्म होने पर या घर में कुकिंग गैस आने से पहले घर में अंगीठी का ही ज़्यादा इस्तेमाल होता था... स्टोव कभी कभी एमरजेंसी में जलाया जाता था क्योंकि मिट्टी का तेल भी उन दिनों राशन की दुकान से ही मिलता था ...यही कोई पांच लिटर महीने का ...और वह राशन की दुकान वाला बड़ा धूर्त था ...कितने चक्कर लगवाता था, बड़ी बहन के लेडी-साईकिल के कैरियर के पीछे पांच लिटर की पीपी लेकर वहां जाना याद है ....और पांच लिटर की उस की क्षमता होते हुए भी वह उसमें पांच लिटर तेल जब डाल देता तो भी वह ऊपर तक न दिखता ....घर आने पर जब मां देखती कि कितना कम है, तो वह भी उसे कोसने लगती....खैर, दिन बढ़िया चल रहे थे ....मिट्टी का तेल तो शायद दूसरी दुकानों से भी मिल ही जाता होगा और कभी हम लोग ले भी आते होंगे ...एमरजैेंसी में ....लेकिन यह सब ब्लैक में कैरोसीन हो या सिनेमा की टिकटें खरीदना ....यह अपने लिए कभी सिरदर्दी न रहा क्योंकि हम लोग हैंथ टू माउथ जीने वाले लोगों की श्रेणी में आते थे ...अब तो कईं फेशुनेबल लफ़्ज़ आ गए हैं ...शू-स्ट्रिंग बजट पर जीना .....इत्यादि इत्यादि ....सही मायने वही लोग जानते हैं जो उस वक्त के साक्षी रहे हैं...
हां, तो अंगीठी तो तभी जलाई जाती थी जब सारा खाना उस पर पकाया जाना होता...लेकिन ऐसे ही चाय वाय उबालने के लिए, दूध गर्म करने के लिए स्टोव ही जला लिया जाता...गैस आने के बाद अंगीठी और चूल्हा दूर होते गए, लेकिन तब भी बढ़िया सी दाल और सरसों का साग इस की आंच पर ही पकता....गैस पर पके हुए सरसों का साग हमे बकबका लगता, दाल भी फीकी लगती ....हा हा हा हा हा ......यह तो हम थे, उन दिनों लोग यह भी शिकायत करने लगे थे अड़ोस-पड़ोस में कि जब से गैस आई है उन के तो पेट मे गैस बनने लगती है ...😎😀 ...वैसे तो जब नए नए स्टील के बर्तन 1970 के आस पास चलने लगे तो यह अफवाह आम थी कि इन के इस्तेमाल से कैंसर हो जाता है ...😇
पीतल का स्टोव मुझे अच्छे से याद है जिस को बार बार मुरम्मत के लिए ले जाना पड़ता था कभी उस का कुछ खराब हो जाता तो कभी कुछ ...लिखते लिखते बातें याद आ जाती है...उन दिनों हमने यह भी सुना था कि कईं बार कोई स्टोव फट गया ....किसी का चेहरा जल गया...मां को इसलिए भी स्टोव से बड़ा खौफ़ लगता था ....उसे एकदम चालू हालत में रखती थीं...मुझे इतना याद है कि जब बहुत छोटे थे तो हमें पांच पैसे की स्टोव की पिन लेकर आनी होती थी ...पांच पैसे की पांच ...जिस से स्टोव को जलाने में मदद मिल जाती थी ...कईं बार दो तीन पिन बार बार स्टोव के सुराख में जब वह न जलता तो मैं परेशान हो जाती ....थक भी जाती होंगी, झुंझलाती भी होंगी ...लेकिन नहीं खाना तो पकना ही होती, चाय और परांठे भी तैयार होने होते ...इसलिए झट से अंगीठी जलाने की तैयारी करने लगती ....कईं बार सोचता हूं तो लगता है कि मेरी उम्र के अधिकतर लोगों ने भी बहुत से दौर देखे हैं, हम बदलते वक्त के गवाह रहे हैं...और हां, स्टोव जलाने के लिेए एक कॉक भी तो हुआ करता था जिसे मिट्टी के तेल के छोटे से डिब्बे में डुबो कर रखा जाता था ...यह भी स्टोव जलाने में मददगार होता था ...
हां, जब गैस आ गई तो धीरे धीरे जागरूकता के चलते अंगीठी तो रसोई के बाहर ही रखी जाती और स्टोव भी ....उन दिनों हम लोग बहुत डरते थे गैस से ...दिन में जितनी बार गैस को जलाना, उतनी बार बुझा कर, नीचे से उस की नॉब को घुमा कर बंद भी करना ...कस कर ....इतना कस कर कईं बार कि अगली बार मां से वह खुल ही न पाए या कईं बार तो उस गैस की नॉब की चूड़ीयां ही घिल जाती होंगी ....(एक आध बार ऐसा हुआ भी ....पता नहीं क्यों)....
घर में 1972 के आखरी दिनों में गैस आने की बात याद आती है तो उस दिन पहली बार बनी चाय की भी याद आती है ....दो मिनट में चाय तैयार ....करिश्मा लग रहा था। गैस घर में पहुंचने के कुछ दिन पहले पता चल जाता था ...गैस एजैंसी के चक्कर काट काट के जूते घिसवाने के बाद, फिर रसोई में सीमेंट की एक स्लैब का प्रबंध किया गया....उस सरकारी मिस्तरी के लिए भी यह काम नया था ....उसने तो पक्की मजबूत स्लैब जब तैयार कर दी बिल्कुल लेंटर जैसी ....लेकिन जब तक गैस आ गई और उसे उस स्लैब पर रखा गया तो पता चला कि वह तो बहुत ऊची बन गई है ...उस पर काम करने के लिए मां को नीचे दो तीन ईंटे रखनी पड़तीं... परेशान हो गई मां ....फिर उस सरकारी मिस्तरी ने एक दूसरी स्लैब बनाई ....दूसरी दीवार पर ....पहले वाली से एक फुट के करीब नीचे ....फिर वह गैस की जगह बदल गई और पहली स्लैब पर बर्तन सजाए जाने लगे ....हा हा हा ....कुछ दिन पहले मैं और मेरी बड़ी बहन ये सब बातें याद कर खूब हंस रहे थे ....कुछ यादें होती ही ऐसी हैं....
लगता है बंद करूं अब इस पोस्ट को ....बहुत हो गया....गैस की लंबी प्रतीक्षा सूची और कनेक्शन मिल जाने के बाद भी किल्लत, मिट्टी के तेल की काला बाज़ारी.....ये सब बातें मेरी उम्र के लोग भुगत ही चुके होंगे ...लेकिन एक बार की बात है बचपन में जब गैस नहीं आई थी, तेल भी नहीं मिल रहा था और कोयला भी न मिल रहा था ...मुझे एक ही ऐसा वाक्या याद है कि मां ने चूल्हे पर रोटी बनाने के लिए लकड़ी के टॉल (लकड़ी की आरा मशीन) से लकड़ी के डक्क (पंजाबी लफ़्ज़ है लकड़ी के छोटे टुकड़ों के लिए) मंगवाए थे ...मुझे याद है मेरा बडा़ भाई उन को बोरे में ला रहा था ....मैं उस के साथ कुछ दूरी पर पैदल चल रहा हूं....
हम बहुत आधुनिक हो गए हैं....अब ज़माना है दाल सब्जी रोटी परांठे (रेडीमेड) का, रेडी़ टू इट, रेडी टू कुक ....गर्म करने का झंंझट नहीं, एक मिनट दाल को गर्म करने पर माइक्रोवेव में वह मुंह जला देती है ....लेकिन हम भी क्या करें, हमें अंधी दौड़ में पीछे न रह जाने की फ़िक्र है ....हम भाग रहे हैं....हमें अपने खाने-पीने से अब कुछ खास मतलब नहीं रहा ....पेट भर लेते हैं....और उस के नतीजे जो देश समाज के सामने आ रहे हैं, उस के बारे में भी हम सब जानते हैं.....
उस स्टोव वाले बंदे ने आज मेरी यादों के मकड़जाल को छेड़ दिया हो जैसे.....कुछ फिल्मी गाने भी अपने से लगते हैं, गुज़रे ज़माने के परिवेश से मिलते जुलते हैं.....याद दिलाते हैं उन्हीं दिनों की ....मां की भी ....